Tuesday, December 28, 2021

तन के तिजउरी म

तन के तिजौरी  म मन के  मन   भर रतन भरे हे 
साधु अउ चोर किंदरत हे खोर सबके नंजर गड़े हे
एला क इसे बचाव उन ल  कइसे भरमाव 
कोनो उक्ति बताव .. कोनो मुक्ति देखाव .....

जब ले चढ़े हे ये बइरी जवानी 
जी के जंजाल बड़ हलकानी 
कोनो तो एकर जुगती मढ़ाव ...

गहना गढ़ाय न दान-पुन  जाय 
धरखन काकर कहे कछु न उपाय 
बिन बउरे जिनिस माहंगी फेकाय ...

खिरत हे उमर पैरावट कस रतन गंजाय 
मय  मुरख एला  सकेंव  न  भंजाय 
जांगर थकत हे कोनो रद्दा मुक्ति के बताव 

सत श्री सतनाम 
डाॅ. अनिल भतपहरी

Thursday, December 23, 2021

सादगी और गरिमामय गुरुघासीदास जयंती का आयोजन

।।सादगी और गरिमामय  गुरुघासीदास जयंती का आयोजन ।।

      मनखे मनखे एक जैसे अप्रतिम संदेश देकर  विश्व को मानवता का पाठ पढ़ाने वाले विश्वगुरु घासीदास की पावन जयंती अघ्घन पूर्णिमा , तदनुसार 18 दिसंबर की तैयारी मे उनके अनुयायी बड़ी ही श्रद्धा और हर्षोल्लास से जुटे हुए है। आयोजन समितियों की बैठकों और महोत्सव में सांस्कृतिक‌ कार्यक्रमों / टेट पंडाल ,माइक- लाइट वालों को बुकिंग करने की तैयारी भी यद्ध स्तर पर चल रहे हैं। 
    कृषक समाज  अमुमन फसल कट जाने/ बिक जाने के बाद इस जयंती  महोत्सव को पूरे एक पखवाडे तक हर्षोल्लास से मनाने और खुलकर खर्च करने  की प्रवृत्ति  विगत सौ 80-90 साल की परंपरा है। उसके पूर्व बहुत ही सादगी पूर्ण रोठ तस्म ई और निशाना मे पालो चढ़ाकर मनाने की प्रथा रही है। 
          हालांकि बड़ा और भव्य आयोजन से गुरुघासीदास जयंती की  प्रसिद्धी बढ़ी और लोगों मे परस्पर मेलजोल भी होने लगा ।  परन्तु इसके साथ- साथ नाच पेखन ,लोकमंच आदि की प्रस्तुतियों से गरिमा में गिरावटे आई और अनेक बुराई पनपी खासकर जयंती - मड़ ई साथ होने पर जुआ मद्यपान जैसे कुरीति आई ।  और व्यर्थ खर्च और मनोरंजन के नाम पर फूहड़ पन प्रस्तुतियों से हमारी श्रेष्ठतम संस्कृति प्रदूषित भी होने लगी। अति सर्वत्र वर्ज्येत तो होते ही है फलस्वरुप एक दिन या महज 18- 25 दिसंबर  तक एक सप्ताह आयोजन करने की बाते होने लगी । समाज के अधिकतर  विद्वान तो केवल 18 दिसंबर को ही मनाने पर जोर देते है। पर एक दूसरे के आयोजन मे सम्मलित होने की चाह के कारण यह महिनों विस्तारित हो गये। 
    बहरहाल समाज मे जयंती के अतिरिक्त अब गुरुगद्दी पूजा महोत्सव और सतनामायण / सत्संग और अन्य गुरुओं की जयंती / पुण्यतिथि  आदि का भी प्रचलन होने के कारण धीरे -धीरे जयंती का दायरा सिमट रहे है। यह शुरुआत अच्छा भी है परन्तु जयंती की भव्यता शोभायत्रा और रात्रि बडे सांस्कृतिक आयोजन से समाज की संपदा का अपव्यय हो रहा है। इस संपदा को शिक्षा  रोजगार और जरुरत मंदो के हितार्थ लगना था ,वह नाच -गाने और प्रदर्शन मे हो रहे है। उनके नियंत्रण हेतु सचेत होने की आवश्यकता हैं। हमारे  विचारकों /साहित्यकारों को इस तथ्य को प्रचारित - प्रसारित करना चाहिए।
         अतएव जयंती आयोजक मंडल भी ज्ञानवर्धक कार्यक्रम आयोजित करें।नाच पेखन और अश्लील फूहड़  गीत /नृत्यादि   वाले लोक कला मंचो / आर्केट्रा आदि का आयोजन  गुरुघासीदास जयंती जैसे पावन और विजनरी महोत्सव में न करें। कलाकार भी मर्यादित रहें तथा जयंती जैसे पावन महोत्सव की गरिमा का ध्यान रखें।
    नवरात्रि के जगराता मे कोई मंच से ददरिया गाते है क्या ? नही । तब गुरुघासीदास के जयंती पर ददरिया गाने का क्या औचित्य है ? इस बात को जरुर ध्यान मे रखे ।फरमाइश आते भी हो तो उसे सम्मान पूर्वक मना कर दें।
                आयोजक और सहभागिता निभाते हमारे अतिथि और कलाकारों को जयंती की पवित्रता और गरिमा का ख्याल जरुर करना चाहिए। 
      धन्यवाद    

                ।।जय सतनाम ।।

ददरिया

#anilbhatpahari 

।।ददरिया ।।

बानी वाले अस त बड़  गुठिया ले  

दगा झन देबे का ग किरिया खा ले... 

किरिया खाथव बानी वाला मय 

दगा नइतो  देवव का ओ किरिया खाथंव ...

नंदियां भीतरी के  झुंझकुर  झांहू 

तय अगोरत रहिबे संगी खचित आहू...

गंधेसर बबा म नरियर चघाबोन 

डंडासरन पैलगी  असीस पाबोन ...

नवा रे लुगरा अउ धोती नवा दशी 

ये  जिनगी ह बितय राजी- खुशी 

 चित्र -जुनवानी घाट महानदी गंधेश्वर मंदिर प्रांगण सिरपुर से ।

Wednesday, December 22, 2021

संगी तोर मया

#anilbhatpahari 

आपके वास्ते छकड़ी हमरी 

संगी तोर मया 

संगी तोर मया ह लागे गोरसी के आंच असन
अरझे अंतस भीतरी कमचिल के फांस असन 
पलपला म उसने देह तोर शंकर कांदा असन 
बोली बतरस लसलस ले अमली लाटा असन
सुख -दु:ख बटागे सित्तो बोइर अउ चार असन 
धरखन एक दुसर बर काड़ अउ मियार असन

   - बिंदास कहे अनिल भतपहरी

चित्र - धनेश साहू

Friday, December 10, 2021

शहीद वीर नारायण सिंह‌

#anilbhatpahari 
10 दिसंबर पुण्यतिथि पर 

शहीद वीर नारायण सिंह 

समकालीन छत्तीसगढ़ को अंग्रेजी सत्ता के संरक्षण में देशी महाजनों,सेठ, साहूकारों  की  चुंगुल और लूट -शोषण से  बचाने सुदूर वनांचल मे सोनाखान नामक ग्राम  से एक क्रांति ज्वाला प्रज्ज्वलित हुई जिसे दुनियां शहीद वीर नारायण सिंह के नाम जानती हैं।
      यशस्वी पिता राजा रामराय का यह तेजस्वी पुत्र महान आध्यात्मिक संत  गुरुघासीदास से अभिमंत्रित थे। समव्यस्क  गुरु पुत्र राजा बालकदास  से उनकी  गहरी मित्रता रही ।फलस्वरुप ट्रांस महानदी क्षेत्र मे यह दोनो रण बांकुरे जन जागरण चलाकर अभूतपूर्व कार्य किए । जो युगो- युगो तक  स्मृत रहेन्गे और जनमानस को प्रेरित करते रहेन्गे ।इन दोनो महानायकों के ऊपर विराट लेखन की संभावनाएं हैं।
   वे दोनो ने मिलकर अंग्रेजो के ईसाईकरण और सेठ साहूकार मालगुजारों की आतंक से बचाने सफल हुए।

      वीर नारायण सिंह का जन्म गिरौदपुरी पहाड़ी के नीचे तलहटी पर सोनाखान नामक ग्राम मे बिंझवार जमींदार रामराय के घर  1795  में हुआ। 1830 में रामराय की मृत्यु के उपरान्त 35 वर्ष की आयु मे वे सोनाखान जमींदारी का प्रशासन संभाला ।  वे  अत्यंत साहसी और पराक्रमी थे । वे भोली -भली  दु: खी पीड़ित जनता के सहायतार्थ सदैव तत्पर रहते थे।यह गुण उन्हे समीप ही गुरुघासीदास की आध्यात्मिक सत्संग प्रवचन से अर्जित हुआ। ज‌न कल्याण ही सच्चा नारायण सेवा और पूजा है यह पाठ वे बाल्यकाल से ही सीख चूका था।
        1856 मे भीषण आकाल पड़ा जनता भूख से त्राहि -त्राहि करने लगी  कही से भी कोई आपूर्ति नही था। ऐसे मे कसडोल के माखन नाम का एक  अन्न व्यापारी भारी मात्रा मे धान जमा कर मुनाफा कमाने के फिराक मे थें। उनसे उन्होने प्रजा हितार्थ अनाज मांगे  पर नही दिया गया। तब वे उनके जीवन बचाने अपने कुछ विसवस्त सहयोगियों के साथ धावा बोलकर धान की बोरियां उठवा लिए।
   व्यापारी ने रायपुर स्थित कमीश्नर स्मिथ से शिकायत किए।
उन पर डैकती का मुकदमा लगा कर जेल भेज दिए। रायपुर सेंट्रल जेल मे उन्हे देश मे चल रहे अंग्रेजों की  शोषण दमन और क्रुरताओं से संदर्भित जानकारियां    स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों से मिली जिसे उपद्रवी व आतंकी कहे जाते थें। वीर नारायण सिंह बेहद उद्वेलित हो  क्रांति की मार्ग पर चलने और देश तथा व्यक्ति स्वतंत्रता को अर्जित करने जेल मे  मंझला नामक एक सहयोगी से जेल में बंद होकर मरने से अच्छा  ब्रिटिश सरकार की जंजीर तोड़ उन्हे देश से खदेड़ने की प्रण लेकर  जेल से फरार हो गये। और अपने बाल मित्र राजा गुरु बालकदास के गढी भंडारपुरी -  मे जाकर मिले। वहां उन्हे गुरुघासीदास का आशीष मिला और मित्र का अपनापन उसे समीपस्थ ग्राम जुनवानी मे सत‌नाम सेना के प्रमुख ऊंजियार दास के संरक्षण मे  बैलगाड़ी से भेज दिए। और  संदेश वाहक को सोनाखान खबर कर दिए गये।नारायण सिंह एक रात्रि विश्राम कर अपने गांव सोनाखान जाने तैयार हुए तो उसे 
महानदी पार करवाकर उनके लोगो से मिलवाए । वे  सोनाखान चले गये। 
    वहां जाकर उन्होने हर सतनाम सेना के अनुकरण करते प्रत्येक घर से एक एक युवाओं को एकत्र कर 500 लोगो की फौज बनाए और उन्हे  युद्ध कला सिखाने पहल किए । सतनाम सेना के खडैत जो आखाड़ा  कला में सिद्धहस्त थे उन्हे अपने बाल सखा गुरुबालकदास से कहकर आमंत्रित किए।  जुनवानी तेलासी   अमसेना बोदा मोहान के  15-20 प्रशिक्षित लड़ाके तलवार  तब्बल भाला  बर्छी आदि चलाने की प्रशिक्षण देने लगे।  इस तरह वनांचल मे अंग्रजी सत्ता और देशी महाजनो मालगुजारों के आतंक से निपटने की जोर -शोर से तैयारी होने लगे।
       इस तरह सीधा- सीधा ब्रिटिश सत्ता से विद्रोह की बिगुल फूंक दिया गया! यह सोनाखान विद्रोह के नाम से इतिहास मे  दर्ज होकर विख्यात हो गया है-

स्मिथ सेना लेके घेरिन सोना खान जमींदारी ल 
सिहगढ़ भ इगे सिंहखान 
फेर सोनाखान तपे आगी मं ।

  इस तरह बांस और घांस से घिरे जंगल को  अंग्रेज फागुन -जेठ के बीच हुए संग्राम मे आग लगाकर घेर लिए ।
कुर्रुपाठ छोड़ सरदारन संग 
सोनाखान के जंगल म
डेरा डारिन नारायेन सिंग 
साजा कौउहा  के बंजर म। 

अंग्रेज उनकी जगह बदलते और छापामार शैली से परेशान हो गये 
    अंतत: सडयंत्र और छल कपट कर कैप्टन स्मिथ ने सैनिकों की टुकड़ी लेकर सोनाखान को घेर लिया। पर कुछ हासिल नही हुआ। फिर उनके बहनोई देवरी के  जमींदार साय जी को अपने पक्ष मे मिलाया उन्होने उसे  कुर्रुपाट पहाड़ी मे होने और वहां से गोरिल्ला युद्ध की तैयारी मे रत बताए । उनके बताए अनुसार  जब  नारायणसिंह देवी पूजा के गये थे  तभी वहां से उन्हे  गिरफ्तार कर लिए गये -

देवरी के जमींदार दोगला 
बहनोई बीर नारायेन के 
लगा दिहिस बाढ़े बिपत म 
काम करिस कुकटायन के 

        फिर रायपुर स्थित जेल मे वीरनारायण सिंह को बञद कर दिए बिना कोई अदालती मुकदमा चलाए कही उनके सैनिक जेल पर हमला कर न छुड़ा ले 10 दिसबंर 1857 को तोप से उड़ा दिए । उनकी देह भी उनके परिजनो को नही सौपे ।
    इस तरह गरीबो मजलुमों के मसीहा वीर नारायण सिंह स्वाभिमान और स्वतञत्रता के लिए बलि वेदी पर न्योछावर हो गये। (और ठीक तीन साल बाद 28 मार्च  1860 को‌ राजा गुरुबालकदास को भोजन करते समय सडयंत्र पूर्वक हत्या कर दिए गये।) 
   उनकी शहादत से परिक्षेत्र मे शोक व्याप्त हो गये । 
 वीर नारायण सिह समाज राज और देश के लिए  शहादत देकर अमर हो गये । आज उनकी शहादत दिवस पर श्रद्धा सुमन अर्पित करते भाव भीनी श्रद्धांजलि देते है। 
      

          जय सेवा जय सतनाम  जय वीर नारायण । जय छत्तीसगढ़ ।

टीप - फिल्मकार मधुकर कदम जी निर्मित फिल्म " शहीद  वीर नारायण सिंह  " का प्रोमो‌ पर संस्कृति मंत्री संग ।

Sunday, December 5, 2021

सुरता के चंदन के रचयिता हरि ठाकुर‌

सुरता के चंदन के रचयिता : हरि ठाकुर 

बादर ह गंजा गे रुई के पहाड़ असन 

संस्मरण -

सुरता के चंदन के  ऊगाने (रचयिता ) वाला आद हरि ठाकुर जी 

तब बात 1989-90 की है जब मै गुरुघासीदास छात्रावास आमापारा रायपुर मे रहते दुर्गा महाविद्यालय मे बीए अंतिम का छात्र था। साहित्यिक अभिरुची के चलते सामने ही आर डी तिवारी स्कूल , सोहागा मंदिर प्रांगण आंनद वाचनालय कंकाली पारा उनके प्रेस , वेदमती धर्मशाला सोनकर पारा या शिकारपुरी धर्मशाला या फिर गांधी प्रतिमा उद्यान ब्राह्मण पारा चौक छत्तीसगढी समाज  के भवन हांडी पारा  मे हरिठाकुर , केयुर भूषण ,  आचार्य सरयुकांत झा , डा मन्नूलाल यदु , जागेश्वर प्रसाद , शिव कुमार निकुंज , डा राजेन्द्र सोनी , रामेश्वर शर्मा बलिराम पांडे , उदयभान चौहान चेतन भारती और हमारे  स्वतंत्रता संग्राम सेनानियो मे मोतीलाल त्रिपाठी , धनिराम वर्मा कमलनारायण शर्मा  आदि । इन सबको एकत्र करने का काम सशील यदु ,रामप्रसाद कोसरिया  करते और हमलोग उनके सहयोग जिसमे चंद्रशेखर चकोर ( सहपाठी ) राजेन्द्र चौहान  साथ होते जिसे उन  जैसे  प्रखर प्रतिभाओ का सानिध्य लाभ मिला। 
  उनके लगातार आयोजनो के श्रोता या दरी उठाने बिछाने बैनर पोष्टर फोल्डर बाटने के काम करते रहे।एवज मे कभी कभी काव्यपाठ करने का अवसर मिल जाया करते थे। छिटपुट उन कार्यक्रमों के रिपोर्टिंग पेपर मे आते।जिनकी विज्ञप्ति देने  सुशील भैया मेरे छात्रावास के रुम मे आते और छोड़ कर स्कूल जाते जिसे मै प्रेस मे दे आता।
स्वतंत्रता संग्राम सेनानियो मे मोतीलाल त्रिपाठी , धनिराम वर्मा कमलनारायण शर्मा ‌ डेरहाराम धृतलहरे महादेव   इत्यादियों को एकत्र करने का काम सशील यदु ,रामप्रसाद कोसरिया  करते और हमलोग उनके सहयोग जिसमे चंद्रशेखर चकोर ( सहपाठी )  सुशील वर्मा ,राजेन्द्र चौहान जैसे प्रतिभाओ का सानिध्य लाभ मिला।
  उनके लगातार आयोजनो के श्रोता या दरी उठाने बिछाने बैनर पोष्टर फोल्डर बाटने के काम करते रहे।एवज मे कभी कभी काव्यपाठ करने का अवसर मिल जाया करते थे। छिटपुट उन कार्यक्रमों के रिपोर्टिंग पेपर मे आते।जिनकी विज्ञप्ति देने  सुशील भैया मेरे छात्रावास के रुम मे आते और छोड़ कर स्कूल जाते जिसे मै प्रेस मे दे आता।

