[3/18, 20:44] Dr.anilbhatpahari: एक मान्यता हैं कि साध महात्मा सतनामी और पुरोहित पुजारी ब्राह्मण परस्पर वैचारिक दृष्टिकोण से पृथक -पृथक मान्यताओं वाले वर्ग हैं दोनो जातियां नही है बावजूद जाति के नाम पर चिन्हाकित किए गये । एक जन्मना जात -पात विरोधी व समानतावादी हैं जबकि दूसरा जनमना जात -पात ऊंच -नीच भेद -भाव के सर्जक व समर्थक हैं। एक प्रवर्तनवादी तो दूसरा यथास्थिति वादी हैं।
कलान्तर में श्रमिक जातियां जो चौथे वर्ण में रहे सतनामियो की मानवतावादी एंव समानतावादी सिद्धांत के आकर्षण चलते सतनामी बनते गये। जबकि कोई कितनी ऊचाई व सात्विकता को अर्जित करे ब्राह्मण नहीं बन सकते । जबकि पतित व्यक्ति गुरु शरण में आकर सतनामी होकर उत्थित हो जाते हैं। इस तरह भारतवर्ष में एक नवीन संस्कृति का सनातन संस्कृति के समनान्तर ही प्रवर्तन हुआ। जो अलग तरह से रेखांकित हुई।
सतनामियों में भारतीय समाज के अनेक जातियों का समागम है। इस तरह जातिविहिन समुदाय के नाम से यह सर्वत्र विस्तारित होने की ओर अग्रसर हैं।
डा. अनिल भतपहरी
[3/18, 20:45] Dr.anilbhatpahari: सतनाम - संकीर्तन
भजन
सत के पुजारी हे गुरुघासी
गुरुघासी हो संतो .....
सत के पुजारी गुरुघासी
पिता महंगुदास बबा हे
अमरौतिन महतारी
जंगल झाड़ी डोंगरी पहाड़ बीच
गिरौदपुरी के वासी संतो .....
सफूरा संग बिहा रचाए
दुनो कुल के मान बढाए
सिरपुर नगर महंत के बेटी
उज्जर रुप फूल कांसी संतो ....
सत के रद्दा ल नेक कहे
सब मनखे ल एक कहे
जात -पांत छोडवाके
बनाये सब ल सतनामी संतो ....
हंसा अकेला सतनाम संकीर्तन
प्रस्तुति व रचनाकार
डा. अनिल भतपहरी
९६१७७७७५१४
[3/18, 20:46] Dr.anilbhatpahari: जब श्रृष्टि रचित हुई अनेक जीव जन्तु आए कलान्तर मानव हुआ धीरे धीरे उनका क्रमिक विकास हुए ध्वनि उच्चरित किए शब्द आया तब कही जाकर सतपुरुष जैसे सुन्दर नाम की रचना हुई।
हालाकि यह हमे आपको सुन्दर और महिमामय लगते हो पर दुसरे भाषा देश या संस्कृति वालो को नहीं ।उनहे अपना अपना इजाद नाम यथा गाड खुदा रब ईश्वर भगवान अच्छा लगता है। पर यह नाम सतनामियों को अच्छा नहीं लगता ।मतलब इससे से भी सिद्ध होते हैं। सभी विचार दर्शन नाम भाषा शब्द कला कशौल क्रियेटिव हैं। गढित व सृजित हैं। पहले से कोई नहीं ।पहले से गैस निराकार रुप फिर ठंडी हुई तो जल साकार रुप फिर उनसे जीवन अमीबिया बैक्टीरिया वायरस आक्टोपस मछली कच्छप आदि जलचर थलचर नभचर व उभयचर अस्तित्व मान हुए ।
संसार सतनाम मय हो
सत श्री सतनाम
[3/18, 20:47] Dr.anilbhatpahari: गुरुघासीदास सिद्ध महापुरुष थे ।वे निरन्तर गतिमान रहे ।अपनी ९४ वर्ष की आयु तक सक्रिय और अंत में एकान्तवाश और लोक मान्यता में अछप ( अन्तर्ध्यान ) हो गये।
वे अशांत और आक्रोश से भरे लोगों को शांत और समृद्धशाली किए।संशय ग्रस्त लोगों को निशंक किए।उनका क्रांति बाहर का नहीं आंतरिक रहा और वे लोगों के मन हृदय और बुद्धि को परिवर्तन कराए। आत्महीनता में आत्मविश्वास पैदा किए। वे अशांत कैसे होन्गे। हां जब वे जनमानस की पीड़ा शमन हेतु चिन्तन मनन करते तब उद्वेलित और विह्वल हो आशांत होते तब धौरां वृछ का सधन छांव और भीषण गर्मी में हरे भरे लहलहाते तेन्दू वृछ का शीतल छांव उन्हें शांत करते ।
एक उद्वेलित और अशांत व्यक्ति कभी जीवन दर्शन प्रस्तुत नहीं कर सकते।
उनकी क्रांतिकारी छवि बनाना अव्यावहारिक और हल्का पना हैं।
हां क्रांतिकारी छवि गुरुबालकदास का हैं। और वे इसलिए शहादत भी दिए।
गुरुघासीदास के कोई शत्रु नहीं वे शत्रु के हृदय को जीत लेने वाले महान आध्यात्मिक महापुरुष हैं। नाहक उन्हे क्रांतिकारी बनाए जा रहे हैं।
वे जागरण खासकर नवजागरण के अग्रदूत हैं। सतनाम आन्दोलन से अधिक प्रभावशाली व चिर प्रासंगिक नाम या प्रवृत्ति वाले शब्द सतनाम जागरण हैं। गुरुघासीदास के कार्य क्रांति करना नहीं अपितु जनमानस को सुषुप्तावस्था से जागृत कराना रहा हैं।
जनम जनम का सोया मनवा शब्दन मार जगा दिजो हो वाली कहावत चरितार्थ होते हैं।
इसलिए वह नायक नहीं सद्गुरु हैं। जिनके चरणों में हजारों नायक न्योछावर हैं।
[3/18, 20:51] Dr.anilbhatpahari: सतनाम- साहित्य एक परिचय
गुरुघासीदास द्वारा सतनाम -पंथ प्रवर्तन के साथ सप्त सिद्धान्त ,४२ अमृतवाणी, २७ मुक्तक ९ रावटी व अनगिनत उपदेश दृष्टान्त - अनुयायियों के सम्मुख अपने श्री मुख से नि:सृत किये ।वही उनके विशिष्ट शिष्यों के कंठ में विराजमान हुए ।तथा गुरुमुखी परंपरा के अनुरुप देश के अनेक भागों में निरन्तर प्रचार प्रसार किए वही सब पंथी गीत मंगल भजन चौका आरती गीत व लयात्मक उक्तियों और बोध व दृष्टान्त कथाओ के रुप में सतनाम साहित्य धारा जनमानस में अजस्र रुप से प्रवाहित होने लगी। कलान्तर में यह लिपिबद्ध होकर सर्व मंगल कामना से युक्त छत्तीसगढ़ी में शिष्ट साहित्य के रुप में चिन्हांकित हुई ।इन्हें अन्य भाषाओँ में लाकर व्यक्ति स्वतंत्रता और स्वाभिमान की महक को सर्वत्र महसूस कराने की आवश्यकता हैं। क्योंकि अठारहवीं सदी में भारतीय नवजागरण का जो स्वर उभरे उनमें सतनाम साहित्य ही स्वर सर्वाधिक मुखर रहे हैं-
मंदिरवा मं का करे ज इबोन
अपन घट के देव ल मनइबोन
कह जो जनजागरण की बाते कहीं गई वह अप्रतिम हैं।
जनमानस में भाग्य भगवान के प्रति अनास्था रुढ- मूढ प्रवृत्तियाँ और इनके नाम पर सामंत पंडे पुजारी व सुविधाभोगियों के विरुद्ध जो प्रतिरोधक चीजें आई उनमें इसी सतनाम साहित्य और गुरुघासीदास उनके पुत्रों एंव संत-महंत द्वारा चलाए सतनाम जागरण अभियान की भूमिका महत्वपूर्ण रहा हैं। इसका प्रभाव अब भी कायम हैं। बल्कि ज्यो ज्यो समाज शिक्षित होते जा रहे गुरु की वाणी और उपदेश त्यो त्यो साफ साफ समझ आते जा रहे हैं ।
गुरुघासीदास के समकालीन मेजर पी वान्स एग्नु द्वारा सुबे के प्रतिवेदन में गुरुघासीदास के प्रभाव परिलक्षित होते हैं। उनके अन्तर्ध्यान 1850 के दो दशक बाद 1868-70 मे विभिन्न अंग्रेज लेखक व अधिकारी जिनमे मि चिशोल्म ब्रिग्स हैविट बेगलर लोर जैसे डेढ़ दर्जन लेखक अधिकारी गुरुघासीदास के सतनाम जागरण अभियान और उनकी उपदेश शिक्षा से समाज में जो प्रभाव पड़ा पर सूचनात्मक आलेख प्राप्त होते हैं।
प्रदेश में सर्व शिक्षा के तहत साक्षरता आई तब अनुआईयों में कंठ दर कंठ वाचिक परंपरा मे आई । गुरु की अमृतवाणियां, उपदेश आदि लिपिबद्ध होने लगे। पंथ की वाणी ही पंथी गीत के रुप में कठस्थ रहे ।यही सतनाम साहित्य के रुप में ख्यातिनाम हैं।
जो कि सर्व मंगल कामना से युक्त मानवता की यश गाती हुई अमृतवर्षा करती लोक मंगल की कामना लेकर प्रस्फुटित है । जहां न दंभ न दर्प अपितु संसार की छण भंगुरता जीवन की नश्वरता माया के विस्तार और अनेक भ्रामक व मिथकीय स्थापनों व सडयंत्रों से बचाकर सत्य को उद्घाटित करती सरल- सहज जीवन निर्वाह के सुन्दर उपाय हैं।
सतनाम - पंथ ( धर्म ) से संदर्भित प्रकाशित रचनाओं व रचनाकारों का उल्लेख निम्नांकित हैं-
प्रबंध काव्य/ महाकाव्यात्मक स्वरुप
१ गुरुघासीदास चरित - पं सुखीदास
२ सतनामी महापुराण - पं सुन्दरलाल शर्मा १९०७
३ सतनाम - सागर - संत सतनाम दास १९२८
४ गुरुघासीदास नामायण - मनोहरदास नृसिंह १९६८
५अथ गुरुघासीदास सत्यायण - पं सखाराम बधेल ( १९७५)
६ सतनाम पोथी - सामायण - पं सुकुल दास धृतलहरे ( १९८९ )
७ गुरुबाबा घासीदास लीला - सुखरु प्रसाद बंजारे
८सतनाम धर्म ग्रंथ सतसागर - नम्मूराम मनहर २००४
९सत्यवंश सतनाम धर्म ग्रंथ - राजमहंत नंकेसर लाल टंडन २००४
१० श्री प्रभातसागर - डा मंगत रविन्द्र
११सतनाम पोथी २०१२
१२सतनाम सरित प्रवाह - डा अनिल भतपहरी अप्रकाशित पांडुलिपि में
खंडकाव्य -
१ सतनाम खंडकाव्य - डा मेधनाथ कन्नौजे
२ गुरुअम्मरदास जी - नम्मूराम मनहर
३ राजा गुरुबालकदास - नम्मुराम मनहर
४ सतनाम- संकीर्तन सुकाल दास भतपहरी
५ गुरु उपकार , गुरु उपकार - साधु बुलनदास
१९९२-९३
६ गुरुघासीदास सतवाणी - पुरानिक चेलक
७ गुरु घासीदास आरती संग्रह - नम्मुराम मनहर
८ मंगल भजन संग्रह - पं सखाराम बघेल
गुरुघासीदास पंथी मंगल - मनोहर दास नृसिंह
९ गुरुघासीदास चौका मंगल आरती
१० एक था सतनामी भाग १-२-३ पुरानिक चेलक
सहित अनेक पंथी मंगल भजन चौका आरती संग्रह प्रकाशित है।
गद्यात्मक सतनाम साहित्य -
१ सतनामी और सतनाम आंदोलन- डा शंकरलाल टोडर
२ सतनाम - दर्शन - इंजी टी आर खूंटे
३ गुरुघासीदास अमृतवाणी मुक्तक व रावटी - राजमहंत नयनदास कुर्रे
४गुरुघासीदास संधर्ष समन्वय व सिद्धांत - डां . हीरालाल शुक्ल
५ सतनाम के अनुयाई - डा जे आर सोनी
६ परम पूज्य गुरुघासीदास जी सद्ग्यान
७ सतनाम की दार्शनिक पृष्ठभूमि - डा जे आर सोनी
८ सतनाम पोथी - डा जे आर सोनी
९ सतनाम रहस्य - डा जे आर सोनी
१० गुरुघासीदास की देन - श्रीकांत दूबे
११ छत्तीसगढ़ राज्य और सतनामी समाज
१२ राजा गुरुबालकदास - नम्मुराम मनहर
१३ गुरुघासीदास लीला - बाबू खान
१४ पंथीगीत और राष्ट्रीय चेतना - डा जे आर सोनी
१५ सतनाम दर्शन भाग एक व दो - भाऊराम धृतलहरे
१६ पांखी -- सेवकराम बांधे
सहित अनेक स्वतंत्र पुस्तकें
१७ गुरुघासीदास और उनका सतनाम आन्दोलन - साधु सर्वोत्तम साहेब
१८ छत्तीसगढ़ में सतनाम आन्दोलन और सांस्कृतिक पुनर्जागरण - प्रो पी डी सोनकर
१९ गुरुघासीदास का सतनाम आन्दोलन एक जनक्रांति - डा. दादूलाल जोशी
२१ गुरुघासीदास और उनका सतनाम पंथ
छत्तीसगढ़ के निर्गुण संत साहित्य में गुरुघासीदास का योगदान -( शोध प्रबंध ) डा अनिल कुमार भतपहरी
२२ हंसा अकेला सतनाम संकीर्तन - सुकालदास भतपहरी / डा अनिल भतपहरी
२३ सतनाम धर्म संस्कृति
पत्र/ पत्रिका -
सत्यध्वज -
संपादक दादूलाल जोशी
सत्यालोक - डी एल दिव्यकार
सतनाम - संदेश - डा अनिल भतपहरी
सत्यदर्शन - घनारा म ढिन्ढे
सत्यदर्शन - डा आई आर सोनवानी
सत्यकिरण
सत्यसंदेश
जयसतनाम - प्रो पी डी सोनकर व देवचंद बंजारे
सतनाम पत्रिका १-१४ अंक संपादन - नम्मुराम मनहर
इस तरह देखे तो छत्तीसगढ़ी और हिन्दी में सतनाम धर्म संस्कृति और गुरुघासीदास चरित तथा सतनामी समाज के प्रमुख व प्रभावशाली व्यक्तित्व के ऊपर लेखन एक व्यक्ति स्वतंत्रता और सत्य निष्ठा पर आधारित सर्व कल्याण की मंगलकामनाएं करते लौकिक रुप से ऐतिहासिक उपलब्धि और घटनाओं का दस्तावेजी करण हैं।
इन सबके अनुशीलन से समकालीन छत्तीसगढ़ का वास्तविक रुप से दिग्दर्शन किया जा सकता हैं। इनके आधार पर कलान्तर में और भी प्रभावशाली साहित्य सृजन की आपार संभावनाएँ है। अनेक विश्वविद्यालय सतनाम साहित्य के ऊपर अनुसंधान कार्य को प्रोत्साहित भी कर रहे जिससे शोधकर्ताओं ने इस पर गंभीरतापूर्वक कार्य कर अनेक अनछुए पहलुओं को उजागर कर रहे हैं। जो कि प्रशंसनीय हैं।
- डा. अनिल कुमार भतपहरी
सहायक संचालक उच्च शिक्षा विभाग रायपुर छत्तीसगढ़ शासन छ ग
[3/18, 20:53] Dr.anilbhatpahari: "जुगुलदास सतनामी उर्फ चरणदास चोर "
विश्वविख्यात छत्तीसगढ़ी लोकनाट्य चरणदास चोर जिसे कई विद्वान गुजराती लेखक विजयदान देथा कृत चोर-चोर कहानी से प्रेरित मानते हैं ।अभी अभी किशोर साहू सम्मान हेतु विख्यात फिल्मकार श्याम बेनेगल ने भी पद्मविभूषण हबीब तनवीर को उसी कहानी के बारे में बताने का जिक्र किया। इस तरह यह तेजी से विगत कुछ वर्षों से स्थापित होते जा रहे हैं कि चरणदासचोर गैर छत्तीसगढ़ी कथानक हैं।
बाहरहाल यह देथा की काल्पनिक कहानी से प्रेरित हो तो सकते हैं। पर छत्तीसगढ़ का जीवन्त पात्र जिनके सभी कारनामे यथावत इस नाटक में हैं। उस जुगुलदास सतनामी के संदर्भ में जानकारी देना इस आलेख का मुल प्रयोजन है।
हमारे शिक्षक पिताश्री सतलोकी सुकालदास भतपहरी बहुमुखी प्रतिभा के धनि थे और अपने स्कूल में अन्य सहयोगी शिक्षक और छात्रों को लेकर शौकिया अभिनय व रंगमंच करते थे ।चरणदास चोर को वे तनवीर साहब से अलग हर साल ८-१० बार १९७५-९५ तक रचते रहे। और नये नये प्रयोग करते रहे । हमलोग बचपन से उनमें रमे रहे। उजागर रतन एंव गुरुबाबा जिसे साधु कहे गये का रोल हम निभाते रहे। पिताजी चरणदास चोर बनकर -पैलगी गुरुबबा कहते ....और हम जीयत राह बेटा अम्मर राह कहते तो बाप बेटे की इस संवाद से दर्शकों में एक अलग समा बंधता । जब चरणदास को भाले से छेदकर मारने वाली करुण दृश्य आते तो लगभग सिहरते हुए कह ता - जीयत राह ....... बेटा ...... अम्म र .....राह तो दर्शक दहाड मार रोने लगते ..... महिलाओं की दशा दर्शनीय होते ! खैर करुणा और संवेदना का वह मंजर हमने आजतक कही नहीं देखा न जिया ।
एक बार धीवरा खरोरा में १९८२-८३ में टेडेसरा की नाच पार्टी चरणदास चोर गम्मत लेकर आए उसे देखने गये।स्वर्णकुमार वैद्य जो उसके संचालक थे ने चरणदास के संदर्भ में जानकारियाँ देने लगे कि यह जुगुलदास सतनामी के जीवनी से गढे गये लकनाट्य हैं। वे देशी राबिनहुड थे और धनिको से उनके धन को लूटकर गरीबो मे में बाटते थे। सतनामी धर्मगुरु से दीछा लेकर आजीवन सत्य को धारण कर ऐसा ही जनकल्याण करते रहे।
यह बचपन की सुनी बाते जेहन में रहा। आगे जब जब इस पर चर्चा होते हम सविनम्र स्वर्णकुमार वैद्य जी के धीवरा मे कही बाते दुहराते। पर कोई साछ्य नहीं जुटा पाए न जुटाने की जहमत उठाए। हमने हबीबतनवीर व उनके कलाकार मंडली गोविन्द निर्मलकर आदि से डोंगरगढ के कार्यशाला में १९९४ मे सी डी डोन्गरे स्टेशन मास्टर के मार्फत मिले जो कभी हबीब साहब के अजीज थे।पर इस संदर्भ में कोई जिक्र नहीं किए क्योकि तब यह बात ही नहीं था। और हम चरणदास को जुगुलदास की ही कथा समझते रहे।
पर विगत कुछ वर्षो से यह बात तेजी से फैलती जा रही हैं कि चरणदासचोर की कथानक गैर छत्तीसगढ़ी हैं। और यहां के जनजीवन से कोई वास्ता नहीं । तब हमारे बालपन से बसे वह बात भीतर भीतर मथने लगा कि ऐसे कैसे जुगुलदास को दफ्न कर दे।
तब हमारी अपनी और सबकी मीडिया सोशल मीडिया में इसे पोष्ट किया।सौभाग्यवश राजनांदगांव फरहद निवासी वरिष्ठ कलाकार सेवानिवृत्त व्याख्याता व रचनाकार डा दादूलाल जोशी सप्रमाण कहे कि उनके पिता श्री जो सनाड्य व सम्मानिय रहे से मिलने जुगुलदास आया करते थे ।वे निर्धनो में अत्यन्त लोकप्रिय रहे। वे भी स्वीकृति दिए की जुगुलदास ही चरणदास रचने के प्रेरणा पुरुष थे। इस तथ्य को यहां के लोगों को भलीभांति समझना चाहिए। हबीब साहब को कोई मौखिक में जुगुलदास के संदर्भ में बाताए भी होन्गे।जैसे बहादुर कलारिन, हिडमा और अन्य ऐतिहासिक पात्रों के संदर्भ में बताए और वह मंच में सजीव हो उठे।
बाहरहाल जुगुलदास रायपुरा डौडी के निवासी थे और अपने आसपास राबिनहुड छवि के कारण जनमानस में लोकप्रिय रहे।और जीते जी किवदन्ती हो गये। उन्हे जनमानस जाने समझे और अन्वेषक इस दिशा में गहनता से काम करे ऐसी आपेछा हैं।
जय छत्तीसगढ़
डा. अनिल भतपहरी
[3/18, 20:54] Dr.anilbhatpahari: चमत्कार शब्द अलंकृत शब्द हैं।
किसी महान व्यक्तित्व के असाधारण कार्य को चमत्कार / महिमा / अप्रतिम ऐसा कहने की विशिष्ट व सांस्कृतिक परंपरा हैं।
असल में चमत्कार शब्द गुरुघासीदास के कृतित्व में चंद लोग जानबूझकर जोड़े हैं। असल में उनके कार्य युगान्तरकारी व असाधारण हैं। हमने बचपन से आजतक केवल "गुरुघासीदास के महिमा" शब्द सुने हैं। महिमा हमारे अपने सांस्कृतिक शब्द हैं।
ये चमत्कार आदि तो जादूगरी जैसा है। एलम या करिश्मा हैं।
बहरहाल यह ऐसा कि जब अन्य मत पंथ या धर्म में यह वर्णन हैं। तो हमारे भी किसी से कम न हो ।इस होड़ से ऐसा हुआ जान पड़ता हैं।
वैसे बुधारु जीवन दान जड़ी बुटी द्वारा सर्प विष हरन हैं।
बछिया जीवन दान पशुधन संरक्षण हैं। और सफुरा जीवनदान स्त्री सशक्तिकरण करण हैं। अधर नागर तुतारी गुरु की मुखार वृंद से निकले प्रेरक प्रवचन हैं।
गुरुघासीदास का कार्य या महिमा अप्रतिम हैं। लोग साहित्यिक शब्द रुपक उपमा उत्प्रेक्षा को नहीं समझ उलुल जुलुल समझ लेते हैं। और तथाकथित हमारे विज्ञान वादी पढे लिखे उन भोले भाले लोगों की समझ व मान्यताओं का खिल्ली उड़ाते हैं।
ऐसा बिल्कुल नहीं होना चाहिए। आखिर हम शालीनता क्यो कर त्याग देतें हैं। क्या शिक्षित होने का यही मतलब हैं कि हम परस्पर लड़े और खंडन मंडन में अपनी अक्षय शक्ति नष्ट करे।
हमारे शोषक व शत्रु से इन्हीं लोगों को साथ लेकर लड़ना हैं। न कि इनकी आस्था श्रद्धा को लहुलुहान कर दिग्विजय करने की कल्पना लोक में सैर करना है।
गलत हैं उसे साबित करने हम ऐसा गल्ती न करे कि हमारे लोग जो ले देकर एकत्र हुए हैं। वह ईधर ऊधर न बिखर जाय।
आखिर ऐसा कोई धर्म मत पंथ नहीं जो कर्मकांड और चमत्कार आदि से मुक्त हो।
बडे सांइस्टिस्ट व आइ ए एस आइ पी एस डा इजी प्रो भी अपनी धर्म मत पंथ की कर्मकांड व चमत्कार तथा उनके धर्म शास्त्र को चुनौती नहीं देते न अवहेलना करते न खिल्ली उडाते बल्कि ज्यों की त्यों मानते हैं।
और उन्ही लोगो के मातहत काम करने वाले लोग सतनाम संस्कृति की गाहे बगाहे अवहेलना करते रहते हैं। बाकी जगह पर संलिप्त रहते हैं।
मतलब सतनामी संस्कृति गरीब व विचार विहिन लोगो की पद्धति हैं कि जो चाहे ऐरे गैरे नत्थु खैरे अवहेलना करते रहे।
वैज्ञानिक चेतना फैलाना तो शौक से दूसरे धर्म के करोड़ों लोगो में फैलावे जहाँ जरुरत हैं।
सतनाम पंथ तो शोधित परिष्कृत और वैज्ञानिक सम्मत ही हैं। उसे बस समझने और व्यवहृत करने की आवश्यकता है। बहुत सारे लोग ऐसा करते भी हैं।
चंद लोग ही होन्गे जो ढोंग पाखंड करते हैं। और ऐसा वह अन्य धर्म के होड व देखासीखी में करते हैं। ऐसे लोगो को समझाया जा सकता हैं या उन तथ्यों की अनदेखी भी की जा सकती हैं। इनसे कोई अधिक प्रभाव पड़ता हैं। ऐसा भी नहीं हैं।
[3/18, 20:55] Dr.anilbhatpahari: "गुरुघासीदास प्लाजा आमापारा रायपुर "
सतनामी समाज की धर्मगुरु माता मिनीमाता प्रथम महिला सांसद के अभिनव प्रयास से उपलब्ध भूमि पर निर्मित (१९९५-९६ ) आमापारा रायपुर जी ई रोड पर भव्य गुरुघासीदास प्लाजा को एक पर प्रान्तिक मूल के बिल्डर ने कब्जा करके (लीज अवधि समाप्त होने के बाद भी ) रखे है!सतनामी समाज को सौपने हेतु सर्व छत्तीसगढी समाज शासन -प्रशासन को अवगत कराने यदि मिलकर अभियान चलाते हैं तो यह सामाजिक समरसता का एक नायब उदाहरण होगा।
इस भव्य व्यवसायिक परिसर से प्राप्त आय से छात्रावास नि: शुल्क कोचिन्ग व्यवसायिक रोजगार मूलक पाठ्यक्रम निम्न आय वर्ग के सभी बच्चों के लिए संचालित कर एंव सराय आदि बनाकर गुरुघासीदास बाबा के स्वप्न " तय मंदिर मठ गुरुद्वारा झन बना तोला बनायेच बर हे त धर्मशाला पाठशाला नियाला बना कुआ तरिया बना दुरगम ल सुगम बना । तब सचमूच में उनकी कथ्य चरितार्थ होन्गे।वैसे वहा ९ कमरो का २० सीटर मिनी छात्रावास संचालित हैं।
ऐसे मे क्या समाजिक समरसता के प्रशंसक और उन्हे संचालित करने वाले लोग ऐसा करने पहल कर करेन्गे? या आगामी चुनाव में सतनामी वोट बैंक को देखते राष्ट्रीय पार्टी अपनी मेनोफेस्टो में रखेन्गे। क्या सतनामी समाज अपनी करोडो के बेशकीमती धरोहर को सहेजने अपनी राजनैतिक चेतना का सार्थक अनुप्रयोग कर सकेन्गे?
