Sunday, March 22, 2020

करोना और दु:खदाई कर्फ्यू ...

करोना और दु:खदाई कर्फ्यू 

   करोनो‌ वायरस से उत्पीड़ित  वैश्विक मानव समुदाय को‌ संरक्षित व सुरक्षित कराने  आज देश के प्रधानमन्त्री के अपील पर स्व स्फूर्त जनता कर्फ्यू दिवस हैं  यह दु:खदाई नही बल्कि सुखदाई स्वस्फूर्त  कर्फ्यू हैं।  घर बैठे टीवी में शत -प्रतिशत कर्फ्यू का महौल देखकर हमें इसी तरह के मंजर और उनके आञखे देखे संस्मरण स्मृत हो रहे हैं। बीच बीच में भजन कीर्तन मनोरंजन भी चल रहे है। 
लोग सोसल मीडिया स्मृति संस्मरण लिख रहे हैं। बच्चे भी पूछ रहे है कि ये कर्फ्यू होता क्या है। पहले हुआ भी था क्या ? और कैसे हुआ तो हम भी आन स्क्रीन लिखने लगा क्योंकि अब लेखन में पहले की तरह  कलम पकड़ना छूटते जा रहा है।  मोबाईल में लिखे  को कापी में  उतार‌ना भी ढेरयासी लगते हैं। 
  खैर बात कर्फ्यू की छिड़ी तो  हमें पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी जी के निर्मम‌ हत्या उपरान्त भड़के १९८४ के दंगे  व कर्फ्यू स्मृत  है। गांधी चौक मैदान में इंदिरा गांधी की सभा देखकर गांव आए हमे ८-१० दिन ही हुए थे ।और उनकी शहादत  की खबर आ गई । इस दौरान मां -बाबु जी दो  छोटी बहनों को‌ लेकर  रायपुर नाना जी  घर आए थे । अपनी राजदूत सहित  वहां फंस गये !(उस समय‌ फेमस फोटो स्टुडियों में कलर फोटो खिचवाए वह फोटो  आज भी फ्रेमित संरक्षित है।) गांव के घर ब्यारा में‌  तिल‌ सुखाने रखे गये थे रात बारिश हुई ।घर में हम तीनो भाई थे मै अनिल, सुनील और सुशील  १५-१३- ११ वर्ष के थे। (हमारे घर  दो सौजिया थे चिखली और देवगांव के माहरुल‌ तेली व छोटू रावत )  तिल को सुरक्षित करने  भीतराने लगे बारिश जोर से हुआ।आसपास रिश्तेदार  भी अपना अपना कार्य में लगे थे। बडी मुश्किल से यह कार्य किए और पुरी तरह थक कर चूर हो गये ।भूख लगा तो रात को  चूल्हे में भात पकाकर आचार से खाए। हमारे गांव में ‌काली फर्शी खदान हैं। ट्रकें आते ही रहते पंजाबियों के दो ट्रक जिसके मालिक रायपुर का  नरेन्दर नाम का  सिख का था और सज्जन व धनि  व्यक्ति थे । हमारे खदान जिसे बडे पिता जी संचालित करते थे  वहां पर सुरक्षित व संरक्षित खडा  था। सिख लोग सतनामियों ‌के साथ बडे ही मैत्री भाव से रहते हैं। विश्वास भी इन पर करते हैं। नरेन्दर के स्वभाव से बडे पिता जी प्रभावित थे। 
    बाद में जब उनकी छोटी बेटी बहन सुमित्रा के पुत्र हुए तो उनका नाम नरेन्दर ही रखा गया।जबकि पिताजी बहन  और हम सब भाई - बहन नरेन्द्र कहते व नाम लिखवाने कहें ।पर वे कोटवार डायरी में  नरेन्दर ही लिखवाए।  
         

 बहरहाल १९९२ में   बाबरी मस्जिद ढहने के बाद का वह मंजर सदैव स्मृत हैं। जब हम दुर्गा कालेज से अपने गुरुघासीदास छात्रावास  साईकिल से आ रहे थे। तब एक सिपाही हमें जबरियां रोकने लाठी से  प्रहार किया। उनसे बचने   तेजी  से सायकल को पायडल मारते व  काटते निकले और लाठी केरियल को पड़ा लड़खडा कर गिरे सायकल छोड़कर दौड़ते छात्रावास पहुंचा । दो तीन धंटे बाद सायकल जो वही पडा था बगल हटा दिए थे को लाया।  रिंग बेंड हो गया था।हमें पड़ता तो कल्पना कर सकते हैं कि क्या गत्त हुआ होता।
     ऐसे ही जब १९९४ में दलित साहित्य अकादमी के कार्यक्रम में सम्मलित होने ताल कटोरा स्टेडियम  न ई दिल्ली गये।प्रो कांडे के आमंत्रण पर कि आपके प्रकाशित रचनाओं के आधार पर डा अम्बेडकर फेलोशिप प्रदान करवाएन्गे ।पर वे राजनांदगांव रेल्वे स्टेशन में मिले ही नहीं ।इसलिए अकेले गुमनाम गया। ले दे कर ठहराए गये स्थल पर पहुंचा ।सुबह उन्हे स्टेडियम में तलाशे वे मिले नहीं ।बल्कि महासमुन्द के एच आर बघेल‌, नोहरु‌ कोसरिया जी लोगों से मुलाकात हो ग ई ।पूर्व परिचितो से सुदुर दिल्ली में मिलना हमारे लिए अल्हादकारी लगा। शाम को छत्तीसगढ़ से गये रचनाकारों जिसमें बस्तर के रचनाधर्मियों से मेल मुलाकात हुई जिनमें पवार जी, र उफ परवेज , मुकेश शर्मा इत्यादि। हमलोग वही कवि संगोष्ठी किए और देश भर से आए लोग सुनकर आनंदित होते रहे।
     दूसरे दिन दिल्ली धुमने बस लिए और शाम लाल किला में थे कि चांदनी चौक में बस विस्फोट हो जाने से अफरा तफरी  मच गये ।लाल किला के प्राचीर से भीड़ को इधर ऊधर भागते देखे वह मंजर भूले नही भूलता ।कुछ घंटे के बाद तत्काल कर्फ्यू लग गये हम ग्रुप से बिछुड़ गये और बड़ी मुस्किल से रात्रि ११ बजे उस होटल में पहुँचे जहाँ ठहरे थे। 
           
    इस तरह कर्फ्यू दु:खदायी  ही होते हैं। पर आज की स्वस्फूर्त कर्फ्यू आगे सुखदाई होन्गे ।इस उम्मीद के साथ स्वस्थ रहो अपने घर में सपरिवार मस्त रहों।
       । नमस्कार , जय भारत ।

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