   बहरहाल  एक कवि संगोष्ठी के बाद  उनकी एक कविता की पंक्ति मे मेरा मासुम सा हस्तक्षेप नुमा आग्रह था -  "बादर हर  गंजा गे रुई के पहाड़ असन के जगा 
बादर हर गंजा गे पोनी के पहाड़ असन .... हर जादा शोभाय मान होही ।" 
      उन मन बड़ गहिर गंभीर सुभाव के रहिन अउ हमन ओकर तीर गोठियाय बर तको झिझकन ... वोहर कहिस बने कहत हस बाबू  अउ मोला गौर से देखन लगिस मय झेंप गेंव ।मोर संग उमाशंकर अउ मनराखन रहिन  ।  अभी उमा भाई हर  इंजीनियर हवे ।अउ तरुण छत्तीसगढ म काम करत मनराखन हर आजकल  अपन गांव म खेती किसानी म मंगन हवे।
         हरि ठाकुर के सुरता के चंदन हर आजो ले गजबेच ममहावत हवय।

    डा. अनिल भतपहरी

Thursday, November 25, 2021

संसो

अभीच ले मोला  अबड़ संसो होत हवे भाई 
अवइय्या दस बीस बछर मं  अलकर होही 
काबर कि बड़े-बड़े मूर्ति बन जाही
त "हवई जहाज" कइसे उड़ियाही ?
परदेशिया मन इहा आए बर  डराही 
काबर कि उकर जिहाद ओमा टकराही 
अउ भंग -भंग ले  जर- बर  के लेसा जाही .
बिचारा मन के हाड़ा-गोड़ा के पता नई चलही

Thursday, November 11, 2021

अक्लदाढ़ और अक्लवान

"अक्कलदाढ़  और अक्लवान "

   तुलसी के सिवाय बत्तीसों दांत वाले व्यक्ति बड़े भाग्यशाली रहते है। क्योकि जिनके पास यह होता है वह दक्ष , कुशल, प्रवीण और ताकतवर होते है। और यह न रहे तब तक वह, वह नही होते जो उपर्युक्त उल्लेखित हैं। बाहरहाल जो आरंभ से बत्तीसी वाले होन्गे वे तुलसी की तरह दुत्कारे ही नही परित्यक्त कर दिए जाएन्गे । आजकल कोई बाबा नरहरि दास नही जो अनाथ का नाथ हो उन्हे प्रशिछित कर युगद्रष्टा बना दे। भले उनकी गृहस्थी का बेड़ा गर्क हो पर तुलसी दुत्कारे जाने और अपने एकनिष्ठ प्रेम के बावजूद तिरस्कृत हुए यह उनका अभाग्य नही तो क्या ? भले उसे  मरणोपरांत भारतरत्न जैसे घर- घर पूजने का  सम्मान का प्रचलन हो गया हो पर उससे क्या? 
    सचमुच समय से पहले और समय से बाद का हर चीज जमाने को अग्राह्य है। भले आजकल उन्नत तकनीक से हर चीज समय बे समय उपलब्ध होने लगे है शायद इसलिए अब चीजे महत्वपूर्ण नही रहे ।लोगों की शौक महत्वपूर्ण होने लगे है।
इसलिए अब समय- समय पर होने वाले उत्सव पर्व फीके होते जा रहे है और  परिजनों- दोस्तो - परिचीतों के हर समय होने जनमदिन, विवाहदिन ,गृह प्रवेशदिन  आदि की उत्सव रंगीन व सितारा मय होने लगे है ।जहां हर वो चीज है जिनके आकर्षण से लोग खींचे चले आते -जाते  है।
    तो बात बत्तीसी वालों की सफलताओं से है।जिनके है वह वाकिय में ऐश्वर्यवान है क्योकि तब वह कृपण भले रहे रुपवान तो है।चेहरे भरापुरा और अक्ल व सेहत सुदृढ़ जो रहते है। कहे जाते कि ३२ दांत २५ के बाद पूर्ण होते है और ४५ तक  बिना यत्नपूर्वक रखे जा सकते है।हां इस बीच यदि मां - बाप रहे तो जरुर बेअक्ल और जोरु के गुलाम कहाते रहें... पर अपने इर्द - गिर्द जरुर प्रभावशाली रहते है।और यदि परिजन न रहे तो खुद मुख्तार हो पत्नी बच्चों और परिजनों में  ऐश्वर्यवान  रहते है।
     अकलदाढ़ २५ के पहले नही उगते जिनके उगते है वह अलग तरह के फर्टीलाइजर वाले होते है बेचारे रामबोला पेट में उगाने का उपक्रम फलस्वरुप उनकी गति कैसी हुई यह जग जाहिर है। इसलिए बिना अकलदाढ़ उगे होशियारी नही  दिखाना व बधार‌ना चाहिए । 
       कुछ लोग अकलदाढ़ उखड़वाने के बाद भी अकलवाले होने के भ्रम में जीते है। क्योकि यह आखिर में उगता है । जो कि बिन बुलाए मेहमान की तरह सबसे पीछे खड़े रहते है।  मिल गये तो खाय या  पीछे खड़े  लुलवाए या पछताते रहते है।
        अब कोई दीन दयाल तो नही जो अंत्योदय कहते कहते किसी अनजान जगह पर अनजान जैसे  चल बसे। भले उनके जाने के बाद वही भारतीय संस्कृति में पूज्यनीय या सम्मानीय बने।पर दूर्भाग्य अकलदाढ़ का कि बेचारे का आना भी दुखदाई और जाना भी दुखदाई।
        अक्लदाढ़ उगते समय बेहद कष्ट होता है ठीक हठयोग की तरह जबड़े सुज जाते है अन्नजल जल का परित्याग करने होते है।यह अनुक्रम हफ्तो - महिनो और कभी कभी ठहर -ठहर कर २८-३० मे से ४- २ को उगाते वर्ष दो वर्ष साधना में गुजारने होते है तब कही जाकर सिद्धि मिलती है।  इस तरह  कठोर संताप से गुजरना होते है।मुझे तो २-३ साल लग गये जब पूर्णत: बत्तीसी हुए तब तक एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हो गये। तब जाके मां की बातें सच साबित हुई कि-" बाप बनबे तब पता चलही  ददा !"
         पर अब जैसे ही पैंतालिस पार करने हुए कि यह जबरिया मेहमान  जिसे  अन्यान्नभाव या अत्यं मे रहने से राज करते लोगों के नजरों से ओझल रहे और शोषित पीड़ित रहे उन्हे  सही पोषण नही मिला। टुथब्रश दातुन मंजन पेष्ट  आदि वहां नही पहुंचा और स्वादिष्ट व्यंजन भोजन  व मिठाई को वह लालची संग्रहित रखा .... जो अभावग्रस्त होते है अक्सर वही व्यर्थ को एकत्र करते रहते है फलस्वरुप वे कैवीटिग्रस्त  होकर   जल्द ही सेन्सटिव होते गया । वैसे भी वह लोग समाज सर्वाधिक संवेदनशील होते है जो अभावग्रस्त होते है।उन्हे खाने चबाने की जरुरत नही पड़ा अत: उनके हिस्से में उनके अवशेष मिले जिसे वह बेवकूफ घुरवा जैसे कचरों को संजोकर  पकड़े रहा ,फलस्वरुप  गर्म ठंडा पानी मिठा या तीखा  सब वर्ज्येत है। क्योकि जब यह लगता तो यह जालिम असहनीय दर्द देता ..और सारा शरीर तड़फता ।जब यह सब उनके चलते अग्राह्य तब यही हमारे लिए ग्राह्य क्यो? और यह असह्य वेदना के कारक क्यो कर धारणीय इनका परित्याग ही धर्म है। आज वह जबरिया उखवाड़े और बेदखल होने की ओर प्रयाण कर रहे है। सनसनाहट और फिर असहनीय दर्द इही कलमुंहे के चलते होने लगा ।इसलिए डेन्टीस्ट ने साफ-  साफ  दो टूक कहा कि " इनकी कुर्बानी आवश्यक है, अन्यथा यह बाकी के लिए घातक है। यह वो मछली है जो तालाब को गंदा करने लगे है इसे निकाल फेकों!
   वाकिय में जब किसी के अक्ल की आंतक  से लोग परीचित होते है तो उन्हे बेअक्ल करने की ठानते है। आज हमारे अक्लदाढ़ अपनी इसी नियति के कारण ..
उखड़ने जा रहें  है।
   अच्छा है अब इस अड़तालिसवें में बेअक्ल हो जाना बड़े होते  बच्चों और पत्नी व उनके मायकों वालों के लिए अत्युत्तम है। हमने ऐसा होने ठान लिए और बीच में रुट केनाल करवाकर /कैप लगाकर कृत्रिम रुप से अक्लवान बने रहने की प्रवृत्ति को बदलकर जब तक रहे बिना अक्लदाढ़ के बेअक्ल रहने की मंसूबे पालने  लगे है।
   क्योंकि अब इस उम्र में जब सब कुछ उसी अक्ल के चलते खाने- पीने का प्रबंधन कर लिए तब नकली ही सही दांतो से खाने के लिए अक्ल की क्या जरुरत ?जब तेजी से बच्चे अक्लवान होने की अग्रसर है!आखिर कबतक अपने अकल को रगड़ते और खरच करते रहे भाया ! तभी तो  पोली जगह को भरवाने की फिक्र छोड़  केवल रुई ठुसवाकर बे अक्ल जैसे अपने महाविद्यालयीन विद्यार्थियो को विशाखापट्टनम शैक्षणिक भ्रमण मे ले गये । 
         पी-एच.डी. धारी अक्ल वाले  अनगिनत बहाना कर फंसने से मुक्त हो गये क्योकि किसी के बच्चे की परीक्षा है। किसी के  बुजुर्ग माता पिता है । यात्रा मे उल्टी व चक्कर आते है तो किसी के दूर के रिश्ते मे शादी है। हां  एक यही तो बेअक्ल है जो हर जगह अपनी ना न कह सकने की प्रवृत्तियों के चलते फंस जाते है। अब भुगतों और भूख लगे तो तरल पीयो या साफ्ट दाल भात खिचड़ी एक ही तरफ  खाकर  गुजारा करों।क्योकि बेचारे ग्राम्य परिवेश के बच्चों को समुद्र और पानी जहाज देखने के मौका को यूं गंवाने नही देना है ।क्या पता इन्ही मे कोई नेवी अफसर बन जाय और देश रक्षा मे तैनात हो जाय।
      -डां. अनिल भतपहरी
9617777514

Sunday, November 7, 2021

अधिक और लंबी धार्मिक आयोजन और उनका प्रतिफल‌

#anilbhatpahari द
ेष
।।अधिक और लंबी धार्मिक आयोणजन और उनका प्रतिफल ।।

      प्राय: देखने में आते है जो समुदाय अधिक और लंबी धार्मिक आयोजन में उलझा हुआ है ,वही सर्वाधिक पिछड़ा  दीन -हीयन गरीब है।यहां तक शोषित भी। उनके अराध्य और कर्मकांड उन्हे उनकी वर्तमान हालात् से उबारते क्यों नही? और तो और प्रभावी आयोजन की होड़ लिए अनुयाई परस्पर प्रतिद्वंद्वी और प्रतिस्पर्धी भी हो जाते है ।फलस्वरुप उनमें वर्चस्व के होड़ और उनसे लड़ाई -झगडे तक हो जाते हैं।  नेपथ्य में आयोजक और प्रायोजक के पौ बारह हो जाते हैं।  और विडंबनाएं देखिए यही तबका  स्वर्ग सम सुख धरा पर भोगते अतिशय सम्मनित भी होते है। इसलिए भी उक्त प्रथाओं के ये प्रवर्तक और संरक्षक बने हुए होते हैं।
           हमारे संतो -गुरुओं ने बड़ी  ही सुन्दर ढ़ग से दृष्टान्त देते  नैतिक सीख भी दी -" तय अपन बर बारा महिना के खरचा जोड़ ले तब भक्ति कर न इते झन कर । "     परन्तु नक्कार खाने में ऐसे प्रवर्तन कारी  स्वर विलिन हो गये या उन्हे और उनकी वाणियों और स्थापनाओं को बहिष्कृत कर दिए गये।
    पाश्चात्य जगत मे इसके तरफ ध्यान आकर्षित करते मार्क्स का भी उद्भव हुआ पर उनकी विचार यहां के पारंपरिक व शास्त्रीय मनो मस्तिष्क में समाए भी नही। 
    ऐसा लगता है कि सोची समझी रणनीति के तहत धार्मिक आयोजन और अनुष्ठान आदि ईजाद किए गये ताकि जनता उनमें आकंठ डूबी रहें। चंद समर्थवान यदा- कदा धार्मिक होने और बड़ी दान दक्षिणा कर इसी मनोवृत्ति को बढाने में लगे होते हैं।
    धर्म को अफीम कह उनसे बचने की सलाह यहां के कथित  जपी -तपी  द्रष्टाओं / व्याख्याकारों को बचकाना लगते हैं। इसलिए यहां खासकर बस्तर के  आदिवासियों की 72 दिनी बस्तर दशहरा और नेम जोग से मानने की सैकड़ों वर्ष की प्रतिबद्ध प्रथाएं वहां केवल लंगोटी और रोटी ही दे पाए हैं। आज भी अर्धनग्न समुदाय वनोपज और कठोर परिश्रम से ले दे कर जी रहे हैं। ऊपर से दो पाटन के बीच में  गेंहू की मानिंद अलग से  पिसा भी  रहा रहा हैं।
       उत्तर में भी करमा बार सैला सरहुल जैसे आयोजन राजतंत्र के प्रति अटूट निष्ठा और विभिन्न धार्मिक आयोजन धर्मांतरण के चक्रव्यूह में उलझे पड़े है।
        इसी तरह मध्य छत्तीसगढ़ के मैदान मे हरेली से होली तक कर्मकांड व तीज -त्योहार  जिसमें छक कर शराब  मुर्गा मटन  में निमग्न हैं।  और तो और  बीच- बीच मे गणेश दुर्गा  नवधा- भागवत  में अपने पेट काटकर पर- प्रांतिक कथावाचको के लिए दान- दक्षिणा की व्यवस्था में लगा हुआ हैं। परन्तु उनकी आर्थिक सामाजिक परिस्थिति में रंच मात्र परिवर्तन नही आया हैं।
          किसान बनिहार हो गये और बनिहार शहरों के सेठ साहूकारों के बहुमंजिला ईमारत  बनाने वाले फैक्ट्री मे काम करने वाले रेजा कुली बनकर रह गये हैं। गांवो मे  लघु किसान स्वयं अपने खेतों काम करने वाले खेतीहर श्रमिक हो गये है। यहां अधिकतर  बच्चे महिलाएं या बीमार वृद्ध ही रह गये है।  धान की कटोरा कहे जाने छत्तीसगढ़ मे औसत छत्तीसगढिया  आजकल गरीबी रेखा के नीचे  लाल पीले नीले राशन कार्डधारी होकर चावल की कटोरा थामे प्रतीक्षारत याचक सा होकर  रह गये है।  यह  कथित ग्राम स्वराज और पंचायती राज का साईड इफेक्ट है।
         इस तरह देखा जाय तो जो समुदाय अधिक धार्मिक और कर्मकांडी है , वह अपेक्षाकृत अधिक दु: खी पीड़ित व शोषित भी बावजूद वह कथित आत्म सुख भाव से  इन आयोजनों हर्षित व उल्लसित नज़र आते हैं।
          संतो -गुरुओं के अनुयाई भी ईश्वरवादियों की अनवरत आयोजन से प्रभावित होकर लंबी और बड़ी आयोजन करने लगे है फलस्वरुप चंद वर्गों के अतिरिक्त बहु वर्ग धार्मिक कर्मकांड मे उलझा हुआ है। उनके भगवान खुदा ईश्वर गुरु संत सभी मूकदर्शक है अनुयाईयों के जीवन स्तर पर उनकी कोई कृपा बरस नही रहे हैं। बल्कि कृपा उनके ऊपर बरस रहे है जो षडयंत्र खोर   सूद खोर और राज खोर है।  इनके चंगुल और अनावश्यक अंध श्रद्धा कर्मकांड या कहे जीर्ण शीर्ण परंपरा को ढोने से बचाने बौद्धिक लोगों का नैतिक कर्तव्य होना चाहिए। ताकि यहां के नागरिक और देश प्रदेश सुखी व समृद्ध हो सकें।

 निम्न विडियों को देखकर इसे और भी बेहतर ढंग से समझे जा सकते है।

            - डा. अनिल भतपहरी / 9617777514

Saturday, November 6, 2021

खुमान संगीत

खुमान संगीत 

       रविन्द्र संगीत की तरह खुमान संगीत एक अलग अहसास हैं संगीत प्रेमियों के लिए । बाल्यावस्था में ही पिता श्री (सुप्रसिद्ध रंगकर्मी व सतनाम संकीर्तन कार सुकालदास भतपहरी "गुरुजी"  ) के सानिध्य में गीत- संगीत अभिनय आदि सीखने और प्रदर्शन करने  का अवसर मिला । 

