Saturday, May 30, 2020

महानदी जलसंवर्धन और उनसे सर्वांगीण विकास


"महानदी जलसंवर्धन और उनसे सर्वांगीण  विकास"  

         चित्रोत्पल्ला गंगा मां महानदी जो सदानीरा थी और प्राचीन समय में सागर से लेकर बारुका गरियाबंद तक जलपोत चला करते आवागमन व व्यापार के कार्य होते थे। सिरपुर के समीप बड़ा बंदरगाह जिसमे बड़ी जहाज मालपुरी मोहान तक आते और हमारे ग्राम जुनवानी  गिधपुरी नगर से रायपुर राज  में व्यापार होते ।शिवरीनारायण से  रतनपुर राज के  सुदुरवर्ती छेत्रों मे आवश्यक सामाग्री पहुचाई व लाई जाती रही है। दूसरे तट बल्दाकछार व सिरपुर से महासमुन्द सरायपाली होकर उड़ीसा  तक आवश्यक वस्तुए पहुचाई जाती ।फलस्वरुप   इनके तट पर ही राजिम  आरंग गढ़सिवनी सिरपुर धमनी दंतरेगी शिवरीनारायण  लवन खरौद चंद्रपुर जैसे  बड़ी- बड़ी नगरी का विकास हुआ। महानदी तट पर स्थित  सिरपुर तो राजधानी ही रही जो देश- विदेश से जलमार्ग द्वारा जुड़े  हुए थे।जहा व्यापार शिक्षा   ,ज्ञान और  कला का विकास हुआ। इसकी  देश- विदेश तक कीर्ति रही। 
        परन्तु काल चक्र और शासन -प्रशासन की  उपेक्षा  के चलते आज महानदी सूख चुकी है।सभी  प्राचीन व वैभवशाली नगरी उजड़ चुके है। सांस्कृतिक वैभव का ह्रास हो चुका है। चारो ओर समकालीन वैभव के गीत गाते प्रस्तर मूर्तियाँ भग्नावशेष के रुप मे अस्फूट गान करते रहे है।जिनके न सुधि श्रोता है न पाठक न जिज्ञासु को । 
        राज्य के अभ्युदय के बाद एक तरह से इन ऐतिहासिक जगहों से प्राचीन वैभव को परीचित कराने के नाम पर हास्यास्पद ढंग से बारह वर्षो मे लगने वाली कुंभ के नाम पर प्रतिवर्ष कुंभ का आयोजन राजिम जहां तीन नदियों का संगम है में  धूमधाम से करने लगे। और करोड़ो के मूरम ,ईट ,गिट्टी सिमेन्ट आदि डाले जाने लगे ।अस्थाई निवास हेतु लकड़ी सीट चादरे बिछाई जाने लगी और १५ दिन बाद उन सामाग्रियों को वही  बीच नदी के रेत मे बेतरतीब छोड़ दिए जाते । 
       फलस्वरुप महानदी में रेत की जगह मुरम गिट्टी सिमेन्ट या ठोस पदार्थ के भराव से  जल स्रोत  सुखने   लगे।राजिम के इर्द-गिर्द विगत पन्द्रह वर्ष में  महानदी में मैदानी  झाडियां यथा बेशरम बबुल बेर ऊगने लगे  है।  महानदी  भाठा में बदलने लगा था फलस्वरुप प्रकृति प्रेमियों ने महानदी  बचाओ अभियान भी चलने लगा है। विगत क ई वर्षों से सोशल मीडिया में हम स्वत: इनपर लिखते जनजागरण करते रहे है।राजिम व क्षेत्र वासी क ई साहित्यिक व सांस्कृतिक लोगो से इसी के चलते जान पहचान बनी ।
बाहरहाल हर बार मेले में बांध से पानी छोड़कर कृत्रिम कुंड बनाकर पर प्रांत से आयातित लोगो से कथित शाही स्नान व नैवेद्य के नाम पर तेल घी दूध शहद आदि व  फूल  फल धूप दीप नाडियल रेशे  पन्नी कचड़े डाले जाते रहे व करवाए जाते थे जो कि आस्था के नाम पर औपनिवेषिक  सांस्कृतिक‌ आयोजन रहा।  इसके नाम पर  प्रदेश की निर्धन जनता की करोड़ो रुपये  की बंदरबाट चलने लगा ।
  प्रदेश के साधु -संत का  कही कोई पूछ परख नही था। स्थानीय  कबीर पंथी एक भूखे साधु के ऊपर रोटी चोरी का आरोप लगाकर  छत्तीसगढ की अस्मिता का उपहास उड़ाए गये थे।
 बाहरहाल पानी इस बार रबी फसल के लिए दी जाएगी ।  ऐसी शासन द्वारा धोषणा हुई है।जिससे  जनको जीवन दान देने "अमृत तुल्य फसलें उगेन्गे" व लाखों के पेट भरेन्गे ।प्रदेश आत्मनिर्भर होगा और लाखो कृषक को रोजगार मिलेन्गे।
     महानदी मे  अब मुरम- सिमेन्ट नही पटेन्गे ।और यहां की  पावन संस्कृति अविरल महानदी सदृश्य प्रवाहमान हो‌न्गे ऐसी उम्मीद है।
हर १०-१५ कि‌मी मे एनीकेट बने और दोनो तट के दोनो ओर जल श्रोत बढेन्गे कृषि बाड़ी व मत्स्यखेट बढ़ेन्गे  आवागमन भी सुगम होगा।
    धमतरी से रायगढ़ तक जलमार्ग विकसित हो  जिससे  दोनो ओर जनजीवन समृद्ध होन्गे यह  प्रदेश का सबसे बड़ा सौभाग्य होगा । और शैन: शैन: इन प्राचीन महानदी धाटी का पुनर्निमाण होगा।सांस्कृतिक उत्कर्ष होन्गे 
 हमारी पूर्वजों की आत्माएं प्रशन्न होगी।और जहां कही देवता होन्गे फूल बरसाएन्गे ।सर्वत्र खुशयाली आएन्गे। महानदी की पावन धारा ही अमृतधारा मे परिणीत होन्गे।
   उ प्र बिहार म प्र की तरह जैसे गंगा पूजा , नर्मदा परिक्रमा की परंपरा है उसी तरह महानदी आराधना व परिक्रमा की प्रवृत्ति विकसित होनी चाहिए। इसके लिए  शासन -प्रशासन व जनमानस मिलकर इमानदारी से पहल करे।बल्कि महानदी  धाटी विकास विभाग बने या इनके लिए अलग से मंत्रालय गठित हो।
     राजकीय संरक्षण व निर्देशन में महानदी के उद्गम सिहावा से लेकर उडीसा प्रवेश  बालपुर उड़ीसा  तक  महानदी परिक्रमा यात्रा हेतु ५०-१०० सदस्यीय शोध अध्ययन दल सभी क्षेत्र के जानकार लोगों का गठन होना चाहिए । उनके परिभ्रमण रिपोर्ट या प्रतिवेदन के आधार पर क्रमश: विकास के लिए  शासन सार्थक पहल करे। ताकि हमारे प्राचीन वैभव का पुनर्स्थापना हो सके। तथा  छत्तीसगढ अन्न -धन ,ज्ञान -कला- कौशल में समृद्ध हो सके।

       ।। जय महानदी - जय छत्तीसगढ ।।
        
         -डा. अनिल भतपहरी

चित्र - महानदी तट की संस्कृति पर हमारी कहानी संग्रह पानव पिरित के लहरा पुस्तक  का आवरण चित्र ।
व सिरपुर स्थित विश्वप्रसिद्ध लक्ष्मण देवाला ( लक्ष्मणी बुद्ध विहार )व गुरुघासीदास के स्वरेखांकन ।

कोरोना के संग जीना

समसामयिक हास्य व्यंग्य - 

।कोरोना के संग जीना ।।

बात कुछ भी नहीं हैं पर यूं ही बात का बतड़ग तो होते ही रहते हैं।
हमारी विविधतापूर्ण संस्कृति में जहां चार बर्तन रहन्गे खड़खडाएन्गे ही ।अब यह आपके रेस्तराँ तो नहीं जहां फाइबर का बर्तन हो एक के ऊपर एक सटा हो पर कोई शोर गुल नहीं निस्तब्धता रहें और चुपचाप निर्वाह चलता रहें।
    आजकल लोग कांसा पीतल तांबे स्टैनलैस स्टील रहे ही कहां प्लास्टिक व फाइबर के मानिंद होते जा रहे हैं।  युज एंड थ्रो  काम के बाद व्यर्थ ।
  नहीं तो पहले जिंदा हाथी के बाद मृत हाथी जैसे  बेशकीमती हो जाया करते थे वैसे हमारे यहाँ आदमी मरकर देवता ही हो जाते हैं।  इसलिए साधारण व्यक्ति को भी ब्रम्हलीन ,स्वर्गवासी ,सतलोकी कहकर सम्मानीत करते हैं। यदि वह विशिष्ट हो तो उसे अमर ही कर देते हैं। धातु का यही फायदा हैं। उसे गला पिधला कर जो स्वरुप ढाल दो।पर दोने पत्तल टाइप प्लेटों को क्या करेन्गे?
    बहरहाल जब बातें  चली तो बता दूं। आज बेहद गर्मी हैं पीने का पानी तक  थर्मस नुमा बोतल में शाम तक पीने योग्य नहीं रहता। तो बाकी का क्या बिसात ।हां रोटिया और सब्जी रात की रहे तो दोपहर लंच तक लंच बाक्स में रखे ही सिंका जाता हैं ,गरमा गरम ।
  तो इस तरह ताजी गरम  खाना और बायल पानी का लुफ्त भरी दोपहरी में पसीने से तर बतर ले रहे हैं। 
        जब से वह मायका गई अकेले सुबह से घुसे रहो किचन में जली अधजली जो भी बना जल्दबाजी ठूस ठास कर जोर जार कर भागते आफिस आयो और ये डाय‌न कोरोना के चलते सेट्रल एसी और कूलर न चलाने का फरमान से गरम पंखे के थपेडे का सामना जैसलमेर की गर्म हवाओं जैसा अनुभव करते शासकीय दायित्व निर्वहन में मगन रहों। शाम घर जाते फिर गृहस्थी की घानी में जुत जाओ कोल्हू की तरह । मोबाइल में मगन बेटों से पानी मांगकर देख लो ! फौरन फिल्मी डायलाग सुनने मिलेगा - इस घर का रामु काका मै हू क्या ?
तो भैय्ये हमीं बन जाते हैं । आखिर सेवा ही सत्कार और राष्ट्र प्रेम हैं।  

बहरहाल आजकल राष्ट्र प्रेम यही समझे जाने लगे हैं कि जो शासन प्रशासन का आदेश है चुपचाप मान लो ।कही कुछ अवांछनीय लगा और टीप टिप्पणियां कहे तो सीधा देशद्रोही ठहरा दिए जाएन्गे ।संकट काल हैं कुछ भी संकट आ धिरेन्गे।  अनचाहे मेहमान की तरह ।

   आजकल ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य का बुरा हाल हैं। इसलिए बीमार लोग शहरों में इलाज कराने आते हैं। और दुर दराज से रिश्ते निकाल आ धमकते हैं।
गृहलक्ष्मी का मायके का हुआ तो शुक्र है वह जो भी रहेगा  काला कुत्ता नहीं कह सकता नहीं तो वाणी दोष लगेगा ।
  खैर !ग्रामीण परिवेश का आदमी ले- दे कर कर्ज से एक दो कमरे शहर में बेहतर भविष्य के लिए बनवा लिए तो समझो कि रिश्तेदारों के लिए सराय हो गये।ऊपर से ससम्मान व्यवहार अलग से ।यदि खाने- पीने और व्यवहार व सेवा सत्कार आदि  में कही कुछ  कमी या खोट मिले तो आपका खैर नहीं सारी बिरादरी में नाक कटना तय हैं ।   परिवार वालों को शहर बसने शौक नहीं पालना चाहिए । यदि बस भी गये तो वह कहावत सुबह शाम आरती जैसा कान में गुंजते रहते हैं-" गीदड़ की मौत आती हैं तो वह शहर की ओर भागते हैं।"
   हां स्मृत हुआ कि कोरोना से बचने लोग सुरक्षित गांव तलाश रहे हैं। जो वर्षो गांव छोड़ चूके थे ओ लोग अपने जीर्ण शीर्ण घर को मरम्मत करवा रहे हैं। और तो और जहां अदद बाथ रुम नहीं था वहाँ अब   कमोड टायलेट तक लगवा रहे हैं। 
   क्योकि शहर खासकर राजधानी जहां एम्स है और सारी दुनिया देख रही हैं कि यहाँ डाक्टर नहीं साक्षात् ईश्वर हैं। एक भी का एंट्री यहाँ से नहीं हुआ।सो बड़ी संख्या में मृत्यु दूत कोरोनो के नाम पर भेजे जा रहे हैं। जहां २०  मार्च से  २० म ई तक ६० ही थे आज २९ तक ३६० लोगों की बुकिंग हो गये हैं।
      अब महज ९-१० दिन में यह हाल है तो अब तीन माह बाद रोजी रोजगार से वंचित लोगों के जान से अधिक जहान प्यारा हो गया है। फलस्वरुप सप्ताह में ६ दिन  सुबह 7 से ,शाम 7 तक हर तरह की दूकाने खुलेन्गे पहले जान है तो जहान हैं था अब जहान है तो जान है हो गये हैं।  
  तो इस तरह श्लोगन बदल दिए गये हैं। बल्कि हर कोई को कंठस्थ करा दिए गये हैं कि" कोरोना के संग जीना हैं। "
   आवश्यकता कैसे आविष्कार की जननि हो जाते हैं। यह इनके नायाब उदाहरण हैं ।  
       यार ये तो ठीक हैं पर तेरे संग जीना तेरे संग मरना की तर्ज पर क्यों इन्हे प्रचारित नहीं करते ?
क्योंकि हम जैसे मोटे बुद्धि वालों को जीना तब तक समझ नहीं आते जब तक कोई सामने मर नहीं जाते ।  सच में जब पुलिसिया ठुकाई नहीं होती तो कर्फ्यू यहाँ अकारण सक्सेस नहीं होता।इसलिए जब तक निराशा और खौप  का अंधेरा नहीं दिखाओं तब तक लोग "आशा की किरण" भरी टार्च खरीदते नहीं ।हमारे अग्रज परसाई जी ने इसे वर्षो हमें लिखित में बता दिए थे।
      तो जो है सो हैं अब भयानक संकट के कारण  जो दैनंदिनी में बदलाव आया और रेहड़ी फेरी वाले रोजगार विहिन हुए उन्हे बचाने न चाहकर लाकडाउन में ढील दिए जा रहे हैं। सच तो है लोग घरों में भूखे न मरे इसलिए कमा कूद कर  खाते पीते भले संक्रमित हो जाय। उनके इलाज कर लिए जाएन्गे ।हमारे पास अब इन तीन महिनों में आग लगने के बाद कुछ कुए खोद लिए गये हैं। टाइप वेंटी लेटर सेनेटाइजर व माक्स आ गये।अन्यथा बैपारी भाऊ लोग तो शुरु को करोड़ो कमा दबा लिए ।
   अब देखो न उस दिन नमक नहीं कहके १० रु की  नमक को १०० में बेच दिए ।यह है हमारी कारोबारी जगत का कमाल।
बिहारी ने बकारी देत इन ब्यापारी की गुण का चित्रण किस खूबसूरती से किया हैं-
खुली अलक छूटी परत है बढ गये अधिक उदोतू।
बंक बकारी देत ज्यों दाम रुपैया होतु।।
  तो सारे अर्थशास्त्रियों को इसका मरम समझना चाहिए। 

  बहरहाल हमारे लिक्विड गोल्ड धार्मिक स्थलों के हार्ड गोल्ड से अधिक उपयोगी हुआ और बंद पड़ी इंजन पटरी में आ आए ।शराब अपने साथ बस रेल वायुयान तक चला दिए ...सुनने में आ रहा है कि  हमारे चरौटा भाजी की डिमांड अमेरिका में हो रहे हैं। सोमारु पुछ रहे थे कि भईया हमर मौहा लांदा बासी चटनी ल तको ले जाय हमन  कोरोना ल मतौना देके मार गिराबोन।
     ये दे उड़ीसा के पुजारी हर शास्त्रीय पद्धति ले  नरबलि देके कोरोना ल कसरहा कर दिस । अब परंपरावादी मन हुकरत भुकरत कोरोना हमर काय कर लिहि कहिके अटियाय ल धर लिस ।सिरतो कहत हव आचेच ले ४ था लाकडाउन ह  खतम हो गय। यानि शिथिल करके सामान्य धोषित कर दिए जा रहे हैं। जब एक केश था हम तीन महिने कैद थे घरों में अब ३६० केश है तो उनके ही तोड़ ३६० दिन छुट्टा घुमें फिरे खाए खेले कुदे नाचे ... कुछ दुरिया बनाकर मुखटोप लगाकर क्योकि अब कोरोना के संग जीना हैं। 
  हमें लगता है सवा अरब लोगों को महज ३ महिने में कोरोना के सञग जी‌ना सीखा दिए गये हैं। ऐसे महान सिखावनहारों को नमन ।
    जय जय ...

