Saturday, June 27, 2020

दौर - ए -खिलाफ़

दौर-ए-ख़िलाफ़ हैं मुहब्बत की कुछ कह नहीं सकतें
उल्फ़त से भरी नगरी में अब कुछ पल‌ रह नहीं सकतें

शक-ए-सुबहा से होती है उनकी सुबह शुरु 
रात तक कुछ मिल सके यह कह नहीं सकते 

हर कोई लगाए हैं जाल फंसे उनके हिस्से का माल 
ये सब्र  बगुला कैसे  कब टूटे यह कह नहीं सकते 

 हर कोई एयार हैं दिल साफ़ नहीं किसी का 
 ऐसे में कोई  पीर बने यह  कह नहीं सकते 

खत्म दौर हुआ नबियों का शोहदे ही गुलजार हैं
ऐसे में जन्नत कहीं और है यह कह नहीं सकते 

निकले  ढूढ़ने बुरा  पर बुराई  ही सब ओर हैं 
कही गर अच्छाई  मिले यह कह नही सकते 

लत तो लगी है रह सकते नहीं कोई इनके बिन 
हम इस दौर के नहीं हैं ऐसा कह नहीं सकते

         -डॉ. अनिल भतपहरी /9617777514

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