प्रात: चिंतन
दान और सेवा
गुरुघासीदास की अमृतवाणी है - " दान के लेवइया पापी अउ दान के देवइया पापी।"
यह इतना सरल सहज है कि इनकी अलग से व्याख्या की जरुरत नहीं जान पड़ता ।जैसा है वैसा मान ले और दान देना लेना छोड दे! पर क्या यह इतना भी सरल हैं? सवाल यह हैं। आज संसार में अनेक व्यक्ति और संस्थान दान दक्षिणा में ही आबाद और फलफूल रहे हैं। देश के बडे बडे धार्मिक संस्थान और लोग इस दान वृत्ति के चलते अकूत संपदा बटोर लिए हैं। जिसके कारण भी तरह तरह के दर्प धमंड आदि पनप गये हैं। क्योकि जब संपदा व सञशाधन एकत्र हो जाय , उनके स्वामी बन जाय तो तरह -तरह के घमंड का आ जाना स्वभाविक हैं। और घमंड अमानवीय होते हैं अधर्म होते हैं। इससे पापचार होते हैं इसलिए सदगुरु का कथन कि भेदभाव व असमानता रुपी पाप के प्रतिभागी दान देने वाला और लेने वाला दोनो होते हैं। अत: ऐसी स्थिति न हो सब बराबर हो और दान के स्थान पर सहभागिता हो सबका सहयोग हो ऐसी मनोवृत्ति को जागृत कराये बढाए ।ताकि मानवता स्थापित हो उनका संरक्षण हो
असल में उक्त कथन का मूल प्रयोजन दानवृत्ति से किसी तरह से भेदभाव उत्पन्न न हो यह है। दाता दर्प मे और याचक गर्त में जीने विवश हो रहे थे।
दाता बनने लोग ऐनकेन प्रकरेण धन संपदा संचित कर अनेक लोगों को वंचित कर रहे थे इसलिये यह सर्वथा मौलिक और बेहद प्रहारक व उद्वेलित करने वाली अमृतवाणी गुरु के मुख से निःसृत हुआ।
दान लेने- देने की मानसिकता ,परिस्थितियों और उनसे उपजे अमीरी -गरीबी उच -नीच वाली मनोदशा से संदर्भित हैं। इसलिए गुरु बाबा ने यह वाणी कहे कि समाज में समानता आए ताकि कोई दाता बनकर दर्प न करे और कोई याचक बन कर अपना मान स्वाभिमान नष्ट न करे । जाने अनजाने एक मानव द्वारा किसी मानव का उ कोई तिरस्कार न हो सके।
गुरुघासीदास के उक्त अमृत वाणी को लेकर समाज के कुछ विचारकों में अलग अलग तरह के मनोभाव हैं। सामने प्रत्यक्ष जो दिखता हैं उसे ही अकाट्य सत्य मान समझ लेते हैं बिना गहराई में उतरे फलस्वरुप किसी मदद , निर्माण या आयोजन हेतु दान और सेवा नहीं करने की कुप्रवत्तियां उत्पन्न होने लगे हैं। इसलिए हमारे अनेक धार्मिक स्थलों में आधार भूत सुविधाएँ ही नहीं हैं। तथा इनके अभाव में प्रतिबद्ध साधु संत मंडली नहीं है जो सतनाम को जन जन तक पहुचाने में अपना सर्वस्व न्योछावर कर सके।
जबकि किसी मत पंथ विचारधारा को जन जन तक पहुचाने किसी परिपाटी, संस्थान और प्रतिबद्ध प्रचारकों की आवश्यकता होती हैं। दुर्भाग्यवश आज तक सतनाम में ऐसा नहीं हो सका।फलस्वरुप अराजकताएं हैं। हर कोई उपदेशक बना बैठा हैं श्रोता और अनुयाई नजर नहीं आते और सेवादारों की निरंतर कमियाँ होते जा रहे हैं।
महंती पाने सभी बेताब है पर साटीदार बनाना गंवारा नहीं ।
सतनाम पंथ को छोड़ दे तो किसी भी मत पंथ और सञस्थान में इस तरह की स्वेच्छाचारिता व अराजकताएं नहीं दिखता । फलस्वरुप वे कहां हैं और यह कहां पर हैं। असानी से देखे समझे जा सकते हैं ।
ऐसे में कही ऐसी स्थितियां निर्मित न हो जाए कि आगे चलकर किसी भूखे को भोजन तक न दे सकेन्गे ।
बहरहाल ऐसे आदर्श वाक्य और सिद्धान्त इसी तरह के आयोजन के उपरान्त फलीभूत होते हैं। बेहतर संस्कार का सृजन होते हैं और अनेक तरह के सामाजिक सद्भाव सौहार्द प्रेम परोपकार आदि गुण विकसित होते हैं।
गुरुघासीदास के समय भंडारपुरी धाम में सदाव्रत भोजन भंडारा चलता था कभी भी किसी टाईम जाते सेवादार उपलब्ध रहता ।आज वहाँ पानी पिलाने वाला तक नहीं हैं। यही हाल अधिकतर सतनामी ग्रामों का हैं। एक जमाना था जब हमारे सम्पन्न मंडल गौटिया अन्नदान भोजन और भूदान कर पंथ को व्यवस्थित करते थे रामत रावटियां और सत्संग प्रवचन साधु अखाडा चलते थे।आज इन सबके नामलेवा नहीं है। हम पढ लिखकर शहरों में बसते जा रहे हैं। कालोनियों में कैद होते जा रहे हैं। और केवल कोरा बुद्धिजीवी बन एक दूसरे को ज्ञान उपदेश पेल रहे हैं। पर उपदेश कुशल बहुतेरे वाली संस्कृति में जी रहे हैं। जो थोडे बहुत आयोजन कर भी रहे उनके भी मीन मेख निकाल उन्हे राजनैतिक प्रेरित मान आलोचना प्रयिलोचना में वक्त बरबाद कर रहे हैं।
यह बेहद चिन्तनीय व विचारणीय हैं।
सदगुरु घासीदास जी उक्त वाणी तभी सार्थक होन्गे जब समाज में समानताएं और संपूर्ण आय का समान वितरण हो पर यह होना संभाव्य नजर नहीं आते। सत्य की सत्ता स्थापित हो यह सभी चाहते हैं पर बहुत सी शक्तियाँ ऐसी हैं जो ऐसा होने नहीं देती।
ऐसे में उस परम सत्य और लक्ष्य के प्राप्ति हेतु निरंतर प्रयाण करते रहना चाहिए। यही सत पंथ या सतमार्ग हैं ।इसके पथिक सतनामी हैं। जो दान और सेवा करते दान वृत्ति का उन्मूलन चाहते हैं ताकि इनसे कोई जाने अनजाने असमानताएं पुनश्च हमारे सक्षम खड़ा न जाय।
सतनाम पंथ और उनकी सरल सहज सिद्धांत जितने अधिक जन सामान्य तक पहुचेन्गे समाज समानता की ओर गतिमान होन्गे। अत एव अभी उक्त सिद्धान्त और पंथ को प्रचारित करने सेवा और दान की आवश्यकता हैं। कलान्तर में जब समाज में समानताएं आ जाय तब कदाचित् इनकी कोई आवश्यकता न हो।
हर व्यक्ति सक्षम व सबल हो जाय यही आदर्श और उत्तम परिकल्पना गुरुघासीदास का हैं।
।।सतनाम ।।
डा. अनिल भतपहरी 9617777514
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