Sunday, June 28, 2020

समर्पण



समर्पण 

प्रतिभाशाली पुरुष/ स्त्री  का
परस्पर प्रेम पाना भी कम रोचक नहीं है
इतना तो तय हैं कि दो प्रतिभाशाली लोग
चाहे जो कर ले प्रेम नहीं कर सकते 
क्योंकि प्रेम प्रतिभा नहीं 
सपर्पण चाहते हैं
और प्रतिभा समर्पित होना 
नही चाहती
वह अकड़ की घोडे पे बैठ 
दूर तक जाती है 
चाहे वह किसी का हो
अक्सर प्रतिभावान लोग 
प्रेम से वंचित  बड़े महलों 
ऊंची फ्लैटों मे रहते 
तन्हाई में उम्र गुजारते हैं
जबकि गांव की या पास झोपड़ी में 
रहती रधिया उनकी झाडू पोछा करती 
किसना उनके घर दूध या सब्जी पहुँचाते 
प्रतिभावानों के कृपा व आश्रय में 
दिन भर खटते /पलते 
चैन की नींद सोते रात में 
गलबहियां करते मन भर हंसते -गाते साथ में
 सुखमय जीवन जीते हैं
आधी रात ऊबते खिड़की से झांकते
तनाव ग्रस्त प्रतिभावान लोग
 ड्रग्स लेते  सिगरेट रखे हाथ में 
 या महंगी  स्कांच के नींद की गोली खाते साथ में 
इन्हे मूर्ख गंवार ढ़ोर पशु कहते अघाते नही
 कमबख्त सिखाते हैं इन्हे प्रेम करना 
जो जानते तक नहीं कि‌
प्रेम क्या है ? 
करना और पाना तो बहुत दूर की बात हैं
सच कहे तो समर्पण प्रेम की शुरुआत हैं
प्रतिभावान समर्पण करे तो प्रतिभाशाली 
प्रेमी होकर ही रहते हैं पर कितने ?
डाॅ. अनिल भतपहरी

Saturday, June 27, 2020

बुतकुटरु

"बुतकुटरु" 

बड़ चुन -चुन के गुठियाथे 

सफा सुपा सरिख निकियाथे 

सुनत म उंखर बोली मिठाथे 

तिही पाय परधाके बिठाथे 

आनी बानी रकम के खवाथे 

कथा कहिनी गरंथ गढाथे 

पाप पुन धरम करम भेद बताथे  

सकेल दछिणा जबड गांठ पारथे 

लाद पीठ म अपन घर चले जाथे
 
मंगन मगलू बुधारु नाचथे गाथे 

सुकारो बुधारा उछाहित आरती सजाथे 

छप्पन भोग बैसाखिन हर चढाथे

लेड़गा बिचारा तस्मई बर तरसथे 

न उकर पुरखा तरे न भाग सहराथे 
 
कमिया जनमथे कमियाच मरथे 

बुतकुटरु के बात चौरासी भुगतथे

कभु ओकरेच भभकौनी वोट डारथे

नेता चुनके अपन आस लमियाथे 

घेरी बेरी अपन परोसे थारी लुसवाथे

नोहे रोटी पीटा असवासन कि भुख मेटाथे 

भोरहा म रहिथे बिचारा का करबे 
 
तीर-तखार ल अपन संउहे नरक करथे

दान-पुन करत मुरख परलोक सुधारथे 
    
 डा. अनिल भतपहरी

धनहा चाकर

।।धनहा चाकर ।।

भोरहा ल 
भर्री के 
भरका मं
भर के 
मसक 

बउग बो 
बतर बने हे 
भभकौनी के 
चिखला मं 
झन फदक
 
छोड़ दे 
अभी उन ल
बाढ़न दे 
करगा कस ऊंच 
नींदा / रोपा मं 
देबोन चभक 

डारबोन 
खातु गोबर 
असो उपजहिं  
पाछु ले आगर 
चलन दे 
धरर-धरर 
कोपर-नागर 
जावय झन रबक

रहे धनहा हमार 
चउक चाकर 
पुरखा के असीस 
उकरेच आंकर
करथस काबर 
संसो फिकर 
सिरजा तय 
सुम्मत के सख 

लगय झन 
काखरो लिगरी 
चारी अउ नंजर
मिहनत के 
कारी पसीना
तन ल उगार 
माटी मं मिझार 
झन भुलाबे 
सियान के सबक

डाॅ. अनिल भतपहरी / 9617777514

दौर - ए -खिलाफ़

दौर-ए-ख़िलाफ़ हैं मुहब्बत की कुछ कह नहीं सकतें
उल्फ़त से भरी नगरी में अब कुछ पल‌ रह नहीं सकतें

शक-ए-सुबहा से होती है उनकी सुबह शुरु 
रात तक कुछ मिल सके यह कह नहीं सकते 

हर कोई लगाए हैं जाल फंसे उनके हिस्से का माल 
ये सब्र  बगुला कैसे  कब टूटे यह कह नहीं सकते 

 हर कोई एयार हैं दिल साफ़ नहीं किसी का 
 ऐसे में कोई  पीर बने यह  कह नहीं सकते 

खत्म दौर हुआ नबियों का शोहदे ही गुलजार हैं
ऐसे में जन्नत कहीं और है यह कह नहीं सकते 

निकले  ढूढ़ने बुरा  पर बुराई  ही सब ओर हैं 
कही गर अच्छाई  मिले यह कह नही सकते 

लत तो लगी है रह सकते नहीं कोई इनके बिन 
हम इस दौर के नहीं हैं ऐसा कह नहीं सकते

         -डॉ. अनिल भतपहरी /9617777514

धनहा चाकर

।।धनहा चाकर ।।

भोरहा ल 
भर्री के 
भरका मं
भर के 
मसक 
बउग बो 
बतर बने हे 
भभकौनी के 
चिखला मं 
झन फदक
 
छोड़ दे 
अभी उन ल
नींदा / रोपा मं 
देबोन चभक 
डारबोन 
खातु गोबर 
असो उपजहिं  
पाछु ले आगर 
चलन दे 
धरर-धरर 
कोपर-नागर 
जावय झन रबक

सिरजा तय 
सुम्मत के सख 
रहे धनहा हमार 
चउक चाकर 
पुरखा के असीस 
उकरेच आंकर
करथस काबर 
संसो फिकर 
लगय झन 
काखरो लिगरी 
चारी अउ नजर
झन भुलाबे 
सियान के सबक

Friday, June 26, 2020

लहु आँखों ‌से बही हैं...

सुन कर अस़आर मेरी ओ तारिफ़ में कही 
दिल कत़र के लिखे है जो दिल में लगी हैं

सच डूबाएं है ऩीब खुन-ए -ज़िगर में
तभी बिन रुके यह कागज़ में चली हैं

पढ़कर हुई ख़राब अनिल अपनी  हालात 
पल भर लगा कि बात अपनो में चली हैं

हैरत है सभी कि मंजर लाल क्यूं हुआ  
आँसू नहीं धर-धर लहु आँखों से बही हैं

      -डाॅ.अनिल भतपहरी/ 909816529

Thursday, June 25, 2020

स्वतंत्र शेर -२

सुन कर  गज़ल मेरी ओ तारिफ़ में  कही 
दिल कतर के लिखे हैं जो दिल में आ लगी

स्वतंत्र शेर

सुन कर  गज़ल मेरी ओ तारिफ़ में  कही 
दिल कतर के लिखे हैं जो दिल में आ लगी

Wednesday, June 24, 2020

मान दिनेश साध डा अनिल भतपहरी ‌वर्तालाप‌

[6/23, 10:36] dinesh sadh: सतनामी समाज अपने समाज का नाम आसमान में लिखा हुआ देखना चाहता है। ये बहुत अच्छी बात है लेकिन हमें हमारे परम पूज्य बाबा घासीदास जी के बताए रास्ते पर चलना परम आवश्यक है। हम अपने समाज के लिए, समाज के हित में अपने ईगो, अपने अहंकार को छोडेंगे नहीं तो हमारे समाज को आसमान पर लिखा देखने की इच्छा करना भी बेकार है। दुनिया में अनेक ऐसे समाज हुए हैं, आज जिनका कोई नाम तक नहीं जानता है। इसका कारण उनमें ईगो और अहंकार करने की नासमझी ही थी। किसी समय उन समाजों को लोग जानते थे, पहचानते थे। लेकिन बाबा घासीदास जी एक सूर्य बन कर दुनिया के आसमान पर चमके और वे ईगो और अहंकार करने वाले समाज लगभग विलुप्त हो गये। ये मत भूलो कि हम सब भी ईगो और अहंकार से ग्रस्त हैं। हमें गुरू घासीदास जी की दी हुई महान विरासत को सम्हालने की जिम्मेदारी भी मिली है। अगर बाबा जी नहीं होते तो क्या सतनामी समाज का दुनिया में कहीं नाम हो सकता था ? नहीं हो सकता था ! आज हमें अपने गुरू के सामने अपने अहंकार और ईगो की बलि देनी ही होगी। जब तक हम सब मिलकर अपने ईगो और अहंकार की बलि नहीं देंगे तब तक हमें अपने समाज को महान बनाने का सपना देखना भी नहीं चाहिए। सबसे बडी बाधा हमारा अहंकार ही है। एक विकार छोडने के बाद हम अपने दूसरे विकारों को भी आसानी से चुटकी बजाते छोड सकते हैं। तब वह समय जरूर आएगा जिसमें हम सब सतनामी होने का गौरव प्राप्त करेंगे। मानो या ना मानो !

दिनेशकुमार साध सतनामी,
23-06-2020
[6/23, 19:44] dinesh sadh: सभी सतनाम‌ भवन, सतनामियों के घरों में सुसज्जित रूप से यानी कांच लगे फोटोफ्रेम में सतनाम लिखा होना और गुरू जी की आरती लिखी होने से वातावरण सात्विक रहता है। वहाँ गुरूजी स्वयं कवच के रूप में विराजमान रहते हैं। घर में सुख शांति और आपस में एक दूसरे के प्रति प्रेम रहता है।
[6/24, 12:25] dinesh sadh: सतनामियों की विभिन्न शाखाओं में जब हम नज़र डालते हैं तो दिखाई देता है कि सतनामियों की सभी शाखाओं में कम या ज्यादा आध्यात्मिक, आर्थिक, सामाजिक व व्यापारिक विषमताएं हैं। इससे शाखाओं में एकरूपता ना दिखना चिंताएं पैदा करता है। अब एकरूपता के लिए जो सबसे ऊपर है, वो सबसे नीचे वाले की बराबरी पर आकर अपने में एकरूपता लाए या वह सबसे ऊपर वाला सबसे नीचे वाले को ऊपर लाकर अपने बराबरी में खडा करके एकरूपता लाए। समाज का बौद्धिक वर्ग एकमत से यही प्रस्ताव रखेगा कि ऊपर वाला नीचे ना आए बल्कि नीचे वाले अपने भाई को हाथ पकड कर अपनी बराबरी पर लाकर खडा करे और तब जाकर सही अर्थ में एकरूपता कही जा सकती है। बस मैं रातदिन इसी प्रयास में तरह तरह से छत्तीसगढ़ के सतनामी समाज को सम्प्रेरित करते रहता हूँ। मेरी भावना कोई नहीं भी समझ पाता होगा तब भी प्रयास जारी रखने की अपनी नियत पर रहने का संकल्प है मेरे मन में। अनेक प्रकार से प्रेरित करने के अन्तर्गत एक बात यहां फिर प्रस्तुत कर रहा हूँ, आशा है कि आप सब मेरी भावना को और बात को अवश्य समझेंगे।
नारनौल शाखा के साध सतनामियों का आध्यात्मिक पक्ष हमेशा से उत्कृष्ट रहा है चाहे जमाना कितना भी बदल गया हो या आधुनिक हो गया हो। पिछले कुछ समय में मैंने आपके बीच साध सतनामियों के बालक बालिकाओं को ध्यान आसन की मुद्रा में दिखाया था। साथ ही सुझाव भी दिया था कि छत्तीसगढ़ के सतनामियों के बालक, बालिकाएं व बडे भी इसी प्रकार से बाबाजी का ध्यान करें, जिससे हम सबका आत्मविश्वास मजबूत होता है बल्कि हमारे चारों तरफ बाबाजी कवच बन कर उपस्थित रहते हैं। मेरी बात को आप एक अंधविश्वास कह सकते हैं तो सवाल उठता है कि बाबाजी ने भी ध्यान साधना ही तो की थी जिसकी शक्ति के सामने उस काल खंड के ब्राह्मणवाद और धार्मिक पाखंड को उखाड फेंकने में सफलता प्राप्त हुई थी। मैं उसी बात को आज स्थापित करने के लिए एक जीती जागती मिसाल आपके सामने रख रहा हूँ। इसके बाद आप जो भी निर्णय लेंगे वह आपका निर्णय होगा लेकिन मैं मेरे कर्तव्य निभाने की जिम्मेदारी से मुक्त हो जाऊंगा। 
इस समय सारी दुनिया में कोरोना के कारण व्यापार, कारोबार, उद्योग बंद की स्थिति में हैं। ऐसे में अगर मैं आपको ये कहूँ कि नारनौल के साध सतनामियों को तो जरा भी फुर्सत नहीं है तो शायद आप विश्वास नहीं करेंगे। इस चमत्कार को हम सब देख रहे हैं कि जहां पूरे देश में बेरोज़गारी और मंदी छाई है वहीं साध सतनामियों के कारोबार अचानक पूरे जोर शोर से चल रहे हैं। देखना हो तो आपका स्वागत है फर्रुखाबाद में आकर देख सकते हैं कि दिल्ली, सूरत और ईरोड से अनेक साध सतनामी फर्रुखाबाद में आकर छपाई के काम में कितने जोर शोर से लगे हैं कि वहाँ कोई बेरोज़गारी, मंदी का कहीं दूर दूर तक नामोनिशान नहीं है। मैं इसे बाबाजी का चमत्कार ही मान सकता हूँ। जब हम उनकी शरण में होंगे तो वे स्वयं हमारी चिंता करके हमें हर मुसीबत से बचाएंगे। इसी बात को मैं छत्तीसगढ़ के अपने सतनामी भाई-बहनों से कहता हूं कि हम तो अपना समय ऐसे ही गुजार ‌दिये लेकिन बचा हुआ समय अपने बाबाजी की शरण में जाकर ध्यान साधना कर लें ताकि आने वाली नई पीढी अपने बडों पर और समाज के आध्यात्मिक पक्ष पर गर्व कर सके।

दिनेशकुमार साध सतनामी,
24-6-2020.
[6/24, 14:14] Anil Bhatpahari: वाह !प्रेरक 

छपाई मसलन कपडे पर प्रिंट छपाई ? 