      गर्मी व दशहरा - दीवाली  छुट्टी में  गृहग्राम जुनवानी आते तो घर  के  आंगन में खाट पर बैठे पिता श्री बाँसुरी से "का धुन बाजव मय धुनही बसुरिया"  वाली गीत का  धून छेड़ते तो मैं हारमोनियम से  संगत करते चिटिक अंजोरी निरमल छंइहा ... बजाने कहता और फिर खुमान साव की अनेक धुन युं ही बिना लय तोड़े गीत बजते जाते ... आसपास के कथा कहानी  कहने वाले शोर गूल  करते रेशटीप और अंधियारी - अंजोरी खेलते  बाल टोलियां और निंदारस में डूबे रोचक वृतांत में उललझने वाले सब मोका जाते और हम दोनो बाप बेटे की जुगलबंदी सुनने सकला जाते ... फिर भजन गीत गाने फरमाइश भी होने लगते ... 
      आकाशवाणी रायपुर  में बुधवार को दोपहर  सुर श्रृंगार सुनने स्कूल बंक मारते ... और गणित रसायन वाले सर से डांट सुनते पर जब ज 
चौरा म गोंदा रसिया, मोर संग चलव रे काबर समाए  रे मोर बइरी नयना मं, पान ठेला वाला या मंगनी म मांगे मया न इ मिलय   जैसे  गीत सुनते  मन अल्हादित हो जाया करते और डाट फटकार होम वर्क की दंश से मुक्त भी।
 उनके  गीत सैकड़ों हजारों  बार विगत ४० वर्षों से  सुनते व गुनगुनाते आ  रहे पर मन नही अघाते .. .पता नही क्या चीज इनमें भरा हुआ हैं ?  फिल्मी गीत इनके समछ हल्के लगते ।
कारी  ( एक बार टेकारी आरंग में वही रामचंद देशमुख जी  को  देखे )व चंदैनी गोंदा   (अनेक बार अनेक जगहों पर में  झुलझुल कर सिगरेट पीते बिधुन हारमोनियम पर उंगुली थिरकाते खुमान साव जी का दर्शन और दुआ सलाम मंच पर जाकर कर आने का भाग्य हमें कई बार मिल चूका है।
...रामचंद खुमान लक्ष्मन के तिकड़ी ने वह किया कि छत्तीसगढ़ी की अस्मिता मुखरित हो उठी चहुंओर इनकी मधुरता फैल गई । ये तीन ही काफी है कही भी कभी भी इनके भरोसा  खोभिया के या अड़िया के खड़े होने के लिए हम जैसों के लिए ।
    अनेक  गीतों में अपनी  बेहतरीन संगीत संयोजन से जनमानस को मुग्ध व आनंदित करते छत्तीसगढ़ी संगीत को  शिखर तक ले जाने वाले महान संगीतकार खुमान साव जी  को ...विनम्र श्रद्धांजलि ! सत सत नमन।
     ।।वे गये नहीं बल्कि छत्तीसगढ़ के फि़जा में बिखर गये ।।   
      -डा अनिल भतपहरी

निम्न लिंक पर जाकर उक्त माधुर्य का एहसास कीजिए ....

Friday, November 5, 2021

आस्तिक नास्तिक वास्तविक और बुतपरस्ती

#anilbhatpahari

चिंतन 
            
    ।।आस्तिक ,नास्तिक, वास्तविक और बुतपरस्ती ।।

            "संतो गुरुओ और प्रबुद्धों ने सदैव ज्ञान और सद्कर्म की शिक्षा दी। सतत ज्ञान का अन्वेषण और सद्कर्म का अनुपालन करने से ही व्यक्ति को सिद्धी और प्रसिद्धी मिलते है। न कि किसी की पूजा ,पाठ, इबादत प्रार्थना आदि से ।
   परन्तु मनुष्य आदतन श्रद्धालू और किसी विशिष्ट कृपा भाव वरदान आदि पाने की उत्कट आकांक्षा रखने वाले प्राणी है। फलस्वरुप अनेक तरह की अलौकिक शक्ति सम्पन्न देवी -देवता ,खुदा, गाड ,ईश्वर भगवान ईजाद कर  उनकी छवि / मूर्ति आदि गढ़ लिए है। जो है या नही, यही अज्ञात है। आज तक न किसी ने देखा न अनुभव किए। बावजूद कथा -कहानियों के आधार पर मूर्तियां गढ लिए गये है और अनेक तरह के कर्मकाञड / विधि विधान से पूजने ,जपने ,मानने  के तरीके अपनाकर आकंठ डूबे हुए है।  राज करने के निमित्त सामंतों ने जनमानस को जानबुझर  डूबा दिए है। अनेक शास्त्र और धर्म स्थल रचे व बना लिए गये है। ऐसा लगता है इन धर्मों और उनके अराध्यों की श्रेष्टता और  वर्चस्वता के चलते  अनुयाइयों में प्रतिद्वंदिता हुई और भीषण  रक्तपात भी फलस्वरुप मानवता कलंकित हुई। 
        देखा जाय तो अब तक किसी परम भक्त को उनके ईश्वर अपने कथित धाम ले जाने न आया न किसी दूत को भेज सशरीर ले गया हो ,ऐसा एक भी उदाहरण नही हैं। बावजूद स्वर्ग जन्नत हैवन की परिकल्पना और वहां जाने की जुगत मे लगे हुए अनेक तपी जपी और धनी मनी‌ जन लगे नजर आते है। कही कही कुछेक की उत्कट साधना आदि के प्रति जरुर आकर्षण का कौतुहल जन मानस में देखने मिल जाते है जो कि शैन: शैन: श्रद्धा भक्ति मे परिवर्तित होने लगते है।
   ऐसे मे उन्हे जो सद् ज्ञान देने वाले महापुरुष है उन्हे भी उस अलौकिक देव -देवियों ईश्वर आदि  के अंश / बताकर सामाहित कर लिए जाते है। यहां तक कि उनकी भी चित्र / मूर्ति प्रतिमा बना लिए जाते है मठ मंदिर गुरुद्वारा बना लेते है ।क्योकि मत पञथ धर्म आदि को गतिमान करने /उन्हे व्यवस्थित करने  यह सब आवश्यक है अन्यथा उनके द्वारा स्थापित मत  पंथ प्रणाली जमींदोज हो जाएन्गे। उनके विचार और दर्शन विस्मृत कर दिए जाएन्गे।
     अब तटस्थ रुप से विचार कर देखे कि जो मिथक है उनकी प्रतिमाए सही है या जो वास्तविक  है , इतिहास पुरुष है उनकी प्रतिमा सही है ?
   बुद्ध ने कल्पित ईश्वर की प्रतिमा नही पूजने कहा यह सच भी है परन्तु अनुयाई बुद्ध की ही प्रतिमा बना लिए  । संसार में सर्वाधिक  प्रतिमा उसी का देखने मिलता है। उनके देखा- देखी ही अनेक धर्म मत पंथ में बुतपरस्ती होने लगे, पूजना आरंभ किए गये। बुद्ध वास्तविक इतिहास पुरुष है,उनके स्वरुप देखे -समझे गये थे ।उसे उसी रुप मे अजंता एलोरा मे चित्रित किए और अनेक स्थलो पर प्रतिमाएं बनाए गये।
     बुद्ध की मानिंद अनेक ऐतिहासिक संत गुरुओ जैसे कबीर नानक रैदास गुरुघासीदास इत्यादि  का भी चित्र / प्रतिमाए बने और अनुआई  उन्हे पूजने लगे साथ ही उनके वाणी व सिद्धान्त को मानने लगे।
      यहां चित्र/ प्रतिमाए उनकी वास्तविक होने के साक्ष्य है। अनुयाई उसे साक्षात अपने समक्ष पाते है और उनके सिद्धान्तो / उपदेशों मे चलने प्रेरित होते है। इस दृष्टि से बुतपरस्ती जायज भी लगते है।
     इसलिए चैत्य विहार मंदिर गुरुद्वारा सतनाम भवन निर्माण गद्दी  आसन ग्रंथ  प्रतिमा चित्र आदि का प्रचलन होना आवश्यक है अन्यथा मिथकीय संसार मे खोए रहने होन्गे ।
   बहरहाल हमे किसका विरोध करना और किसे आत्मसात करना चाहिए इस अंतर को समझने होन्गे 
सच तो यह है कि आस्तिक- नास्तिक के चक्कर छोड़कर   वास्तविक को अपनाना चाहिए और उनकी शिक्षा और उन्हे सम्मान देना चाहिए।"
     सतनाम
डा अनिल भतपहरी /9617777514

Thursday, November 4, 2021

पहेली

।।पहेली ।।

सब कुछ साफ दिखाई देते  है 
पर कोई भी चीज ज्ञात नही 
सारे चेहरे जाने- पहचाने है 
पर सब लगते  अज्ञात सही 
क्योंकि जिनके इहलोक सुधरे है 
वे परलोक सुधारने मे लगे है 
और जिनके इहलोक बिगड़े है 
वे परलोक सुधारकों को मनाने मे लगे है 
आज तक उनके परलोक सुधरा हो 
यह तो  ज्ञात नही 
इनके इहलोक कोई सुधारे 
यह भी ज्ञात नही 
कितना जटिल है समझना
आखों के सामने घटते घटनाओं  को 
कितना कठिन है  बयां करना 
आंखो के समक्ष सच्चाइयों को 

-डा. अनिल भतपहरी /      9617777514

Tuesday, November 2, 2021

छत्तीसगढ़ी शिष्ट साहित्य के उद्गाता : गुरुघासीदास

"छत्तीसगढ़ी  शिष्ट साहित्य के उद्गाता गुरु घासीदास" 

   डॉ॰ अनिल कुमार भतपहरी
 
 
 
छत्तीसगढ़ में लेखन अन्य प्रान्त के हिन्दी या ब्रज ,अवधि ,मैथिली मराठी भाषियों ने यहाँ की लोक जीवन से प्रभावित होकर पहले पहल सृजन आरंभ किए ।

छत्तीसगढ़ में लेखन अन्य प्रान्त के हिन्दी या ब्रज अवधि मैथिली मराठी भाषियों ने यहाँ की लोक जीवन से प्रभावित होकर पहले पहल सृजन आरंभ किए पर वे छत्तीसगढी नहीं है। छत्तीसगढ वनाच्छादित अंचल रहा है। जहां कोई शिक्षण संस्थान नहीं थे। रायपुर और रतनपुर में केवल पूजा पाठ आदि के लिए संस्कृत पाठशालाओं का निजी संचालन कान्यकुब्ज ब्राह्मणों द्वारा मौखिक रुप से संचालित थे जहां सीमित मात्रा में केवल ब्राह्मण युवकों को शिक्षा दी जाती थी। वे लोग भी कही संस्कृत में काव्य या कोई ग्रंथादि रचे यह ज्ञात नहीं है

। दंतेश्वरी मंदिर में जो शिलालेख है और जिसकी लिपि ब्राम्ही है वह पाली या प्राकृत है जो जन भासा छत्तीसगढ़ी जैसी लगती हैं पर वह छत्तीसगढ़ी नहीं है। क्योंकि बस्तर में गोंडी भतरी बोलियाँ हैं। जिसमें कुछ कुछ शब्द छत्तीसगढ़ी के मिलते हैं।

अमुमन सभी राजा और राजघराने जो आदिवासी थे वे और उनके परिवार प्राय: निरक्षर रहे । फलत: राज दरबार या नगर में छिटपुट लेखन करते जिनकी मातृ भाषा या बोली ब्रज ,अवधि मैथिली बघेलखंडी या मराठी थे। जो जीविकोपार्जन हेतु यहां आकर आश्रय लिये थे। वही लोग देवनागरी लिपि में अपनी अपनी मातृ भाषा में लेखन किया। यह वह दौर रहा जब हिन्दी भाषा के रुप में आकार ले रही थी। यह समय साहित्य के काल क्रम में रीतिकाल का था। जब श्रृंगार और भक्ति का अप्रतिम सृजन चल रहा था। राम- कृष्ण नायक के रुप में महिमामय हो चुके थे उनके मानवीय करण कर उनके लौकिक लोकाचारण से जनमन को अनुरंजित किए जा रहे थे। हर सामंत राजा जमीन्दार के चरित्र को राम कृष्ण के वैभव से जोड़कर उनके मनोहारी वर्णन तक किए जाने लगे । प्रतिभाशाली आसुकवियों को पनाह मिलने लगे ये लोग राग रंग मनोरंजन के गीत गाकर जीविकोपार्जन करने लगे । कवियों कलाकारों को राजदरबार में आश्रय मिलने लगे। इन्ही राज्याश्रित कवियों में दलपत राव खैरागढ, बाबू रेखाराव रतनपुर, और सिमगावासी खाण्डेराव का नाम उल्लेखनीय है। इनकी रचनाओं में वे अपने आश्रय दाता राजाओं के प्रशंसा के साथ- साथ समकालीन छत्तीसगढ़ की छवि परिलक्षित होते हैं।

इसी समय बांधवगढ़ वासी धनी धरमदास जी का वृद्धावस्था में कबीर पंथ के प्रचारार्थ आगमन हुआ। वे कोमलकांत पदावलि प्रेम भक्ति के पद कवित्त रचे जिन पर कबीर की वाणियों के अनुगूंज हैं। उनकी भाषा बघेलखंडी और ब्रज है।

छत्तीसगढ़ में शिक्षा का द्वार लार्ड मैकाले के शिक्षा नीति के चलते १८५० के आसपास स्कूल खुलना आरंभ हुआ। और १९०० तक शहरों कस्बों में पाठ शालाएं धीरे धीरे खुलने लगी इस दरम्यान प्रथम पीढी के लोग साक्षर हुए वही लोग छिटपुट छत्तीसगढ़ी में गीत भजन और धार्मिक कथा कहिनी लेखन आरंभ किए।‌

तब तक बीज स्वरुप जनमानस में गुरु बाबा के वाणियों का अनुगूंज गूंजने लगा वही आगे सतनाम साहित्य जिसे छत्तीसगढ़ी का शिष्ट साहित्य कह सकते हैं, का क्रमशः सृजन आरंभ हुआ।

इस तरह हम पाते हैं कि -

विशुद्ध छत्तीसगढ़ी में नवीन विचार -धारा और दर्शन को जनमानस में प्रसारित करने सर्व प्रथम सूक्तों, अमृतवाणियों ,उपदेशों  ,पंथी मंगल भजनों दृष्टान्त या बोधकथाओं के माध्यम से गुरु घासीदास और उनके पुत्र गुरु अम्मरदास जी ने १७९० के आसपास सतनाम पंथ की स्थापना की। और उनके प्रचारार्थ रामत -रावटी किए। इन्हीं आयोजनों में सत्संग- प्रवचन और पंथी -मंगल भजनों द्वारा सतनाम के गूढ़ंतम सिद्धान्तों को सरलतम ढंग से जनभासा छत्तीसगढ़ी में व्यक्त किए जो शिष्ट साहित्य की कोटि में पणिगणित होने हुए।

सतनाम -पंथ के अभ्युदय के पूर्व छत्तीसगढ़ी में लेखन और सृजन इसलिये भी संभाव्य नहीं हुआ क्योंकि यहाँ शिक्षा और अक्षरग्यान जनमानस में थे ही नहीं। इसलिए अधिकतर लोकगीतों का मौखिक स्वरुप रहा है। और लोग अपनी यादृच्छिक क्षमता के अनुरुप उन्हें कंठ दर कंठ प्रवाहित करते लाए। इनमें प्रमुखतः करमा ददरिया रीलो बार डंडा नृत्य गीत बांसगीत बसदेवा सुआ इत्यादि। इनके साथ- साथ बिहाव गीत गौरागीत जसगीत जैसे आनुष्ठानिक गीत जो लोकगीतों के रुप में रहा। तो अहिमन कैना केवला कथा दसमत कैना लोरिक चंदा सीत बंसत लछ्मनजति भरथरी गोपीचंद आल्हा जैसे पात्रों चरित गायन भी वाचिक परंपरा में रहा। पंडवानी इसी तरह कलान्तर में विकसित हुई।

सतनाम -पंथ का प्रवर्तन गुरु घासीदास ने धर्म-कर्म में व्याप्त अराजकता, अंध विश्वास, ढोंग- पाखंड के विरुद्ध उनमें अपेक्षित सुधार हेतु किया गया। फलस्वरुप अनेक सकारात्मक लोग उनसे जुड़ते गये। पुरातन प्रेमी और रुढिवादियों ने इनका प्रतिकार किया साथ ही अनेक तरह के अवरोध पैदा किए गये। ताकि इससे नवीन सतनाम विचार-धारा का प्रवाह अवरुद्ध हो जाए। परन्तु जो सत्य और लोककल्याणकारी तत्व है वह सारे अवरोध अपनी सर्व ग्राह्यता से हटा लेता है। और ऐसा ही हुआ। सारे अवरुद्ध उनके प्रवाह से उखड़ गये और भारतीय संस्कृति में जातिविहीन नये धर्म का संस्थापना हुआ। समकालीन समय में उनकी अनुगूंज से जो सृजित हुआ वह वाकिये में चमत्कृत करने वाला रहा। फलस्वरुप यह बडी तेजी से लोक जीवन में प्रचारित-प्रसारित हुआ।

परन्तु गुरु घासीदास विरचित शिष्ट साहित्य और सतनाम -दर्शन केवल अनुयायियों तक क्यों सीमित रहे और गैर अनुयाई उनसे क्यों मुखापेक्षी रहे यहां तक कि सतनाम- पंथ के साहित्य को जातीय साहित्य कहे जाने लगे? यह विचारणीय और खारिज करने योग्य है। क्योंकि यह. सुविधाभोगियों और शोषकों द्वारा फैलाए गये भ्रम रहा है। वाकिये में यह जाति -पांति आदि से मुक्त मानव मुक्ति के महाकाव्यात्मक गान है। यह बाते अब प्रज्ञावानों को समझ आने लगी है। इन भावप्रवण रचनाओं के माध्यम से छत्तीसगढ़ी को वैश्विक पटल पर संस्थापित किए जा सकते है। अनेक प्रसिद्ध रचनाकार और समीक्षक एक सुर में कहते है कि छत्तीसगढ़ के महान संत गुरु घासीदास से नि:सृत छत्तीसगढ़ी देव वाणी संस्कृत सम महिमामय हो गई ।

