Saturday, June 13, 2020

खुमान संगीत

तुम ये कैसे जुदा हो गये,
      हर तरफ हर जगा हो गये।
                                     -अज्ञात
     
         खुमान साव के निधन पर मैंने अपने मित्र श्री अनिल भतपहारी की पोस्ट पढ़ी। उनकी पोस्ट को पढ़कर मैं भी पुरानी यादों में खो गया। मुझे लोकरंजनी और सुर श्रृंगार जैसे कार्यक्रमो में बहते लोक-संगीत की महक अपने आस-पास ही महसूस होने लगी और याद आने लगे कुछ गीत जैसे-बटकी म बासी अउ चुटकी म नून, डोकरा के देखेंव दाई,एक पैसा के भाजी ला, तोला जोगी जानेव रे भाई, ये दे आगे फुल्ली बेचईया, धर ले रे कुदारी गा किसान,गुल गुल भजिया खाले, गज़ब दिन भई गे राजा तोर संग म नई देखेंव खल्लारी मेला, आदि गीत मेरे स्मृति पटल पर आने लगे।

       बहरहाल मैं यहाँ पर मामूली संपादन के साथ श्री अनिल भतपहारी जी की खुमान साव से संबंधित पोस्ट साझा कर रहा हूँ।
------------------------------------------------------------------------
यादें

छत्तीसगढ़ की फिज़ाओं में बहती 'खुमान संगीत' की       स्वर-लहरियां

सम्पूर्ण बंगाल में जिस तरह रविन्द्र संगीत की स्वर लहरियां गुंजायमान हैं उसी तरह छत्तीसगढ़ के संगीत प्रेमियों के लिए  'खुमान संगीत' एक अलग ही जादुई अहसास लिये हुए बहता है। 

मुझे अपने  पुराने दिन याद आते हैं। अपने पिताश्री
 (सुप्रसिद्ध रंगकर्मी व सतनाम संकीर्तन-कार सुकालदास भतपहरी "गुरुजी" ) के सानिध्य में मुझे गीत- संगीत और अभिनय आदि सीखने और उनका प्रदर्शन करने  का अवसर मिला । 

दशहरे - दीवाली  और गर्मी की छुट्टियों में मैं अपने गांव जुनवानी जाया करता तो घर  के आंगन में खाट पर बैठे पिताजी बाँसुरी से "का धुन बाजव मय धुनही बसुरिया"  वाले गीत की मधुर धुन छेड़ते।  मैं पास ही रखे हारमोनियम के साथ संगत करते हुए चिटिक अंजोरी निरमल छंइहा ... बजाने को कहता... और फिर खुमान साव की अनेक धुनें यूं ही यकायक हमारे साथ ही स्वाभाविक रूप से बहने लगतीं। 

आसपास के वातावरण में गजब की खुमारी छा जाती। शोर मचाते  हुए रेस-टीप(हाइड एंड सीक) और अंधियारी -अंजोरी खेलती हुई  बाल टोलियां और साथ ही निंदारस में डूबे  अन्य ग्रामीण बरबस ही हम बाप- बेटे की जुगलबंदी सुनने के लिये सकला जाते ... और फिर वे फरमाइशें करने लगते।
 
आकाशवाणी रायपुर से प्रति बुधवार दोपहर में  सुर-श्रृंगार सुनने हम स्कूल बंक करते ... और फिर गणित और रसायनशास्त्र वाले सर से डांट सुनते,लेकिन जब चौरा म गोंदा रसिया, मोर संग चलव रे, काबर समाए  रे मोर बइरी नयना मं, पान ठेला वाला, या मंगनी म मांगे मया नइ मिलय जैसे गीतों का मनन  करते तो  मन अल्हादित हो उठता और डांट-फटकार के दंश से अपने को मुक्त समझने लगते।

उनके गीत विगत ४० वर्षों से सैकड़ों-हजारों बार सुनते व गुनगुनाते आ  रहे हैं, पर मन नही अघाता...पता नही कौन सा जादू है इनमें कि फिल्मी गीत भी इनके समक्ष बेहद हल्के लगते हैं।

लक्ष्मण मस्तुरिहा के गीत, खुमान साव का संगीत और रामचंद्र देशमुख का चंदैनी गोंदा लोक मंच...इन तीनों का बेहरारीन संयोजन पिछले ५०-६० वर्षो से छत्तीसगढ़ की माटी की सौंधी-सौंधी के साथ हमारे मन में रचा-बसा हुआ है। यह संयोजन छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक विरासत को समृद्धि की ओर ले जाने में मील का पत्थर सिद्ध हो रहा है। इन तीनो के बिना छत्तीसगढ के सांस्कृतिक नक्शे का  चित्रण संभव ही नही है।

अनेक  गीतों में अपने  बेहतरीन संगीत संयोजन से जनमानस को मुग्ध व आनंदित करने वाले और छत्तीसगढ़ी संगीत को  शिखर तक ले जाने वाले महान संगीतकार खुमान साव जी  को विनम्र श्रद्धांजलि ।
 
वे गये नहीं हैं बल्कि छत्तीसगढ़ की फिज़ाओं में बिखर गये है।
  
-डा अनिल भतपहरी

No comments:

Post a Comment