छत्तीसगढ़ में अभी धान बुआई चल रहे हैं। 
ग्रामीण तो बेचारे कृषक हैं रात दिन धूप पानी ठंड में परिश्रम करते जीवन व्यतीत करते हैं । और मेहनत बाद वक्त निकलते हैं तो सुबह शाम सतनाम सुमरन कर लेते हैं। 
पर शहरों में नौकरी पेशा वाले न सतनाम सुमरते हैं न नित्य आरती वगैरह बल्कि अपनी वक्त आध्यात्मिक साधना हेतु नहीं इंटरटेनमेंट में लगाते हैं ।जिससे उनके वक्त तो कट रहे हैं पर अर्जन कुछ नहीं ?
    फलस्वरुप यही तबका भटक रहे विभिन्न जगहों पर आध्यात्मिक जरुरतों के प्रतिपूर्ति करने में इसलिए वह रामास्वामी रामपाल सतपाल जयगुरुदेव श्रीमाली गायत्री भागवत आदि के फेर में फंसा हुआ है। कोई ईसाई तो कोई बौद्ध संस्कृति को आत्मसात करने लगे हैं।
    यह बडी विडंबना हैं कुछ लोग केवल संगठन के नाम पर राजनैतिक महत्वाकांक्षा को साधने पद प्रतिष्ठा पाने में लगे हुए हैं।
युवा और बेरोजगार वर्ग तो चाहते है कि सतनाम के माध्यम से सत्ता और उनके माध्यम से सबकूछ पा ले ? 
पर यह केवल दीवा स्वप्न हैं। जब तक अच्छे संस्कार और सदाचार समाज में नहीं होगा कोई भी उपलब्धियां अर्जित नहीं हो सकते इसलिये संस्कार व सदाचार हेतु प्रज्ञावान संत समूह को समवेत जन मानस के समीप जाना ही होगा ... इनके लिए सांस्कृतिक आयोजन और सोसल मीडिया हो या प्रिंट या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के माध्यम से जनमानस तक पहुचने ईमानदारी से प्रयास करने होन्गे।
सभी शाखाओं में परस्पर सौहार्द और सद्भाव स्थापित करने होन्गे और निरंतर संपर्क में बने रहने और वैचारिक आदान- प्रदान के साथ साथ सामाग्री व मानव संशाधन का भी आदान प्रदान व सगे संबंधी होने बहुत आवश्यक भी हैं। क्योंकि इससे बाह्य जगत के साथ साथ अन्तर्जगत भी प्रभावित होते हैं। आज जरुरत इनही सब चीजों का हैं।

आप जैसे विचारक व गुणी लोग ही हमारे सत‌नाम संस्कृति में आमूल चूल युगानुरुप  परिवर्तन ला सकते हैं। इसके लिए जैसा हो सार्थक व सफल  प्रयास होना चाहिए। इनके लिए एक निश्चित धनराशि और प्रबुद्ध जनों का संत मंडली  या शिष्ट मंडल  हो जो समय समय पर विचरण करते जनमानस में सदुपदेशना करे मार्ग दर्शन करे । 
    ।। सत श्री सतनाम ।।
     -डा. अनिल भतपहरी / 9617777514
[6/24, 14:17] dinesh sadh: भाई जी,
आप सब आगे बढिये, हम आपके साथ हैं। सतनामियों की पताका दुनिया में एक न एक दिन जरूर फहराना है। बस समय कितना लगेगा ये नहीं कह सकता। सांसों का भरोसा नहीं, चाहता हूँ कि अपने जीवित अवस्था में यह देखने का सौभाग्य मुझे मिले, इसके लिए गुरू जी से, बाबाजी से मैं अर्दास करते रहता हूँ। लेकिन बढना तो आपको ही पड़ेगा।
[6/24, 14:34] Anil Bhatpahari: आपकी कामनाएं सदगुरु शीध्र पूर्ति करे ऐसी मंगलकामनाएं है ।आदरणीय 
पहले के अपेक्षा अब लोग जागृत / सक्रिय भी हो रहे हैं साहित्य लेखन चिन्तन मनन और आयोजन भी सतत चल  भी रहे हैं और  वैश्विक संकट कोरोना काल में भी जरुरत मंदों की सेवा आदि हमारे लोग कर भी रहे हैं। 
    आगे और भी बेहतर होन्गे 
साथ ही नारनौल दोसी पहाड , हरियाणा - पंजाब , कमौली धाम कोटवा उप फर्रुखाबाद उप तपोभूमि गिरौदपुरी धाम छग सतनाम धाम खडगपुर  पं बंगाल सतनाम धाम नागपुर  महाराष्ट्र  एंव मिनीमाता जन्म स्थली जमुनामुख दौलगांव असम सतनामियों का महान तीर्थ धाम के रुप मे  प्रतिष्ठापित जहां लोगों का समागम चलते रहेगा ।ऐसा उम्मीद ही नहीं पूर्ण आशा हैं।
[6/24, 14:36] dinesh sadh: 🌷🌷🌷🌷🌷🌷
[6/24, 14:48] Anil Bhatpahari: भारत वर्ष में सतनाम धर्म की संस्थापना हो यही हमारा भी कृत संकल्प और जीवन का एक मात्र ध्येय हैं।
वर्तमान धर्मो मतो के  मकड़ जाल से मुक्त होकर मानवता और समानता की पृष्ठभूमि पर सतनाम धर्म मानव कल्याण कारक हो ऐसी  हमारी परिकल्पना हैं। 
         ।‌। सत श्री सतनाम ।।

रोक नहीं सकते ...

कुछ तो हुआ है पर कुछ बोल नहीं सकते 
ये उम्र रफ्तां को‌ चाहकर रोक नहीं सकते 

जब से आई जवानी रंगीन होने  लगी ये दुनियां
कोशिश लाख करे जमाना पर रोक नहीं सकते 

जैसा भी हो वो सच में लख़्त-ए- ज़िगर हैं
फ़ितरत किसी को कही झोंक नहीं सकते 

माना बेमुरौव्वत हैं पर वे नुर-ए- नज़र हैं
ऐसों से बेवफ़ा का कभी सोच नहीं सकते 

इस तरह वार होने लगे चारों तरफ ए अनिल  
खुद को ही बचाने कभी सोच नहीं सकते

-डाॅ.अनिल भतपहरी

सोच नहीं सकते

कुछ तो हुआ है पर कुछ बोल नहीं सकते 
ये उम्र रफ्तां को‌ चाहकर रोक नहीं सकते 

जब से आई जवानी रंगीन होने  लगी ये दुनियां
कोशिश लाख करे जमाना पर रोक नहीं सकते 

जैसा भी हो वो सच में लख़्त-ए- ज़िगर हैं
फ़ितरत किसी को कही झोंक नहीं सकते 

माना बेमुरौव्वत हैं पर वे नुर-ए- नज़र हैं
ऐसों से बेवफ़ा का कभी सोच नहीं सकते 

इस तरह वार होने लगे चारों तरफ ए अनिल  
खुद को ही बचाने कभी सोच नहीं सकते

-डाॅ.अनिल भतपहरी

रावटी संदर्भित

चतुर्थ रावटी दर्शन यात्रा पाना बरस पहले गढ के नाम से जाना जाता था।यह अभि वर्तमान में राजनांदगांव जिला के अंतर्गत आता है।रावटी दर्शन यात्रा शोधकर्ता एवँ अध्ययन दल दिनाँक 17जून 2018,दिन रविवार को लगभग तीन बजे वहाँ पहूँचे थे।रावटी यात्रा अध्ययन दल का11,40बजे मानपुर के रंगमंच चौक में फूल माला एवँ
नारियल भेट देकर आत्मीय स्वागत किया गया।
उसके बाद भोजन करने के पश्चात पाना बरस गये।वहाँ के एक वयोवृद्ध व्यक्ति और गाँव के कोटवार को साथ में लेकर गुरु घासीदास बाबा जी के रावटी यात्रा स्थान पर ले गए।यह पवित्र स्थान शिवनाथ नदी के तट एवँ उदगम स्थल पर स्थित हैं।यह क्षेत्र वनों से घिरे हरे भरे प्रकृति की नैसर्गिक सौंदर्य, अत्यंत मनोरम,मनमोहक, मनभावन जगह है।दर्शनार्थियों को बरबस अपनी ओर आकर्षित करती है।वहाँ से सीधे गाँव के मुखिया के घर गए।मुखिया  ने बताया कि पहले उनके पूर्वज वहाँ के राजा थे।गुरु घासीदास बाबा जी के रावटी यात्रा के समय
राजा लाल श्याम मणिशाहा का शासन था।
मोहला मे राज महल था।उनके समय में360 गाँव आता था। वर्तमान में उनके वंशज अंजोरसिंह शाह हैं। इस समय 48 गाँव आते हैं।चरचा से आमसहमति बना है कि वहाँ जैतखाम गड़ाने के लिए जगह दिया जायेगा।वहाँ एक घर का  सतनामी रहता है, वह पटवारी हैं, कोटवार ने बताया कि उसके पास एक एकड़ 70 डिसमिल जमीन  हैं।सत्पुरुष से आशा और सतगुरु सतनाम पर पूर्ण विश्वास करते हैं कि वहाँ भी एक जैतखाम गड़े और गुरु घासीदास बाबा जी के ऐतिहासिक रावटी स्थल सर्व मानव समाज के लिए दर्शनार्थ एवँ आस्था केंद्र के रूप में स्थापित व विकसित हो,
जय सतनाम, सन्त समाज।वेदानन्द दिव्य।

Tuesday, June 23, 2020

काढ़े गये पैबंद हैं

काढ़े गये पैबंद हैं

बातों ही बातों में मुस्कुराना पसंद हैं
तेरा युं ही हरदम मुस्कुराना पसंद हैं

गर डूबे रहे रंज ओ-ग़म की दरिया में
तो ख़ाक क्या यारों जीवन में आनंद हैं 

तकलीफ़ किसे ,कहाँ नहीं है ऐ दोस्त 
हरदम रोते रहना भी क्या कोई ढंग हैं

एक  पल  सुख  और एक पल दु:ख 
जिन्दगी के चादर में काढ़े गये पैबंद हैं

  डाॅ. अनिल भतपहरी

Monday, June 22, 2020

बस्ती तंग दिलों की

।।बस्ती तंग दिलों की ।।

ज़बान तेरी मरदूद  तीखी बहुत हैं 
तभी तो ल़ब तेरे पानी पीती बहुत हैं

पड़ा है सुखा इसलिए रेत का समंदर हैं
बिन मोतियों के कंटीली सीपी बहुत हैं

 बेफिक्र परिंदे उडे़ तो कैसे आसमां पे 
ये तीर -ए -नज़र आपकी तीखी बहुत हैं

उगलती हुई ज़हर बिताई उम्र -ए-तमाम 
इतनी कटुता लेकर क्यों कोई जीती बहुत हैं

रही अस्त -व्यस्त और पैंबद भरा जीवन 
ता उम्र लोगों की फटी सीती बहुत हैं। 

यहाँ गुज़ारा नहीं अनिल बस्ती तंग दिलों की 
निकलेगी गाड़ी कैसी सकरी गली  बहुत हैं

     -डॉ. अनिल भतपहरी

श्रवण कीजिए -

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Sunday, June 21, 2020

मान दिनेश साध और डा अनिल भतपहरी संवाद ‌

[6/10, 15:14] dinesh sadh: दिनेशकुमार साध सतनामी, 

नारनौल‌ शाखा.



भारत में सतनामी समाज का इतिहास स्वर्णाक्षरों में लिखा गया है। क्योंकि यह समाज बहुत ही आध्यात्मिक समाज रहा है जिसकी मिसालें सन 1672 में औरंगजेब से युद्ध के ऐतिहासिक वर्णन में पढने को मिलता है। चूंकि औरंगजेब के शासनकाल में किसी को भी इतिहास लिखने की मनाही रही इसलिए उस समय का वर्णन किसी भी इतिहासकार ने नहीं लिखा था। बाद में कुछ गैरसतनामी इतिहासकारों ने सतनामियों के इतिहास के साथ न्यायपूर्ण नहीं लिखा है लेकिन अंग्रेज और फारसी इतिहासकारों ने सतनामियों की बहादुरी का जो बखान किया है उससे हमें हमारे पूर्वजों की वीरता का वर्णन जानने को मिलता है। इसमें से एक इतिहासकार मोहम्मद खाँ खफी रहे जो कि औरंगजेब की फौज में भी थे और उस युद्ध के चश्मदीद गवाह भी थे, ने औरंगजेब की मृत्यु के बाद जब वे सन 1736 में नवाब हैदराबाद की रियासत में दीवान के पद पर रहे तब उन्होंने सतनामियों का इतिहास पूरी ईमानदारी से लिखा है कि किस प्रकार से सतनामियों ने ईरान से बर्मा तक के भूखंड पर राज करने वाले औरंगजेब की विशाल फौज को थोडे से सतनामियों ने ही नाकों चने चबवा दिये थे वह भी बिना किसी अस्त्र-शस्त्र के। युद्ध में सतनामियों की शहादत के बाद बचे हुए सतनामी जिनमें अधिकतर महिलाएं, बच्चे और बूढे बचे थे, ने अपने को सुरक्षित रखने के दृष्टिकोण से वहां से हट कर भारत के अन्य क्षेत्रों में जाकर बस गये थे। उनमें से छत्तीसगढ के सोनाखान के जंगल में बसे सतनामियों में परम पूज्य बाबा घासीदास जी का अवतरण हुआ और समय पर उन्होंने छाता पहाड पर जाकर किस प्रकार से परम ज्ञान प्राप्त किया यह सर्वविदित है। जब उनके ज्ञान की सुविख्याति दूर दूर तक फैली और छत्तीस गढ के जनजीवन में उनके द्वारा एक सच्चे धर्म का प्रचार किया गया तो वहां के लोगों ने सहर्ष सतनाम धर्म को आत्मसात् किया। उसी का परिणाम है कि नारनौल में सतनामियों के अगुवाकार बीरभान जी के युद्ध में शहीद हो जाने के बाद सारे देश में फैले हुए सतनामी पंथ का प्रचार छत्तीसगढ में बाबा घासीदास जी ने, बाराबंकी में बाबा जगजीवनदास जी ने, राजस्थान में बाबा सबलदास जी ने गाजीपुर में बाबा .................. ने सतनाम धर्म की पताका लहराई। वर्तमान काल में सारे देश में जहां सतनामी पाए जाते हैं उनमें सतनामी सबसे अधिक संख्या में छत्तीसगढ में हैं। यहां पर अधिकांश सतनामी बहुत पढे लिखे औऱ शासकीय कार्यों में सेवारत हैं।

वर्तमान काल में छत्तीसगढ के सतनामियों में संख्याबल सबसे अधिक है लेकिन वहां आध्यात्मिक पक्ष और सामाजिक पक्ष का ताना बाना उतना मजबूत नहीं है जितना कि देश के अन्य भागों में बसे हुए सतनामियों में है। हमेशा वहां के सतनामियों में एक आम शिकायत सुनने को मिलती है कि हमारे यहां एकता नहीं है, सब एक दूसरे की टांग खींचने में लगे रहते हैं। आपको आश्चर्य नहीं होना चाहिये कि दुनिया के किसी भी धर्म, पंथ या समुदाय में टांग खिंचाई नहीं होती है। सभी जगह यही स्थिति है, लेकिन फिर भी वे सब आर्थिक तौर पर, आध्यात्मिक तौर पर, सामाजिक तौर पर संख्या में छत्तीसगढ के सतनामियों से कम होते हुए भी अधिक समृद्ध और मजबूत हैं। सब के यहां ग्रुप और खेमेबाजी होती है। लेकिन फिर भी वहां की तुलना में छत्तीसगढ की स्थिति का आकलन करते हैं तो हमें यहां के सतनामियों में असीम संभावनाएं और क्षमताएं नजर आती हैं। लेकिन फिर भी यहां पर कमजोरी कहां पड रही है, बहुत सोचने पर एक आकलन के अनुसार ये प्रतीत होता है कि छ्त्तीसगढ में कोई गुरू ग्रंथ का सृजन नहीं हुआ है जैसा कि बाकी सब क्षेत्रों के सतनामियों के यहां है। यही कारण है कि वहां पर भी अनेकता होते हुए भी समाज सम्पन्न और आत्मनिर्भर है। क्योंकि किसी भी धर्म का ग्रंथ उस समाज को बांध कर रखने की क्षमता रखता है। तुलना करनी हो तो कर सकते हैं कि देश में सरदारों का सिक्ख समाज छत्तीरगढ के सतनामियों से संख्या में कम है, फिर भी आर्थिक, सामाजिक और व्यापारिक समृद्धि में छत्तीसगढ के सतनामियों से आगे है। देश का जैन समाज छत्तीरगढ के सतनामियों से संख्या में कम है, फिर भी आर्थिक, सामाजिक और व्यापारिक समृद्धि में छत्तीसगढ के सतनामियों से आगे है। अग्रवाल समाज छत्तीरगढ के सतनामियों से संख्या में कम है, फिर भी आर्थिक, सामाजिक और व्यापारिक समृद्धि में छत्तीसगढ के सतनामियों से आगे है। मुसलमानों का बोरी समाज छत्तीरगढ के सतनामियों से संख्या में कम है, फिर भी आर्थिक, सामाजिक और व्यापारिक समृद्धि में छत्तीसगढ के सतनामियों से आगे है। दक्षिण भारत का अय्यर समाज छत्तीरगढ के सतनामियों से संख्या में कम है, फिर भी आर्थिक, सामाजिक और व्यापारिक समृद्धि में छत्तीसगढ के सतनामियों से आगे है। दक्षिण भारत का शेट्टी समाज छत्तीरगढ के सतनामियों से संख्या में कम है, फिर भी आर्थिक, सामाजिक और व्यापारिक समृद्धि में छत्तीसगढ के सतनामियों से आगे है। क्रिश्चियन समाज छत्तीरगढ के सतनामियों से संख्या में कम है, फिर भी आर्थिक, सामाजिक और व्यापारिक समृद्धि में छत्तीसगढ के सतनामियों से आगे है। ऐसा नहीं है कि उपरोक्त समाजों में आंतरिक मतभेद छत्तीसगढ के सतनामियों से कम हैं फिर भी उनकी सतनामियों से कम संख्या में होते हुए भी आर्थिक, सामाजिक और व्यापारिक समृद्धि में छत्तीसगढ के सतनामियों से ज्यादा अच्छी, मजबूत और स्वावलंबी है। इसका सीधा एक ही कारण है कि हमारे यहां कोई गुरू ग्रंथ का सृजन नहीं है।

अब समय आ गया है कि हम दुनिया के पीछे नहीं तो कम से कम बराबरी पर तो चलें। इसके लिए समाज के आध्यात्मिक प्रबुद्धजनों को इकट्ठा करके इस प्रस्ताव को रखा जाए कि यहां के सतनामियों का गुरू ग्रंथ का सृजन किया जाए। यह विषय पूर्णतः आध्यात्मिक होने के कारण इसमें सिर्फ उसी विचारधारा के लोगों और गुरू वंशजों का ही समावेश होना आवश्यक है। मेरे सुझाव पर अब कम से कम गंभीरता से विचार करके देखें, आप सब स्वयं महसूस करेंगे कि हां हमें अपने एक गुरू ग्रंथ की जरूरत है। मेरे मन में सिर्फ और सिर्फ एक ही बात आती है कि अपने जीवन काल में कम से कम छत्तीसगढ के सतनामियों की वहीं समृद्धि देखने को मिल जाए जिनका मैंने उपरोक्त वर्णन किया है। अगर गुरू जी की कृपा रही तो मुझे विश्वास है कि यह काम जरूर जरूर होगा।

