सुरता केयुर भूषण
सतनाम धर्म एंव संस्कृति पर अगाध श्रद्धा रखने वाले श्रद्धेय केयुर भूषण जी से १९८७-८८ में महाविद्यालयीन शिक्षा ग्रहण करने रायपुर आते ही मिलन हो गया। कारक रहे हमारे पूज्य पिता सुकालदास भतपहरी के साहित्यिक मित्र प सरयुकांत झा जी मुर्धन्य साहित्यकार विचारक और प्राचार्य छत्तीसगढ महाविद्यालय रायपुर । झा साहब कोसरंगी स्कूल में पढे वहा के प्र प्राचार्य हमारे पिता जी थे।जब- जब वे रायपुर से अपने गृहग्राम परसदा जाते अक्सर मुझे उन्हे अपनी राजदूत मोटर साइकिल से पहुचाने का सौभाग्य मिलता। और उनका आशीष भी।वे बाल्यकाल से हमारी काव्य व गीत लेखन पठन को प्रोत्साहित ही नहीं दो तीन बार सम्मानित भी किए थे।
तब गुरुघासीदास छात्रावास आमापारा रायपुर में रहकर दूर्गा महाविद्यालय में अध्ययन रत रहे। हमारे संरक्षक व पिता श्री के दूर के पर सगे सा मामा स्वतंत्रता संग्राम सेनानी व मंत्री कन्हैयालाल कोसरिया जी रहे वे और वार्डन रामाधार बंजारे जो कि अमीन पारा छात्रावास संचालित करते अक्सर केयुर भूषण जी गुरुघासीदास जयंती या अन्य समारोह मे आते । मंत्री कोसरिया जी के शिक्षक व कवि पुत्र रामप्रसाद कोसरिया वउनके मित्र सुशील यदु जी वही सब मिलकर ही हमे काव्य गोष्ठी में ले गये जहां स्वनाम धन्य रचनाकारों जिनमें हरिठाकुर बंसत दीवान सरयुकांत झा मन्नुलाल यदु रामेश्वर शर्मा त्यागी जी जागेश्वर प्रसाद जी एस दिल्लीवार जैसे अनेक छत्तीसगढी प्रेमी साहित्यकारों चिन्तको से हमारा परिचय हुआ और लेखन प्रकाशन का दौर चल पडा। हमें समिति में कार्यकारिणी सदस्य बनाएं गये ।
इस बीच केयुर भूषण का बुढा नाती वाला दुलार मिलते रहा। हमारी कृति" जय छत्तीसगढ" को वंदना सदृश्य छत्तीसगढी सेवक द्वारा दी जा रही अखंड धरना गुरुघासीदास चौक के समीप कलेक्टर परिसर में २-३ बार गान करने का अवसर आया। जागेश्वर दीनदयाल वर्मा चन्द्रशेखर वर्मा सुखदास बंजारे डा सीताराम साहू हम लोग वहां बैठते और काव्यपाठ आदि करते । इस दरम्यान पृथक छत्तीसगढ हेतु लेख कविता लिखे छपे और फिर १९९५ -९६ में प्रध्यापकी की नौकरी करने पेन्ड्रारोड जाना हो गया और रायपुर की साहित्यिक मित्र मंडली से दूर भी ।
११-१२ वर्ष बाद २००७ में हमारी काव्य संग्रह " कब होही बिहान " प्रकाशित करवाने सुधीर भैय्या के वैभव प्रकाशन में बलौदाबाजर से आकर बैठे परिचर्चा कर ही रहे थे कि आदरणीय केयुर भूषण जी का दर्शनलाभ हुआ। प्रणाम करते ही प्रफूल्लित हो कहने लगे बड दिन बाद मिलत हस अनिल.. कहा हस... का करत हस ? एक साथ प्रश्नों के घेरे में संछेप में सबकुछ बताया और कहा कि यह काव्य संग्रह प्रकाशित करवाने आया हूं ।तब सुधीर भैय्या से उतना परिचय नही था जितना केयूर भूषण जी से रहा .... वे कहे दिखाव वे टाइप की हुई पांडुलिपि देखे ... और कहे एखर भूमिका या सम्मति कोन्हो कना लिखवाय हस? मे कहेंव नहीं ... फेर का गुनत कहीस मय लिख दंव ? ... सच कहे तो मुझे ऐसा कुछ लिखवाने की ईच्छा ही नही था ।सो .... तभी सुधीर भैय्या कहे लिखवा लो । अच्छा ही होगा ... फिर वे उस पांडुलिपि को ले गये । हरेली त्योहार छुट्टी के दिन सम्मति और पाडूलिपी को घर आकर ले जाने की बाते कह वापस बलौदाबाजर आ गया।
उनके घर गया बडा ही आत्मीय भाव व प्रेम मिला और सतनाम संस्कृति मिनीमाता के अनुभव और हमारी काव्य संग्रह में वर्णित भावो पर गहन व सार्थक विचार धन्टो चला।
सम्मति में उनके एक शब्द बाल्मिकी वाली वाक्य को हटाने का निवेदन किया कि यह शायद कोई स्वीकृत करे न करे आपत्तिजन्य व कही आगे हमारे लिए अन्यान्न अर्थ न ले कोई वे कहे- " नहीं ! मोला ज इसे लगिस ओसने लिखे हंव झन हटा ।हटाबे त मोर सम्मति ल मत रखवा।"
प्रकाशन के बाद उन्हे भेट करने गया वह बहुत ही खुश हुआ।और अपने अनुभव सागर से हमे अनेक मोतियां निकाल देते रहें .... ऐसे सहज पर अनुभव के सागर ,सरल हृदय ,पीयर पीपर के पाके पाना ...हम जैसों को अपनी वृहत्त धरोहर से चंद मोतिया सौप कर जाना ....माटी के चोला माटी मे मिलना ही नहीं .बल्कि उसके बाद भी सदैव चमक बिखेरते रहना ही हैं ..... विनम्र श्रद्धांजलि सत सत नमन
डा. अनिल भतपहरी
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