इन प्रश्नों के सही समाधान हेतु विद्वत समुह से सार्थक परिचर्चा के आकांछी है।
-डा अनिल भतपहरी
[3/18, 20:56] Dr.anilbhatpahari: गुरुघासीदास शोध पीठ पं र.शु. वि.वि. रायपुर द्वारा आयोजित "संत -साहित्य में गुरु घासीदास जी का योगदान" विषय पर केन्द्रित संगोष्ठी में गुरुघासीदास के व्यक्तित्व व कृतित्व पर विद्वान वक्ताओं द्वारा प्रकाश डालते सारगर्भित विचार प्रकट किए गये।स्वागत भाषण शोध पीठ के अध्यक्ष डा जे आर सोनी ने दिए एंव अतिथियों और दोनो प्रमुख वक्ता को सेतवसन व श्रीफल से सम्मानित किए । तत्पश्चात् उद्बोधन में कुलपति महोदय ने गुरुघासीदास की अमृतवाणी पर विचार विमर्श करते किन परिस्थितियों में कही गई और उनका तत्कालीन समाज पर क्या प्रभाव पडा पर काम करने की आवश्यकता पर बल दिए । इनके लिए एक एक अमृतवाणी पर संगोष्ठिया कराने की आवश्यकता हैं कहे। वरिष्ठ साहित्यकार डा सुशील त्रिवेदी जी ने संत -साहित्य और खासकर छत्तीसगढ़ की उपेक्षा पर ध्यान आकृष्ट कराते कहे कि गुरुघासीदास की सिद्धान्त ,अमृतवाणी, उपदेश में व्यक्त बाते जन साहित्य हैं। जो काव्य शास्त्र की परिपाटी से पृथक हैं, जिनकी मूल्यांकन आवश्यक है कहे।
स्वामी विवेकानंद पीठ के प्रमुख व दार्शनिक विचारक ओम प्रकाश वर्मा जी ने सतनाम दर्शन को वेदान्त और उपनिषद के समकक्ष रखते गुरुघासीदास को ऋषि परंपरा के संवाहक बताये।स्वामी प्रत्युतानंद जी ने स्वामी विवेकानन्द का प्रसंग सुनाते कहे कि हमे गुरु की सीख से जनमानस के बीच रहकर काम करते संतत्व के बल पर लोक जागरण करना है।गुरुघासीदास पहले से ऐसा कर आर्दश स्थापित कर चुके है उनके अनुशरण करना है।वे निर्गुण संत के रुप में ख्यातिमान रहे।
छत्तीसगढ़ी संस्कृति के छरण पर मधुर काव्यपाठ के लिए चर्चित ख्याति नाम कवि मीर अली मीर ने समाज सापेक्ष नंदा जाही सहित अन्य काव्यपाठ किए।
ख्यातिनाम व्यंग्यकार व साहित्यकार गिरिश पंकज जी ने गुरु घासीदास पर अपनी शीध्र प्रकाश्य उपन्यास सत्यान्वेषी पर चर्चा करते उनकी उपदेशों को कवि कर्म घोषित कर मानव को श्रेष्ठतम चीजों का सौगात देने तथा गुरु के जगह गुरु की माने कह उनके सिद्धांतों को वर्तमान परिवेश में प्रासंगिक बताते गुरुघासीदास को छत्तीसगढ़ के कबीर कहे।
तत्पश्चात विषय पर केन्द्रित डा .अनिल भतपहरी ने अपनी व्याख्यान में कहे कि इसी विषय पर हमारी शोध कार्य हैं । गुरुघासीदास का कार्य युगान्तरकारी हैं। केवल आदर्श ही नहीं यथार्थ के धरातल पर वे वर्ग विहिन जातिविहिन समाज की संरचना करके समानता को संस्थापित किए।उनकी सतनाम सिद्धांत अमृतवाणी एंव उपदेश जो कि मूलतः छत्तीसगढ़ी में हैं।उससे यहां के लोकजीवन में सरलता व सहजता आए। उनकी साहित्य को वैश्विक पटल पर स्थापित करना यहां के प्रग्यावान लेखकों- विचारको और हम सबका दायित्व हैं ।
वरिष्ठ साहित्यकार दादूलाल जोशी ने संत -साहित्य की विशेषताएओं को रेखांकित करते गुरुघासीदास निःसृत वाणियो उपदेशों को परिगणित करते उनकी ४२ अमृतवाणियों का पाठ किए।
अंत में सभी व्यक्तव्य का सार निरुपण करते राजभाषा आयोग के अध्यक्ष व मुख्यातिथि गुरुघासीदास के प्रदेय को मानव कल्याणकारी बताते इनके संरक्षण व संवर्धन हेतु आवश्यक पहल करने तथा शोधार्थियों को संत- साहित्य खासतौर पर छत्तीसगढ़ में गुरुघासीदास के ऊपर कार्य करने हेतु मार्गदर्शन किया और कहे कि 'निर्गुण सगुण नही कछु भेदा 'तथा' लोक च वेद च ' की अवधारणा संपुष्ट करने कहे।
डा डी एन खुन्टे ने अभ्यागतों के आभार प्रदर्शन किए और कार्यक्रम का संचालन डा . सोनेकर जी ने किए। कार्यक्रम में आध्यापकगण शोधार्थी छात्रगण व साहित्यकार व प्रबुद्ध जन उपस्थित रहे।
डा. अनिल भतपहरी
[3/18, 20:57] Dr.anilbhatpahari: सतनाम
आज दि १८-९-२०१६ को
प्रगतिशील छग सतनाम साहित्य प्रकोष्ठ द्वारा आयोजित साहित्यकारों के समारोह मे सतनाम धर्म के विभिन्न जयन्ती पर्व उत्सव समारोह के सन्दर्भ मे अधिकारिक रुप से जन श्रुतियो और दस्तावेजों मे दर्ज तिथियों के आधार पर आयोजन करने सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण बैठक आयोजित हुई । मनुष्य जन्मजात उत्सव धर्मी प्राणी है और वे अपने धर्म मान्यताओं बडे बुजुर्गों के उपलब्धियों को स्मृत व उनसे प्रेरणा लेने अनेक तरह आयोजन करते सुखमय जीवन निर्वाह करते है।
मुलमुला काण्ड की तीव्र भर्तस्ना करते दोषियो के ऊपर शीध्र कडी कार्यवाही करने शासन प्रशासन को अवगत कराने व मृतक को श्रद्धान्जलि दी गई ।
तत्पश्चात सतनाम धर्म मे प्रचलित गुरुओं सन्तो के जयन्ती /पुण्यतिथी उत्सव पर्व मेले सन्दर्भित तिथियों पर चर्चा करते निर्धारित निम्नलिखित तिथियों पर सभी जगहों पर यथासम्भव गरिमामय आयोजन करने पर उपस्थित सभी सदस्यगण सहमत हुये-
१-गुरुघासीदास जयंती १८दि १७५६।तदानुसार १६-१७ को जयन्ती पूर्व शोभायात्रा ।१८-३१ जयन्ती पखवाडा।
२ गुरु अम्मरदास जयन्ती - असाढपुन्नी (गुरुपुर्णिमा) "अइटकातिहार"
३ - गुरुअम्मरदास समाधि दर्शन मेला - छेरछेरा पुन्नी चटवाधाट व बाराडेरा धाम।
४ गुरु राजाबालकदास जयन्ती गुरुमहाअष्टमी (आठे ) भादो कृष्ण पछ अष्टमी
५-गुरुराजा बालक दास बलिदान दिवस २८ मार्च १९६०
६-गुरुमाता मिनीमाता जयन्ती होलिका दहन की रात्रि १९१३
७- गुरु माता मिनीमाता पुण्यतिथी ११ अगस्त १९७२
८ गुरु जयन्ती पर्व प्रवर्तक मन्त्री नकूलदेव ढीढी जयन्ती १२ अप्रैल १९१४
९- अन्तर्राष्ट्रीय पन्थी नर्तक देवदास जयन्ती ...अप्रैल .......
१०- तपोभूमि गिरौदपुरी सत्धाम मेला -फागुन शु ५-६-७
११- भन्डारपुरी/ तेलासीपुरी / खडुवा खपरी धाम मे - दशहरा - क्वार दसमी / एकादशी
१२- गुरुगद्दी पूजामहोत्सव क्वार एकम से दसमी। १० दिवसीय आयोजन।
१३- सतनामायण / गुरुग्रन्थ / सन्तमिलन / सत्सन्ग प्रवचन ३-५-७ दिवसीय समारोह।दिसम्बर से मई तक।
१४ - सतनाम रावटी स्थल दर्शन यात्रा (गुरु बाबा द्वारा ९ जगहो पर धर्मप्रचार हेतु डाले गये पडाव या रावटी स्थलो के दर्शन यात्रा।)अक्टूबर से मई तक ।
१५ बोडसरा / अम्मरद्वीप अमरटापु / पताढी / पचरी धाम मेला
१६- चौका / साधु अखाडा / सतनाम सन्कीर्तन / भजन व सतनाम व्रत कथा सुख दुख दोनो अवसर पर सार्वजनिक व व्यक
[3/18, 20:59] Dr.anilbhatpahari: "सतनाम दर्शन में गुरुमुख संस्कृति "
सतनाम संस्कृति भारत की प्राचीन संस्कृति हैं और यह गुरुमुखी संस्कृति हैं। यह मानव सभ्यता के विकास के साथ ही क्रमिक विकास पर प्रकृतस्थ रुप में अग्येय प्रग्यावान संत गुरु महात्माओं द्वारा संस्थापित हैं। कलान्तर में इनके प्रवर्तको में चाहे बुद्ध, सरहपाद नागार्जुन ,गुरुगोरखनाथ कबीर रैदास उदादास ,जगजीवन या गुरुघासीदास हो वे अपनी मुखार वृन्द से अपने सम्मुख ज नों को उसी मूल सतनाम दर्शन का साधनाओं द्वारा दिग्दर्शन कर सतोपदेश देते आए और विशिष्ट धम्म पंथ का प्रवर्तन किए। उनके बाद धम्मोपदेश या पंथोपदेश देने अनेक प्रग्यावान साधक संत गुरुवंश उनकी ही वाणी चरित को अपनी समझ विवेक और मुख से जनमानस श्रवण कराते रहे हैं। उनकी धम्म पंथादि को गतिमान करते आ रहे हैं तथा प्रचार प्रसार कर रहे हैं और यह प्रणाली गुरु मुख प्रणाली ही हैं ।यह मुखिया या प्रधान वाली प्रणाली नहीं है। पर राजतंत्र के कार्यकाल में गुरुओ और उनके वंशजों ने राजसत्ता भी सम्हाले इसलिये उन्हे प्रधान कहे गये।पर देखा जाय तो राजा होते हुए भी खालसा और सतनाम पंथ में गुरु गुरुवाणी के आधार पर ही चले।वह सांमत जैसे स्वेच्छाचारी व राज नहीं किए बल्कि सत्याचरण सदव्यवहार से जनमानस के समछ धर्मोपदेश ही कहते रहे।रामत रावटी शोभायात्रा जुलुस गुरुदर्शन पर्व आदि में जनमानस के सम्मुख उपदेशना ही किए। और जनता भी गुरुमुखी होकर उनके वचनो को शिरोधार्य किए।
अत: यह स्वमेव सिद्ध होते हैं कि गुरुमुखी संस्कृति से गुरु जन अपनी ग्यान विवेक से लोगो के मन ,बुद्धि,और हृदय पर रमन करते हैं। न कि वह शक्तिशाली या अधिक लोगों के बीच लोकप्रिय आदि होकर उनके मुखिया प्रतिनिधि बनकर उनके प्रधान बन राज पाट करते हैं।
परन्तु जाने अनजाने में आध्यात्मिक व धार्मिक पद धीरे धीरे राजनैतिक पद में बदल कर सत्ता की प्रभाव व बल में परीणित होते जा रहे हैं। जबकि भारत वर्ष की सतनाम संस्कृति में सदैव संतो गुरुओं के समक्ष राजा सामंत मंत्री आदि नतमस्तक होते रहे हैं।
इसी सतनाम संस्कृति में "अपन धट के देव ल मनइबोन "
गुरुघासीदास ने छत्तीसगढ़ में सतनाम धर्म की प्रवर्तन करते कहा कि हे संतो अबतक जाने अनजाने में जिस मान्यताओं को जन्म से मृत्यु तक मानते आ रहे हैं वह निरा भ्रम व मिथक हैं ।उन्ही के कारण दु: ख संताप कलह अशांति और शोषण के शिकार हैं। इन सबसे बचना हैं तो सर्व प्रथम कल्पित देव और उनके कल्पित निवास स्थल मंदिर आदि जाना त्यज्य दे मूर्तिपूजा पुरोहितों को दान दछिणा देना बंद कर दे क्योकि यह सब मन को बहलाने वाला भ्रमित करने बहेलिया हैं ।यह सब करते क इ जुग बित गया पर अबतक मानव जीवन कोई बदलाव आया ही नहीं ।मंदिर नही वह मंदरिवा हैं जहा राग रंग रति दान दछिणा के नाम पर शोषण आशीर्वाद के नाम छल कपट द्वेष प्रपंच से युक्त मानसिक व धार्मिक गुलामी दी जाती हैं। इसलिए वहां जाना व्यर्थ हैं ।का करने जाय ?
यदि सुमरन करना हैं भाव भक्ति ही करना हैं तो अपने धट में विराजमान अनेक तरह के सद्गुण हैं। उनकी अराधना करे ।ऐसा एकत्रित संत समुदाय को धर्मोपदेश देते उनकी श्रीमुख से यह काव्यात्मक पंक्ति नि:सृत हुआ -
मंदिरवा म का करे जइबोन
अपन घट के देव ल मनइबोन .....
धट शब्द बहुअर्थी हैं।
एक यह शरीर
दुसरा उस शरीर का अंतस भाग
तीसरा मन हृदय बुद्धि
चौथा घर जहा हम निवास करते हैं।
पाचवा वह परिछेत्र जहा समुदाय सहित रहते हैं
इस आधार पर एक से दूसरे या आसपास रह रहे समुदाय से परस्पर सकरात्मक संबंध
अब इन्हे तरह से देखे -
धट का देव सत्य करुणा परोपकार प्रेम आदि हैं।
और घर में देव दादा दादी माता पिता बडे भाई भाभी हैं। उन्हे आदर दे उनकी पूजा सत्कार करे।
गुरुघासीदास की सत्य अमृतवाणी - "अपन धट के देव ल मन इबोन" का आशय यही हैं।
सद्गुण को धारण करते जो बडे बुजुर्ग अनुभवी हैं को आदर सत्कार देते सात्विक जीवन ही सार हैं। ऐसा करने मात्र से व्यक्ति को जीते जी परमपद या पद निरवाना की प्राप्ति होती हैं।
इस आशय का पंथी मंगल भजन हैं-
भजौ हो गुरु के चरणा अहो मन मेरा-
सभी इन्द्रियों सहित हाथ पैर की आकांछा व्यक्त करते हुए अंतिम अंतरा में वर्णित हैं-
अंतस म संतो सतनाम ल बसाइतेव
दया मया सत म ये जिनगी पहाइतेव
जिनगी पहावत परम पद पाइतेव
परम पद पाइके ये हंसा ल उबारितेव ...भजौ हो गुरु के चरणा ....
इस तरह देखे तो सतनाम धर्म ईश्वराश्रित नही सद्गुणाश्रित महान व्यवहारिक और सत्य पर आधारित समानता से युक्त मानवतावादी धर्म हैं। जो सभी अनुयायियों को सदैव सद्गुण से युक्त परस्पर प्रेम व सौहार्दपूर्ण आचरण करने की प्रेरणा देता हैं। न कि इन गुणो से रहित किसी की पूजापाठ दान दछिणा व्रत उपवास तीर्थ आदि की प्रेरणा देता है।
सात्विक रहन सहन और अपने आसपास के लोगो से सौहार्द्रपूर्ण व्यवहार और सत्संग ही मानव जीवन का सार हैं। यही भाव को धारण करना ही धर्म हैं।
सतनाम धर्म अपनी मूल प्रवृत्ति में सरल सहज व सबसे निराला हैं। इनके अनुयाई होना सौभाग्य एंव स्वाभिमान की बात है।
।।सतनाम ।।
डा अनिल भतपहरी
९६१७७७७५१४
जुनवानी ,रायपुर
[3/18, 21:03] Dr.anilbhatpahari: [3/18, 20:16] Anil: आव्हान और सुझाव
छत्तीसगढ़ में गुरुघासीदास जयंती समारोह पवित्र गुरुपर्व मास दिसंबर में १८-३१ तक बड़े हर्षोल्लास पूर्वक प्राय: ५-१० सतनामी परिवार से लेकर हजारों की संख्या में निवासरत ग्रामों मुहल्लों कस्बों एंव शहरों में नाचा-पेखन और लोककला मंच के नाम पर फूहड़ नाच -गान वाली कार्यक्रम आयोजित न हो।
क्योकि यह पर्व गुरु घासीदास के अप्रतिम कार्य को स्मृत करने आत्म शोधन कर समाज सुधार व रचनात्मक कार्यों को गतिमान करने का महापर्व है।
परन्तु रात्रि में मनोरंजन के नाम पर नाचा -पेखन और फूहड़ अश्लील कार्यक्रम गुरु बाबा की मूल बातों व सिद्धान्त को डायवर्ट कर देता है। कही - कही जयंती और मड़ई एक साथ रखकर जुआ शराब नाच पेखन का आयोजन करते है यह तो और भी गलत हैं।
वर्तमान में अनेक नाच मंडली व लोक कला मंच संस्कृति विभाग के सौजन्य व जन प्रतिनिधियों के संस्तुति से भी गुरुघासीदास जयंती मे होने लगा है। वहां पर गुरुघासीदास चरित व उनके उपदेश पर आधारित परिचर्चा , कवि सम्मेलन, गीत -भजन , गम्मत- नाटक लीला -झांकी आदि प्रस्तुति के लिए विशेष ध्यान रखा जाय। मनोरंजन के नाम पर इस पावन पर्व पर ऐसा कोई कार्यक्रम न हो जो सतनाम धर्म -संस्कृति के गरिमा के प्रतिकूल हो।
वैसे भी सतनामी समाज कृषक एंव खेतिहर समाज है।और अपनी गाढ़ी कमाई एकत्र करके हजारों लाखों रुपये एक दिन के कार्यक्रम में महज ५-७ धंटे रात्रि मनोरंजन के नाम( कि बाबा जी दरबार आज रात खाली न रहे की भाव से ) करोड़ो / अरबों फूंक देते है।
माना कि आरंभ में जयंती कार्यक्रम को लोकप्रिय करने १९३७-३८ में भव्य नाच कार्यक्रम कराये गये फलस्वरुप यह परिपाटी तीव्रतर विकसित हो ग ई ।स्थिति ऐसी निर्मित हुई कि प्रसिद्ध पार्टी जिस दिन खाली रहे उसी दिन जयंती मनाने की अजीबोगरीब रिवाज चल पड़ा।
गुरु, संत- महंत एंव जनप्रतिनिधी गण भी अपनी व्यस्ताताओं के चलते सभी जगह उपस्थित नही रह सकते फलस्वरुप उन सब में सामजस्य करते जयंती १५ - २० तक मनाने की परंपरा रुढ़ गये।इसके कारण भी नाच -पेखन लगाने और एक जयंती समिति दूसरी जयंती समिति से श्रेष्ठ कराने चक्कर में एक अजीबोगरीब प्रतिस्पर्धा और होड़ होने लगे।यह होड़ बना रहे पर उस तरह के हास्यास्पद कार्यक्रम के लिए नही अपितु पंथी भजन प्रतिस्पर्धा में हो कम से कम सतनाम संस्कृति का विकास होता ।
बहरहाल सात्विक जयंती मनावे पंथी मंगल भजन सत्संग प्रवचन का प्रचलन लाए।और एकत्रित धन राशि मे से बचत करते ७-८ गांव के मध्य सतनामी समाज हिन्दी - अंग्रेजी माध्यम का स्कूल संचालित करे । सतनाम आश्रम व अस्पताल भी खोले जा सकते है। इनके लिए स्कूल शिक्षा स्वास्थ्य व समाज कल्याण विभाग से भी मार्गदर्शन व जरुरत पडे तो अनुदान लिए जा सकते है ।ऐसा करना सही मायने में गुरु घासीदास के कार्य को ही आगे बढाने जैसा पुनीत कार्य होन्गे।पदाधिकारी निर्मल यश के प्रतिभागी होन्गे। सतनाम- संस्कृति का उत्कर्ष होगा।
नाच पेखन लगाना और दूसरे दिन मंद भात की न्योता आदि अपसंस्कृति है जाने अनजाने और मिथ्या शानों शौकत के चलते अबतक हम लोग आयोजन करते आ रहे है। हमें पीछे पलटकर देखना होगा कि इन सबसे हमें और समाज को आखिर मिला क्या है?
आज गांवो में जाकर देखे इतनी दयनीय स्थिति है। गुरु की कृपा ऐसा न हो पर प्राकृतिक विपदा आ जाय यदि पानी न गिरे या अधिक गिरे तो अकाल की दारुण स्थिति से निपटने हमारे पास कुछ भी संचय नही ।जबकि धीरे धीरे हम बचावे तो बड़ी से बड़ी विपदा से हम आसानी से बच सकते है।
युवाओं को स्वरोजगार हेतु न्युनतम ब्याज या ब्याज मुक्त ऋण देकर उनका और उनके घर परिवार समाज का भला कर सकते है।
सतनामी समाज मे गुरुओ और कुछ पंजीकृत बड़ी समितियों द्वारा ब्लाक व अठगंवा समिति गठित है पर रचनात्मक आयोजन शून्य है। अतएव इन सुषुप्त समितियों जो रचनात्मक व सेवाभाव के लिए गठित है वहां उस स्तर का कार्यक्रम संचालित हो । इनके लिए योजना बने और हर गांव से प्रतिनिधी सम्मलित कर वहां से चंदे से प्राप्त राशि का सदुपयोग करने होन्गे।
आने वाला समय बड़ा चुनौतिपूर्ण है ।क्योकि शिक्षा स्वास्थ्य जैसे मूलभूत चीजे नीजिकरण हो रहे है।वहां उन्नत समाज और लोग धनराशि लगाकर लाभ अर्जित करेन्गे ।आखिर सतनामी समाज कब तक असंगठित होकर उन सभी निजी संस्थाओं को पोषित पल्लवित करें।वे क्यो नही संस्थाए बनाकर ऐसा कार्यक्रम करे कि ताकि हम अपनी प्रतिभाए बेहतर ढंग से तराश सके।
स्मरण रखे कि आज से महज २५ वर्ष पूर्व सरस्वती शिशु मंदिर अस्तित्व में आए ।इतने कम समय में उनकी शानदार परफार्मेश सबके समक्ष हैं। कम से कम संशाधन में निजी मकान में और महज ३००-५०० रुपये वेतन. में शिक्षक (आचार्य) नियुक्त कर ग्रामीण अंचल सहित शहरो कस्बों में एक मिशाल कायम किए।
क्यो नही उनके तरह सतनाम पाठशालाएं व सतनाम आश्रम ब्लाक तह जिला स्तर पर वही के लोगों से प्राप्त दान चंदा से किराए या किसी के घर खाली है को अर्जन कर कर सकते हैं। बडे शहरों में प्रतियोगी परिक्षाओं के लिए कोचिंग संस्थान भी खोले जा सकते है।इस तरह हम अपने पढे लिखे बेरोजगार नौजवानों को रोजगार भी दे सकते है।
दो चार जगह प्रारंभ होन्गे तो स्वत: यह तेजी से विस्तारित होन्गे। ऐसा उम्मीद है।बशर्ते इस वर्ष नाच पेखन आर्केस्ट्रा का मोह छोड़ कही कोई जगह पहल तो करें।यदी ऐसा हो तो इस आलेख का उद्देश्य सफल होन्गे। और ऐसा लगेगा कि गुरु घासीदास बाबा जी सपना साकार होने की दिशा में एक बेहतर कदम होगा।
आइए कोई समिति या उर्जावान युवा वर्ग पहले पहल करके कीर्तिमान तो स्थापित करे। आने वाले शैक्षणिक सत्र में स्वर्णिम इतिहास रचें।
।।सतनाम ।।
[3/18, 20:18] Anil: सतनाम रावटी नौ धामों का हुआ दर्शन ।
कृपा सद्गुरु की पाकर मन हुआ पावन।।
इन रमणीय जगहों पर किया गुरु ने रमन ।
जन को नाम-पान देने इनका किया चयन ।।
करे सभी नर-नारी इन पावन धामों का दर्शन।
मिले सुख शांति उन्हे अरु हो धन्य यह जीवन ।।
।।सतनाम ।।
डा. अनिल भतपहरी
[3/18, 20:20] Anil: मनुष्य एक समझदार प्राणी तो है।पर अक्सर बहुतों में यह भ्रम रहते है कि उनके जैसा कोई नही।
यह सच भी है कि हर आदमी दूसरे से भिन्न है पर समझ को लेकर अक्सर मुगालते मे रहने वाले कि हमसे अधिक कोई नही यह उनका मिथ्या गर्व है इसलिए वह असमाजिक व अव्यवहारिक हो जाते है ।और छोटे छोटे समुदाय में विभक्त भी ।तब वह न किसी का सुनता है न सुनना चाहता है। ऐसे लोग या तो जानकर होते है पर गर्व भाव के कारण अग्राह्य हो जाते है या आधे आधुरे जानकारी रखते बे वजह अधजल गगरी छलकाते हस्यास्पद हो समुदाय से खारिज हो जाते है या चंद लोगों के बीच अंधों मे काना राजा जैसा धौंस जमाते फिरते है।
कुछ साधारण ग्यान अल्प व मृदुभाषी होते है जिन्हे अपेछित सम्मान उक्त वर्ग नही देते बल्कि महत्वहीन समझ नजर अंदाज करते है ।
बाकी यथास्थिति और जिधर बम उधर हम वाले होते है ।
बहुत ही कम होते है जिनके दखल हर तरफ होते है यह बहु मुखी व्यक्तित्व के जुनूनी और यश अपयश से परे होते है जो वाकिय में हर चीज का युक्तियुक्त समन्वय करता है।
समाज मे अभी इन सबका युक्तियुक्त समन्वय कर सार्थक नेतृत्व चाहे धार्मिक सामाजिक व राजैतिक रुप से हो आना बाकी है। क्योकि यह संक्रमणकाल है अभी पूर्णत: न शिछित है न उच्च जीवन स्तर न ही सु सभ्य है।
फलस्वरुप जो जिस अवस्था से गुजर रहे है वे उतने तक ही समझ रखता है। प्राचीन परंपरा मान्यताओं और आधुनिकता मे कैसे सांस्कृतिक तथ्यों का निर्धारण कर जीवन निर्वहन करे और कैसे सार्थक संधर्ष करे यह सही ढंग रेखांकित नही हो पाते ।इसलिए हम राजनैतिक प्रतिबद्धता हेतु उधार के विचार पर आश्रित है।क्योकि हमने अभी अपनी साञस्कृतिक तथ्य के अनुरुप राजनैतिक जागरुकता विकसित नही किए है। राजकीय व राष्ट्रीय स्तर पर भी हमारी कोई लोकप्रिय चेहरे नही जिनकी हम समवेत रुप से सुन व समझ सके।प्राय: हर समझदार उच्च शिछित और थोडा साधन सछम लोग परस्पर प्रतिद्वंद्वी है। प्रभाव पद प्रतिष्ठा उन्हे एक समान सोचने और एक जगह बैठने नही दे पा रहे है।यह नेतृत्व वर्ग चाहे गुरु संत महञत राजनेता या सछम मंडल. गौटिया या अधिकारी कर्मचारी हो सभी अपने अपने मात हतो के अधीन है।
इन वर्गों को गुरुघासीदास के उपदेशना सतनाम सिद्धान्त और संविधान मे निहित अधिकार और कर्तव्य के प्रति निष्ठावान होकर सामाजिक दायित्व के ईमानदारी से निर्वहन मे साथ होना चाहिए ।पर दूर्भाग्यवश "राजनैतिक चेतना " जिससे पद प्रतिष्ठा अर्जित कर यश और धन कमाए जाते है वह सबको प्रतिद्वंद्वी बनाकर रखे हुए है।आदमी आरंभ से लड़ते आ रहे है सञधर्ष ही उनकी जीजिविषा है
छोटीसे छोटी और बडी से बडी बातों मे हम परस्पर लडते है पर किससे ,कैसे और क्यो लड़ते है यह अब तक साफ- साफ पता नही।
जिस दिन कुछ को पता होता है वेव गल्तियां सुधार विकास की ओर अग्रसर होते है। और बहुतो तो केवल पश्चाताप करता है तब उनके पास न धन न बल न यौवन होता है।
दुर्भाग्य वश समाज में अधिकतर यही हो रहा है-
सतनामी मरगे पेशी मे गोड़ मरगे देशी में जैसे कहावत यु नही है।
फिर आजकल समाज में तेजी से मदिरा व नशापान बढ रहे है यह हाताश और कुठां के चलते हो रहे है।
इन सबसे बाहर आने नव सांस्कृतिक आन्दोलन की जरुरत है जिससे समाज मे संस्कार आए बिना इनके शिछा पद प्रतिष्ठा नौकरी चाकरी और नेतागिरी चंद व्यापारी केवल व्यक्तिक सफलता मात्र है ।समाजिक नही।
जिस दिन व्यक्तिक सफलता सामाजिक रुप से प्रतिष्ठित होन्गे उस दिन समाज का प्रभाव अन्य समाज प्रदेश व देश को पता चलेगा ।
।। सतनाम ।।
[3/18, 20:20] Anil: "सतनाम एक विशिष्ट संस्कृति व
जीवन पद्धति हैं।"
सतनाम आध्यात्मिक रुप से अन्तर्यात्रा हैं। सदाचार अपनाकर जीवन में सुचिता और परस्पर मानव समुदाय में सद व्यवहार करते समानता स्थापित करना ही सतनाम का प्रमुख ध्येय हैं।
आन्दोलन तो स्वतंत्रता आन्दोलन ,नारी मुक्ति आन्दोलन नशा मुक्ति आन्दोलन, मान सम्मान रछार्थ आन्दोलन जुल्म सितम के विरुद्ध आन्दोलन या मजदूर श्रमिको का हक अधिकार हेतु आन्दोलन होते हैं।
सतनाम आन्दोलन ये नये गढे गये जुमले है। और इसके द्वारा जनमानस को दिग्भ्रमित भी किए जा रहे हैं।
सतनाम आत्मबल और भीतर का यात्रा हैं। जिसके द्वारा धर्म -कर्म में व्याप्त रुढिवाद, अंधविश्वास और कर्मकांड व पुरोहिती का विरोध और उनके स्थान पर सहज योग साधना और सद्कर्म करते जीवन निर्वाह करते खान- पान ,रहन -सहन ,जुआ ,शराब ,मांस ,मदिरा ,नारी सम्मान कृषि कर्म एंव पशु प्रेम का मार्ग हैं।
नाहक इस संस्कृति और धम्म को आन्दोलन कहकर इनके व्यापाक और उदात्य भावार्थ को संकुचित और सीमित किए जा रहे हैं। बिना बुद्धि लगाए बस सतनाम आन्दोलन सतनाम आन्दोलन कह रहे हैं।
क्या सतनामी आन्दोलन कारी है। नारे बाजी करने वाले और अशान्ति फैलाने वाले कौम हैं?