           -डा अनिल भतपहरी

Monday, May 25, 2020

समारु अउ मंगलू के गोठ

।।समारु अउ मंगलू के गोठ ।।

"अलकरहा गदर -फदर मांस -मछरी ,साप- बिछी ,चिरई  चुरगुन, फाफा- मिरगा ,मेकरा- माछी  ,चमगेदरी -समगेदरी अउ कुकुर माकर मन ल मिंझार के खाही त उकर मुडा न इ पुरही ग । सवाद लगाके खाय मं  ये कोरोना महामारी फइले  हवे गा । जनामना मनसे ल हाही आगे हवे जतका जिनिस हे सब कमती हे। उनखर बर अब भुगतत हे अउ  हमु मन ल भुगतावत हवय।"

तरिया पार मं दतुवन घीसत समारु कहिस , त ओकर बोली के चिबोली देवत मंगलू कहे लगिस -
"अउ मंद -संद पी  खाके टुरा- टानकी मन के खुल्लम -खुल्ला चुमई -चटई  ह‌र निपोर ओखी के खोखी कर दिस ।"
तय हर यार मंगलू एकदमेच फोर के कहिथस कोनो सुन डहरी त का समझही अउ हमर इज्जत का रहि जाही ?ते पाय के अइसन गोठियाय म कनउर लगथय । समारु हर अपन संत पना अउ धीर गंभीर सुभाव  के सेती अड़ताफ में जाने जाय। त मंगलू हर अपन जोकड़ाई अउ पच -परगट कहे के नाम से सगा -सोदर मन मं जाने जाय।

       आज मउका मिलिस त उधेनतेच जात हवय ।जनामना आजेच मनरेगा के  गोदी ल  पुरो के रही ।

"सही कबे मंडल त ये कोरोना बइरी हर सब मनखे मन ल बड़ अकबका डारे हवय ।जीव ह टोटा म अरझे बानी लगथय अउ रतिहा टी बी म  समाचार  सुनबे त  करेजा मुंह म आय बानी लगथे ...! उदुक ले  आके फुदुक ले से देश भर म फइलत चले जात  हवे।
    मंगलू के गोठ के बीचेच म कहिस -'हव ग जब कहुंचो फइले नइ रहिस त कम इया -खवइया मजदूर मन ल सरकार जिहा तिहा दु दु महिना ल बिन रोजी रोजगार के धांध दे रहिस।"
   अउ जब जादा फइल गे तब सब झन लाने- लेगे बर रेल मोटर गाडी चला दिस । उन बिचारा मन के क रल ई देख रो रोवासी नई  आवय..खांध के.पंछा मं आंसू पोछत कहीस ।
"अब देखब एखर से सब राज के गांव गांव फ इलत चले जात हवय। ये हर अउ बड बिलहोरन लगत हवे! "मुखारी ल चाबत अउ सीपत समारु मंडल कहिस।
       अच्छा मंडल एकर आय ल मनसे मन छट्टा -छुट्टा होगे तौन बने बात आय।अब देख ले जर सर सर्दी बोखार मन धरत न इये भलुक सब जगा बने सुधरत जात हवे ।नदिता नरवा हवा पानी ये वातावरण जम्मों सुधरगे। पवन पुरवाई बने चलत हवय चिर ई चुरुगुन मन गाय गुवाए ल सीख गिन ।
   हा सही कहत हस अतका सुधार तो दिखत हवय  भलुक अब छट्टा सट्टा अतेक बाढगे कि बाबु पिला माई लोगन मन एक दुसर बर कुरा ससुर अउ डेढ़सास लहुट गय ।

     समारु हांसत कहिस -"बने कहेस मंगलू असने मान मरयादा म रहई हर बने आय अब  सबो झन ल असनेच रवे लगही ।"
      "नहीं मंडल तोर असन संत ल फरक न इ परत होही फेर हमर असन देहगिरहा मन बरजीअई हर अलकर लगत हवे। न भाव न भजन न पाव पैलगी । अउ त अउ असनेच रही त नसबंदी वाले मन के काम -बुता तको नइ सटक जही मंडल ?  मया -पिरित तको दुनिया ले नंदा जही लगत हवे।"ठठा के मंगलू  हांसे लगिस ।

  ओती सयकल मं आत अनिल हर उकर बताचिता ल  सुन के बिधुन हांसे लगिस -" बने बने बबा हो जय जोहार!"
 उहु मन जोहार ले  कहिन ।
थोरिक ठाड़ होके हालचाल पुछिस अउ ट्रन- ट्रन घंटी बजात/ पैडल मारत स्कूल डहन चल दिस जिहा दुसर राज ले कमाय- खाय बर गय लोगन ल १४ दिन बर क्वारंटाइन म राखे हवय,तेकर हाल -चाल जाने। 

          - डा अनिल भतपहरी 9617777514

समारु अउ मंगलू

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Saturday, May 23, 2020

संगदिल

आपके वास्ते छकड़ी हमरी 

कैसे चले संग जब राह न हो न मंजिल ।
ऐसे ही कटते जा रहे है दिन बड़ी मुश्किल‌ ।।
कोई न हमराह सच्चा न कोई हैं संगदिल ।
देख लिया दुनिया को है बड़ी तंगदिल ।।
मीत सी लगती पर है वे ज़ालिम क़ातिल ।
इस तरह से है वो मेरी जिन्दगी में शामिल ।।

बिंदास कहें -डा. अनिल भतपहरी

Thursday, May 21, 2020

पानी नइये

"पानी नइये" 

का कहव संगी मय  का सुनब संगी तय 
कहे सुने के अब तो कहानी नइये 
तोर मोर बीच गाथा  सुहानी नइये
बस गरजना हाबे बादर म पानी न इये 

मारत  फुटानी टुरा बरा भजिया खाथे
फेर काबर काचा मिरचा कर्सस ल चाबे 
चिरपुर बड़ देख बिचारा कइसन कलबलागे 
हद होगे होटल म पानी नइये बोतल म पानी न इये ...

असनादे खुसरे समारु अपन नहानी घर म 
चुपरत साबुन मगन गावे गीत सुहानी घर म 
आंखी मं परे गेजरा नल पोछत पंछा म चेहरा  
बाल्टी मं पानी नइये डोलची म पानी नइये ....

लगिन के नेवता भेजे हावे समयदास 
जिहा दार भात उहा पहिदे माधोदास 
दमकाते साठ थारी भात रेन्गे बाहिर सोज्झी धाट 
नरवा म पानी न इये तरिया म पानी न इये ....

हमर पारा के पंचू भाई बनगे हवे पंच 
फटफटी म किंदरत हे मंदहा सरपंच संग 
मंत्री साहेब मन संग चलत हवे परपंच
मुड़ी कटइय्या जनता बर कोनो राजा रानी नइये ...

चल बने टूरी मन होवत हे टूरा मन ले आघु 
फेर उकर करसतानी ले कइसे इकर करसतानी आघु 
चुंदी नइये न फूंदरा अउ हवे मुड़ उघरा 
बराबरी के चक्कर मं करे काम अलकर 
बरदानी ओकर आचर फेर निरलजई होत काबर
आंखी मं अब तो पहली कस  लाजवानी नइये 
जवानी तो हे फेर जवानी के रवानी नइये ...

का कहंव संगी मंय का सुनब संगी तंय 
कहे-सुने के कोन्हों कहानी नइये
अब तोर-मोर गाथा सुहानी नइये 
बस गरजना हवे बादर मं पानी नइये ...
अब तोर मोर बीच गाथा सुहानी नइये 
बस गरजना हवे बादर मं पानी नइये

डा अनिल भतपहरी
९६१७७७७५१४

सीख

।।सीख ।।

हदरते मन को देतें रहे  दिलाशा 

मिलेगी मंजिल कभी‌ न टूटेआशा 

लक्ष्य  एक  नही  न राहें  हैं  एक

पल-पल परिवर्तित चाह-राह अनेक 

चलने का बस हौसला हो हरदम

विफलताओं से कभी न हारे हम

करे चयन जो हो रुचिकर आसान

भले रखें थोड़ी -बहुत उनपर कमान

हो निरंतर अभ्यास लगे रहे सो जाने 

पुरखों की सीख मन वचन कर्म से माने 

        -डा. अनिल

Wednesday, May 20, 2020

पानी न इये टुरी मन के

"पानी नइये "
चल बने टूरी मन होवत हे 
टूरा मन ले आघु 
फेर उकर करसतानी ले कइसे 
इकर करसतानी आघु 
चुंदी नइये न फूंदरा 
अउ हवे मुड़ उघरा 
बराबरी के चक्कर 
म करे काम अलकर 
बरदानी ओकर आचर 
फेर निरलजई होत काबर
आंखी मं अब तो पहली कस  
लाजवानी नइये 
जवानी तो हे फेर 
जवानी के रवानी नइये ...
का कहंव संगी मंय का 
सुनब संगी तंय 
कहे-सुने के कोन्हों कहानी नइये
अब तोर-मोर गाथा सुहानी नइये 
बस गरजना हवे बादर मं पानी नइये ...
             💧💦
         Save Water 
        डा. अनिल कुमार भतपहरी

Tuesday, May 19, 2020

ऐतिहासिक ग्राम जुनवानी के भतपहरी परिवार और सामाजिक दायित्व

" ऐतिहासिक ग्राम जुनवानी के भतपहरी परिवार और उनके सामाजिक दायित्व " 
 
           आजादी के पूर्व यहां तक गुरुघासीदास बाबा जी के संग मिलकर समाज सेवा में भतपहरी परिवार अग्रणी रहा है। एक पिता के चार बेटे  ललवा ,नोहरा, भारत और  बंशी नामक चार भाईयों के परिवार से गुलजार जुनवानी के यह चार भाई ही कुलदेवता की तरह यहां पूज्यनीय  है। इनके नाम से हुमन -धूपन देकर विध्नबाधाओं से मुक्ति की प्रार्थाना की जाती है। इनके ही वारिशान लोगों के संरक्षण और जीवट परिश्रम के बलबूते  निकले काली फर्शी व टूट बोड्डल पत्थरों को तराशकर भव्यतम मोती महल भंडारपुरी  गुरुद्वारा तेलासी बाडा  निर्माण हुआ। यहाँ के पत्थर शिल्पकार अपना अनुपम योगदान दिए।  
      सतनामी राज्य की नव नियुक्त राजा  गुरुबालकदास के सिपहसलार व  सच्चा सिपाही यहां के समकालीन युवक रहे। फलस्वरुप उनके और उनके मित्र राजा वीर नरायणसिंह का आगमन हुआ है।
       स्वतंत्रता आन्दोलन में भी यहा के लोग सम्मलित रहे । प्यारी बबा को स्वतंत्रता संग्राम सेनानी पेंशन मिलते थे।
    डा अम्बेडकर के निकट सहयोगी मंत्री नकूल ढ़ीढ़ी जी उनके बहनोई महंत नंदूनारायण भतपहरी (हमारे छोटे दादाजी ) के अभियान में  पूरा गांव  साथ रहा .. फलस्वरुप यहां की प्रभाव आसपास पड़ा ।
ब्रीटिश जमाने से साक्षर आज इस ऐतिहासिक ग्राम की अपनी विशिष्टता है। यहां की प्रतिभावान लोगों में छत्तीसगढ़ के अंबेडकर के नाम से ख्याति लब्ध परिक्षेत्र का प्रथम हाई कोर्ट एड मनोहरलाल भतपहरी आर पी आई के रायपुर लोकसभा के  उम्मीदार  के  रुप बड़ा लीडर रहा है। साहित्यिक व सांस्कृतिक प्रतिभा सम्पन्न बहुमुखी प्रतिभाशाली  प्रप्राचार्य सुकालदास भतपहरी थे। व बिहारी जांगडे विकास अधिकारी रहा।  पृथक छत्तीसगढ़ आन्दोलन के जेलयात्री नकूल ढीढी के साथ  चंद्रबलि किसन भतपहरी व उनके मित्र थे। फत्ते, मनराखन  ,चैतू  मनी राधे जमुना प्रेमदास जनप्रतिनिधी    शासन - प्रशासन में प्रभावशाली पदों पर रहे ।एड भुवनलाल भतपहरी अध्यक्ष अनु जाति आयोग म प्र आज भी स्वस्थ व सक्रिय है। वर्तमान  उच्च शिक्षित युवा  सुनील भतपहरी विगत २० वर्षों से पानी पंचायत  ,जिला पंचायत , ग्राम पंचायत में नेतृत्व करते आदर्श ग्राम धोषित करवाकर विविध विकास के धाराओं को गतिमान किए हुए हैं। 
       महज एक परिवार और उनके कुछ बेटी  दमाद परिवार  से आबाद  छोटे से गांव में अन्यत्र शोषण दमन से मुक्त समानता और एकता  का बेमिशाल आदर्श ग्राम है  जिनकी ख्याति दूर -दूर तक है।जहां  सेवानिवृत और वर्तमान में ४० -४५ से ऊपर अधिकारी कर्मचारी  डा  प्रोफेसर  शिक्षक वकील  जज इंजी  तथा अपनी  निष्ठायुक्त जीवट कार्यक्षमताएं/ नेतृत्व से शासन-प्रशासन में  छाप छोड़ रहे है। यहां प्रदेश के सभी बडे राजनेताओं का आगमन जयंती समारोह में  होते रहा है। प्रदेश के यशस्वी नगर विकास एंव श्रम मंत्री डा शिव डहरिया यहाँ के लाडले दामाद हैं। जो उनके दोनो विधानसभा पलारी और आरंग के ठीक मध्य में स्थित हैं।
       पत्थर खदान और कृषि  वहां  कठोर परिश्रम का प्रतिफल  संधर्ष पूर्ण पुरुषार्थ भरा जीवन सफलता अर्जित करने के प्रेरक तत्व रहा है। इसी बहाने थोड़ी सी पारिवारिक पृष्ठभूमि बताकर हमें हर बार की तरह गर्वानुभूति होते है कि इस वंश के हम वारिश है।
बहरहाल पूर्वजों  गुरुबाबा एंव समाज का  आशीष मिलते रहे ताकि समाज सापेक्ष  बेहतरीन कार्य कर अपने जीवन को ये नव समाज सेविकाएं  सफल कर सके...परिवार के उत्तराधिकारी  होने के नाते हमारा भी समर्थन व अपेक्षित सहयोग है। 
       -डा. अनिल भतपहरी

Monday, May 18, 2020

कोरोना और करुणा

कोरोना और करुणा 

एक खतरनाक वायरस जो महामारी का रुप लेकर  मानव प्रजाति के ऊपर तांडव मचा रही हैं। तो दूसरा समश्रुत  शब्द पीड़ित मानवता  व जीव जगत के प्रति दया और कृपा बरसा रही हैं।
       अनेक संत -महात्मा गुरु आए और जनमानस को नैतिक बोध कराए कि सात्विक खान -पान ,रहन- सहन रखे एंव जीव जगत के प्रति करुणा मय रहे ! यानि की सस्टनेबल डेवलपमेंट की बाते कहें जैव विविधता को कायम रखने प्रकितस्थ रहने की बातें की और उपदेशना दिए  ।पर कम्बख्त मनुष्य और उनकी अनन्य लिप्सा ! वे कथित शिक्षित व विज्ञानवादी होने दंभ में जीते इन्हे ढोंग- पाखंड कह मखौल उडाएं, फब्तियां कसे फलस्वरुप अधिक चाह में अनन्य विलासी होकर तताम सीमाओं और मर्यादाओं को लांधे। आज दुनियां की संप्रभुताएं चंद लोगों की मुठ्ठियों में कैद हैं उनकी हनक और सनक कब पृथ्वी में प्रलय ला दे कह नहीं सकते पर उनके पूर्व प्रकृति सचेत हुई  फलस्वरुप माल्थस  की उलाहना रंग दिखाने लगी। 
           सर्वत्र  हाहाकार मची हुई हैं, जिस धन और विलास की सामाग्रियों के लिए मरे जाते वह युं ही सजा- धजा  पड़ा हुआ हैं।" चना है तो दांत नहीं दांत हैं तो चना नहीं" की बेबसी सर्वत्र छाने लगी हैं। आज अमीर -गरीब समान रुप से अपने घरों में कैद दाल- चावल,  रोटी-सब्जी ,आचारादि  खाकर गुजारा कर रहे हैं।क्योंकि अब ऐश और शौख़ नहीं जीना जरुरी हैं। घोर मांसाहारी लोग शाकाहारी हो रहे हैं। इन ३-४ दिनों में करोड़ों नीरिह  पशु- पक्षी ( मु्र्गे, बकरे, सुअर,  भेड़, कुत्ता, गाय ,खरगोश और  मुर्गे बटेर बत्तख आदि ) की हत्या थमी और उनपर प्रकृति की करुणा बरसी।
  मनुष्य का कभी खत्म या पूर्ण  न होने वाले शौख़ और उनके क्रुरतम स्वभाव (चाहे वह शाकाहारी हो या मांसाहारी ) का  ही यह परिणीति हैं कि आज हर कोई एक दूसरे पर करुणा कर पा रहे हैं। सबकी चिन्ता होने लगी  क्योंकि "ये है,तब हम है।" की बातें असानी से समझ आने लगी हैं। सभी व्यग्र है कि कही से किसी का  करुणा और कृपा बरस जाय ।चाहे वह (ज्ञान का हो या विज्ञान का डाक्टर वैज्ञानिक का हो या संत गुरु का शासन का हो या प्रशासन का ।) किसी का हो। यह हुआ निगोड़ी कोरोना के कारण । चंद पल ही सही करुणा ऊपजी तो सही। आशा है कि अब सभी पृथ्वी पर  महाकारुणिक की कृपा से  एक दूसरे की चाह लिए करणामय रहेंगे ।
      आज देखिए दुनियां को गढ़ने वाले अपनी खून पसीने से कल कारखाने बहुमंजिला इमारते सड़क पूल निर्मित करने वाले मजदूर लाकडाउन के चलते देश के अनेक जगहों पर फंस गये हैं। उन्हे समुचित उनके घरो तक पहुचा दे ऐसी व्यवस्था नहीं हो सका हैं। फलस्वरुप परदेश में यु भूखे न मरकर गांव घर और परिजनों के पास जाय सोचकर पैदल सायकल या जो साधन मिले गठ्ठर बांध निकल पडे है। हाइवे पर इन प्रवासी मजदुरों की दयनीय दशा देख कर मन विचलित हो रहे उन्हे अनेक तरह के आधारभूत सुविधाओं मुहैया कराना केवल सरकार की जिम्मेदारी नहीं बल्कि हर करुणा मय संवेदनशील इंसानो की हैं। अनेक संस्थान व व्यक्ति सामने आए भी पर यह ऊँट के मुंह में जीरे के समान हैं। 
    आव्रजन करते इन मजलूम श्रमिकों मजदूरों की दयनीय दशा असह्य हैं। ये लोग जाने अनजाने  कोरोना वायरस के चपेट में भी आ रहे हैंऔर  इनसे संक्रमण भी फैल रहे हैं।
    सरकारों को चाहिए था कि जो जहां पर है उनकी खाने पीने रहने की निःशुल्क व्यवस्था करके प्रत्येक लोगों को जिला मुख्यालय में क्वारंटाइम में रखते और बसों रेल आदि द्वारा चरणबद्ध तरीके से उनके प्रदेश गांव घर पहुचाते पर अन्यान कारणों से ऐसा हो नहीं सका यह दुर्भाग्य हैं। इस तरह से हम देख रहे है कि 
वैश्विक महामारी कोविड -19 कोरोना के कहर से पुरी मानवता दहल रहे हैं। इस दारुण दु: ख के समय  केवल प्रभावित और प्रवासी मजदुरों को राहत दिलाने सहायता होनी चाहिए राजनीति नही। 
      राष्ट्रीय आपदा में सभी जनप्रतिनिधी शासकीय/ अशासकीय अधिकारी/ कर्मचारी  और सेवादार  संगठन के लोग  पार्टी लाइन या किसी  विचारधाराओं से हटकर मानवतावादी दृष्टिकोण से सहायता करे और अपना प्रभाव यदि है या रखते हैं तो श्रमिकों और पीडित लोगों के लिए लगाए। किसी को इम्प्रेस्ड करने के लिए नहीं ।
                 वक्त  " वे रहेगें तो हम रहेन्गे "जैसी सोच विकसित करने का हैं।
             कोरोना 
"कोरोना के सेती फइले हे सब जगा महामारी 
देख दुरगति मनखे के, का  कहिबे संगवारी
का काहिबे  संगवारी ,मरगे  लाखों  पटापट 
छै  हाथ छट्टा  राहव झन  राहव  लटालट 
मुखटोप बांधव मुँह मं हर धंटा हाथ परही धोना 
माई-पिला रहव घरेच मं तभेच भाहगी कोरोना "

