।।एक प्याली चाय की कीमत ।।
तुम क्या जानो बाबु ,एक प्याली चाय की कीमत ?
फिल्मी डायलाग नुमा बोलती वे मुस्कराती गर्मागरम चाय की ट्रे ले सामने हाजिर हुई।
जबकि पहले से कहे जा चुके थे कि चाय नहीं पीते इनकी जरुरत नहीं ,पर वे मानेंगी तब ? क्योंकि उनकी हाथों की बनी चाय की यशगान का वृतांत साथ आये मित्र के श्रीमुख से अब तक ख़त्म नहीं हुए हैं। तब तक वह प्रकट हो गई ।
बहरहाल चाय वाकिय में लाज़वाब और अलग तरह के फ्लेवर युक्त हैं। सुड़कते कहां - "शुक्रियाँ , नाहक आप परेशान हुई । ऐसा लग रहा है कि आप फिल्मों की बड़ी शौकिन हैं?"
'हां, पर मुआ अब हमारी च्वाइस की बनती कहां हैं?'
"बनने लगी हैं बल्कि अब तो पहले से अधिक स्वभाविक व यथार्थवादी सिनेमा का दौर हैं।"
' पर जो माधुर्य सुन्दर दृश्यालियां और गरिमामय वस्त्राभूषण नजर नहीं आते ?'
कल्पनाशीलता और कला के लिए कला जैसी दौर खत्म सा होने लगा हैं। और फैमिली न होने अब फैमिली ड्रामा खत्म हुआ मानो।"
वे लगभग झेपती सी पर दृढ़ता से कहीं -'नहीं ,ऐसा बिल्कुल नहीं फैमिली कभी खत्म नहीं होगा।जब तक लोग हैं परिवार रहेगा सिनेमा नाटक सदृश्य एकल पात्रिय नही हो सकता ,होगा तो वह चलेगी नहीं ।
अच्छा! इतनी गहरी समझ और अपट्रेक्टीव लूक के बावजूद आप कभी इस लाईन में जाने की नहीं सोची ? सहसा बातचित में भीतर से प्रश्न अनुगूंजित हुई।
हां मैने थियेटर की एक दो सिरियल्स और ३ सिनेमा भी ।पर वे रिलिज़ नहीं हो सकी।फिर ये ब्याह लाए और खूंटे से बाध गई। अब हमलोग मैहर -नैहर वालों के लिए गाय ही तो हैं। सो कैसे शेरनी हो जाती? दूनों कूल की लाज पल्ले में पंडित जी अग्नि के साक्ष्य में जो बांध दिए है...
और ठठाकर हंस पड़ी।
"जैसा सुनी बढ़कर निकली आप ...आपकी ये ताज़ी उपन्यास आपबीति हैं कि जगबीति ... मुझे इनके आधार पर स्क्रिप्ट लिखने हैं सो आना हुआ ।"
'यह जानकर क्या करोगे ... जगबीति में ही आपबीति समाहित हैं।'
साथ आए चाय और बिस्कुट के संग मस्त घर की अस्त- व्यस्त पर ही व्यस्त हैं।
खूंटे सहित हरही गाय भागती हैं। पर बांझ कह खूंटे से मुक्त यदा- कदा ही होते है कुछ तो अपने ऊपर शौतन, तो कुछ गोद ले लेते है या आजकल सेरोगोसी -टेस्ट ट्युब जैसे तकनीक से बंधी जीवन निर्वाह करती हैं ।
पर कुलक्षणी कह निर्वासित इस प्रख्यात लेखिका की कहानी पर फिल्म बनाने उनसे मिलने निर्माता के संग आए स्क्रीप्ट राईटर जो कभी चाय नहीं पीते ,आज उनके अंदर पता नहीं क्यों? मिठास घुलती ही जा रही हैं।
फलस्वरुप वे शुभ्र व सभ्य लगने लगी कि अपने प्राकृतिक अधिकार की तिलांजलि इसलिए दे दी कि बुजुर्ग माता -पिता भाईयों- भाभियों द्वारा दुत्कारे न जाकर ससम्मान इनके साथ रहें। और नैहर वालों की अहं भी फूले -फले ! भले वे एक कंठ विषपायी सदृश्य नारी से नर होना दृढ़तापूर्वक स्वीकार ली।
स्क्रिप्टर पर चाय की माधुर्य चढ़ा देख लेखिका को भी यह आभास हुआ ...और उन्हें लगने लगा कि "एक प्याली चाय की कीमत क्या हैं।" इसका रियल अहसास होने लगा ।
-डा. अनिल भतपहरी 9617777514
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