शब्दों के वास्तविक अर्थ और भावार्थ को समझ कर समकालीन समय में किन परिस्थितियों में हमारे गुरुओ संतो महंतो ने इस सतनाम संस्कृति को बचाकर संजोकर यहाँ तक लाए वह प्रणम्य है।
वर्तमान समय में सतनाम संस्कृति में चलकर बडी उपलब्धि हासिल करते सरल जीवन यापन करते सुकुन व शांति हासिल एक बेहतर भविष्य आने वाले संतति को देना है। कल्पित स्वर्ग मोछ आदि के जगह अपने आसपास स्वर्ग सम वातावरण बनाकर पद निरवाना या परमपद अर्जित करना है।
यदि आन्दोलन आदि होते तो गुरुबाबा के सिद्धान्त और उपदेश तथा पंथी मंगल भजनो में आन्दोलन करने के तौर तरीके वर्णित होते ।मोर्चा सम्हालने और कथित जुल्मो के लिए जुल्मियो को दंडित करने के तरीके और कुछ सफल आन्दोलन के वृतान्त होते पर दुर्भाग्यवश आन्दोलन आदि के कोई गीत भजन वृतान्त नही है।
और तो और सतनाम संस्कृति में आन्दोलन कारी नही नजर आते बल्कि साधु संत उपदेशक भजन संकीर्तन पंथी करते संत सदृश्य पंथी हार नजर आते हैं।
और अपने जीवन में जो चीजे हैं। या विरासत में या अपने परिश्रम के एवज में जो मिला उससे संतुष्ट और सुखी समाज नजर आते हैं।
इसलिए इस महान सतनाम संस्कृति में अनेक जातियाँ सम्मलित हुए।कुछ हद तक सतनाम प्रचार के अभियान आन्दोलन सदृश्य जरुर रहे हैं। पर यह सतनाम जागरण का एक अंग मात्र हैं।
एक प्राचीन पंथी गीत का स्वर और भावार्थ देखिए-
खेले बर आए हे खेलाए बर आए हे
दुनियां म सतनाम पंथ ल चलाए हे
मनखे मनखे ल एक गुरु ह बताए हे
चारो बरन ल एक करे बर आए हे
सन्ना हो नन्ना नन्ना हो ललना
सन्ना ना रे नन्ना नन्ना हो ललना
सना नना नना हो नना हो ललना ..
क्या यह आन्दोलन है?या सांस्कृतिक नवजागरण हैं।या उदात्य सतनाम संस्कृति हैं।आन्दोलन कहने समझने वाले स्वत: निर्णय करे।
सतनाम
-डा अनिल भतपहरी
[3/18, 20:23] Anil: सुघ्घर
मनगंढत कथा कहानी
पोथी पत्रा के भभकौनी
पंडा पुजरी के लुढ़राई
आनी बानी खाजा खवई
आनंद बाजार मं मजा मराई
मंदिर के चारो मुड़ा किंदरई
देवदासी मन के नचई -गंवई
जनता के लुटई उकर करलाई
देख घासी के मुख निकले अमृतबानी
मंदिरवा मं का करे जाबो भाई
चलव अपन घट के देव ल मनाई ..
[3/18, 20:24] Anil: "देवी शक्तिपीठो मे गुरुघासीदास का सतनाम जागरण "
सत्रहवी सदी मे समकालीन छत्तीसगढ विभिन्न मत मतान्तरो के मध्य समन्वय और एक दूसरे की अच्छाई -बुराई को ग्राह्य- अग्राह्य के रुप मे भी जाने जाते है।
धर्म कर्म मे व्याप्त अराजकता और मराठा भोसले व पिडारियो और अंग्रेजो के दमन शोषण और लूटपाट से भी बचने और उनके प्रभावी प्रतिकार के लिए संधर्ष का ऐतिहासिक कालखंड रहा है।
समाज मे धार्मिक राजनैतिक व आर्थिक चेतना लगभग मिलीजुली रुप मे हर पल साथ साथ चलते है।
और हर समय लोग धर्मनिष्ठ प्रभावशाली और वैभवशाली होने के लिए प्रयत्न करते रहते है।
धर्म निष्ठता उनकी आस्था व भक्ति भाव से आते है।अराध्य जो भी हो उनके प्रति निष्ठा और समर्पण होते है।तथा मन वचन कर्म से उन्हे मानते है।
दूसरा प्रभाव के लिए व्यक्ति राजनीति मे संलग्न होकर इसे प्राप्त करते है यथा राजतंत्र होने से उनके अंग मंडल गौटिया मालगुजार जमीन्दार व राजा जैसे पद को पाने प्रयत्न करते है। अब लोकतंत्र मे मतदान प्रक्रिया से पंच सरपंच विधायक संसद चुन मंत्री आदि बनते है।
तीसरा आर्थिक चेतना है जो व्यक्ति को वैभवशाली व ऐश्वर्यवान करते है इसके लिए कृषि व्यापार नौकरी आदि है।
इन तीनो अवस्थाओ को पाने कठोर परिश्रम करने होते है। और उसी आधारपर या कही संयोगवश इन्हे अर्जित करते है।
इन तीनो को साधने से व्यक्ति समृद्ध सुखी व कीर्तिवान होते है।
बाहरहाल समकालीन छत्तीसगढ मे राजतंत्र था और राजा अपनी वंशपरंपरा और वैभव एंव ऐश्वर्य को कायम रखने धर्म तंत्र और आर्थिक तंत्र को अपने हाथो मे थामकर जनमानस को नियंत्रण मे रखे थे और उनके ऊपर राज करते आ रहे थे। उनके अपने अपने आराध्य देवी देव थे और वहा पर विचित्र कर्मकांड रचे गये थे अनेक पुरोहित व सामंत उन कर्मकांड को करते जनता के ऊपर हुकुमत करते ईश्वरीय विधान या दैवीकृपा के रुप मे प्रचारित करते काव्य महाकाव्य लोक गाथा वृतांत गीत भजन गल्प या दंत कथाओ को जनमानस मे योजना बद्ध तरीके से प्रचारित करवा कर रखे गये।ताकि जन आस्था उन पर गहरी रहे और वे राज व्यवस्था के ऊपर कोई हस्तछेप न कर पाए कोई परिवर्तन नवजागरण या आन्दोलन आदि न छेड पाए ।
परन्तु जब किसी क्रिया के अनवरत होते रहने या कर्मकांड के निरंतरता से कही न कही उनमे आशिंक या अमूलचूल परिवर्तन हेतु स्वस्फूर्त कही न कही से कलान्तर मे अभियान नवजागरण या आन्दोलन आदि होकर रहते है।चाहे वह प्रखर व उग्र रुप मे या धीरे धीरे जन मन मे विचार ,मत या दर्शन के रुप मे हो। छत्तीसगढ मे ऐसे ही जनमानस के हृदय और अन्तर्मन मे अपेछित परिवर्तन हेतु सतनाम संस्कृति का प्रवर्तन समर्थगुरु घासीदास के अभियान से प्रारंभ हुआ। और धीरे धीरे यह युगान्तरकारी महाप्रवर्तन मे परीणित हो गये!
समकालीन छत्तीसगढ मे चारो दिशाओं मे ४ शक्तिपीठ स्थापित थे और इन स्थलों मे राजा सांमत पुरोहितों और समर्थ जनो द्वारा विशिष्ट प्रकार से उनकी अपनी हैसियत के अनुरुप बलिप्रथा ( छै दत्ता यानि कि युवा पाडा बकरे मुर्गे इत्यादी पशु पछी इत्यादि ) का निम्न जगहो पर प्रचलन मे थे।
पूर्व दिशा मे चन्दरसेनी देवी ( चंद्रहासिनी चंद्रपुर )
पश्चिम बम्बलाई ( बंमलेश्वरी डोंगरगढ)
उत्तर महामई ( महामाया रतनपुर )
दछिण मे दंतेसरी ( दंतेश्वरी दंतेवाडा )
गुरु घासीदास का इन्ही जगहो पर रावटी लगाकर सतनाम जागरण हुआ और निरन्तर उपदेशना करते जनमानस मे धर्म कर्म मे सुचिता लाने हेतु सत्य और अहिंसा का प्रचार प्रसार किया। क्योकि जहा बलि होते वहा मांसाहार स्वभाविक है ।मांस है तो मदिरा है और जहा मांस मदिरा है वहा मैथुन और मुद्रा नाच पेखन मेले ठले खेल तमाशे होन्गे। इन पंचमकार की विकृत साधना और यौनाचार के विरुद्ध गुरु घासीदास का सतनाम जागरण आरंभ हुआ।उनके सप्त सिद्धान्त मे सत्याचरण के पश्चात मांस मदिरा और स्त्री सम्मान प्रमुख उपदेश है। इन उपदेशो और निन्तर उनके प्रचार प्रसार से समाज मे परस्पर सामाजिक सौहार्द्र स्थापित करने का महाअभियान चला। महाप्रसाद भोजली जवारा मितान गंगाजल जैसे मैत्री भाव स्थापित करने वाली प्रथाओ का सूत्रपात भी हुआ। फलस्वरुप संपूर्ण छत्तीसगढ मे एक सामजस्यपूर्ण वातावरण का निर्माण हुआ जो शेष भारत से अलग से रेखांकित होते है।शांति की टापू एंव सौख्य की भूमि के नाम से यह छत्तीसगढ विभूषित हुई ।परिश्रम युक्त श्रमण सतनाम संस्कृति के चलते वन भूमि कृषि भूमि मे परिणित होकर "धान का कटोरा " के नाम से ख्यातिनाम हुआ।
हर समाज जो जाति गोत्र फिरका मे बटे नव चुल्हो वाली संस्कृति मे विभ . क्त परस्पर एक दूसरे का छुआ और पक्की भोजन नही करते वहा चुल खनन करवाकर भोजन पकवाकर एक बर्तन मे परोस कर पान प्रसाद बनवाने के लिए
चुल्हापाट मे पालो नाडियल रखकर सांझा चुल्हा पंगत प्रथा चला। और पंगत उपरान्त संगत एंव संगत के उपरान्त स्वैच्छिक रुप से अंतिम सोपान अंगत रुप मे इच्छूक जातियों के जाति को विलिन करते सत के अराधक अनुयाई को सतनामी बनाये जाते।दीछा व नाम पान दिए जाते।गुरुघासीदास एंव उनके सुपुत्रों द्वारा यह अभियान १७९५ - १८५० तक लगभग ५५ वर्षों तक निरन्तर चला। १८५० मे सद्गुरु घासीदास के बाद इस अभियान को तीव्र गतिमान करने लाने और बाबा जी के स्वप्न को शीध्र पूर्ण करने राजा बन चुके गुरुबालकदास ने सतनाम जन जागरण को सतनाम आन्दोलन के रुप मे परीणित किया।वे तेजी से इसे जनमानस मे विस्तारित करने लगे।
परन्तु यथास्थिति वादियो और सुविधाभोगियों ने इस आन्दोलन को थामने १८६० गुरु पुत्र राजा गुरु बालकदास के सडयंत्र पूर्वक हत्या कर दिए गये।उनके बाद आन्दोलन थम सा गया सतनाम जागरण मे ठहराव आ आया।
और जो सतनामी बन चुके थे उन्हे शुद्धिकरण कर पुनश्च अपनी अपनी जातियों मिलाने भी लग गये।
पुनश्च बलिप्रथा धार्मिक कर्मकांड आरंभ हुआ। सतनामी के जगह रामनामी और सूर्यनामी या सुर्यवंशी जातिगत समुदाय का गठन होने लगे....
इस तरह गुरुघासी दास और सतनाम जागरण कुछ विद्वान उसे आन्दोलन भी कहते का छत्तीसगढ मे व्यापक असर हुआ और उनके अनुयाई लाखो मे पहुच गये।
आज चैत शुक्ल पछ एकम से नवम तक छत्तीसगढ मे जोत जवारा पछ है इनका शुभारंभ गुरुघासीदास ने डोगरगढ रावटी द्वारा आरंभ किए।वर्तमान मे दैवी अराधना या शक्तिपूजा मे जो सात्विकता और पावनता दिग्दर्शन होते है वह संत संस्कृति के कारण संभाव्य हुआ ।
जय सतनाम - जय अम्बे
" सतनाम "
डा. अनिल भतपहरी
[3/18, 20:25] Anil: प्रिय संत समाज
सतनाम
गुरु घासीदास बाबा एंव पिताश्री सतलोकी सुकालदास भतपहरी के असीम कृपा व आशीर्वाद से हमारी पीएच-डी थीसिस प्रकाशित हो चूका है।
सतनाम धर्म-संस्कृति में लिपिबद्ध समीक्षात्मक सामाग्री का अभाव रहा हैं। गीतात्मक व काव्यात्मक व सुक्त रुप में अमृत वाणी उपदेश दृष्टान्त व बोध कथाएँ आदि जनश्रुति व संस्मरण जनमानस में बिखरे हुए हैं । उन्हें अपने पूर्वजों, गुरु वंशजों ,साधु- संतो ,कवि -लेखकों और लोक- कलाकारों के वाचिक/मौखिक परंपरा एंव अंग्रेज अधिकारियों के द्वारा लिखित प्रतिवेदन- अभिलेख एंव विभिन्न जिला गजेटियर के आधार पर पं. रवि शंकर शुक्ल विश्वविद्यालय द्वारा महामहिम राष्ट्रपति के गरिमामय उपस्थिति में 2013 को मुझे ( डा. अनिल कुमार भतपहरी ) प्रदत्त पीएच-डी उपाधि का शोध- प्रबंध सद्गुरुदेव की कृपा से पवित्र गुरुपर्व मास दिसंबर में सर्वप्रिय प्रकाशन न ई दिल्ली से "गुरुघासीदास और उनका सतनाम पंथ" प्रकाशित व मान मुख्यमंत्री जी के कर कमलों से विमोचन हुआ हैं।
आशा हैं कि इनके प्रकाशन से गुरु घासीदास और उनके द्वारा प्रवर्तित सतनाम पंथ की महत्ता एंव विशेषताओं की सामान्य जानकारी पाठकों को उपलब्ध होन्गे और व्यवस्थित जानकारी के अभाव की भी प्रतिपूर्ति हो पाएगा ।
।। सतनाम ।।
डा. अनिल भतपहरी
पृष्ठ 370 , सहयोग राशि 300
[3/18, 20:26] Anil: [12/9, 18:13] Dr anilbhatpahari: १ संत सतनाम दास - दादूलाल जोशी
पुरानिक चेलक
२ मनोहरदास नृसिंह सम्मान
मंगत रविन्द्र , हर प्रसाद निडर
३ पं साखाराम बधेल सम्मान - डा जे आर सोनी ,कृष्ण कुमार शानु
४ पं सुकुलदास धृतलहरे सम्मान - सेवकराम बांधे ,खिलावन सतनामी
५सुकालदास भतपहरी सम्मान - आसकरण जोगी, गजानंद पात्रे
६ नंकेशरलाल टंडन सम्मान -
एस पी नवरत्न ,डा आर पी टंडन
७साधु बुलनदास सम्मान -
शशिभूषण स्नेही महंत बृज खांडे
[12/9, 18:28] Dr anilbhatpahari: १सतनाम सागर- संत सतनाम दास
२नामायण गुरुघासीदास चरित - नृसिंह
३सत्यायण - गुरुघासीदास चरित प सखाराम बधेल
४ समायण सतनाम पोथी - सुकुल दास धृतलहरे
५ सतनाम संकीर्तन - सुकालदास भतपहरी गुरुजी
६ सत सागर - प नम्मुराम मनहर
७ सत्यनाम धर्म ग्रंथ - प नंकेसर लाल टंडन
८ - गुरु उपकार - साधु बुलन दास
९ - श्री प्रभात सागर - मंगत रविन्द्र
१० - सतनाम सरित प्रवाह( प्रकाश्य) डा अनिल भतपहरी
ये सभी महाकाव्यात्मक रचनाएँ हैं।
गद्य में -
१सतनाम आंन्दोलन व सतनामी समाज -डा शंकरलाल टोडर
२ सतनाम दर्शन - इंजी टी आर खुन्टे
३ छत्तीसगढ़ राज्य और सतनामी समाज - के आर मारकन्डे
४ गुरुघासीदास की मानवता व गुरुघासीदास उनके आन्दोलन - साधू सर्वोत्तम साहेब
५ सतनाम दर्शन - भाऊराम धृतलहरे
६ सतनाम के अनुयाई व सतनाम रहस्य ,- डा जे आर सोनी
७ गुरुघासीदास और सतनाम साहित्य - डा. अनिल भतपहरी शोध प्रबंध शीध्र प्रकाश्य
[3/18, 20:28] Anil: "तपोभूमि गिरौदपुरी सतधाम "
सतनाम धर्म के प्रवर्तक और महान मानवतावादी संत गुरु घासीदास बाबा का जन्मभूमि एंव तपस्थली है।गिरौदपुरी सतधाम का राष्ट्रीय व अन्तराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति है।१९३५ के गिरौदपुरी मेले के पाम्पलेट में उनके राष्ट्रीय स्तर पर प्रसार की उल्लेख मिलते है। जहाँ देश भर से लाखों श्रद्धालुओ के आगमन और उनके आने जाने ठहरने की सूचना है।
नैसर्गिक सुषमा से अच्छादित यह पावन स्थल अत्यन्त रमणीय व मनमोहक है।वन्य जीव से आबाद बार अभ्यारण्य और कलकल बहती जोगनदी व ट्रान्स महानदी के कछार पर स्थित गिरौदपुरी का सौन्दर्य हर किसी के मन को भाते है।
बन तुलसा( बडी तुलसी )के झाड़ियों से महकते पहाड़ी परिछेत्र में सुप्रसिद्ध औरा-धौरा वृछ के तले ध्यानरत गुरुघासीदास तेन्दू वृछ के समीप धर्मोपदेश व मनन चिन्तन और योग तपस्या मे निरत रहते थे ।समीप पहाड़ी के नीचे चरण कुण्ड और वहाँ से ५०० मीटर दूर अमृतकुण्ड का जल गंगाजल सदृश्य पवित्र है। यह दोनो प्राकृतिक कुण्ड सदानीरा है जहाँ स्वच्छ जलराशि बारहोमास पहाड़ी की तलहटी मे विद्यमान आस्था कौतुहल और अनुसंधान का विषय है।इस कुण्ड के जल का धार्मिक पूजापाठ मे गंगाजल जैसा ही अनुप्रयोग जनमानस करते रहे है।यहा तक कृषि कार्य और खेतों मे इनके छिडकाव हेतु दूर-दूर से लोग गैलनो, कनस्तरो और अन्य पात्रों मे भरकर ले जाते है।
इस जगह में आते ही सुकून शांति और मन हृदय मे पवित्रता का आभास श्रद्धालुओं को होते है।इसलिए स्वस्फूर्त बारहो मास वे उक्त आकर्षण मे आबद्ध हो सतधाम आते है।जहां पर अपनत्व और एक तरह से स्वच्छंदता का स्वानुभुति होते है।यहा पर पण्डे पुजारी कोई दान दछिणा रोक टोक नही है बल्कि लोग स्वत: अनुशासित होकर राग द्वेष से मुक्त परम आनंद मे निमग्न नजर आते है।मंगल भजन सत्संग चंदन तुलसी की महक शुद्ध प्राकृतिक हवाएँ प्रदूषण मुक्त नैसर्गिक जगह सचमूच सतलोक सदृश वातावरण इस पवित्र धाम का है। जहाँ प्रमुख दर्शनीय स्थल निम्नवत् है-
१ गिरौदपुरी ग्राम
२ झलहा मंडल का दोतल्ला घर
३ उसी घर से लगा गुरु बाबा का जन्म स्थल
४ गोपाल मरार के घर बाडी और कुंआ
५ गुरु द्वारा हल चलाए बाहरा खेत
६ बाहरा तालाब
७ नागर महिमा स्थल
८ बुधारु सर्पदंश उपचार स्थल
९ बछिया जीवन दान स्थल
१० सफुरामाता जीवन दान स्थल
११ शेर पंजा मंदिर
१२ औरा धौरा तेंदूपेड़/ मुख्य प्राचीन मंदिर
१३ चरण कुंड
१४ अमृतकुंड
१५ छाता पहाड
१७ पंचकुंडी
१८ सुन्दरवन
१९ जोक नदी
२० हाथी पथरा
२१ विशाल जैतखाम
इन सभी के सहित१५ कि मी परिछेत्र और फा शु पंचमी से सप्तमी तक १०-१५ लाख जनमानस के स्वनियंत्रित चहल पहल भजन सत्संग प्रवचन चौका पंथी और संत महंत गुरु वंशज और प्रतिभाशाली लेखक कवि कलाकार सेवादार दर्शनीय है।
श्रद्धा-भक्ति और आस्था के अनगिनत स्थलो मे तपोभूमि गिरौदपुरी सतधाम अप्रतिम व अद्वितीय है।इनका दर्शन मात्र से आत्मकल्याण व आत्मिक सुखानूभुति होते है।
।।जय सतनाम।।
- डां अनिल भतपहरी
[3/18, 20:29] Anil: भीषण छप्पन के अकाल और उसके बाद अनेक छत्तीसगढी परिवार ब्रिटिश काल में एग्रीमेन्ट लेवर यानि कि गिरमिटिया मजदूर के नाम से असम प्रान्त के बीहड जंगल और पर्वतीय छेत्र में स्थित चाय बगान विकसित करने गये और वही न आ सकने की मजबुरी में आबाद हो गये। इन परिवारों की जनसंख्या लगभग १६ लाख हैं। श्री रामेश्वर तेली सांसद हैं। एंव अनेक लोग सम्मानित जनप्रतिनिधी बगान मालिक संपन्न कृषक शासकीय सेवक और व्यवसायी बन गये हैं।
बगान श्रमिक जिसे बगनियां कहे जाते थे वे छत्तीसगढी मूल के लोग अपनी परिश्रम व लगन से अब बगान से उतर कर मैदानी और बसाहट वाले छेत्रों में आबाद छत्तीसगढी मूल के रुप में सम्मानित असमिया हो गये हैं। सभी वहां ओबीसी वर्ग में सम्मलित हैं। और परस्पर मेलजोल यदाकदा बिना द्वंद के वर वधु के पसंद से अन्तरजातिय विवाह भी प्रचलन में हैं। वहा छत्तीसगढ जैसे जात पात अपेछाकृत कमतर हैं ।तथा भाषा संस्कृति और संरछण के नाम पर संगठित हैं। यह प्रवासी समुदाय की उदात्य सांझा संस्कृति छत्तीसगढ के गांवो में व्याप्त जात पात छुआछूत की नारकीय दशा को प्रभावित कर एक मनव समाज एक भाषाई व संस्कृति वाली शानदार प्रदेश बना सकते हैं। जो संपूर्ण देश को न ई रौशनी दे सकते हैं। और वर्तमान परिदृश्य में यह नितांत आवश्यक भी हैं।
असम से आये पाच सतनामी पहुना कल गुरुघासीदास सांस्कृतिक भवन में अत्यंत भावविभोर होकर अपने पूर्वजों की पीडा संधर्ष और वहां आबाद होने की दास्तान असमिस उच्चारण मिश्रित प्राचीनतम छत्तीसगढी भाषा जैसे झुंझकुर ,भाटों ,मया महतारी ,संत गुरु बबा , संसो , रद्दा ,असीस जैसे छत्तीसगढ में विलुप्त प्रायः शब्दों का अनुप्रयोग वहां से आए युवा पहुना कहे तो मुझ भासा और संस्कृति प्रेमी को बेहद अल्हादित किया।मंत्रमुग्ध उन सभी के प्रेरक बातों को श्रवण करते रहा।
प्रगतिशील छग सतनामी समाज द्वारा शहीद स्मारक भवन में ११०० पंथी नर्तको साहित्यकारों के सम्मान के अवसर २०१७ पर मुख्यमंत्री द्वारा उद्धोषित कि छत्तीसगढी संस्कृति की संरछण हेतु पहल की जाएगी उनके आधार पर संस्कृति विभाग के अशोक तिवारी जी की कठिन परिश्रम से सांस्कृतिक आदान प्रदान का सिलसिला आरम्भ हुआ। यह सुखद संयोग हैं कि असम मे निवासरत १६ लाख छत्तीसगढी भाषियों में ३ लाख से अधिक सतनामी परिवार है। और सभी वहां समरस हैं। हम सौभाग्यशाली हैं कि मुख्यमंत्री जी के धोषणा और उनके कुछ माह बाद असम से सर्व समाज के प्रतिनिधि मंडल ३० सदस्यों का प्रथम आगमन१७ में और ५ अप्रेल १८ को वहां से ५ सतनामियो के आगमन उनकी आपबीति को श्रवण व वार्तालाप करने का अवसर मिला।
गुरुअगमदास मिनीमाता के उपरान्त वर्तमान गुरुवंशज गुरु सतखोजनदास साहेब (उनकी धर्मपत्नी गुरुमाता असम से आई हुई हैं।) के गरिमामय उपस्थिति व प्रबोधन आशीष वचनों से यह कार्यक्रम सम्पन्न हुआ।
आगे यह सांस्कृतिक मेलजोल और आवागमन सिलसिला चल पडेगा और सुदुर २ हाजार कि मी दुर में आत्मीय जनो से छत्तीसगढी जनता का सीधा संपर्क होगा।
प्रथम सांसद गुरुमाता मिनीमाता ही दोनो प्रांतो को जोडने वाली कडी है। अत एव उनके नाम पर रायपुर से डिब्रू गढ तक ३ करोड जनता को जोडने रेल मंत्रालय भारत सरकार मिनीमाता एक्सप्रेस चलाया जाय।व उनकी जन्म स्थान को तीर्थ स्थल के रुप में विकसित किया।
कार्यक्रम में प्रवासी पहुना मदन जांगडे ,हिरामन सतनामी बिमल सतनामी मिलन सतनामी ,.ज्युगेश्वर सतनामी.सहित के पी खांडे डा जे आर सोनी एल एल कोशले पी आर गहिने सुन्दरलाल लहरे सुन्दर जोगी ऊषा गेन्दले उमा भतपहरी शकुन्तला डेहरे मीना बंजारे डा करुणा कुर्रे ,एम आर. बधमार ओगरे साहब चेतन चंदेल डा अनिल भतपहरी सहित अनेक गणमान्य लोगों की गरिमामय उपस्थिति रही।
जय छत्तीसगढ जय सतनाम
[3/18, 20:30] Anil: सतनामी समाज और धर्मांतरण
गुरुघासीदास सांस्कृतिक भवन न्यू राजेन्द्र नगर रायपुर में प्रगतिशील छत्तीसगढ़ सतनामी समाज द्वारा आयोजित प्रदेश स्तरीय बैठक में निर्धारित विषय के अतिरिक्त एक सज्जन द्वारा वर्तमान में सर्वाधिक ज्वलंत मुद्दा समाज में हो रहे धर्मांतरण पर ध्यान आकृष्ट कराए गये और कहे कि आज समाज में चारो ओर बिखराव का दौर चल रहे है ।कोई ईसाई -इस्लाम कोई बौद्ध सिख आदि धर्म अंगीकृत कर रहे है।तो कोई अनेक मत संप्रदाय को मानने लगे है जिसमें राधा स्वामी सतपाल निरंकारी गायत्री या अन्य संगठन में समय और संधाधन लगा रहे है?
