। कषाय ही कोसा हैं न कि भगवा ।।
बुद्ध व भिक्षुओं की परिधान को कषाय कहते हैं जो कि दक्षिणापथ/ कोसल (छत्तीसगढ) का सुप्रसिद्ध वस्त्र कोसा का ही परिवर्तित नाम जान पड़ता हैं।
परन्तु कुछ लोग इसे केसरिया रंग यानि कि भगवा कह कर प्रचारित करते आ रहे हैं दर असल वह अलग तरह के रंग हैं। केशर के रंग अर्थात् गेरुआ या लाल + पीला के संयुक्त रंग को ही भगवा कहे जाते हैं। यह दोनो अलग अलग रंग हैं। और दोनो की अपनी अलग अलग महत्ता हैं।
तथागत बुद्ध का धम्म प्रचारार्थ वैभवशाली गणराज्य दक्षिणापथ की राजधानी श्रीपुर (सिरपुर )आगमन हुआ। यहा के नरेश विजयस ने उन्हे एक सहस्त्र कोसा वस्त्र भेंट कर सम्मानित किया। कोसा की वस्त्राभंडार और विपुल उत्पादन से परिछेत्र कोसल के नाम से विख्यात हुआ।
कोसा ही कषाय के नाम से बौद्ध संस्कृति में अंगीकृत हो धार्मिक पदाधिकारियों का परिधान स्वीकृत हुआ।
आज भी दक्षिणापथ वर्तमान छत्तीसगढ की संस्कृति में कोसा एक अनिवार्य परिधान हैं इनके बिना धार्मिक व विवाह आदि कार्य सम्पन्न नहीं होते। बुद्ध के श्रीपुर आगमन की पुष्टि चीनी यात्री ह्वेन्गसांग भी करते हैं। कलान्तर (छटवी सदी )में यहां महायान के नागार्जुन एंव आनंद प्रभु ने बौद्ध संस्कृति के उत्कर्ष हेतु विश्वविद्यालय मंदिर विहार व स्तुप आदि का निर्माण करवाए.. जिनकी अवशेष अच्छी हालात मे संरछित हैं। महानदी धाटी में प्राचीन सहजयानी एंव वर्तमान सतनामियो का सर्वाधिक बसाहट द्रष्टव्य हैं।
दक्षिणा पथ वर्तमान छत्तीसगढ की संस्कृति में कोसा एक अभिन्न परिधान है। यहा कपास बहुत बाद मे आया ऐसा जान पडता है। धार्मिक व वैवाहिक अनुष्ठान इनका प्रचलन अब भी है।दुल्हन की भंवराही लुगरा और दुल्हा के धोती अल्फी कोसा के ही होते हैं। यदि सहज उपलब्ध न हो तो हल्दी चुना लगाकर सफेद वस्त्र को कोसाही रंग में रंगने की विशिष्ट प्रथा हैं। यही पाहुर प्रथा हैं जिन्हे सार्वजनिक रुप से एक दूसरे पर हल्दी तेल की उबटन लगाकर कषाय या कोसा रंग में रगकर बरात आदि हेतु प्रस्थान करते हैं।
बाहरहाल सतनामियों मे जो प्राचीन सहजयानी समुदाय थे मे सादा( श्वेत )और कोसा (कषाय ) रंग का प्रचलन वैवाहिक व धार्मिक अनुष्ठानों में अनवरत जारी हैं ......
।। सच्चनाम - सतनाम ।।
डा. अनिल भतपहरी ,ऊंजियार - सदन अमलीडीह रायपुर
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