सिरजादे मनखे के हृदय म धाम ।

सतनाम साहित्य मानव हृदय को धाम बनाती है। और उन्हें समानता के धरातल पर खड़ा कर प्रकृति और प्राणियों के प्रति संवेदनशील बनाती है।

ऐसे दिव्य और महिमामय भाव प्रवण छत्तीसगढ़ी में गद्य पद्य रचनाएँ जो बाबाजी के मुख से नि:सृत है ,वह द्रष्टव्य है-

सप्त सतनाम सिद्धान्त -

१ सतनाम ल मानव अउ सतनाम के रद्दा म रेगव

२ पर नारी ल माता बहिन मानव

३ मांस त मास ओकर सहिनाव तको ल झन खाव

४ मंद माखुर चोगी झन पियव

५ मंझनिया नागर झन जोतव

६ मूर्ति पूजा झन करव अउ ओमा बलि झन चढावय

७ गाय अउ भ इसी ल नागर म झन फांदव

उक्त दिव्य सतनाम सिद्धान्त के अनुरुप ही अनगिनत उक्ति व गीत उपदेश अमृतवाणियों का अवतरण हुआ-

१ सत म धरती टिके हे सत खडे हे अगास ,कहे

सत म चंदा सूरुज ह बरत हे दिनरात ,कहे घासीदास।।

२ कटही कुलुप स इता राख ।

ये दे सुकवा उवत हे पहाही रात ।।


 

 
३ मंदिरवा म का करे ज इबोन। अपन घट के देव ल मनइ बोन ।।

४ चलो चलो हंसा अम्मर लोख ज इबोन ।

अम्मर लोख जाइके ये हंसा उबारबोन ।।

५ ये माटी के काया हर न इ आवय कहू काम ।

तय सुमर ले सतनाम तय सुमर ले सतनाम ।।

६ सतनाम एक वृछ हे निरंजन बनगे डार

तीन देव साखा भये पन्ना भये संसार

७ मोरा हीरा गंवागे बन कचरन म

मुड पटक -पटक रोले पथरन म

८ हंसा कायागढ म लगे हे बजार समझके कर ले स उदा ल हो

९ अमरित पावन लगे सुहावन सतनाम मीठ बानी

सतनाम तय जप ले रे मनवा करले सुफल जिनगानी

१० बीच गंगा बहत हे मंझधारा हो मिले बर होही संतो मिल जाहु न ....

इसी तरह अमृतवाणियों का यह गद्यात्मक रुप दर्शनीय है-

१ करिया होय कि गोरिया होय ये पार के होय कि ओ पार के मनखे हर मनखेच आय।

२ झगरा के जर न इ होय ओखी के खोखी होथय।

३ पितर मन ई हर मोला ब इहाय कस लागथे।

४ मंदिर झन बना न संतद्वारा बना तोला बनायेच बर हवे त कुआ तरिया सराय नियाला बना ।दुरगम ल सरल‌ बना।

५ तोर भगवान बहेलिया आय मोर भगवान धट धट म बिराजे सतनाम हर आय।

६ मंदरस के सुवाद ल जान डरे त सब ल जान डरे।

७ एक धूबा मारे तहु तोर बराबर आय।

८ मोर सब हर संत के आय तोर हीरा ह मोर बर कीरा आय

९ अव इय्या ल रोकव नहीं जव इय्या ल टोकव नहीं

१० ये भुइंय्या तोर आय येखर तय मिहनत करके सिंगार कर अन्न धन उपजा अउ सुध्धर सत इमान म अपन जीनगी बिता।

इन अलंकृत व भावप्रवण अमृतवाणियों के साथ साथ अनगिनत उपदेश ,दृष्टान्त व बोधकथाएं हैं।

इस तरह देखें तो भावप्रवण व संपूर्ण व्याकरणिक कोटि से अलंकृत महिमामय वाक्य संरचना है जिस पर अनेक तरह से मुग्धकारी साहित्य सृजन संभाव्य है। और रचे जा रहे हैं।१९२५ मे सतनाम सागर के प्रकाशन कलकत्ता से सतनाम साहित्य का सोता अजस्र प्रवाहमान हो मानव के अंत:करण को आप्लावित करते आ रही है।

अब तक ३५० से अधिक स्वतंत्र पुस्तकें पत्र पत्रिकाएं प्रकाशित हैं । कई खंड व महाकाव्य हैं उनमें प्रमुख निम्नवत हैं-

१ सतनाम सागर - पं सुखीदास


 
२ गुरुघासीदास नामायण

३ समायण - पं सुकुलदास -मनोहर दास नृसिंह

४ सत्यायण- पं साखाराम बधेल

५ सतनाम- संकीर्तन- सुकालदास भतपहरी गुरुजी

६ सत सागर - प नम्मूराम‌ मनहर

७ सतनाम धर्मग्रंथ - नंकेशरलाल. टंडन

८ सतनाम खंड काव्य - डा मेधनाथ कन्नौजे

९ गुरु उपकार - साधू बुलनदास

१० श्री प्रभात सागर - मंगत रविन्द्र

इसी तरह गद्य में अनेक रचनाएँ है उनमें प्रमुखतः १० रचनाओं की सूची निम्नवत् है

१ सतनाम आन्दोलन और गुरु घासीदास - ले शंकरलाल टोडर

२ सतनाम - दर्शन इंजी टी आर खुन्टे

३ सतनाम दर्शन भाऊराम धृतलहरे

४ सत्य प्रभात - डा आई आर सोनवानी

५ सतनाम के अनुयायी - डा जे आर सोनी

६ गुरुघासीदास संधर्ष समन्वय और सिद्धान्त- डा. हीरालाल शुक्ल

७ गुरु घासीदास की मानवता  - साधु सर्वोत्तम साहेब

८ सत्य दर्शन - घनाराम ढिन्ढे

९ गुरु घासीदास चरित - सुखरु प्रसाद बंजारे

१० सतनामी कौन? -    शंकरलाल टोडर

गद्य पद्य के अतिरिक्त अनेक पंथी मंगल चौका आरती संग्रह और चंपू काव्य हैं। महाकवि द्वय नोहरदास नृसिंह और नम्मूराम मनहर नंकेसर लाल टंडन साधु बुलनदास जी ने सतनाम धर्म संस्कृति से संदर्भित अनेकानेक रचनाएँ समाज को दिए और जनमानस में प्रचार प्रसार किए।

उक्त महत्वपूर्ण ग्रंथों पुस्तकों के साथ इतिहास राजनीति समाज दर्शन एवं साहित्य में गुरु घासीदास के प्रदेय व्यक्तित्व व कृतित्व पर अनेक लेखकों विचारकों के आलेख से संगृहीत पत्र पत्रिकाएँ और स्मारिकाएं उपलब्ध हैं इन सबके आधार पर कई विश्वविद्यालयों में अनेक शोध प्रबंध उपलब्ध हैं ।जिसके प्रकाशन होने पर सतनाम धर्म- संस्कृति के वृहत् स्वरुप का दिग्दर्शन होंगे।

इस तरह देखा जाय तो गुरु घासीदास बाबा और उनके पुत्र द्वय गुरु अम्मरदास व राजा गुरु बालकदास ने १७९०-१८६० तक विशुद्ध छत्तीसगढ़ी में सिद्धान्त उपदेश अमृतवाणी मुक्तक बोध व दृष्टान्त कथाओं को रामत - रावटी में सत्संग प्रवचन पंथी नृत्य गान द्वारा जनमानस में विशिष्ट प्रयोजन खाकर जनकल्याणार्थ प्रस्तुत किए। वह वर्तमान में शिष्ट साहित्य के रुप में प्रतिष्ठापित हुआ। इस तरह गुरु घासीदास को शिष्ट साहित्य के उद्गाता कहे जा सकते हैं। अनेक विद्वान उन्हें छत्तीसगढ़ी का आदि कवि और लोक साहित्य और शिष्ट साहित्य का सेतु कहते हैं। और वे है ही।

जय सतनाम - जय छत्तीसगढ़ जय भारत

--

डॉ- अनिल कुमार भतपहरी



ऊंजियार-सदन,सेन्ट जोसेफ टाउन आदर्श नगर अमलीडीह रायपुर छग 

Thursday, October 28, 2021

चाह

#anilbhatpahari 

चाह 

चार कंधे 
मजबूत हो 
कदमें चार   
चले संग तो 
मंजि़लें सभी 
महफूज हो 
मिले असीस 
इन्हे आपकी 
संवरे भविष्य 
इनायत नज़रे 
आप सबकी 
  - डा. अनिल भतपहरी

Saturday, October 23, 2021

रावण न जला

#anilbhatpahari 

रावण न जला 

मैदान में मिला 
करते अट्टहास रावण 
का यह पुतला 
बीत गये दशहरा 
पर वे आज तक न जला 
लोग मनाते दीवाली  
जुनुन मे हो चले  मनचला 
मंहगाई और दुनियादारी मे 
 सभी के निकले  दीवाला  
फिरता जग मे भूला भूला 
जलाने कोई  राम नही मिला 
सच तो यह  है लला 
कि रावणों के हाथों से  
रावण जलेगा भला ?
कोरोना में बहुतों की 
बहुत  कूछ  जला 
देखो यह दृश्य  अलबेला 
धूम मची है बखत चलि चला 
ऐसे मे इस  दशहरा मे 
रावण न जला

  -डा. अनिल भतपहरी

Friday, October 15, 2021

गुरुगद्दी पूजा महोत्सव व गुरुदर्शन मेला

#anilbhatpahari 

"गुरुगद्दी पूजा महोत्सव व गुरुदर्शन मेला की बधाई "
                      जय सतनाम 
         सतनाम धर्म-संस्कृति का यह महत्वपूर्ण आयोजन गुरुघासीदास के पुत्र राजा गुरुबालकदास के राज्याभिषेक  १८२० के बाद भंडारपुरी में क्वांर शुक्ल एकादसी को गुरुदर्शन दशहरा शोभायात्रा में  डूम्हा ,तेलासी, जुनवानी, देवगांव मोहगांव, गिधपुरी ,चिखली हरिभट्ठा बिजराडीह ,अमसेना कोड़ापार ,भैसमुड़ी, भैसा एंव खपरी जैसे अनेक ग्रामों  में निवासरत हजारों -सतनामियों का  आनन्दोत्सव महापर्व रहा हैं। जिनकी तैयारियाँ बड़े जोर- शोर उत्साह पूर्वक किए जाते रहे हैं। गांव- गांव में पंथी अखाड़ा एंव गुरु चरित पर आधारित लीला साधु -अखाड़ा का धूम रहते ।घरो- घर बैलगाड़ियों  घोड़ा गाडियों में सगे- संबंधी आते हर घर के ब्यारे में चूल चढते और  तालाब नदी नाले गजगजाते रहते !
  परन्तु समय के फेर  एंव भीषण के अकाल के चलते तेलासी बाड़ा के लूंकड़ जैन मरवाड़ी परिवार में   हस्तगत  हो जाने के फलस्वरूप यह विशिष्ट प्रथा बंद पड़ गये थे।
    भला हो कि १९८४ के बाद जुनवानी चिखली ग्रामों के ग्रामीण जन पुनश्च नव कलेवर के साथ क्वार शुक्ल एकम से दसमीं तक गुरुगद्दी पूजा महोत्सव  के नाम से  उस महान सांस्कृतिक अनुष्ठान को पुनर्जीवित किये ! पुनश्च पंथी नृत्य आखाड़ा आदि का अभ्यास आरंभ होने लगे इस महोत्सव में  तीजा -पोरा जैसे बेटी -दमाद लिहा कर लाने जैसी नव परंपरा भी विकसित होने लगे हैं। दसमी को गुरुगद्दी पूजा शोभायात्रा सतधरा भंडारा करने बाद दूसरे दिन भंडारपुरी गुरुदर्शन मेले के शोभायात्रा में सम्मलित होकर पुण्यलाभ अर्जित करते हैं।
     बलौदाबाजार  पलारी -आरंग  परिक्षेत्र जो सतनामी बाहुल्य और सतनाम  गुरुद्वारा भंडारपुरी तेलासीबाड़ा खपरी के प्रभाव वाले क्षेत्र हैं में हर्षोल्लास पूर्वक 37 वां वर्ष होने जा रहा हैं। 
        गुरुगद्दी पूजा महोत्सव और गुरु दर्शन मेला पर्व की हार्दिक बधाई एंव मंगलकामनाएं ! 
                             जय सतनाम
                        डा. अनिल भतपहरी

Wednesday, October 6, 2021

किसान

आपके वास्ते छकड़ी हमरी 

।।किसान ।।

माटी म मिल  के उपजाथे  उन्हारी गहू धान
होथे भुंइया के भगवान,सिरतोन म किसान
सिरतोन म किसान के देख न जाय करलाई
ले दे के जिनगी चलथे बाढे  नंगत ले मंहगाई 
तना-नना जिनगी होगे का कहव गोठ दिल के 
गुनत बइठे चौरा मं आगे बेरा माटी म मिले के 

                बिंदास कहे - डा. अनिल भतोहरी

Sunday, September 26, 2021

बेटियां

आपके वास्ते छकड़ी हमरी 

     ।।बेटियां ।‌।

स्वर मधुर उनकी लगती है लोरियां
कानों मे घोलती नित्य मधुमिश्रियां   
छम-छम बजती उनकी  पैजनियां
फुदकती आंगन मे  जइसे चिरियां 
मां-बाप की दुलारी होती है मुनियां
रौनक  घर की तो  होती  हैं बेटियां

 बिंदास कहे- डां.अनिल भतपहरी

Saturday, September 25, 2021

सुख के गांजव खरही

#anilbhatpahari 

आपके वास्ते छकड़ी हमरी 

       ।।सुख के गांजव खरही ।।

जाय ल परही एकदिन सब ल ओसरी पारी 
कोनो खुंटा गाड़ के इंहा  रहय नही संगवारी 
रहय नही संगवारी तय कर ले धरम- करम 
हरहिंछा जी ले झन राखो इरखा भेद-भरम 
सुघ्घर पहाव  जिनगी सुख के गांजव खरही 
ढ़रकत हे बेरा  इंहा अब उहां जाय ल परही

    बिंदास कहे - डा. अनिल भतपहरी

Friday, September 24, 2021

गुरुगद्दी पूजा महोत्सव

"गुरुगद्दी पूजा महोत्सव व गुरुदर्शन शोभायात्रा " 

 सतनाम धर्म संस्कृति का यह महत्वपूर्ण आयोजन गुरुघासीदास के पुत्र राजा गुरुबालकदास के राज्याभिषेक  १८२० के बाद भंडारपुरी में आसपास के ग्रामों डूम्हा  तेलासी जुनवानी देवगांव मोहगांव गिधपुरी चिखली हरिभट्ठा बिजराडीह   अमसेना कोड़ापार भैसमुड़ी भैसा खपरी जैसे अनेक ग्रामों  में निवासरत हजारों -  सतनामियों का आनन्दोत्सव महापर्व रहा हैं। जिनकी तैयारियाँ बड़े जोर- शोर उत्साह पूर्वक किए जाते रहे हैं। गांव- गांव में पंथी अखाड़ा एंव गुरु चरित पर आधारित लीला साधु -अखाड़ा का धूम रहते ।घरो- घर बैलगाड़ियों धोड़ा गाडियों  में सगे संबंधी आते हर घर के ब्यारे में चूल चढते और  तालाब नदी नाले गजगजाते रहते ! दूर - दूर   से दर्शनार्थी आते और गौरवान्वित हो पूण्यलाभ अर्जित करते ।
  परन्तु समय के फेर भीषण के अकाल के चलते तेलासी बाड़ा के लूंकड़ जैन मरवाड़ी परिवार में  हस्तगत  हो जाने के फलस्वरूप यह विशिष्ट प्रथा बंद पड़ गये थे।
    भला हो कि १९८५ के बाद जुनवानी चिखली ग्रामों के युवा जनों एंव  ग्रामीण जन पुनश्च नव कलेवर के साथ इस महान सांस्कृतिक अनुष्ठान को गुरुदर्शन दसहरा पक्ष में क्वार शुक्ल एकम से दसमी तिथि में आयोजित कर  पुनर्जीवित किये।
     फलस्वरुप बलौदाबाजार - पलारी -आरंग  परिक्षेत्र जो सतनामी बाहुल्य और सतनाम  गुरुद्वारा भंडारपुरी तेलासीबाड़ा खपरी के प्रभाव वाले क्षेत्र हैं में हर्षोल्लास  पूर्वक इस वर्ष   ३४ वां भव्य आयोजन  होने जा रहा हैं। 
        यह आयोजन जो जनमानस में विलुप्त सा हो चूके है को इस वर्ष राजधानीके महात्मा गांधी नगर अमलीडीह रायपुर  निवासियों द्वारा आयोजन करने की महत्ती जिम्मेदारी उठा रहे हैं। जिसमें ७ दिनों तक विविध कार्यक्रम तिथिवार आयोजित करने  प्रस्तावित हैं- 

सप्त दिवसीय गुरुगद्दीपूजा व गुरुदर्शन शोभायात्रा महोत्सव अमलीडीह रायपुर
 
दि 2-10-2019  से 8-10-2019 
कार्यक्रम - रुपरेखा
 
प्रथम दिवस  2 -10-19 

मंच सज्जा एंव सतनाम भवन से   गुरुगद्दी परघाकर मंच पर   स्थापना भव्य पूजा आरती ... मंगल भजन पंथी नृत्य प्रसाद वितरण 
      द्वितीय दिवस  3-10-19
  