उक्त विषय पर केन्द्रित हमने उपस्थित जन समूह के मध्य यह कहे ताकि भोजन अवकाश पर सहज रुप से लोग इन पर परस्पर बात चीत करे और भोजनोपरान्त कोई निष्कर्ष निकले ।
वाकिय में यह गंभीर समस्या हैं। सतनाम धर्म के सभी घटक गुरु संत महंत एंव अनेक संस्थाओं के पदाधिकारियों को सतनामियों की अस्तित्व रक्षा हेतु सार्थक पहल करने की आवश्यकता हैं। अभी तो छिटपुट जारी हैं और इसे करने वाले अधिकतर हमारे साक्षर व सक्षम लोग है जो शहरों में नियमित रोजी रोटी पाकर वर्तमान में उनकी परिस्थितियां ग्रामीण समुदाय से बेहतर है । अत: उनके अनुशरण करते जरुरत मंद लग शैन: शैन: धर्मांतरित हो जाएन्गे और ऐसा समय आएगा जब चीडिया चुग ग ई खेत की स्थिति निर्मित हो जाएगी। वैसे भी बड़े अन्तर्राष्ट्रीय धर्मों का यह एजेण्डा ही हैं कि संसार के मानव समुदाय को अपने अपने पक्ष में रखे ।या अनुयाई बना ले।
बहरहाल सबसे बड़ा सवाल हैं कि क्या सतनामियों के अपने धर्म है भी कि यह धर्मविहिन समाज हैं? क्योकि हम सरकारी दस्तावेज में हिन्दू तो लिखते हैं पर क्या हिन्दू जन हमें अपने आयोजनों यथा भागवत, रामायण उत्सव मेले व धार्मिक कार्यक्रम में आमंत्रण सहित भागीदारी बनाते हैं? क्या हमें पांच पौनियों की सेवाएं मिलती हैं? जीते जी संग साथ तो नहीं मृत्युपरान्त भी शमसान धाट अलग हैं। इस तरह आज भी सामाजिक रुप से भेदभाव जारी हैं। अनेक कानून बने होने के बावजूद यह आबाध जारी हैं। भले व्यक्तिगत किसी का व्यवहार अच्छा हो पर आज भी सार्वजनिक व सामूहिक रुप से दूरियाँ कायम हैं। किसी भी दृष्टिकोण से सतनामियों को हिन्दू धोषित नहीं की जा सकती ।रीति नीति संस्कृति उनसे बिल्कुल अलग थलग हैं। हां राजनैतिक दृष्टिकोण से संबंध बनाए जाने की कयावदे केवल मृग मरीचिका सदृश्य हैं।
ऐसे में जबरियां हिन्दू बने रहने का क्या औचित्य हैं? वाकिय में जिन्हें इन प्रश्नों का उचित समाधनान नहीं मिलते वे लोग बड़ी तेजी जहां आदर और सुविधाएं मिल रहे हैं वहाँ जा रहे हैं। संविधान द्वारा सभी देशवासियों को धार्मिक स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार प्राप्त हैं। इनपर कोई अनावश्यक हस्तक्षेप नहीं करते और न करना चाहिए।
एक तरफ यह भी देखने मिलते हैं कि बहुत साधन सक्षम लोग जो बहुसंख्यकों के साथ हैं। उनके अनुशरण करते वही करने लगे हैं। जहां से हमारे गुरुओं ने मुक्त करवाकर यहां तक लाए ।
सतनाम के जितने भी अनुकरणीय सिद्धान्त हैं। वह तोता रटंत जैसे होकर रह गये हैं। हम उन्हे कंठस्थ कर तो रहे हैं। पर उसे मन बुद्धि हृदय में धारण नहीं कर पा रहे हैं। और सभी प्राचारक उपदेशक बने बैठे आदेश निर्देश देने में लगे हुए हैं।
क्या हमने अपनी संस्कृति को परिमार्जित करने और उन्हें निरतंर नव पीढ़ी को धारण करने आयोजन करते हैं। या सतनाम को धर्म के रुप में परिष्कृत कर उनके व्यापक प्रचार प्रसार के कार्य निष्पादन कर रहे हैं। यदि जनमानस को आध्यात्मिक व धार्मिक रुप से संतुष्ट नहीं कर पाएन्गे तो वह उस आवश्यकता को पूर्ति करने अन्यत्र पलायन करेन्गे ही ।
इसे रोकने के लिए प्रतिबंध दंड आदि करेन्गे तो यह गैर संवैधानिक कार्य होगा ।फलस्वरुप हम अपनी आयोजनों को बेहतर और निरन्तर करने होन्गे। ताकि लोगों को पता चले कि सतनामियों के भी अपने विशिष्ट आयोजन व्रत उत्सव हैं।
हमारी महिलाएँ जो अपेक्षाकृत पुरुषों से अधिक धार्मिक प्रकृति के होती है के लिए कोई ऐसा व्रत उत्सव भी हो ताकि वह उसे मनाकर अपनी आध्यात्मिक व धार्मिक प्रवृत्तियाँ को पूर्ण कर सके ।ऐसा नहीं होने के कारण वे अधिकतर उन्हें मानने विवश है जिससे हमारी अपनी कोई पहचान कायम नहीं होते और न ही अपेक्षित मान सम्मान ।बल्कि अवहेलना के शिकार होते है ,यह अजीब विडंबना हैं कि जो समुदाय हमसे ईर्ष्या द्वेष भाव व तिरस्कार करते आ रहे उन्ही के अराध्यों और उनके ही व्रत उत्सव के लिए सतनामी समाज अपना सर्वस्व न्योछावर करते आ रहे हैं।
अब समय हैं कि अपनी आस्था व श्रद्धा के प्रतिमानों को निष्ठा पूर्वक ही नहीं उत्साह और शानो शौकत से माने ।
सतनाम धर्म संस्कृति से संदर्भित वर्ष भर के लिए व्रत त्योहार मेले इसलिए प्रचलन में लाए गये हैं। समय समय पर उसे पत्र पत्रिकाओं में प्रचारित प्रसारित भी किए जा रहे हैं। तथा समाज में इनके लिए सतयुग संसार व गुरुघासीदास कलेंडर भी प्रचलन में है जिसमें इन सबका उल्लेख है। उसे घर घर रखे और विधि विधान पूर्वक आयोजन करे। तब कही जाकर हमारे समाज एंव पंथ से लोग अन्यत्र पलायन नहीं करेन्गे अपितु अन्य जगहों से आकर मिलेन्गे आत्मसात होन्गे।
कृपया कम लिखे को अधिक समझे और इसके ऊपर गहनतापूर्वक विचार करते अपनो के बीच विचरारार्थ व जानकारी के निमित्त शेयर करें । प्रतिक्रिया भी दे।क्योकि यह मुद्दा वाकिय में गंभीरता पूर्वक विचारणीय हैं।
* संसार सतनाम मय हो *
।। जय सतनाम ।।
-डा. अनिल भतपहरी
[3/18, 20:33] Anil: फसतनामी/साध सम्प्रदाय में जाट !
फेसबुक मित्र Vimlesh Kumar घृतलहरे जो सेन्ट्रल युनिवर्सिटी , महेंद्रगढ़ , हरयाणा के छात्र हैं व जिला मुंगेली , छात्तिश्गढ़ निवासी है | विमलेश के माध्यम से मुझे पता चला कि एक सतनामी सम्प्रदाय जिसे साध भी कहते हैं इस में भी जाट हैं , वही कद काठी है , वही गोत्र है और किसानी पेशा है | मैंने विमलेश से उनके गोत्र के बारे में पूछा तो विमेल्श ने बताया कि उनका गोत्र गहलावत है पर अब घृतलहरे लिखते हैं और कुछ ने अब घृतलहरे को भी धृतलहरे लिखना शुरू कर दिया है | मैंने विमलेश से कौन बनेगा करोड़पति प्रोग्राम में आई कुंटे गोत्र की सतनामी सम्प्रदाय की लड़की के बारे में पूछा तो उसने बताया कि वह भी जाट है , उसका मूल गोत्र खटकड़ है , खटकड़ से खूंटे हो गए | विमलेश ने ऐसे ही कुछ अन्य गोत्रों के बारे में बताया , जैसे कि गहलावत गोत्र वाले घृतलहरे लिखने लगे हैं , कुहाड़ गोत्र वाले कुर्रे लिखने लगे हैं , अहलावत गोत्र वाले अहिरे गोत्र लिखने हैं , खटकड़/खत्री गोत्र वाले खूंटे/खंडे लिखने लगे हैं , गोदारा गोत्र वाले गेंदले गोत्र लिखने लगे हैं , जाखड़ गोत्र वाले जान्ग्रे लिखने लगे हैं , ढिल्लों गोत्र वाले धिरही लिखने लगे हैं , नेहरा गोत्र वाले नवरंग लिखने हैं , पुनिया गोत्र वाले पुरैना लिखने लगे हैं , बाज्या गोत्र वाले बंजारा लिखने लगे हैं , छिल्लर गोत्र वाले चेलक , राणा गोत्र वाले रात्रे लिखने लगे हैं , सांगवान गोत्र वाले सोनवानी लिखने लगे हैं | हो सकता हैं समय के साथ साथ वहां की स्थानीय बोली के हिसाब से ये गोत्र भी बोलचाल में बदल गए होंगे !
विमलेश के बताने के बाद मैंने सतनामी सम्प्रदाय के इतिहास के बारे में जानने की कोशिश की | सतनामी सम्प्रदाय के संस्थापक एक उदयदास साध थे जो फरुखाबाद के रहने वाले थे | हरयाणा में इस सम्प्रदाय की नीवं 16 वीं सदी में हरयाणा के नारनौल क़स्बा , जिला महेंद्रगढ़ , के पास ही बिजासर नाम के गाँव के बीरभान नाम का किसान जो बहुत सच्चा और भला आदमी था , भक्ति में उसकी बड़ी रुचि थी , ने रखी | लोग विराभन के भजन और उपदेश सुनने आते थे । धीरे-धीरे बीरभान भक्त कहलाने लगे । लोगों ने उन्हें गुरु मान लिया । जल्दी ही हरयाणा क्षेत्र में सतनामी सम्प्रदाय खड़ा हो गया | हरयाणा में इस सम्प्रदाय से जुड़े लोगों को साध भी कहा जाता है | यह सन् 1657 में पैदा हुआ माना जाता है । सतनामी ईश्वर के नाम को ही सच मानते थे और उसी का ध्यान करते थे , ये लोग फकीरों की तरह रहते थे | इसीलिए ये साधु/साध कहलाते थे | उनका विश्वास था कि ईश्वर एक है , वही सत्य है | इसलिए वे ईश्वर को सतनाम कहकर पुकारते थे | इसी से उनका नाम सतनामी पड़ा | उत्तर भारत में यह पंथ कई जगह फैल गया, परन्तु 17वीं सदी में नारनौल सतनामियों का गढ़ बन गया । शुरुआत में सतनामी सम्प्रदाय में जाट, चमार, खाती आदि किसान कामगार देहाती लोग ही शामिल थे पर बाद में इससे वैश्य समाज के लोग भी जुड़े | रोहतक के सेठ रामेश्वर दास गुप्ता एडवोकेट सतनामी सम्प्रदाय के संत कृपाल सिंह के कट्टर अनुयायी हुए , प्रायः उनके साथ आश्रम में ही रहते | सतनामी हर प्रकार के उत्पीड़न के खिलाफ थे । इसलिए अपने साथ हथियार लेकर चलते थे । दौलतमंदों की गुलामी करना उन्हें बुरा लगता था । उनका उपदेश था कि गरीब को मत सताओ । जालिम बादशाह और बेईमान साहूकार से दूर रहो । दान लेना अच्छा नहीं , ईश्वर के सामने सब बराबर हैं । इन विचारों पर आधारित सिद्धांत बड़ा शक्तिशाली था। इससे कमजोर तबकों में आत्मसम्मान और हिम्मत जागी । उनमें जागीरदारों के उत्पीड़न और अन्याय के विरुद्ध खड़े होने का साहस पैदा हुआ । दूसरी कई जगहों की तरह हरियाणा के नारनौल क्षेत्र में भी 17वीं सदी के सतनामियों ने एक शक्तिशाली विद्रोह किया । प्रशासन के उत्पीडऩ के खिलाफ पैदा हुए आंदोलन ने मुगल हुकूमत को हिलाकर रख दिया । नारनौल के निकट सन् 1672 में एक प्यादे और सतनामी किसान के बीच झगड़ा हो गया । प्यादे ने सतनामी के सिर में लाठी मार दी । किसान बुरी तरह जख्मी हो गया । कहते हैं कि दूसरे सिपाहियों ने सतनामियों की छांद में आग लगा दी । सतनामी इस पर भड़क उठे । लोग इकट्ठे होने लगे । उन्होंने प्यादे को पीट-पीट कर मार डाला । दूसरे सिपाहियों को भी पीटा । उनके हथियार भी छीन लिए । यह खबर आग की तरह फैल गई । नारनौल का फौजदार यह खबर सुनकर आग-बबूला हो गया । सतनामियों को पाठ पढ़ाने और उनको गिरफ्तार करने के लिए उसने अपने घुड़सवार और प्यादे भेजे । परन्तु सतनामी केवल साधु नहीं थे , वे अन्याय के खिलाफ लड़ने वाले वीर भी थे । उन्होंने फौजदार की सेना को मार भगाया | फौजदार के लिए यह अपमान सहन कर पाना मुश्किल था । उसने नए घुड़सवार और सिपाही भर्ती किए । आसपास के हिन्दू और मुसलमान जमींदारों और जागीरदारों से भी फौजें मंगवाई । इस तरह पूरी तैयारी के साथ उसने सतनामियों के खिलाफ कूच किया। सतनामियों ने भी सरकारी फौज का डटकर मुकाबला किया । वे बड़ी बहादुरी से लड़े । सरकारी फौज के बहुत से सिपाही मारे गए, फौजदार खुद लड़ाई में काम आया । उसकी फौजें भाग निकलीं । सतनामियों ने नारनौल शहर पर कब्जा कर लिया । सतनामियों की बगावत की खबर जल्दी ही दिल्ली के बादशाह औरंगजेब तक पहुंच गई । उन्होंने तुरंत एक के बाद दूसरी सेना सतनामियों पर काबू पाने के लिए भेजी । परन्तु सतनामियों ने इन फौजों को भी भगाया । राजस्थान के कई राजपूत सामंतों और दूसरे सरदारों को सतनामियों से मात खानी पड़ी । सतनामियों के हौसले बुलंद थे , वह लड़ाई लड़ते लड़ते दिल्ली के करीब पहुँच लिए , शाही सेना से आखिर तक खूब डट कर लड़ें , कोई पांच हजार के करीब सतनामी इस युद्ध में शहीद हुए बताए जाते हैं और शाही फौज के दो सो के करीब अफसर मारे गए , शाही फौज का भी काफी बड़ा हिस्सा लड़ाई में खप गया । राजा विष्णु सिंह कछवाहा मुगल हुकूमत की तरफ से सतनामियों के विद्रोह को दबाने आया था । उसका हाथी भी बुरी तरह घायल हो गया । आखिरकार जीत मुगल फौजों के हाथ ही लगी । इस युद्ध के बाद सतनामी यहाँ से पलायन कर छत्तिश्गढ़ पहुँच गए |
यहाँ छतीशगढ़ में इस सम्प्रदाय में संत घासीदास जी का जन्म हुआ , घासीदास जी ने छतिश्गढ़ में सतनामी सम्प्रदाय का प्रचार किया | आज छतिश्गढ़ में घासीदास जी के नाम पर युनिवर्सिटी बनी हुई है | मैं जब सतनामी सम्प्रदाय का इतिहास खोज रहा था तो किसी बहुजन आन्दोलन वाले लेखक का ब्लॉग पढ़ा जिसमें उन्होंने घासीदास जी की जाति चमार बताई हुई थी | मैंने विमलेश कुमार से सवाल किया कि घासीदास जी चमार जाति से थे ? विमेल्श ने बताया कि नहीं ऐसा नहीं , ये कोरा झूठ है , भक्त घासीदास जी उसी के गोत्र घृतलहरे यानि गहलावत गोत्र के थे | जब मैंने सतनामी संप्रदाय का इतिहास खोजा और विमलेश से सवाल जवाब किये तो यही समझ आया कि जब सतनामी संप्रदाय की शुरुआत हुई तो जाहिर है इन्होनें हिन्दू मान्यताओं के विरुद्ध आवाज़ उठाई और खुद के कुछ अलग ही नियम कायदे बनाए जिस कारण ये अपने बाकि के समाज से कट गए , ऐसे ही साध जाट भी बाकि के जाट समाज से कट गए होंगे जैसे बिश्नोई , जश्नाथ , आदि जैसे सम्प्रदायों से कटे | अब जब सतनामी यहाँ हरयाणा से पलायन कर छतिश्गढ़ गए तो वहां धीरे धीरे भाषा , सभ्याचार सभी में बदलाव आना स्वभाविक था , समय अनुसार गोत्र भी बदलते गए , लिखित इतिहास कुछ था नहीं , जाट व दूसरी देहाती जातियां इस मामले में लापरवाह है ही | जाट , भैंसा और मगरमच्छ अपने परिवार को ही नुकसान करते हैं वाली बात यहाँ भी सही साबित हुई | जाट ऐसी कौम है जो दुसरे के बहकावे में आकर अपनी गिनती घटाने में ज्यादा विश्वास करती हैं सो सतनामी जाटों को इन्होने खुद से अलग कर दिया | यहाँ जो सतनामी जाट रह गए थे वह तो फिर भी वापिस से दुसरे जाटों के साथ ही घुलमिल गए पर जो सतनामी/साध जाट छतीशगढ़ गए वह अपनी जड़ों से बिलकुल ही कट गए | विमलेश के अनुसार अब वहां सतनामी भी दो वर्गों में बटे हुए जो आपस में रिश्ते करने से कतराते हैं , बटने का कारण जातीय नहीं बल्कि पंथ के रिवाजों को अपनाने को लेकर है |
चौधरी सूरजमल सांगवान जी ने अपनी पुस्तक ‘ किसान विद्रोह और संघर्ष ‘ में ‘ नारनौल में सतनामी किसानों की बगावत ‘ अध्याय में बताया है , .... कि इस सम्प्रदाय के बड़े केंद्र नारनौल , मेवात और जयपुर रहें हैं | हरयाणा में रोहतक , सोनीपत जिलों में यह कई गावों में आबाद हैं जहाँ इन्हें साध पुकारा जाता है | आर्यसमाज के समाज सुधार आन्दोलन के प्रभाव में आकर सतनामी और साधों ने अपनी कट्टरपंथी रीतियाँ त्याग दी और वह प्रायः आर्य समाज का भाग बन गए हैं | बरोदा मोर , तहसील गोहाना में साध सम्प्रदाय का प्रसिद्द जाट वंश है | इस वंश के एक 22 वर्षीय वीर पुत्र ने 1962 की लड़ाई में गौरवमय वीरता दिखाई थी | यह लड़का 22 वर्ष का कप्तान था | कप्तान लालचन्द का सुपुत्र था | यह चीनियों से मुकाबले में लद्दाक की चोटी पर , चुसूल की बर्फानी पहाड़ियों में लड़ रहा था | इसकी प्लाटून ख़त्म हो चुकी थी | उसके पास सिर्फ हलकी मशीनगन थी और उसके कारतूस थे | पीछे से मदद के रास्ते कट चुके थे | वह अकेला चीनियों से बहादुरी से लड़ा , अकेले ने 28 चीनी मारे , अंत में दुश्मन की गोली का निशाना बना और वीरगति को प्राप्त हुआ | परन्तु आज कहाँ है नाम शहीद कप्तान जितेन्द्र सिंह मोर का ?
औरंगजेब काल में अनेक किसान विद्रोह हुए जिनमें मराठा शिवाजी , सिक्खों और मथुरा , भरतपुर के किसानों की जानकारी तो हमें हैं पर उसी काल में सतनामियों ने भी विद्रोह किया जो दिल्ली तक जा पहुंचे थे , पर अफ़सोस है कि उनके विद्रोह बारे बहुत ही कम लोग जानते हैं | हरयाणा में तो अधिकतर लोगों व अधिकतर जाटों को पता नहीं होगा कि साध जाट भी हैं ! छतीशगढ़ के सतनामी सम्प्रदाय में जातियां आपस में काफी घुलमिल चुकी हैं इसलिए वहां यह पता करना कि कौन जाट है कौन क्या है काफी पेचिंदा है पर नामुमकिन नहीं , यह अब गहरे शोध का विषय है |
-यूनियनिस्ट राकेश सांगवान
[3/18, 20:34] Anil: " सततागी "
सतनाम संस्कृति में सततागी प्रथा रहा है। यह सैंधव सभ्यता में भी रहे जहां कपास की सुत काते जाते थे।और उससे वस्त्र बनाकर पहने जाते थे। उनके अवशेष मुआनजोदडो में मिलते है।( भंडार तेलासी जुनवानी सिरपुर महानदी तटवर्ती छेत्र जहां मोहान बोदा जैसे ग्राम हैं। वह मुआन जोदडो जैसे नाम अभाषित करते है यह सतनामी बाहुल्य व समृद्ध छेत्र है ) जहा मातृका पूजा भी रहा है। इसे विवाह रस्म में चुल माटी मायन पूजा कहते है जो आज भी सतनामियो में प्रचलित है।
बाहरहाल
सुत की धागा पहनना एक प्रतीकार्थ है सभ्य और उन्नत होने का। पहले लोग खाल और वृछ के छाल पहिनते थे और वे मानव सभ्यता के आरंभिक अवस्था रहे हैं। इसलिए
विवाह के अवसर पर आज भी बिना अटे हाथ से निर्मित कपास की धागा जिसे कुवारी धागा ( पवित्र व आरुग धागा ) कहते है से मडवा दून कर डेढा डेढहिन सभी परिजनो की उपस्थिति में दूल्हे राजा को सततागी( यानि की सात तागे वाली कुवारी या पवित्र धागे से निर्मित) धारण कराकर एक बडी जिम्मेदारी के लिए संस्कारित करते हैं।
ब्राह्मणों में जो धागा पहनते है वह तीन ताग के होते है यह उपनयन संस्कार है । यह बचपन में अध्ययन और भिछाटन के लिए है जिस बालक को यह पहने देख लोग ब्राह्मण बटुक जान कर भिक्षा देते थे।इसलिए इसे जनेऊ नाम से जाने जाते थे।
कलान्तर में यह अनावश्यक रुप से महिमामांडित कर दी ग ई ।और जनेऊ का अधिकारी हिन्दूओ में ब्राह्मण को बताकर उन्हे वर्ण विभाजन श्रेष्ठतम व देवतुल्य कर दिए गये।
परन्तु सतनाम संस्कृति एक अलग तरह के संस्कृति है ।यहा सततागी धारण के अपने घर परिवार माता पिता पत्नी सहित समाज के प्रति सप्तवचन को सातगाठ बांधकर सततागी धारण कर सत्य निष्ठा से जीवन यापन करते है।
पारंपरिक उत्सव व विवाह आदि में हमे अपनी इतिहास व जड की समृद्ध विरासत तलाशनी चाहिए।
आजकल ब्राह्मणों के अनुकरण पर या उनके कहने पर सततागी को जनेऊ कह सततागी के व्यापक अर्थ व भावार्थ को सीमित किए जा रहे हैं।
यह नही होना चाहिए। समाज में जनेऊ के जगह सततागी नाम प्रचलन में लाना चाहिए। और इसे स्वैच्छिक करना चाहिए।
।। सतनाम ।।
डा अनिल भतपहरी
[3/18, 20:35] Anil: प्रतिभाशाली और लोकनृत्य में निष्णांत सत्यावती सांवरा इन दिनों बडी- बडी लोककला मंचों की लोकप्रिय नृत्यांगना हैं।
जब वह पलारी कालेज में हमारी छात्रा थी तब हमने उसे रासेयो मंच से भावनृत्य व सामाजिक सरोकार से जुडी नाटकों में अभिनय करवाए और उनकी जन्मजात प्रतिभा को परिमार्जित करने का प्रयास किए।दूरदर्शन रायपुर से छ परब नृत्य गीत जब रिकार्डिंग व शुट कराए ..हाय रे बिकट जंगल घुमर कर्मा और जब देखेव पुन्नी चंदा जैसे गीत में उनकी बेहतरीन प्रस्तुति देख दूरदर्शन के अधिकारी नीलम सोना साहब पाच सौ रुपये तत्छण नकद पुरस्कृत किए और कहे कि हमने अनेक लोक नृत्य गीत शूट किए पर इनकी नृत्य और भावाभिव्यक्ति अप्रतिम हैं।
आज उसे जगार २०१८ रायपुर के भव्य मंच में सुप्रसिद्ध करमा फूल झरे हांसी ...में वर्षों बाद मनमोहक नृत्य करते देख आपार खुशियाँ मिली और मेकप कछ में जाकर उनसे मिला ...देखते ही प्रफूल्लित आशीष लेते अपनी समूह से परिचय करवाई ।
उच्च शिछित इस प्रतिभाशाली जनजातिय कन्या को संस्कृति विभाग शासकीय सेवाओं में लेकर कलाजगत को एक विलछण प्रतिभा दे सकती हैं।
निरंतर ऊचाई को संस्पर्श करती सदैव अपनी कला से जनमानस में खुशियाँ बिखरेती रहें। सत्यवती यशस्वी और किर्तीवती हो।
[3/18, 20:36] Anil: सतनामियों सहित अनेक मुख्यधारा से वंचित समाज का अपना कोई सामूहिक आस्था प्रकट करने हेतु न तीर्थ था न संत महात्मा ।शुक्र है कि आज गिरौदपुरी चटुआ खडुआ भंडार तेलासी और उनके नव रावटी स्थल हैं। जहां लोग अपनत्व भाव लेकर जाते आते हैं। और सामूहिक रुप से एकत्र होकर केवल आस्था ही नहीं बल्कि अपनी संगठनिक शक्ति और लाखो लोग स्व नियंत्रित सद्भाव का प्रदर्शन करते हैं।
तो इस तरह जैसे अन्य वैश्विक धर्म इसाई मुस्लिम बौद्ध हिन्दूओ का जुडाव येरुशलम वेटिकन सिटी मक्का मदिना बोधगया सारनाथ या लामाओ के बुद्ध मैनेस्ट्री में होते हैं। सिखो का अमृतसर और हिन्दुओ का चारो कुंभ मे जमवाडा होते है वर्तमान में उसी तरह गिरौदपुरी सतनाम धर्म के महान तीर्थ धाम के रुप में आकार ले चूका है देश भर से श्रद्धालु आते हैं। यहा तक विदेश से भी आने लगे हैं। यह सतनामियों की बहुत बडी उपलब्धि है। और यह स्व स्फूर्त हुआ हैं। लाखो लोगो की करोड़ो रुपये जो अन्य मेले मड ई खेल तमाशे में नष्ट होते थे आज गिरौदपुरी में वह सात्विक मंगल भजन सत्संग प्रवचन और स परिवार प्रकृति के सानिध्य में सहभोज करते तीन दिन सधनात्मक जीवन जीते आत्मविभोर होते हैं। यह अप्रतिम मंजर है।इसे ब्राह्मण वाद या अंधविश्वास आदि के साथ जोड़कर न देखे। ऐसा देखने समझने वाले सांस्कृतिक व आध्यात्मिक रुप से कृपण व आलोचना प्रवृत्ति के लोग है जो भ्रमित व सशंकित है।
हां आपार भीड़ में कुछ नादां भोला भाले और कुछ अंध श्रद्धालु भी मिलेन्गे पर वे अपवाद और उनके निम्नतर बौद्धिक स्तर है।उन्हे नजर अंदाज करना चाहिए।
।।सतनाम ।।
[3/18, 20:37] Anil: सौ साल में सतनामियों की सामाजिक व राजनैतिक स्थिति पर विमर्श "
छत्तीसगढ़ की सामाजिक व राजनैतिक परिस्थियों से अवगत होने गांधी जी १९२०-३० के बीच यहाँ ३ बार आए ! यह वह दौर था जब देश में सामाजिक सुधार तीव्रतर चल रहा था और इसके माध्यम से स्वतंत्रता के सूत्र तलाशे जा रहे थे। सतनामियों में स्वतंत्रता से अधिक सामाजिक स्वीकार्यता महत्वपूर्ण रहा हैं। गांधी जी के आगमन और उनके कुछ दसक पूर्व इनके लिए यहाँ हलचल रहा हैं। फलस्वरुप उनके कार्यक्रम का सर्वाधिक प्रभाव सतनामियों पर पड़ा ।१९२०-२१ में सतनामी आश्रम की स्थपना के साथ समाज में सर्वांगीण विकास हेतु आधारशिला रख दी गई । आज यह कालखंड १९२०-२०२० ठीक सौ साल हो चूका हैं। इस एक सदी का लेखा- जोखा हमें अपने -अपने ढंग से करना चाहिए। हमारे रचनाकारों विचारकों और बुद्धि जीवियों को चाहिए कि इन पर सार्वजनिक बात- चीत वर्तालाप व संगोष्ठियां आयोजित करे।
बहरहाल गांधी जी रायपुर स्थित सतनाम पंथ की ३ बाड़ा गुढियारी ,मांगडा बाडा जवाहरनगर और पंडरी बाडा में गुरुअगमदास गोसाई के छत्रछाया में नेहरु के सचिव बाबा रामचंद्र रहकर स्वतंत्रता आन्दोलन को गतिमान करते रहे ।उनकी जानकारी भी समकालीन समाजसेवियों से वे लेते रहे।
तब सामाजिक रुप से सतनामी छत्तीसगढ मे प्रभावी थे भले उनसे सामूहिक रुप से सवर्ण तबका अस्पृश्य भाव रखते रहे पर ग्रामीण जन्य मे ओबीसी समाज के समकक्ष है क्योकि यह समुदाय वही से ही पृथक अस्तित्वमान हुआ है । क्योकि तब जात पात छुआछूत चाहे वह किसी भी जाति का हो परस्पर एक दूसरे से गोत्र फिरके आदि चलते भी इन सबमे भेदभाव व ऊचनीच व संग साथ भोजन शादी ब्याह तक नही थे। अंध विस्वास और धर्म कर्म में बलि हिंसा इत्यादि कुरीतियों का बोलबला था। उनमें सुचिता लाने ही सतनाम पंथ का अभ्युदय हुआ था। और लोग अंगीकृत किए थे उन्हे पृथक करने की सडयंत्र के कारण भी सतनाम पंथ में सम्मिलित लोगो के लिए छुआछूत व भेदभाव चरमोत्कर्ष पर जा पहुंचा था।
गाँधी जी रायपुर से बलौबाजार गये तो भंडारपुरी खपरी सतनाम तीर्थ के मध्य भैसा बस स्टेण्ड से गुजरे ।उनके स्वागतार्थ सतनामी समुदाय पलक पांवडे बिछाए । उस मार्ग में एक सतनामी वृद्धा से एक रुपये चंदा लेकर माल्यापर्ण कराने का भावुक प्रसंग स्मरणीय हैं। सतनामी सात्विक व संत प्रकृति के थे ये लोग श्वेत वसन धारी सुदर्शन समूह थे बावजूद उनसे निगुर्ण उपासना के चलते अस्पृश्यता का व्यवहार होते रहे। वे लोग मिलकर यह सब अवगत भी कराए ।
भंडारपुरी मोती महल गुरुद्वारा जिसकी निर्माण १८३० के आसपास है के शिखर मे तीन बंदर है से प्रेरित हुए।संभवत: बिना कुछ कहे इनसे सत्य की संदेश सहज रुप से देने की कला से अवगत हुए हो।संभवत: इसलिए ही वे यहां से जाने बाद वे अपने साथ तीन बंदर रखना आरंभ किए । साथ ही आगे चलकर उसी सतनाम की महत्ता से अभिभूत सत्याग्रह चलाए। क्योकि "सतनाम मर्मांतक पीड़ा को सहने की नैतिक साहस प्रदान करते है।"और यह सब तथ्य सतनामियों और उनके गुरुओ से मिलकर वे भलिभांति जाने समझे।
गांधी जी स्वयं लखनऊ अधिवेशन मे सतनामियों को आमंत्रित किए ।वे ७२ सतनामी संत गुरु महंत के प्रतिनिधी मंडल से मिले मध्यस्थ थे पंडित सुन्दरलाल शर्मा जी जो १९०७-८ मे ही गुरुघासीदास व सतनाम की महत्ता को समझकर सतनामी पुराण नामक काव्य रचना कर चुके थे।
बाहरहाल आजादी के आन्दोलन मे सर्वाधिक सक्रिय सतनामी ही रहे और अनगिनत लोग जेल गये यातनाएं सहे।आज भी किसी समुदाय मे सबसे अधिक सतनामियो का ही रिकार्ड स्वतंत्रता संग्राम मे अंकित है।
गांधी व कांग्रेस के जुडे रहे इसी दरम्यान आजादी के आसपास मोहभंग की अवस्था डा अम्बेडकर की सक्रियता और उनके प्रभाव मे शेड्युलकास्ट व आर पी आई से भी कुछ लोग जुड़े ।
यह १९२०-५६ तक ३६ वर्ष का कालखंड सतनामियों की राजनैतिक सूझबुझ और सामाजिक क्रांति के लिए किए गये कार्य का बेहतरीन कालखंड है जब भारतीय राजनीति के दो धारा एक जो गांधीवाद था और दूसरा अंबेडकरवाद था के मध्य संयोजन, संतुलन व समन्वय का रहा।
आज उस समय के इतनी समझ और प्रखरता से जुड़े यह समुदाय आज पर्यन्त हाशिए पर ही है और संधर्षरत है ऐसा क्यो? एक भी कोई बड़ा और सर्व स्वीकृत नाम नही है जो प्रदेश व देश मे चर्चित हो । तब वाकिय मे हमारी राजनैतिक प्रतिबद्धता और योगदान के ऊपर हमे गहराई से विचार करने होन्गे ऐसा क्यो हुआ?