             जय सतनाम‌ - वंदे भारत
डां. अनिल कुमार भतपहरी 
     सी 11 ऊंजियार सदन 
सेंट जोसेफ टाउन अमलीडीह रायपुर

Sunday, May 17, 2020

सतनामी इतिहास संगठन संधर्ष और समाहार

*🌻नारनौल के सतनामी एवं 1672 का विद्रोह 🌻*

*➖ आइये जानने का प्रयास करें - - -* 

*➡ नारनौल* एक परिचय :

➖भारत के , *हरियाणा* प्रांत के *महेन्द्रगढ* जिला में स्थित ।जिले का *मुख्यालय* भी है ।

*➖ दिल्ली से :* 75 मील दूर ( दक्षिण पश्चिम में स्थित )

*➖जनसंख्या :* 
   74581 ( जनगणना - 2011 )

*➖मुख्य भाषाएं :*

    हरियाणवी , पंजाबी व हिंदी ।

➖सन् 1657 में *" सतनामी संप्रदाय (SATNAMI SECT )"* की स्थापना : द्वारा - *संत वीरभान* 

*➡ सतनामी संप्रदाय (SATNAMI SECT )* के पीछे की पृष्ठभूमि :

➖भारत की सबसे प्राचीन सभ्यता : *हड़प्पा - मोहनजोदाडो* व *सिंधु घाटी* की सभ्यता है , जो *श्रमण संस्कृति* के नाम से विख्यात है :

*▪श्रमण संस्कृति* के : 3 मुख्य आधार :

*1 - श्रम :* मेहनत कर के जीवन यापन ।

*2 - सम :* सबको बराबरी प्रदान करना / करवाना ।

*3 - शम :* अर्थात शमन का अर्थ है  - अपने *वृत्तियों* को शांत रखना , उनका *निरोध करना* ।जो व्यक्ति अपनी *वृत्तियों* को संयमित रखता है : वह *महाश्रमण* है ।

➖@ 1800 ईसा पूर्व विदेशी *आर्यों का आगमन* भारत में हुआ :

*▪श्रमण संस्कृति* के विरोध में  : *वैदिक संस्कृति* का *सृजन* और *संचालन* किये ।

*▪वैदिक संस्कृति :* 

*1 - ब्रह्म* को ही *मोक्ष* का आधार मानता है ।

*2 - वेदवाक्य* को ही *ब्रह्म वाक्य* मानता है ।

*3 - ब्रह्म थ्योरी* पर चलना अनिवार्य किया गया ।

➖ वैदिक संस्कृति / ब्रह्म थ्योरी के चलते : भारत के *मूलनिवासी* ( श्रमण संस्कृति वाले ) , मुख्य रूप से *तीन धड़ों* व *हजारों जातियों* में बट गये :

*▪पहला धड़ा  :* ब्रह्म थ्योरी आधारित संस्कृति के *समर्थक* - इन्हें ज्यादा सहूलियतें मिली ।

*▪दूसरा धड़ा :* ब्रह्म थ्योरी आधारित संस्कृति को *नहीं मानें* , लेकिन अपने आप को *दूसरों से अलग* कर लिये ।

*▪तीसरा धड़ा :* ब्रह्म थ्योरी को *नकारते* व *विरोध* करते रहे ।

➖वैदिक संस्कृति के *संचालकों* ने : ब्रह्म थ्योरी संस्कृति के *विरोधियों* को *कड़ी से कड़ी सजा* दी ।तथा इनकों आपस में *तोड़कर* रखने का प्रयास किये / करते रहेंगे ।

*➖समय* व *परिस्थिति* के आधार पर : प्रताड़ित जातियों के *जानकार / Better Guts & BetterBrain* वाले , सभी  प्रताड़ित जातियों को एक साथ ला कर , *मुकाबला* के उद्देश्य से : *संप्रदाय / पंथ / धर्म* आदि का *प्रयास* करते रहे हैं ।

➖ ऐसे ही प्रयास : *संत वीरभान जी* ( मूल गांव : *बीजासर* " नारनौल के पास " )  द्वारा , नारनौल में सन् 1657 में *" सतनामी संप्रदाय ( SATNAMI SECT )"* का  *सृजन* व *संचालन* किया जाना है :

*▪सतनामी संप्रदाय में :* *एक ही जाति* के नहीं , अपितु  *अनेक पीड़ित / वंचित जाति* के जागरूकों का , एक विशेष विचारधारा ( मानवतावादी / *श्रमण संस्कृति* के रक्षा ) के प्रयोजनार्थ  है ।

➖इस तरह की प्रक्रिया : 

*▪महामानव गौतम बुद्ध* ( 563 ई पू - 483 ई पू ) ;

*▪संत कबीरदास जी* ( 1440- 1518 ) ;

*▪गुरु रविदास जी* ( 1450 - 1520 ) ;

*▪गुरु नानक देव जी* ( 1469 - 1539 ) ;

*▪ गुरु घासीदास जी* ( 18 दिसंबर 1756 -  20 फरवरी 1850 )

      - - - आदि ने भी *प्रयास* किये व *सफल* भी हुए हैं ।

➡  भारत वर्ष में : *श्रमण संस्कृति* व *वैदिक संस्कृति* ( ब्रह्म थ्योरी आधारित संस्कृति ) , *एक दूसरे पर हावी होने / भारी पड़ने* की कोशिश *तब से अब तक* होती रही है :

*➖विदेशी आर्यो* के भारत आने के *पहले* ( @ 1800 ई पू के पहले) - - - - *श्रमण संस्कृति* की दबदबा ;

*➖ विदेशी आर्यो* के भारत आने के *बाद* ( @ 1800 ई पू के बाद )- - - -  *श्रमण संस्कृति* को *चुनौती* की शुरुआत ,  *वैदिक संस्कृति* ( ब्रह्म थ्योरी आधारित संस्कृति ) का *दबदबा बढ़ना* चालू ;

➖ आर्यो के सबसे *पुरानी* ग्रंथ *" ऋग्वेद "* ( @1200 ई पू ) लिखे जाने के बाद - - - *वैदिक संस्कृति*  ( ब्रह्म थ्योरी आधारित संस्कृति ) *विधिवत* रूप से लागू ;

*➖महामानव गौतम बुद्ध* के प्रादुर्भाव ( 563 ई पू - 483 ई पू ) के बाद - - - *श्रमण संस्कृति* का दबदबा ;

*➖ मौर्य शासक सम्राट अशोक* ( 304 ई पू  - 232 ई पू )  द्वारा *कलिंग युद्ध से सबक* के बाद - - - *श्रमण संस्कृति* के दबदबा में *आशातीत* बढ़ोतरी ;

*➖मौर्य शासक बृहद्रथ* की हत्या - *पुष्प मित्र सुंग* द्वारा :  ( @180 ई पू ) के *बाद* - - - *वैदिक संस्कृति* ( ब्रह्म थ्योरी आधारित संस्कृति ) की *दबदबा* ; 

*▪मनुस्मृति* - सुमति भार्गव के द्वारा लिखित ( @ 170 ई पू - 150 ई पू ), लागू होने के बाद - - - *वैदिक संस्कृति* ( ब्रह्म थ्योरी आधारित संस्कृति ) *सख्ती* से लागू ;

*➖आदि शंकराचार्य* के प्रादुर्भाव  ( 788 ई - 820 ई ) के बाद - - - *आधुनिक बाह्मण दर्शन* ( ब्रह्म थ्योरी आधारित संस्कृति ) *नये सिरे* से निर्धारित / परिभाषित :

*" बिना सांस्कृतिक एकता के , बिना विचारों  के एक छत्र साम्राज्य  के राजनीतिक एकता टिकाऊ नहीं है ।राजनीतिक एकता के मूल में सांस्कृतिक एकता चाहिए । सांस्कृतिक एकता हुयी  तो ,राजनीतिक एकता के लिए प्रयत्न करने वाले वीर जन्म  ले सकते हैं । सांस्कृतिक एकता के होते , राजनीतिक  विभिन्नताएं भी राष्ट्र का गला घोंट नहीं सकतीं  ।"*
 -- आदि शंकराचार्य

*➖ आर एस एस*  की स्थापना ( 27 सितंबर 1925 ) के बाद - - - आदि शंकराचार्य के *" ब्राह्मण दर्शन "* पर *सत प्रतिशत* अमल शुरू ;

*➖भारतीय संविधान* ( 26 जनवरी 1950 ) के लागू होने के बाद - - -  सैद्धांतिक रूप से  *मनुस्मृति पर रोक* लेकिन  *व्यवहार* में , *वैदिक संस्कृति* ( ब्रह्म थ्योरी आधारित संस्कृति ) और *श्रमण संस्कृति*  ( भारतीय संविधान आधारित संस्कृति ) में *टकराव जारी* । 

*➡  सन् 1657* में : *संत वीरभान जी* ने अपने भाई  *संत जोगीदास जी* के  सहयोग से , *नारनौल* में *" सतनामी संप्रदाय (SATNAMI SECT ) / सतनाम पंथ "* की नींव डाले : 
     " जिन्हें  ( *Followers* को )  *मुडिया* भी कहते थे ;"

*➖उधोदास जी* ( जो श्रमण संस्कृति के महामानवों से , खास कर *" बेगमपुरा माडल "* से  प्रभावित धे ) से  *प्रेरणा* मिला था ;

*➖नारनौल सतनामी संप्रदाय* की मान्यताएं :

▪अंधविश्वास व रूढ़ीवाद के *सख्त विरोध* ;

▪मूर्ति पूजा के *विरोधी* ;

▪जाति प्रथा के *विरोधी* ;

▪शरीर व मन की *शुद्धता* ;

▪सच और सदाचारी ;

▪धन व संपत्ति पर *लालच नहीं* ;

▪अपना घर सहित , दुनियां भर के लोगों को *अपना ही परिवार* समझना ;

▪सरल स्वभाव और साफ कहना ;

▪धार्मिक कर्म काण्ड के बजाय आदत - व्यवहार में ही *" धर्म का मर्म "* ।

▪काम धंधों से : लोभ , मोह और अहंकार को *अलग* रखना ; 

▪पसीने की कमाई से ही *गुजर - बसर* करना ;

▪हिन्दू , मुस्लिम व अन्य समुदाय में *भेद नहीं* करना ;

*▪धैर्य* रखने का उपदेश ;

▪उत्पीड़न के खिलाफ , इसलिए *हथियार* ले कर चलना ;

▪दौलत मंदी की *गुलामी* व उनके सामने *झुकना* , बुरी बात समझना ;

➡ सन् 1672 में ,  *" नारनौल के सतनामी विद्रोह "* क्यों और कैसे ? :

➖ नारनौल में , *शिकदार* ( राजस्व अधिकारी ) के एक *प्यादे* ( पैदल सैनिक ) ने : एक सतनामी किसान द्वारा *" झुक कर सलाम नहीं करने "* के कारण , लाठी से किसान का *सिर फोड़* दिया ।

➖सतनामियों  ने उस *प्यादे* को *मार* डाले ।

*➖शिकदार* ने गिरफ्तारी के लिये टुकड़ी भेजा , लेकिन *कामयाब नहीं* हुआ ।

➖नारनौल के *फौजदार* को भी  , सतनामियों ने *मार* डाले ।

➖सतनामियों द्वारा : *स्वतंत्र सत्ता* स्थापित ।

➖राजपूत सरदारों ने मौके का *फायदा* उठाया : सतनामियों को *बदनाम* किये ।

➖दिल्ली के बादशाह *औरंगजेब* ने सतनामियों समझौता नहीं बल्कि  *कुचलने* का योजना बनाया : 

*▪जातिवादी मानसिकता* के कारण , *हिन्दू राजाओं* और *मुगल सरदारों* ने भी बादशाह का साथ दिये ।

▪राजस्थान के कई *राजपूत सामंतों* और दूसरे *सरदारों* को सतनामियों से *मात खानी* पड़ी ।

▪सतनामियों पर , तलवार , तोप के गोले *बेअसर* ।

▪सतनामी बादशाह के सेना से  लड़ाई लड़ते , दिल्ली से *16 मील* दूरी पर पहुंच गए ।

*▪" माता मीनाक्षी "* - एक बुजुर्ग महिला की *तजुर्बा* व *हौसलाअफजाई* का असर था ।

▪सतनामी अपने आप को *खातिम* - *" प्राण देंगे , लेकिन मैदान नहीं छोड़ेंगे "* की भावना से डटे रहे ।

➖सतनामियों से *समझौता नहीं* बल्कि *येन केन प्रकारेण कुचलने* की *नीयत* , बादशाह की रही ।

➖ औरंगजेब ( *जिंदा पीर* ) की *चालाकी :*

*" कुरान शरीफ की आयतें लिख - लिख कर अपने झंडों पर सिलवा दी ।"*

▪शाही फौज में *हिम्मत* आ गई , तोप खाने भी थे ।

▪पांच हजार सतनामी *मारे गये* , कम ही *जिंदा* बचे ।

▪ लेकिन *@ दो सौ अफसरों* को सतनामियों ने भी मार गिराये ।

*➖ राजा बिसेन सिंह हामिद खाॅ* और *मुगल सरदार* के प्रयास से , इन  हजारों  विद्रोही सतनामियों को *मार डालने* में सफल हुए ।

*➖राजा बिष्णु सिंह कछवाहा* ने भी मुगल हुकूमत को *साथ* दिया लेकिन उसका भी *हाथी घायल* हो गया था ।

*➖इलियट* और *डावसन* ने इसकी तुलना *महाभारत* से की :

*▪" मन्तखब - उत लुबाब "* : पार्सियन इतिहासकार *" खफी खान "* की ऐतिहासिक पुस्तक है ;

*▪" इलियट और डावसन "* इस पुस्तक के *अंग्रेजी अनुवादक:  1849* हैं  ।

*➖" A HISTORY OF AURANGJEB "* का नाम का लेख - *यदुनाथ सरकार* ने  *सतनामी विरोधी लेख* लिखा ;

▪ लेकिन  *" सतनामी : हिन्दू और मुसलमान में भेद नहीं करते "* वाली सच्चाई को छिपा नहीं पाया ।

➡ हरियाणा के इतिहास में , *अमिट इतिहास* जुड़ गया :

➖सतनामियों का *स्वर्णिम इतिहास* बन गया ।

➖मथुरा - आगरा के जाटों के लिये एक *मिसाल* बन गई ।

➖उनकी *कुर्बानी* सामंती व जातिवादी *उत्पीड़न* के खिलाफ एक *दिशा* दिखाई ।

➖निश्चय ही : *भक्ति आंदोलन* ने *न्याय* और *समानता* के मूल्यों को आगे बढ़ाया :  सतनामी *धार्मिक चेतना* के घेरे में ही लड़ाई लड़ रहे थे ।

*➖सतनाम मिशन* की लहर , पूरे देश / विश्व , विशेषकर *छत्तीसगढ* में भी फैल गई / *दैदिप्यमान* हो गई ।

   कृपया  उपरोक्त विषय पर *चिंतन - मनन* कर , अपनी भी प्रतिक्रिया जरूर *शेयर* करें ।

धन्यवाद सहित

*एफ आर जनार्दन* 
बी ई ( सिविल ) , एल एल बी
*उप महाप्रबंधक  ( से नि  )* - भिलाई इस्पात  संयंत्र 
*पंजीकृत इंजीनियर* - भिलाई नगर  निगम

*मो* : 07898870543 ;

