रविवारीय चिंतन
धार्मिक आयोजन क्यों ?
अपेक्षाकृत सतनामी समाज धार्मिक आयोजन एंव कर्मकांड जैसे मूर्ति पूजा , तीर्थयात्रा व्रत - पूजा- पाठ यहाँ तक पंडे -पुजारियों, भाट- बसदेवा के चंगुल से भी मुक्त हैं। यह वैज्ञानिक व बौद्धिक दृष्टिकोण से अच्छा भी है । भले अपवाद स्वरूप भले चंद शासन -प्रशासन के लोग सामाजिक उत्तरदायित्व निर्वहन हेतु ऐसा करते हो । ऐसा करना उनके लिए स्वभाविक भी हैं।
परन्तु अपना वक्त और संसाधन वे सकरात्मक व रचनात्मक चीजों में न कर कहीं और लगा रहे हैं। उनकी अकुत संपदा व सामर्थ्य कहां व्यर्थ उपयोग हो रहे हैं?।इनका आकलन कर उचित मार्गदर्शन आवश्यक हैं।
वर्तमान समय में धार्मिक क्रियाकलापों की बाढ़ आने से अन्य धर्मावलंबियों के समान अनुशरण व आयोजन होने लगे हैं। जहां ऐसा नहीं वहाँ अन्यत्र संस्थान व मत सम्प्रदाय पंथ धर्म आदि में लोग तीव्रतर भाग लेने लगे हैं।
अत: न चाहकर भी आयोजन करना आवश्यक है ताकि समाज विखंडन (राधास्वामी सतपाल रामपाल गायत्री श्रमाली ईसाई आदि ) से बच सकें । हालांकि गुरु उपदेशानुसार उचित भी नहीं हैं। परन्तु संगठित रहने और अस्मिता की रक्षा हेतु धार्मिक आयोजन एक विकल्प तो हैं। हमारे शासकीय अधिकारी कर्मचारी भी मौलिक अधिकार के चलते धार्मिक आयोजन में सहजता पूर्वक भाग लेते हैं। उनसे प्रेरित जन साधारण भी द्विगुणित उत्साहित होते हैं। परन्तु कुछ अन्य मत पार्टी आदि से प्रायोजित व अतिवादी या छद्म विचारकों ने गुरु घासीदास के उपदेश के विपरित आयोजन कह हतोत्साहित करते हैं। यह सही नहीं हैं। कल्पित व मिथकीय प्रतिमानों को जरुर न माने पर ऐतिहासिक पात्र व महापुरुषों की माने उनकी झांकी शोभायात्रा निकाले और उन्हें व उनकी वाणियों सीखों को सदैव प्रांसगिक बनाए रखें।
सच कहें तो वर्तमान समय राजनैतिक जागरण और धार्मिक आयोजन का दौर हैं जो समुदाय इन चीजों से दूर हैं वही पिछड़ा और बिखरा हुआ हैं।
फिलहाल दस दिवसीय / सप्त दिवसीय गुरुगद्दी पूजा महोत्सव क्वांर एकम से भंडारपुरी गुरुदर्शन मेला तक किया जा सकता हैं। आरंग पलारी परिक्षेत्र विगत 1986-87 से विराट आयोजन हो रहे हैं। ऐसा आयोजन हर जिला ब्लाक और बडे- बडे ग्रामों में होना चाहिए। मार्च से म ई महिनों मे सतनामायण या गुरुग्रंथ आयोजन 3-5-7 दिवसीय होते है। इन्हे सुविधानुसार सर्वत्र आयोजन करना चाहिए क्योंकि आयोजनों से संगठन और संस्कार आते हैं। बच्चो और युवा वर्गों में आत्म विश्वास बढते हैं। कलाएँ व संस्कृति परिष्कृत होते हैं। सभ्य समाज का आइना होता हैं।
।।सतनाम ।।
डॉ॰ अनिल भतपहरी / 9617777514
No comments:
Post a Comment