क्या सबसे बड़ समुदाय जो गुरुबाबा जी नाम पर एक है छग मे ५० सीट पर हस्तक्षेप रखते है तब क्यो कर हिन्दू या सवर्ण लोग उपेक्षित करते रहे है? जबकि एकता और संधर्ष के लिए अन्य समाज सतनामी के उदाहरण देकर आज उनसे ही अधिक ताकतवर होते जा रहे है। यहाँ तक अनेक ओबीसी जातियाँ इनके यहां कृषि मजदूरी कर जीवन यापन करते हैं। ये लोग भी सर्वणों के बहकावे में आकर सामाजिक भेदभाव करते हैं।
क्या सामाजिक भेदभाव के लिए कुछ विचारधाराएँ है जिन्हे धारण कर सतनामी लगातार भटकते आ रहे है? इन प्रश्न के उत्तर तलाशने होन्गे ?
तो क्या गांधी अंबेडकर हमारे लिए अभिशप्त सा रहा कि हेडगेवार वाली विचार धारा के चंगुल मे कुछ लोग विगत १५- २० वर्षो से जकड़ते जा रहे हैं जो कथित सनातन व हिन्दुत्व से सरोकार रखते समरसता के बहाने यथास्थिति वादी हैं। जिन्हे तिलांजलि देकर गुरुघासीदास ने सतनाम का प्रवर्तन किया और समानता के लिए नवजागरण चलाया। या डा. अम्बेडकर के उस ज्ञानवादी बौद्ध धम्म को समझ न पाने या अपनी संस्कृति के विरुद्ध जान उनसे समन्वय नही कर सके? जिनके सूत्र हमारी प्राचीन प्रतिमानों में भी नीहित हैं। उस तरफ से बेखबर है।
बाहरहाल हमे ऐसा लगता है कि गांधीवाद जिनके धूर विरोधी अंबेडकर वाद रहे है और तो और हेडगेवारवाद जो गाधी के बधिक भी रहे है (दोष लगा है कि वे इस्लाम व पाक समर्थक थे ! क्या यह सच है कि अस्पृश्य समुदाय को जागृत कर उनसे स् अभिमान या जागृति पैदा करने से नराजगी का दुर्दान्त प्रभाव था )। केवल राजनैतिक वाद है और समाज या धर्म से इन वादो का कोई लेना देना नही है।
अत: जिस दिन वोट डालना और सरकारे बनाना हो तब इनका मतलब है बाकि सभी अपनी धर्म व मान्यताओं मे ही उलझे रहो । यथास्थिति वाद को बनाए रखो और जो है उसमे संतुष्ट रहो।
पर यह भी नही इन तीनो वाद से भिन्न अंबेडकर वाद है पर कथित अंबेडकरवादी उसे उसे सत्ता की चाबी पाने की तरह इस्तेमाल करने लगे है। इसलिए आजकल इन सारे विपरित धाराओ मे सत्ता सुख हेतु गठजोड़ जारी है।जो सक्षम होन्गे उन्हे उखाड़ने बाकी दो धाराए युति करते रहेन्गे । पर सवाल यह है कि राजनैतिक रुप से सक्रिय इन धाराओ से बचकर कैसे धर्म धम्म पंथ की महत्ता कायम रखे ? आज यही महत्वपूर्ण है।हालांकि कुछ लोग धर्म को गौण व अस्तित्व विहिन मानने लगे है।पर भारत मे यह सब होने मे सदियां लग जाएगी ऐसा हमे लगता है।
शायद इसलिए गांधी अंबेडकर व हेडगेवार धार्मिक अधिक लगते है अपेछाकृत राजनीतिग्य के। इसलिए एक बौद्ध धम्म के हो गये और वे दोनो विपरित विचार के बावजूद सनातनी होकर रह गये । क्या बौद्ध सतनामी और तमाम ग्यान संत गुरु मुखी समाज जो उसी सनातनता से उत्पिडित है जो ईश्वरान्मुख न होकर गुरुमुख समुदाय है। जो बुद्ध कबीर नानक रैदास गुरुघासीदास के अनुयाई व सतनाम के अनुगामी है ।परस्पर मिलकर उस सनातन के समछ मजबूती खडा नही हो सकते ।केवल सामाजिक रुप से ही नही बल्कि राजनैतिक व आर्थिक रुप से भी।
हमे इन सब पर गंभीरतापूर्वक विचार करने होन्गे। क्योकि आप टुकड़ों मे बटे रहकर कुछ नही कर सकते । क्योकि वे आपके विचार दर्शन और आइडिया लेकर आपको ही अपने में फांस कर उलझा सकते है और उलझते ही आ रहे है।
सतनाम
-डा अनिल भतपहरी
सी - ११ ऊंजियार सदन सेन्ट जोसेफ टाऊन अमलीडीह रायपुर छग
[3/18, 20:38] Anil: क्या सतनामी हिन्दू हैं?
सतनामियों से सवर्ण हिन्दू सांस्कृतिक व धार्मिक प्रतिस्पर्धी के नाम पर द्वेषपूर्ण भाव से अस्पृश्यता का व्यवहार करते हैं। जबकि शेष अन्य जातियों से उनके निम्नतर व अस्वच्छ पेशा यथा चर्म शिल्प , सफाई कार्य कपडे धुलाई बाल कटाई आदि के चलते अस्पृश्यता का व्यवहार करते हैं।
इस तरह जिन जातियों से अस्पृश्यता का व्यवहार किये जाने लगे उसे डिस्प्रेस्ड क्लास या अनुसुचितजाति वर्ग कहे गये मराठी भाषा में उसे दलित कहे गये जिनका शोषण व दमन हुआ।
ये लोग आज भी हिन्दू के अभिन्न जाति है और उनके सारे देवी देवता उपसाना मेले पर्व यथावत मानते हैं और उनके विशिष्ट कुल देवता है। समय समय पर चमार महार मेहतर नाई धोबी आदि जिसे "पवनी जातिया " होने का दर्जा प्राप्त है का महत्व होते है उसे दान दछिणा देते वे सभी परस्पर जुडे हुए हैं।
परन्तु सतनामी इससे भिन्न है। वे जाति विहिन पंथ है और तमाम हिन्दू रीति नीति संस्कृति के इतर उनके अपने विशिष्ट जीवन पद्धति व दर्शन है।
उनके पारा मोहल्ला से लेकर तालाब के धाट और शमसान भूमि तक अलग है।
मतलब किसी भी दृष्टिकोण से सतनामी हिन्दू नहीं हैं। बल्कि आजकल कुछ लोग राजनैतिक महत्वाकांक्षा और संध शाखा से जुडे होने के कारण सतनामियों में हिन्दूत्व भाव तेजी से भर रहे हैं। उनकी महिलाए संतोषी वैभव लछ्मी करवा चौथ वट सावित्री आदि मनाने लगी है। और लोग गणेश दुर्गा पूजा भी करने व स्थापित करने लगे हैं। सरकारी दस्तावेज़ मे धर्म हिन्दू और जाति सतनामी लिखने बाध्य भी है।
(तो दूसरी ओर आर पी आई बसपा से जुडे होने कारण बौद्ध बनने की ओर अग्रसर है।और गरीबी व शिछा स्वास्थ्य गत कारणो से ईसाइयों के सेवा भाव से प्रभावित ईसाई तक बनने लगे हैं। (
क्योकि सतनाम धर्म नहीं है। यदि धर्म / पंथ कालम होते तो रिलिजन कालम मे सतनाम लिखते और जाति में सतनामी ।
बाहरहाल अनु जाति वर्ग मे प्राप्त सुविधाएं हेतु तत्कालीन नेतृत्व सतनामी को अनु जाति वर्ग में रखा और आरछण के हकदार हुए।इनके लाभ तो मिला पर सामाजिक रुप से हेय दृष्टि और हिकारत ही मिला। सुविधाएँ मिलने अकर्मण्यता बढी और निरंतर तिरस्कार से उन्माद प्रमाद से सतनामियों की प्रखरता और स्वाभिमान गिरते गया।वे नशे जुए और अन्य छेत्र में प्रविष्ट होते गये।लाभ तो चंद लोगो बमुश्किल २-५ लाख लोगों को मिला।पर ३०-३५ सतनामियों की आज भी बद से बदतर है।वे लोगो की स्थिति शेष दलितों जैसे ही नीरिह है। उन्हे वे तमाम सुविधाएं चाहिए।इनके बिना ऊपर उठ पाना या मुख्यधारा मे आ पाना मुस्किल है।
[3/18, 20:39] Anil: " ऐतिहासिक ग्राम जुनवानी के भतपहरी वंश और उनके सामाजिक दायित्व "
आजादी के पूर्व यहां तक गुरुघासीदास बाबा जी के संग मिलकर समाज सेवा में भतपहरी परिवार अग्रणी रहा है। एक पिता के चार बेटे ललवा ,नोहरा, भारत और बंशी नामक चार भाईयों के परिवार से गुलजार जुनवानी के यह चार भाई ही कुलदेवता की तरह यहां पूज्यनीय है। इनके नाम से हुमन -धूपन देकर विध्नबाधाओं से मुक्ति की प्रार्थाना की जाती है।
सतनामी राज्य की नव नियुक्त राजा गुरुबालकदास के सिपहसलार व सच्चा सिपाही यहां के समकालीन युवक रहे। फलस्वरुप उनके और उनके मित्र राजा वीर नरायणसिंह का आगमन हुआ है।
स्वतंत्रता आन्दोलन में भी यहा के लोग सम्मलित रहे । प्यारी बबा को स्वतंत्रता संग्राम सेनानी पेंशन मिलते रहा थे।
मंत्री नकूल ढ़ीढ़ी जी उनके बहनोई महंत नंदूनारायण भतपहरी (हमारे छोटे दादाजी ) के अभियान में पूरा गांव साथ रहा .. फलस्वरुप यहां की प्रभाव आसपास पड़ा ।
ब्रीटिश जमाने से साछर आज इस ऐतिहासिक ग्राम की अपनी विशिष्टता है। यहां की प्रतिभावान लोगों में छत्तीसगढ़ के अंबेडकर के नाम से ख्याति लब्ध परिछेत्र का प्रथम हाई कोर्ट एड मनोहरलाल भतपहरी आर पी आई के रायपुर लोकसभा के उम्मीदार के रुप बड़ा लीडर रहा है। साहित्यिक व सांस्कृतिक प्रतिभा सम्पन्न बहुमुखी प्रतिभाशाली प्रप्राचार्य सुकालदास भतपहरी थे। व बिहारी जांगडे विकास अधिकारी जोहन किसन पृथक छत्तीसगढ़ आन्दोलन के जेलयात्री नकूल ढीढी के साथ चंद्रबलि भतपहरी व उनके मित्र थे। फत्ते, मनराखन ,चैतू मनी राधे जमुना प्रेमदास जनप्रतिनिधी शासन - प्रशासन में प्रभावशाली पदों पर रहे । मं प्र अनु जाति आयोग पूर्व अध्यछ एड भुवललाल भतपहरी स्वस्थ व सक्रिय है।
महज एक परिवार और उनके कुछ बेटी दमाद परिवार से आबाद छोटे से गांव में अन्यत्र शोषण दमन से मुक्त समानता और एकता का बेमिशाल आदर्श ग्राम है जिनकी ख्याति दूर दूर तक है।जहां सेवानिवृत और वर्तमान में ४० -४५ से ऊपर अधिकारी कर्मचारी डा प्रोफेसर शिक्छक वकील जज इंजी तथा अपनी निष्ठायुक्त जीवट कार्यछमताएं/ नेतृत्व से शासन-प्रशासन में छाप छोड़ रहे है। यहां प्रदेश के सभी बडे राजनेताओं का आगमन जयंती समारोह में होते रहा है।
पत्थर खदान और कृषि वहां कठोर परिश्रम का प्रतिफल संधर्ष पूर्ण पुरुषार्थ भरा जीवन सफलता अर्जित करने के प्रेरक तत्व रहा है। इसी बहाने थोड़ी सी पारिवारिक पृष्ठभूमि बताकर हमें हर बार की तरह गर्वानुभूति होते है कि इस वंश के हम वारिश है।
बहरहाल पूर्वजों गुरुबाबा एंव समाज का आशीष मिलते रहे ताकि समाज सापेक्छ बेहतरीन कार्य कर अपने जीवन को ये नव समाज सेविकाएं सफल कर सके...परिवार के उत्तराधिकारी होने के नाते हमारा भी समर्थन व अपेछित सहयोग है।
-डा. अनिल भतपहरी
[3/18, 20:41] Anil: क्या सतनाम ईश्वर हैं ?
सत्नाम प्रसाद संभु अबिनासी।साजु अमंगल मंगल रासी।
सुक सनकादि सिद्धमुनि जोगी।सत्नाम प्रसाद ब्रम्हसुख भोगी।।
तुलसी कृत यह चौपाई का आरंभ नाम से हैं - यथा नाम प्रसाद संभु अबिनासी .... हमें लगता हैं कि यह केवल नाम नही होगा। यदि नाम हैं तो वह क्या और किसकी नाम होन्गे?
सिव किस नाम का जाप किए ? और पार्वती को अमर कथा सुनाए वह किस नाम से आरंभ हुआ होगा? प्रायः अधिकतर विद्वान उसे ( शिव को ) सत्य स्वरुप कहते यानि की वह सत्य के अराधक थे ।शैव मत के नाथ और सतनाम संस्कृति में सिद्ध सहजयोगियो ने सतपुरुष या निरंजन या काल निरंजन के आराधक बताते हैं ।यह बात तुलसी के पूर्व से ही प्रचलन में रहा और वे इस तथ्य या सतनाम से भलीभांति परिचित भी रहे। फिर सीधा सीधा रामचरितमानस की इस चौपाई में सतनाम क्यों नहीं लिख सके? या लिखना मुनासिब नहीं समझा? यह जरुर विचारणीय है।
हमें लगता हैं कि यह दो कारणो से हुआ होगा।पहला कि सतनाम के आराधक निर्गुण मत वाले सिद्ध नाथ संत कवि उनके परवर्ती बुद्ध सहरपा गोरखनाथ मत्सेन्द्रनाथ कबीर रैदास इत्यादि थे और वे सतनाम के साधक और प्रचारक थे उनमे अधिकतर अवतार वाद वेद शास्त्र आदि के प्रतिरोधी थे।अत: वे सीधा सीधा उनके द्वारा व्यहृत सतनाम का उल्लेख नहीं किया।दूसरा कि सत्नाम प्रसाद..लिखते तो चौपाई की मात्रा १६ से १८ हो जाते और काव्य शिल्प से बाहर हो जाते ।
अत: वे नाम लिखकर काम चलाये।परन्तु व्याख्या करने पर यह नाम रामनाम तो हो ही नही सकते क्योंकि तब शिव कैसे रामनाम जपते?जबकि राम का जन्म नही हुआ था। हरिनाम भी नही क्योंकि यह उनके भाई विष्णु के लिए प्रयुक्त होते।वे सतनाम के उपासक थे।
बाहरहाल यह नाम केवल सतनाम ही हैं जिसके आराधक बडे-बडे संत गुरु महात्मा सिद्ध- मुनी योगी तपस्वी थे और उनकी साधना से वे समर्थवान हुए। सतनाम की राह पर चलने से साधक को एक अप्रतिम सुखानुभूति होते हैं। उसे तुलसी ने ब्रह्मसुख कहे हैं। मतलब सतनाम ब्रम्हसुख प्रदान करने वाले कारक हैं ।इस तरह वे नाम या सतनाम को सीधा सीधा ईश्वरीय तत्व से जोडे। जैसा कि संतो गुरुओ सिद्धो नाथो ने सतनाम को ही ईश्वर खुदा करतार मालिक सतपुरुष स्वरुप में मानकर ही सिद्धियाँ प्राप्त की अपनी बाते जनमानस के बीच लाए।
सत्य ही ईश्वर हैं आजकल यह श्लोगन बहुत ही लोकप्रिय हो गये हैं।
इस तरह हम देखते है कि प्राचीन काल से ही सतनाम सत्यनाम सचुनाम सच्चनाम सतिनाम सत्तनाम शतनाम की सुमिरन जाप और साधना पद्धतियां रही है।
पर क्या सतनाम ईश्वर हैं सवाल यह हैं? ...यदि नही तब वह क्या है?और उनकी साधनाए प्रचार प्रसार बुद्ध से लेकर गुरु घासी बाबा तक किसलिए आम जनमानस के बीच किए गये... और वे किसे प्राप्त करने पथ प्रदर्शक हुए।सतनाम की प्रसाद या कृपा से ब्रम्हसुख मिलते हैं,जिसे परमानंद मानते हैं।मतलब ब्रम्ह या ईश्वर से अप्रतिम व श्रेष्ठ है।
सतनाम
डा. अनिल भतपहरी
हंसा अकेला सतनाम - संकीर्तन जुनवानी
[3/18, 20:42] Anil: [5/2, 23:14] Dr anilbhatpahari: सहोद्रा माता की झांपी दर्शन मेला डुम्हा भंडारपुरी
२१ मार्च २०१९
गुरुघासीदास की सुपुत्री सहोद्रामाता की झांपी जो (उनके गृहग्राम कुटेला बाद मे डूम्हा मे )उनके परिजन दीवान परिवार के पास संरछित है। उसमे गुरु घासीदास द्वारा व्यवहृत की ग ई सामाग्री संचित है जिसमे चरणपादुका , कंठी और सोटा सम्मलित है।ध्यान दे उनमे जनेऊ आदि नही है। उसे प्रत्येक वर्ष होली के दिन विधिवत पूजा अर्चना कर सफेद वस्त्र से बांधकर पलटे जाते है। जैसे गद्दी व नाडियल पलटते है।
इसे देखने दूर दूर से कुछ विशिष्ट श्रद्धालू आते है।खासकर बोडसरा परिछेत्र जो सहोद्रामाता की ससुराल परिछेत्र है ,उधर के लोग अधिकतर आते है।
आने वाला समय मे डुम्हा ग्राम मेले के रुप मे परिणित हो सकते है ,जहां बडी संख्या मे लोग बाबा जी की उक्त पवित्र अवशेष के दर्शनार्थ आयेन्गे।
हमारी तो यह दिली चाह है कि डुम्हा मे गद्दी सोटा और कंठी माला के लिए भव्य स्मारक बने और दीवान परिवार उनके संरछक सेवादार रहे।
साथ ही साथ गुरु बाबा घासी दास द्वारा सतनाम धर्म प्रचार हेतु लगाए गये ९ रावटी स्थल - चिर ई पहर ,दंतेवाडा , कांकेर ,पानाबरस , डोंगरगढ ,भंवरदाह ,भोरमदेव ,रतनपुर और दल्हा पहाड मे भी स्मारक बने एंव कंठी माला के एक एक मनके को रजत या स्वर्ण मंजुषा मे रखकर स्थापित व संरछित करे।
यह धार्मिक योजना बडी ही महत्वाकांछी योजना है। इनके लिए समाज के सभी वर्ग खासकर गुरु परिवार दीवान परिवार साधु संत महंत भंडारी साटीदार अधिकारी कर्मचारी गण से प्रतिनिधी मंडल बनावे एंव उक्त निर्माण एंव संबंधित जगहो के विकास व वहां मेले संगत पंगत अंगत की सतनामी सांस्कृतिक अनुष्ठान आरंभ करावे।
तब जाकर सतनाम धर्म के मार्ग प्रशस्त होन्गे।
धर्म और धार्मिक आयोजन ही जनमानस मे सांस्कृति एकता स्थापित कर सकते है।और परस्पर मेलजोल से संगठन और संगठन से ही शक्ति ।शक्ति से हस्ती और हस्ती से युक्ति युक्ति से मुक्ति......!.
धार्मिक आयोजन ही मुक्ति के प्रथम सोपान है। दुर्भाग्यवश समाज मे सिवाय जंयती और मेले के अतिरिक्त कुछ हुआ ही नही न ढंग से कुछ हो पा रहे है...... इस दिशा मे प्रग्यावानों को गंभीरता पूर्वक विचार विमर्श करना चाहिए ।
इस फागुन पूर्णिमा को इच्छुक श्रद्धालू गण डुम्हा भंडारपुरी जाकर माता सहोद्रा की झांपी में यत्नपूर्वक रखे सद्गुरु घासीदास की सोंटा चरण पादुका कंठीमाला एंव अंग वस्त्र का पावन दर्शन लाभ कर सकते है।
गांव वालों सहित समस्त संत महंत दीवान परिवार के साथ मेला लगाने की गुरुवंशजो की मार्गदर्शन लेकर सार्थक पहल कर सकते है। सतनाम धर्म- संस्कृति में यह मेला अभिनव पहल होगा। इससे जनमानस का नैतिक उत्थान सहित सर्वांगीण विकास के मार्ग प्रशस्त होन्गे।
सतनाम
डा अनिल भतपहरी
[5/2, 23:14] Dr anilbhatpahari: हमारी तो यह दिली चाह है कि डुम्हा मे गद्दी सोटा और कंठी माला के लिए भव्य स्मारक बने और दीवान परिवार उनके संरछक सेवादार रहे।
साथ ही साथ गुरु बाबा घासी दास द्वारा सतनाम धर्म प्रचार हेतु लगाए गये ९ रावटी स्थल - चिर ई पहर ,दंतेवाडा , कांकेर ,पानाबरस , डोंगरगढ ,भंवरदाह ,भोरमदेव ,रतनपुर और दल्हा पहाड मे भी स्मारक बने एंव कंठी माला के एक एक मनके को रजत या स्वर्ण मंजुषा मे रखकर स्थापित व संरछित करे।
यह धार्मिक योजना बडी ही महत्वाकांछी योजना है। इनके लिए समाज के सभी वर्ग खासकर गुरु परिवार दीवान परिवार साधु संत महंत भंडारी साटीदार अधिकारी कर्मचारी गण से प्रतिनिधी मंडल बनावे एंव उक्त निर्माण एंव संबंधित जगहो के विकास व वहां मेले संगत पंगत अंगत की सतनामी सांस्कृतिक अनुष्ठान आरंभ करावे।
तब जाकर सतनाम धर्म के मार्ग प्रशस्त होन्गे।
धर्म और धार्मिक आयोजन ही जनमानस मे सांस्कृति एकता स्थापित कर सकते है।और परस्पर मेलजोल से संगठन और संगठन से ही शक्ति ।शक्ति से हस्ती और हस्ती से युक्ति युक्ति से मुक्ति......!.
धार्मिक आयोजन ही मुक्ति के प्रथम सोपान है। दुर्भाग्यवश समाज मे सिवाय जंयती और मेले के अतिरिक्त कुछ हुआ ही नही न ढंग से कुछ हो पा रहे है...... इस दिशा मे प्रग्यावानों को गंभीरता पूर्वक विचार विमर्श करना चाहिए ।
इस फागुन पूर्णिमा को इच्छुक श्रद्धालू गण डुम्हा भंडारपुरी जाकर माता सहोद्रा की झांपी में यत्नपूर्वक रखे सद्गुरु घासीदास की सोंटा चरण पादुका कंठीमाला एंव अंग वस्त्र का पावन दर्शन लाभ कर सकते है।
गांव वालों सहित समस्त संत महंत दीवान परिवार के साथ मेला लगाने की गुरुवंशजो की मार्गदर्शन लेकर सार्थक पहल कर सकते है। सतनाम धर्म- संस्कृति में यह मेला अभिनव पहल होगा। इससे जनमानस का नैतिक उत्थान सहित सर्वांगीण विकास के मार्ग प्रशस्त होन्गे।
सतनाम
डा अनिल भतपहरी
[3/18, 20:43] Anil: बातें है बातों में क्या ?
इसके बावजूद भी लोग बातों से ही परस्पर जुड़े है और बात है तभी सब साथ है।बातें किसी से बंद कर देखे ... वह तो खार खाए बैठे है आपसे अनबोलना होने।
लोग बात -बात पर ही बनते बिगड़ते है। और बातें ही है जो जोडते और तोड़ते है। इसलिए बातों को युं ही नजर अंदाज न करे यह कहकर कि "बातों में क्या है?