*इ मेल* : firatrjanardan@gmail.com

*दिनांक* : 17 मई 2020

दान और सेवा

प्रात: चिंतन 

दान और सेवा 

       गुरुघासीदास की अमृतवाणी है - " दान के लेवइया पापी अउ दान के देवइया पापी।"
        यह इतना सरल सहज है कि इनकी अलग से व्याख्या की जरुरत नहीं जान पड़ता ।जैसा है वैसा मान ले और दान देना लेना छोड दे! पर क्या यह इतना भी सरल हैं? सवाल यह हैं। आज संसार में अनेक व्यक्ति और संस्थान दान दक्षिणा में ही आबाद और फल‌फूल रहे हैं। देश के बडे बडे धार्मिक संस्थान और लोग इस दान वृत्ति के चलते अकूत संपदा बटोर लिए हैं। जिसके कारण भी तरह तरह के दर्प धमंड आदि पनप गये हैं। क्योकि जब संपदा व सञशाधन एकत्र हो जाय , उनके स्वामी बन जाय तो तरह -तरह के घमंड का आ जाना स्वभाविक हैं। और घमंड अमानवीय होते हैं अधर्म होते हैं। इससे पापचार होते हैं इसलिए सदगुरु का कथन कि भेदभाव व असमानता रुपी पाप के प्रतिभागी दान देने वाला और लेने वाला दोनो होते हैं। अत: ऐसी स्थिति न हो सब बराबर हो और दान के स्थान पर सहभागिता हो सबका सहयोग हो ऐसी मनोवृत्ति को जागृत कराये बढाए ।ताकि मानवता स्थापित हो उनका  संरक्षण हो 
        असल में उक्त कथन का मूल प्रयोजन  दानवृत्ति से किसी तरह से भेदभाव उत्पन्न न  हो यह है। दाता दर्प मे और याचक गर्त में जीने विवश हो रहे थे।
 दाता बनने लोग ऐनकेन प्रकरेण धन संपदा संचित कर अनेक लोगों को वंचित कर रहे थे इसलिये यह सर्वथा मौलिक और बेहद  प्रहारक व उद्वेलित करने वाली  अमृतवाणी गुरु के मुख से निःसृत हुआ।
     
   दान लेने- देने की मानसिकता ,परिस्थितियों और उनसे उपजे अमीरी -गरीबी उच -नीच वाली मनोदशा से संदर्भित हैं। इसलिए गुरु बाबा ने यह वाणी कहे कि समाज में समानता आए ताकि कोई दाता बनकर दर्प न करे और कोई याचक बन कर अपना मान स्वाभिमान नष्ट न करे । जाने अनजाने एक मानव द्वारा किसी मानव का उ कोई तिरस्कार न हो सके। 
    गुरुघासीदास के उक्त अमृत वाणी को लेकर समाज के कुछ विचारकों में अलग अलग तरह के मनोभाव हैं। सामने प्रत्यक्ष जो दिखता हैं उसे ही अकाट्य सत्य मान समझ लेते हैं बिना गहराई में उतरे फलस्वरुप किसी मदद , निर्माण या आयोजन हेतु दान और सेवा नहीं ‌करने‌ की कुप्रवत्तियां उत्पन्न होने लगे हैं। इसलिए हमारे  अनेक धार्मिक स्थलों में आधार भूत सुविधाएँ ही नहीं हैं। तथा इनके अभाव में प्रतिबद्ध साधु संत मंडली नहीं है जो सतनाम को जन जन तक पहुचाने में अपना सर्वस्व न्योछावर कर सके।
     जबकि किसी मत पंथ विचारधारा को जन जन तक पहुचाने किसी  परिपाटी, संस्थान और प्रतिबद्ध प्रचारकों की आवश्यकता होती हैं। दुर्भाग्यवश आज तक सतनाम में ऐसा नहीं हो सका।फलस्वरुप अराजकताएं हैं। हर कोई उपदेशक बना बैठा हैं श्रोता और अनुयाई नजर नहीं आते  और सेवादारों की निरंतर कमियाँ होते जा रहे हैं।
महंती पाने सभी बेताब है पर साटीदार बनाना गंवारा नहीं ।
    सतनाम पंथ को छोड़ दे तो किसी भी मत पंथ और सञस्थान में इस तरह की स्वेच्छाचारिता व अराजकताएं नहीं दिखता । फलस्वरुप वे कहां हैं और यह कहां पर हैं। असानी से देखे समझे जा सकते हैं । 
   ऐसे में कही  ऐसी स्थितियां निर्मित न हो जाए कि आगे चलकर किसी भूखे को भोजन तक न दे सकेन्गे ।
          बहरहाल ऐसे आदर्श वाक्य और सिद्धान्त इसी तरह के आयोजन के उपरान्त फलीभूत होते हैं। बेहतर संस्कार का सृजन होते हैं और अनेक तरह के सामाजिक सद्भाव सौहार्द प्रेम परोपकार आदि गुण विकसित होते हैं।
     गुरुघासीदास के समय भंडारपुरी धाम में ‌सदाव्रत भोजन भंडारा चलता था कभी भी किसी टाईम जाते सेवादार उपलब्ध रहता ।आज वहाँ पानी पिलाने वाला तक नहीं हैं। यही हाल अधिकतर सतनामी ग्रामों का हैं। एक जमाना था जब हमारे सम्पन्न  मंडल गौटिया अन्नदान भोजन और भूदान कर पंथ को व्यवस्थित करते थे रामत रावटियां और सत्संग प्रवचन साधु अखाडा  चलते थे।आज‌ इन सबके नाम‌लेवा नहीं ‌है।‌ हम पढ लिखकर शहरों में बसते जा रहे हैं। कालोनियों में ‌कैद होते जा रहे हैं। और केवल‌ कोरा बुद्धिजीवी बन एक दूसरे को ज्ञान उपदेश पेल रहे हैं। पर उपदेश कुशल बहुतेरे वाली संस्कृति में ‌जी रहे हैं। जो थोडे बहुत आयोजन कर भी रहे उनके भी मीन मेख निकाल उन्हे राजनैतिक प्रेरित मान आलोचना प्रयिलोचना में ‌वक्त बरबाद कर रहे हैं।
      यह बेहद चिन्तनीय व विचारणीय हैं।
   सदगुरु घासीदास जी उक्त  वाणी तभी सार्थक होन्गे जब समाज में समानताएं और संपूर्ण आय का समान वितरण हो पर यह होना संभाव्य नजर नहीं आते। सत्य की सत्ता स्थापित हो यह सभी चाहते हैं पर बहुत सी शक्तियाँ ऐसी हैं जो ऐसा होने नहीं देती। 
    ऐसे में उस परम सत्य और लक्ष्य के प्राप्ति  हेतु  निरंतर प्रयाण करते रहना चाहिए। यही सत पंथ या सतमार्ग  हैं ।इसके पथिक सतनामी हैं। जो दान और सेवा करते दान वृत्ति का उन्मूलन चाहते हैं ताकि इनसे कोई जाने अनजाने असमानताएं पुनश्च हमारे सक्षम खड़ा न जाय। 
          सतनाम पंथ और उनकी सरल सहज सिद्धांत जितने अधिक जन सामान्य तक पहुचेन्गे समाज समानता की ओर गतिमान होन्गे। अत एव अभी उक्त सिद्धान्त और पंथ को प्रचारित करने सेवा और दान की आवश्यकता हैं। कलान्तर में जब समाज में समानताएं आ जाय तब कदाचित् इनकी कोई आवश्यकता न हो।
   हर व्यक्ति सक्षम व सबल हो जाय यही आदर्श और उत्तम परिकल्पना गुरुघासीदास  का हैं। 

                      ।।सतनाम ।।

 डा. अनिल भतपहरी 9617777514

Thursday, May 14, 2020

लाकडाउन

लाकडाउन 

"परेशानियाँ ‌कहां नहीं हैं, बिना इनके जिन्दगी कैसे बीतेगी भला ?"
समझाते हुए वे कहें पर उनकी बातें लोगों को समझ आते ही कहां हैं इसलिए अनसुनी कर दी जाती हैं।
     बावजूद वे कहते कि हर हाल में जीने के लिए मस्ती न छोड़ो और मस्ती आती हैं नशे से चाहे वह धन का रुप का ज्ञान का या संतान का हो। 
      संकट के  हल निकालने सभी भयानक चिन्ताओं में डूबे हुए हैं। मतलब हंसी खेल कौतुक सब गायब हैं। फलस्वरुप बहुत तेजी से लोग डिप्रेशन में जाने लगे हैं।
उन्हें उबारने शराब और नशे आदि को लाकडाउन से छूट दिए जा रहे हैं। ताकि लोगों को व्यसन मिले और डिप्रेशन से मुक्ति भी।
    लोगों को पागल होने से बचाने के लिए फिलहाल  मधुशाला ही  चाहिए। मठ मंदिर मस्जिद गिरिजा गुरुद्वारा की जरुरत ही नहीं । क्योंकि ये इतनी पागल बना चुके हैं कि मत पूछो इनके कारण विश्वयुद्ध तक हो चूके हैं और लाखो नर बलियां दिए जा चूके हैं।
     बस्तर का घोटूल किसी धाम से कमतर हैं क्या ? जहाँ प्रेम और कर्त्तव्य के पाठ सामूहिक रुप से सहजता से सीखते हैं।जिससे  निरापद  जीवन जीए जाते हैं। 

क्या अब क्लब माल सिनेमा बार डांस  रेव पार्टियों जैसे चीजों के जगह स्वदेशी  चीजे प्रचलन में न लाया जाय? 
     मानवीय संबंध भी कैसा है कि हर चीज के उपभोग के बाद अतृप्त पना हैं। यह अतृप्ति ही उन्हे सक्रिय किए हुए हैं। भोग की पराकाष्ठा से ही विश्व संचालित हैं। योगी लोग तो दुनिया को अपने जीवन में ही तबाह कर दे?
   यह क्या सदाचारी रहो व्यसनी मत बनो तो तमाम सोनागाछी गंगा जमुना मोहल्ला चांदनी बार और शाम ए अवध कैसे रंगीन व महकदार होन्गे? 
    कजरी ठुमरी दादरा और ये कत्थक मोहिनी अट्टम या ओडिसी कैसे संरक्षित रहेन्गे । कितने कलावंत और सर्वाधिक ग्लेमर्स व संभावनाओं को समेटे फिल्मोद्योग की भठ्ठा बैठ जाएन्गे। हमारे नचनियों अभिनेताओं  ने जो कीर्तिमान बनाया वह तो राजनेताओं ने नहीं अर्जित कर पाया । इन जगहों से निकले लोग भारत रत्न तक हुए ।
 कैसे यह भूल जाय कि कीचड़ में ही कमल खिलते हैं। सच तो यह है कि कमल खिलाना हो तो कीचड़ बनाना पडेगा ।हाथ है तो उन्हे रोजगार देना होगा और रोजगार के हजार रास्ते हैं। 
 बहरहाल ग्लैमर्स के  देखा सीखी आजकल  कथित धार्मिक   बाबाओ एंव  माताओ ने भी ग्लेमर्स को अपनाकर जो दिखता वह बिकता है की शानदार परिपाटी विकसित किए हैं। क्या वह एक झटके लाक डाउन हो जाय ?
   और तो और अब स्वदेशी का नारा जोर शोर से होना आरञभ हुआ ।लधु मध्यम व कुटीर उद्योग आत्मनिर्भरता लाएन्गे  तो उनके उपभोक्ताओं का होना आवश्यक हैं। गंजे लोगों की बस्ती में कंधी बेचा ही नहीं जा सकता ।
    अंग्रेज मुफ्त में चाय पिलाकर लती किए और आज चाय सकल ब्रिटेन की आय से अधिक कमाकर दे रहा है। तो भ इये जहा    महुए  फूल  है  तेंदू व  तंबाकू पत्ता हैं। वहाँ आप सत्संग प्रवचन नहीं करा सकते इसलिए  आत्मनिर्भरता के लिए यह आवश्यक है ।
क्या यह संभव है कि महुए ,सल्फी ताड़ी व लांदा  का उत्पादन  न करे और बीडी तंबाकू को भूल जाय ?जिसके माध्यम जनमानस तमाम विषम परिस्थितियों के बावजूद उपलब्धियां हासिल करते यहाँ तक आए हैं। कितने बीडी श्रमिक अपने बच्चों को इनके बनिस्पत डा इंजी बनाए आइ ए एस  नेता और पद्मश्री विभूषण तक पाए ।
   यदि यह बुरे थे तब उन्हे शासकीय संरक्षण क्यो? और इन सब चीजों में  विदेशी ठप्पा क्यो? क्या केवल लूटने खसोटने और यहाँ के बाशिंदों के पेट पर लात मारने  । 

 व्यसनों और शौक व फैशन  के व्यवसाय चाहे वह बार  होटल पब रेस्त्रां  कपडे ज्वेलरी सेलुन ब्युटी पार्लर हो या पान ठेले आदि सब जगहों पर तालेबंदी हैं। और अरबो रुपये फंसे पड़े है।
       यदि  मरना ही तय हैं तो क्या जीना छोड़ दे ? वह प्रवचन  देते रहे हैं भले श्रोता हो या सरोता हो।
    कोरोना महामारी ने तथाकथित बुद्धिजीवियों और अनीश्वरवादियों को अधिक मुखर व वाचाल बना दिए हैं। वे सदियों की मान्यताओं और आस्थाओं पर हथोडा चला दिया और आस्था व श्रद्धा की भव्यतम स्मारकों में यत्र तत्र दरारें डाल दिए गये या अपनी वज्रधात से जीर्ण -शीर्ण कर दिए हैं।
    ऐसी हालात में आज एक आस्तिक और ईश्वरीय शक्ति के साक्षात्कार प्राप्त बड़ी हस्ती से मिला ।वे सक्षम अधिकारी है। और जिस समाज के हैं उनकी हालात दयनीय हैं। उस समाज की प्राकृतिक मान्यताओं की लोग हंसी उडाते हैं। और उसमे वह भी शामिल हैं तथा संगठन और धार्मिक पदाधिकारियों के कटु आलोचक भी हैं। साथ ही विभिन्न पार्टियों में चयनित जनप्रतिनिधियों को हमेशा आडे हाथ लेते कटु आलोचक हैं।
       बहरहाल वे आजकल एक ब्रम्हकुमारियों के मोह फास में आबद्ध सतयुग की महान प्रतीक्षा में रत इस वैश्विक संकट को प्रलय सा शुभ मान सतयुग आने की आहट समझ उन्मादग्रस्त हैं। कि उनके प्रणेताओं की परिकल्पना साकार हो रहे हैं।
      हमने  ऐसे बहुत से साम्प्रदायिक पागल पंथिकों के धारणाओं से स्वयं को पृथक  करते केवल सत्य प्रेम करुणा और परोपकार जैसे गुण को धारणीय धर्म माना जो सर्वत्र समान हैं। बाकी केवल प्रणाली मात्र हैं और ईश्वराश्रित हैं। कुछ ही प्रवर्तक हुए हैं जो ईश्वरीय या किसी आलौकिक शक्ति से अलग स्वयं की शक्ति पर विश्वास कराते धर्मोपदेश दिए हैं। और वह भी एक प्रणाली में बदल गये 
   इस तरह से विचार जन्मते है और आगे वह अलग अलग रुप अख्तियार कर ही लेते धारा बहती हुई कही द्वीप कही झील कही गहरी कही उथली हो ही जाते हैं समन्दर न मिलने पर कुछ बड़ी  नदियों में  ही समागम हो सागर की ओर प्रयाण करने होते हैं। फिर यह तो निश्चित है कि बुंद का समुंद में विलिन होना ।
अब तलाशों की समुन्द में वह कहां गया कैसा हुआ। 
           बहरहाल देश को बेसब्री से इंतजार है कि लाकडाउन हटे जीवन सामान्य हो‌ । कोरोना का से मुक्ति मिले फिलहाल मुक्ति के प्रसाद बाटने वालों को भी यह सामान्य सी बातें समझ में आनी चाहिए ।अन्यथा जात पात मत पंथ धर्म कर्म का बहुत बखेडा देश में हो चूका अब मानवता को प्रतिष्ठापित करने होन्गे और जहा जहा जो संसाधन व सुविधाएँ हैं। उन्हे मानव कल्याण के निमित्त उपयोग में लाना चाहिए। क्योकि मानव और मानवता ही सब कुछ हैं।

 By - Dr anil Bhatpahari

lacdowan

लाकडाउन 

"परेशानियाँ ‌कहां नहीं हैं, बिना इनके जिन्दगी कैसे बीतेगी भला ?"
समझाते हुए वे कहें पर उनकी बातें लोगों को समझ आते ही कहां हैं इसलिए अनसुनी कर दी जाती हैं।
     बावजूद वे कहते कि हर हाल में जीने के लिए मस्ती न छोड़ो और मस्ती आती हैं नशे से चाहे वह धन का रुप का ज्ञान का या संतान का हो। 
      संकट के  हल निकालने सभी भयानक चिन्ताओं में डूबे हुए हैं। मतलब हंसी खेल कौतुक सब गायब हैं। फलस्वरुप बहुत तेजी से लोग डिप्रेशन में जाने लगे हैं।
उन्हें उबारने शराब और नशे आदि को लाकडाउन से छूट दिए जा रहे हैं। ताकि लोगों को व्यसन मिले और डिप्रेशन से मुक्ति भी।
    लोगों को पागल होने से बचाने के लिए फिलहाल  मधुशाला ही  चाहिए। मठ मंदिर मस्जिद गिरिजा गुरुद्वारा की जरुरत ही नहीं ।
     बस्तर का घोटूल किसी धाम से कमतर हैं क्या ? जहाँ प्रेम और कर्त्तव्य के पाठ सामूहिक रुप से सहजता से सीखते हैं।जिससे  निरापद  जीवन जीए जाते हैं। 