 

सतनाम.
[6/11, 12:59] Anil Bhatpahari: मान दिनेश साध साहब जी 

प्रणाम 

जय सतनाम 

  आपका महत्वपूर्ण आलेख पढा और पढकर लगा कि आप सच्चे हितैषी हैं जो हमारे सर्वांगीण विकास हेतु चिंचित और उद्वेलित भी हैं। आपकी दर्द भी यहाँ के आध्यात्मिक पक्ष की कमियाँ देख छलक आते हैं। व्यवसाय जगत में निरंक स्थिति से आप सदैव दुखी नजर आते हैं। अनेक बार आप हमारे बीच आकर इस बात को बडे शिद्दत से रखते आ भी रहे हैं। फलस्वरुप धीरे धीरे हमारे कुछ युवा उद्यमी कुटीर व लधु उद्योग में  जोखिम उठाने लगे हैं। 
गुरुग्रंथ यानि गुरुघासीदास के सुरुचिपूर्ण चरित गाथा और मानवतावादी दृष्टिकोण को विकसित करने नीति व उपदेश परक रचनाओं की सतनाम पंथ  (छत्तीसगढ )में कमी नहीं हैं।
    अबतक १० महाकाव्य और 200 से ऊपर   विश्लेषणात्मक पुस्तकें प्रकाशित है। जिसमें शोध ग्रंथ तक सम्मलित है। और अनेक पत्र पत्रिकाएं भी उपलब्ध हैं।
    सत्य ध्वज और अब सतनाम संदेश समाज की १९९० से अबतक नियमित प्रकाशित हो रहे पत्रिकाएं हैं। जिनमें ५००० पृष्ठ लिपिबद्ध हैं। जो किसी भी अध्येता और शोधार्थी के लिए उपयोगी है।
    सतनाम पंथ में 80% लोग गुरु चरित को अच्छी तरह जानते सनझते हैं। 

पर यह समाज छत्तीसगढ़ में कर्मकांड रहित सादगी पूर्ण रहन सहन पर आधारित गुरु मुखी समाज हैं।
   लेकिन ग्रामीण पृष्ठभूमि अशिक्षा असंगठन और व्यवस्थित प्रचारको संचालको के अभाव में अपेक्षित प्रभाव नजर नहीं आते।
 दर असल छत्तीसगढ़ी जनमानस चाहे वह सतनामी तेली कुर्मी आदिवासी जो भी हो वह इसी तरह से पहचान और अस्मिता हेतु संधर्ष रत हैं। कही कही तो ओबीसी समाज से सतनामी प्रभाव में बीस पडते हैं। शिक्षा व नौकरी में भी कम नहीं है।
    हां निरंतर व नियमित धार्मिक आयोजन में जरुर फिसड्डी हैं। इसका कारण मठ  मंदिर पूजा पाठ और दान दक्षिणा से रहित समाज हैं। 

  धीरे धीरे अब विगत २०-३० वर्षो में अनेक तीर्थ बन गये विकसित हो गये अब वहाँ सत्सञग प्रवचन भोग भञडारा हो‌ने लगे हैं। साधु व कलाकारों की अनेक मंडली देखने में आने लगे हैं। 

राजनैतिक व प्रशासनिक ढंग से अनुपातिक प्रतिनिधित्व  आरंभ से रहा हैं। पर इनकी प्रतिशत को और अधिक बढाने होन्गे। हमारे बच्चे अब अखिल भारतीय स्तर के प्रतियोगी परीक्षाओं में चयनित हो रहे हैं। 
यह शुभ संकेत भी हैं। शैन शैन बेहतरीन होन्गे ऐसी उम्मीद हैं। 

 हा  व्यवसायिक कृषि और व्यवसाय  जगत में अभी तक कोई बडी उपलब्धि नहीं हैं। इस ओर ध्यान देकर आर्थिक मजबती लाना आवश्यक हैं। 
   साहित्य सृजन हेतु अब तो पहले से अधिक मेधावान साहित्यकार लगे हुए हैं। और निरंतर चलने वाली प्रक्रिया हैं।
   आप सुदूर मुबंई में रहकर भी समाज के सर्वांगीण विकास हेतु चिंतित और सही मार्गदर्शन देते हैं। इसके लिए छत्तीसगढ़ शाखा के सतनामी समाज आभारी हैं । सदैव मार्गदर्शन लेते तत्पर रहते है आदरणीय व श्रद्धेय  दिनेश साध साहब जी  प्रणाम ।
  इसी तरह की प्रेरक बाते आप यदा कदा देते और लिखते रहे ताकि जहां कमी है वह  नजर आए और उसे दूर करने का सार्थक पहल किया जा सके ।
       ।‌।सतनाम ।।

     डा अनिल भतपहरी
[6/11, 13:31] dinesh sadh: आदरणीय,
आपको जानकारी के लिए बताना चाहता हूँ, हमारे साध सतनामी समाज की उस पीढी के कुछ लोग अभी भी जीवित हैं जिनके मुँह से हमने सुना है कि स्कूल में या पानी पीने की जगहों पर हमारे साथ‌ अछूत का व्यवहार किया जाता था। लेकिन साध सतनामियों ने उस स्थिति को अपनी ताकत बनाया ना कि उस बारे में हीन भावना लाकर स्वयं को हतोत्साहित किया। अपने को आर्थिक तौर पर व्यापार के माध्यम से मजबूत किया। मजबूत बनने के लिए आत्मविश्वास की जरूरत होती है। आत्मविश्वास के लिए आध्यात्मिकता की जरूरत होती है। आध्यात्मिकता के लिए सामाजिक संगठन और एकता की जरूरत होती है। किसी भी समाज में एकता और संगठन के लिए उस समाज ‌का सामाजिक मान्यता प्राप्त धर्म ग्रंथ जरूरी होता है। धर्म ग्रंथ समाज की मर्यादा होता है जिससे समाज का मान सम्मान बढता है। इसलिए हम परिस्थितियों को‌ सहन करके हमें अपना आर्थिक पक्ष, व्यावसायिक पक्ष और आत्मविश्वास का पक्ष स्वयं निर्माण करना पड़ेगा। इन सब के मूल में धर्म ग्रंथ की भूमिका सर्वोपरि होती है। अब आप सब स्वयं निर्णय लें कि छत्तीसगढ़ के सतनामी‌ समाज के लिये क्या आवश्यक है।

जब तुम मुस्कुराती हो ...

जब तुम मुस्कुराती हो तो मरहम‌ लगता हैं जख्मों में 
कट कट कर गिरते है सर दुखों की हमारी कदमों में 

भूलकर दर्द सभी जीना अब सीख लिया 
चैन ओ अमन हैं सब तेरी रहम ओ  करमों से 

बेफिक्र हुए भौरें देखों फिर से मंडराने लगे 
अर्सा़ बाद खिलें फूल चमन रंज ओ भरे ग़मों से 

द़ीदार ए मंज़िल हुआ कि चलना सब आसान 
फूल सा  लगने लगे शुल  अब हमारी कदमों में ...  

डाॅ. अनिल भतपहरी

Saturday, June 20, 2020

श्रमण चरावेति एंव गुरुमुखी ही सतनाम‌ संस्कृति हैं।

योग दिवस पर विशेष -

श्रमण चरावेति एंव गुरुमुखी ही सतनाम संस्कृति हैं

सतनाम -धर्म संस्कृति सदैव गतिमान रहा है।
निरंतर यात्रा और आयोजन गुरुघासीदास और उनके पुत्र वर्तमान में वशंज एंव साधु  संत प्रज्ञावान लोग  करते आ रहे हैं।
          गुरुमुख संस्कृति यानि कि  गुरुओं द्वारा सदैव शिष्यों तक पहुँच कर उनके सम्मुख सदुपदेशना करना होते है। इसलिए वे लोग रामत -रावटी करते हैं। इसलिए जनमानस में रमता जोगी बहता पानी जैसी उक्तियाँ प्रचलित हैं। 

बुद्ध कबीर नानक रैदास गुरुघासीदास सभी महायात्री थे सदैव गतिमान ... श्रमण चरावेति एंव गुरुमुखी ‌ ही सतनाम संस्कृति हैं।
स्थिर व रुढ -मूढ तो मंदिर, मूर्ति ,पंडे- पुजारी हैं। जहाँ भक्त चलकर जाते व सब कुछ लुटा कर आते हैं।
संत-मत में ऐसा नहीं है।
यहाँ तो सदगुरु शिष्यों /अनुयायियों के यहाँ पहुचते हैं।
यही रामत- रावटी हैं।
एक मंगल भजन द्रष्टव्य हैं-
मोर कर्म बडे़ मोर भाग्य बड़े मोर घर साहेब आए बिराजे ...
        जहां सद्गुरु आकर आसन में विराजते हैं सम्मुख जनमानस को सदुपदेशना करते हैं योग -साधना ,ध्यान- सुमरन सिखाकर उनमें आत्म‌बल‌ भरते हैं वर्ष भर की संताप  कष्ट भूल  गलति आदि को समोख लेते हैं सार्वजनिक रुप‌ से  स्वीकरोक्ति व क्षमा याचना करते हैं। और पुनश्च जीवन में उर्जा भरकर नव कलेवर के साथ जीवन‌ संधर्ष  मार्ग पर चलने प्रेरित करते हैं। इस तरह देखे तो सतनाम संस्कृति एक विशिष्ट गुरुमुखी श्रमण  चरावेति संस्कृति हैं जो निरंतर गतिमान हैं ....
     यह मानव सभ्यता के आरंभ से अब तक आबाध गति से चला आ रहा हैं ... अनेक महात्मा गुरु उपदेशक पथ प्रदर्शक हुए  उनमें महाम  २७ बुद्ध पुरुष सहित तथागत बुद्ध कबीर नानक रैदास गुरुघासीदास सदृश्य महान प्रवर्तक हुए हैं, होते रहेन्गे ....

हमारी शीध्र प्रकाश्य पुस्तक " सतनाम धर्म -संस्कृति " से 

        ।।सतनाम ।।
-डाॅ. अनिल भतपहरी

50+ वाले के लिए

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*एक दोस्त से पूछा, जो 50 पार कर चुका है और 60 की ओर जा रहा है। वह अपने जीवन में किस तरह का बदलाव महसूस कर रहा है?*
I asked one of my friends who has crossed 50 & is heading to 60. What sort of change he is feeling in him?

*उसने  निम्नलिखित बहुत दिलचस्प पंक्तियाँ भेजीं, जिन्हें  आप सभी के साथ साझा करना चाहूँगा ....।*
He sent me the following very interesting lines, which i would like to share with you all.....

*• मेरे माता-पिता, मेरे भाई-बहनों, मेरी पत्नी, मेरे बच्चों, मेरे दोस्तों से प्यार करने के बाद, अब मैं खुद से प्यार करने लगा  हूं।*
• After loving my parents, my siblings, my spouse, my children, my friends, now I have started loving myself.

*• मुझे बस एहसास हुआ कि मैं "एटलस" नहीं हूं। दुनिया मेरे कंधों पर टिकी नहीं है।*
• I just realized that I am not “Atlas”. The world does not rest on my shoulders.

*• मैंने अब सब्जियों और फलों के विक्रेताओं के साथ सौदेबाजी बंद कर दी। आखिरकार, कुछ रुपए अधिक देनेसे मेरी जेब में कोई छेद नहीं होगा, लेकिन इससे इस  गरीब को अपनी बेटी की स्कूल फीस बचाने में मदद मिल सकती है।*
• I now stopped bargaining with vegetables & fruits vendors. After all, a few Rupees more is not going to burn a hole in my pocket but it might help the poor fellow save for his daughter’s school fees.

*• मैं बची चिल्लर का इंतजार किए बिना टैक्सी चालक को भुगतान करता हूं। अतिरिक्त धन उसके चेहरे पर एक मुस्कान ला सकता है। आखिर वह मेरे मुकाबले जीने के लिए बहुत मेहनत कर रहा है|*
• I pay the taxi driver without waiting for the change. The extra money might bring a smile on his face. After all he is toiling much harder for a living than me.

*• मैंने बुजुर्गों को यह बताना बंद कर दिया कि वे पहले ही कई बार उस कहानी को सुना चुके हैं। आखिर वह कहानी उनकी अतीत की यादें ताज़ा करती है और जिंदगी जीने का होंसला बढाती है |*
• I stopped telling the elderly that they've already narrated that story many times. After all, the story makes them walk down the memory lane & relive the past.

*• कोई इंसान अगर गलत भी हो तो मैंने उसको सुधारना बंद किया है । आखिर सबको परफेक्ट बनाने का ओन मुझ पर नहीं है। ऐसे परफेक्शन से शांति अधिक कीमती है।*
• I have learnt not to correct people even when I know they are wrong. After all, the onus of making everyone perfect is not on me. Peace is more precious than perfection.

*• मैं अब सबकी तारीफ  बड़ी उदारता से करता  हूं। यह न केवल तारीफ प्राप्तकर्ता की मनोदशा को उल्हासित करता है, बल्कि यह मेरी मनोदशा को भी ऊर्जा देता है!!*
• I give compliments freely & generously. After all it's a mood enhancer not only for the recipient, but also for me

*• अब मैंने अपनी शर्ट पर क्रीज या स्पॉट के बारे में सोचना और परेशान होना बंद कर दिया है। मेरा अब मानना है की दिखावे के अपेक्षा व्यक्तित्व ज्यादा मालूम पड़ता है।*
• I have learnt not to bother about a crease or a spot on my shirt. After all, personality speaks louder than appearances.

*•मैं उन लोगों से दूर ही रहता हूं जो मुझे महत्व नहीं देते। आखिरकार, वे मेरी कीमत नहीं जान सकते, लेकिन मैं वह बखूबी जनता हूँ।*
• I walk away from people who don't value me. After all, they might not know my worth, but I do.

*• मैं तब शांत रहता हूं जब कोई मुझे "चूहे की दौड़" से बाहर निकालने के लिए गंदी राजनीति करता है। आखिरकार, मैं कोई चूहा नहीं हूं और  न ही मैं किसी दौड़ में शामिल हूं।*
• I remain cool when someone plays dirty politics to outrun me in the rat race. After all, I am not a rat & neither am I in any race.

*• मैं अपनी भावनाओं से शर्मिंदा ना होना सीख रहा हूं। आखिरकार, यह मेरी भावनाएं ही हैं जो मुझे मानव बनाती हैं।*
• I am learning not to be embarrassed by my emotions. After all, it's my emotions that make me human.

*• मैंने सीखा है कि किसी रिश्ते को तोड़ने की तुलना में अहंकार को छोड़ना बेहतर है। आखिरकार, मेरा अहंकार मुझे सबसे अलग रखेगा जबकि रिश्तों के साथ मैं कभी अकेला नहीं रहूंगा।*
• I have learnt that it’s better to drop the ego than to break a relationship. After all, my ego will keep me aloof whereas with relationships I will never be alone*.

*• मैंने प्रत्येक दिन ऐसे जीना सीख लिया है जैसे कि यह आखिरी हो। क्या पता, आज का दिन आखिरी हो!*
• I have learnt to live each day as if it's the last. After all, it might be the last.

