"स्वस्फूर्त महाबंद वंचितों की दूसरी वास्तविक आजादी का एक सांस्कृतिक ऐलान हैं।"
- डा . अनिल भतपहरी
उक्त प्रसंग पर लिखी हमारी कविता जो संभवतः आगे भी प्रासंगिक हो सकते हैं -
प्रस्तावित २ अप्रैल भारत बंद के प्रसंग पर-
"सावधान पथिक !"
जब तक थको नही चलते चलो
चलने मे अब थकना भी क्या ?
सदियों से पथिक हो
पहुंचे हुए पहुना नही
कि कोई आदर पूर्वक परघाएं
बिठाकर तख्त में
सौप दे राजपाट
खिलाए छप्पन भोग
अरे भाई!
हमे कोई चाह नही
बस राह कटीलीं न हो
और कोस दो कोस मे
छांह मिल जाय
या किसी हम सफर के
साथ मिल जाय
पानी की परवाह नही
वह भरा हुआ हैं
हममें लबालब
इसलिए तो चल रहे हैं
और लड़ रहे हैं
ताकि कोई पहुंचा हुआ
रच न सके सडयंत्र
छीन न ले
अभिनव मंत्र
ताकि जो पगडंडी है
उसे भी वे न दे उजाड़
जो कुछ बना है
उसे न दे बिगाड़
इसलिए चलते रहो
हरतरफ हरदम
देखते है दम
कि वे कितनी
पगडंडियां उजाड़ पाते हैं
कितना बिगाड़ पाते हैं
यदि वे ठान ही लिया
बिगाड़ना
तो याद रखना
तुम कभी न उनसे जुड़ना
तुम्हारे जुड़ने से ही
वह उजाड़ने लगते हैं
जैसे कुल्हाड़ी में बेठ बन
लकड़ी जुड़ जाती हैं
और देखते ही देखते
वन उजड़ जाते हैं
यह तो पता ही हैं
कि वन के उजड़ने से
पगडंडियां विलिन हो जातें हैं ......
कहीं ऐसा न हो
फिर कैसे और किस पर चलोगें ?
सावधान पथिक !!
डा. अनिल भतपहरी,रायपुर
३१-३-१८
No comments:
Post a Comment