क्या अब क्लब माल सिनेमा बार डांस  रेव पार्टियों जैसे चीजों के जगह स्वदेशी  चीजे प्रचलन में न लाया जाय? 
     मानवीय संबंध भी कैसा है कि हर चीज के उपभोग के बाद अतृप्त पना हैं। यह अतृप्ति ही उन्हे सक्रिय किए हुए हैं। भोग की पराकाष्ठा से ही विश्व संचालित हैं। योगी लोग तो दुनिया को अपने जीवन में ही तबाह कर दे?
   यह क्या सदाचारी रहो व्यसनी मत बनो तो तमाम सोनागाछी गंगा जमुना मोहल्ला चांदनी बार और शाम ए अवध कैसे रंगीन व महकदार होन्गे? 
    कजरी ठुमरी दादरा और ये कत्थक मोहिनी अट्टम या ओडिसी कैसे संरक्षित रहेन्गे । कितने कलावंत और सर्वाधिक ग्लेमर्स व संभावनाओं को समेटे फिल्मोद्योग की भठ्ठा बैठ जाएन्गे। हमारे नचनियों अभिनेताओं  ने जो कीर्तिमान बनाया वह तो राजनेताओं ने नहीं अर्जित कर पाया । इन जगहों से निकले लोग भारत रत्न तक हुए ।
 कैसे यह भूल जाय कि कीचड़ में ही कमल खिलते हैं। सच तो यह है कि कमल खिलाना हो तो कीचड़ बनाना पडेगा ।हाथ है तो उन्हे रोजगार देना होगा और रोजगार के हजार रास्ते हैं। 
 बहरहाल ग्लैमर्स के  देखा सीखी आजकल  कथित धार्मिक   बाबाओ एंव  माताओ ने भी ग्लेमर्स को अपनाकर जो दिखता वह बिकता है की शानदार परिपाटी विकसित किए हैं। क्या वह एक झटके लाक डाउन हो जाय ?
   और तो और अब स्वदेशी का नारा जोर शोर से होना आरञभ हुआ ।लधु मध्यम व कुटीर उद्योग आत्मनिर्भरता लाएन्गे  तो उनके उपभोक्ताओं का होना आवश्यक हैं। गंजे लोगों की बस्ती में कंधी बेचा ही नहीं जा सकता ।
    अंग्रेज मुफ्त में चाय पिलाकर लती किए और आज चाय सकल ब्रिटेन की आय से अधिक कमाकर दे रहा है। तो भ इये जहा    महुए  फूल  है  तेंदू व  तंबाकू पत्ता हैं। वहाँ आप सत्संग प्रवचन नहीं करा सकते इसलिए  आत्मनिर्भरता के लिए यह आवश्यक है ।
क्या यह संभव है कि महुए ,सल्फी ताड़ी व लांदा  का उत्पादन  न करे और बीडी तंबाकू को भूल जाय ?जिसके माध्यम जनमानस तमाम विषम परिस्थितियों के बावजूद उपलब्धियां हासिल करते यहाँ तक आए हैं। कितने बीडी श्रमिक अपने बच्चों को इनके बनिस्पत डा इंजी बनाए आइ ए एस  नेता और पद्मश्री विभूषण तक पाए ।
   यदि यह बुरे थे तब उन्हे शासकीय संरक्षण क्यो? और इन सब चीजों में  विदेशी ठप्पा क्यो? क्या केवल लूटने खसोटने और यहाँ के बाशिंदों के पेट पर लात मारने  । 

 व्यसनों और शौक व फैशन  के व्यवसाय चाहे वह बार  होटल पब रेस्त्रां  कपडे ज्वेलरी सेलुन ब्युटी पार्लर हो या पान ठेले आदि सब जगहों पर तालेबंदी हैं। और अरबो रुपये फंसे पड़े है।
       यदि  मरना ही तय हैं तो क्या जीना छोड़ दे ? वह प्रवचन  देते रहे हैं भले श्रोता हो या सरोता हो।
    कोरोना महामारी ने तथाकथित बुद्धिजीवियों और अनीश्वरवादियों को अधिक मुखर व वाचाल बना दिए हैं। वे सदियों की मान्यताओं और आस्थाओं पर हथोडा चला दिया और आस्था व श्रद्धा की भव्यतम स्मारकों में यत्र तत्र दरारें डाल दिए गये या अपनी वज्रधात से जीर्ण -शीर्ण कर दिए हैं।
    ऐसी हालात में आज एक आस्तिक और ईश्वरीय शक्ति के साक्षात्कार प्राप्त बड़ी हस्ती से मिला ।वे सक्षम अधिकारी है। और जिस समाज के हैं उनकी हालात दयनीय हैं। उस समाज की प्राकृतिक मान्यताओं की लोग हंसी उडाते हैं। और उसमे वह भी शामिल हैं तथा संगठन और धार्मिक पदाधिकारियों के कटु आलोचक भी हैं। साथ ही विभिन्न पार्टियों में चयनित जनप्रतिनिधियों को हमेशा आडे हाथ लेते कटु आलोचक हैं।
       बहरहाल वे आजकल एक ब्रम्हकुमारियों के मोह फास में आबद्ध सतयुग की महान प्रतीक्षा में रत इस वैश्विक संकट को प्रलय सा शुभ मान सतयुग आने की आहट समझ उन्मादग्रस्त हैं। कि उनके प्रणेताओं की परिकल्पना साकार हो रहे हैं।
      हमने  ऐसे बहुत से साम्प्रदायिक पागल पंथिकों के धारणाओं से स्वयं को पृथक  करते केवल सत्य प्रेम करुणा और परोपकार जैसे गुण को धारणीय धर्म माना जो सर्वत्र समान हैं। बाकी केवल प्रणाली मात्र हैं और ईश्वराश्रित हैं। कुछ ही प्रवर्तक हुए हैं जो ईश्वरीय या किसी आलौकिक शक्ति से अलग स्वयं की शक्ति पर विश्वास कराते धर्मोपदेश दिए हैं। और वह भी एक प्रणाली में बदल गये 
   इस तरह से विचार जन्मते है और आगे वह अलग अलग रुप अख्तियार कर ही लेते धारा बहती हुई कही द्वीप कही झील कही गहरी कही उथली हो ही जाते हैं समन्दर न मिलने पर कुछ बड़ी  नदियों में  ही समागम हो सागर की ओर प्रयाण करने होते हैं। फिर यह तो निश्चित है कि बुंद का समुंद में विलिन होना ।
अब तलाशों की समुन्द में वह कहां गया कैसा हुआ। 
           बहरहाल देश को बेसब्री से इंतजार है कि लाकडाउन हटे जीवन सामान्य हो‌ । कोरोना का से मुक्ति मिले फिलहाल मुक्ति के प्रसाद बाटने वालों को भी यह सामान्य सी बातें समझ में आनी चाहिए ।अन्यथा जात पात मत पंथ धर्म कर्म का बहुत बखेडा देश में हो चूका अब मानवता को प्रतिष्ठापित करने होन्गे और जहा जहा जो संसाधन व सुविधाएँ हैं। उन्हे मानव कल्याण के निमित्त उपयोग में लाना चाहिए। क्योकि मानव और मानवता ही सबकुछ हैं।

By Dr anil Bhatpahari 

Wednesday, May 13, 2020

कोरोना गीत अउ कविता

1 कोरोना गीत 

सुनसान होगे खोर गली कोरोना के सेती‌
भांय भांय लागे संगी चारों मुड़ा चारो कोती 

 खोर किंदरा रहिस तेमन होगिन घर खुसरा
 खोली मं धंधाय बहुमन होगिन मुड़ उधरा 
  नता गोता सब धरे रहिगे परान बचा ले पहिली ...

रोजी रोजगार छुटगे संगी , छुटगे निशा पानी 
नानमुन छुटगे बेमारी ,छुटगे सुजी पानी 
समे समे मं अब तो असनेच करे परही ...

छै हाथ छट्टा रहव अउ मुंह म टोपा बांधव
घंटा दू घंटा आड़ साबुन मं हाथ ल धोवव 
जुरमिल के ये बइरी ल खेदारे परही ...



       2  ।।कोरोना ।।

कोरोना के सेती  फइले हे सब जगा महामारी 
देख दुरगति मनखे के का कहिबे संगवारी 
का कहिबे संगवारी मरगे लाखों पटापट 
छै हाथ छट्टा रहव, झन रहव  सब लटालट 
माक्स बांधव मुंह मं हर धंटा हाथ परही धोना
माईपिला रहव घर मं तभेच भागही कोरोना





        3   " लिमउ "
लिमउ सक्कर पानी मिलथे  
त गरमी थिरा जथे 
कत्कोन झोलाय रहिबे पीते साठ
कुहकुही सिरा जथे 
दार-भात संग ससन भर खाले 
एखर अचार 
बिटामिन सी रसा मं भरे हवय एखर अपार 
तिहि पाय के अंगना मं लगावव लिमउ पौंधा 
ममहई अउ सुघरई संधरा पावव संगी ठौका 

 बिंदास कहें -डां. अनिल भतपहरी

कोरोना

आपके वास्ते छकड़ी हमरी‌
      कोरोना 

कोरोना के सेती फिले हे सब जगा महामारी 
देख दुरगति मनखे के  का  कहिबे संगवारी
का काहिबे  संगवारी मरगे  लाखों  पटापट 
छै  हाथ छट्टा  राहव  झन  राहव  लटालट 
माक्स बांधव मुँह मं हर धंटा हाथ परही धोना 
माई पिला रहव घरेच मं तभेच भाहगी कोरोना 

बिंदास कहे -डाक्टर अनिल‌ भतपहरी

जैतखाम‌

" जैतखाम /सेतखाम  /जयस्तंभ  "
   जैतखाम सतनाम धर्म -संस्कृति में आस्था व श्रद्धा के प्रतिमान है। इनके अतिरिक्त गुरुगद्दी व चरणपादुका ही यहां पूज्यनीय है। 
       जैतखाम को सेतखाम  व जयस्तंभ भी कहे जाते है।इस तरह के प्रचलन से अर्थ में भिन्नता आने लगे है।
    बावजूद यह दोनो नाम सतनाम धर्म संस्कृति में प्रचलित है। जैत या जय और खाम या स्तंभ विजय श्री भाव के सूचक है। 
   कहते है धर्म युद्ध में वैचारिक टकराहट के कारण व प्राचीनतम मान्यताओं व रुढ़ियों के विरुद्ध गुरुघासीदास ने नवीनता का अप्रतिम संदेश देते इनका ईजाद किए।और विधि विधान पूर्वक ४ जगहों पर स्थापित कराये १ सोनाखान जमींदार रामराय के घर  आगे गली में ।२ दुलहरा तलाब रतनपुर में और ३-४  चांद -सुरुज नाम के दो जैतखाम भंडारपुरी के मोती महल में । 
      जैतखाम का लधुरुप निसाना और उनके लधु रुप पत्तो /पालो / धर्मध्वज  पहले चूल्हापाट  में फिर आंगन में निसाना फिर २१ हाथ ऊंचाई  वाली जैतखाम गली ले चौंक व गुरुद्वारा व मंदिर समक्छ स्थापित होने लगे।
    सेतखाम शब्द में एक सात्विक व पवित्रभाव अन्तर्निहित है।यह संतो  गुरुओं की श्रीमुख से उच्चरित व जन व्यवहृत शब्द है। सेत मतलब सादगी युक्त पवित्र भाव है ।सेत मतलब रंग के आधार  सादा भी है।
   
   बाहरहाल साजा सरई   जैसे विशिष्ट लकडी में गंजी- पीतल या एल्मुलियम का इसलिए लगाते कि लकडी के मत्थे में पानी न पड़े ।और हुक तीन होते ही दो में पाच हाथ के डंडे ऊपर से सवागज पालो की फहरने के वाइब्रेट को दो हुक सम्हाल नही पाते। फलस्वरुप तीन हुक लगाए गये। यह आरंभिक व सादगी पूर्ण सहज निर्माण है। इन तीन हुको को त्रिताप और त्रिशरण का प्रतिमान भी माने जाते हैं।
हा निशाना घर मे होते है वह दो हुक और बिना कलश या गंजी लगे होते है।
  उसी का बड़ा स्वरुप जैतखाम है।
  क्रांकीट के निर्माण से गंजी लगाना   अप्रांसगिक हो जाता फलस्वरुप उसे कलशनुमा या अन्य शंक्वाकार  आकार दे दिए गये।
    और यह  सुन्दर स्थापत्य है ।ज्यो +ज्यो विकास और समझ बढ़गे साधन व सुविधाए आएन्गेव कलात्मक स्वरुप निरंतर बनते जाएन्गे ।  गिरौदपुरी में भव्यतम निर्माण व जुनवानी के कलात्मक निर्माण  इनके उदाहरण है।
        प्रस्तुत चित्र में जैतखाम या सेतखाम सहस्त्र कमल दल विराजमान है।यह विजय भाव है। प्रवीण  योग साधक द्वारा जब कुंडलनि जागरण होते है तब उनकी मनोदशा और अर्धचैतन्य  अवस्था में वह दीपक के उठते लौ  स्वरुप लम्बवत अंत:करण में उर्ध्व खड़े हो जाते है ।   उसी के सानिध्य में वह अपरीमित सुख व शक्ति के स्वानुभूति से गुजरते है और इस अलौकिक दिव्य अवस्था को  अर्जित  करने  अनुरक्त  होते है। बहिर्जगत में वह भौतिक रुप में  लकड़ी- ईट  आदि पदार्थगत निर्माण है जो जनसाधारण के  लिए प्रेरक  व दर्शनीय होते है।
       इसी सेतखाम /जैतखाम  साधनात्मक रुप मे साधक के अंत:करण में परिलछित ज्योति स्वरुप का भव्यतम निर्माण ग्राम जुनवानी में हुआ है। जो तेजी से ख्यातिनाम हो रहे है इनके अनुशरण से आजकल अनेक जगहों पर निर्माण होने लगे है। इनमे ३६ तत्वों के निरुपण होने से ३६ गढ़ की परिकल्पना भी विद्जन करते है। पर यह अध्यात्मिक कम राजकीय अधिक लगते है।
       जैतखाम के स्वरुप में एकरुपता और कुछ कलात्मक स्वरुप में विविधता की बातें भी होने लगे है।परन्तु विशाल समुदाय और विविधताओं से युक्त संस्कृति में ऐसा होना स्वभाविक है क्योकि लोग अपनी साधन सुविधाओं से भी विविध स्वरुप देते रहे है ।

आत्मनिर्भर

आपके वास्ते छकड़ी हमरी 

       आत्मनिर्भर 

आत्मनिर्भर शब्द है बड़ा सुहाना 
पर कैसे हो यह बिल्कुल न जाना 
बिल्कुल न जाना है सब अनजान 
संकट में फंसे हुए हैं सबके प्राण 
ऐसे में कोई लूटे नमक नहीं घर पर
बताओं ऐसे में कैसे हो आत्मनिर्भर

बिंदास कहे डा अनिल भतपहरी

Tuesday, May 12, 2020

बाल गीत

मोर जुन्ना गीत 


हास्य बाल गीत 

भोको‌ भइया हर हव
गिरगे भदाक ले 
भदाक ले भदाक ले 
भदाक ले भदाक ले ...

बखरी मं भोको भइय्या 
हर गिरके भदाक ले 
ओकर दांतेच हर 
टूट गे रट्टाक ले ...

भोको भइया हर 
गिरगे भदाक ले ...

मुनगा डारा हर 
टूट गे रट्टाक ले 
भोको भ इया हर 
गिरगे भदाक ले ...

ढिठ्ठा पुनुराम हर 
करथे अपन मन के 
लानिस बरतिया 
कोरी भर गन के 
कोनो तो देखय
ओकर गोठ ल फाक के... 

बुधारा ह हवय 
बड़ गुणवंतीन 
खर्चा करथे रुपया 
घेरी बेरी गिन गिन 
गुपती म धरथे 
बनेच तोप ढांक के ...
 

  डा. अनिल भतपहरी 

पुरा अंतरा के सुरता आत न इये

मंगलमय बस्तर गान

।। बस्तर के मंगलमय गान ।।

आम्र मंजरी चार मौर महुएं फूल का      
मादक महक चहुंओर परिव्याप्त हैं
सरई -सागौन से सजा -धजा बस्तर 
बांस की झुरमुट से झाकता हरित आफ़ताब हैं
पावन परब लक्षमी तीजा  जगार 
ककसाड़ मेले -मड़ई की बाहर हैं
गांव -गांव में सल्फी लांदा संग 
मुरगा लड़ाई और ढोल की ताल है
लया -चेलिक की खिलखिलाहट 
इंद्रावती जलधार  कलकल निनाद हैं 
आलोकित हो कुटुमसर परलकोट हो मुक्त 
निहारते  गुंडाधूर भूमकाल का महानाद हैं
मधुर गाती मैना - मंजुर थिरकती हिरण से 
सीखे माड़िया -भतरा की नृत्य -नाट गान  है
पलाश सेमल से दमकता लाल रंग  
बस्तर की प्रेम त्याग का अनोखी शान हैं
दंतेसरी की कृपा चितालंका की रावटी 
गूंजे चिरई पदर से नित सतनाम हैं
शंखनी -डंकनी सा मिले झिटकू -मिटकी 
सदा प्रेम भरा जनजीवन में अनुराग हैं
कांकेर की कथा रुपई -सोनई की गाथा 
ढोलकन  बारसूर की मनोहर  भाग हैं
जीवन संगीत झरे तिरथगढ़ से निकल 
चितरकोट की झरना तक प्रवाहमान हैं
रत्न गर्भा धरती का दिन बहुरे हो सदभाव 
सौहार्द्र रहे कायम यह मंगलमय गान हैं

     -डा. अनिल भतपहरी/ 9617777514

Monday, May 11, 2020

।।रासेयो की राष्ट्रीय मंच मैसुर में जय छत्तीसगढ़ ।।

।।रासेयो की राष्ट्रीय मैसुर मंच पर जय जय छत्तीसगढ़ ।।

एन एस एस की नेशनल होम स्टे प्रोग्राम 2013  मैसुर  में  छत्तीसगढ़ का  टीम ! साधन विहिन और विषम परिस्थितियों में हमने 10 छात्रों एंव 10 छात्राओ  को मेडम बिस्वाल जी  (कटघोरा गर्ल्स स्कूल की शिक्षिका  )के साथ लेकर गये।  
प्रत्येक प्रांत से 22 सदस्यों कुल 2500  की यूनिट "नैनो इंडिया" कहलाते थे। 
 जहां छत्तीसगढ़ी संस्कृति व कलाओं का डंका बजाकर आए ...

