Saturday, June 20, 2020

पुरी मंदिर मूर्ति रथयात्रा

पुरी का मंदिर मूर्ति  व रथयात्रा 

जगन्नाथ मंदिर बौद्ध मंदिर हो सकते हैं।
यहाँ की  मूर्तियाँ बौद्ध लामाओं की तरह  तिब्बती यक्ष शैली में हैं। दो यक्ष साधक और मध्य में साधिका है ।‌(इनका विस्तार पुरा उत्तर पूर्वी परिक्षेत्र में हैनेपाल तिब्बत भूटान सिक्किम असम  उडीसा छत्तीसगढ़ में यह परिव्याप्त हैं।)
इन बौद्ध यक्ष साधको को ही कृष्ण सुभद्रा बलराम कहे गये।ऐसा जान पड़ता है।
जबकि शेष जगह इन तीनो भाई बहनो का कही कोई प्रतिमा न मंदिर नहीं । तो यही अचानक भयानक क्यो? वह भी सुदूर द्वारिका / मथुरा से  वहा ऐसा क्यो नही ?
  कहानियाँ व गाथाए तो बाद में गढ लिए जाते हैं। 
  
 बहरहाल ध्वज भी उसी के रुप में है। ऊपर शिखर में अशोक चक्र ही जैसा चक्र भी है।  वहा भेदभाव भी‌ नहीं ‌है जो‌कि इसे और अधिक संपुष्ठ करते हैं। ‌अधिकतर पंथ प्रवर्तक  संत गुरु जिसमें ‌कबीर ‌जगजीवन दास, गुरुघासीदास, संत धर्मदास  ‌ संत कर्मा माता संत सतवन्तीन आदि वहाँ की यात्रा कर अपने मत को बेहद प्रभावशाली रुप में स्थापित ‌किए।
    जैतखाम वहां के मंदिर प्रांगण में स्थित‌ धम्म स्तंभ ( जिसे बाद मे गरुड स्तंभ कहे गये )के प्रतिरुप है जो  दर असल‌ यह अशोक का धम्म स्तंभ ही हैं। 
जो कि अन्यत्र कहीं नहीं है दूसरा सिंह गज आदि का प्रतीक भी बौद्ध संस्कृति से हैं।  वैसे भी कलिंग में अशोक के बाद बौद्ध धर्म ही लोक‌धर्म हो गये थे।

    रथयात्रा एक तरह से जुलुश व  शोभायात्रा ही हैं यह बौद्ध संस्कृति का हिस्सा है। प्राचीन काल में ‌इस तरह के गजपतियो श्रष्ठियों सांमतो का वैशाली मगध श्रास्वती जैसे जगहों पर शोभायात्रा निकलते रहे हैं।
              उसी अनुक्रम में विजयी आशोक ‌भव्यतम शोभायात्रा  निकाले  यही पुरी की रथयात्रा अशोक का ही विजय अभियान का  स्वरुप हैं। जिसे कलान्तर में नव कलेवर दिए गये।

    उडीसा में वैष्णव और शैव मत का कोई विशेष प्रभाव नहीं है। यहाँ  सहजयानी बौद्धों के शरभ शबर सतपंथी यानि सतनामी ‌संस्कृति का बेहद गहराई से प्रभाव है। 
   बोध गया का मंदिर सिरपुर का लक्षणी बौद्ध विहार (जो अब  लक्ष्मण देवाला कहे जाते हैं।) ६-८ वी सदी का हैं। 
इनके अनुकृति पर ही पुरी कोणार्क निर्मित हैं। 
          इस तरह से वहा के स्थापत्य लोक संस्कृति ‌पर्व उत्सव जैसे नुआखाई आदि को शेष उत्तर भारतीय आर्य संस्कृति से इतर नये ढंग से गहराई से विश्लेषण करने‌की आवश्यकता हैं। 
     कही न कही इन सबके निर्माण में बौद्ध व सनातन संस्कृति का समन्वय तो हुआ ही होगा।
शंकराचार्य द्वारा चार पीठ की स्थापना महत्वपूर्ण बौद्ध स्थलों के इर्दगिर्द ही या वही पर हुआ।
   इसलिए उन्हे प्रछन्न बौद्ध भी कहे  जाते हैं। और उनके ही कार्य काल में बौद्ध धर्म का पतन होना आरंभ हुआ । 
  एक बात और ध्यान देने योग्य हैं आर्य संस्कृति में पुर नहीं होते यह पुर यानि महत्वपूर्ण स्थल द्रविड़ या मूल निवासियों का प्रमुख स्थल होते हैं। उन्हे नष्ट करके इंद्र पुरंदर कहलाए ।
     अत: पुरी नाम आर्यन संस्कृति तो हर हाल में नहीं है यह नितांत भारतीय संस्कृति हैं और मूलनिवासियों की प्रमुख  केन्द्र स्थलियों से संदर्भित हैं महाबलि पुरम , रोहणीपुरम ,रायपुर ,बिलासपुर , कौशलपुर, सिरपुर इत्यादि।

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