प्रात: 7-8 बजे  आरती पूजा व प्रसाद वितरण 

दोप - रंगोली सज्जा  
 
शाम -7-8 आरती पूजा प्रसाद वितरण 
रात्रि 9-11 सत्संग प्रवचन पंथी नृत्य नाटक‌

            तृतीय दिवस   4-10-19  
प्रात: आरती पूजा प्रसाद वितरण 

 दोप - प्रश्नोत्तर व चित्रकला प्रतिस्पर्धा 
शाम ७-८ आरती पूजा प्रसाद वितरण 
रात्रि -९-११ बजे तक  एकल नृत्य व केसेट डांस प्रतियोगिता 

चतुर्थ दिवस 5-10-19 

प्रात: आरती पूजा प्रसाद वितरण 

दोप -  निबंध लेखन प्रतियोगिता 
         व अन्य 

 शाम - ७-८ आरती पूजा प्रसाद वितरण 
रात्रि ९-११ सतनाम संकीर्तन 
  पंथी व प्रवचन 

पंचम दिवस 6-10-19 

प्रात : आरती पूजा प्रसाद वितरण 
 दोप -  कुर्सी दौड  व मटका फोड प्रतियोगिता बच्चो व महिलाओ द्वारा 
शाम ७-८ आरती पूजा  प्रसाद 
रात्रि - ९-११ सतनाम संकीर्तन पंथी  कवि सम्मेलन
     षष्ठम दिवस 7-10-19 
प्रात :आरती पूजा प्रसाद 

दोप -  कोई देशी खेल प्रतियोगिता  व अन्य 

शाम आरती पूजा प्रसाद वितरण
रात्रि आमंत्रित कलाकारों का कार्यक्रम भजन सत्संग  

सप्तम दिवस 8-10-19  
प्रात : आरती पूजा शोभायात्रा ....व गुरुगद्दी को गुरुद्वारा या सतनाम भवन में स्थापन ।
 दोप भोजन भंडारा  की तैय्यारी 

शाम को सार्वजनिक  शोभायात्रा  संगत एंव पंगत (स्वरुचि भोजन )एंव पुरस्कार वितरण  व अतिथियो का संबोधन एंव महोत्सव का समापन भजन कीर्तन । 

      सतनाम 
समस्त सतनामी समाज 
  महात्मागांधी नगरवासी अमलीडीह 

संपर्क -डा अनिल भतपहरी 
    9617777514,  
परमेश्वर टंडन ,7389675665
अनुपपात्रे , 9685515984, गिलहरे जी

Friday, September 17, 2021

प्रसंग : हिन्दी दिवस

राजभाषा के 72 साल :आज भी वही सवाल ?
         प्रसंग :  हिन्दी दिवस 
        (लेखक : स्वराज करुण)

  हमारे  अनेक विद्वान साहित्यकारों और महान  नेताओं ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में महिमामण्डित किया है। उन्होंने इसे राष्ट्रीय एकता की भाषा भी कहा है ।   उनके विचारों से हम  सहमत भी हैं । हमने  15 अगस्त  2021 को अपनी आजादी के 74 साल पूरे कर लिए और  हिन्दी को राजभाषा का संवैधानिक दर्जा मिलने के 72 साल भी आज 14 सितम्बर 2021 को पूरे हो गए। लेकिन राष्ट्रभाषा और राजभाषा को लेकर आज भी कई सवाल जस के तस बने हुए हैं। उनके जवाबों का हम सबको   इंतज़ार है।
   
 सहज -सरल सम्पर्क भाषा की जरूरत 
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  किसी भी राष्ट्र को अपने  नागरिकों के लिए एक ऐसी सहज -सरल सम्पर्क  भाषा की ज़रूरत होती है जिसके माध्यम से लोग दिन - प्रतिदिन एक - दूसरे से  बात -व्यवहार कर सकें । निश्चित रूप से 'हिन्दी' में यह गुण  स्वाभाविक रूप से है और यही उसकी ताकत भी है ,जो देश को एकता के सूत्र में  बाँधकर रखती है । आज़ादी के आंदोलन में और उसके बाद भी हमने हिन्दी की इस ताकत को महसूस किया है ।हिन्दी के प्रचलन को बढ़ावा देकर राष्ट्रीय एकता को सशक्त बनाने में रेडियो ,टीव्ही और पत्र -पत्रिकाओं सहित इंटरनेट आधारित सोशल मीडिया की भी उल्लेखनीय भूमिका है। लेकिन  लगता है कि जाने -अनजाने हिन्दी की यह ताकत कमज़ोर हो रही है । यह चिन्ता और चिन्तन का विषय है ।
आज़ादी के लगभग दो साल बाद  हमारी संविधान सभा ने 14 सितम्बर 1949 को उसे भारत की 'राजभाषा' यानी सरकारी काम -काज की भाषा का दर्जा दिया था। इस ऐतिहासिक दिन को यादगार बनाए रखने के लिए देश में हर साल 14 सितम्बर को हिन्दी दिवस मनाया जाता है ।
लेकिन अंग्रेजी के बढ़ते प्रभाव और  समय - समय पर दक्षिण के राज्यों में   हिन्दी विरोध को देखकर चिन्ता होती है ।  त्रिभाषी फार्मूले को भी दक्षिण के लोग  नहीं मानते । इस पर उनके साथ सार्थक संवाद की ज़रूरत है ।
  
  सीखें ज़्यादा से ज़्यादा भाषाएं
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  वास्तव में किसी भी देश अथवा किसी भी राज्य की भाषा सीखने में कोई बुराई नहीं है । लोग अपनी रुचि और क्षमता के अनुसार दुनिया की अधिक से अधिक भाषाओं को पढ़ें  और सीखें  तो इससे अच्छी बात भला और क्या हो सकती है ?सुदूर बंगाल के एक गाँव में 12 अगस्त 1877 को जन्मे और परिवार के साथ  रायपुर (छत्तीसगढ़)आकर पले-बढ़े हरिनाथ डे आगे चलकर सिर्फ़ 34 साल की आयु में पहुँचते तक  हिन्दी ,बांग्ला सहित देश -विदेश की 36 भाषाओं के आधिकारिक विद्वान बन गए। दुर्भाग्य से 30 अगस्त 1911 को  उनका निधन हो गया। रायपुर के बूढ़ापारा स्थित डे भवन में  उनके नाम पर लगे  संगमरमर के शिलालेख में उन सभी 36 भाषाओं की सूची अंकित है , जिनका ज्ञान हरिनाथ ने अर्जित किया था। उनकी प्राथमिक और मिडिल स्कूल की पढ़ाई रायपुर में हुई थी।  भारत के तमाम प्रान्तों के लोग और विशेष रूप से स्कूल -कॉलेजों के विद्यार्थी एक -दूसरे के राज्यों में प्रचलित भाषाओं को सीखें तो इससे हमारी राष्ट्रीय एकता और भी मजबूत होगी । हमारे देश की कई  महान विभूतियों के बारे में कहा भी जाता है कि वे अनेक भाषाओं के ज्ञाता थे । लेकिन अपने देश के लोगों से वो अपने ही देश की भाषा में संवाद करते थे । 
    
 महात्मा गांधी के विचार 
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राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने अपनी पुस्तक 'मेरे सपनों का भारत' में राष्ट्रभाषा के लिए कुछ  प्रमुख लक्षणों  का उल्लेख किया था । उनके अनुसार (1)वह भाषा सरकारी नौकरों के लिए आसान होनी चाहिए, (2) उस भाषा के द्वारा भारत का आपसी धार्मिक , आर्थिक और राजनीतिक काम-काज हो सकना चाहिए ,(3) उस भाषा को भारत के ज़्यादातर लोग बोलते हों ,(4)वह भाषा राष्ट्र के लिए आसान हो और (5) उस भाषा का विचार करते समय क्षणिक या कुछ समय तक रहने वाली स्थिति पर जोर न दिया जाय ।गांधीजी इन लक्षणों का जिक्र करते हुए लिखा था कि अंग्रेजी भाषा में इनमें से एक भी लक्षण है और ये पांच लक्षण रखने में हिन्दी से होड़ करने वाली  और कोई भाषा नहीं है । "
 
आज़ादी का अमृत महोत्सव और हमारी हिन्दी
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  हमारी आज़ादी के 75 वर्ष अगले साल यानी 15 अगस्त 2022 को पूर्ण हो जाएंगे और देश अपनी विकास यात्रा के 76 वें साल में प्रवेश करेगा। आज़ादी की 75वीं वर्षगाँठ को 'अमृत महोत्सव'  के रूप में मनाने का सिलसिला अभी से शुरू हो गया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 12 मार्च 2021 को महात्मा गांधी के साबरमती आश्रम से अमृत महोत्सव के आयोजनों का औपचारिक शुभारंभ किया। यह दिन स्वतंत्रता संग्राम के दौरान साबरमती आश्रम से गांधीजी के नेतृत्व में 12 मार्च 1930 को  शुरू हुए नमक सत्याग्रह और दांडी मार्च की याद दिलाने वाला एक ऐतिहासिक दिन है। इसी वजह से आज़ादी के अमृत महोत्सव के शुभारंभ के लिए इस दिन और स्थान का चयन किया गया।  अमृत महोत्सव वर्ष में राजभाषा और राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी की दशा और दिशा पर और उसके क्रमिक ऐतिहासिक विकास पर चिन्तन -मनन और भी ज़्यादा जरूरी हो जाता है।

साहित्य और भाषाओं से जुड़े सवाल 
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किसी भी भाषा से जुड़े सवालों को आम तौर पर उसके साहित्य से जोड़ कर देखा जाता है। ऐसा इसलिए भी ,क्योंकि साहित्य ही भाषाओं को समृद्ध बनाता है और इसमें साहित्यकारों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। भारत में प्रचलित हर भाषा के अनमोल ख़ज़ाने को  उसके साहित्यकारों ने अपनी कलम से समृद्ध किया है। 

हिन्दी का गौरवपूर्ण इतिहास
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हिन्दी भाषा के साहित्य का भी  अपना एक गौरवपूर्ण इतिहास रहा है। भारतेन्दु हरिश्चंद्र ,जिनका जन्म 9 सितम्बर 1850 को वाराणसी में और निधन6 जनवरी 1885 को वाराणसी ही हुआ था , वह  महज  34 वर्ष की अपनी जीवन यात्रा में  कविता ,नाटक ,उपन्यास और व्यंग्य लेखन के जरिए हिन्दी साहित्य की श्रीवृद्धि का कीर्तिमान  बनाकर अपनी अमिट छाप छोड़ गए। उन्होंने भाषाओं  के महत्व को रेखांकित करते हुए लिखा था कि स्वयं की भाषा ही सभी तरह उन्नतियों की जड़ स्वयं की भाषा की उन्नति में निहित है ,जिसके ज्ञान के बिना हॄदय की पीड़ा नहीं मिटती। वहीं अंग्रेजी पढ़ के हम सभी गुणों को हासिल कर भी लें ,पर अपनी भाषा का ज्ञान नहीं होने पर हम दीन यानी ग़रीब के ग़रीब ही रह जाएंगे । अपनी इन्हीं भावनाओं को व्यक्त करते हुए भारतेन्दु कहते हैं --

 "निज भाषा उन्नति अहै 
सब उन्नति को मूल ।
बिन निज भाषा ज्ञान बिन 
मिटत न हिय को शूल ।।
अंग्रेजी पढ़ि के जदपि 
सब गुन होत प्रवीन ।
पै निज भाषा ज्ञान बिन
रहत दीन के दीन ।।"

हमारे देश में  भारतेन्दु हरिश्चंद्र से लेकर वर्तमान में भी  हिन्दी साहित्य की यह  परम्परा निरंतर विकसित होती चली आयी है ,जो   छत्तीसगढ़ में भी  पुष्पित और पल्लवित हुई है। यहाँ के हिन्दी सेवी साहित्यकारों ने इस परम्परा को अपनी -अपनी शैली में खूब विकसित किया है।

छत्तीसगढ़ में जन्मी 
हिन्दी की पहली कहानी 
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विद्वानों के अनुसार सौ साल से भी कुछ अधिक पहले हिन्दी की पहली कहानी 'एक टोकरी भर मिट्टी ' छत्तीसगढ़ की धरती पर लिखी गयी थी ,जिसके लेखक थे पंडित माधवराव सप्रे । 
  
 हिन्दी पत्रकारिता की  बुनियाद
   छत्तीसगढ़ -मित्र के 121 साल
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सप्रे जी ने ही  आज से 121 साल पहले वर्ष 1900 में यहाँ के पेंड्रा जैसे बेहद पिछड़े वनवासी बहुल क्षेत्र से मासिक पत्रिका 'छत्तीसगढ़ मित्र ' का सम्पादन करते हुए यहाँ पत्रकारिता की बुनियाद रखी थी। उनके सहयोगी थे पंडित रामराव चिंचोलकर । इस पत्रिका के प्रोपराइटर थे प्रसिद्ध स्वतंत्रता संग्राम सेनानी वामन बलिराम लाखे। रायपुर के एक प्रिंटिंग प्रेस से इसकी छपाई होती थी। आर्थिक कठिनाइयों के कारण 'छत्तीसगढ़ मित्र' का प्रकाशन मात्र तीन वर्ष तक हो पाया। दिसम्बर 1902 में 36 वें अंक के बाद इसका प्रकाशन बंद करना पड़ा।  सप्रे जी का जन्म 19 जून 1871 को वर्तमान मध्यप्रदेश के ग्राम पथरिया (जिला - दमोह) में हुआ था। उनका निधन 23 अप्रैल 1926 को रायपुर में हुआ। जीवन पर्यंत उनका कर्मक्षेत्र मुख्य रूप से छत्तीसगढ़ ही रहा।
  
 गीता -रहस्य का हिन्दी अनुवाद
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हरि ठाकुर ने अपनी पुस्तक 'छत्तीसगढ़ गौरव गाथा ' में लिखा है --"वर्ष 1915 में सप्रे जी ने  लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के महान और वृहद ग्रंथ  'गीता रहस्य ' का  हिन्दी में प्रामाणिक अनुवाद प्रस्तुत किया। उनके अनुवाद और भाषा की तिलक जी ने भूरि -भूरि प्रशंसा की थी।इस ग्रंथ के हिन्दी अनुवाद ने स्वाधीनता संग्राम के सत्याग्रहियों का वर्षों मार्ग दर्शन किया।"हरि ठाकुर आगे लिखते हैं -- सप्रेजी ने लगभग 16 ग्रंथ लिखे,जिनमें उनके मौलिक और अनुवादित ग्रंथों की संख्या भी शामिल है।उन्होंने सैकड़ों लेख लिखे ,जो तत्कालीन पत्र -पत्रिकाओं में छपते रहे।"
 अंग्रेजी हुकूमत के उस दौर में सप्रे जी ने 'छत्तीसगढ़ मित्र ' के माध्यम से राष्ट्रीय चेतना के विकास और विस्तार में यथाशक्ति अपना भरपूर योगदान दिया।  कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जन संचार विश्वविद्यालय रायपुर ने  'छत्तीसगढ़ मित्र' के इन सभी 36 अंकों को फिर से छपवाकर संरक्षित किया है। विश्वविद्यालय ने इनका पुनर्मुद्रण वर्ष 2008 ,2009 और 2010 में करवाया है। राजधानी रायपुर में कई दशकों से संचालित सप्रे स्कूल पंडित माधवराव सप्रे के महान व्यक्तित्व और कृतित्व की याद दिलाता है। उनके नाम पर छत्तीसगढ़ सरकार ने पंडित माधव राव सप्रे राष्ट्रीय रचनात्मकता सम्मान की भी स्थापना की है। 
 हिन्दी भाषा और साहित्य को ज़्यादा से ज़्यादा अमीर  बनाने में अपनी रचनाओं के अनमोल रत्नों से छत्तीसगढ़ के जिन साहित्य मनीषियों ने अपना योगदान दिया ,उनमें डॉ.पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी , डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र ,गजानन माधव मुक्तिबोध , पंडित लोचन प्रसाद पाण्डेय ,मुकुटधर पाण्डेय , ठाकुर प्यारेलाल सिंह , डॉ. खूबचंद बघेल , हरि ठाकुर ,केयूर भूषण,  लाला जगदलपुरी, स्वराज्य  प्रसाद  त्रिवेदी ,नारायणलाल परमार , त्रिभुवन  पाण्डेय और विश्वेन्द्र ठाकुर , जैसे अनेकानेक तपस्वी साहित्य साधकों की भूमिकाओं को कभी भुलाया नहीं जा सकता। 
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 बख्शी जी : सरस्वती के यशस्वी सम्पादक 
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वर्तमान राजनांदगांव जिले के    खैरागढ़ में 27 मई 1894 को जन्मे पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी का निधन रायपुर में 28 दिसम्बर 1971 को हुआ। उन्हें वर्ष 1920 से 1956 तक यानी 36 वर्षों में चार अलग -अलग कालखण्डों में इलाहाबाद की प्रसिद्ध पत्रिका 'सरस्वती' के  सम्पादकीय दायित्व का गौरव मिला। वह हिन्दी जगत में सरस्वती के यशस्वी सम्पादक के रूप में प्रसिद्ध हुए।छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा उनके सम्मान में बख्शी सृजन पीठ की स्थापना की गयी है।

  छायावाद के प्रवर्तक मुकुटधर पाण्डेय 
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 रायगढ़ जिले के    पंडित मुकुटधर पाण्डेय को हिन्दी काव्य में छायावाद का प्रवर्तक माना जाता है। भारत सरकार ने उन्हें वर्ष 1976 में पद्मश्री अलंकरण से सम्मानित किया था।  उनका जन्म 30 सितम्बर 1895 को रायगढ़ के पास तत्कालीन बिलासपुर जिले में महानदी के किनारे ग्राम बालपुर में और निधन 6 नवम्बर 1989 को रायगढ़ में हुआ। 
   
