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।।अधिक और लंबी धार्मिक आयोणजन और उनका प्रतिफल ।।
प्राय: देखने में आते है जो समुदाय अधिक और लंबी धार्मिक आयोजन में उलझा हुआ है ,वही सर्वाधिक पिछड़ा दीन -हीयन गरीब है।यहां तक शोषित भी। उनके अराध्य और कर्मकांड उन्हे उनकी वर्तमान हालात् से उबारते क्यों नही? और तो और प्रभावी आयोजन की होड़ लिए अनुयाई परस्पर प्रतिद्वंद्वी और प्रतिस्पर्धी भी हो जाते है ।फलस्वरुप उनमें वर्चस्व के होड़ और उनसे लड़ाई -झगडे तक हो जाते हैं। नेपथ्य में आयोजक और प्रायोजक के पौ बारह हो जाते हैं। और विडंबनाएं देखिए यही तबका स्वर्ग सम सुख धरा पर भोगते अतिशय सम्मनित भी होते है। इसलिए भी उक्त प्रथाओं के ये प्रवर्तक और संरक्षक बने हुए होते हैं।
हमारे संतो -गुरुओं ने बड़ी ही सुन्दर ढ़ग से दृष्टान्त देते नैतिक सीख भी दी -" तय अपन बर बारा महिना के खरचा जोड़ ले तब भक्ति कर न इते झन कर । " परन्तु नक्कार खाने में ऐसे प्रवर्तन कारी स्वर विलिन हो गये या उन्हे और उनकी वाणियों और स्थापनाओं को बहिष्कृत कर दिए गये।
पाश्चात्य जगत मे इसके तरफ ध्यान आकर्षित करते मार्क्स का भी उद्भव हुआ पर उनकी विचार यहां के पारंपरिक व शास्त्रीय मनो मस्तिष्क में समाए भी नही।
ऐसा लगता है कि सोची समझी रणनीति के तहत धार्मिक आयोजन और अनुष्ठान आदि ईजाद किए गये ताकि जनता उनमें आकंठ डूबी रहें। चंद समर्थवान यदा- कदा धार्मिक होने और बड़ी दान दक्षिणा कर इसी मनोवृत्ति को बढाने में लगे होते हैं।
धर्म को अफीम कह उनसे बचने की सलाह यहां के कथित जपी -तपी द्रष्टाओं / व्याख्याकारों को बचकाना लगते हैं। इसलिए यहां खासकर बस्तर के आदिवासियों की 72 दिनी बस्तर दशहरा और नेम जोग से मानने की सैकड़ों वर्ष की प्रतिबद्ध प्रथाएं वहां केवल लंगोटी और रोटी ही दे पाए हैं। आज भी अर्धनग्न समुदाय वनोपज और कठोर परिश्रम से ले दे कर जी रहे हैं। ऊपर से दो पाटन के बीच में गेंहू की मानिंद अलग से पिसा भी रहा रहा हैं।
उत्तर में भी करमा बार सैला सरहुल जैसे आयोजन राजतंत्र के प्रति अटूट निष्ठा और विभिन्न धार्मिक आयोजन धर्मांतरण के चक्रव्यूह में उलझे पड़े है।
इसी तरह मध्य छत्तीसगढ़ के मैदान मे हरेली से होली तक कर्मकांड व तीज -त्योहार जिसमें छक कर शराब मुर्गा मटन में निमग्न हैं। और तो और बीच- बीच मे गणेश दुर्गा नवधा- भागवत में अपने पेट काटकर पर- प्रांतिक कथावाचको के लिए दान- दक्षिणा की व्यवस्था में लगा हुआ हैं। परन्तु उनकी आर्थिक सामाजिक परिस्थिति में रंच मात्र परिवर्तन नही आया हैं।
किसान बनिहार हो गये और बनिहार शहरों के सेठ साहूकारों के बहुमंजिला ईमारत बनाने वाले फैक्ट्री मे काम करने वाले रेजा कुली बनकर रह गये हैं। गांवो मे लघु किसान स्वयं अपने खेतों काम करने वाले खेतीहर श्रमिक हो गये है। यहां अधिकतर बच्चे महिलाएं या बीमार वृद्ध ही रह गये है। धान की कटोरा कहे जाने छत्तीसगढ़ मे औसत छत्तीसगढिया आजकल गरीबी रेखा के नीचे लाल पीले नीले राशन कार्डधारी होकर चावल की कटोरा थामे प्रतीक्षारत याचक सा होकर रह गये है। यह कथित ग्राम स्वराज और पंचायती राज का साईड इफेक्ट है।
इस तरह देखा जाय तो जो समुदाय अधिक धार्मिक और कर्मकांडी है , वह अपेक्षाकृत अधिक दु: खी पीड़ित व शोषित भी बावजूद वह कथित आत्म सुख भाव से इन आयोजनों हर्षित व उल्लसित नज़र आते हैं।
संतो -गुरुओं के अनुयाई भी ईश्वरवादियों की अनवरत आयोजन से प्रभावित होकर लंबी और बड़ी आयोजन करने लगे है फलस्वरुप चंद वर्गों के अतिरिक्त बहु वर्ग धार्मिक कर्मकांड मे उलझा हुआ है। उनके भगवान खुदा ईश्वर गुरु संत सभी मूकदर्शक है अनुयाईयों के जीवन स्तर पर उनकी कोई कृपा बरस नही रहे हैं। बल्कि कृपा उनके ऊपर बरस रहे है जो षडयंत्र खोर सूद खोर और राज खोर है। इनके चंगुल और अनावश्यक अंध श्रद्धा कर्मकांड या कहे जीर्ण शीर्ण परंपरा को ढोने से बचाने बौद्धिक लोगों का नैतिक कर्तव्य होना चाहिए। ताकि यहां के नागरिक और देश प्रदेश सुखी व समृद्ध हो सकें।
निम्न विडियों को देखकर इसे और भी बेहतर ढंग से समझे जा सकते है।
- डा. अनिल भतपहरी / 9617777514
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