*सबसे महत्वपूर्ण*–
 MOST IMPORTANT

• I am doing what makes me happy. After all, I am responsible for my happiness, and I owe it to me.
*• मैं वही काम करता हूं जो मुझे खुश करता है। आखिरकार, मैं अपनी खुशी के लिए जिम्मेदार हूं, और मै उसका हक़दार भी हूँ।*
💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐
*Good Modicare Morning*

*आपका नीरज*
# सोंच बदलो।
# खुद को बदलो।
# दुनियां बदलो।

आरक्षण हिन्दू धर्म के जाति के १४वे कालम से पृथक होने पर भी रहेगा ‌

: आरक्षण क्यो नही मिलेगा?
मिलते ही रहेगा ।जैसा कि  
आरक्षण डिप्रेस्ड क्लास को‌ मिला हैं। सतनामी ‌भी‌ डिप्रेस्ड है उनकी जमीन हड़प लिए गांव से बेदखल‌ किए क्योंकि यह समुदाय हिन्दुओं की रीति‌नीति मान्यताओं के अलग संस्कृति विकसित कर स्वतंत्रता पूर्वक जीने रहने की दुस्साहस किए ।फलस्वरुप बहुसंख्यक हिन्दू मिलकर इनके ऊपर जुल्म सितम ढाए यह अनुक्रम चलते रहा ।इस समुदाय को  एक सोची समझी सडयंत्र के तहत सार्वजनिक रुप से अपमानित करके हिन्दुओं की विधटन को रोके गये और उन्हे  चमार दलित धोषित कर बहिष्कृत किया गया जबकि यह कृषि पेशावर मेहनत कस जाति विहिन पंथ हैं न कि अस्वच्छ कार्य में संलिप्त  जाति  हैं। बल्कि अनेक जातियों के लोगों ने गुरुघासीदास की प्रेरणा से  अपने जाति बंधन को त्याग कर हिन्दुओं से अलग स्वतंत्र पंथ के रुप में अस्तित्व मान हुआ। इसे एक अलग रुप से चिन्हाकित करना था पर समकालीन अफसरो योजनाकारो की अनभिज्ञता के चलते बडी ऐतिहासिक भूल हुई जिसका खामियाजा आज पर्यन्त यह स्वाभिमानी सात्विक   समाज भोगते आ रहे हैं। और कब तक सामाजिक वैमनस्य भाव को ढोते रहेन्गे ?
और सभी डिप्रेस्ड क्लास कालम 14 मे नहीं है।
कालम 14 प्रमुखतः  चमार जाति हैं। उनके अधीनस्थ या उनमें गिनी जाने वाली सह जातियो या उपजातियो के समूह है। 

जबकि सतनामी कृषक जाति व सम्मान जनक कृषि पेशावर जाति हैं। यह छग में कुर्मि तेली के समकक्ष प्रमुख जाति हैं। उन्हे कालम 14 से तत्क्षण पृथक कर स्वतंत्र रुप से अंकित करना चाहिए।
क्योंकि  सतनामी जाति नहीं एक पंथ के अनुयाई हैं। उसे सडयंत्रियों ने या अनभिज्ञ मूर्ख अफसरों ने जानबूझकर रखा हैं।

    सतनामी को यदि अस्पृश्य  जाति के रुप में ही चिन्हाकित किया जाना था और सुविधाएँ देना तो था तो जैसे गाडा  घसिया चमार महार जाटव  अलग अलग जाति को रखे । वैसे प्रमुख सत‌नामी जाति बनाकर रखना था न कि चमार जाति के सहजाति बनाकर , यह बहुत पीड़ा या कष्टदायक हैं।
  जो नहीं है वह समकालीन प्रशासकीय अधिकारियों की लापरवाही से हुआ,उनका खामियाजा आत तक भुगत रहे हैं।

 जो समाज अपने अस्तित्व में आते ही सात्विक और संत समाज था उसे अस्वच्छ पेशेवर जातियों के कोटी में रखना केवल मुर्खता और सडयञत्र के सिवा कुछ भी नहीं है। 

हमारे लोग भी इस सामान्य सीबह बातों को आज तक नहीं समझे और सुविधाएँ मिल रहे हैं। समझकर अपमान का दंश झेलते आ रहे हैं। यह वाकिय में बडी विडंबना हैं।

  हमारे लोगो को इनके लिए नये सिरे से सार्थक संशोधन हेतु पहल करना चाहिए या सीधा सीधा हिन्दू से अलग सतनाम धर्म या पंथ के लिए सञधर्ष करना चाहिए।सच कहे तो सतनामी हिन्दू ही नहीं हैं।यह सर्वविदित है कि सतनाम हिन्दुत्व के समनान्तर ही एक पृथक संस्कृति के रुप में अतित्वमान हैं।
   पर जैसे कि होते आया हैं कि सनातनी हिन्दू  मुस्लमान ईसाई बौद्धों से दुर्व्यवहार करते हैं। छुआछूत मानते हैं ठीक उसी तरह सतनामियों के साथ भेदभाव हुआ । और इसे एक अछूत जाति बना कर चमार के सह जाति या उपजाति बना दिए गये। 
पर  तत्कालिक अंग्रेज अफसरो को मनुवादियो या सवर्णों के प्रेशर में अर्थ का अनर्थ नहीं करना था ।
ऐसा कौन सा पौनी पसारी सेवादार जाति सतनामी है ? 
जबकि उनके पास 262 गांव की गौटियाई 81 गांव की मालगुजारी और 8 +8 गांवो का दो राज क्षेत्र भंडारपुरी / बोडसरा के राज रजवाडे थे। यह समुदाय भले हिन्दुओं के लिए प्रतिद्वंदी होकर उनके लिए बहिष्कृत हो गये पर कभी उनके आश्रित नहीं रहे । उनकी अधीनता नहीं स्वीकारे बल्कि चुनौती स्वीकारे फलस्वरूप उनके साथ भेदभाव कर उन्हे अपने पृथक कर दिए गये। 
    २-३ सौ  एकड वाले तो सैकडो परिवार थे। उस समय और अब भी  अनेक ओबीसी जातियाँ सौजिया व बनिहार सतनामियो के है। उनके खेतो में घरो में  अब भी काम करते मिलेगे ।

क्या यह हैसियत उन देशी  गवार अधिकारियों को पता नहीं कि विदेशी अंग्रेज महामूर्ख थे?
     और हमारे लोग उस समय इतने नादान व भोले भकले थे ?

कुछ तो था जो हो गया पर अब नहीं चलब इनके लिए प्रभावी एक्शन मोड पर आने ही होन्गे ।
   क्या  मृत जानवरो के खाल उतार कर हिन्दुओं के पौनी और उनके आश्रय में जीने वाले अछूत चमार है सतनामी ।
  सतनामी अछूत हुआ उनके देवी -देवता मान्यता और पंडे पुजारी को नकारने के कारण ।
सतनामी अछूत हुआ द्वेष और ईर्ष्या के कारण।
  यह आज भी देखा जा सकता है।

हिन्दुओं के साथ मोची मेहर गाडा भोलिया रौतिया  घसिया महार चमार जाटव का बडा ही आंतरिक लगाव है ये सबके बि‌ना उनके निस्तार नहीं ।
जन्म शादी ब्याह मरनी हरनी में सभी उनके सहभागी होते हैं। वह हिन्दू ही है।
पर क्या सतनामी सहभागी है क्या यह समाज पौनी पसारी है ? 
किसी भी गांव के अनपढ से पुछो बता देगा कि सतनामी अलग है और मेहर अलग है। 
पर हमारे महान देश के समकालीन  योजनाकारो  अधिकारियों को यह जरा सा पता नहीं और एक प्रखर पराक्रमी स्वाभिमानी कृषक समुदाय को चमार के सहजाति धोषित कर दिए। 
द्वेषी हिन्दू झूम गये और सार्वजनिक रुप से कानूनन भेदभाव करने लगे ।और तो और गाहे बगाहे उन  प्रछिप्त जाली दस्तावेज़ के आधार पर अबतक अपमान करते आ रहे हैं। ताकि इस समुदाय का आत्मबल कभी आगे न बढ सके । हमारे बढते प्रभाव को इस तरह सार्वजनिक रुप से लिखित में  अपमानित करके रोका गया है। और आज भी अपनी वजूद और पहचान के 
लिए बेबश / विवश  है।
      यह बेबशी कब तक चलती रहेगी ?

 हमारे कुछ ब्रेन वास्ड  दलितज्म के पैरोकार लोग  और भी महामुर्खाधिराज हैं।और ठकली झाडू उनके लिए रतन पदारथ है  ,उन्हे अपने तिजोरी‌ में रखे है क्या ? बहरहाल जो  छत्तीसगढ़ में हुआ नहीं उसे यहाँ होने का तर्क देकर उन्हे अपने पाले में रखने का सडयंत्र भी‌ होने लगे हैं।
   उनके घरो में जाकर देखना चाहिए कितने वर्षो से हैं?
यदि वास्तविकताए जानना है अपनी प्रयोजित छद्म विचार धारा से मुक्त होकर दिल से यह नीचे कोटेशन छत्तीसगढ़ी का पढे और गहनता से विचार करे 
डा.अम्बेडकर के समकालीन कत्कोन सतनामी  मंडल गौटिया  मन पढे लिखे रहिस । फेर ओमन नौकरी चाकरी न इ करत रहिन ।
भलुक समाज सेवा करय 

राज्य के अलग अलग क्षेत्र 72 संत महंत मन कांग्रेस के अधिवेशन में गय रहिन जेमन जबर गौटिया रहिन ।
         अउ बडे हैसियत दार रहिन हाथी घोडा किल्ला कस महल अटारी रहिस ।
राउत तेली मरार गोड कवर मन सौजिया लगय ।
बने अपन पुर्वज बबा ददा मन सो पुछ लव ।
   चरिहा सुपा म सोन चांदी नापय 

जुआ खडखडिया खेलय ४-५ झन सुवारी राखय अउ मतंग राहय।
ते पाय के धन दोगानी सिरा तको गय।
   अउ जेन सम्हाल के राखिस ओमन आजो ले बढिया जीयत खात हवे।
हा भ ई जनसंख्या बाढे ले जमीन कमतिया गे ।
   अउ लगातार अपमान के सेती मंद म उहा म तिडी बिडी तको होगे।
 फेर बहुत झन पढ लिख के शहर घर लिन अउ  अन्य छत्तीसगढ़ी समाज के तुलना म बराबर नहीं तो कुछ कमती या आगर  नौकरी पक्का मकान के रहवासी हे।
    चाहो तो सर्वेक्षण करा सकथव ।

सच तो यह है कि हमे बौद्धिक स्तर पर  सतनामी रामनामी सूर्यवंशी महार चमार न लड़कर 

हिन्दू vs सतनामी लडना चाहिए।

 और इन वर्गो को संधटित कर  हिन्दू  धर्म  की  जीर्ण शीर्ण खो खले होते जड़ को उखाडना चाहिए। या मठा डाल देना चाहिए। क्योकि यह वर्णाश्रम पर आधारित भेदभाव के उद्गाता पोषक व संरक्षक हैं। सच तो यह है कि‌ हिन्दूत्व ही मानवता के असल शत्रु है। अनेक अमानवीय बर्बर प्रथाएं हैं।
शास्त्र मंदिर पंडे और अंधविश्वास उनके अस्त्र शस्त्र है।
   उनसे निपटने हमारे पास एक ही महाअस्त्र है  ।।  सतनाम ।।
    इनका भलीभाँति प्रयोग करे और मानवता को बचाए हम सब मिलकर न कि प्रभाव दिखाने के चक्कर या जानकर होने के छद्म दंभ पालकर या राजनैतिक रुप से मतभेदो में उलझर शक्ति समय बर्बाद कर खारिज होने नादानी बिल्कुल न करे।
विध्नसंतोषी और विध्नकर्ता तो सदैव चुनौति जैसे सामने आते ही रहते हैं। उन्हे उनका काम करने हमे अपना काम करना चाहिए ।
रौशनी अच्छी और प्रखरतम होन्गे तो  धुंध व अंधेरा स्वत: छट जाएगा। उनकी अधिक चिन्ता करने की जरुरत नहीं ।
   हमे अपना रौशनी कैसे अधिक चमकदार और सदा के लिए जलते रहे के बारे में चिन्तन मनन और सृजन  करते रहना चाहिए। प्राय: छग मे   सतनामी  समाज आजादी के पूर्व सम्पन्न व सुखी थे हिन्दुओं के  निरन्तर अपमान व तिरस्कार के चलते बिखरते व टुटते गये।आक्रोश के चलते लडते झगडते बरबाद होते गये । यदि अपमान तिरस्कार का यह खेल चलता रहेगा तब तक समाज का कोई  कल्याण नहीं भले घर घर डा इंजी आई ए एस आई पी एस हो जाय  पर सामाजिक तिरस्कार से नहीं उबर सकते क्योकि यह हिन्दुओं की संस्कृति ‌है। यह बातें हमें अच्छी तरह गाठ बांधकर समझना चाहिए।‌इसलिए उनका परित्याग ही एक मात्र विकल्प हैं।

      -डॉ. अनिल भतपहरी 

हुश्न ए नब़ी



2

।।हुश्न-ए-नब़ी ।।

तेरा चेहरा है कि मयख़ाना मेरी आंखे हैं कि शराबी 
डूबे  हुए नशे में इनकी चाल बड़ी ही  खराबी...

न बुत परस्ती  न सजदे  न कोई इबादतें 
इश्क-ए-आग की दरिया में देख इनकी बरबादी ...

बनने लगे फ़िरके और ईज़ाद किए मज़हबें 
ये कैसा काफ़िर सज़दे करने लगे मज़हबी ...

शागिर्द हैं अनिल लिखना -ए- तवारिखें 
ओ कलंदर हुए मस्त मौला हुश्न -ए नब़ी ...

      डा. अनिल भतपहरी / 9617777514

पुरी मंदिर मूर्ति रथयात्रा

पुरी का मंदिर मूर्ति  व रथयात्रा 

जगन्नाथ मंदिर बौद्ध मंदिर हो सकते हैं।
यहाँ की  मूर्तियाँ बौद्ध लामाओं की तरह  तिब्बती यक्ष शैली में हैं। दो यक्ष साधक और मध्य में साधिका है ।‌(इनका विस्तार पुरा उत्तर पूर्वी परिक्षेत्र में हैनेपाल तिब्बत भूटान सिक्किम असम  उडीसा छत्तीसगढ़ में यह परिव्याप्त हैं।)
इन बौद्ध यक्ष साधको को ही कृष्ण सुभद्रा बलराम कहे गये।ऐसा जान पड़ता है।
जबकि शेष जगह इन तीनो भाई बहनो का कही कोई प्रतिमा न मंदिर नहीं । तो यही अचानक भयानक क्यो? वह भी सुदूर द्वारिका / मथुरा से  वहा ऐसा क्यो नही ?
  कहानियाँ व गाथाए तो बाद में गढ लिए जाते हैं। 
  
 बहरहाल ध्वज भी उसी के रुप में है। ऊपर शिखर में अशोक चक्र ही जैसा चक्र भी है।  वहा भेदभाव भी‌ नहीं ‌है जो‌कि इसे और अधिक संपुष्ठ करते हैं। ‌अधिकतर पंथ प्रवर्तक  संत गुरु जिसमें ‌कबीर ‌जगजीवन दास, गुरुघासीदास, संत धर्मदास  ‌ संत कर्मा माता संत सतवन्तीन आदि वहाँ की यात्रा कर अपने मत को बेहद प्रभावशाली रुप में स्थापित ‌किए।
    जैतखाम वहां के मंदिर प्रांगण में स्थित‌ धम्म स्तंभ ( जिसे बाद मे गरुड स्तंभ कहे गये )के प्रतिरुप है जो  दर असल‌ यह अशोक का धम्म स्तंभ ही हैं। 
जो कि अन्यत्र कहीं नहीं है दूसरा सिंह गज आदि का प्रतीक भी बौद्ध संस्कृति से हैं।  वैसे भी कलिंग में अशोक के बाद बौद्ध धर्म ही लोक‌धर्म हो गये थे।

    रथयात्रा एक तरह से जुलुश व  शोभायात्रा ही हैं यह बौद्ध संस्कृति का हिस्सा है। प्राचीन काल में ‌इस तरह के गजपतियो श्रष्ठियों सांमतो का वैशाली मगध श्रास्वती जैसे जगहों पर शोभायात्रा निकलते रहे हैं।
              उसी अनुक्रम में विजयी आशोक ‌भव्यतम शोभायात्रा  निकाले  यही पुरी की रथयात्रा अशोक का ही विजय अभियान का  स्वरुप हैं। जिसे कलान्तर में नव कलेवर दिए गये।

    उडीसा में वैष्णव और शैव मत का कोई विशेष प्रभाव नहीं है। यहाँ  सहजयानी बौद्धों के शरभ शबर सतपंथी यानि सतनामी ‌संस्कृति का बेहद गहराई से प्रभाव है। 
   बोध गया का मंदिर सिरपुर का लक्षणी बौद्ध विहार (जो अब  लक्ष्मण देवाला कहे जाते हैं।) ६-८ वी सदी का हैं। 
इनके अनुकृति पर ही पुरी कोणार्क निर्मित हैं। 
          इस तरह से वहा के स्थापत्य लोक संस्कृति ‌पर्व उत्सव जैसे नुआखाई आदि को शेष उत्तर भारतीय आर्य संस्कृति से इतर नये ढंग से गहराई से विश्लेषण करने‌की आवश्यकता हैं। 
     कही न कही इन सबके निर्माण में बौद्ध व सनातन संस्कृति का समन्वय तो हुआ ही होगा।
शंकराचार्य द्वारा चार पीठ की स्थापना महत्वपूर्ण बौद्ध स्थलों के इर्दगिर्द ही या वही पर हुआ।
   इसलिए उन्हे प्रछन्न बौद्ध भी कहे  जाते हैं। और उनके ही कार्य काल में बौद्ध धर्म का पतन होना आरंभ हुआ । 
  एक बात और ध्यान देने योग्य हैं आर्य संस्कृति में पुर नहीं होते यह पुर यानि महत्वपूर्ण स्थल द्रविड़ या मूल निवासियों का प्रमुख स्थल होते हैं। उन्हे नष्ट करके इंद्र पुरंदर कहलाए ।
     अत: पुरी नाम आर्यन संस्कृति तो हर हाल में नहीं है यह नितांत भारतीय संस्कृति हैं और मूलनिवासियों की प्रमुख  केन्द्र स्थलियों से संदर्भित हैं महाबलि पुरम , रोहणीपुरम ,रायपुर ,बिलासपुर , कौशलपुर, सिरपुर इत्यादि।