पंडित श्यामलाल चतुर्वेदी
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बिलासपुर के स्वर्गीय पंडित श्यामलाल चतुर्वेदी भी हिन्दी और छत्तीसगढ़ी दोनों ही भाषाओं के प्रतिष्ठित लेखक और कवि थे। पत्रकार के रूप में उन्होंने हिन्दी पत्र -पत्रिकाओं के माध्यम से कई दशकों तक समाज सेवा करते हुए अपनी लेखनी से राष्ट्रभाषा को भी समृद्ध बनाया। भारत सरकार ने वर्ष 2018 में उन्हें पद्मश्री अलंकरण से नवाजा। 
    छत्तीसगढ़ के अधिकांश साहित्य साधकों ने हिन्दी के साथ -साथ छत्तीसगढ़ी और अन्य आंचलिक लोक भाषाओं में भी साहित्य सृजन किया है। हिन्दी के विकास में उनका योगदान प्रणम्य है। 
 रचनाकारों की   लम्बी  फेहरिस्त
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हिन्दी साहित्य को अधिक से अधिक अमीर बनाने में छत्तीसगढ़  में सरस्वती के जिन उपासकों ने वर्षों तक कठिन लेखकीय साधना की है , उनके नामों और उनकी रचनाओं की एक लम्बी फेहरिस्त है ,जिनका सम्पूर्ण उल्लेख किसी एक आलेख में संभव नहीं है। फिर भी मेरी कोशिश है कि उनमें से कुछ रचनाकारों की चर्चा इसमें हो जाए। 
     पंडित सुन्दरलाल शर्मा 
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स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में यहाँ के कवियों और लेखकों ने भी अपनी रचनाओं के माध्यम से राष्ट्रीय चेतना जगाने का सराहनीय कार्य किया।राजिम में 21 दिसम्बर 1881 को जन्मे पंडित सुन्दरलाल शर्मा आज़ादी के आंदोलन के कर्मठ सिपाही और नेतृत्वकर्ता होने के अलावा एक अच्छे कवि नाट्य लेखक और समाज सुधारक भी थे। उनका निधन 28 दिसम्बर 1940 को हुआ। उन्होंने चार नाटकों और दो उपन्यासों सहित लगभग बीस पुस्तकें लिखीं। उनके छत्तीसगढ़ी खण्ड काव्य 'दान लीला 'का प्रकाशन 10 मार्च 1906 को हुआ था। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान वर्ष 1922 में जब उन्हें एक वर्ष की सजा हुई ,तब उन्होंने केन्द्रीय जेल रायपुर में रहते हुए 'कृष्ण जन्म स्थान 'नामक हस्तलिखित पत्रिका का सम्पादन और प्रकाशन शुरू किया था ,जिसमें आज़ादी के आंदोलन के साथ हास्य -व्यंग्य और धार्मिक तथा राजनीतिक सामग्री भी  छपती थीं और  जेल की आंतरिक घटनाओं का भी 8उल्लेख होता था। उन्होंने राजिम से 'श्री राजिम प्रेम पीयूष' और 'दुलरुआ'  नामक पत्रिका भी निकाली। छत्तीसगढ़ सरकार ने बिलासपुर में उनके सम्मान में एक मुक्त विश्वविद्यालय की स्थापना की है ,जो विगत 15 वर्षों से सफलतापूर्वक संचालित हो रहा है । 
राजनांदगांव के कुंजबिहारी चौबे ने भी स्वतंत्रता संग्राम में अपनी कविताओं के साथ सक्रिय भागीदारी निभाई। रायपुर जिले के  डॉ.खूबचंद बघेल समाज सुधारक ,किसान नेता और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी होने के साथ -साथ प्रखर विचारक और हिन्दी तथा छत्तीसगढ़ी के अच्छे  साहित्यकार भी थे। 
राजनांदगांव के कुंजबिहारी चौबे ने अपने क्रांतिकारी तेवर की कविताओं से स्वतंत्रता आंदोलन की भावनाओं को स्वर दिया। उनकी चयनित रचनाओं का संकलन प्रभा-पुस्तक माला, इंडियन प्रेस जबलपुर द्वारा प्रकाशित किया गया था। 
 
गांधी मीमांसा के रचनाकार  पंडित रामदयाल तिवारी 
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रायपुर के पंडित रामदयाल तिवारी को सिर्फ 50 वर्ष की आयु मिली ,लेकिन उन्होंने इस अल्प समय की अपनी जीवन यात्रा में राष्ट्र पिता महात्मा गांधी पर केन्द्रित लगभग 800-पृष्ठों का महाग्रंथ 'गांधी -मीमांसा ' लिखकर इतिहास रच दिया। यह महान कृति गांधीजी के जीवन दर्शन की रचनात्मक समालोचना  है। रामदयाल तिवारी का जन्म 23 अगस्त 1892 को रायपुर में हुआ था और वहीं 21 अगस्त 1942 को उनका निधन हो गया। उन्होंने लिखा था --" राष्ट्र अपना मुख साहित्य के दर्पण में देखता है।साहित्य राष्ट्र के दिल का खज़ाना है।" छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर स्थित आर  डी.तिवारी शासकीय हायर सेकेंडरी स्कूल पंडित रामदयाल तिवारी के नाम पर विगत कई दशकों से संचालित हो रहा  है।
    
 दंडकारण्य के साहित्य महर्षि 
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   अपनी रचनाओं के माध्यम से हिन्दी भाषा और साहित्य की सेवा करने वाले समर्पित साहित्यकारों में जगदलपुर (बस्तर )के लाला जगदलपुरी ने 93 साल की अपनी जीवन यात्रा के 77 साल साहित्य सृजन में लगा दिए। बस्तर को दंडकारण्य के नाम से भी जाना जाता है। लालाजी इस वनवासी अंचल के इतिहास ,  लोक साहित्य और लोक संस्कृति के भी अध्येता  थे। उन्हें दंडकारण्य का साहित्य महर्षि भी कहा जा सकता है।  मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी द्वारा प्रकाशित    उनकी पुस्तक 'बस्तर -इतिहास एवं संस्कृति'  अपने-आप में एक महत्वपूर्ण शोध -ग्रंथ है। उनका जन्म जगदलपुर में 17 दिसम्बर 1920 को हुआ था। जगदलपुर में ही 14 अगस्त 2014 को उनका निधन हो गया। उन्होंने हिन्दी के साथ -साथ छत्तीसगढ़ी और बस्तर की लोकभाषा हल्बी और भतरी में भी भरपूर लिखा। जगदलपुर के शासकीय जिला ग्रंथालय का नामकरण उनके जन्म दिन 17 दिसम्बर 2020 को समारोहपूर्वक उनके नाम पर किया गया ।
    
  यशस्वी कवि -लेखक हरि ठाकुर 
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छत्तीसगढ़ के हिन्दी साहित्यकारों में स्वर्गीय हरि ठाकुर का नाम भी प्रथम पंक्ति में लिया जाता है। उनका जन्म 16 अगस्त 1927 को रायपुर में हुआ और निधन नई दिल्ली के एक अस्पताल में   3 दिसम्बर 2001 को । यशस्वी कवि ,लेखक और पत्रकार स्वर्गीय हरि ठाकुर स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और श्रमिक नेता ठाकुर प्यारेलाल सिंह के सुपुत्र थे।  हरि ठाकुर ने अपने सहयोगी कवियों के साथ मिलकर वर्ष 1956 में एक सहयोगी काव्य संग्रह -' नये स्वर ' का प्रकाशन किया। इसके अलावा बाद के वर्षों में हिन्दी और छत्तीसगढ़ी में उनकी अनेक पुस्तकें छपीं ,जिनमें कविता संग्रह लोहे का नगर   (1967), छत्तीसगढ़ी गीत अउ कवित्व(1968) और गीतों के शिलालेख (1969), सुरता के चंदन (1979) और पौरुष :नये संदर्भ (1980)भी शामिल हैं।  उनकी सर्वाधिक महत्वपूर्ण पुस्तक 'छत्तीसगढ़ गौरव गाथा 'उनके मरणोपरांत वर्ष 2003 में प्रकाशित हुआ। यह महाग्रंथ छत्तीसगढ़ पर केन्द्रित उनके शोध आलेखों का संकलन है । छत्तीसगढ़ के प्राचीन इतिहास सहित स्वतंत्रता संग्राम ,साहित्य और कला -संस्कृति से जुड़ी महान विभूतियों के जीवन परिचय को भी उन्होंने अपने इस विशाल ग्रंथ में शामिल किया है। इस पुस्तक का सम्पादन इतिहासकार डॉ. विष्णुसिंह ठाकुर और साहित्यकार देवीप्रसाद वर्मा(बच्चू जांजगीरी)ने किया है। स्वर्गीय हरि ठाकुर के जन्म दिन 16 अगस्त 2003 को इसका प्रकाशन हुआ।समाजवादी विचारधारा के  हरि ठाकुर स्वतंत्रता संग्राम सेनानी भी थे और उन्होंने 1955 में गोवा मुक्ति आंदोलन में भी हिस्सा लिया था।उन्हें वर्ष 1992 में छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण आंदोलन के लिए गठित सर्वदलीय मंच का संयोजक भी बनाया गया था। वह वर्ष 1970 के दशक में बनी दूसरी छत्तीसगढ़ी फ़िल्म 'घर -द्वार' के गीतकार भी थे। इस फ़िल्म में उनके लिखे सभी गीत काफी लोकप्रिय हुए।
साहित्य के माध्यम से हिन्दी भाषा और साहित्य के भंडार को भरपूर बनाने में अपना योगदान देने वाले रचनाकारों में रायगढ़ के जनकवि आनन्दी सहाय शुक्ल ,बंदे अली फातमी और मुस्तफा हुसैन मुश्फिक की लेखनी की अपनी रंगत थी।
   
पंडित चिरंजीव दास 
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 रायगढ़ के ही पंडित चिरंजीव दास ने महाकवि कालिदास के संस्कृत महाकाव्य 'मेघदूत' और 'रघुवंश 'सहित कई  अन्य प्राचीन संस्कृत कवियों की काव्य  पुस्तकों का हिन्दी मे पद्यानुवाद किया। वह ओड़िया ,छत्तीसगढ़ी ,अंग्रेजी और हिन्दी के प्रकाण्ड विद्वान थे।
    
कहानी ,उपन्यास और व्यंग्य 
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 कहानी ,उपन्यास और व्यंग्य भी हिन्दी गद्य लेखन की प्रमुख विधाएं हैं।  पंडित माधव राव सप्रे रचित हिन्दी की पहली कहानी 'एक टोकरी भर मिट्टी ' का जिक्र इस आलेख में पहले ही किया जा चुका है। प्रदेश के अन्य हिन्दी कहानीकारों में खैरागढ़ के स्वर्गीय  पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी ,राजनांदगांव के  स्वर्गीय गजानन माधव मुक्तिबोध , बिलासपुर के स्वर्गीय श्रीकांत वर्मा , जगदलपुर के स्वर्गीय गुलशेर खां 'शानी 'सहित रायपुर के विनोद कुमार शुक्ल ,जगदलपुर की स्वर्गीय मेहरुन्निसा परवेज,भिलाई नगर के परदेशीराम वर्मा और विनोद मिश्र ,दुर्ग के स्वर्गीय  विश्वेश्वर ,सरगुजा की स्वर्गीय डॉ. कुंतल गोयल , खैरागढ़ के डॉ. रमाकांत श्रीवास्तव ,राजिम के स्वर्गीय पुरुषोत्तम अनासक्त ,धमतरी के स्वर्गीय नारायण लाल परमार और स्वर्गीय त्रिभुवन पाण्डेय ,रायपुर के स्वर्गीय देवीप्रसाद वर्मा और स्वर्गीय विभु कुमार ,बिलासपुर की जया जादवानी ,वहीं के सतीश जायसवाल और पिथौरा (जिला -महासमुंद)के शिवशंकर पटनायक भी उल्लेखनीय हैं।इनमें से कई लेखक अच्छे उपन्यासकार भी हैं। उपन्यास ,यात्रा वृत्तांत और आत्मकथा लेखन में बिलासपुर के द्वारिका प्रसाद अग्रवाल का नाम भी पिछले कुछ वर्षों में तेजी से उभरा है। वहीं के डॉ.विनय कुमार पाठक पिछले करीब 50 वर्षों से छत्तीसगढ़ी के साथ -साथ हिन्दी साहित्य को समृद्ध बनाने में लगे हुए हैं।  रायपुर जिले के अभनपुर निवासी पर्यटन ब्लॉगर ललित शर्मा ने अपने  उपन्यास 'जनरल बोगी -ए ट्रेवलर्स लव स्टोरी ' के माध्मय से हिन्दी उपन्यासों की दुनिया में प्रवेश किया है। उन्होंने छत्तीसगढ़ के ऐतिहासिक स्थल सिरपुर (जिला -महासमुंद) और रामगढ़ (जिला -सरगुजा )पर दो पुस्तकें लिखी हैं ,जो क्रमशः 'सैलानी की नज़र में सिरपुर ' और 'सरगुजा का रामगढ़ " के नाम से काफी चर्चित हुई हैं।

 छत्तीसगढ़ की हिन्दी कथा -यात्रा 
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वरिष्ठ लेखक और पत्रकार रमेश नैयर के सम्पादन में छत्तीसगढ़ के 17 हिन्दी कहानीकारों की कहानियों का संग्रह 'कथा यात्रा' शीर्षक से ग्रंथ अकादमी दिल्ली ने वर्ष 2003 में प्रकाशित किया। इसकी भूमिका में नैयर जी ने छत्तीसगढ़ की हिन्दी कहानी परम्परा का विस्तार से उल्लेख किया है।

महासमुंद के स्वर्गीय  लतीफ़ घोंघी ,वहीं के ईश्वर शर्मा ,बागबाहरा के स्वर्गीय गजेन्द्र तिवारी , रायगढ़ के कस्तूरी दिनेश दुर्ग के विनोद  साव और ऋषभ जैन और रायपुर के अख़्तर अली आदि व्यंग्य विधा के जाने -माने हस्ताक्षर हैं। लघु कथा लेखन में रायपुर के स्वर्गीय डॉ. राजेन्द्र सोनी और महासमुंद के महेश राजा सहित कई प्रतिष्ठित नाम शामिल हैं। 

काव्य गगन के कुछ और सितारे
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हिन्दी कविता के आकाश में छत्तीसगढ़ के  चमकदार सितारों में रायपुर के स्वर्गीय डॉ. नरेंद्र देव वर्मा ,स्वर्गीय ललित सुरजन और स्वर्गीय लक्ष्मण मस्तुरिया,  राजिम के स्वर्गीय पवन दीवान और स्वर्गीय कृष्णा रंजन , दुर्ग के स्वर्गीय कोदूराम दलित  रघुवीर अग्रवाल पथिक और  विमल कुमार पाठक , पिथौरा के स्वर्गीय मधु धान्धी और स्वर्गीय अनिरुद्ध भोई , बसना के स्वर्गीय विष्णु शरण ,धमतरी के स्वर्गीय मुकीम भारती को भी बहुत आदर और सम्मान के साथ याद किया जाता है।रायपुर के रामेश्वर वैष्णव और दुर्ग के पंडित दानेश्वर शर्मा हिन्दी और छत्तीसगढ़ी ,दोनों ही भाषाओं के जाने -माने  गीतकार हैं। अम्बिकापुर (सरगुजा )के शायर श्याम कश्यप 'बेचैन ' को गज़लों की दुनिया में बेहतरीन पहचान मिल रही है तो कोरबा के डॉ. माणिक विश्वकर्मा नवरंग  हिन्दी नवगीत लेखन में अग्रणी हैं। रायपुर के गिरीश पंकज कवि ,, कहानीकार ,व्यंग्यकार और उपन्यासकार के रूप में स्थापित हैं। जांजगीर के सतीश कुमार सिंह ,जगदलपुर के विजय सिंह , रामानुजगंज के पीयूष कुमार और बागबाहरा (जिला -महासमुंद)के रजत कृष्ण हिन्दी नयी कविता के  सक्रिय और सुपरिचित हस्ताक्षर हैं। 
         हिन्दी की वर्तमान स्थिति पर विचार करते समय हमें इस तथ्य को भी ध्यान में रखना चाहिए कि हमारे इन मनीषियों ने पूरे देश को एकता के सूत्र में बाँध कर रखने के लिए समय -समय पर हिन्दी के महत्व को खास तौर पर रेखांकित किया था । 
 
हिन्दी दिवस : यादगार दिन 
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 स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में हिन्दी ने ही पूरे देश को भावनात्मक रूप से संगठित किया । उस दौर में हिन्दी के  कवियों ,कहानीकारों, लेखकों और पत्रकारों ने अपनी लेखनी से देश की चारों दिशाओं में राष्ट्रीय चेतना का विस्तार किया । संभवतः यही कारण है कि आज़ादी के बाद देश के सभी राज्यों से आए हमारे महान नेताओं ने संविधान सभा में गहन विचार -मंथन के उपरांत हिन्दी  को भारत की राजभाषा बनाने का प्रस्ताव पारित किया । वह 14 सितम्बर 1949 का यादगार दिन था । इस ऐतिहासिक घटना की याद में देश के सभी केन्द्रीय कार्यालयों , सार्वजनिक ,उपक्रमों और राष्ट्रीयकृत बैंकों में  राजभाषा पखवाड़े के साथ  14 सितम्बर को हिन्दी दिवस अवसर पर  तमाम तरह के कार्यक्रम  होते हैं  । कई दफ़्तरों में यह पखवाड़ा एक सितम्बर से 14 सितम्बर तक मनाया जाता है । हिन्दी दिवस के दिन इसका समापन होता है ,वहीं कई कार्यालयों में हिन्दी दिवस यानी 14 सितम्बर से इसकी शुरुआत होती है । इस दौरान  प्रतियोगिताएं और विचार गोष्ठियां भी होती हैं । लेकिन हिन्दी पखवाड़ा और हिन्दी दिवस खत्म होते ही सब कुछ पुराने ढर्रे पर चलने लगता है  । 
       
      विचारणीय सवाल 
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      विचारणीय सवाल यह है कि हिन्दी को 72 साल पहले  राजभाषा का दर्जा तो मिल गया ,लेकिन वह  आखिर कब देश की सर्वोच्च अदालत सहित  राज्यों के  उच्च न्यायालयों और केन्द्रीय मंत्रालयों के सरकारी काम-काज की भाषा बनेगी ? स्वतंत्र भारत के इतिहास में 14 सितम्बर 1949  वह यादगार दिन है जब हमारी संविधान सभा ने हिन्दी को भारत की राजभाषा का दर्जा दिया था . इसके लिए  संविधान में धारा 343 से 351 तक राजभाषा के बारे में ज़रूरी प्रावधान किए  गए .
 
