Saturday, June 6, 2020

पंथ और धर्म

।।धर्म और पंथ ।।

विद्वान वर्ग  पंथ को धर्म  से अधिक  व्यापक मानते हैं। और व्यवहारिक महत्व देते हैं। क्योकि धर्म को कोई प्रवर्तन नहीं कर सकता ।वह केवल सद्गुण मात्र हैं। और अपने आप में तटस्थ व क्रियाहीन हैं। (जैसे आग का धर्म गरम  पानी का ठंड वैसे ही मानव का धर्म सत्य प्रेम करुणा परोपकार है न कि हिन्दू मुस्लिम आदि।हा यह उनकी प्रणाली पद्धति  हैं। इसे धर्म की संज्ञा नहीं देना चाहिए। )  जो वस्तु या प्राणी जिस गुण को धारित किए हैं। वही उनका धर्म हैं। सांप विष धारण किए हैं तो विषैले हैं। और गाय अमृत मय दुग्ध धारण की है तो वह मां सदृश हो जाती हैं। शेर चीता आदि मांसाहारी पशु हैं तो  हिंसा को धारण किया हुआ हिंसक प्राणी  हैं। और हिरण वानर आदि शाकाहारी तो अहिंसक प्राणी हैं।
     उनकी जीवन वृत्ति ही प्रवृत्ति हो जाते हैं वह उसी गुण को आत्मसात करलेते हैं। इसलिए जो दिखता हैं। वह उसी  गुण स्वभाव के धारक धर्मी होते हैं। 
 परन्तु राजनीति में‌ राजा की जीने की  प्रणाली पद्धति ही  राजधर्म के रुप में व्यवहृत होने लगे  प्रजा भी आख कान बंद कर मानने लगे और यही सब गड्ड मड्ड हो गये।

जबकि अनुसंधान कर्ता  साधक तपस्वी जन केवल अपने द्वारा विकसित  पंथ का प्रसार किया धर्म आदि का नहीं क्योंकि यह प्रचार प्रसार करने की वस्तु ही नहीं हैं।
अब कोई आग के ताप और जल के शीतलता का कोई प्रचार करेगा ? 
प्रणालियों पद्धतियों को धर्म कहकर राजकीय  मान्यताएँ धोषित कर दी ग ई और वह रुढ मूढ हो गई ।

जब धर्म अपने विविधतापूर्ण कर्मकांड के चलते अधर्म की श्रेणी में आ चूके थे तब उनसे अलग पंथ शब्द के साथ नव प्रवर्तन किए।

सच तो यह है कि धर्म शब्द अर्थ धारण करना होता हैं ।धर्म धृ धातु से उत्पन्न है। 
ध+ऋ+ अ + र्+ म + अ  = धर्म 

ध+ ऋ+ मर्म = धर्म 

इसके वास्तविक अर्थ हुआ जो मर्म ( अंत: करण )में धारण करे   धर्म हैं।  

इसी तरह पंथ का अर्थ पथ यानि की रास्ता या मार्ग हैं।
जैसे राज पथ , लौह पथ , इत्यादि 
इसमें  तन चलते है चलने  वाला पथिक / राहगीर कहलाते हैं।
पर यहा पंथ है जिसमें प के ऊपर अनुस्वर  बिंदू हैं। जिनका विशिष्ट अर्थ हुआ वह पथ या मार्ग जिसमे मन चले । इसे पंथिक कहते हैं। 

पंथ जिसमे तन के साथ मन भी चले और अपना जीवन सुखमय करे ।
    यह शब्द संप्रदाय मत मजहब रिलिजन जैसा ही हैं। उनके समकक्ष हैं। 

अंग्रेज या ईसाई लेखकों ने क्रिश्चन. रिलिजन टाइप ही सतनाम को रिलिजन कहा ।
यदि कोई प्रबुद्ध सतनामी लेखक या संत अपनी भाषा में क्रिश्चिन रिलिजन  को ईसाई पंथ कह सकते हैं क्योकि यह ईसा मसीह द्वारा विकसित या प्रवर्तित हैं।