Thursday, June 18, 2020

1* मन में

तेरी तरह कोई तो बसी हैं मन में 

पर क्युं कुछ खाली हैं  जीवन में

आग लगी और पानी भी बरसा 

कुछ असर नहीं जलन-भींगन में 

ये मस्तानी शाम और रुहानी रातें

थकान मिटती नहीं कोई सीज़न में

अब तो तड़फ की लत ही लगी हैं

बिन इनके मज़ा क्या है जीवन में  

     - डा अनिल भतपहरी

Saturday, June 13, 2020

सतनामी समाज और उनका प्रभाव


बहुजन समाज जो श्रमण हैं , परिश्रमी हैं और हर हालात में जीने की जीवटताएं हैं। वह किसी को छलता नहीं बल्कि सबके साथ सामनता पूर्वक व्यवहार करता हैं। वह दलित , याचक  कैसे ?
असल में हमें इन समुदाय में नये ढञग से आत्मविश्वास भरने होन्गे।
यह समाज मेहनत कश समाज हैं। अपने हाथो कमाकर पेट भरना जानते हैं। 
   उन्हे उनकी अपनी शक्ति को बताने होन्गे कि आप सब कैसे संगठित होकर  खुद मुख्तार बन सकते है।
   भले आपके पास संपदा न हो संशाधन न हो पर वोट तो हैं उनका सही इस्तेमाल करे यह शिक्षा या ज्ञान उन्हें संजीदगी से उनके  सहू हितैषी और साधन वाले समझदार लोग दे ।तो देर सबेर हालात बदलेन्गे । केवल गरियाने लताड़ने फटकारने और दो अक्षर पढ लिए थोडी बोल चाल सीख मतलब उन्हे उनकी औकात व जमीर दिखाने की जरुरत नहीं ।
    बहुत दुख होता हैं कि बार बार इन समुदाय  झाडू ठेकली वाले कहे जाते हैं। धिनौनी इतिहास की शर्मनाक बातें बताई जाती इसलिए कि ये उद्वेलित हो विद्रोह करे । पर इससे न वे उद्वेलित होन्गे न बागी बनेंगे न विद्रोह करेन्गे बल्कि डिप्रेशन में चले जसेन्गे ।
   यही होने लगा है। जिस समुदाय को संतो गुरुओ ने धैर्य धराते आत्मबल बढाया आज कुछ तथाकथित लोग  गुलामों को गुलामी की जंजीर तोड़ने उलूल जुलूल पाठे पढाए जा रहे हैं। फलस्वरुप ८०% में उनके साथ १०% नहीं संग साथ होते क्योकि इन्हें न समझाने की तमीज हैं। और आत्मबल बढाने की सलीका पता हैं।
  माना कि वह भी एक तरीका पर यही प्रमुख और एक सूत्रीय सटीक फार्मुला हैं। ऐसा नहीं ।
   आत्मबल बडे तो सञगठित सतनामी जैसे छत्तीसगढ़ में किया राज रजवाडे ले लिए और समकालीन राजनीति के प्रमुख बटैत व हिस्सेदार बन गये ।शेष प्रांत या जगहों पर अनु जाति वर्ग के लोगों में वह आत्मविश्वास और अलग संस्कृति विकसित करने का अब भी साहस नहीं हो सका ।
वे लोग आज भी देव धामी पञडित पुजारी के चक्रव्यूह में फसे हुए हैं।
     छत्तीसगढ़ के सतनामियों से प्रेरणा तो महाराष्ट्र के  महार उप के  चमार  म प जाटव परिहार आदि को लेना चाहिए। 
   कैसे यह समुदाय मंदिर मूर्ति पंडे पुजारी को बहिष्कृत कर जैतखाम और गुरु संत महंत के सानिध्य में एक शानदार समानता पर आधारित संस्कृति विकसित कर लिए और प्रदेश में अपनी जनसंख्या के हिसाब से आजादी के बाद से अबतक विधायक मंत्री सांसद बनकर मुकाम हासिल किए।
    और धीरे धीरे विकास की ओर अग्रसर होते शिक्षा व रोजगार व स्वरोजगार की ओर बढते जा रहे हैं।
       ऐसा अन्यत्र तो नहीं हुआ क्यो नही हुआ यह भी विचार करे।
          हा वर्तमान सदैव असंतोष का रहता है। सतनामी अभी उठ खडा हुआ है उसे सबसे आगे निकलना हैं। वह  जोश दिखता भी हैं अनेक समाज हमारे अनुशरण करते हमसे भी आगे निकल रहे हैं।
उसमे कुर्मी तेली यादव प्रमुख हैं।
आज से ३०-४० साल पहले इन समुदाय के कोई सांस्कृतिक व राजनैतिक जागरण नहीं थे आज केवल सतनामियों के कुशल संगठन और पृथक सांस्कृतिक मान्यताओं के देखा देखी समाजिक संगठन और सभी पार्टियों से जनसंख्या अनुपात में नेतृत्‍व मांग सके है। 
    तो छत्तीसगढ़ में यह प्रमुख समुदाय हर समुदाय के जागरण का कारक और मार्गदर्शक हैं। पर दुर्भाग्यवश हमारे लोग इसे ठीक ठाक नहीं जानते न समझते  और किसी अन्य प्रांत के अनु जाति के कथित लीडरों के बहकावे में सतनाम संस्कृति का ही परित्याग या उनकी अवहेलना करने में लग जाते हैं।
   और यह समझने की भूल या मुगालते में है कि बिना सतनाम के यहाँ  राजनैतिक रुप से हुक्मरान बन सकेन्गे ।
रामनामी सूर्यवंशी जो वाकिय में मानसिक दासता के साथ गुलामी के दंश में थे जरुर उधर यह फार्मूला चल पडा पर मैदानी क्षेत्र में टाय टाय फिस्स हो गया।
इसलिए पहले सांस्कृतिक व ऐतिहासिक तथ्यों को जाने समझे फिर यथोचित  काम करे ।
यु डायलाग बाजी और उलाहना आलोचना कर लोगों के बीज प्रखर स्वाभिमानी सतनामी समाज का अपने ही लोग सार्वजनिक अपमान तिरस्कार न करे।
दुसरों से निपटे जा सकते पर अपनों से निपटना मुस्किल है। क्योकि न उन्हे काट छाट या डाट डपट  सकते न  उन्हे बिलगा सकते।
वैभव और स्वाभिमान की गावे पुरखो की पराक्रम सुनावे संगठित व लाम बंद होवे हमारे सबसे बडा अस्त्र हैं। समानता और स्वतंत्रता उसे सार्वजनिक रुप से बताए सबको जोडे और जुडकर सब मिलकर हुक्मरान बने ।
अकेले हुक्मरान बनने की न सोचे यदि ऐसा होगा तो शोषण दमन कभी खत्म नहीं होगा।
   हम मानवतावादी है मानवता का कल्याण चाहते हैं विष पीकर सबका भला चाहने वाले सांस्कृतिक चेतना के उन्नयक हैं। 
       
        
   

खुमान संगीत

तुम ये कैसे जुदा हो गये,
      हर तरफ हर जगा हो गये।
                                     -अज्ञात
     
         खुमान साव के निधन पर मैंने अपने मित्र श्री अनिल भतपहारी की पोस्ट पढ़ी। उनकी पोस्ट को पढ़कर मैं भी पुरानी यादों में खो गया। मुझे लोकरंजनी और सुर श्रृंगार जैसे कार्यक्रमो में बहते लोक-संगीत की महक अपने आस-पास ही महसूस होने लगी और याद आने लगे कुछ गीत जैसे-बटकी म बासी अउ चुटकी म नून, डोकरा के देखेंव दाई,एक पैसा के भाजी ला, तोला जोगी जानेव रे भाई, ये दे आगे फुल्ली बेचईया, धर ले रे कुदारी गा किसान,गुल गुल भजिया खाले, गज़ब दिन भई गे राजा तोर संग म नई देखेंव खल्लारी मेला, आदि गीत मेरे स्मृति पटल पर आने लगे।

       बहरहाल मैं यहाँ पर मामूली संपादन के साथ श्री अनिल भतपहारी जी की खुमान साव से संबंधित पोस्ट साझा कर रहा हूँ।
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यादें

छत्तीसगढ़ की फिज़ाओं में बहती 'खुमान संगीत' की       स्वर-लहरियां

सम्पूर्ण बंगाल में जिस तरह रविन्द्र संगीत की स्वर लहरियां गुंजायमान हैं उसी तरह छत्तीसगढ़ के संगीत प्रेमियों के लिए  'खुमान संगीत' एक अलग ही जादुई अहसास लिये हुए बहता है। 

मुझे अपने  पुराने दिन याद आते हैं। अपने पिताश्री
 (सुप्रसिद्ध रंगकर्मी व सतनाम संकीर्तन-कार सुकालदास भतपहरी "गुरुजी" ) के सानिध्य में मुझे गीत- संगीत और अभिनय आदि सीखने और उनका प्रदर्शन करने  का अवसर मिला । 

दशहरे - दीवाली  और गर्मी की छुट्टियों में मैं अपने गांव जुनवानी जाया करता तो घर  के आंगन में खाट पर बैठे पिताजी बाँसुरी से "का धुन बाजव मय धुनही बसुरिया"  वाले गीत की मधुर धुन छेड़ते।  मैं पास ही रखे हारमोनियम के साथ संगत करते हुए चिटिक अंजोरी निरमल छंइहा ... बजाने को कहता... और फिर खुमान साव की अनेक धुनें यूं ही यकायक हमारे साथ ही स्वाभाविक रूप से बहने लगतीं। 

आसपास के वातावरण में गजब की खुमारी छा जाती। शोर मचाते  हुए रेस-टीप(हाइड एंड सीक) और अंधियारी -अंजोरी खेलती हुई  बाल टोलियां और साथ ही निंदारस में डूबे  अन्य ग्रामीण बरबस ही हम बाप- बेटे की जुगलबंदी सुनने के लिये सकला जाते ... और फिर वे फरमाइशें करने लगते।
 
आकाशवाणी रायपुर से प्रति बुधवार दोपहर में  सुर-श्रृंगार सुनने हम स्कूल बंक करते ... और फिर गणित और रसायनशास्त्र वाले सर से डांट सुनते,लेकिन जब चौरा म गोंदा रसिया, मोर संग चलव रे, काबर समाए  रे मोर बइरी नयना मं, पान ठेला वाला, या मंगनी म मांगे मया नइ मिलय जैसे गीतों का मनन  करते तो  मन अल्हादित हो उठता और डांट-फटकार के दंश से अपने को मुक्त समझने लगते।

उनके गीत विगत ४० वर्षों से सैकड़ों-हजारों बार सुनते व गुनगुनाते आ  रहे हैं, पर मन नही अघाता...पता नही कौन सा जादू है इनमें कि फिल्मी गीत भी इनके समक्ष बेहद हल्के लगते हैं।

लक्ष्मण मस्तुरिहा के गीत, खुमान साव का संगीत और रामचंद्र देशमुख का चंदैनी गोंदा लोक मंच...इन तीनों का बेहरारीन संयोजन पिछले ५०-६० वर्षो से छत्तीसगढ़ की माटी की सौंधी-सौंधी के साथ हमारे मन में रचा-बसा हुआ है। यह संयोजन छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक विरासत को समृद्धि की ओर ले जाने में मील का पत्थर सिद्ध हो रहा है। इन तीनो के बिना छत्तीसगढ के सांस्कृतिक नक्शे का  चित्रण संभव ही नही है।

अनेक  गीतों में अपने  बेहतरीन संगीत संयोजन से जनमानस को मुग्ध व आनंदित करने वाले और छत्तीसगढ़ी संगीत को  शिखर तक ले जाने वाले महान संगीतकार खुमान साव जी  को विनम्र श्रद्धांजलि ।
 