बातों में ही सबकूछ है ।वर्तमान सरकार बातें न होने और मौन रहने के प्रतिरोध में बम्फर जीत से सत्तासीन हुई। इसलिए बातें करते रहने की अखिल भारतीय व्यवस्था किए है ।और हर हफ्ते मन की बातें "राष्ट्रीय प्रवचन " बन चूके है। राष्ट्रीय गान की जमाने लद गये अब हर तरफ राष्ट्रीय प्रवचन की धूम मची है।और जनता उसमें निमग्न है।
कहते है पहले रामायण आते देश भर की सड़के कर्फ्यु लगने सा वीरान हो जाते ,जहां से चोरी डकैती व स्मगलिंग की समाने आते- जाते । आजकल स्कूल पंचायत व सरकारी दफ्तरों में राष्ट्रीय प्रवचन श्रवण कराने रेडियों टी वी की व्यवस्था कराने और उन पर करोडो धपला करने का प्रसार भारती का नायाब खेल हुआ।और इस तरह वे मरणासन्न अवस्था से उबरे ।फिर भी दूरदर्शन और आकाशवाणी जैसे सफेद हाथी सैकडो चैनल व एफ एम के बीच कैसे जिन्दा है या जिन्दा रखे गये अन्वेषण का विषय हो सकते है।
बाहरहाल बातों ही बातों मे बात चली तो बातें कहां से कहां पहुंच गई ।लोग कितने बातुनी होते है कि बातों की बतड़ग करने या फिर अपनी बातें मनवाकर ही दम लेते है।या फिर दम तोड़ देते है। दम तोड़ने वाले तो बहुधा कम ही होते है अक्सर बतक्कड़ लोग हार नही मानते और मान भी लिए तो स्वीकारते नही। फिर भी लोग क्योकर यह कहते फिरते है कि सोनार की सौ और लोहार एक ।
कुछ अल्पभाषी बतक्कड़ो को अपनी एक बात से लोहार जैसे बड़ा धन चलाकर सोनार की सौ टकटकी हथौड़ी की चोट से अधिक संधातक प्रहार कर लेते है।
आजकल यही होने लगा है जो पछ में वह हजार जुबान चलाते सबको अपनी मनवाने बड़बड़ा रहे है और जो विपछ में है वह एक ही बाते कह रहा है हटाओं और बदलों ।
सुनने में आया है कि अमेरिका में एक ही बात से परिवर्तन आया "वी केन चेंज " यही सूत्र वाक्य की आजकल सबसे अधिक प्रभावशाली युवा वर्गों में है " हमें बदलाव चाहिए " यह वे चाहते है जो अपेछाकृत उपकृत नही है या एक सा रुटीन लाईफ से बोरिंग होने लगते है ।वही हवा पानी बदलने सैर सपाटे कर बदलाव चाहते है। जब आदमी हर दीपावली में घर की रंग रोगन बदलते है तब सरकारे कैसे नही बदलती यह जरुर विचारणीय है।हमारे लोग आस्थावान व रुढ़ीवादी होते है। किसी के त्याग बलिदान को किसी वैभव ऐश्वर्य को परंपरागत ढंग से ढ़ोते रहते है वे भला क्या बदलाव चाहेन्गे ये लोग यथास्थिति वादी होते है और कल्पित सुख की आस मे "जो रचि राखा राम जी" की धून में बिधुन दास मलूक की पंछी व अजगर की तरह मुफत की दार-भात खाते पड़े रहते है । वे सबके दाता राम कह मंजीरें बजाते संकीर्तन में मगन है ।ऐसे लोग
और ऐसी प्रवृत्तियां हर शासक वर्ग पैदा करते है। यही उनकी सत्ता में बने रहने का रामबाण अचुक औषधि है।
अजकल जनता को सब्जबाग और सपने दिखाने की कवायद दोनो - तीनो तरफ है । आश्वासनों का दस्तावेजीकरण करने संकल्प पत्र ,धोषणा पत्र दृष्टिपत्र ,शपथपत्रों की बाढ़ सी आई हुई है।आखिरकर ऐसा करके ही तो उनसे मत व समर्थन लिए जाते है ।
बाहरहाल यह अमेरिका नही जहां द्विदलीय प्रणाली हो यहां तो बहुदलीय और निर्दलीय है ऐसे बतक्कड़ो की बन आई है।फिर यह विशिष्ट अनुभव देशवासियों का है कि मौनीबाबा की तपस्या वही भंग कर सकता है जो जबर गोठकार हो ।जहां चुप-चुपाई हो वहां चुटुर -पुटुर मनोरंजन का साधन हो जाते है।मौन से उबे जनता मन की प्रवचन से मगन हुए ।पर जल्द ही अब प्रवचन की अतिरंजन और उनके शासकीय प्रसारण ही जन के अवचेतन मन में परिवर्तन की पवन बहाने लगे है। इस बात को बतक्कड़ लोग जगह -जगह बताने लगे है अब देखते है कि उनकी बातों का असर कितना असरदार होते है।
वैसे एक पुरानी फिल्मी गीत ही सबके सपने चुर चुर करने में काफी है पता नही इसको लोग आजकल क्यो नही बजाते या सुनते ।मेरा तो मन करता है कि मै भी एक बड़ा सा डी. जे. सांउड सिस्टम लगाऊ और रफी साहब की दिलकश आवाज को लाऊड में बजाऊ .... कस्मे वादे प्यार वफा सब बातें है बातों में क्या ?
पर भाई अनबोलना रहने और गूंगा होने से अच्छा है कि अच्छे दिन आने वाले वाले की सब्जबाग में ही टहले घूमें या खाली -पीली टहल टुहुल करने और अतिरंजना पूर्ण कानफोडू प्रवचन से ऊबे लोगों को परिवर्तन के लिए प्रेरित करने वालों की सुने या फिर उन्हे चुने जो अबतक अपनी बारी के इंतजार में ऐसे सपने दिखाते रहे है जो कथित दोनो राष्ट्रीय दल न देख - दिखा सकते न कर सकते!
तो बतक्कड़ों की बातों में फंसने तैय्यार तो रहों कि क्या पता कौन सी बातें आपकी बातों से मेल खाते बातों ही बातों में बात बन जाए !!
डा अनिल भतपहरी
[3/18, 20:44] Anil: एक मान्यता हैं कि साध महात्मा सतनामी और पुरोहित पुजारी ब्राह्मण परस्पर वैचारिक दृष्टिकोण से पृथक -पृथक मान्यताओं वाले वर्ग हैं दोनो जातियां नही है बावजूद जाति के नाम पर चिन्हाकित किए गये । एक जन्मना जात -पात विरोधी व समानतावादी हैं जबकि दूसरा जनमना जात -पात ऊंच -नीच भेद -भाव के सर्जक व समर्थक हैं। एक प्रवर्तनवादी तो दूसरा यथास्थिति वादी हैं।
कलान्तर में श्रमिक जातियां जो चौथे वर्ण में रहे सतनामियो की मानवतावादी एंव समानतावादी सिद्धांत के आकर्षण चलते सतनामी बनते गये। जबकि कोई कितनी ऊचाई व सात्विकता को अर्जित करे ब्राह्मण नहीं बन सकते । जबकि पतित व्यक्ति गुरु शरण में आकर सतनामी होकर उत्थित हो जाते हैं। इस तरह भारतवर्ष में एक नवीन संस्कृति का सनातन संस्कृति के समनान्तर ही प्रवर्तन हुआ। जो अलग तरह से रेखांकित हुई।
सतनामियों में भारतीय समाज के अनेक जातियों का समागम है। इस तरह जातिविहिन समुदाय के नाम से यह सर्वत्र विस्तारित होने की ओर अग्रसर हैं।
डा. अनिल भतपहरी
[3/18, 20:45] Anil: सतनाम - संकीर्तन
भजन
सत के पुजारी हे गुरुघासी
गुरुघासी हो संतो .....
सत के पुजारी गुरुघासी
पिता महंगुदास बबा हे
अमरौतिन महतारी
जंगल झाड़ी डोंगरी पहाड़ बीच
गिरौदपुरी के वासी संतो .....
सफूरा संग बिहा रचाए
दुनो कुल के मान बढाए
सिरपुर नगर महंत के बेटी
उज्जर रुप फूल कांसी संतो ....
सत के रद्दा ल नेक कहे
सब मनखे ल एक कहे
जात -पांत छोडवाके
बनाये सब ल सतनामी संतो ....
हंसा अकेला सतनाम संकीर्तन
प्रस्तुति व रचनाकार
डा. अनिल भतपहरी
९६१७७७७५१४
[3/18, 20:46] Anil: जब श्रृष्टि रचित हुई अनेक जीव जन्तु आए कलान्तर मानव हुआ धीरे धीरे उनका क्रमिक विकास हुए ध्वनि उच्चरित किए शब्द आया तब कही जाकर सतपुरुष जैसे सुन्दर नाम की रचना हुई।
हालाकि यह हमे आपको सुन्दर और महिमाम
[3/18, 21:05] Dr.anilbhatpahari: सत्यनाम सम्प्रादय के आदि संस्थापक समर्थ साईं जगजीवन दास साहब
सतनाम संप्रदाय की उत्पत्ति उद्भव एवं विकास
_________________
अखिल विश्व ब्रह्मांड की उत्पत्ति नाम और शब्द शिष्ट कर्ता सत्पुरुष से हुई है। विश्व के सभी धर्मों में रीति रिवाज कर्मकांड रहनी गहनी एवं संस्कार अलग अलग क्यों न हो किंतु सभी धर्म संप्रदाय एवं पंथ किसी परम शक्ति को स्वीकार करते
हैं कि जिसके द्वारा इस संसार की सृष्टि हुई है। उस परम शक्ति को संतो महाऋषियों एवं महापुरुषों ने ईश्वर परमात्मा कर्ता सत्पुरुष खुदा गॉड सत्यनाम आदि नामों से संबोधित किया है। सभी संत महापुरुषो को यह विश्वास है
कि इस संसार की संरचना ऐसे ही नहीं हुई है इसकी रचना करने वाला तथा समस्त संसार का संचालन करने वाला कोई ना कोई महान शक्ति अवश्य है जिसे हम निर्गुण या सगुण अलख निरंजन अगम अगोचर अविनाशी कह सकते हैं।
इसीलिए संतों ने कहा है कि पहले गुरु को गाइए जिसने रचा जहान
वाणी से पैदा किया अलख पुरुष निर्माण
अलख पुरुष निवार्ण .
वहिका लखै ना कोई।
वही का तो वाही लखै
जो वहि घर का होय।
वहि घर का हुआ तो क्या हुआ तख्त तरेरा होय।
तख्त तरेरा हुआ तो क्या हुआ जब शब्द स्नेही होय।
आदिकाल से ही हमारे देश में समय-समय पर अनेक ऋषि मुनि महापुरुष अवतरित होते रहे हैं जिन्होंने सामाजिक कुरीतियों का खंडन करते हुए जातिगत एवं धर्मगत भेदभाव को समाप्त करते हुए मानव मानव एक समान हैं, समर्पूण विश्व को बिश्वबंधुत्व की भावना का संदेश दिया। इन महापुरुषों में साकार एवं निराकार शक्तियों के उपासना की हैं। सभी संतों ने प्रभु का सुमिरन भजन ध्यान करके समाज को समय-समय पर नव चेतना का संदेश दिया।
ऐसे महान संतों में निर्गुण विचारधारा के संतों में समर्थ साईं जगजीवन दास साहब का नाम बड़ी श्रद्धा के साथ लिया जाता है।
सत्यनाम की साधना संत कबीर साहब नानक साहब बुल्ले साहेब बावरी साहिबा गोविंद साहब यारी साहेब दरिया साहब सुंदर दास दादू दयाल तुलसी साहब गुलाल साहब पलटू साहिब सहजोबाई दया बाई गुर घासीदास संतनारायण दास आदि सभी संतो ने की।
उनके मृत्यु के बाद उनके शिष्यों द्वारा समय समय पर उनके नाम से पंथ भी बने जो अपने पंथ का प्रचार प्रसार कर रहे हैं।
समर्थ साईं जगजीवन दास साहब ने गृहस्थ जीवन का अनुपालन करते हुए सत्यनाम का सुमिरन भजन ध्यान किया। सत्यनाम निर्गुण निराकार है वह अलख निरंजन अगम अगोचर अविनाशी है इस परम सत्य को जन जन तक पहुंचाने के लिए सभी धर्म गत एवं जाति गत भेदभाव को समाप्त करते हुए सभी जातियों एवं धर्मों के तत्कालीन समाज के महापुरुषों को भगवत भजन का शुभ अवसर प्रदान किया।
जनमानस मे प्रचार प्रसार के उन्होंने लिए 4 पावा 14 गद्दी 36 महंत 33 भजनानंदीयो को दीक्षित कर प्रचार प्रसार के लिए अधिकृत किया। आप द्वारा इस गठित इस संगठन को सतनाम धर्म (संप्रदाय पंथ) कहा गया जिसमें जातिगत धर्मगत ऊंच-नीच का भेदभाव नहीं था इसीलिए आप द्वारा इस संगठित संप्रदाय में
प्यारे दास धुनिया (मुसलमान), मनसा दास (रैदास), कायम दास (पठान), बाल दास (कोरी), शिवदास (पंजाबी) जैसे विभिन्न जातियों एवं धर्मों के महापुरुषों को 14 गद्दी में 36 महंतों मे बिशुण दास (मुल्तानी) को महत्वपूर्ण स्थान मिला।
समर्थ साईं जगजीवन साहब के द्वारा गठित इस संगठन द्वारा सतनाम का प्रचार प्रसार भारतवर्ष के सभी प्रांतों में तथा पाकिस्तान मुल्तान ईरान इराक तथा पड़ोसी देश नेपाल में हुआ।
सत्यनाम की उत्पत्ति किस संत द्वारा की गई यह तो कहना कठिन है किंतु समर्थ साईं जगजीवन साहब ने सत्यनाम संप्रदाय का संगठनात्मक स्वरुप सभी जातियों एवं धर्मो में पहले प्रथम बार प्रदान किया इसलिये साई जगजीवन दास को सत्यनाम सम्पदाय का आदि परिवर्तक कहा जाता है।
समर्थ साईं जगजीवन साहब का जिस समय अवतरण हुआ उस समय देश में सबसे क्रूरतम मुसलमान शासक औरंगजेब का शासन था उसका मूल उद्देश्य हिंदू धर्म को समाप्त कर भारत वर्ष में संपूर्ण रूप से इस्लाम धर्म स्थापित करना था जिसके कारण हिंदुओं पर घोर अत्याचार किए जा रहे थे हिंदू धर्म के देवी देवताओं को अपमानित कर अपवित्र करना मूर्तियों को तोड़कर उन्हें ध्वस्त करना मंदिरों को तोड़कर मस्जिदों का निर्माण कराया जा रहा था हिंदुओं को इस्लाम धर्म स्वीकार न करने पर जजिया कर लगाया जाता था।
साधु-संतों को इस्लाम धर्म एवं स्वीकार करने के लिए तरह-तरह के प्रलोभन दिए जाते थे। इस्लाम धर्म स्वीकार न करने पर उन्हें कठोर यातनाएं दी जाती थी और उनका वध कर दिया जाता था हिंदू मुसलमान सिख इसाई समस्त उनके घोर अत्याचार से पीड़ित एवं प्रताड़ित थी।भारतवर्ष की समस्त जनता भयभीत एवं अशंकित थी। औरंगजेब ने राजगद्दी प्राप्त करने के लिए हिंदू धर्म से सहानुभूति रखने वाले अपने बड़े भाई दारा सिंह का वध कर दिया एवं अपने पिता को जेल में डाल दिया था। उसके आंतक के विषय में सतनाम गोष्ठी पुस्तक में उल्लेख है-----
शाह औरंग बदरंग करि हिन्दूवन को।
जेल कर जजिया और कलमा पढावतो।।
बहू बेटी हरिराय ग्रन्थ जलाय आखिर।
पानी गरमाया कर वाहि ते नहावतो।।
भयो देश चकित स़शंकित समाज आर्य।
त्राहिमाम, त्राहिमाम, इसाई पुकारतो।।
मानव धर्म रक्षण को पाप पुंज भक्षण को।
भजो जग जीवन को ऐसों मन हालतों।।
यदा यदा हि धर्मस्य, ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्यतदात्मानंसृजाम्य मैं।।
हे अर्जुन जब जब पृथ्वी पर धर्म की हानि होती है पाप अधिक बढ़ता है तब तक मैं धर्म की रक्षा तथा पाप विनाश के लिए समय समय पर अवतरित होता हूँ।
संत तुलसी दास जी ने रामचरित मानस में इस तथ्य का उल्लेख करते हुए कहा है कि-
जब-जब होए धर्म की हानी
बाधाई महा असुर अभिमानी।
तब तब प्रभु धरि मनुज शरीरा।
हरै कोटि सज्जन कर पीरा।
ऐसे ही भीषण काल एवं विषम परिस्थित में मानव धर्म की रक्षार्थ संत जगजीवन साहब का अवतार ग्राम शरदहा तहसील बदोसराय जनपद बाराबंकी में सन 1670 me हुआ। आप चंदेल वंशीय छत्री थे आपके पिता का नाम गंगाराम तथा माता का नाम कमला था। आपका महा निवार्ण सन 1761 मे हुआ। श्री कोटवा धाम में आप की समाधि है।
संत जगजीवन दास जी के अवतरण के समय देश की स्थिति अति शोचनीय थी उस समय देश की सामाजिक धार्मिक राजनैतिक परिस्थितियों के अवलोकन करने से ज्ञात होता है कि उस समय सम्पूर्ण देश में जातिवाद पाखंण्डवाद चारो तरफ व्याप्त था। समाज में छुआ-छूत ऊॖंंच की भावना चरम सीमा पर थी। समाज मे उच्च कुलीन वर्ग एक वशेष समुदाय पूजा पाठ जप तप यज्ञ अनुष्ठानो में सदैव व्यस्त रहता था। समाज में यह अधिकार एक विशेष जाति वर्ग तक ही सिमित था। हिन्दू समाज जन्म जात हो एकमात्र हिन्दू कहलाने के अधिकारी थे। हिन्दू समाज का कोई व्यक्ति अज्ञानता भ्रमबश या भूल बस या किसी विशेष परिस्थिति बस एक बार धर्म भ्रष्ट हो जाने पर उन्हे पुनः शुद्धिकरण कर हिन्दू धर्म में प्रवेश करने का कोई विधि विधान नहीं था।
ऐसे ही लोगो को समाज से परिष्कृत एवं बहिष्कृत कर दिया जाता था। यह अवधारणा केवल हिंदू मुसलमान सिख इसाई समुदाय तक ही सिमित नहीं थी समाज में ऊंच-नीच कुल भेद भाव बहुत अधिक व्याप्त था जो तत्कालीन समाज को अछूत एवं दलित तथा अन्य छोटे-छोटे वर्गों में सदैव विभक्त कर रहा था। जिसके परिणाम स्वरूप समाज में परस्पर प्रेम सद्भावना सहानभूति की भावना सदैव समाप्त हो रही थी जिसके कारण समाज में परस्पर ईर्ष्या भाव दूषित भावना विद्वेषता का निरंतर बढ़ती जा रही थी।
जिस समय परम समर्थ स्वामी जगजीवन दास साहेब का अवतरण हुआ, उस समय तक देश में अनेकानेक मत धर्म संप्रदाय और पंथ प्रचलित थे।
जिनमें गोरख पंथ, नाथ पंथ, स्वामी रामानंदी पंथ और कबीर पंथ बावरी पंथ यारी पंथ उत्तर भारत में अपने चरम पर थे। नाथ पंथ और दादू पंथ देश में अपनी चरम सीमा प्राप्त कर चुके थे। उस समय तक नानक पंथ जिसे सिक्ख धर्म कहा जाता है पूर्ण विकसित हो कर अपने चरम पर था जो तत्कालीन धार्मिक एवं राजनैतिक परिस्थितियों की ओर राष्ट के लिए संकेत था।
कबीर पंथ अपने समन्वयवादी नीतियो और सामाजिक धार्मिक पाखंडो पर प्रहार के कारण अपनी लोकप्रियता अर्जित कर रहा था किंतु कबीर को हिंदू मुस्लिम दोनों जनता पूर्ण रूप से स्वीकार नहीं कर पा रही थी। आज जितनी मान्यता कबीर की है उनके समय में नहीं थी उन्हें सामाजिक उपहास का शिकार होना पड़ा, वहीँ यदि कोई पंथ कनक कामिनी में संलिप्त था तो कोई नाम में संलग्न था तो कोई पंथ इस मानव शरीर को ही सर्वोपरि मान कर हठयोग से मानव समाज से विमुख होकर मानव सामाज को एकांत में कठोर साधना का मार्ग प्रशस्त्र कर रहा था।
इन विषम परिस्थितियों में समर्थ जगजीवन साहब के मन में विचार आया कि क्या कोई ऐसा धर्म (संप्रदाय पंथ) हो सकता है जो इन सब कमियों को दूर करता हुआ हिन्दू मुसलमान सिक्ख ईसाई धर्म के लोगों में सहजता अपना सके जो देशहित और समाज के हित में हो जिसे सभी मानव समाज का धर्म कहा जा सके।
उन्होंने अपने सतनाम धर्म के अनुरूप समाज को उपदेश करते हुए कहा कि विश्व के सभी मानव का तन हांड चाम का बना हुआ है तो मानव मानव में भेदभाव कैसा है। उन्होंने समाज को प्रेषित करते हुए कहा कि-
जगजीवन दास विनती करें कहत अहै
करि जोरि।
एकै तन एक ब्रह्म है कोई ब्राम्हण कोई को्रि।
उन्होंने संपूर्ण विश्व को विश्व बंधुत्व की भावना का संदेश देते हुए सभी मानव को एक समान मानते हुए तत्कालीन समाज को उपदेश देते हुए कहा कि
हांड चाम का पिंजरा तामे कियों विचार।
एकै बरन में सब आहै ब्राम्हण तुर्क चमार।।
उन्होंने तत्कालीन समाज में व्याप्त सामाजिक कुरीतियों एवं पाखंडवाद का खंडन करते हुए कहा कि बर्तनों में छूत की भावना कैसी उन्होंने समाज को उपदेश करते हुए कहा कि-
साधो कलियुग आय के बर्तन लागे पाप।
कोरिन बांधी कंठी ब्राम्हण बांधो टॉप।।
उन्होंने संपूर्ण समाज तथा संपूर्ण विश्व के मानव को उपदेशित करते हुए कहा कि सभी के अंदर उस परम सत्ता सत्पुरुष की ज्योति समाई हुई है तो मानव समाज में भेद भाव क्यों है।उनका यह विचार था कि जब मानव तन एक है सब में सत्पुरुष की ज्योति समाई हुई है तो यह भेदभाव कैसा उन्होंने कहा कि-
साधो एक ज्योति सब माही।
अपने मन बिचार कर देखो और दूसरों नाही।
एक रुधिर एकै काया विप्र शूद्र कोई नहीं।।
उस समय समाज में अस्पृश्यता, जाति-पाति ऊंच-नीच तथा छुआ छूत की दुर्भावना को
नही मिटाया जा सका था। जातिगत निर्धनता की बढ़ती खाई से समाज पीड़ित था जिसके कारण मानव समाज के मध्य प्रेम, सहयोग की भावना न होकर ईर्ष्या द्वैष और बैमनस्यता की भावना अधिक व्याप्त थी।
शरीर गत चरित्रगत पवित्रता पर अधिक बल दिया जा रहा था जो कालांतर में केवल सामाजिक पाखंड बनकर रह गया। आर्थिक दृष्टि से समाज कमजोर था किंतु साधरण जीवनयापन हो रहा था। मानव समाज संसाधन की कमी के कारण महामारियो से समाज पीडित था जिसके कारण समाज को अनेक कष्ट सहने पड़ते थे। इनका उपचार बहुत कम था। समाज में शिक्षा के अभाव के कारण सामाजिक कुरीतियों पाखंड वाद का अधिक बोल बाला था।
यही कारण था कि समर्थ जग जीवन साहब ने युग देश और समाज के अनुरूप एक नए धर्म (सम्प्रादय पंथ) का निर्माण किया। जो कालंतर मे सत्यनाम सम्प्रादय (पंथ) के नाम से विश्व विख्यात हुआ।
इसीलिए समर्थ स्वामी जगजीवन दास जी को ही सत्यनाम धर्म का संस्थापक कहा गया है। संत जगजीवन साहब के साहित्य में अजपा जाप, सहज समाधि, सहज ध्यान का महत्व विशेष रूप से हुआ है। समर्थ साहेब ने कठिन योग साधना की अपेक्षा सहज योग साधना को अधिक उपयोगी तथा श्रेष्ठ माना है।
सत्यनाम अध्यात्मिक दर्शन के अनुसार शरीर तो भौतिक वस्तु और नश्वर है इसे नष्ट ही हो जाना है यदि सभी लोग शुद्ध हृदय प्रभु का सुमिरन भजन ध्यान करें तो श्रेष्ठ समाज की स्थापना हो सकती है। समर्थ स्वामी जग जीवन साहब ने जिस सत्यनाम सम्प्रादय (पंथ) की स्थापना की उसमें ऐसा सहज सरल मार्ग मानव समाज को प्रशस्ति किया जिसका अनुपालन लोगों के लिए सहज था . आसानी से सर्वाधिक स्वीकार किया जा सके इसलिए आपने ग्रहस्थ जीवन में रहते हुए सत्यम धर्म में रहकर मुक्ति और मोक्ष प्राप्त कर सके। आपने ग्रहस्थ जीवन में रहते हुए प्रभु के सुमिरन भजन ध्यान के लिए ग्रहस्थ जीवन रहकर कर हिमालय और वन कन्दराओ में ना
जाने का संदेश दिया है। अपने अंतर्घट हृदय में ही सरल सहजता का मार्ग बताया। आप ने इस स्वरूप का पहला आदर्श स्वयं के जीवन को समाज के सामने प्रर्दशित किया। आपने एक ऐसे सत्यनाम धर्म को मानव समाज को प्रशस्ति किया जो मनुष्य को एक संपूर्ण सामाजिक ग्रहस्थ जीवन के स्वरूप ही सत्यनाम धर्म में व्यक्ति के जीवन का अंतिम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्ति हो सके।
सतनाम संप्रदाय का संगठन•••••••
समर्थ संत जगजीवनदास साहब ने भगवत भजन के लिए जातिगत एवं धर्म गत भेदभाव को समाप्त करते हुए सभी धर्मों एवं जातियों के लोगों को दीक्षित कर सतनाम प्रचार-प्रसार के लिए अधिकृत किया आप द्वारा दीक्षित कुल 87 शिष्य थे जो 4 पावा 14 गद्दी 36 महंत 33 भजनानंदियो के नाम से विश्व प्रसिद्ध हुए।
चार पावा :
१ स्वामी गोसाईं दास (ब्राम्हण) प्रथम पावा कमोली धाम जिला बाराबंकी
२ स्वामी दूलन दास साहेब (क्षत्रीय) द्वितीय पावा धर्मे धाम जिला रायबरेली
३ स्वामी देवी दास साहेब (क्षत्रीय) तृतीय पावा बाबा धाम जिला बाराबंकी
४ स्वामी ख्यामदास साहेब (ब्राह्मण) चतुर्थ पावा मधनापुर धाम जिला बाराबंकी
14 गद्दियां :
१ साहब आह्लाद दास (क्षत्रीय) सरदहा निकट कोटवा धाम जिला बाराबंकी
२ साहब उदय रामदास (ब्राम्हण) तृतीय गदी हरचंदपुर निकट रुदौली जिला फैजाबाद
३ साहब नवल दास साहब तृतीय गद्दी उमापुर निकट रुदौली जिला फैजाबाद
४ साहब भवानी दास (ब्राह्मण) वहरेला निकट रामसनेहीघाट जिला बाराबंकी
५ साहब माधव दास (ब्राम्हण) निकट कोटवा सड़क जिला बाराबंकी
६ साहब शिव दास (ब्राम्हण) पंजाबी पाकिस्तान
७ साहेब प्यारे दास dhuniyaa (मुसलमान) निकट असंद्रा जिला बाराबंकी
८ साहब बाल दास (कोरी) अमरा नगर निकट बदोसराय जिला बाराबंकी
९ साहेब कृपा दास (ब्रह्मण) खुरदरी निकट शायपुर धनावा जिला जिला गोंडा
१० साहब बदली दास (कुर्मी) अटवा निकट जहांगीराबाद जिला बाराबंकी
११ साहब मेडन दास (क्षत्रिय) अटवा निकट जहांगीराबाद जिला बाराबंकी
१२ साहब रामदास (कुर्मी) अटवा निकट जहांगीराबाद जिला बाराबंकी
१३ साहब मनसा दास (रैदास) मिचौर निकट जिला गोंडा
१४ साहब कायम दास (पठान) निकट मवई जिला फैजाबाद
36 सतनामी महंत :
१ महंत विष्णु दास मुल्तानी (मुल्तान ईरान देश)
२ मंहत साधु दास
३ महंत बख्श दास
४ महंत उमराव दास
५ महंत दलव दास
६ महंत सुखराम दास
७ महंत गदा दास
८ महंत राम बक्श दास
९ महंत खेदू दास
१० महंत रूपन दास
११ महंत सदानंद दास
१२ महंत परमानंद दास
१३ महंत बाल्ला दास
१४ मंहत महा दास
१५ महंत फरसा दास
१६ महंत शीतल दास
१७ महंत राम बंक्शदास
१८ महंत बैजू दास
१९ महंत कुसली दास
२० महंत दिलावर दास
२१ महंत साधु दास
२२ महंत पूरी दास
२३ महंत मदन दास
२४ महंत लक्ष्मण दास
२५ महंत दल गंजन दास
२६ महंत अखियां दास
२७ महंत राम दास
२८ महंत दूरबील दास
२९ महंत मदारी दास
३० महंत मुन्ना दास
३१ महंत माधव दास
३२ महंत नवल दास
३३ महंत रंजन दास
३४ महंत मलंग दास
३५ महंत मोती दास
३६ सुबरन दास
33 भजनानंदी :
१ श्री निधि दास
२ श्रीआखलासी दास
३ श्री बेनी दास
४ श्री बख्तावर दास
५ श्री शिव नारायण दास
६ श्री टहल दास
७ श्री भूल नोटन दास
८ श्री दीपक दास
९ श्री प्रेमदास
१० श्री चेतराम दास
११ श्री करतार दास
१२ श्री इंदिरा दास
१३ श्री जयराम दास
१४ श्री साधु दास
१५ श्री मिथुन दास
१६ श्री गजल दास
१७ श्री परमेश्वर दास
१८ श्री ठाकुर दास
१९ श्री साधु दास
२० श्री गुलाब दास
२१ श्री संत दास
२२ श्री कल्याण दास
२३ श्री खुशहाल दास
२४ श्री विशाल दास
२५ श्री सुखमणि दास
२६ श्री दास
२७ श्री भोला दास
२८ श्री कुल्हर दास
२९ श्री शंकर दास
३० श्री शिव प्रसाद दास
३१ श्री मेदाराम दास
३२ श्री रैकवार दास
३३ श्री उमराव दास
.