चित्र में दो प्लास्टिक  बाल्टी को जोड़कर लुंगी लपेट मांदर बनाए और इसी आधार वाद्ययंत्र के प्रदर्शन के साथ हमारे २-३ मिनट का संक्षिप्त उद्बोधन एंव ५-७ मिनट की समूह नृत्य  करमा पंथी जस गीत एंव रिलो एंव अनेक तरह की प्रस्तुतियां देकर टीम इंडिया और मेजबान कनार्टक के प्रबुद्ध  दर्शकों को  सम्मोहित करते रहें। 
       परिणाम स्वरुप हमलोगों के मंच पर आते ही  पुरा नेशनल मंच और भव्यतम अटोडोरियम जय जय छत्तीसगढ़ से गूंज जाया  करते ‌। प्रशस्ति के साथ- साथ स्वामी श्री के  विशिष्ट सम्मान पाकर  लगा कि सचमुच हमारी कलाएँ और संस्कृति इतनी प्रभावशाली हैं कि जरा सा सावधानीपूर्वक प्रस्तुतियां दे तो स्वत: वह सभी को चकित कर सकती हैं। हबीब तनवीर  देवादास बंजारे तीजनबाई , सुरुजबाई स्मृत होते कि कैसे वे लोग सादगी पूर्ण प्राकृतिक रुप से प्रस्तुतियां देकर  विदेशों में समा बांधे ।  
 यही कलावंत   हम जैसे  साधन विहिन विवश   लोगों का आत्म संबल रहा । उडिया बंगला भाषी बिस्वाल मेडम जी ( जो अब  नहीं हैं।) मुझे भी विद्यार्थियों सहित पुत्रवत स्नेह देती हर प्रस्तुति में कह उठती क्या कमाल और धमाल मचा देते हैं, शाबाश छत्तीसगढ़िया बधवा लोग  । 
       धन्य  है स्नान के लिए प्रदत्त यह यह" बाल्टी वाले मांदर" सच कहे तो कैसे हमारे मन में यह आइडिया आया , आज सोचकर बहुत हंसी आती हैंऔर बिना कोई तैयारी के भेज देने पर क्षोभ भी होता हैं। पर शुक्र हैं युवाओं का जोश और उत्साह असंभव को संभव करता हैं।
                      हमारे शीध्र प्रकाश्य पुस्तक‌ " रासेयो की राष्ट्रीय मैसुर मंच में जय जय छत्तीसगढ"  का अंश ।

मैसुर कैम्प के शिवरार्थी

बहुत ही शानदार यात्रा रहा गुरुदेव आप एक सहज सरल ह्रदय और मिलनसार मार्गदर्शक है और आप हमारे कार्यक्रम अधिकारी रहे वो हमारे लिए सौभाग्य की बात है अलग-अलग जगह के होते हुए भी आप एक दूसरे से ट्रेन में ही परिचय करा दिए थे खासकर मेरे लिए बहुत ही सुखद यात्रा रहा क्योंकि अपने शासकीय गजानंद अग्रवाल स्नातकोत्तर महाविद्यालय भाटापारा से राष्ट्रीय स्तर पर रा.से.यो. का प्रतिनिधित्व करने वाला प्रथम छात्र रहा अब इसे संयोग ही कहा जा सकता है अभी कुछ हफ्ते पहले महाविद्यालय के प्रोफेसर डॉ शशि किरण कुजूर मेडम जी का फोन आया था मैसूर कैंप के फोटोग्राफ के लिए, सात आठ साल बाद फिर से यात्रा याद करना बहुत सुखद है सभी मित्रों की छवि जहन में आ रहा है बिलासपुर इंजीनियरिंग कॉलेज से तुलसी भाई (दिखने में सबसे बड़े मिलनसार) प्रकाश भाई (पेंटिंग में महारत हासिल राष्ट्रीय स्तर विजेता) शिल्पा(अंग्रेजी में बोलने वाली ) गायत्री (कविता लिखने वाली) कटघोरा तरफ से बिस्वाल मैडम(शांत) के साथ अर्चना (सब से संपर्क रखने वाली)एकता( समझदार) सन्नी (ब्वाॅय कट बाल वाली चंचल) मनोज भाई (बिंदास लड़का) दुष्यंत (हैंडसम ब्वॉय) लक्ष्मण भाई  (मेरा चेला) जागेश भाई धमतरी ( राज्य स्तरीय कैंप बतौली में भी मेरे साथ शामिल हुए थे) बलौदा बाजार से शशिकांत भाई (लाल और नीला दो पेंट हमेशा साथ रखने वाला) सुषमा(सबकी प्यारी बहना) बस्तर से दसमत भाई(सबसे ज्यादा शांत) नेहा(दसमत के साथ रहने वाली) सरगुजा से प्रेमचंद भाई कैंप मे भारत माता की रंगोली बनाने मे सहयोग करने वाला)दो और थे मैडम के साथ और सुषमा के साथ छवि मस्तिष्क में जरूर है आपका वो नारा छत्तीसगढ़िया सबले बढ़िया कर्नाटक में डंका बजा कर आए थे आपका आशीर्वाद हमेशा बना रहे
 जय हो शुभ हो🙏💐

Wednesday, May 6, 2020

तथागत बुद्धबाबा और गुरुघासीबाबा

[2:12pm, 21/05/2016] डाँ.अनिल कुमार भतपहरी:

  "तथागत बुद्ध बाबा  और गुरु घासी बाबा "

तथागत बुद्ध बाबा और गुरु घासी बाबा के जीवन चरित साधना सिद्धि उपदेश व क्रियाकलापों मे एक अनुपम साम्य है।
आज बुद्ध पूर्णिमा के पावन पर्व पर दोनो प्रवर्तकों के परस्पर जुडी समान मानवतावादी  दृष्टिकोण पर विचार करते है हालांकि दोनो के बीच दो हजार वर्ष का अन्तराल हैं। पर दोनो ने तत्कालीन सामाजिक वर्जनाओं के विरुद्ध जन जागरण चलाकर धम्म‌ और पंथ का प्रवर्तन किए जो वास्तविक रुप से धर्म की श्रेणी में आबद्ध है। एक  धर्म के रुप में प्रतिष्ठित हो चुका हैं,जबकि दूसरा प्रतिष्ठित होने के लिए  प्रयारत (लंबित) हैं।
आइए दोनों की साम्यता पर विहंगम दृष्टि डालते हैं-
१ जन्म पूर्व 
 उनकी  माताओं महामाया व अमरौतीन को  गर्भावस्था मे  अद्भुत  मनोहारी स्वपन  व विशिष्ट अनुभव हुये।
एक को हाथी और चमकते सितारे दिखी तो दुसरी आमा चानी और आगन मे (अन्जोर रौशनी )बिखरते देखे।
२. बचपन 
सिद्धार्थ के जन्म के बाद ज्योतिष आये और चक्रवर्ती सम्राट व साधु बन जाने के घोषणा किये। 
घासी के जन्म के बाद साधु आये शिशु को गोद व सर मे रख नाचने लगे।उनके नाम करण कर उनके पाव छु कर आशीष लिये।माता पिता हतप्रभ-सा देखते रहे।
३. बाल्यकाल 
दोनो  आम बच्चो से अलग ध्यान मग्न व शान्त चित्त कुछ खोजने जानने के लिये उद्विग्न।
पशु- पक्षी के उपर दया घायल का उपचार कर उन्हे दोनो द्वारा जीवन दान,महिमा मय व्यक्तित्व ।
४ युवावस्था
 पराक्रमी पुरषार्थी , विवाह 
स्वपसन्द वधु वरण। यशोधरा व सफूरा से।
एक का वैभव शाली विलासपूर्ण जीवन तो दूसरे का मर्यादा पूर्ण सुखमय जीवन।
५श्रेष्ठ गृहस्थ
 पुत्र प्राप्ति, 
६ जीवन मे दुख. का दिग्दर्शन  .
७जन जीवन की पीडा अभाव व तिरस्कार से विचलित मन शान्ति व कुछ सत्य की तलाश मे यात्रा 
८.वन मे  तप कठोर साधाना ६ वर्ष व ६ माह  
७ सिद्धी आत्म ज्ञान व आत्म साक्षात्कार ।
८ समाज मे आकर उन ज्ञान से सिद्धांत व उपदेश का प्रसारण ।
९ वर्तमान धार्मिक रीति -नीति सन्सकृति के समनान्तर सच्चनाम और सतनाम मत का प्रचार -प्रसार।
१० देशाटन प्रवास चातुर्मास रामत रावटी  ।
११ बुद्ध ने अष्टमार्ग पन्चशील २२ प्रतिग्या ३७ पारमिता।सहित अपना सच्च्नाम दर्शन जन भाषा पालि मे लोगो सहज समझ आने वाली सरल शब्द मे व्यक्त किये।
१२ गुरु बाबा ने सप्त सिद्धान्त ९ रावटी २७ मुक्तक ४२ अमृतवाणी व दृष्टान्त बोघ कथाओ द्वारा जन मानस को सरल जन भासा छत्तीसगढ़ी मे सतनाम दर्शन व्यक्त किये।
१३ दोनो सत्य अहिन्सा सादगी व प्रकृतस्थ जीवन को महत्त्व दिये।
१४ दोनो द्रष्टा व उपदेशक ।
१५ भिख्खु सन्ध का निर्माण
१६ सन्त समाज का निर्माण,  महंत साटीदार भंडारी 
१७ ढोन्ग पाखन्ड. मिथ्या भ्रम के जगह  सत्य की स्थापना।
१८ ईश्वर पन्डे पुजारी योग्य हवन
आदी  कर्म कान्ड के स्थान पर
सहज योग ध्यान समाधि का प्रचलन कराये।
१९ तर्क पर आधारित ज्ञान‌ मार्गी जीवन‌
२० निरंतर गतिमान , सत्संग प्रवचन और सात्विक रहन सहन श्वेत/ कषाय  वसन  
२१ जीते जी निर्वाण / परमपद की प्राप्ति !

प्राचीन बौद्ध ,सिद्ध  व पाली साहित्य के अध्ययन से यह भी ज्ञात होता हैं कि भारत बौद्ध मय था  बहुसंख्यक समाज परिश्रमी और सदाचारी थे उनका अस्तित्व आज पर्यन्त ग्रामीण जन जीवन में द्रष्टव्य हैं।  सहज सरल जीवन  दर्शन इन्ही संत गुरु प्रवर्तकों से ही जनमानस में ‌परिव्याप्त हुआ है।
बुद्ध उच्चरित पाली के सच्चनाम ही गुरुघासीबाबा उच्चरित छत्तीसगढी के सतनाम है।
बौद्ध सिद्धो की वाणी प्राचीन पंथी व मंगल भजनो में अन्तरध्वनित हैं।
    प्राचीन सहजयानी ही वर्तमान सतनामी हैं। 

   ।। सच्चनाम -सतनाम ।।

बुद्ध जंयती  की हार्दिक बधाई व मंगलकामनाएं 

  इस तरह से उक्त इक्कीस बिन्दुओं पर सामान्यतः विश्लेषण करे तो जो साम्यता दिग्दर्शन होते हैं।वह केवल संयोग ही नहीं अपितु दोनो के समान विचार धाराएँ है जो लोक कल्याण के मार्ग प्रशस्त करते हैं ।
      
                           डा. अनिल भतपहरी ‌
                              ९६१७७७७५१४ 
                           ऊंजियार - सदन अमलीडीह ,रायपुर

दादी माँ सतवन्तीन

।।दादी माँ सतवन्तीन ।।

   हमारी प्यारी दादी माँ  सतवन्तीन जौजे रामचरण भतपहरी जो कि अपनी अदम्य साहस और दृढ़ इच्छा शक्ति से अपने दोनो सुपुत्र दुकालदास ( अकाल के कारण ) उर्फ ताराचंद  और सुकालदास  (सम्मत के कारण )उर्फ जीवनलाल को जो उनके बड़ी मां थी ने  सगी मां पीला बाई के  आकस्मिक निधन और उनके कुछ माह बाद पति रामचरण के मृत्योपरांत यत्नपूर्वक पाल पोसकर बड़े किए ।और समकालीन समय में सुदूर पहुँच व सुविधा विहिन गांव होने बावजूद बडे बेटे  दुकालदास को व्यवसायी /कृषक व छोटे बेटे सुकालदास  को  उच्च शिक्षा अर्जित करवाकर  शिक्षक बनवाकरव एक मिशाल पेश की।
जीते जी किंवदंती बनी माँ सतवन्तीन के जीवनी  ऊपर. उनके यशस्वी शिक्षक  पुत्र ने "एक मुठा माटी के असरइया"  नामक मार्मिक नाटक लिखकर उसे प्रेरक व अमर पात्र बना दिए ।जिनके अनेक जगहों पर मंचन किए गये।
      ज्ञात हो कि माँ सतवन्तीन की उम्र निधन  1980  के समय 90 से अधिक थी। इस आधार पर उनके जन्म वर्ष 1890 ठहरती हैं। ओ बताती थी कि उनके जन्म दसहरा - दीवाली के टूटवारों महिना  हररुना धान जिस दिन खलिहान में आई उसी दिन हुई इसलिये उनके नाम अन्नकुवांरी  सतवन्तीन रखे गये। उस वर्ष बहुत धन धान्य हुए।
    आगे विवाह उपरान्त अन्नकुवांरी विलुप्त होकर श्रीमती सतवन्तीन हो ग ई और वे सतवन्तीन के नाम पर जानी ग ई। 
यथा नाम यथा गुण वटगन के गौटिया के घर के बेटी बहुत लाड़- प्यार में पली- बढी!
कलान्तर में जुनवानी गांव के मालगुजार भट्टप्रहरी परिवार में सभादास कहत लागय के छोटे  बेटा कलावंत रामचरण के साथ ब्याही गई ।
परन्तु विवाह के पन्द्रह वर्षो तक धार्मिक प्रवृत्तियाँ के इस दंपति नि: संतान थे । वंशज आगे बढाने के लिए पुनर्विवाह करने का अनेक प्रस्ताव आते ही रहते स्वत: सतवन्तीन इनके लिए रामचरण को कहते पर वे एकनिष्ठ पत्नी व्रत सदाचारी पुरुष थे।
     एक बार दोनो धार्मिक पर्यटन हेतु किसी साधु महात्मा के सलाह पर जगन्नाथपुरी की यात्रा पर बैलगाड़ी में रसद सामग्री रखकर जगन्नथियों के संग पैदल  निकल पड़े।  क्योकि उस समय पदयात्रा कर दर्शन करने और पुण्यलाभ अर्जित करने की मान्यताएँ थी।
    परन्तु विधि का विधान एक वर्ष और बीत गये संतान आए नहीं अंततः निर्वंशी चोला न हो जाय कहकर माँ सतवन्तीन अपने पति रामचरण का दूसरा विवाह अपनी बेटी सदृश पीलाबाई से करवाई ।और उनके दोनो संतान दुकालदास और सुकालदास का ऐसी परिवरिश की आज यह परिवार  पलारी -आरंग सहित  बलौदाबाजार  रायपुर परिक्षेत्र में प्रतिष्ठित व ख्यातिनाम हैं। 
      वे सगर्व किसी नीति न्याव व परपंची होते देख पुरुषों को फटकारती या चुनौति देती कहती रहती - "मै चील गौटिया के बेटी देखत हव तुहर रकम ढकम ल ।" 
    अनेक सडयंत्री इनके निर्वंशी होने व मासुम बच्चों के कारण खेती भाटा भर्री हड़पने या कब्जाने के फिराक में रहते पर वह पुरी मुस्तैद से न केवल बेहतरीन परवरिश की सौजिया लगवाकर  पुरी खेती किसानी सम्हाली , पुश्तैनी पत्थर  खदान चलायी ।यहां तक उस जमाने में अपने बाप - भाई से  बटैत लेकर अपने दोनो पुत्रों के लिए जुनवानी गांव में बडे- बडे धनहा  खरीदी।
      कोरोना के चलते लाकडाउन की स्थिति  में के दूर दूर से  पैदल चलकर  आने की खबर से प्रेरित ६०० कि मी की जगन्नाथपुरी पैदल यात्रा की वृतांत दादी  माँ सतवन्तीन से सुनकर यहाँ उल्लेखित कर रहे हैं। यह यात्रा  १९२० के आसपास ही की ग ई होगी। (जब दादी माँ ३० वर्ष की रही होगी क्योंकि १५ साल में गवन आए और १५ साल तक उनके कोई बच्चे नहीं हुए तब धार्मिक यात्रा गई थीं।)
     दादा -दादी की 600 कि मी  पैदल यात्रा का यह शताब्‍दी वर्ष 2020 हैं । जब  कोरोना के चलते लाकडाउन के कारण सपरिवार 3-4-5  सौ कि मी की कष्टदायक यात्रा करने विवश हैं।
   बहरहाल शीध्र ही संकट दूर हो और हमारे दादा- दादी के शताब्दी यात्रा का पुण्य लाभ पुरी मानवता को प्रदत्त हो।
         जय सतवन्तीन -रामचरण 
                 ।। जय सतनाम ।