इस्लाम भी पंथ हैं हिन्दू भी बौद्ध जैन भी यह सब एक रास्ता / मार्ग हैं। जिसपर चलकर मनुष्य अपना जीवन निर्वाह करते हैं।

उस मार्ग में अनेक और पगडंडी या सम्प्रदाय मत आदि हो सकते हैं।
जैसे हिन्दू पंथ में शैव शाक्त वैष्णव  राम कृष्ण राधा मत या सम्प्रदाय पगडंडी हैं।

   इसी तरह हमारे सतनाम पंथ में 
रामनामी सुर्यवंशी जैसे छोटी पगडंडी हो सकते हैं। इन सबको मिलकर अपने पंथ को और अधिक विस्तृत और सुदूर पहुच विहिन स्थलों तक पहुचाना चाहिए।
 
बहरहाल अब  सवाल उठता व्यक्ति अपने मर्म अर्थात् अंत: करण में क्या धारण करता हैं हिन्दू इस्लाम ईसाई बौद्ध जैन  ? 
यह तो  केवल उपसना पद्धति प्रणाली मात्र हैं। धर्म नहीं ।
हां धर्म है सद्गुणों का समुच्चय 

जैसे सत्य करुणा प्रेम परोपकार इत्यादि। हम सभी व्यक्ति इन्ही सद्गुणों को अपने अंत:करण में धारित कर व्यवहृत  करते हैं तब हम  सच्चे धार्मिक कहलाते हैं। और इनके जगह असत्य  क्रुरता धृणा और दुराचार को धारण कर व्यवहृत करे तो अधार्मिक कहलाते हैं। यही दोनो श्रेणी ही धर्म व अधर्म हैं। जो सर्वत्र एक समान होते हैं। और सभी मत मजहब रिलिजन सम्प्रदाय पंथ में बराबर मिलते हैं।
     
पुरानी मत प्रणाली में विकृति के बाद समर्थवान संतो गुरुओ द्वारा पंथ के उ्दभूत होने के बाद  प्रवर्तक के चले जाने के बाद धीरे धीरे वह उसी रीति रिवाजों से जकड़ा हुआ उसके एक शाखा मात्र होकर रह गये।
  बौद्ध - जैन धम्म ,कबीर पंथ ,खालसा पंथ सतनाम पंथ सनातन संस्कृति या भारतीय  संस्कृति के ही ब्रान्च होकर रह गये ।

          जबकि गहराई से अनुशीलन करे तो यह सभी तथाकथित सनातन संस्कृति से बिल्कुल अलग है। ईश्वर पूजा पद्धति रहन सहन प्रवृत्ति निवृत्ति एकदम सा अलग हैं।

  हां हिन्दू पद्धति  या सनातन संस्कृति  में शैव शाक्त वैष्णव सम्प्रदाय आदि जरुर हिन्दुओं के अनुसार  पंथ हैं। जो उन्ही के ईश्वर पंडे पुजारी धार्मिक व्रत कर्म कांड इत्यादि को ज्यों की त्यों मानते हैं ।
        
संतो महात्मों द्वारा  व्यवहृत पंथ शब्द को  कमतर न आके न इसे धर्म के अंग माने। यह दोनो अलग अलग चीजे हैं। धर्म के लघु रुप पंथ तो क त ई नही है। जैसा कि लोग समझते आ रहे हैं।
    धर्म के अन्तर्गत सम्प्रदाय मत मतान्तर हो सकते हैं। पर उनके अधीन पंथ नहीं हो सकते इस बात को लोगो को समझना चाहिए। 

आप सम्प्रदाय निरपेक्ष रह सकते हैं। पर न  पंथ निरपेक्ष रह सकते न धर्म निरपेक्ष नहीं

पर यह कैसी विडंबना हैं कि पंथ को सम्प्रदाय जैसे  समझे जा रहे हैं।
क्या बुद्ध कबीर नानक गुरुघासीदास सम्प्रदाय चलाए है ?
         सवाल यह हैं।

           ।। सतनाम ।।

     संसार सतनाम मय हो 

    -डा. अनिल भतपहरी

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