कमलेश दास
सत्नाम आश्रम श्री कोटवा धाम बाराबंकी उत्तर प्रदेश
प्रथम पावा कमौली धाम
७९८५९४५७०५
९४५०७४२७०५
[3/18, 21:06] Dr.anilbhatpahari: भीषण छप्पन के अकाल और उसके बाद अनेक छत्तीसगढी परिवार ब्रिटिश काल में एग्रीमेन्ट लेवर यानि कि गिरमिटिया मजदूर के नाम से असम प्रान्त के बीहड जंगल और पर्वतीय छेत्र में स्थित चाय बगान विकसित करने गये और वही न आ सकने की मजबुरी में आबाद हो गये। इन परिवारों की जनसंख्या लगभग १६ लाख हैं। श्री रामेश्वर तेली सांसद हैं। एंव अनेक लोग सम्मानित जनप्रतिनिधी बगान मालिक संपन्न कृषक शासकीय सेवक और व्यवसायी बन गये हैं।
बगान श्रमिक जिसे बगनियां कहे जाते थे वे छत्तीसगढी मूल के लोग अपनी परिश्रम व लगन से अब बगान से उतर कर मैदानी और बसाहट वाले छेत्रों में आबाद छत्तीसगढी मूल के रुप में सम्मानित असमिया हो गये हैं। सभी वहां ओबीसी वर्ग में सम्मलित हैं। और परस्पर मेलजोल यदाकदा बिना द्वंद के वर वधु के पसंद से अन्तरजातिय विवाह भी प्रचलन में हैं। वहा छत्तीसगढ जैसे जात पात अपेछाकृत कमतर हैं ।तथा भाषा संस्कृति और संरछण के नाम पर संगठित हैं। यह प्रवासी समुदाय की उदात्य सांझा संस्कृति छत्तीसगढ के गांवो में व्याप्त जात पात छुआछूत की नारकीय दशा को प्रभावित कर एक मनव समाज एक भाषाई व संस्कृति वाली शानदार प्रदेश बना सकते हैं। जो संपूर्ण देश को न ई रौशनी दे सकते हैं। और वर्तमान परिदृश्य में यह नितांत आवश्यक भी हैं।
असम से आये पाच सतनामी पहुना कल गुरुघासीदास सांस्कृतिक भवन में अत्यंत भावविभोर होकर अपने पूर्वजों की पीडा संधर्ष और वहां आबाद होने की दास्तान असमिस उच्चारण मिश्रित प्राचीनतम छत्तीसगढी भाषा जैसे झुंझकुर ,भाटों ,मया महतारी ,संत गुरु बबा , संसो , रद्दा ,असीस जैसे छत्तीसगढ में विलुप्त प्रायः शब्दों का अनुप्रयोग वहां से आए युवा पहुना कहे तो मुझ भासा और संस्कृति प्रेमी को बेहद अल्हादित किया।मंत्रमुग्ध उन सभी के प्रेरक बातों को श्रवण करते रहा।
प्रगतिशील छग सतनामी समाज द्वारा शहीद स्मारक भवन में ११०० पंथी नर्तको साहित्यकारों के सम्मान के अवसर २०१७ पर मुख्यमंत्री द्वारा उद्धोषित कि छत्तीसगढी संस्कृति की संरछण हेतु पहल की जाएगी उनके आधार पर संस्कृति विभाग के अशोक तिवारी जी की कठिन परिश्रम से सांस्कृतिक आदान प्रदान का सिलसिला आरम्भ हुआ। यह सुखद संयोग हैं कि असम मे निवासरत १६ लाख छत्तीसगढी भाषियों में ३ लाख से अधिक सतनामी परिवार है। और सभी वहां समरस हैं। हम सौभाग्यशाली हैं कि मुख्यमंत्री जी के धोषणा और उनके कुछ माह बाद असम से सर्व समाज के प्रतिनिधि मंडल ३० सदस्यों का प्रथम आगमन१७ में और ५ अप्रेल १८ को वहां से ५ सतनामियो के आगमन उनकी आपबीति को श्रवण व वार्तालाप करने का अवसर मिला।
गुरुअगमदास मिनीमाता के उपरान्त वर्तमान गुरुवंशज गुरु सतखोजनदास साहेब (उनकी धर्मपत्नी गुरुमाता असम से आई हुई हैं।) के गरिमामय उपस्थिति व प्रबोधन आशीष वचनों से यह कार्यक्रम सम्पन्न हुआ।
आगे यह सांस्कृतिक मेलजोल और आवागमन सिलसिला चल पडेगा और सुदुर २ हाजार कि मी दुर में आत्मीय जनो से छत्तीसगढी जनता का सीधा संपर्क होगा।
प्रथम सांसद गुरुमाता मिनीमाता ही दोनो प्रांतो को जोडने वाली कडी है। अत एव उनके नाम पर रायपुर से डिब्रू गढ तक ३ करोड जनता को जोडने रेल मंत्रालय भारत सरकार मिनीमाता एक्सप्रेस चलाया जाय।व उनकी जन्म स्थान को तीर्थ स्थल के रुप में विकसित किया।
कार्यक्रम में प्रवासी पहुना मदन जांगडे ,हिरामन सतनामी बिमल सतनामी मिलन सतनामी ,.ज्युगेश्वर सतनामी.सहित के पी खांडे डा जे आर सोनी एल एल कोशले पी आर गहिने सुन्दरलाल लहरे सुन्दर जोगी ऊषा गेन्दले उमा भतपहरी शकुन्तला डेहरे मीना बंजारे डा करुणा कुर्रे ,एम आर. बधमार ओगरे साहब चेतन चंदेल डा अनिल भतपहरी सहित अनेक गणमान्य लोगों की गरिमामय उपस्थिति रही।
जय छत्तीसगढ जय सतनाम
[3/18, 21:07] Dr.anilbhatpahari: सतनाम धर्म संस्कृति प्रश्नोत्तरी
(1).अविभाजित छत्तीसगढ़ के प्रथम महिला विधायक सतनामी समाज से कौन हैं?
उत्तर:- दुर्गावती पाटले जी ,मुंगेली
(2).छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के बाद प्रथम सतनामी महिला विधायक कौन है?
उत्तर:- कु. कामदा जोल्हे जी ,सारंगढ़
(3).विश्व के 65 देशों में पंथी नृत्य प्रस्तुत करने का गौरवशाली कलाकार कौन हैं?
उत्तर:- स्व.देवदास बंजारे जी
(4).प्रथम महिला पंथी पार्टी के मुखिया का नाम क्या हैं?
उत्तर:- स्व.तोरनबाई मिर्चे जी
(5).सतनामी समाज में सर्वप्रथम इंजीनियर कौन हैं?
उत्तर:- श्री परमानंद मारकण्डेय जी
(6).सतनामी समाज में सर्वप्रथम आई.ए.एस. कौन हैं?
उत्तर:- श्री डी.आर.ओगरे जी
(7)."सतनाम पुराण" के रचयिता का नाम क्या हैं?
उत्तर:- श्री सुंदरलाल शर्मा जी
(8).गुरु घासीदास विश्वविद्यालय कहां स्थित है?
उत्तर:- कोनी,बिलासपुर
(9).अखिल भारतीय सतनामी महासभा की स्थापना कब और किसकी अध्यक्षता में की गई थीं?
उत्तर:- सन् 1925 में गुरु अगमदास जी की अध्यक्षता में
(10).छत्तीसगढ़ में सतनाम आंदोलन के जन्मदाता कौन थे?
उत्तर:- परम पूज्य गुरु घासीदास बाबा जी
(11).छत्तीसगढ़ सतनामियों की मालगुजारी कितने गांवों में थी?
उत्तर:- 81 गांवों में।
(12).गौवध रोकने के लिए सर्वप्रथम आंदोलन किसने किया था?
उत्तर:- राजमहंत नैनदास महिलांगे जी
(13).सतनाम धर्म का मुख्य आधार क्या हैं?
उत्तर:- सादगी और सच्चाई
(14).स्त्रियों के सम्मान को समाज का प्रथम कर्तव्य बताने वाले महापुरुष कौन हैं?
उत्तर:- परम पूज्य गुरु घासीदास बाबा जी
(15).संसार में सबसे तीव्र गति के नृत्य क्या हैं?
उत्तर:- पंथी नृत्य
(16).छत्तीसगढ़ राज्य के विधानसभा का नाम किसके नाम पर रखा गया हैं?
उत्तर:- मिनीमाता जी
(17).पंथी नृत्य के प्रचलनकर्ता कौन हैं?
उत्तर:- गुरु अमर दास बाबा जी
(18).सत्य ध्वज पत्रिका के संपादक कौन हैं?
उत्तर:- श्री दादू लाल जोशी जी
(19).सुविधा सभी वर्णों के लिए कब लागू हुआ था?
उत्तर:- सन् 1825
(20).सतनामी समाज के प्रथम डी.एस.पी.कौन थे ?
उत्तर:- श्री दलगंजन सिंह जी
(21).सतनामी समाज के प्रथम डिप्टी कलेक्टर कौन थे?
उत्तर:- श्री धनाराम ओगरे जी
(22).सतनामी समाज के प्रथम चिकित्सक कौन थे?
उत्तर:- डॉ.बनऊ राम जोशी जी
(23).सतनामी समाज प्रथम वकील कौन थे?
उत्तर:- एडवोकेट सांसद रेशमलाल जांगडे जी
(24).आरपीआई का प्रथम महाकौशल कौन थे?
उत्तर:- अध्यक्ष महंत नन्दू नारायण भतपहरी जी
(25).गुरु घासीदास जयंती के प्रवर्तक कौन थे?
उत्तर:- मंत्री नकुल देव ढी़ढी़ जी
(26).प्रथम गुरुघासीदास जयंती कौन सें सन् में मनाया गया था?
उत्तर:- १८ दिस १९३६ भोरिंग वृहद रुप मे १९३८
(27).प्रथम जैतखाम स्थापना कौन से स्थान में किया था?
उत्तर:- गुरु घासीदास सोनाखान के गली में
(28).प्रथम सतनाम रावटी स्थल कहा स्थित हैं?
उत्तर:- चिरई पहर बस्तर
(29).पर्वतदान किसने किया था?
उत्तर:- मालगुजार रतिराम जी
(30).भारत मे प्रथम बार गौवध के विरुद्ध आन्दोलन किसनें किया था?
उत्तर:- राजमहंत नैनदास महिलांगे व सतनामी समाज
(31).प्रथम डोला बारात किसके द्वारा निकाला गया था?
उत्तर:- भुजबल महंत
(32).सतनाम आत्मज्ञान भूमि कहा स्थित हैं?
उत्तर:- चंद्ररपुर महानदी तट सारंगढ़
(33).सतनाम तपोस्थली कहा स्थित हैं?
उत्तर:- छाता पहाड़ तपोभूमि गिरौदपुरी
(34).सतनाम पंथ प्रवर्तक स्थल कहा स्थित हैं?
उत्तर:- तेंदू वृक्ष के समीप मैदान
(35).सतनाम साधना स्थल स्थित हैं?
उत्तर:- औंरा धौंरा वृक्ष के मध्य
(36).प्रथम सतनाम उपदेश कहा दिया गया था?
उत्तर:- गिरौदपुरी धाम
(37).गुरु घासीदास जी को प्रथम बार नरबलि कहा दी गई थी?
उत्तर:- कुर्रुपाठ देवी सकुशल रहें
(38).गुरू घासीदास बाबा जी को द्वितीय नरबलि कहा दी गई थी?
उत्तर:- महामाई देवी रायपुर सकुशल रहें
(39).गुरू घासीदास बाबा जी को तृतीय नरबलि कहा दी गई थी?
उत्तर:- दन्तेश्वरी दन्तेवाड़ा
(40).विछोह उपरान्त गुरु अमरदास जी का प्रथम मिलन स्थल कहा हैं?
उत्तर:- तेलासी पुरी धाम
(41).गुरु अमरदास जी की धर्म पत्नी का नाम क्या था?
उत्तर:- प्रतापपुरहीन माताजी
(42).गुरु बालकदास की जी की धर्म पत्नी का नाम क्या था?
उत्तर:- नीरा माता जी
(43).गुरु बालकदास जी को राजा की उपाधि कौन से सन् में दी गई थी?
उत्तर:- सन् १८२०
(44).गुरु बालकदास जी के हाथी का नाम क्या था?
उत्तर:- दुलरवा
(45).गुरु बालकदास के जी अंगरक्षक का नाम क्या था?उत्तर:- सरहा जोधाई
(46).गुरु अमरदास जी समाधि स्थल कहा स्थित हैं?
उत्तर:- चटुआ धाम शिवनाथ नदी तट
(47).गुरु बालकदास संघर्ष स्थल कहा स्थित हैं
उत्तर:- औराबांधा
(48).गुरु बालक दास शहादत स्थल कहा स्थित हैं?
उत्तर:- कोसा मुलमुला
(49).सतनाम धर्म के प्रमुख धर्म स्थल कौन से हैं?
(1). तपोभूमि गिरौदपुरी धाम फागुन पंचमी सप्तमी मेला प्रतिवर्ष
(2).भंडारपुरी गुरु दर्शन मेला क्वार शुक्ल पक्ष एकादशी
(3).तेलासीपुरी आषाढ़ पुन्नी,मेला क्वार दशमी गुरु दर्शन (4).खण्डुवा क्वार दशमी गुरु दर्शन मेला
(50). सतनाम धर्म स्थल?
(1).खपरीपुरी धाम
(2).पचरी धाम
(3).बोड़सरा धाम (बिलासपुर)
(4).पताढ़ी धाम (कोरबा)
(5).अमरटापू धाम (मुंगेली)
(6).सेतगंगा धाम (मुंगेली)
(7).लालपुर धाम (मुंगेली)
(8).चक्रवाय धाम (नवागढ़)
(51).सतनाम ९ रावटी स्थल हैं-
(1).चिरई पदर
(2).दंतेवाड़ा
(3).कांकेर
(4).पानाबरस
(5).डोंगरगढ
(6).भंवरदाह
(7).भोरमदेव
(8).रतनपुर
(9).दल्हा पहाड़
(52).सतनामी समाज से प्रथम आकाशवाणी कलाकार कौन थे?
उत्तर:- गंगाराम शिवारे
(53).सतनामी समाज से प्रथम सतनामी आकाशवाणी पंडवानी गायिका कौन थी?
उत्तर:- स्व.लक्ष्मी बंजारे
(54).सतनामी समाज से एकमात्र अधिकृत भरथरी गायिका कौन थी?
उत्तर:- स्व.सुरुज बाई खाण्डे
(55).सतनामी समाज से प्रथम अंतराष्ट्रीय पंथी नर्तक
कौन थे?
उत्तर:- स्व.देवदास बंजारे
(56).सतनामी समाज से एक मात्र गोपीचन्द गायक कौन था?
उत्तर:- तुलाराम टंडन
(57). दुर्लभ व विलुप्त वाद्य यंत्र हुड़का से मंगल भजन गायक महाकवि कौन थे?
उत्तर:- पं.साखाराम बघेल
(58). चिकारा के सिद्धहस्त वादक गायक कौन थे?
उत्तर:- ९५ वर्षीय मानदास टंडन
(59).अंतराष्ट्रीय वेट लिफ्टर व राष्ट्रीय चैंपियन्स कौन हैं? उत्तर:- रुस्तम सांरग जी
(60).प्रथम सतनामी रंगकर्मी कौन थे?
उत्तर:- सुकालदास भतपहरी प्रसिद्ध नाटक राह का फूल चांदी का पहाड़ "एक मुठा माटी के असरइय्या"चरनदास चोर सहित अनेक नाटक सृजन व मंचन
(61).अनारक्षित विधानसभा से खड़ा होने व जीतने वाले प्रथम सतनामी विधायक कौन है?
उत्तर:- श्री दाऊ राम रत्नाकर,पामगढ़
(62).सतनामी समाज से कौन निर्दलीय विधायक चुने गये थे?
उत्तर:- डेरहुराम धृतलहरे
(63). गुरु घासीदास राष्ट्रीय उद्यान कहा स्थित हैं
उत्तर:- कोरिया जिला
(64). भंडारपुरी गुरुद्वारा मोतीमहल का निर्माण किस सन् में किया गया था?
उत्तर:- सन्१८४०
(65).कंगूरे पर तीन बंदरो का शिल्पांकन तीन बंदरों का मुद्रा
(1).असत्य न कहों
(2).असत्य न सुनों
(3).असत्य न देखों
(66).जैतखाम की ऊंचाई कितनी होनी चाहिए?
उत्तर:- २१ हाथ
(67).जैतखाम में प्रयुक्त लकड़ी कौन सी हैं?
उत्तर:- सरई या साजा
(68).पालो धर्म ध्वजा का रंग कौन सा होता हैं?
उत्तर:- सादा (सफेद )
(69).पालो धर्म ध्वजा का आकार कौन सा होता हैं?
उत्तर:- आयताकार
(70).पालो धर्म ध्वजा का क्षेत्रफल क्या होता हैं?
उत्तर:- सवा मीटर
(71).पालो चढ़ावा में प्रयुक्त डंडे कौन सा उपृोग करते हैं?
उत्तर:- बांस
(72).बांस की डंडे में गठान की संख्या कितनी होती हैं?
उत्तर:- पांच
(73).जैतखाम में हुक की संख्या कितनी होती हैं
उत्तर:- 3
(74).चौका के प्रवर्तक कौन थे?
उत्तर:- संत रतिदास जी
(75).चौका में१६ लगन मंगल भजन गाए जाते हैं।
(76).चौका के प्रधान वस्तु कौन-कौन से हैं?
उत्तर:- सुख सागर,अध्धर जोत,पान-प्रसाद,ज्योतिकलश,
शीला सोत
(77).लोकप्रिय सतनाम ग्रंथ कौन सा हैं?
उत्तर:- "गुरु घासीदास नामायण"
(78).प्रथम महाकवि कौन थे?
उत्तर:-पं.सुखीदास
(79).प्रथम लिखित व प्रकाशित सतनाम साहित्य ग्रंथ कौन सा हैं?
उत्तर:-"सतनाम सागर"
(80).गुरु घासीदास नामायण के रचयिता कौन थे?
उत्तर:- मनोहरदास नृसिंह
(81).महाकाव्य सतनामपोथी के रचयिता कौन थे?
उत्तर:- पं.सुकुलदास धृतलहरे
(82).सतनाम धर्मग्रंथ के रचयिता कौन थे?
उत्तर:-केशरलाल टंडन
(83).सत्यायण महाकाव्य के रचयिता कौन थे?
उत्तर:- पं.साखाराम बघेल
(84)."सतनाम-संकीर्तन "के रचयिता कौन थे?
उत्तर:- सुकालदास भतपहरी
(85). महाकाव्य "सतनाम प्रभात सागर"के रचयिता कौन हैं?
उत्तर:- डॉ.मंगत रविन्द्र जी
(86).महाकाव्य"सतसागर"के रचयिता कौन हैं?
उत्तर:- नम्मुराम मनहर जी
(87).एक था सतनामी का लेखक कौन हैं?
उत्तर:- पुरानिक चेलक जी
(88).सतनाम दर्शन का लेखक कौन हैं?
उत्तर:- इंजीनियर टी.आर.खूंटे जी
(89).सतनाम दर्शन का लेखक कौन हैं?
उत्तर:- भाऊदास धृतलहरे
(90).प्रथम सतनामी महिला अंतराष्ट्रीय खिलाड़ी कौन हैं?
उत्तर:- कु.मालती पनोरे (तलवार बाजी)
(91).नाचा के सिद्ध हस्त कलाकार कौन हैं?
उत्तर:- दानी दरुवन सुकुवा,के अंजोर नाच पार्टी
(91).सतनामी समाज का प्रथम राज्य कांग्रेस अध्यक्ष कौन हैं ?
उत्तर:-सांसद परसराम भारद्वाज
(92).प्रथम सफल हाईकोर्ट वकील कौन हैं?
उत्तर:-एडवोकेट मनोहरलाल भतपहरी
(93).प्रथम रिजनल स्टेट बैंक मैनेजर कौन हैं?
उत्तर:- राजेन्द्र प्रसाद भतपहरी
(94).प्रथम बी.एड.महाविद्यालय प्राचार्य व संयुक्त संचालक कौन हैं
उत्तर:- पी.आर.गहिने
(95) विश्वविद्यालय के प्रथम महिला कुल सचिव कौन हैं? उत्तर:- डॉ.इन्दू अनंत
(96).प्रथम महिला सत्र न्यायाधीश कौन हैं?
उत्तर:- संधरत्ना भतपहरी
(97).प्रथम महिला आई.एफ.एस कौन हैं?
उत्तर:- विजिया रात्रे
(98).सतनाम साहित्य पर प्रथम पीएएसी कौन किये हैं?
उत्तर:- डॉ.अनिल कुमार भतपहरी
(99).सबसे सक्रिय व व्यवस्थित संस्था छत्तीसगढ़ प्रगतिशील के संस्थापक अध्यक्ष कौन हैं?
उत्तर:- इंजीनियर एल.एल.कोशले
(100).लोकप्रिय मासिक सतनाम संदेश के प्रबंध संपादक कौन हैं?
उत्तर:- डी.एल.दिव्यकार
(101).संतोषपुरी धाम के संस्थापक कौन हैं?
उत्तर:- संत खूबलाल टंडन जी
(102).प्रथम राज्य बसपा अध्यक्ष कौन हैं?
उत्तर:- दाऊराम रत्नाकर
(103).प्रथम अंतरिम सरकार सन् १९३५ में प्रतिनिधित्व किसने किया था?
उत्तर:- गुरु गोसाई अगमदास जी
(104).सतनामी समाज के प्रथम पायलेट कौन हैं?
उत्तर:- कैप्टन युगल रात्रे
(105).सतनामी समाज में वैज्ञानिकनासा द्वय निराला जी व भार्गव जी हैं
(106).लिम्का बुक में २०० मांदर के साथ पंथी गायन कर रिकार्ड कायम किसने किया हैं?
उत्तर:- एस.एल.बारले व अमृता बारले
(सत्य दीप पत्रिका)
(107).भव्यतम्११००पंथी नर्तक विश्व रिकार्ड बनाए यमुना तट नई दिल्ली श्री श्री रवि शंकर जी के विश्व सांस्कृतिक विरासत कार्यक्रम में
(108).सर्वाधिक ऊंचाई वाले जैतखाम कहा स्थित हैं और कितना मीटर ऊंचा हैं?
उत्तर:- गिरौदपुरी धाम ७७ मीटर
(109).सतनाम के अनुयाई के लेखक कौन हैं?