चित्र-  दादी मां सतवंतीन  की एक मात्र दुर्लभ चित्र 52 वर्ष पूर्व खल्लारी  मेले में लकड़ी की पर्दे वाली केमरा से उतारी ग ई। जब  मां व बुआ 16-10की थी, अब 68-62 की हैं।

सतनाम‌ और उसके उपसर्ग प्रत्यय

"सतनाम और उनके उपसर्ग व प्रत्यय" 

सतनाम अपने आप में पर्याप्त ही नहीं संपूर्ण हैं।
   फिर भाव और भावनावश जनमानस उसके आगे पीछे महिमा/ गरिमामय  मय शब्द जोडकर और भी अलंकृत करते हैं। यह मानव के रचनात्मक प्रवृत्तियाँ हैं। 
  कुछ लोग जय लगाकर जय सतनाम कहते हैं। कुछ लोग सतनाम ग या सगा कहकर सतनाम सगा कहते हैं। तो कुछ आदर सुचक आगे- पीछे  साहेब लगाकर साहेब सतनाम तो कुछ लोग सतनाम साहेब ।
   इसी तरह साहेब गुरु सतनाम । कोई जय जय सतनान कह उद्घोष करते हैं। 
   हमने अपनी एक कविता  की एक पंक्ति में सत श्री सतनाम लिखे ।यह नाम वृत्याअनुप्रास में काव्यात्मक सौन्दर्य से परिपूर्ण लगा ।भावार्थ है  सतनाम सत से श्री युक्त हैं। अर्थात् सतनाम सदा सत की  वैभव से युक्त है।
    इसलिए इनका प्रयोग  एक श्लोगन व अभिवादन के रुप में करने लगा  ।लोगों को रुचिकर लगा वे लोग इन्हें सहजता से प्रयुक्त कर रहे हैं। खासकर कोटवा धाम के सतनामी लोग इनका प्रयोग करने लगे हैं। कुछ हमारे मित्रगण भी।कुछ लोग आपके तरह प्रश्न किए उन्हे इसी तरह समझाते आ भी रहे हैं। यह २०१०-११ से प्रचलन में ला रहे हैं। कार मोटर साइकल धर ग्रिन्टीग कार्ड पत्र आदि में इनका अनुप्रयोग कर रहे हैं।
    कुछ लोग जय व श्री को हिन्दू शब्द समझकर इनके विरोध व आपत्ति जताते हैं। हमे इतने संकीर्ण भी नहीं होने चाहिए कि शब्द व अक्ष र में साम्प्रदायिता या धर्म जात पात देखे।
   बाहरहाल बताइये कि" सत श्री सतनाम " क्या भावप्रवण अलंकृत व काव्यात्मक  श्लोगन  नहीं हैं? यदि नही तो कोई बात नहीं ।पर हां तो क्या इनका प्रयोग न करे?
       इस तरह देखे तो अनादिकाल से सतनाम की विशिष्ट सप्त स्वरुप व उच्चारण है- 
१ सतनाम 
२सचनाम
३ सच्चनाम 
४ सत्तनाम 
५ सत्यनाम 
६ सतिनाम 
७ शतनाम ( सूफी )
     इस तरह पालि संस्कृत गुरुमुखी पंजाबी  ब्रज अवधि छत्तीसगढी और हिन्दी में यह वृहत्तर जनसमूह करीब ४० करोड़ विशाल जनसमुदाय द्वारा व्यवहृत व आराधित महामंत्र नाम है।जो सदियों से सुख सुकून शांति और मर्मांतक पीड़ा को भी सहन कर सकने की धैर्य प्रदान कराती आ रही है।बल्कि सतनाम तो समस्त धर्मों का मूल ही है।
      अब इन्हे अनुयाई और भी महिमामय कर स्वरुप को वृहत्तर कर आगे पीछे अलंकृत शब्दावलियां लगाकर प्रयुक्त करने  लगे है यह विविधता ही सतनाम को सागर जैसे असीम विस्तार और एक सतनाम ही उनके लधु स्वरुप बूंद कर सकने की वैशिष्ट्य भाव समादृत है।
 सतनाम के विविध उच्चारण व प्रवत्तिगण निर्धारण निम्नवत है -
१सतनाम  सहज रुप मे 
२ जय सतनाम हर्ष व विजय 
३ जय जय  सतनाम शौर्य व पराक्रम के समय 
४ हे सतनाम ( दुः ख भय आश्चर्य   व ध्यान आदि मे )
५ सतनाम ग रागात्मक संबंध  मे उद्बोधन- 
६ सतनाम हो वो ----;;----;;-----
७साहेब  सतनाम सम्मान व आदर 
८ सतनाम साहेब --;;;;------
९ सतनाम ! सतनाम !!! सतनाम !!!
   १० साहेब गुरु के सत्तनाम ... पांजी नाम ।
   और हमारे द्वारा प्रयुक्त 
११ सत श्री सतनाम जो साहित्यिक मित्र और कोटवा शाखा के आचार्यों द्वारा व्यवहृत होने लगे है।
        अततव संस्कृति मे नवाचार और परिष्कार एक सतत प्रक्रिया है यदि यह सापेछ रहे तो कलांतर में वह जनमानस द्वारा ग्राह्य हो प्रचलन मे आ‌ जाते है।
     
                ।। सत श्री सतनाम ।।     

                     निवेदक 
      डा. अनिल भतपहरी

Monday, May 4, 2020

लिमउ

आपके वास्ते छकड़ी हमरी 

           " लिमउ "
गरमी मं लिमउ सक्कर पानी  
मिले से मन थिरा जथे 
कत्कोन झोला गे रहिबे 
पीते साठ कुहकुही सिरा जथे 
दार-भात संग ससन भर 
खाले रोजेच अचार 
बिटामिन सी भरे हवय 
रसा मं एखर अपार 
तिहि पाय के अंगना मं 
लगावव लिमउ पौंधा 
ममहई अउ सुघरई संधरा 
पावव संगी ठौका 

 बिंदास कहें -डां. अनिल भतपहरी

Sunday, May 3, 2020

सुरता केयुर भूषण

सुरता केयुर भूषण 

सतनाम धर्म एंव संस्कृति पर अगाध श्रद्धा रखने वाले श्रद्धेय केयुर भूषण जी से १९८७-८८ में महाविद्यालयीन शिक्षा ग्रहण करने रायपुर आते ही मिलन  हो गया। कारक रहे हमारे पूज्य पिता सुकालदास भतपहरी  के  साहित्यिक मित्र  प सरयुकांत झा जी मुर्धन्य साहित्यकार विचारक और प्राचार्य छत्तीसगढ महाविद्यालय रायपुर । झा साहब कोसरंगी स्कूल में पढे वहा के प्र प्राचार्य हमारे पिता जी थे।जब- जब वे रायपुर से अपने गृहग्राम परसदा जाते अक्सर मुझे उन्हे अपनी राजदूत मोटर साइकिल से पहुचाने का सौभाग्य मिलता। और उनका आशीष भी।वे  बाल्यकाल से हमारी काव्य व गीत लेखन पठन को प्रोत्साहित ही नहीं दो तीन बार सम्मानित भी किए थे।
                 तब गुरुघासीदास छात्रावास आमापारा रायपुर में रहकर दूर्गा महाविद्यालय में अध्ययन रत रहे। हमारे संरक्षक व पिता श्री के दूर के पर सगे सा मामा स्वतंत्रता संग्राम सेनानी व मंत्री कन्हैयालाल कोसरिया  जी रहे वे और वार्डन रामाधार बंजारे जो कि अमीन पारा छात्रावास संचालित करते अक्सर केयुर भूषण जी गुरुघासीदास जयंती या अन्य समारोह मे आते । मंत्री कोसरिया जी के  शिक्षक  व कवि पुत्र रामप्रसाद कोसरिया वउनके मित्र सुशील यदु जी वही सब मिलकर ही हमे काव्य गोष्ठी में ले गये जहां स्वनाम धन्य रचनाकारों जिनमें हरिठाकुर बंसत दीवान  सरयुकांत झा मन्नुलाल यदु रामेश्वर शर्मा त्यागी जी जागेश्वर प्रसाद जी एस दिल्लीवार   जैसे  अनेक छत्तीसगढी प्रेमी साहित्यकारों चिन्तको से हमारा परिचय हुआ और लेखन प्रकाशन का दौर चल पडा। हमें समिति में कार्यकारिणी ‌सदस्य बनाएं गये ।
     इस बीच केयुर भूषण का बुढा नाती वाला दुलार मिलते रहा। हमारी कृति" जय छत्तीसगढ" को   वंदना  सदृश्य  छत्तीसगढी सेवक द्वारा दी जा रही अखंड धरना गुरुघासीदास चौक के समीप कलेक्टर परिसर में २-३ बार गान करने का अवसर आया। जागेश्वर दीनदयाल वर्मा  चन्द्रशेखर वर्मा सुखदास बंजारे डा सीताराम साहू  हम लोग वहां बैठते और काव्यपाठ आदि करते । इस दरम्यान पृथक छत्तीसगढ हेतु लेख कविता लिखे छपे और फिर १९९५ -९६ में प्रध्यापकी की नौकरी करने पेन्ड्रारोड जाना हो गया और रायपुर की साहित्यिक मित्र मंडली से दूर भी ।
  ११-१२ वर्ष बाद   २००७ में हमारी काव्य संग्रह " कब होही बिहान " प्रकाशित करवाने सुधीर भैय्या के वैभव प्रकाशन में बलौदाबाजर से आकर बैठे परिचर्चा कर ही रहे थे कि आदरणीय केयुर भूषण जी का दर्शनलाभ हुआ। प्रणाम करते ही प्रफूल्लित हो कहने लगे बड दिन बाद मिलत हस अनिल.. कहा हस... का करत हस ? एक साथ प्रश्नों  के घेरे में संछेप में सबकुछ बताया और कहा कि यह काव्य संग्रह प्रकाशित करवाने आया हूं ।तब सुधीर भैय्या से उतना परिचय नही था जितना केयूर भूषण जी से रहा .... वे कहे दिखाव वे टाइप की हुई पांडुलिपि  देखे ... और कहे एखर भूमिका या सम्मति कोन्हो कना लिखवाय हस? मे कहेंव नहीं ... फेर का गुनत कहीस मय लिख दंव ? ... सच कहे तो मुझे ऐसा कुछ लिखवाने की ईच्छा ही नही था ।सो .... तभी सुधीर भैय्या कहे लिखवा लो । अच्छा ही होगा ... फिर वे उस पांडुलिपि को ले गये । हरेली त्योहार छुट्टी के दिन सम्मति और पाडूलिपी को घर  आकर ले जाने की बाते कह वापस बलौदाबाजर आ गया।
        उनके घर गया बडा ही आत्मीय भाव व प्रेम मिला  और सतनाम संस्कृति मिनीमाता के अनुभव और हमारी काव्य संग्रह में वर्णित भावो पर गहन व सार्थक विचार धन्टो चला।
   सम्मति में उनके एक  शब्द  बाल्मिकी वाली वाक्य   को हटाने का निवेदन किया कि यह शायद कोई स्वीकृत करे न करे आपत्तिजन्य व कही आगे हमारे लिए अन्यान्न अर्थ न ले कोई   वे कहे- " नहीं ! मोला ज इसे लगिस ओसने लिखे हंव झन हटा ।हटाबे त मोर सम्मति ल मत रखवा।"
     प्रकाशन के बाद उन्हे भेट करने गया वह बहुत ही खुश हुआ।और अपने अनुभव सागर से हमे अनेक मोतियां निकाल देते रहें .... ऐसे सहज पर अनुभव के सागर ,सरल हृदय ,पीयर पीपर के पाके पाना ...हम जैसों को  अपनी वृहत्त धरोहर  से चंद मोतिया सौप कर जाना ....माटी के चोला माटी मे मिलना ही नहीं .बल्कि उसके बाद भी सदैव चमक बिखेरते रहना ही हैं ..... विनम्र श्रद्धांजलि सत सत  नमन
डा. अनिल भतपहरी

बाल गीत

मोर जुन्ना गीत 


हास्य बाल गीत 

भोको‌ भइया हर हव
गिरगे भदाक ले 
भदाक ले भदाक ले 
भदाक ले भदाक ले ...

बखरी मं भोको भइय्या 
हर गिरके भदाक ले 
ओकर दांतेच हर 
टूट गे रट्टाक ले ...

भोको भइया हर 
गिरगे भदाक ले ...

मुनगा डारा हर 
टूट गे रट्टाक ले 
भोको भ इया हर 
गिरगे भदाक ले ...

ढिठ्ठा पुनुराम हर 
करथे अपन मन के 
लानिस बरतिया 
कोरी भर गन के 
कोनो तो देखय
ओकर गोठ ल फाक के... 

बुधारा ह हवय 
बड़ गुणवंतीन 
खर्चा करथे रुपया 
घेरी बेरी गिन गिन 
गुपती म धरथे 
बनेच तोप ढांक के ...
 

  डा. अनिल भतपहरी 

पुरा अंतरा के सुरता आत न इये

Saturday, May 2, 2020

पीपल

"पीपल"
ऐश्वर्य से युक्त भारतीय संस्कृति में ईश्वर वादियों के लिए  पीपल साक्षात् ईश्वर हैं। प्राण वायु आक्सीजन दिन -रात  प्रदाता  पीपल  अक्षय वट हैं।  अनंत काल तक या युगों तक  सजीव रहते हैं। यह लगभग हर ग्राम में विराजित है। पीपल  निर्जन वन में नहीं,अपितु सघन आबादी और रम्य वन प्रातंर में मिलते हैं। तालाबों ,चौक ,चौराहों गौठानों  में यह प्रायः मिलते हैं। 
    राजकुमार सिद्धार्थ ने वर्षो कठोर तपस्या के उपरान्त  इसी के तले बोधिसत्व हुए ।फलस्वरुप  इसे बौद्ध धर्म में बोधी वृक्ष के नाम से जाने जाते हैं। 
    विशालकाय पेड़ के फल छोटे- छोटे लाखों की संख्या में फलते है। जिससे इनके आश्रम में रहने वालें  पशुओं जिनमें  वानर , खरगोश, गिलहरी इत्यादि  विभिन्न पक्षियों एंव  कीट- पंतगे , चींटी आदि लिए पौष्टिक खाद्य के रुप में उन्हे संपोषित करते हैं। मानव प्रजाति के लिए भी पीपल का फल गुणकारी औषधि हैं।यह अंजीर की तरह स्वादिष्ट और पोषक तत्वों से परिपूर्ण अनेक बिमारियों में काम आते हैं।
        पीपल हमारे अभिन्न है। इनके बिना गांव और तालाब की परिकल्पना की नहीं जा सकती बुद्ध प्रतिमा शिव लिंग और अनेक देवी -देवता के मंदिर परिसर में इसे रोपे जाते हैं। साथ ही लोक जीवन में यह भी विश्वास  है इनमें रक्सा ( राक्षस ) का वास होते हैं, और शाखाएं बीच से पोली होने की वजह से जहरीले सांप बिच्छू होने के कारण भी  सघन आबादी से दूर रोपते है। इसका कारण सुनियोजित इसलिए लगते है कि यह बुद्ध से जुड़ा हुआ है,और बुद्ध को खारिज करने का भीषण षडयंत्र भी इस महादेश में  हुआ है ।
      पीपल दिन- रात आक्सीजन देने वाले विशालकाय वृक्ष हैं। साथ ही बहु गुणकारी बावजूद इसे वीरान जगह पर तालाब गौठान आदि पर रोप इनमें अस्थि कलश बांधने की विचित्र परंपराएँ भी हिन्दुओं में मिलती है। इसके कारण भी यह भय जनित भूत ,शैतान एंव रक्सा आदि वास वाली बातें प्रचलित है। 

   लोक गीतों में पीपल की उपस्थिति विरहाग्नि को उदीप्त कराने वाले उद्दीपन के रुप में मिलते हैं। 
तोर सुध म धनि पीपर पाना सरीख मन डोलय 
सुआ पिंजरा ल बोलय मोला संग म ले जा न ...

पीपल प्रेमी हृदय को भीतर तक उद्वेलित करते रहे है देखे एक मशहुर फिल्मी गीत इससे प्रेरित है -  पिपरा के पतिया सरीख डोले मनवा कि हियरा म उठत हिलोर ...