 राजभाषा अधिनियम
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अंग्रेजी हुकूमत की गुलामी से हम पन्द्रह अगस्त 1947 को आज़ाद हुए और  26 जनवरी 1950 को देश में हमारा अपना संविधान लागू हुआ ,जिसमे भाषाई प्रावधानों के तहत अनुच्छेद 343 से 351तक  के प्रावधान भी लागू हो गए .इसके बावजूद केन्द्र सरकार के अधिकांश  मंत्रालयों से राज्यों को जारी होने वाले अधिकांश पत्र -परिपत्र प्रतिवेदन आज भी केवल अंग्रेजी में होते हैं ,जिसे समझना गैर-अंग्रेजी वालों के लिए काफी मुश्किल होता है ,जबकि राजभाषा अधिनियम 1963 के अनुसार केन्द्र सरकार के विभिन्न साधारण आदेशों , अधिसूचनाओं और सरकारी प्रतिवेदनों ,नियमों आदि में अंग्रेजी के साथ -साथ हिन्दी का भी प्रयोग अनिवार्य किया गया है.इसके बाद भी ऐसे सरकारी दस्तावेजों में हिन्दी का अता-पता नहीं रहता .केन्द्र  से  जिस राज्य को ऐसा कोई सरकारी पत्र या प्रतिवेदन भेजा जा रहा है , वह उस राज्य की स्थानीय भाषा में भी अनुवादित होकर जाना चाहिए । लेकिन होता ये है कि  नईदिल्ली से राज्यों को जो  पत्र -परिपत्र  अंग्रेजी में मिलते हैं ,उन्हें मंत्रालयों के  सम्बन्धित विभाग के अधिकारी सिर्फ़ एक अग्रेषण पत्र  लगाकर और उसमें  'आवश्यक कार्रवाई हेतु ' और  "कृत कार्रवाई से अवगत करावें ' लिखकर  निचले कार्यालयों को भेज देते हैं । 
    सरकारी पत्र व्यवहार में हिन्दी
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    दरअसल हिन्दी भाषी राज्यों के मंत्रालयों और सरकारी कार्यालयों में अंग्रेजी जानने -समझने वाले अफसरों और कर्मचारियों की संख्या अपेक्षाकृत कम होती है । इसलिए उन्हें उन पत्रों में प्राप्त दिशा -निर्देशों के अनुरूप आगे की कार्रवाई में कठिनाई होती है ।ऐसे में उनके निराकरण में स्वाभाविक रूप से विलम्ब होता ही है । केन्द्र की ओर से राज्यों के साथ सरकारी पत्र - व्यवहार अगर  राजभाषा हिन्दी और प्रादेशिक भाषाओं में हो तो यह समस्या काफी हद तक कम हो सकती है ।
 
हिन्दी कब बनेगी न्याय की भाषा ? 
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    सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के तमाम फैसले भी अंग्रेजी में लिखे जाते है ,जिन्हें अधिकाँश ऐसे आवेदक समझ ही नहीं पाते,जिनके बारे में फैसला होता है . ये अदालतें फैसला चाहे जो भी दें ,लेकिन राजभाषा हिन्दी में तो दें ,ताकि मुकदमे से जुड़े पक्षकार उसे आसानी से समझ सकें. अगर उन्हें अंग्रेजी में फैसला लिखना ज़रूरी लगता है तो उसके साथ उसका हिन्दी अनुवाद भी दें . गैर हिन्दी भाषी राज्यों में वहाँ की स्थानीय भाषा में फैसलों का अनुवाद उपलब्ध कराया जाना चाहिए .

छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय का सराहनीय निर्णय 
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इस मामले में अब तक की मेरी जानकारी के अनुसार छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ,बिलासपुर ने अपनी वेबसाइट में अदालती सूचनाओं के साथ - साथ फैसलों का हिन्दी अनुवाद भी देना शुरू कर दिया है ,जो निश्चित रूप से सराहनीय और स्वागत योग्य है । 
       
 भारत सरकार का  राजभाषा विभाग 
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       यह अच्छी बात है कि भारत सरकार ने जून 1975  में राजभाषा से सम्बन्धित संवैधानिक और कानूनी प्रावधानों पर अमल सुनिश्चित करने के लिए राजभाषा विभाग का गठन किया है ,जिसके माध्यम से हिन्दी को बढ़ावा देने के प्रयास भी किये जा रहे हैं । वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली आयोग भी कार्यरत है  लेकिन इस दिशा में और भी ज्यादा ठोस कदम उठाने की ज़रूरत है । वैसे आधुनिक युग में कम्प्यूटर और इंटरनेट पर देवनागरी लिपि का प्रयोग भी हिन्दी को विश्व स्तर पर पहचान दिलाने में काफी मददगार साबित हो रहा कुछ निराशा भी होती है 
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   लेकिन यह देखकर निराशा होती है कि हिन्दी दिवस के बड़े -बड़े आयोजनों में हिन्दी की पैरवी करने वाले अधिकाँश ऐसे लोग होते हैं जो अपने बच्चों को हिन्दी माध्यम के स्कूलों में पढाना अपनी शान के खिलाफ समझते हैं ।  दुकानों और बाजारों में लेन -देन के समय हिन्दी में बातचीत करने वाले कथित उच्च वर्गीय ग्राहकों को बड़े -बड़े होटलों में आयोजित सरकारी अथवा कार्पोरेटी बैठकों और सम्मेलनों में अंग्रेजी में बोलते -बतियाते देखा जा सकता है । 
  अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में 'हिन्दी दिवस ' मनाया नहीं जाता ,वहाँ 'हिन्दी -डे ' सेलिब्रेट ' किया जाता है । शहरों में  चारों तरफ़ नज़र दौड़ाने पर अधिकांश दुकानों ,होटलों  व्यावसायिक प्रतिष्ठानों और निजी स्कूल -कॉलेजों के अंग्रेजी नाम वाले बोर्ड देखने को मिलते हैं । 
उन्हें देखने पर लगता है कि हमारी हिन्दी दम तोड़ रही है । हिन्दी माध्यम के स्कूलों में भी आगन्तुकों के स्वागत में बच्चे ' नमस्ते ' नहीं बोलकर 'गुड मॉर्निंग सर' अथवा ' गुड मॉर्निंग मैडम ' कहकर अभिवादन करते हैं । उन्हें ऐसा ही  सिखाया जा रहा है । कुछ एक अपवादों को छोड़कर देखें तो अधिकांश भारतीय परिवारों में  माता -पिता 'मम्मी -डैडी ' कहलाने लगे हैं ।चाचा -चाची और मामा -मामी जैसे आत्मीय सम्बोधन 'अंकल -आँटी ' में तब्दील हो गए हैं । पाठ्य पुस्तकों से देवनागरी के अंक गायब होते जा रहे हैं । उनमें पृष्ठ संख्या भी अंग्रेजी अंकों में छपी होती है । कई  स्कूली बच्चे भारतीय अथवा हिन्दी महीनों और सप्ताह के दिनों के नाम नहीं बोल पाते जबकि अंग्रेजी महीनों और दिनों के नाम धाराप्रवाह बोल देते हैं।   भारतीय बच्चे अगर फटाफट अंग्रेजी बोलें तो माता - पिता और अध्यापक गर्व से फूले नहीं समाते ! हिन्दी अच्छे से बोलना और लिखना श्रेष्ठि वर्ग में पिछड़ेपन की निशानी मानी जाती है ।  हिंदुस्तानी नागरिक अगर अंग्रेजी ठीक से न बोल पाए ,न लिख पाए तो हम हिंदुस्तानी लोग ही उसका मज़ाक उड़ाने लगते हैं ,जबकि कोई अंग्रेज अगर टूटी -फूटी हिन्दी बोले तो भी हम उसे सम्मान की दृष्टि से देखते हैं । विरोध अंग्रेजी भाषा का नहीं ,बल्कि हम  भारतीयों को शिंकजे में ले चुकी अंग्रेजी मानसिकता का है । हमें अंग्रेजियत की इस मानसिकता से उबरना होगा ।
  लेकिन जब आम जनता से हिन्दी में बात करने वाले कई बड़े-बड़े नेताओं को संसद में अंग्रेजी में बोलते देखा और सुना जा सकता है तो निराशा होती गया । क्या कोई बता सकता है कि ऐसे भारतीयों  से भारत की राजभाषा के रूप में बेचारी हिन्दी आखिर उम्मीद करे भी तो क्या ?

*उपरोक्त  आलेख वेबसाइट 'दक्षिण  कोसल टुडे'  , मिडडे  मिरर डॉट कॉम  और मेरे ब्लॉग  स्वराज-करुण डॉट ब्लॉग स्पॉट डॉट कॉम पर भी आज प्रकाशित 

      - स

Sunday, September 12, 2021

धार्मिक आयोजन क्यो ?

रविवारीय चिंतन 

  धार्मिक आयोजन क्यों ?
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अपेक्षाकृत सतनामी समाज धार्मिक आयोजन एंव कर्मकांड  जैसे मूर्ति पूजा , तीर्थयात्रा  व्रत - पूजा- पाठ यहाँ तक  पंडे -पुजारियों, भाट- बसदेवा के चंगुल से भी मुक्त हैं। यह  वैज्ञानिक व बौद्धिक दृष्टिकोण  से  अच्छा भी  है । भले अपवाद स्वरूप भले चंद शासन -प्रशासन के लोग  सामाजिक उत्तरदायित्व निर्वहन हेतु  ऐसा करते हो । ऐसा करना उनके लिए स्वभाविक भी हैं।  
     परन्तु  अपना वक्त और संसाधन वे सकरात्मक व रचनात्मक चीजों में न कर कहीं और लगा रहे हैं। उनकी अकुत संपदा व सामर्थ्य कहां व्यर्थ उपयोग हो रहे हैं?।इनका आकलन कर उचित मार्गदर्शन आवश्यक हैं।

वर्तमान समय में  धार्मिक क्रियाकलापों की बाढ़ आने से अन्य धर्मावलंबियों के समान    अनुशरण  व आयोजन होने लगे हैं। जहां ऐसा नहीं वहाँ अन्यत्र संस्थान व मत सम्प्रदाय पंथ धर्म आदि में लोग तीव्रतर भाग लेने लगे हैं।  
      अत: न चाहकर भी आयोजन करना आवश्यक है ताकि समाज विखंडन  (राधास्वामी सतपाल रामपाल गायत्री श्रमाली ईसाई आदि ) से बच सकें । हालांकि गुरु उपदेशानुसार उचित भी नहीं हैं। परन्तु  संगठित रहने और अस्मिता की रक्षा हेतु धार्मिक आयोजन एक विकल्प तो हैं। हमारे शासकीय अधिकारी कर्मचारी भी  मौलिक अधिकार के चलते धार्मिक आयोजन में सहजता पूर्वक भाग लेते हैं। उनसे प्रेरित जन साधारण भी द्विगुणित उत्साहित होते हैं। परन्तु  कुछ  अन्य मत  पार्टी आदि से प्रायोजित व अतिवादी  या  छद्म विचारकों  ने गुरु घासीदास के उपदेश के विपरित आयोजन कह हतोत्साहित करते हैं।  यह सही नहीं हैं।  कल्पित व मिथकीय प्रतिमानों को जरुर न माने पर ऐतिहासिक पात्र व महापुरुषों की माने उनकी झांकी शोभायात्रा निकाले और उन्हें व उनकी वाणियों सीखों को सदैव प्रांसगिक बनाए रखें।
   सच कहें तो  वर्तमान समय राजनैतिक जागरण  और धार्मिक  आयोजन का दौर हैं जो समुदाय इन चीजों  से दूर हैं वही पिछड़ा और बिखरा हुआ हैं। 

 फिलहाल दस दिवसीय / सप्त दिवसीय गुरुगद्दी पूजा महोत्सव क्वांर एकम से भंडारपुरी गुरुदर्शन मेला तक किया जा सकता हैं। आरंग पलारी परिक्षेत्र विगत 1986-87 से विराट आयोजन हो रहे हैं। ऐसा आयोजन हर जिला ब्लाक और बडे- बडे ग्रामों में होना चाहिए।  मार्च से म ई महिनों मे सतनामायण या गुरुग्रंथ आयोजन 3-5-7 दिवसीय होते है। इन्हे सुविधानुसार सर्वत्र आयोजन करना चाहिए क्योंकि आयोजनों से संगठन और संस्कार आते हैं। बच्चो और युवा वर्गों में आत्म विश्वास बढते हैं। कलाएँ व  संस्कृति परिष्कृत होते हैं। सभ्य समाज का आइना होता हैं।
          ।।सतनाम ।।

      डॉ॰ अनिल भतपहरी / 9617777514

Saturday, September 11, 2021

बेखबर छकड़ी

आपके वास्ते छकड़ी हमरी‌ 

        ।।बेख़बर ।।

  अमां इतना तो  ख़बर हैं
    नकाब बिन‌ सब दिगंबर हैं
     पर यह क्या हर कोई बेख़बर हैं 
        भले बाहर से लग रहा रहबहर हैं 
            पर  खौफ़ज़दा अंदर ही‌ अंदर हैं 
                क्योंकि पहरा अब हर घर पर हैं 

                      बिंदास कहें -डॉ.अनिल भतपहरी

Tuesday, September 7, 2021

सित्तो भागमानी हन

।।सित्तो भागमानी हन ।।

सीत बइरी अल्हन अघ्घन मं सुरुर-सुरुर चलय 
तोर बिन संगी  जीव हर धुकुर- धुकुर करय...  

सुध -बिसुध रहिथे लाम्हे सुरता तोरेच डहन 
जे गलीतय  निकले ओती नैन टुकुर- टुकुर तकय...

कत्कोन बरजेव  मन ल मया झन कर बिरान ल 
बनजियबह यवह
वसीध नइबरयय न कभु एहर सिघियाय 
टेड़गा जनम भर के ये पुंछी कुकुर हरय ...
गत थैबयनु
मीठ मंदरस जान अभरेटव दही कपसा कस 
नंगत झावतबय,र अंगरेजी मिरचा कस चिरपुर हरय ...

सारा- सखी नइये सोचेंव रहु बनके घरजिहां  
सास खोजत संतान बर बुढ़वा ससुर हरय ...

सुन्ता सुम्मत के बस्ती ये मया पिरित के गांव 
फेर रोजेच संझा कइसन बिकट चुहुर परय ...

अब तक मनखे मन के दौचई मं मर-खप जातेंव
फूल-पान,फाफा-मिरगा,चिरई -चुरुगुन हवय... 

सित्तो भागमानी हन कि अभी उजरे नइये जंगल  
ओकरे सेती पवन पुरवाई फुरहुर-फुरहुर चलय...

     - डाॅ. अनिल भतपहरी/

Monday, August 30, 2021

सत्य धर्म का प्रतिष्ठान

आपके वास्ते छकड़ी हमरी 

 ।।सत्य धर्म का प्रतिष्ठान ।।

ऐसा वह अनोखा  सलोना  काला 
जो जनमानस  को किया  उजाला
पीकर  परिजनों ‌के द्वंद्व का प्याला 
छोड़कर मथुरा रणछोड़  कहलाया 
शांति दूत देकर दिव्य गीता का ज्ञान 
सत्य धर्म न्याय का हुआ नव प्रतिष्ठान 

    बिंदास कहें- डॉ॰ अनिल भतपहरी 
         
     कृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक बधाई

Thursday, August 26, 2021

अपासी‌

आपके वास्ते छकड़ी हमरी 
             ।।अपासी ।।
भरे भादों ह असो कइसे कुंवार कस लागत हे 
यहाँ तरा लहर-तहर घाद कुहकुही जनावत हे 
रोपा-बियासी अटके परे हे खेत मन रनावत हे 
नइये उछाह जिनगी मं तिहार-बार सिरावत हे 
पल्लो चक छोड़ अकाल अगास म मंडरावत हे 
अपासी के होय बने बेवस्था अनिल हर काहत हे  

         बिंदास कहें - डॉ॰ अनिल भतपहरी

Wednesday, August 25, 2021

पद्म‌ सम्मान सतनामियों ‌को‌ क्यों नहीं ‌?

पद्म पुरस्कार  सतनामी प्रतिभाओ को  क्यो  नही? 