वे गये नहीं हैं बल्कि छत्तीसगढ़ की फिज़ाओं में बिखर गये है।
  
-डा अनिल भतपहरी

Thursday, June 11, 2020

सतनामी इतिहास

🖍️ नरेन्द्र भारती
कुछ लोग कहते हैं इतिहास सिर्फ अंग्रेज ने लिखा है।और उनके हि लिखे को मानते हैं पतियाते है। वास्तव में उन्हें सतनामी समाज का इतिहास का वास्तविक इतिहास ही पता नहीं। हमारे पुरखों के पास भी बहुत ही सटीक और स्पष्ट इतिहास का ज्ञान था।जो अपने मौखिक स्वरुप में था। क्योंकि गुरु घासीदास ने किसी प्रकार के लेखन से मना कर दिया था। They have no written creed. (सेंट्रल प्रोविंस गजेटियर)
       और ghasidas the author of the movement, like the rest of the community,was unlettered (द लैंड रेवेन्यू सेटलमेंट आफ बिलासपुर १८६८
।  परन्तु हमारे सतनामी समाज के कुछ विद्वानों ने उन्हें लिखित करते हुए अक्षरबद्ध करने का कार्य किया।आज हजारों सतनामी समाज के साहित्य और ग्रंथ उनके प्रमाण है।
      हमारे गांव में भी कमरछठ के दिन पुजा का परंपरा था जिसमें आल्हासहित सतनामी बिरदावली कहा जाता था। मेरे पास पं गिरधर डहरिया रचित हस्तलिखित दस्तावेज कापी है। जिसमें उसका उल्लेख था। जिसे मैंने सुलेखित कर प्रमाण के तौर पर रखा हूं। स्व. पं जगतटंडन और पं रामप्रसाद डहरिया(है) के मुख से सुना था।वहीं आप सबके सम्मुख प्रस्तुत है:-
🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼
अहो।बेटा सतनामी सुन लो, 
कौन है हम सतनामी जगसार।
सतनाम को केवल माने,
नहीं मानें कोई और आधार।।१।।
सतनामी जग में सत पुजे,
जिनके बल से टिके संसार।
ताकर बंस में है हम जनमे,
जन्में जिहा घासी सुखसार।।२।।
पवित्रदास, संतदास,जन्में,
सतखोजन के कुल आधार।
आदिकाल जो सत को पायो,
आतम शोध के करय प्रचार।।३।
सतनामी के नाव धारिके, 
संतों के लगावै बेड़ा पार।
जुग बलिदानी हम सतनामी,
राखय सदा ऊंचा व्यवहार।।४।।
टीक -टाक कोई भेद ना मानय,
नहीं मानय, देव सरग बिचार।
राहनी आपन जग से ऊची,
उची आपन कुल के व्यवहार।।५।
जे कारण सब काहय सतनामी,
सतनाम के प्राण आधार।
बात हमारी राजे सुन ल्यौ,
सुन लौ कुल कथा बिस्तार।।६।।
कितने बंस सतनामी सुनले,
कौन- कौन ,उनके गलहार।
कहां -कहां निवास थे उनके,
कहां -कहां उनके बिसतार।।७।।
💮💮💮💮💮💮💮💮
प्रथम बखानौ बंस घिवलहरा,
सतनाम के रे पतवार।
पवित्रदास के बंस जन्मे
सकल गुरु बंशज परिवार।।८।।
 दुसर बखानौ कठ भतपहरी,
 नुना बंश जोधा सरदार।
भानु ढिढी बंस बखानौ,
और कठैईया गोतियार।।९।।
बंस बघेला दुसर बखानौ, 
पुजे जग कारण बाघमार।
बादशाह जाकर लोहा मानै,
रनबाकुंरा थे सरदार।।१०।।
साध मत भये जोगी से,
दक्खिन कोशल गेये परचार।
रौतिहा बंस राय मनमाने,
पुजिपति और मालगुजार।।११।।
नारनौल और दक्षिण कोशल,
बसे सब कही रुचि बिसतार।
कोसरिया कोलिहा बंस है,
पालय पशु झारा झार।।१२।।
बड़े शुरबीर खुटे,चंदनिहा,
सुय बंस - कोईल,गहिरवार।
किरही बोईर पेड़ी बंस है,
कुररा बाद बने परचार।।१३।।
जांगडा बंस जरकोडिहा ,
बादे बने बंस बंजार।
आडिल,करकल ,पुराने,बंधईया,
पटेल, टंडईया बीर सरदार।।१४।
चतुरा बेटा चतुरबेदानी, 
सोनवानी, डहरिया - कडिहार।
सायतोडे, नेउर, नौरंगे,
ओगरे, सोनकेवरा,खिलवार।१५।
बड़े लडंका भुजबल - बखारी,
सरहा ,जोधाई,अतिबल सरदार।
सायबंस,बंसेज बनाफर,
सोनकेवरा, गुरु-पंच लठियार।१६
चेलकसेवई, भरिया, मनघोघर,
भैंसा, पुरैना कुशल व्यापार।
हाडबंस,मिरचा, सोनबरसा,
जोगी औ भुईफोर गोतियार।
बाद बने घासी परचारे,
सतनाम के उबारन हार ।।१७।।
सोनबरसा,मनमोहिते, सोनवानी,
 घिवलहरा , भतपहरी सरदार।
बघेला,राय, मंडल, अजगले, 
पहले बसे नारनौल हथियार।।१८
बरमदेव, महादेवा,महिलांगे,
माछीमुडी औ वाराभार।
बारमते और जंगरिया, 
इतने सुनैव पुरखा अनुसार।।१९।
💐💐💐💐💐💐💐💐
आगे सुनौ नारनौल की,
जहां रण करें सतनामी सरदार।
भीषण रण ज्यों महाभारत,
रनबांकुरे सतनामी नर-नार।।20
जजिया तो उपलक्ष मात्र था,
असली कारण अत्याचार।
रार मची थी चार बरस तक,
सोलह सौ संबत कर साल।।२१।।
जिसके पंथ में लड़े सब जाति,
मीणा,किसान औ कास्तकर।
घर के भेदी लंका ढाये,
साथ न दिए रसपुत परिवार।।२२
पांच हजार रण में जुझे, 
सिर काटायो गियाराह हजार।
सफल हो गये मुग़ल बादशाह,
करके छल कपट उपचार।।२३।।
बाचे फिर सब अन राज़ को,
जहां पहिले से थे परिवार।
९००आये दक्षिण कोसल,
बसे मनरुचि भाग अनुसार।।२४।
💐💐💐💐💐💐💐💐💐
दक्षिण कोसल के सतनामी,
बड़े किसान कुछ मालगुजार।
मराठी शासन ने लुटे,
सामंती का अत्याचार।।२५।।
दम से गुजरय सतनामी,
राखे धरम धरे हथियार।
सतनाम के ध्यान न छोडय,
छोडय नहीं करम व्योहार।।२६।।
औ गरीब दुबर जो थे,
वाहकर जीवन रहय निस्सार।
पल पल जीवन में दुःख भोगे,
रोवय सोच के तारणहार।।२७।।
🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼
एक चौरासी बछर के बीते,
घासी जनमे मंहगु के लाल।
मानव कै अधिकार दिलाया,
बिना हाथ खडग-तलवार।।२७।।
सत के पुजा करौव बतायो,
मुरति पुजा कहे बेकार।
नाम पान उपदेश औ बानी,
छत्तीसगढ़ म करय परचार।।२८।
अगम अपार गुरु के महिमा,
सुनैव पुरखा मुंह अनुसार।
जात-पात के भेद मेटाये,
लेसय अ धरम के संसार।।२९।।
मनखे म स्वाभीमान जगाके,
मेटे राहय भाव हिनहार।
रुढ़िवादी के जर काटै,
 धरे  ज्ञान किरपान के धार।।३०।।
नर नारी सामान बताये,
परदा औ सति परथा बेकार।
चुरी परथा के रित चलाये,
टोनही परथा कहें धिक्कार।।३१।।
रोग- शोक सब झन के टारे,
मानय बाबा के चमत्कार।
मनखे मनखे एक बताके,
टोरय गढ़ ,अधरम के साथ।।३२।।
दमन करें के चाल चलावय,
 बनिया,बांभन, ठाकुर सरदार।
सतनाम ला बोरे खातिर,
पोची देवय अंग्रेजी सरकार।।३३।।
जन-जन हां सतनाम ला मानै,
बाबा बनगे कंठ के हार।
जाति-धरम औ बरन छोड़ के,
सतनामी बनेंगे संसार।।३४।।
💐💐💐💐💐💐💐💐💐
राजा गुरु बालकदास जी,
गुरु घासीदास के उत्तराधिकार।
करै परचार हाथी मां चढिके,
रामत परथा के अगुवार।।३५।।
सतनामी के मान बढाये,
सतनाम के करय परचार।
सतनामी ला सुनता करके,
राखय-महंत ,भंडारी, छडीदार।।३६।।
सरहा जोधाई दाये-बाये,
सोहय राजसि रुप आपार।
बल, बुद्धि के लोहा मानय,
ठाकुर बांभन-अंग्रेज सरकार।।३७।।
ऐसे गुरु थे बलिदानी,
महिमा ओकरो अपरंपार।
ऐसे बंस के है सतनामी,
जानौ आपन कुल के सार।।३८।।
भेद लडाई मन झन लानौ,
 सूनता  राखौ सतनामी चार।
जुर मिल सब आगू बाढौ,
अवसर खड़े हे बांह पसार।।३९।।
बालकदास जी नीति बनाये,
रामत लगा करय परचार।
गांव गांव संसथानी खोलै,
बाचय जेला सतनामी डिहवार।।४०।।
सतनाम के रिति नीति,
ज्ञान शोध के करय बिसतार।
स्वाभिमान के लेखा जोखा,
अटके नहीं सतनामी परिवार।।४१।।
कुल काज करे अपने हाथों,
अपने धन अपने व्यवहार।
आप चरावै, आप निरावै,
सतनामी सुनता सुखसार।।४२।।
संत महंत को आज्ञा दिना,
गांव रहे भंडारी छडीदार।
सतनामी संगठित किन्हा,
रामत करय गुरु भंडार।।४३।।
भुमि हीन के भुमि खातिर,
गरजे सम्मुख अंग्रेज सरकार।
शिक्षा दीक्षा के नीति खौलौव,
जो जीना है देश गुजार।।४४।।
तेहि परमान से शासन घुमे,
भेंट दिया सोना तलवार।
हाथी -घोड़ा भाला- बरछी,
तबल, सिंघासन पर असवार।।४५।।
भुजबल,बखारी , सुंदरी,रूपन 
सुकुल, सिलाल, सरहा -जोधा,
आदि सब थे बीर आपार।
अतिबल,सैनी,माधोदास थे
पुहुप,बिसाल और छत्रसाल।
सतनामी सब बड़े बीर थे,
नाय लड़ईया कोनो हथियार।।४६।।
अखाड़ा करय, रण भांजय,
बाजय मांदर अपरंपार।
अमर दास गुरु पंथी नाचय,
नाचय सब सतनामी सरदार।।४७।।
गुरु ज्ञान के सीख परचारै,
महिमा गावै नर और नार।
सतनामी बने कतको तैलासी
घुमत फिरे चेटवा परचार।
जहां पर गुरु समाधि लिन्हा,
मरवा दिया, मति को मार।।४८।।
💐💐💐💐💐💐💐💐
सतनामी घर अचल संपत्ति,
दुध दही के रे बोहय धार।
आपन करनी लुटा दियो सब,
कुछ नशा,कुछ खातिर नार।४९।
प्रकृति बड़ा नाश धरायो,
गांव उजड़ते बसते भरमार।
ठाकुर पंडित चाल रचावै,
छिन लैवै जनेऊ अधिकार।।५०।
सत्ता,धनबल और जनबल से,
सतनामी पर करै अत्याचार।
जो सतनामी रार मचावय,
धर लेगय गोरा सिपेसलार।।५१।।
छल, प्रपंच इतिहास बिगारै,
लिखवावै बहु अनाचार।
लेखा मेटे जौन जात के,
तेहिमन ला काहय चमार।।५२।।
नैनदास और अगमदास जी
नागपुर मा लिखईन करार।
सन् १९२६था
 लिखें इतिहास अंग्रेज बरार।। सतनामी है केवल सतनामी
झन पढ़ें लिखे जाय नाम बिसार।।५३।।
 मगर जमीनदारों के बुते,
चलता रहा घृणित परचार।
गाय, बैल, भैंस ले जावै,
छिनय जमीन खेत और खार।।५४।।
बहुत कलैश उठायो है पुरखा,
राखे खातिर बीज आधार।
तभे अभे बाचे है सतनामी।
ठाढे अभी गुरु परिवार।।५५।।
मुड़ कटायो,-घुटना नहीं टेकय,
भले चमड़ी उधरायो मार।
अपन सत नहीं छोडय सतनामी,
राखे राहांय उचा व्योहार।।५६।।
आगे अउ सुख के दिन आही,
टुटही बेड़ी दुख के सार।
करम कमावौ,मान बढावौ,
जग तुम सतनामी सतसार।।५७।।
हीनता मन तुम मत लानौव,
बाढव आघू धरम असवार।
ज्ञान कृपान घासीदास दिये,
बालकदास खांड़ा के धार।।५८।।
कुल कलंक जुर मिल मैटौव,
 जेला पापी मढ़े माथ हमार।
आखर-आखर बोध करौ सब,
बनौव सतनामी गले के हार।।५९।।
मति अनुसार गाथा बतायेंव,
सुने हावंव पुरखा अनुसार।
भुल चुक संत लैहौ सुधारें,
महु आंवव लईकेच तूंहार।।६०।।
🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
 
यदि इतिहासिक  रूप से हम आज अध्धयन करते हैं। तो पाते हैं कि उक्त घटना क्रम इतिहास में भी संक्षिप्त में दर्ज है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि हमारे पुर्वज को भी गुरु घासीदास के सतनाम आंदोलन और धर्मोंपदेश का पुरा ज्ञान था।
वस्तुत: हमें आज ऐसे ही प्राचीन लेखों का संग्रह और मौखिक गाथाओं को लिपिबद्ध करने चाहिए। ताकि हम सतनामी समाज के गौरवशाली इतिहास को जान सके और बता सकें।
🙏 धन्यवाद
🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
सतनाम

तपोभूमि गिरौदपुरी सत्धाम

" तपोभूमि गिरौदपुरी सत्धाम"

नदी झरने हरित वन प्रकृति की गोद मे
चारो ओर से घिरे सुरम्य गिरि की‌ ओद मे

बसे तपोभूमि गिरौदपुरी सत्धाम  पावन
साधु सन्त नर -नारी के हृदय मन भावन

गुरु घासी बाबा की  यह है  जन्मभूमि
सतनाम साधना स्थली यह हैं तपोभूमि

दर्शनीय छाता पहाड़ जोगनदी  पचकुन्ड
मुख्य मन्दिर शेर पंजा चरण व अमृतकुन्ड

सत्य का संदेश देते विश्व में ऊँचा जैतखाम
मानवता की भूमि यह अति पावन सतधाम

गूंजते चहुं ओर पंथी धुन  जयकारे  सतनाम 
मन हृदय आनंदित देख सुन सत श्री सतनाम 

यहाँ मत्था टेक करे  पल भर  साधना वास
मन हृदय पवित्र हो सुख- समृद्धि करे घटवास

     -सत श्री सतनाम
-डा अनिल भतपहरी

दिनेश साध को लिखा पत्र

प्रति 

माननीय दिनेश साध साहब जी मुंबई 

(प्रतिनिधि सतनाम धर्म संस्कृति  नारनौल शाखा )

प्रणाम 

जय सतनाम 

    सतनाम धर्म संस्कृति के छत्तीसगढ शाखा में सर्वमान्य  गुरुग्रंथ की अनुपलब्धता व आध्यात्मिक क्षेत्र में अरुचिपूर्ण मन: स्थिति पर केन्द्रित  आपका महत्वपूर्ण आलेख पढ़ा और पढ़कर लगा कि आप सच्चे हितैषी हैं जो हमारे सर्वांगीण विकास हेतु चिंचित और उद्वेलित भी हैं। आपकी दर्द भी यहाँ के आध्यात्मिक पक्ष की कमियाँ देख छलक आते हैं। व्यवसाय जगत में निरंक स्थिति से आप सदैव दुखी नजर आते हैं। अनेक बार आप हमारे बीच आकर इस बात को बडे शिद्दत से रखते आ भी रहे हैं। फलस्वरुप धीरे धीरे हमारे कुछ युवा उद्यमी कुटीर व लधु उद्योग में  जोखिम उठाने लगे हैं। 
गुरुग्रंथ यानि गुरुघासीदास के सुरुचिपूर्ण चरित गाथा और मानवतावादी दृष्टिकोण को विकसित करने नीति व उपदेश परक रचनाओं की सतनाम पंथ  (छत्तीसगढ )में कमी नहीं हैं।
    अबतक १० महाकाव्य और 200 से ऊपर   विश्लेषणात्मक पुस्तकें प्रकाशित है। जिसमें शोध ग्रंथ तक सम्मलित है। और अनेक पत्र पत्रिकाएं भी उपलब्ध हैं।
    सत्य ध्वज और अब सतनाम संदेश समाज की १९९० से अबतक नियमित प्रकाशित हो रहे पत्रिकाएं हैं। जिनमें ५००० पृष्ठ लिपिबद्ध हैं। जो किसी भी अध्येता और शोधार्थी के लिए उपयोगी है।
    सतनाम पंथ में 80% लोग गुरु चरित को अच्छी तरह जानते सनझते हैं। 

पर यह समाज छत्तीसगढ़ में कर्मकांड रहित सादगी पूर्ण रहन सहन पर आधारित गुरु मुखी समाज हैं।
   लेकिन ग्रामीण पृष्ठभूमि अशिक्षा असंगठन और व्यवस्थित प्रचारको संचालको के अभाव में अपेक्षित प्रभाव नजर नहीं आते।
 दर असल छत्तीसगढ़ी जनमानस चाहे वह सतनामी तेली कुर्मी आदिवासी जो भी हो वह इसी तरह से पहचान और अस्मिता हेतु संधर्ष रत हैं। कही कही तो ओबीसी समाज से सतनामी प्रभाव में बीस पडते हैं। शिक्षा व नौकरी में भी कम नहीं है।
    हां निरंतर व नियमित धार्मिक आयोजन में जरुर फिसड्डी हैं। इसका कारण मठ  मंदिर पूजा पाठ और दान दक्षिणा से रहित समाज हैं। 

  धीरे धीरे अब विगत २०-३० वर्षो में अनेक तीर्थ बन गये विकसित हो गये अब वहाँ सत्सञग प्रवचन भोग भञडारा हो‌ने लगे हैं। साधु व कलाकारों की अनेक मंडली देखने में आने लगे हैं। 

राजनैतिक व प्रशासनिक ढंग से अनुपातिक प्रतिनिधित्व  आरंभ से रहा हैं। पर इनकी प्रतिशत को और अधिक बढाने होन्गे। हमारे बच्चे अब अखिल भारतीय स्तर के प्रतियोगी परीक्षाओं में चयनित हो रहे हैं। 
यह शुभ संकेत भी हैं। शैन शैन बेहतरीन होन्गे ऐसी उम्मीद हैं। 

 हा  व्यवसायिक कृषि और व्यवसाय  जगत में अभी तक कोई बडी उपलब्धि नहीं हैं। इस ओर ध्यान देकर आर्थिक मजबती लाना आवश्यक हैं। 
   साहित्य सृजन हेतु अब तो पहले से अधिक मेधावान साहित्यकार लगे हुए हैं। और निरंतर चलने वाली प्रक्रिया हैं।
   आप सुदूर मुबंई में रहकर भी समाज के सर्वांगीण विकास हेतु चिंतित और सही मार्गदर्शन देते हैं। इसके लिए छत्तीसगढ़ शाखा के सतनामी समाज आभारी हैं । सदैव मार्गदर्शन लेते तत्पर रहते है आदरणीय व श्रद्धेय  दिनेश साध साहब जी  प्रणाम ।
  इसी तरह की प्रेरक बाते आप यदा कदा देते और लिखते रहे ताकि जहां कमी है वह  नजर आए और उसे दूर करने का सार्थक पहल किया जा सके ।

सतनाम पंथ धर्मग्रन्थ  के रुप में अनेक ग्रंथ  विभिन्न साहित्यकारों के उपलब्ध तो हैं बस उसे जन जन तक नि:शुल्क  या कम से कम लागत पर पहुचाने और उनके नियमित पाठ परायण के लिए प्रयास करने होन्गे।
अनेक सञगठन व साधु संत / कला मंडली प्रयासरत भी हैं।
ग्रामीण जन छुआछूत से आत्महीनता से ग्रसित नहीं है।बल्कि वे अपने स्तर पर डटकर मुकाबला करते हैं।
      आत्महीनता अक्सर हमारे नव शहरी पीढ़ियों में सर्वाधिक हैं। वो गांव और समुदाय छोडकर बस तो गये पर अपनी पहचान छुपाने गोत्र और संस्कृति पूजा पद्धति तक परित्याग कर दिए ।
और हिन्दू सवर्णो की तरह गायत्री भागवत कर्म कांड पूजा में डूब गये या ईसाई बौद्ध बन गये ।
दिक्कत उन्ही लोगों का है जो संशाधनों से लैस तो है पर वे दूसरों के आंगन में फूल उगाने में लगे हैं। 
जबकि अपनी बगिया महक भी रहे हैं। पर उनकी सुगंध नहीं ले पाते उन्हे सर्दी हो जाते है यह बडी परेशानी है। और वही लोग उधर से कुछ सीखा सुखाकर हमारे यहां आकर ज्ञान पेलते है।
बहरहाल सर्वमान्य  ग्रंथ जैसा कुछ होता नहीं ।
यह अनावश्यक रुप से गढे गये जुमले हैं।

  रामचरित मानस महाभारत वेद  उपनिषद पुराण तक सर्वमान्य नहीं है। उनके अनेक टिकाए और प्रक्षिप्तियां व पाठे हैं। और परस्पर एक दूसरे से अलग भी हैं।