बाल्यावस्था वन प्रातंर बीते और सुदूर लरियाआंचल बुंदेली परिक्षेत्र में पिता जी  के शिक्षकीय वृत्ति के चलते प्राथमिक शिक्षा वही हुआ। जिस घर में हमलोग रहते वहाँ के बाडी से लगा बड़ा सा ब्यारा था जहाँ विशाल काय पीपल थे ... उनके छाया मे खेल-कूद कर बड़े हुए हैं। उनकें कोमल कली जिसे पीपर फोंक कहते की स्वादिष्ट सब्जी चने दाल और इमली रस में खाए है। कुछ लोग दही में बनाते हैं। पीपल के फल पीकरी खाकर ही हृष्ट पुष्ट हुए और कब्बडी का चैंपियन रहे ।स्कूल लाईफ में ख्यातिनाम" रेडर "थे ।हमे पकड़ने नाड़ियल ,बिस्कुट ५-१०-५१ रुपये की बाजियां लगते ...बचपन में बड़े- बुजुर्गों के लिए चोंगी बनाने उनके प्यार भरे अनुनय   निर्देश कि "बेटा हो पाना टोर दव " हम लोग झट पेड़ पर  चढ़  चौड़े पत्ते तोड़कर लिमतरिहा ढ़ोली बबा और रमरमिहा  बिदुर बबा के स्नेह पाते ।
हमारे जुनवानी गांव में घर के पश्चिम में नंदू‌नरायण बबा के बियारा का पीपल जड़ हमारे कुंए तक विस्तारित हैं। उनका सत्त ‌कूप जल में घुलकर हमारे नसों में प्रवाहित हैं। दक्षिण में हमारे खेत के मेड़ पार में विशाल पीपल के खोह में "करन सुआ" के बच्चे लाकर मां  पाली थी। छोटी बहन शकुन और  शशिबाला जिसे हमलोग प्यार से (चिढ़ाते मल्लीन भटननीन कहते ) अपने सर और कंधे पर बिठाए मुहल्ले की सैर बाल टोलियों से कराती और रोज अप‌ने पाकेट खर्च से मनी दुकान से नड्डा बिस्कुट खिलाकर तृप्त व सुखी होती। मेरे द्वारा पहले पहल ब्लेक एंड व्हाइट कैमरे से ३० वर्ष पूर्व उस तोते के साथ खिचें फोटो संरक्षित हैं।  इसी पीपल के मोटे व पोले सुडौल शाखा का मांदर मध्य बाल समाज  पंथी पार्टी वाले   बनाए जिस मांदर की धमक व घोष गंभीर ध्वनि‌ गिरौदपुरी के विराट पंथी प्रतियोगिता में ३५ वर्ष प्रथम पुरस्कार प्रदान करवाकर पुरे प्रदेश में पंथी पार्टी जुनवानी का नाम रौशन किए ।
    इस तरह  दोनो ओर से विशुद्ध आक्सीजोन वाले "श्रीरामचरण सतवन्तिन निवास" जो हमारे पिता श्री सुकालदास  बनवाए थे के आंगन में खेलते -खाते बढते गये। तब हमें क्या पता कि  आखर जोड़ शबद बनाने फिर उनमें भाव भरने की  कला  भी विकसित होते  चले गये  तब अनायस गीत मुंह से झरने लगे - 
मोर घर बियारा मं पीपर के छांव 
कलेचुप आबे पइरी झन बाजय पांव  ...
   बहरहाल पीपल आज हमारे घर  ऊंजियार सदन के छत पर गमले में विराजमान है ।इस तरह  उसे अपने जीवन के अभिन्न बनाए हुए हैं। बलौदाबाजार के "श्री सुकाल सदन" के पानी टंकी के समीप ऊग आए पीपल हमारे लिए अत्यंत शुभ हुआ जिनके छत्र छाया में हमने अनेक गीत -कविताएँ रचे और नीम -पीपल के संयुक्त छांह में  हारमोनियम  लेकर बैठ कुछ मीठी धून सृजित किए  ...जो विगत १०-१२ वर्षो से दूरदर्शन और अनेक संस्थान  के माध्यम से मिश्री घोल रहे है।  और तो और  "गुरुघासीदास और सतनाम पंथ " पर केन्द्रित हमारी महत्वपूर्ण कार्य पीएच-डी. शोध ग्रंथ प्रणीत हुए ... भारत के महामहिम राष्ट्रपति प्रवण मुखर्जी के गरिमामय उपस्थिति में हमें पं.र. शु. वि. वि. से  डिग्री मिली ... बहुप्रतिक्षित यह अलंरण हमारे लिए  पीपल पत्ते में उत्कीर्ण " भारत रत्न" अलंकरण सदृश्य मूल्यवान व महत्वपूर्ण  है। ऐसा लगता हैं कि आज जो कुछ हैं उनमें पीपल की कृपा व आशीष का  भी महत्वपूर्ण योगदा‌न हैं।  इनके प्रति उऋण होना फिलहाल  असंभव हैं।
       नम: नमो पीपल वृक्षाम्

कोरोना और करुणा

कोरोना और करुणा 

एक खतरनाक वायरस जो महामारी का रुप लेकर  मानव प्रजाति के ऊपर तांडव मचा रही हैं। तो दूसरा समश्रुत  शब्द पीड़ित मानवता  व जीव जगत के प्रति दया और कृपा बरसा रही हैं।
       अनेक संत -महात्मा गुरु आए और जनमानस को नैतिक बोध कराए कि सात्विक खान -पान ,रहन- सहन रखे एंव जीव जगत के प्रति करुणा मय रहे ! यानि की सस्टनेबल डेवलपमेंट की बाते कहें जैव विविधता को कायम रखने प्रकितस्थ रहने की बातें की और उपदेशना दिए  ।पर कम्बख्त मनुष्य और उनकी अनन्य लिप्सा ! वे कथित शिक्षित व विज्ञानवादी होने दंभ में जीते इन्हे ढोंग- पाखंड कह मखौल उडाएं, फब्तियां कसे फलस्वरुप अधिक चाह में अनन्य विलासी होकर तताम सीमाओं और मर्यादाओं को लांधे। आज दुनियां की संप्रभुताएं चंद लोगों की मुठ्ठियों में कैद हैं उनकी हनक और सनक कब पृथ्वी में प्रलय ला दे कह नहीं सकते पर उनके पूर्व प्रकृति सचेत हुई  फलस्वरुप माल्थस  की उलाहना रंग दिखाने लगी। 
           सर्वत्र  हाहाकार मची हुई हैं, जिस धन और विलास की सामाग्रियों के लिए मरे जाते वह युं ही सजा- धजा  पड़ा हुआ हैं।" चना है तो दांत नहीं दांत हैं तो चना नहीं" की बेबसी सर्वत्र छाने लगी हैं। आज अमीर -गरीब समान रुप से अपने घरों में कैद दाल- चावल,  रोटी-सब्जी ,आचारादि  खाकर गुजारा कर रहे हैं।क्योंकि अब ऐश और शौख़ नहीं जीना जरुरी हैं। घोर मांसाहारी लोग शाकाहारी हो रहे हैं। इन ३-४ दिनों में करोड़ों नीरिह  पशु- पक्षी ( मु्र्गे, बकरे, सुअर,  भेड़, कुत्ता, गाय ,खरगोश और  मुर्गे बटेर बत्तख आदि ) की हत्या थमी और उनपर प्रकृति की करुणा बरसी।
  मनुष्य का कभी खत्म या पूर्ण  न होने वाले शौख़ और उनके क्रुरतम स्वभाव (चाहे वह शाकाहारी हो या मांसाहारी ) का  ही यह परिणीति हैं कि आज हर कोई एक दूसरे पर करुणा कर पा रहे हैं। सबकी चिन्ता होने लगी  क्योंकि "ये है,तब हम है।" की बातें असानी से समझ आने लगी हैं। सभी व्यग्र है कि कही से किसी का  करुणा और कृपा बरस जाय ।चाहे वह (ज्ञान का हो या विज्ञान का डाक्टर वैज्ञानिक का हो या संत गुरु का शासन का हो या प्रशासन का ।) किसी का हो। यह हुआ निगोड़ी कोरोना के कारण । चंद पल ही सही करुणा ऊपजी तो सही। आशा है कि अब सभी पृथ्वी पर  महाकारुणिक की कृपा से  एक दूसरे की चाह लिए करणामय रहेंगे ।
                         ।‌। सतनाम ।।

-डा. अनिल भतपहरी

Friday, May 1, 2020

दलबदलू

आपके वास्ते छकड़ी हमरी 

     ।। दलबदलू ।।
         
जिधर बम उधर हम‌ वालों से परेशान हैं
पर करे क्या कोई  उन्ही का ही  शासन हैं
उन्ही का है शासन और मजे चारो ओर हैं
नीति- सिद्धान्त वाले ही अब कहाते चोर हैं
दलबदलुओं की निष्ठाएं बदलते रहे हैं हरदम‌
तभी सुलगते माचिस की मांग होते जिधर बम

           बिंदास कहें -डा. अनिल‌ भतपहरी

कषाय ही कोसा हैं।

। कषाय ही कोसा हैं न कि भगवा ।।
    

    बुद्ध व  भिक्षुओं  की परिधान को कषाय कहते हैं जो कि  दक्षिणापथ/ कोसल  (छत्तीसगढ) का सुप्रसिद्ध वस्त्र  कोसा का ही परिवर्तित नाम जान पड़ता हैं।
     परन्तु कुछ लोग इसे केसरिया रंग यानि कि  भगवा कह कर  प्रचारित करते आ रहे हैं दर असल वह अलग तरह के रंग हैं। केशर के रंग अर्थात् गेरुआ या लाल + पीला के संयुक्त  रंग को ही भगवा कहे जाते हैं। यह दोनो अलग अलग रंग हैं। और दोनो की अपनी अलग अलग महत्ता हैं।

तथागत बुद्ध  का धम्म प्रचारार्थ  वैभवशाली गणराज्य दक्षिणापथ की राजधानी श्रीपुर (सिरपुर )आगमन हुआ। यहा के नरेश विजयस ने उन्हे एक सहस्त्र कोसा वस्त्र भेंट कर सम्मानित किया। कोसा की वस्त्राभंडार और विपुल उत्पादन से परिछेत्र  कोसल के नाम से विख्यात हुआ।
      कोसा ही कषाय के नाम से बौद्ध संस्कृति में अंगीकृत हो धार्मिक पदाधिकारियों का परिधान स्वीकृत हुआ।
     आज भी दक्षिणापथ वर्तमान  छत्तीसगढ की संस्कृति में कोसा एक अनिवार्य परिधान हैं इनके बिना धार्मिक व विवाह आदि कार्य सम्पन्न नहीं होते। बुद्ध के श्रीपुर आगमन की पुष्टि चीनी यात्री ह्वेन्गसांग भी करते हैं। कलान्तर  (छटवी सदी )में  यहां महायान के नागार्जुन एंव आनंद प्रभु ने बौद्ध संस्कृति के उत्कर्ष हेतु विश्वविद्यालय  मंदिर विहार व स्तुप आदि का निर्माण करवाए.. जिनकी  अवशेष  अच्छी हालात मे संरछित हैं। महानदी  धाटी में प्राचीन सहजयानी एंव वर्तमान सतनामियो का सर्वाधिक  बसाहट द्रष्टव्य हैं।
     दक्षिणा पथ वर्तमान छत्तीसगढ  की संस्कृति में  कोसा एक अभिन्न परिधान है। यहा कपास बहुत बाद मे आया ऐसा जान पडता है। धार्मिक व वैवाहिक अनुष्ठान इनका प्रचलन अब भी है।दुल्हन की भंवराही लुगरा और दुल्हा के धोती अल्फी कोसा के ही होते हैं। यदि सहज उपलब्ध न हो तो हल्दी चुना लगाकर सफेद वस्त्र को कोसाही रंग में रंगने की विशिष्ट प्रथा हैं। यही पाहुर प्रथा हैं जिन्हे सार्वजनिक रुप से एक दूसरे पर हल्दी तेल की उबटन लगाकर कषाय या कोसा रंग में रगकर बरात आदि हेतु प्रस्थान करते हैं।
         बाहरहाल  सतनामियों मे जो प्राचीन सहजयानी समुदाय थे मे सादा( श्वेत )और कोसा (कषाय ) रंग का प्रचलन वैवाहिक व धार्मिक अनुष्ठानों में अनवरत जारी हैं ......

             ।।  सच्चनाम - सतनाम ।।
डा. अनिल भतपहरी ,ऊंजियार - सदन अमलीडीह रायपुर

मिहनत वाले के मरना हे

श्रम दिवस पर 

।।मिहनत वाले के मरना हवय ।।
    
हमरे घर अउ  हमरे छानी 
बेंदरा मनके देख करसतानी
चारों डहन इंकर उलानबाटी 
ओमन किंदरय पहिने टोपी
खाटी मन बर न मिले लगोटी  
उकर मालपुआ इकर खपुर्री रोटी  
काला सुनाबे गीत भजन कहानी
जम्मों तो लहुटगय अंधरी- कानी
मिहनत वाले मन के मरना हवय
बैंठागुर मन के ही अब जीना हवय 
कोरोना मं इकर देख न जाय करलाई 
लाकडाउन मं फसे हवे जम्मो पिला माई 
सब बंद हे अउ  थिरके हवे हाथ पांव 
दुख दाई अइसे कि कोन डहन जाव 
संकट सबो बर हवे फेर इकर दू असाढ 
कोनो  उदिम करो मदत बर बढाओ हाथ 

                   -डा. अनिल भतपहरी

दादी माँ सतवन्तीन

।।दादी माँ सतवन्तीन ।।

   हमारी प्यारी दादी माँ  सतवन्तीन जौजे रामचरण भतपहरी जो कि अपनी अदम्य साहस और दृढ़ इच्छा शक्ति से अपने दोनो सुपुत्र दुकालदास ( अकाल के कारण ) उर्फ ताराचंद  और सुकालदास  (सम्मत के कारण )उर्फ जीवनलाल को जो उनके बड़ी मां थी ने  सगी मां पीला बाई के  आकस्मिक निधन और उनके कुछ माह बाद पति रामचरण के मृत्योपरांत यत्नपूर्वक पाल पोसकर बड़े किए ।और समकालीन समय में सुदूर पहुँच व सुविधा विहिन गांव होने बावजूद बडे बेटे  दुकालदास को व्यवसायी /कृषक व छोटे बेटे सुकालदास  को  उच्च शिक्षा अर्जित करवाकर  शिक्षक बनवाकरव एक मिशाल पेश की।
जीते जी किंवदंती बनी माँ सतवन्तीन के जीवनी  ऊपर. उनके यशस्वी शिक्षक  पुत्र ने "एक मुठा माटी के असरइया"  नामक मार्मिक नाटक लिखकर उसे प्रेरक व अमर पात्र बना दिए ।जिनके अनेक जगहों पर मंचन किए गये।
      ज्ञात हो कि माँ सतवन्तीन की उम्र निधन  1980  के समय 90 से अधिक थी। इस आधार पर उनके जन्म वर्ष 1890 ठहरती हैं। ओ बताती थी कि उनके जन्म दसहरा - दीवाली के टूटवारों महिना  हररुना धान जिस दिन खलिहान में आई उसी दिन हुई इसलिये उनके नाम अन्नकुवांरी  सतवन्तीन रखे गये। उस वर्ष बहुत धन धान्य हुए।
    आगे विवाह उपरान्त अन्नकुवांरी विलुप्त होकर श्रीमती सतवन्तीन हो ग ई और वे सतवन्तीन के नाम पर जानी ग ई। 
यथा नाम यथा गुण वटगन के गौटिया के घर के बेटी बहुत लाड़- प्यार में पली- बढी!
कलान्तर में जुनवानी गांव के मालगुजार भट्टप्रहरी परिवार में सभादास कहत लागय के छोटे  बेटा कलावंत रामचरण के साथ ब्याही गई ।
परन्तु विवाह के पन्द्रह वर्षो तक धार्मिक प्रवृत्तियाँ के इस दंपति नि: संतान थे । वंशज आगे बढाने के लिए पुनर्विवाह करने का अनेक प्रस्ताव आते ही रहते स्वत: सतवन्तीन इनके लिए रामचरण को कहते पर वे एकनिष्ठ पत्नी व्रत सदाचारी पुरुष थे।
     एक बार दोनो धार्मिक पर्यटन हेतु किसी साधु महात्मा के सलाह पर जगन्नाथपुरी की यात्रा पर बैलगाड़ी में रसद सामग्री रखकर जगन्नथियों के संग पैदल  निकल पड़े।  क्योकि उस समय पदयात्रा कर दर्शन करने और पुण्यलाभ अर्जित करने की मान्यताएँ थी।
    परन्तु विधि का विधान एक वर्ष और बीत गये संतान आए नहीं अंततः निर्वंशी चोला न हो जाय कहकर माँ सतवन्तीन अपने पति रामचरण का दूसरा विवाह अपनी बेटी सदृश पीलाबाई से करवाई ।और उनके दोनो संतान दुकालदास और सुकालदास का ऐसी परिवरिश की आज यह परिवार  पलारी -आरंग सहित  बलौदाबाजार  रायपुर परिक्षेत्र में प्रतिष्ठित व ख्यातिनाम हैं। 
      वे सगर्व किसी नीति न्याव व परपंची होते देख पुरुषों को फटकारती या चुनौति देती कहती रहती - "मै चील गौटिया के बेटी देखत हव तुहर रकम ढकम ल ।" 
    अनेक सडयंत्री इनके निर्वंशी होने व मासुम बच्चों के कारण खेती भाटा भर्री हड़पने या कब्जाने के फिराक में रहते पर वह पुरी मुस्तैद से न केवल बेहतरीन परवरिश की सौजिया लगवाकर  पुरी खेती किसानी सम्हाली , पुश्तैनी पत्थर  खदान चलायी ।यहां तक उस जमाने में अपने बाप - भाई से  बटैत लेकर अपने दोनो पुत्रों के लिए जुनवानी गांव में बडे- बडे धनहा  खरीदी।
      कोरोना के चलते लाकडाउन की स्थिति  में के दूर दूर से  पैदल चलकर  आने की खबर से प्रेरित ६०० कि मी की जगन्नाथपुरी पैदल यात्रा की वृतांत दादी  माँ सतवन्तीन से सुनकर यहाँ उल्लेखित कर रहे हैं। यह यात्रा  १९२० के आसपास ही की ग ई होगी। (जब दादी माँ ३० वर्ष की रही होगी क्योंकि १५ साल में गवन आए और १५ साल तक उनके कोई बच्चे नहीं हुए तब धार्मिक यात्रा गई थीं।)
     दादा -दादी की 600 कि मी  पैदल यात्रा का यह शताब्‍दी वर्ष 2020 हैं । जब  कोरोना के चलते लाकडाउन के कारण सपरिवार 3-4-5  सौ कि मी की कष्टदायक यात्रा करने विवश हैं।
   बहरहाल शीध्र ही संकट दूर हो और हमारे दादा- दादी के शताब्दी यात्रा का पुण्य लाभ पुरी मानवता को प्रदत्त हो।
         जय सतवन्तीन -रामचरण 
                 ।। जय सतनाम ।

चित्र-  दादी मां सतवंतीन  की एक मात्र दुर्लभ चित्र 52 वर्ष पूर्व खल्लारी  मेले में लकड़ी की पर्दे वाली केमरा से उतारी ग ई। जब  मां व बुआ 16-13की थी, अब 68-65 की हैं।