              विश्वविख्यात  पंथी नर्तक देवदास बंजारे 65 देशों में प्रदर्शन कर वैश्विक रिकार्ड बनाए और देश व प्रदेश की कीर्ति को फैलाए पर राष्ट्रीय सम्मान से वंचित रखे गये । इसी तरह विलक्षण भरथरी गायिका अपनी विशिष्ट गायन शैली व प्रतिभा के चलते १८ देशों मे प्रस्तुतियाँ  देकर छत्तीसगढी संस्कृति की सुरभि को सर्वत्र विस्तारित की ।बावजूद वह गुमनामी और उपेक्षित जीवन जी।साथ ही उनके अंदर यह मलाल रही कि साधन हीन हो अपनी स्वप्न पूर्ण नही कर पाई। उन्हे कोई अपेक्षित सम्मान नही मिली और युं ही चल बसी । ऐसे ही समाज के अनेक  विलक्षण  प्रतिभाए  जो प्रदेश व देश के रत्न थे। अपना सारा जीवन साहित्य कला और किसी अन्य विधा पर जिससे सहज उन्हे पद्म पुरस्कार मिल सकते थे जानबूझ कर वंचित रखे गये। ऐसे लोगो की सूची लम्बी है।पर चंद नाम जिसे सभी भली भांति जानते समझते है ।आज प्रसंगवश हमे न चाहते हुए लिखना पड रहा है कि यदि तथाकथित  संस्कृति प्रेमी इन कला धर्मी लोगो के नाम न जाने पहचाने तो लानत है उन्हे कि विराट ४० लाख समुदाय के प्रति उनकी दृष्टिकोण क्या है? सोच और समझ क्या है? 
     छत्तीसगढी संस्कृति साहित्य के  ध्वज वाहकों मे 
महाकवि मनोहरदास नृसिंह , छत्तीसगढी रचनाकार गंगाराम शिवारे ,  कवि व कलाकार पं साखाराम बधेल , पंथी नर्तक देवादास बंजारे , सतनाम संकीर्तन कार व रंगकर्मी सुकालदास भतपहरी , रचनाकार सुखरुप्रसाद बंजारे , नाट्यमंच के अद्वितीय कलाकार  महंत - दीवान, दानी- दरुवन ,चम्पा-बरसन,  महाकवि पं सुकुल धृतलहरे ,नकेशरलाल टंडन ,नम्मूराम मनहर , प्रथम महिला पंथी नर्तकी व गायिका तोरनबाई लक्ष्मी बाई जुगाबाई अब सुरुजबाई खांडे जैसी कलावन्त साधक साधिकाए ..सतनामी समाज ही नही छत्तीसगढी संस्कृति के जगमगाते नक्षत्र रहे।पर उनकी आभा को काले चश्मे पहने लोग कभी देख ही नही पाए ।
 प्रसिद्धी पर मुफलिसी और जानबूझकर अवहेलना के शिकार ये लोग बिना किसी चाह यहा तक  यश व सम्मान को भी ताक रख केवल सतनाम का गुणगान करते स्वात: सुखाय सदृश्य आजीवन साधते रहे।और यु ही बिना किसी शिकायत आदि से अपना काम‌ करके प्रयाण कर गये। 
     कही यही हश्र हमारे इन साधको कलावन्तों - मानदास टंडन ९५ वर्ष चिकारा व खडेसाज व  सतलोकी भजन के सिद्धहस्त कलाकार ,लतमारदास चंदैनी , तुलाराम टंडन गोपीचंद गाथा गायक , पं कपिल घृतलहरे  हुडका इकतारा चौका पंडित ,  पंथी पंडवानी गायिका ऊषा बारले ,पंथी पुरानिक चेलक ,  समेशास्त्री देवी, शांति चेलक सहित गोरेलाल बर्मन दिलीप लहरिया  द्वारिका बर्मन रामविलास खुन्टे दिलीप बंजारे यशवन्त सतनामी सरीखे प्रतिभावान ५० से 90 वर्ष पूर्ण कर चुके विगत ३० वर्षो से जनमानस को अपनी कला से सम्मोहित  मनोरंजित और गुरु उपदेश व भारतीय कला संस्कृति को  प्रचारित प्रसारित करते आ रहे है ये साधक कलावन्त और   वरिष्ठ महाकवि रचना कार साधु  बुलनदास डा शंकरलाल टोडर इंजी टी आर खुन्टे डा आई आर सोनवानी  सर्वोतम स्वरुप मंगत रविन्द्र हरप्रसाद निडर डा जे आर महिलांग डा दादूलाल जोशी , भाऊराम धृतलहरे डा जे  सोनी   जैसे लोग भी  अन्चिनहार सा उपेक्षा  और अवहेलना की सडयंत्र से कही गुमनाम न हो जाय .. ...... शासन -प्रशासन को सतनामियो के प्रति अनाग्रह दुराग्रह त्यागकर इस समाज के विभूतियों का भी यदा-कदा यथोचित सम्मान देकर पद्म सम्मान के लिए नामांकित करते संतुस्ति करना चाहिए, प्रदान कराने उचित प्रयास होनी चाहिए।

 डाॅ अनिल भतपहरी ।

Saturday, August 21, 2021

प्राचीन ज्ञान और आधुनिक विज्ञान

प्राचीन ज्ञान और  अर्वाचीन विज्ञान 

वर्तमान समय में आधे -अधुरे ढंग से  विज्ञान के नाम पर प्राचीन कला पूर्ण ज्ञान का तिरस्कार या अवहेलना तक किए जाते हैं यह उचित नहीं । हालांकि इन पर कुछ लोग अंध विश्वास आदि फैलाकर जीविकोपार्जन व लूटपाट तक करते रहें हैं। केवल इनके चलते इन तत्वों को खारिज नहीं किए जा सकते। अमुमन हर देश, काल, परिस्थितियों में अनुभव और विरासत की ज्ञान लोगों को प्रेरित करते आ रहे हैं।  मनुष्य उनसे न केवल विकास किए अपितु मानवीय गुणों के साथ  सुख- शांति और परस्पर सौहार्द्र तक संस्थापित किए गये। भले चंद शातिर लोगों की  महत्वाकांक्षी आदि के चलते अमानवीय और बर्बर रुप में देखने मिलते हैं,पर वह हमेशा  हो ऐसा भी नहीं रहा।
     बहरहाल कुछ ऐसी चीजें है जो अनदेखे अमूर्त रुप में भी घटते हैं। हर चीज पदार्थ हो यह जरुरी नहीं भावनाएँ भी होते हैं वह किसी यंत्र आदि के माप से परे  होते हैं हालांकि उनपर भी कहीं न कहीं ज्ञान +विज्ञान  समाहित रहते हैं पर लोग अनजाने में उन सुक्ष्मतम चीजों का अवलोकन नहीं कर पाते या समझना नहीं चाहते ।
फलस्वरुप अनेक अच्छी मान्यताओं का भी प्रबल विरोध करने लग जाते हैं। 
            ज्ञान के अनेक सोपान और विधाएँ है साथ ही व्यक्ति का दृढ़ निर्णय असीम संभावनाएँ के द्वार और दृष्टि खोलते हैं, और उन्हे सफल करते हैं। साधारण लोगों के लिए आश्चर्य तक हो जाते हैं। फलस्वरुप उन्हे महिमामंडन कर देते हैं,फिर उनके पर्दाफाश के लिए अधकचरे विज्ञानवादी आ जाते हैं। जो तर्क कम कुतर्क द्वारा उनकी अवहेलना करते हैं।
यही द्वंद चलते रहता हैं।

बहुत कुछ तो स्व अनुभव पर होते हैं।  एक ऊंचाई के बाद जीवन में ठहराव आते हैं। फिर वहाँ से पुनश्च अपने जड़ की ओर लौटने होते हैं जैसे बरगद की लाह ऊपर से नीचे आकर जड़ बन जाते हैं और फिर वह अधिक पुष्ट व मजबूत हो जाते हैं।
     सदियों की अनुभव भी कोई चीज होती हैं सब कुछ विज्ञान ही तय करे ऐसा भी नहीं है। हमें प्राचीन ज्ञान और. अर्वाचीन विज्ञान के साथ -साथ आगे चलना होगा ताकि मानव प्रजाति  का सर्वांगीण विकास  यात्रा निर्बाध चलता रहें।
          
             ।‌।सतनाम।।
 -डाॅ अनिल भतपहरी/ 9617777514

अजूबा

अजूबा

संभला नही 
बस टूटते
बिखरते गया
इश़्क की 
दरियां में
डूबते-उतरते गया 
हुआ ऐसे 
कैसे कि 
भीतर से 
निखरते गया ...
  -डा.अनिल भतपहरी

Monday, August 2, 2021

युगल गीत - मोर मन ल कलेचुप मोहत हस क इसे

मोर मन ल कलेचुप मोहत हस कइसे 
तोर रुप के जादू चलत हे कइसे 

कर के सोला सिंगार आए मोर आधु मं 
गिरा के बिजुरी ओधिआए मोर पाछु मं 
का हवय तोर मन म नइ जानव का जइसे ...जन्म

बड़ आए ज्ञानी   तय मोर का लागमानी अस 
मय धधकत आगी तय निच्चट  जुड़ पानी अस

तोर मोर भेंट के कछु आस 
नइये ...

Thursday, July 29, 2021

स इता

आपके वास्ते छकड़ी हमरी 

।।सइता ।।

जउन होथय  सब बने  होथे  
नइ रुकय काकरो छेके- रोके 
एक के अलहन एक के मउका  
कहिन गोठ बउदा हर  ठउका  
होथय  सिरतोन  सफल तउन 
 अपन सइता ल रखथय जुन

बिंदास कहें-डॉ॰ अनिल भतपहरी

Thursday, July 22, 2021

अइटका परब मेला

सतनाम धर्म संस्कृति में गुरु घासीदास द्वारा प्रवर्तित 
       गुरु अम्मरदास  जन्मदिन  गुरु पूर्णिमा पर -  

          ।।अइटका -परब मेला तेलासी ।।
सतनाम धर्म के प्रवर्तक गुरु घासीदास बाबा  के ज्येष्ठ पुत्र गुरु अम्मरदास जी का जन्म असाढ़ पुन्नी को गिरौदपुरी मे हुआ।वे बाल्यकाल से ही अपने पिता के सदृश्य विलछण. और तेजस्वी  थे। अत्यन्त  प्रतिभाशाली अम्मरदास जी  ७-८ वर्ष के उम्र मे अपनी माता सफूरा के साथ जलाऊ लकडी लाने वन  गये।एकाएक वे वन मे खो गये।किवदन्ती है कि उन्हे शेर उठाकर ले गये।आज भी शेर पन्जा मन्दिर गिरौदपुरी मे स्थित है।जहा सतपुरष या कोई महान योगी या साधक  के भी चरणचिन्ह है कहते है वह शेर पर सवार योग्य बालक के तलाश मे आये और बालक  अम्मरदास को अपने साथ बिठाकर गहन वन मे  चले गये। सफुरा और उनके साथ गई ग्राम्य महिलायें ढूंढती रही पर बालक  नही मिले।
 पुत्र वियोग से व्याकुल बेसुध हो गई ।
     वही तेजस्वी बालक १५ -१६वर्ष बाद २१-२२ वर्ष के उम्र मे साधू वेष मे ग्राम तेलासी मे रामत करते गुरु दम्पत्ति को छिन्दहा तालाब पार मे  मिले।
      तब गुरु अम्मरदास अपनी योग साधना की सिद्धी उपरान्त अपने माता-पिता को तलाशते हुये तेलासी पहुचे थे।
       ग्राम तेलासी  पुत्र मिलन जगह होने के कारण सद्गुरु को बडा प्रिय लगा।और वे यहा रमण करने लगे।
      गुरु दम्पति  की ख्याति उनके योग साधना और अनेक दिव्य औषधियों  से असाध्य रोगो के उपचार आदि से सर्वत्र फैलने लगे।दूर -दूर से लोग उनके दर्शन और अपनी दु:ख -पीड़ा  के निदान के लिये आने लगे।
    उपकृत श्रद्धालुओ   द्वारा भेट स्वरूप भूमि अन्न आदि के संरक्षण हेतु तेलासी भन्डार मे बस गये।कलान्तर मे इन दोनो जगहों पर भव्य बाड़ा, मोती  महल व गढी किला नुमा परकोटा  बनवाये गये।जो  सतनाम धर्म का ऐतिहासिक स्मारक है।
         गुरु अम्मरदास जी  तेलासी वासियों के लिये अत्यधिक प्रिय रहे है।कहते है एक व्यक्ति मान्साहार हेतु कपड़े मे लपेटकर मांस ले जा रहे थे।लोग शिकायत किये।गुरु अम्मरदास ने योग बल से लोगो की दृष्टि बदले और जब पोटली खोले तो वह नाड़ियल प्रसाद के रुप मे लोगो को दिखाई दिये ।सभी चमत्कृत हो  गुरु चरण  मे नत हो  क्षमा -याचना किये। गुरु कृपा से अभिभूत तेलासी व अनेक ग्राम के लोग सतनाम दीक्षा लेकर सतनामी बने। यहाँ महासंगम हुआ।
       और उन सभी वर्गो ,जातियो को  गुरु घासीदास  ने गुरु अम्मरदास के जन्म दिन गुरु पूर्णिमा ‌को  तस्मई- चीला  बनवाकर एक परात या बर्तन से बटवाये।यही" अइटका " है।इसके लिये विधान बनाये।बहते जलधारा से चावल दूध घी  गुड़ और मेवा डालकर सात्विक तस्मई ( खीर )बनाकर परस्पर बाटकर खाना।सत्सन्ग प्रवचन सुनना, पन्थी  नृत्य मन्गल करना यहां तक कि‌ सतनाम संस्कृति से संदर्भित लीला व नाट्य मंचन तक होते  रहे हैं।यह तेलासी सहित आसपास के कई ग्रामो मे तब से प्रचलन मे है।
     सफूरा माता  की अनुनय- विनय और बडे़ के रहते छोटे भाई विवाह कैसे करे के चलते न चाहते   प्रतापपुर मे अन्गारमति से अम्मरदास जी का विवाह हुआ।गौना लाए पर वे ब्रम्हचर्य का ही अनुपालन करते रहे और  सतनाम की आध्यात्मिक गुरु के रुप मे ख्यातिनाम हुए।
        ब्रम्हचारिणी  अन्गारमति भी  साध्वी जीवन अन्गीकृत की । आगे चलकर  माता प्रतापपुरहीन के नाम से विख्यात हुई ।आज उनकी शैय्या दर्शनीय है।
    गुरु बालक दास सेत सुमन  घोडे़ मे सेत वसन धारण कर चलते और लोगो मे सतनाम की अलख जगाते।पन्थी मन्गल भजन सत्सन्ग का प्रचलन  समाज मे गुरु अम्मरदास जी ने किया।
       एक दिन शिवनाथ नदी के तट पर  चटुआ घाट के समीप मनोरम स्थल पर अपने अनुयायियों को सतनाम समाधि का रहस्य बताते  अउठ दिन (साढे तीन दिन  )की  भू समाधि मे चले गये। 
     आसपास से बहुत से लोग आ गये।उन भीड़ मे कुछ विरोधी कहने लगे वो मृत हो गये है।उन्हे बाहर लाओ ।अनुयायी भीड़ के आगे बेबस अधुरी साधाना मे उन्हें वापस तन्द्रा मे लाने लगे।पर गुरु नही जगे।
        अन्तत: उन्हे पूर्ण समाधि दे दी गई ।
      जनश्रूति है जब गुरु की समाधि अवधि पूरी हुई तो लोग  देखे कि एक ज्योति पुन्ज समाधि को चीरती ऊर्ध्वगामी आकाश मे विलीन हो गई ।
       कई वर्षों के अन्तराल मे समीपस्थ ग्राम हरिनभठ्ठा के मालगुजारी  आधार दास सोनवानी अपने पुत्र मनोकामना पूर्ण होने पर गुरु अम्मरदास के समाधि मे भव्य मन्दिर बनवाये।
         आज यह सतनामिओ को  का प्रमुख धाम है जहां पर पौष - छेरछेरा पुन्नी को विशालकाय मेला गुरु के पुण्य स्मरण मे लगते आ रहे है।
          सतनाम आध्यात्मिक चेतना और साहित्य के प्रणेता गुरु अम्मरदास अम्मर रहे।

टीप - सतनाम अइटका परब प्रथम सार्वजनिक आयोजन हैं। कृपया इस पावन पर्व का सार्वजनिक आयोजन अपने अपने ग्राम मुहल्ले व जैतखाम परिसर पर करें। और तस्म ई बनाकार सत्संग प्रवचन व मंगल पंथी आदि‌ का आयोजन करें।

              जय सतनाम।

गुरु पूर्णिमा की मंगलमय‌ मंगलकामनाएं 
 
     डाॅ. अनिल कुमार भतपहरी 
        9617777514 
             सचिव 
सतनाम साहित्य प्रकोष्ठ 
प्रगतिशील छत्तीसगढ़ सतनामी समाज

Friday, July 16, 2021

तन के तिजौरी मं

तन के तिजौरी  म मन के  मन   भर रतन भरे हे 
साधु अउ चोर किंदरत हे खोर सबके नंजर गड़े हे
एला क इसे बचाव उन ल  कइसे भरमाव 
कोनो उक्ति बताव .. कोनो मुक्ति देखाव .....

जब ले चढ़े हे ये बइरी जवानी 
जी के जंजाल बड़ हलकानी 
कोनो तो एकर जुगती मढ़ाव ...

गहना गढ़ाय न दान-पुन  जाय 
धरखन काकर कहे कछु न उपाय 
बिन बउरे जिनिस माहंगी फेकाय ...

खिरत हे उमर पैरावट कस रतन गंजाय 
मय  मुरख एला  सकेंव  न  भंजाय 
जांगर थकत हे कोनो रद्दा मुक्ति के बताव 

सत श्री सतनाम 
डाॅ. अनिल भतपहरी