वैसे ही अब तो बाईबिल कुरान तक के ऊपर प्रश्न खडे किए जा रहे हैं।
    गुरुघासीदास उपदेश ,सतनाम  सप्त सिद्धान्त, उनकी अमृतवाणी और  बोध दृटाष्ट कथाए तो कबीर पंथ के "बीजक "और सिखो के" गुरुग्रंथ साहिब "जैसा सर्वमान्य ही हैं। इनमें छेड़छाड नहीं हैं। इसे "सतनाम धर्म ग्रंथ" की संज्ञा दी भी जा सकती हैं। सतनामी समाज के प्रबुद्ध लेखक कवि साहित्यकार सञत महंत गुरु इस दिशा में निरंतर अनेक वर्षों से प्रगतिशील छ ग सतनामी समाज के द्वारा एकत्रित होकर विचार विमर्श करते आ रहे हैं।
      और सतनाम संदेश पत्रिका में उनकी समस्त प्रतिवेदन भी प्रकाशित होते आ रहे हैं। 
केवल गुरुघासीदास  मे विभिन्न गजेटियर और जयंती तिथि को लेकर मतभेद है‌। ऐसा प्राय: सभी गुरुओ संतो खासकर बुद्ध कबीर नानक आदि के साथ भी जन्म दिन तारीख सन विवादस्पद हैं। 
     यह अशिक्षा और तत्समय इतिहास लेखन न होने की प्रवृत्तियाँ के कारण  स्वभाविक भी हैं। 

पर यह महत्वपूर्ण नहीं हैं। महत्वपूर्ण उनकी वाणी उपदेश हैं। जो सभी लेखक एक सा उद्धृत करते हैं ।
हमलोग उनकी सार उपदेश सिद्धान्त और अमृतवाणी को ही गुरुग्रंथ धोषित करने की मन: स्थिति बना लिए हैं। क्योकि वही ओरिजनल और मूल तत्व हैं उनके कारण ही छत्तीसगढ़ की १६% जनता सतनाम पंथ को अंगीकृत किए है।

       ।‌।सतनाम ।।

     डा अनिल भतपहरी 9617777514
anilbhatpahari@gmail.com

Wednesday, June 10, 2020

सतनामी गुरुमुखी समाज हैं।

।।सतनाम।।

सतनामी समाज 
गुरुप्रधान नही 
बल्कि गुरुमुख समाज है। 
इनका ध्यान रखे और 
"गुरुमुखी समाज "शब्द को 
प्रचलन में लावें। 

     ।‌‌। सतनाम ।।

।।गुरुमुख हंसा पार उतरगे नेगुरा ह गये भुंजाय ।।

इस साखी के अर्धाली का संदेश जाने कि गुरुमुख हंसा मतलब जो  व्यक्ति या समुदाय गुरुमुख है ।‌ वे गुरु के सानिध्य में रहे गुरु के  श्रीमुख से सतनाम दर्शन और गुरुवाणी की वृहद व्याख्या श्रवण करते हुए उनकी वाणियों को मन वचन कर्म से व्यवहृत करते हो ऐसे व्यक्ति / समुदाय जो कि  गुरुमुखी हंसा थे  वह भाव पार हो गये ।संसार सागर के पार उतर गये और जो नेगुरा अर्थात्  गुरु विमुख थे वह जल भून गये/खुवांर हो गये।
     स्पष्टत: अवलोकन करे कि गुरु के समक्ष नाम- पान लेना सद्मार्ग में चलना निरन्तर गुरु वाणी को समर्थ गुरुओं के मुख से  श्रवित करने वाला संत समाज जिसे सतनामी कहा गया यह  गुरुमुख समाज रहा है।वह गुरु प्रधान समाज कैसे होन्गे भला? 
     विचारवान इन गुढार्थ को समझे और भ्रम से रहित होवे।कोई भी व्यक्ति यदि वह वयस्क है तो वह स्वयं अपने घर परिवार का प्रधान है।तथा कुशल व्यक्ति अपने गांव समाज का प्रधान हो सकता है।
    गुरु सदैव  धर्मोपदेशक होता  है वह प्रधान मुखिया  आदि नही है। यदि  कभी कही  ऐसा हो भी गये है  तो भी उनका सम्मान गुरु के रुप में ही होते आ  रहे है । 
    
 
              ।‌‌। सतनाम ।।

तपोभूमि गिरौदपुरी सत्धाम

" तपोभूमि गिरौदपुरी सत्धाम"

नदी झरने हरित वन प्रकृति के गोद मे
चारो ओर से घिरे सुरम्य गिरि के ओद मे

बसे तपोभूमि गिरौदपुरी सत्धाम  पावन
साधु सन्त नर -नारि के हृदय मन भावन

गुरु घासी बाबा की  यह है  जन्मभूमि
सतनाम साधना स्थली यह हैं तपोभूमि

दर्शनीय छाता पहाड़ जोगनदी  पचकुन्ड
मुख्य मन्दिर शेर पंजा चरण व अमृतकुन्ड

सत्य का संदेश देते विश्व में उंची जैतखाम
मानवता की भूमि यह अति पावन सतधाम

गूंजते चहुं ओर पंथी धुन  जयकारे  सतनाम 
मन हृदय आनंदित देख सुन सत श्री सतनाम 

आकर यहाँ  मत्था टेक करे छण साधना वास
मन हृदय पवित्र हो सुख समृद्धि करे घटवास

     -सत श्री सतनाम
-डा अनिल भतपहरी

सत श्री सतनाम

सत श्री सतनाम 

ओ जोड़ते हैं
आखर और 
मिलाते है तुक
गिनते हैं मात्राएँ
और जोड़-तोड़ 
कर मिलाते हैं तुक 
इस तरह बुनते हैं 
रचनाएँ छन्द बद्ध 
कहते कठिन कर्म हैं
रचना कविता 
इसलिए होते हैं
बिरले कवि 
अन्यथा हो जाते 
हर कोई 
भोगते संत्रास 
पीड़ा सभी 
पर ऐसा है नहीं 
कवि तो सभी हैं 
कोई रचता हैं
कोई जीता हैं
कोई कहता हैं
कोई करता हैं
खाना बनाने से 
लेकर खाने तक 
या बीज बोने से 
फसल उगा कर
रोटिया बेलने तक 
और तो और हाथों से 
कौर बनाने और 
मुंह में चबाते निगलने तक 
कविता  घटती व चलती हैं
भले लोग उसे व्यक्त करे न करे 
पर कविता तो रहती हैं 
जन्म से संधर्ष और मृ्त्यु तक 
बल्कि उनके बाद भी उन पर 
लिखी जाती हैं कविताएँ 
इस तरह कविता 
ब्रम्ह सा हो जाते हैं
और जब वह सबके घट में है।
और सबमें घटती हैं
तो हर कोई कवि कैसे नहीं हैं?
केवल तुम्हारे लिख लेने से 
अक्षर जोड घटा लेने से 
लय तुक मात्रा सजा लेने से 
कवि नहीं हो सकते !
कवि  होना धट के भीतर कुछ 
बेहतर घटना और 
उनका बेहतर प्रगटीकरण हैं
ताकि लोग सुनकर आल्हादित 
ही नहीं धन्य हो 
और उनका कल्याण हो 
सारे प्रवर्तक विचारक 
महाकवि हैं ...
और आगे महाकाव्यों का 
आना जारी हैं निरंतर ...
क्योंकि अभी बाकी हैं
जगत का कल्याणकारी होना 
व्यक्ति का परोपकारी होना 
कविगता गेय हो कंठस्थ हो 
और लोग इनके अभ्यस्त हो 
ऐसा भी नहीं 
वह अंत: सलिला हैं 
किसी सांचे नियम में बंधे बगैर 
स्वच्छंद विचरण करती 
तन मन हृदय मेधा को 
अप्लावित करती 
मानस सागर में समाहित होते हैं 
जहां चुगते हैं हंस मुक्तामणी 
ध्यान स्मरण सुमरणी 
मिलते हैं आनंद  चिर विश्राम 
सुमरते चित्त सत श्री सतनाम ...

डा. अनिल भतपहरी

Tuesday, June 9, 2020

खुमान संगीत

खुमान संगीत 

       रविन्द्र संगीत की तरह खुमान संगीत एक अलग अहसास हैं संगीत प्रेमियों के लिए । बाल्यावस्था में ही पिता श्री (सुप्रसिद्ध रंगकर्मी व सतनाम संकीर्तन कार सुकालदास भतपहरी "गुरुजी"  ) के सानिध्य में गीत- संगीत अभिनय आदि सीखने और प्रदर्शन करने  का अवसर मिला । 

      गर्मी व दशहरा - दीवाली  छुट्टी में  गृहग्राम जुनवानी आते तो घर  के  आंगन में खाट पर बैठे पिता श्री बाँसुरी से "का धुन बाजव मय धुनही बसुरिया"  वाली गीत का  धून छेड़ते तो मैं हारमोनियम से  संगत करते चिटिक अंजोरी निरमल छंइहा ... बजाने कहता और फिर खुमान साव की अनेक धुन युं ही बिना लय तोड़े गीत बजते जाते ... आसपास के कथा कहानी  कहने वाले शोर गूल  करते रेशटीप और अंधियारी - अंजोरी खेलते  बाल टोलियां और निंदारस में डूबे रोचक वृतांत में उललझने वाले सब मोका जाते और हम दोनो बाप बेटे की जुगलबंदी सुनने सकला जाते ... फिर भजन गीत गाने फरमाइश भी होने लगते ... 
      आकाशवाणी रायपुर  में बुधवार को दोपहर  सुर श्रृंगार सुनने स्कूल बंक मारते ... और गणित रसायन वाले सर से डांट सुनते पर जब ज 
चौरा म गोंदा रसिया, मोर संग चलव रे काबर समाए  रे मोर बइरी नयना मं, पान ठेला वाला या मंगनी म मांगे मया न इ मिलय   जैसे  गीत सुनते  मन अल्हादित हो जाया करते और डाट फटकार होम वर्क की दंश से मुक्त भी।
 उनके  गीत सैकड़ों हजारों  बार विगत ४० वर्षों से  सुनते व गुनगुनाते आ  रहे पर मन नही अघाते .. .पता नही क्या चीज इनमें भरा हुआ हैं ?  फिल्मी गीत इनके समछ हल्के लगते ।
कारी  ( एक बार टेकारी आरंग में वही रामचंद देशमुख जी  को  देखे )व चंदैनी गोंदा   (अनेक बार अनेक जगहों पर में  झुलझुल कर सिगरेट पीते बिधुन हारमोनियम पर उंगुली थिरकाते खुमान साव जी का दर्शन और दुआ सलाम मंच पर जाकर कर आने का भाग्य हमें कई बार मिल चूका है।
...रामचंद खुमान लछ्मन के तिकड़ी ने वह किया कि छत्तीसगढ़ी की बिगड़ी ही बन गई ।ये तीन ही काफी है कही भी कभी भी इनके भरोसा  खोभिया के या अड़िया के खड़े होने के लिए हम जैसों के लिए ... 
    अनेक  गीतों में अपनी  बेहतरीन संगीत संयोजन से जनमानस को मुग्ध व आनंदित करते छत्तीसगढ़ी संगीत को  शिखर तक ले जाने वाले महान संगीतकार खुमान साव जी  को ...विनम्र श्रद्धांजलि ! सत सत नमन।
     ।।ऐसे लोग कही जाते  नहीं बल्कि हमारे आसपास की फि़जाओं  में बिखर जाया करते हैं। ।।   

रामचंद्र  लक्ष्मण खुमान के " चंदैनी गोंदा"  का महक निम्न लिंक पर जाकर महसूस कीजिए --

https://www.facebook.com/100004355672502/videos/1592081557613685/

      -डा अनिल भतपहरी

बुद्ध और गुरुघासीदास

[2:12pm, 21/05/2016] डाँ.अनिल कुमार भतपहरी:

  "तथागत बुद्ध बाबा  और गुरु घासी बाबा "

तथागत बुद्ध बाबा और गुरु घासी बाबा के जीवन चरित साधना सिद्धि उपदेश व क्रियाकलापों मे एक अनुपम साम्य है।
आज बुद्ध पूर्णिमा के पावन पर्व पर दोनो प्रवर्तकों के परस्पर जुडी समान मानवतावादी  दृष्टिकोण पर विचार करते है हालांकि दोनो के बीच दो हजार वर्ष का अन्तराल हैं। पर दोनो ने तत्कालीन सामाजिक वर्जनाओं के विरुद्ध जन जागरण चलाकर धम्म‌ और पंथ का प्रवर्तन किए जो वास्तविक रुप से धर्म की श्रेणी में आबद्ध है। एक  धर्म के रुप में प्रतिष्ठित हो चुका हैं,जबकि दूसरा प्रतिष्ठित होने के लिए  प्रयारत (लंबित) हैं।
आइए दोनों की साम्यता पर विहंगम दृष्टि डालते हैं-
१ जन्म पूर्व 
 उनकी  माताओं महामाया व अमरौतीन को  गर्भावस्था मे  अद्भुत  मनोहारी स्वपन  व विशिष्ट अनुभव हुये।
एक को हाथी और चमकते सितारे दिखी तो दुसरी आमा चानी और आगन मे (अन्जोर रौशनी )बिखरते देखे।
२. बचपन 
सिद्धार्थ के जन्म के बाद ज्योतिष आये और चक्रवर्ती सम्राट व साधु बन जाने के घोषणा किये। 
घासी के जन्म के बाद साधु आये शिशु को गोद व सर मे रख नाचने लगे।उनके नाम करण कर उनके पाव छु कर आशीष लिये।माता पिता हतप्रभ-सा देखते रहे।
३. बाल्यकाल 
दोनो  आम बच्चो से अलग ध्यान मग्न व शान्त चित्त कुछ खोजने जानने के लिये उद्विग्न।
पशु- पक्षी के उपर दया घायल का उपचार कर उन्हे दोनो द्वारा जीवन दान,महिमा मय व्यक्तित्व ।
४ युवावस्था
 पराक्रमी पुरषार्थी , विवाह 
स्वपसन्द वधु वरण। यशोधरा व सफूरा से।
एक का वैभव शाली विलासपूर्ण जीवन तो दूसरे का मर्यादा पूर्ण सुखमय जीवन।
५श्रेष्ठ गृहस्थ
 पुत्र प्राप्ति, 
६ जीवन मे दुख. का दिग्दर्शन  .
७जन जीवन की पीडा अभाव व तिरस्कार से विचलित मन शान्ति व कुछ सत्य की तलाश मे यात्रा 
८.वन मे  तप कठोर साधाना ६ वर्ष व ६ माह  
७ सिद्धी आत्म ज्ञान व आत्म साक्षात्कार ।
८ समाज मे आकर उन ज्ञान से सिद्धांत व उपदेश का प्रसारण ।
९ वर्तमान धार्मिक रीति -नीति सन्सकृति के समनान्तर सच्चनाम और सतनाम मत का प्रचार -प्रसार।
१० देशाटन प्रवास चातुर्मास रामत रावटी  ।
११ बुद्ध ने अष्टमार्ग पन्चशील २२ प्रतिग्या ३७ पारमिता।सहित अपना सच्च्नाम दर्शन जन भाषा पालि मे लोगो सहज समझ आने वाली सरल शब्द मे व्यक्त किये।
१२ गुरु बाबा ने सप्त सिद्धान्त ९ रावटी २७ मुक्तक ४२ अमृतवाणी व दृष्टान्त बोघ कथाओ द्वारा जन मानस को सरल जन भासा छत्तीसगढ़ी मे सतनाम दर्शन व्यक्त किये।
१३ दोनो सत्य अहिन्सा सादगी व प्रकृतस्थ जीवन को महत्त्व दिये।
१४ दोनो द्रष्टा व उपदेशक ।
१५ भिख्खु सन्ध का निर्माण
१६ सन्त समाज का निर्माण,  महंत साटीदार भंडारी 
१७ ढोन्ग पाखन्ड. मिथ्या भ्रम के जगह  सत्य की स्थापना।
१८ ईश्वर पन्डे पुजारी योग्य हवन
आदी  कर्म कान्ड के स्थान पर
सहज योग ध्यान समाधि का प्रचलन कराये।
१९ तर्क पर आधारित ज्ञान‌ मार्गी जीवन‌
२० निरंतर गतिमान , सत्संग प्रवचन और सात्विक रहन सहन श्वेत/ कषाय  वसन  
२१ जीते जी निर्वाण / परमपद की प्राप्ति !

प्राचीन बौद्ध ,सिद्ध  व पाली साहित्य के अध्ययन से यह भी ज्ञात होता हैं कि भारत बौद्ध मय था  बहुसंख्यक समाज परिश्रमी और सदाचारी थे उनका अस्तित्व आज पर्यन्त ग्रामीण जन जीवन में द्रष्टव्य हैं।  सहज सरल जीवन  दर्शन इन्ही संत गुरु प्रवर्तकों से ही जनमानस में ‌परिव्याप्त हुआ है।
बुद्ध उच्चरित पाली के सच्चनाम ही गुरुघासीबाबा उच्चरित छत्तीसगढी के सतनाम है।
बौद्ध सिद्धो की वाणी प्राचीन पंथी व मंगल भजनो में अन्तरध्वनित हैं।
    प्राचीन सहजयानी ही वर्तमान सतनामी हैं। 

   ।। सच्चनाम -सतनाम ।।

बुद्ध जंयती  की हार्दिक बधाई व मंगलकामनाएं 

  इस तरह से उक्त इक्कीस बिन्दुओं पर सामान्यतः विश्लेषण करे तो जो साम्यता दिग्दर्शन होते हैं।वह केवल संयोग ही नहीं अपितु दोनो के समान विचार धाराएँ है जो लोक कल्याण के मार्ग प्रशस्त करते हैं ।
      
                           डा. अनिल भतपहरी ‌
                              ९६१७७७७५१४ 
                           ऊंजियार - सदन अमलीडीह ,रायपुर

Saturday, June 6, 2020

पंथ और धर्म

।।धर्म और पंथ ।।

विद्वान वर्ग  पंथ को धर्म  से अधिक  व्यापक मानते हैं। और व्यवहारिक महत्व देते हैं। क्योकि धर्म को कोई प्रवर्तन नहीं कर सकता ।वह केवल सद्गुण मात्र हैं। और अपने आप में तटस्थ व क्रियाहीन हैं। (जैसे आग का धर्म गरम  पानी का ठंड वैसे ही मानव का धर्म सत्य प्रेम करुणा परोपकार है न कि हिन्दू मुस्लिम आदि।हा यह उनकी प्रणाली पद्धति  हैं। इसे धर्म की संज्ञा नहीं देना चाहिए। )  जो वस्तु या प्राणी जिस गुण को धारित किए हैं। वही उनका धर्म हैं। सांप विष धारण किए हैं तो विषैले हैं। और गाय अमृत मय दुग्ध धारण की है तो वह मां सदृश हो जाती हैं। शेर चीता आदि मांसाहारी पशु हैं तो  हिंसा को धारण किया हुआ हिंसक प्राणी  हैं। और हिरण वानर आदि शाकाहारी तो अहिंसक प्राणी हैं।
     उनकी जीवन वृत्ति ही प्रवृत्ति हो जाते हैं वह उसी गुण को आत्मसात करलेते हैं। इसलिए जो दिखता हैं। वह उसी  गुण स्वभाव के धारक धर्मी होते हैं। 
 परन्तु राजनीति में‌ राजा की जीने की  प्रणाली पद्धति ही  राजधर्म के रुप में व्यवहृत होने लगे  प्रजा भी आख कान बंद कर मानने लगे और यही सब गड्ड मड्ड हो गये।

जबकि अनुसंधान कर्ता  साधक तपस्वी जन केवल अपने द्वारा विकसित  पंथ का प्रसार किया धर्म आदि का नहीं क्योंकि यह प्रचार प्रसार करने की वस्तु ही नहीं हैं।
अब कोई आग के ताप और जल के शीतलता का कोई प्रचार करेगा ? 
प्रणालियों पद्धतियों को धर्म कहकर राजकीय  मान्यताएँ धोषित कर दी ग ई और वह रुढ मूढ हो गई ।

जब धर्म अपने विविधतापूर्ण कर्मकांड के चलते अधर्म की श्रेणी में आ चूके थे तब उनसे अलग पंथ शब्द के साथ नव प्रवर्तन किए।

सच तो यह है कि धर्म शब्द अर्थ धारण करना होता हैं ।धर्म धृ धातु से उत्पन्न है। 
ध+ऋ+ अ + र्+ म + अ  = धर्म 

ध+ ऋ+ मर्म = धर्म 

इसके वास्तविक अर्थ हुआ जो मर्म ( अंत: करण )में धारण करे   धर्म हैं।  

इसी तरह पंथ का अर्थ पथ यानि की रास्ता या मार्ग हैं।
जैसे राज पथ , लौह पथ , इत्यादि 
इसमें  तन चलते है चलने  वाला पथिक / राहगीर कहलाते हैं।
पर यहा पंथ है जिसमें प के ऊपर अनुस्वर  बिंदू हैं। जिनका विशिष्ट अर्थ हुआ वह पथ या मार्ग जिसमे मन चले । इसे पंथिक कहते हैं। 

पंथ जिसमे तन के साथ मन भी चले और अपना जीवन सुखमय करे ।
    यह शब्द संप्रदाय मत मजहब रिलिजन जैसा ही हैं। उनके समकक्ष हैं। 

अंग्रेज या ईसाई लेखकों ने क्रिश्चन. रिलिजन टाइप ही सतनाम को रिलिजन कहा ।
यदि कोई प्रबुद्ध सतनामी लेखक या संत अपनी भाषा में क्रिश्चिन रिलिजन  को ईसाई पंथ कह सकते हैं क्योकि यह ईसा मसीह द्वारा विकसित या प्रवर्तित हैं।

इस्लाम भी पंथ हैं हिन्दू भी बौद्ध जैन भी यह सब एक रास्ता / मार्ग हैं। जिसपर चलकर मनुष्य अपना जीवन निर्वाह करते हैं।

उस मार्ग में अनेक और पगडंडी या सम्प्रदाय मत आदि हो सकते हैं।
जैसे हिन्दू पंथ में शैव शाक्त वैष्णव  राम कृष्ण राधा मत या सम्प्रदाय पगडंडी हैं।

   इसी तरह हमारे सतनाम पंथ में 
रामनामी सुर्यवंशी जैसे छोटी पगडंडी हो सकते हैं। इन सबको मिलकर अपने पंथ को और अधिक विस्तृत और सुदूर पहुच विहिन स्थलों तक पहुचाना चाहिए।
 
बहरहाल अब  सवाल उठता व्यक्ति अपने मर्म अर्थात् अंत: करण में क्या धारण करता हैं हिन्दू इस्लाम ईसाई बौद्ध जैन  ? 
यह तो  केवल उपसना पद्धति प्रणाली मात्र हैं। धर्म नहीं ।
हां धर्म है सद्गुणों का समुच्चय 

जैसे सत्य करुणा प्रेम परोपकार इत्यादि। हम सभी व्यक्ति इन्ही सद्गुणों को अपने अंत:करण में धारित कर व्यवहृत  करते हैं तब हम  सच्चे धार्मिक कहलाते हैं। और इनके जगह असत्य  क्रुरता धृणा और दुराचार को धारण कर व्यवहृत करे तो अधार्मिक कहलाते हैं। यही दोनो श्रेणी ही धर्म व अधर्म हैं। जो सर्वत्र एक समान होते हैं। और सभी मत मजहब रिलिजन सम्प्रदाय पंथ में बराबर मिलते हैं।
     
पुरानी मत प्रणाली में विकृति के बाद समर्थवान संतो गुरुओ द्वारा पंथ के उ्दभूत होने के बाद  प्रवर्तक के चले जाने के बाद धीरे धीरे वह उसी रीति रिवाजों से जकड़ा हुआ उसके एक शाखा मात्र होकर रह गये।
  बौद्ध - जैन धम्म ,कबीर पंथ ,खालसा पंथ सतनाम पंथ सनातन संस्कृति या भारतीय  संस्कृति के ही ब्रान्च होकर रह गये ।

          जबकि गहराई से अनुशीलन करे तो यह सभी तथाकथित सनातन संस्कृति से बिल्कुल अलग है। ईश्वर पूजा पद्धति रहन सहन प्रवृत्ति निवृत्ति एकदम सा अलग हैं।

  हां हिन्दू पद्धति  या सनातन संस्कृति  में शैव शाक्त वैष्णव सम्प्रदाय आदि जरुर हिन्दुओं के अनुसार  पंथ हैं। जो उन्ही के ईश्वर पंडे पुजारी धार्मिक व्रत कर्म कांड इत्यादि को ज्यों की त्यों मानते हैं ।
        
संतो महात्मों द्वारा  व्यवहृत पंथ शब्द को  कमतर न आके न इसे धर्म के अंग माने। यह दोनो अलग अलग चीजे हैं। धर्म के लघु रुप पंथ तो क त ई नही है। जैसा कि लोग समझते आ रहे हैं।
    धर्म के अन्तर्गत सम्प्रदाय मत मतान्तर हो सकते हैं। पर उनके अधीन पंथ नहीं हो सकते इस बात को लोगो को समझना चाहिए। 

आप सम्प्रदाय निरपेक्ष रह सकते हैं। पर न  पंथ निरपेक्ष रह सकते न धर्म निरपेक्ष नहीं

पर यह कैसी विडंबना हैं कि पंथ को सम्प्रदाय जैसे  समझे जा रहे हैं।
क्या बुद्ध कबीर नानक गुरुघासीदास सम्प्रदाय चलाए है ?
         सवाल यह हैं।

           ।। सतनाम ।।

     संसार सतनाम मय हो 

    -डा. अनिल भतपहरी

Wednesday, June 3, 2020

यक्ष प्रश्न

सर आपकी उक्त पंक्ति से प्रेरित 
हमारी तत्क्षण रचना 
शायद कुछ त्रुटि हो तो अवगत करावें -

।।यक्ष प्रश्न ।।

एक हम हैं
जो तुम्हें बसाते हैं
अपने दिल में
एक तुम हो 
जो हमसें ही 
रहती मुश्किल में
बताओं अब 
तुम  या 
दिल बड़ा तुम्हारा 
कि हमारा 
तुम हो कि 
हम है प्यारा ?

-डा.अनिल भतपहरी

यक्ष प्रश्न

DrAnil Bhatpahari  जी, 

आज आपके आशुकवित्व को जाना। 
     इतने कम समय में उसी भाव को और समृद्ध करते हुए आपने एक नया आयाम दिया, साधु, साधु.! वाह। 

       मैंने सस्नेह जो अर्थ लगाया उसी के अनुरूप आपकी पंक्तियों को हल्का स्पर्श, किया है, देखिए जँचे अगर, 

सस्नेह! 

।।यक्ष प्रश्न ।।

एक हम हैं
जो तुम्हें बसाए हुए हैं
अपने दिल में
और  एक तुम हो 
जो कहती हो
कि रहती हूँ मुश्किल में - 

अब तुम्हीं कहो , 
तुम  बड़ी या 
दिल बड़ा तुम्हारा 
और हम प्यारे
या फिर  दिल
हमारा प्यारा ? 

-डा.अनिल भतपहरी

Monday, June 1, 2020

सत्कबीर

सत्कबीर 
महात्मा कबीर क्रांति के कवि हैं नाहक उन्हें ब्राह्मण वाद/पुरोहित वाद से ग्रसित विश्लेषक भक्ति कवि के रूप में स्थापित कर ऐसे भ्रम निर्मित कर दिए कि वे महज ईश्वर के निर्गुण स्वरूप के गायक मात्र रह गये। राम शब्द की बार बार आवृति जाने अनजाने में  उन्हें और भी विष्णु अवतार राम के  परम भक्त बना दिए गये। हलाकि उन्हें इसलिए सफाई देनी पड़ी -"दशरथ सुत तिहि लोक बखाना। राम नाम मरम नही जाना।
     बावजूद उनकी पदों सखियों में राम नाम उल्लेख होंने से जन साधरण को कबीर राम भक्त ही लगा।
     कबीर की एक और प्रक्षिप्त सी पंक्ति -
"कुत्ता कबीर राम का मोतिया मोरी नाऊ
ज्यो ज्यो खिचे राम जी त्यों त्यों पीछे जाऊ"
  यहा कबीर साहब राम के कुत्ता होने को अपना सौभग्य बताते नजर आ रहे हैं। क्या कबीर के सच्चे अध्येताओ को कबीर का राम के कुत्ता होना स्वीकार्य हैं?
    अक्खड़ व् सत्य के प्रति अटूट निष्ठावान कबीर अपने आजन्म क्रन्तिकारी दृष्टिकोण और व्यवहार हेतु जाने जाते रहे वे अपने  मरण में भी "काशी में मृत्यु मोक्ष है" के मिथक तोड़ते मगहर में प्राण त्यागे वे कैसे ईश्वर के भक्त दास होंगे?
इसी तरह चर्चित दोहा गुरु गोविन्द दोउ खड़े काके लागु पाय ।बलि हारी गुरु आपकी गोविन्द दियो बताय।
इसमें गुरु को जरुर प्रथम पुजनीय बता रहे हैं पर अपरोक्ष ईश्वर (गोविन्द ) को भी संस्थापित करते नजर आ रहे हैं। मतलब यहा भी कबीर ईश्वरवादी हैं। और वे ईश्वर वाड़ी हैं तो वे केवल भक्त हो जावेंगे उनकी क्रांति करी रूप सदा के दफन हो जायेंगे जैसे धर्म दसियों ने पूरा कबीर पंथ को ही वैष्णव पंथ में परिवर्तित कर उनकी ज्ञान और क्रांति कारी विचारों को दफन कर दिए। आज कबीर के मूल बातों को शिक्षा आदि को  स्थापित करने की जरूरत हैं। तभी आज उनकी जयंती की सार्थकता हैं। सत श्री सतनाम। जय सत कबीर ।

शिकारी और भिखारी

शिकारी और भिखारी 

तब पचासों चिड़ियों का झुंड 
फूर्र से उड़ गया 
मैंनें देखा उस अधनंगें
काले -कलुटे पारधी के बच्चे को
जा़ल समेटते , मन मसोसते 
कह रहा था 
बाबुजी चिड़िया फंसी तो शिकारी 
या नहीं भिखारी 
*             *           *
कुछ दिन हुए मैं इनके 
बस्ती में आया 
इसलिए कि यहाँ से 
शहर समीप हैं
और ग्रामीण सचिवालय भी 
बचपन से आदतन
मैं प्रकृति प्रेमी रहा हूँ
खीच लिया यह वन प्रांतर 
और नल सेप्टिक छोड़कर 
दिशा- मैदान जाता हूँ
लोटा लेकर 
तब स्मरण हो आतें हैं 
बचपन मेरा 
वन ग्राम में बीता 
पिताश्री के मास्टरी के संग
विरासत में मिला मुझे एकांत 
खूब दोहन किया 
चिंतन मनन अध्ययन किया 
*                *               *
कुंचालें भरती हिरणियों के झुंड 
सुमन -सौरभ  लुटाते भंवर वृंद 
कोंपल फूटते सल्फी 
बौराते चार आम्र मंजरी 
कुचियाएं महुए का गंघ 
रात रात भर बजते 
ढ़ोल- मंजीरे नाद कंठ 
उन्मुक्त विचरण 
अल्हड़ ग्राम बालाएं 
तीर धनुष से सजे-संवरे 
भुंजियां माड़ियां छोकरे 
थिरकते लया चेलिक के पांव 
आज भी आंखों में तैरते वह गांव 
आंचलिकता से सिक्त
शब्दों से मिला मुझे प्रसिद्धि 
किशोरावय से ही उपलब्धि 
मन दौड़ता हैं उन्ही के समीप 
शहरी मित्रों का उपहास 
कि आज तक मैं देहाती हूँ
तथाकथित प्रोगेसिंव 
नारी मुक्ति पर बीसियों पेज 
लिख मारने के बाद 
मांस मच्छी मंद 
बालाओं के संग
पंच मकार की अनुगामी 
रे अघोरी खल दुष्ट कामी 
साले कोरे बुद्धिजीवी 
बने हो इसलिये पड़ोसी 
*           *             *
 एक नर्स यहाँ रहने आई 
एकदम तन्हा 
पारधी के लड़के ने बताया 
बाबु जी बहुत अच्छी हैं
उनके तीतर-बटेर की तरह
लगने लगी स्वादिष्ट  
कभी-कभी तृप्ति की डकार सी 
आने लगी स्वप्नारिष्ट
उस दिन दौड़ते आया 
ये पत्तर दिए हैं आपको 
तब एक पल  लगा 
कि उस सुन्दर नर्स के आने से
मैं भी कही 
शिकारी से भिखारी न हो जाऊं

*                *           *
टूटी तन्द्रा देख  एक दिन 
पोष्ट करने लिफाफा 
धीरे -धीरे बढते 
प्रीत का पौधा 
कभी थामते नर्स की थैला 
पाकेट पर रखते पैसा 
लानी हैं गृहस्थी के सामान 
होते रहा खुश और हैरान 
इस तरह कैसे वो 
अपना बना ली 
अपने मरीज से 
रोज सपने में 
मिलने  लगी 
*            *        * 
करे मन दिल्लगी 
पर दिमाग की मनाही
द्वंद्व में मनो- मतिष्क 
तुम्हारा किसी एक का होना
लाखों को बेसहरा करना 
सोच लो तुम बने नहीं 
किसी एक एक के लिए 
हो तुम सबके लिए 
सच हमें हमारी विचार ही 
करते हैं उन्नत व अवनत 
स्वाधीन होकर भी
 पराधीन सतत ...
    -डां. अनिल भतपहरी   

     रचनाकाल  सितबंर 1994  हमारे शीध्र प्रकाश्य काव्य संग्रह" हड्डी की जीभ नहीं कि न फिसले"  से।

चित्र -  क्लब महिन्द्रा रिसार्ट मनाली की सुबह ।