उत्तर:- डॉ.जे.आर.सोनी
डॉ.अनिल कुमार भतपहरी
[3/18, 21:10] Dr.anilbhatpahari: 🙏जगत गुरु अगमदास जी🙏
जीवन परिचय- गुरू घासीदास बाबा जी से गुरू आगरदास (तृतीयपुत्र) श्री गुरूआगरदास से गुरू अगरमन दास, श्री गुरू अगरमनदास जी व कनुका माता से चौथा वंशज गुरू अगमदास जी का जन्म ग्राम तेलासी में सन् 1895 को हुआ था । गुरूगोसाई अगमदास जी का जीवन चरित्र समस्त मानव समाज के लिए प्रेरणादायी है। गुरूगोसाई का प्रथम विवाह पूर्णिमामाता 1915, द्वितियविवाह सुमरितमाता 1927,तृतीय विवाह ममतामयी मिनीमाता 1932 व चतुर्थ विवाह रतिराम मालगुजार की सुपुत्री करूणामाता के साथ 1935 में हुआ था। गुरूगोसाई ने चार विवाह वंश विस्तार समस्या (पुर्व पत्नीयों के निसंतान होने )के चलते किया। काफी लंबे समय के अंतराल के बाद सतपुरूष गुरू घासीदास बाबा के असीम कृपा आशीर्वाद के फलस्वरूप गुरूगोसाई अगमदासजी व राज राजेश्वरी करूणामाता के गोद में सत्यांश का विजयगुरू उर्फ अग्रनामदास जी के रूप में इस धरती में अवतरण हुआ।
सामाजिक कार्यो में सहयोग - गुरू अगमदास जी अपनें पिता श्री गुरू अगरमनदास जी के सामाजिक राजनैतिक व समाजोत्थान के कार्यो में सहयोग के साथ ही समकालिन ब्रिटिश शासन, तथा सामंतवादियों के जुल्म अत्याचार के खिलाफ सतनामी समाज के युवाओं को जोड़कर सतनामी सेना को मजबुती प्रदान किया गया। एवं अपनें पिता के निर्देशानुसार समाज के योग्य मेहनती व विवेकी लोगों की सुचीबद्व विवरण तैयार कर 108 मंहतों की नियुक्ति प्रदान कर उन्हे सामाजिक व्यवस्था संचालन व कर्तव्य पद पालन की जिम्मेदारी दिया गया। साथ ही कण्ठी जनेऊ और चंदन तिलक सतनामियों की पहचान है,सफेद झण्डा समाज की शान है को गुरूगोसाई अगमदास जी ने चरितार्थ किया।
समाज संचालन व राऊटी - गुरू अगरमनदास जी की सतलोक गमन के पश्चात समाज संचालन/पथप्रर्दशन की संपूर्ण जिम्मेदारी जुलाई 1923 से गुरू अगमदास जी के उपर आ गया। गुरूगोसाई अगमदास जी पदग्रहण के बाद ही भण्डारपुरी में सतनामी समाज के राजमंहतो भण्डारीयों, छड़ीदारो, राजनैतिक, सामाजिक कार्यकताओं के साथ सभी सतनामधर्म के अनुयायीयों की विशाल आमसभा का आयोजन कर पूर्व गुरूओं के अधुरे सभी कार्यो को पुरा करनें के अलावा समाज के विकास हेतु अनेको निर्णय लिए गये। कुछ दिन बाद राऊटी में गुरूगोसाई अगमदास जी ममतामयी मिनीमाता को साथ लेकर समाज को संगठित करनें सफेद ध्वजा अपने गाड़ी में बांधकर सभी राजमंहत प्रमुख रूप से राजमंहत रतिराम, दिवान नरभूवनलाल, भूजबलमंहत, भण्डारीयों, छड़ीदारो, राजनैतिक, सामाजिक कार्यकताओं को साथ लेकर राजनैतिक एवं सामाजिक कार्यदशा सुधार करनें, शासन प्रशासन से सभी स्तर पर अधिकार पाने व दिलाने का संवैधानिक कार्य किया गया।
गौहत्या बंद व कानपुर में गुरूगोसाई सम्मान - गुरूघासीदास बाबा जी के जीवन आदर्शों को आत्मसात कर गुरू अगमदासजी ने सतनाम धर्म के व्यापक विस्तार एवं कुरितियों के दमन करनें में अभूतपूर्व योगदान दिया, गुरू अगमदास जी अपने साथ नई नियुक्ति हुए राजमंहत नयनदास सहित 108 मंहतों को लेकर गोहत्या कर रहे अंग्रेज शासन के विरूद्व जनआंदोलन किया तथा कोर्ट में केस दायर किए गया, विरोध को दबाने की मंशा से अंग्रेजी शासन के द्वारा राजमंहत नयनदास सहित अनेको गौ भक्तों को जेल में बंद कर दिये। इसके पश्चात सतनामी समाज और उग्र करनें लगा,लम्बी पेशी चलने के बाद केस को जीत गया और आदेश लिखा लिया कि जहा जहा पर सतनामी समाज के लोगों का निवास स्थान है, वहा कोई कसाई खाना नही होगा। इस प्रस्ताव को अंग्रेज शासन नें सन् 1922 में स्वीकार किया। उसके बाद भी कलकत्ता के बुचड़खाना संचालको के द्वारा बलौदाबाजार तहसील के ग्राम करमण्डीह व ढाबाडीह में कसाईखाना खोल रखा था इन कसाईखानों में रोजाना हजारो की सख्या में गौवध किया जाता था जिसका गुरू अगमदास जी ने पुरजोर विरोध कर बुचड़खानों को हमेशा के लिए बंद करवाया। सन् 1924 को कानपुर में आयोजित कांग्रेस राष्टीय महासभा में देश के महानतम विभूतियो पंडित मदनमोहन मालवीय,लाला लाजपतराय,मोतिलाल नेहरू,डाॅ. मूजय ने गुरू अगमदास जी का सम्मान कर जनेऊ भेट कर गुरूगोसाई नाम से अलंकृत कर गुरूगोसाई अगमदास को केवल सतनामधर्म ही नही वरण सभी वर्ग के लोगो का गुरूगोसाई, समाज सुधारक व गौ माता का सच्चा सपूत कहा जाता है।
सतनामी जाति की मान्यता - गुरू अगमदास जी ने ही सतनामी समाज से संबधित सज्जनों को सतनामी नाम से सम्मान पुर्वक संबोधन,जानने,पहचान हेतु सी.पी.बरार तत्कालीन के गर्वनर को सन् 1924 पत्र लिखा था जिसे गर्वनर स्वीकार करते हुए 1926 में सतनामी जाति / सतनाम समुदाय के मान्यता पर महत्वपूर्ण आदेश जारी किया तथा कानूनी वैधता मिलने से सतनाम धर्म के मानने वाले लोगों को अपनी जाति सतनामी नाम का पहचान मिला। गुरूगोसाई अगमदास जी के द्वारा सवैधानिक रूप से कराये गये कार्यो में यह कार्य समाज को एक सुत्र में बाधने के लिए महत्वपूर्ण कड़ी साबित हुआ।
मान. सांसद की उपाधी - गुरूगोसाई अगमदास जी गुरू घासीदास बाबा जी के बतलाये हुए विचारो का अनुशरण करते हुए सत्य, दया, धर्म, करुणा,प्रेम परोपकारी गुण के साथ स्वाभीमान की भाव को बनाये रखा, छत्तीसगढ़ सहित पुरे मघ्य भारत में गुरूगोसाई की ख्यााति एक प्रखर आंदोलनकारी,समाजसुधारक के रूप में फैली। 1923 में अंग्रेज शासन के खिलाफ झण्डा सत्याग्रह आंदोलन नागपुर में पं.सुन्दरलालषर्मा, पं.रविशंकर शुक्ल व ठाकुर प्यारेलालसिह के साथ संयुक्त नेतृत्व किया। गुरू अगमदास जी सर्वसमाज को साथ लेकर जनजागृति व सामाजिक समानता की स्थापना हेतु राष्ट्रीय स्तर पर जन आंदोलन कर अपने सतनाम उद्देश्य योजना में सफलता हाषिल किया। तत्कालिन ब्रिटिश षासन गुरूगोसाई के नेतृत्व क्षमता व उत्कृष्ट प्रदर्शन तथा लोगो का अपार जनसमर्थन देख सन् 1925 में सी.पी. बरार कौशिल के अंग्रेज शासन काल में मान. सांसद की उपाधी प्रदान किया। गुरू बालकदास जी को राजा की उपाधी के बाद ब्रिटिश शासन काल में ही गुरू अगमदास जी को मान. सांसद की उपाधी मिलना सतनामधर्म के अनुयायीओं के लिए ऐतिहासिक पल रहा।
मानवकल्याण - गुरूगोसाई अगमदास जी ने अपंग,अनाथ बेसहारा, महिला और बच्चों के कल्याण हेतु निज खर्चो से अनेको आश्रम, सेवाकेन्द्रो की स्थापना कर उनकी भोजन, कपड़ा, शिक्षा, आवास के अन्य बुनियादी सुविधाओं को उपलब्ध करवाया। इसके साथ ही सन् 1924 से लेकर 1938 तक देश की स्वतंत्रता, सामंति शोषण का विरोध व औद्यौगिक श्रमिकों के हित के लिए छत्तीसगढ़ मध्यप्रांत के अलावा पुरे देश भर में चल रहे द्वितीय,तृतीय किसानों श्रमिको व मजदूरों के आंदोलनो में भाग लेकर आंदोलन को मुखर नेतृत्व दिया । उस समय काल में विविध वर्गो के आंदोलनकारियो जिनमे प्रमुख रूप से श्रमिक व सहकारिता के सुत्रधार ठाकुरसाहब, पं.सुंदरलाल शर्मा, बाबू छोटेलाल,नत्थूराम (धमतरी), नरसिंहअग्रवाल, सरयूप्रसाद अग्रवाल, वासुदेव देशमुख, पं.रत्नाकर झा (दुर्ग) सहित अनेको नेतृत्वकर्ताओ के साथ किसानो का लगातार प्रर्दशन व धरना का लाभ यह हुआ कि शासन ने ग्रामिणों के निस्तारी अधिकार को एक सीमा में स्वीकार किया और इस संबध में कानून निर्माण की प्रक्रिया आरम्भ हुई व आगे चलकर निस्तार नियम बनाए गये।
सामाजिक संविधान का विस्तार - गुरूगोसाई अगमदास जी ने बलिदानी राजागुरू बालक दास जी के द्वारा बनाये सामाजिक नियमों /सतनामधर्म के संविधान को पुनः विस्तार करते हुए मानव समाज के सर्वागीण विकास हेतु सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, नैतिक, शिक्षा,स्वालम्बी,न्याय व्यवस्था,जातिमिलावा सहित अन्य जन कल्याण कार्यो के पालन /संचालन का विस्तार किया। जिसे पीढ़ी दर पीढ़ी सतनामी समाज के द्वारा अंगीकार कर सभी क्षेत्रो में विकास की गाथा सतनामी समाज के साथ ही सर्वसमाज के लिए आज भी पथ प्रदर्शक है, जो संक्षिप्त सात सुत्र निम्न है-
1.सामाजिक नियम - परम पुज्य गुरू घासीदास बाबा जी के सतनाम धर्म के राह पर चलना,बाबा जी के जीवनचरित्र, संदेश, विचार,वाणी का जीवन में अनुशरण कर गुरू प्रधान सतानामी समाज के मुलमंत्र “मनखे मनखे एक समान व सत्य ही मानव का आभूषण है“ को चिरकाल तक अस्त्वि में बनाये रखना प्रत्येक सतनामधर्म के अनुयायियों की जिम्मेदारी है, क्योकि सतपुरष के विधाननुसार समाज में कोई वर्ण व्यवस्था नही है, गुरू बाबा घासीदास जी के प्रति आस्था तथा सतनामधर्म को तन,मन व कर्म पूर्वक जीवन में अपनाने वाले कोई भी जाति/धर्म के लोग सतनामी समाज में शामिल किया जा सकता है। लोग अपने स्वार्थ के चलते उच्च-निच छोटा-बड़ा का भेदभाव बनाये है।
2.आर्थिक - समाज के लोगो को मुल रूप से खेती के साथ बखरी,बाग,बगीचा,गौपालन व व्यपार कर स्वालम्बी बने,अनावशयक खर्च न करे, छोटी छोटी बचत करने तथा व्यपार व्यवसाय करने से आपकी अर्थ व्यवस्था में सुधार आयेगा। अर्थ व्यवस्था की मजबूती से दैनिक जीवन में सभी जरूरत की आवश्यक है वस्तु, पदार्थ, मकान,जमीन आदि के पुर्ती में आसानी होगी। समाज के संपन्न लोगों को जरूरतमंद गरीब, दीन-दुखियो,लाचार-बिमार तथा अपंगों की तन मन व धन से मदद करे जिससे परिवार व समाज विकास में आपका महत्वपूर्ण भूमिका का सम्मान सदैव बना रहेगा। क्योकि बिना अर्थ मजबुती के लोग / समाज की सेवा करने अथवा जीवन जीनें में अनेको कठिनाईयो का सामना करना पड़ता है।
3.राजनैतिक - सतनामी अपनी गुरू,समाज,और धर्म के प्रति अटूट श्रद्वा के कारण ही समय कालीन शासको के गलत नियमो के खिलाॅफत,मानव व पशुओं पर जूल्म अत्याचार तथा अपने स्वाभिमान की रक्षा के साथ अपने संवैधानिक अधिकारो को पाने के लिए राजनिति में सहभागिता लेना अति आवश्यक है। क्योकि संवैधानिक कई मानव अधिकारो की प्राप्ति हमें धर्मगुरूओं के कुशल राजनिति नेतृत्व के चलते मिला है। समाज के सार्वजनिक विकास हुए तथा अधिक से अधिक लोग राजनिति के चलतें अनेको उच्चे पदों पर निर्वाचित / मनोनित हुए। बिना किसी को नुकसान पहुुचाये समाज व देशहीत में राजनैतिक जीवन से समाज के साथ क्षेत्र व देष का चहुमुखी विकास होता है।
4.धार्मिक,सांस्कृतिक व नैतिक - भारतवर्ष धर्मो का भण्डार है, जिसमे हिन्दू सनातन, इस्लाम, सिख, बौद्व जैन, इसाई व सतनामधर्म प्रमुख है, सब धर्मो में अलग अलग संस्कृति का समावेश है,जिसमें अर्थ,धर्म,कर्म व मोक्ष का प्रमुख स्थान है। इन्ही में सतनामधर्म जो कि हिन्दू धर्म में ( संविधान के आरक्षण का अधिकार नियम के चलते ) समाहित होने के बावजूद अपना स्वतंत्र वजूद है, सतनामधर्म एक जाति या समुदाय के लिए नही वरण समस्त मानव व प्राणी जीव जगत के लिए है जिसका.धार्मिक,सांस्कृतिक व नैतिक नियम कल्याणकारी सादा जीवन उच्चविचार के है सतनामधर्म सभी धर्मो का सार है। गुरू घासीदास बाबा जी के समय से लेकर वर्तमान समयकाल के सभी गुरू वंशजों के जीवनी सदेंश,विचार व किये गये कार्यो से मिली सतनाम संस्कृति - सत्य, प्रेम, सौहाद्र, अहिंसा, समानता, दया व उदारता जैसे मानवीय गुणों से परिपूर्ण है। जिसमे सतनाम सांस्कृतिक विरासत,पवित्र जैतखाम, विशाल गुरूद्वारा, गुरूदर्शनन मेला, सुख-दुख जीवन के रिति-रिवाज, व्यक्तिगत व सामाजिक नियम, पंथी गीत, नृत्य, व्रत, गुरूपर्वो, त्योहारों व मेलों की परंपरा है जो अनवरत पूरे वर्ष चलती रहती है, गुरूगद्वीनसीन गुरूद्वारा सतनामी समाज की सामाजिक,धार्मिक व सांस्कृतिक गतिविधियों के मुल केन्द्र है जो सतनामधर्म के अनुयायियों में आस्था व विश्वाश का प्रतिक है। सतनाम के धरोहरो को समृद्व करनें की नैतिक जिम्मेदारी प्रत्येक सतनामी समाज जनों की है।
5.शिक्षा - सामंतवादी वर्ण व्यवस्था,जमीदारी प्रथा के चलते समाज के अधिकांश लोग शिक्षा से वंचित देख जगतगुरू अगमदास जी नें समाज के विकास व अधिकार की प्राप्ति के लिए शिक्षा को अत्यंत महत्वपूर्ण बतलाया तथा जगतगुरू जी तत्कालिन ब्रिटिश शासन व कांग्रेस संगठन को पत्राचार कर देश भर के संचालित शिक्षण संस्थानों में समाज के सभी बालक,बालिका व युवाओं को शिक्षा ग्रहण करने के लिए प्रयास किया एवं अंग्रेजी हुकुमत से अनुमति मिलने पर समाज जनों तक संदेश पहुचाने जन जागरूकता अभियान चलाया। शहरो में अच्छी शिक्षा के लिए सुदुर अंचल में रहने वाले गांव के सामाजिक बच्चों को आश्रमो/अपने निवास में आश्रय प्रदान कर समाज को शिक्षित किया। क्योकि शिक्षा प्राप्ति से समाज के लोगों की प्राकृतिक, भौतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक जीवन में सुधार व समृद्वि तथा योगयतानुसार निजि या शासन के विभिन्न पदो/अधिकार को प्राप्त कर सकते है। सतनामी समाज के शिक्षा नियम में मातापिता - सतनाम संस्कार, शिक्षक- अध्यापन बौधिक विकास व धर्मगुरू - जीवन का महत्व व कर्तव्य का बोध कराता है।
6.स्वालम्बन - समाज के लोगो को अपनी यहा उपलब्ध संसाधनो व वित्तीय वयवस्था के अनुसार कृषि, बाड़ी, फुलवारी, व्यवसाय, तकनिकी कार्य, लघु या कुटीर उघोग लगाने के साथ ही गौ पालन के कार्य को करने कहा गया जिससे समाज में स्वालम्बन आये व धन कमाने के साथ ही समाज के साथ अन्य लोगो को भी रोजगार मिल सकेगा। जगतगुरू अगमदासजी के बतलाये स्वरोजगार के मार्ग पर चलते हुए सतनामी समाज के लोग देखते ही देखते अपनी हिम्मत व मेहनत से सैकड़ो एकड़ कृषि जमीन के मालिक व बड़ी सख्या में मालगुजार बन गये थे । समाज जन अपना योग्यता व क्षमतानुसार शासन के योजनाओं का लाभ लेते हुए छोटी बड़ी परियोजनाओं का सफल संचालन से श्रेष्ठ कार्य कुशलता का प्रर्दषन कर धन व सम्मान अर्जित कर सकता है।
7. न्याय व्यवस्था - जगतगुरू अगमदास जी भारत के संविधान निर्माण समिति के अहम सदस्य थे। राष्ट्रीय स्तर से लेकर अतिंम छोर में बसे गाव स्तर के समाजिक न्यायायिक कार्य हेतु गुरू गदद्वीनसीन जगतगुरू अगमदास जी नें सतनामी समाज के लिए भी सामाजिक लोगो के जाने / अंजाने सभी प्रकार के निजि, पारीवारिक, सामाजिक, आर्थिक, परीस्थैतिक, अपराध, प्रसशनीय कार्य सहित अन्य समस्याओं के समाधान,दण्ड,माफी व पुरस्कार हेतु ग्राम स्तर पर समाज, पंचकमेटी, छड़ीदार व भण्डारी /अठगंवा स्तर पर समाज,पंचकमेटी,छड़ीदार भण्डारी व मंहत / जिला स्तर पर समाज पंचकमेंटी, छड़ीदार, भण्डारी,मंहत व जिलामंहत /राजस्तर पर समाज पंचकमेंटी,छड़ीदार, भण्डारी, मंहत,जिलामंहत व राजमंहत आदि की नियुक्ति किया तथा न्याय व्यवस्था को सुदृढ़ कर पिडि़त को न्याय दिलाने तथा अपराध को रोकने निति बनाई गई। ग्राम,अठगंवा,जिला,राज्य व राष्ट्रीय स्तर के बैठको या सभा पर किसी भी पक्ष या विपक्ष के समस्या/ समाधान / फैसला पर विवाद या संतुष्टी नही होने की स्थिति में जगतगुरू गुरूगद्द्वीनसीन सतनामी समाज के द्वारा दिये जाने वाले निर्णय अतिंम व सर्वमान्य होगा।
गिरौदपुरीधाम में गुरूदर्शन मेला का शुभारंभ (सन्1935) - जगतगुरू अगमदास जी सतनामधर्म व सतनामी समाज के पुज्यनीय प्रथम प्रणेता गुरू घासीदास बाबा जी के वाणी,विचार,संदेश तप,सतकार्यो व संतजीवन की यषकिर्ती को संसार में प्रकाशवान करने, गुरूदर्शन का लाभ मिले साथ ही सामाजिक,धार्मिक व संस्कृति प्रचार प्रसार हो समाज के लोगों में सतनाम संस्कार का संचार हो तथा समाज में एकता सदैव बना रहे,जगतगुरू अगमदास जी ने पावन तपोभूमि गिरौदपुरीधाम में सन् 1935 को गुरूदर्शन मेंला का शुभारंभ किया। गुरूदर्शन मेंला कार्यक्रम में सभी राजमंहतो के साथ सतनामधर्म के समाज जनों ने हजारो की सख्या शामिल होकर सतनामधर्म के ऐतिहासिक पल के साक्षी बने।
गिरौदपुरीधाम का विकास में जगतगुरू के योगदान - गिरौदपुरीधाम का मेंला का संचालन गुरूगद्द्वीनसीन, गुरू घासीदास बाबा जी के चौथा वंशज उत्तराधिकारी जगतगुरू अगमदास जी ने सन् 1935 से 1952 तक किया तत्पश्चात ममतामयी मिनीमाता व राजराजेष्वरी करूणा माता संयुक्त रूप से सन् 1960 तक गुरूदर्शन मेंला में संतो की बढ़ती हुई सख्या को देखते हुए उनके लिए समुचित व्यवस्था जैसे पानी, सड़क, बिजली, स्वास्थ्य,आवास आदि मुलभूत सुविधाओं को लेकर 1976 में गुरू व राजमहंतो एवं समाज के द्वारा मेंला में शासन की सहयोग की आवश्यकता महसूस की गई। तत्कालीन म.प्र.शासन के द्वारा समाज के आग्रह को स्वीकार करने के पश्चात राज्यपाल के आदेशानुसार सन् 1976 में ही गुरू घासीदास मेंला व्यवस्था समिति का गठन कर लिया गया। समिति में राजमंहतो व सर्ववर्गीय सदस्यों की नियुक्ति की गई।समिति का सयोंजक कलेक्टर, नामिनि स्थानीय अधिकारी को बनाया गया। आज वर्तमान में गुरू घासीदास बाबा जी के चौथा वंशज गुरूगोसाई अगमदास जी के सुपुत्र जगतगुरू विजयकुमार जी मेंला समिति के अध्यक्ष है। जिनके मार्गदर्शन में गिरौदपुरीधाम का मेंला निरंतर व्यवस्थित व विकास की ओर आगे बढ़ते अग्रसर है।
अगमधाम खडुवापुरी का निर्माण - जगतगुरू अगमदास जी सतनामी समाज /सतनामधर्म के विकास हेतु चारों दिशाओं में राऊटी दौरा करने से सतनाम धर्म पर जनमानस का विश्वाश को जीतने में अधिक सफलता पायी और अन्य समुदाय के लोगो का झुकाव सतनामधर्म में बिना किसी भेदभाव के साथ हुआ। जगतगुरू अगमदास जी ने सन् 1925 / 1937 में खडुवा ग्राम को खरीदा और क्वार दषमी के रोज संतसमाज की मौजूदगी में गुरूदर्शन मेंला लगाकर सतनाम धर्म के विधि -विधान अनुसार पवित्र जैतखाम गड़ाकर गुरूगद्वी स्थल का निर्माण किया गया। तब से लेकर आज भी प्रतिवर्ष विजयदषमी के दिन गुरूगद्वी स्थल अगमधाम खडुवापुरी में तीन द्विवसीय गुरूदर्शन झाकी, गुुरूगद्वीस्थल, समाधीस्थल, गुरूद्वारा के साथ में जगतगुरू विजयकुमार जी, जगतगुरू रूद्रकुमार जी, अपने लाखो संतो को दर्शन व आशीष प्रदान करते है। और अपार जनसमूह को गुरू उपदेश सतनाम वाणी से जगत के संतों को जीवन व कर्तव्य पालन का बोध कराते है।
जगतगुरू की उपाधी सन् 1935 - हिन्दू समाज के माथे पर लगा अस्पृष्यता का कलंख को धोने व एकता को बचाने महात्मागांधी के द्वारा पूरे भारत भर में लगातार नौ महिने का दौरा करने के बाद भी धर्मातरण के सर्मथन व विरोध करने वालों का दो गुट बन गया एक गुट दलित महार समुदाय के डाॅ.बी.आर.अम्बेडकर येवला अमहदाबाद के सम्मेलन अक्टूबर 1935 में करीब 7 हजार दलितमहार को साथ लेकर बौद्वधर्म में धर्मातरण कर लिया। जबकि दुसरा गुट सतनामी समाज सतनाम धर्म के जगतगुरू अगमदास जी सतनाम धर्म के अधीन संवैधानिक,सामाजिक,आर्थिक, एवं राजनैतिक क्षेत्रो में सतनाम धर्म व समाज का वर्ग आरक्षण लाभ, विकास हेतु हिन्दूधर्म में यथावत रहे,धर्मांतरण नही किये जगतगुरू के द्वारा लिए गये फैसले का सतनाम धर्म के अलावा अन्य धर्म के लाखो लोगो द्वारा समर्थन/स्वीकारिता की चलते हिन्दूधर्म के लोगों का धर्मान्तरण / हिन्दूधर्म का विभाजन रूका। उक्त कार्य के लिए हिन्दू महासभा द्वारा महाराष्ट्र में 18 दिसंबर 1935 गुरूगोसाई अगमदास जी को हिन्दूधर्म के सर्वोच्च पदवी जगतगुरू की उपाधी से नवाजा गया।
संविधान निर्माण समिति के सदस्य 1947- जगतगुरू अगमदास जी के राष्टीय कृषक आंदोलन,नशामुक्ति,मानवउत्थान,
स्वदेशी और स्वतंत्रता के आंदोलन में सहभागिता तथा समाज में व्यापत रूढिवाद, अंधविस्वास, अस्पृष्यता, कुरीतियां, गौवध बंद कराना, मानव समाज का विकास व भेदभाव को दुर करने में किया। जगतगुरू अगमदास जी को जुलाई 1947 को कांग्रेस के सर्मथन से भारत के संविधान निर्माण समिति में शामिल किया गया। जगतगुरू नें समाज के सभी मौलिक व संवैधानिक अधिकार पर के नियम कानून बनवाया जिससे सभी समाज के लोगो को विना किसी भेदभाव के शिक्षा, नौकरी,स्वरोजगार व न्याय मिले तथा सम्मान के साथ जीवनयापन कर सके।
स्वतंत्र भारत के प्रथम चुनाव 1951 में निर्वाचित सांसद - जगतगुरू अगमदास जी स्वतंत्र भारत के प्रथम आम लोक सभा चुनाव में मध्यप्रदेश राज्य के बिलासपुर दुर्ग रायपुर सामान्य सीट से चुनाव लड़कर लोकसभा क्रमांक 3 से कांग्रेस पार्टी से निर्वाचित होकर 1951 में सांसद बने। शासन से समन्वय बनाकर समाज के लोगो का निजि व सार्वजनिक जीवन को मुल विकास की धारा में जोड़ने अनेको लोक कल्याणकारी योजनाओं को प्रस्तावित/समर्थन कर नियम बनवाया।
जगतगुरू अगमदास जी सत में विलिन होना - गुरू गोसाई अपना सम्पूर्ण जीवन समाज सेवा व मानव उत्थान में लगा दिया। जगतगुरू जीवन भर सतनामी समाज के लोगो को सामाजिक, राजनैतिक व शासन-प्रशासन से सभी दर्जो पर अधिकार को पाने व दिलाने के लिए लगे रहे,सन् 1952 में जगतगुरू गोसाई अगमदास जी सत में विलिन हो गया। जगतगुरू की सत में विलिन होने की खबर पाते ही पूरा मानव समाज शोकमय हो गया। जगतगुरू अपने पीछे सत्यांषु युवराज जगतगुरू विजयकुमार (पुत्र) ममतामयी मिनिमाता व राजराजेशवरी करूणामाता (दोनो पत्नि) के साथ विशाल सतनामी समाज के अनुयायियों को छोड़ चला गया। जगतगुरू अगमदास जी द्वारा राज्य की उन्नति,जगतकल्याण,सामाजिक आंदोलनो के नेतृत्वकर्ता और सतनाम धर्म को अजर अमर बनाने तथा राष्टीय कृषक आंदोलन, नशामुक्ति, दलित उत्थान, स्वदेशी और स्वतंत्रता के आंदोलन में सहभागिता तथा समाज में व्यापत रूढिवाद, अंधविस्वास, अस्पृष्यता, कुरीतियां, गौवध बंद कराना व भेदभाव को दुर करने में किया गये प्रयास एवं लाखो लोगो द्वारा आपके नेतृत्व की स्वीकारिता के चलते के चारो दिशा में आपका कार्य प्रयास अनंतकाल तक याद किये जायेगे।
सत-सत नमन💐साहेब गुरु सतनाम🙏
स्रोत www.gagatgurusatnamdharm.com
सनत सतनामी,सतनामी एवं सतनाम धर्म विकास परिषद।
[3/18, 21:12] Dr.anilbhatpahari: ।।भोजन भंडारा ही नही ग्यान भंडारा भी हो।।
भोजन के बिन भजन नही और भजन के बिन मनन नही । अर्थात् मनन करने के पूर्व भोजन अतिआवश्यक है।संसार में मानव की यात्रा भोजन के नाम पर ही हुआ है।समस्त प्राणी जगत भोजन के लिए ही सक्रिय है।तत्पर व क्रियाशील है।यदि इनकी आवश्यकता न हो तो यह दुनिया जैसा है संभवत: ऐसा न होता।
सभी अपनी भूख मिटाने में लगे है। यह भूख आमतौर पर दो तरह के है ।
पहला पेट की भूख
दूसरा मन मतिष्क की भूख
पेट की भूख - खाद्य समाग्री से मिटाई जाती है ।जबकि मन और मतिष्क की भूख ललित कलाओं और प्रेरक व रचनात्मक विचारों से मिटाई जा सकती है।
जिस व्यक्ति या समाज के पेट का भूख मिट गया हो या उनकी अपेछाकृत कम चिन्ता हो वह समाज या व्यक्ति मन मतिष्क का भूख मिटाने में संलग्न होकर सभ्यता के सोपान तय करते है। उनकी मन मतिष्क से ऊपजे चीजे ही उसे उन्नत व सुसभ्य करते है।
गुरुघासीदास जैसे समर्थ गुरु ने अपने अनुयाईयों की इसी मन मस्तिष्क की भूख मिटाने हेतु बिन आगी पानी से सतनाम दर्शन और विचार रुपी स्वादिष्ट भोजन पका कर अप्रतिम कार्य किया ।उनकी प्रशस्ति में यह पंथी गीत विगत २०० वर्षों से दिग् दिगंत में परिव्याप्त है-
तय तो रांधि डारे भोजन हो आगी के बिना ।
आगि के बिना हो साहेब पानी के बिना ....
चित कर चुल्हा हिय कर हड़िया
भाव के भात साहेब दया कर दाल
प्रेम भाव से परोसत हे हमर गुरु रोइय्या हो ... देखो अजब रसोइय्या हो गुरु ....
आजकल हमने मन मतिष्क की भूख मिटाने गुरु उपदेश और उनके सद विचारो और सतनाम दर्शन रुपी अप्रतिम सामाग्री के जगह पापी पेट के भूख मिटाने दाल चांवल सब्जी जुगाड़ने और उन्हे स्वादिष्ट कर खाने पीने में उन्मत्त होते जा रहे है।
भोजन की मजा में लगा समाज भजन चिन्तन मनन से कोसो दूर छिटकते जा रहे है।और जिव्हा के स्वाद के लिए रात दिन लगा हुआ है। यह इन्द्रिय आग्रह छणिक सुख है। इन्द्रिय निग्रह सदा के लिए सुख नही ।
सतनाम धर्म सुख शांति और आत्मोत्सर्ग का महा धर्म और उनके प्रदाता सुधढ़ पंथ है न कि छद्म छणिक सुख के लिए यह गढ़ा गया है। हां गुरु उपदेश जरुर है कि "तय बारा महिना के खर्चा जोड़ ले तब भजन कर न इये झन कर ।"
अब सवाल यह है कि क्या हम बारहों माह इसी में उलझे नही रहते ? ३६५ दिन खाने पीने में नही लगे रहते ? तब विचार चिन्तन मनन और हक अधिकार
।।भोजन भंडारा ही नही ग्यान भंडारा भी हो।।
भोजन के बिन भजन नही और भजन के बिन मनन नही । अर्थात् मनन करने के पूर्व भोजन अतिआवश्यक है।संसार में मानव की यात्रा भोजन के नाम पर ही हुआ है।समस्त प्राणी जगत भोजन के लिए ही सक्रिय है।तत्पर व क्रियाशील है।यदि इनकी आवश्यकता न हो तो यह दुनिया जैसा है संभवत: ऐसा न होता।
सभी अपनी भूख मिटाने में लगे है। यह भूख आमतौर पर दो तरह के है ।
पहला पेट की भूख
दूसरा मन मतिष्क की भूख
पेट की भूख - खाद्य समाग्री से मिटाई जाती है ।जबकि मन और मतिष्क की भूख ललित कलाओं और प्रेरक व रचनात्मक विचारों से मिटाई जा सकती है।
जिस व्यक्ति या समाज के पेट का भूख मिट गया हो या उनकी अपेछाकृत कम चिन्ता हो वह समाज या व्यक्ति मन मतिष्क का भूख मिटाने में संलग्न होकर सभ्यता के सोपान तय करते है। उनकी मन मतिष्क से ऊपजे चीजे ही उसे उन्नत व सुसभ्य करते है।
गुरुघासीदास जैसे समर्थ गुरु ने अपने अनुयाईयों की इसी मन मस्तिष्क की भूख मिटाने हेतु बिन आगी पानी से सतनाम दर्शन और विचार रुपी स्वादिष्ट भोजन पका कर अप्रतिम कार्य किया ।उनकी प्रशस्ति में यह पंथी गीत विगत २०० वर्षों से दिग् दिगंत में परिव्याप्त है-
तय तो रांधि डारे भोजन हो आगी के बिना ।
आगि के बिना हो साहेब पानी के बिना ....
चित कर चुल्हा हिय कर हड़िया
भाव के भात साहेब दया कर दाल
प्रेम भाव से परोसत हे हमर गुरु रोइय्या हो ... देखो अजब रसोइय्या हो गुरु ....
आजकल हमने मन मतिष्क की भूख मिटाने गुरु उपदेश और उनके सद विचारो और सतनाम दर्शन रुपी अप्रतिम सामाग्री के जगह पापी पेट के भूख मिटाने दाल चांवल सब्जी जुगाड़ने और उन्हे स्वादिष्ट कर खाने पीने में उन्मत्त होते जा रहे है।
भोजन की मजा में लगा समाज भजन चिन्तन मनन से कोसो दूर छिटकते जा रहे है।और जिव्हा के स्वाद के लिए रात दिन लगा हुआ है। यह इन्द्रिय आग्रह छणिक सुख है। इन्द्रिय निग्रह सदा के लिए सुख नही ।
सतनाम धर्म सुख शांति और आत्मोत्सर्ग का महा धर्म और उनके प्रदाता सुधढ़ पंथ है न कि छद्म छणिक सुख के लिए यह गढ़ा गया है। हां गुरु उपदेश जरुर है कि "तय बारा महिना के खर्चा जोड़ ले तब भजन कर न इये झन कर ।"
अब सवाल यह है कि क्या हम बारहों माह इसी में उलझे नही रहते ? ३६५ दिन खाने पीने में नही लगे रहते ? तब विचार चिन्तन मनन और हक अधिकार के लिए कब लामबंद होन्गे? गिरौदपुरी मेला में कोई सतनामी नि:शुल्क खाने और महज धुमने फिरने नही जाता। अपितु गुरुबाबा के व्यक्तित्व कृत्तित्व व उनके संग साथ बिताए समय स्थल पर जाकर उनके सदृश्य होने और प्रेरणा लेने जाते है। वहां उनकी विचारों को ग्यान और दर्शन को जानने समझने और प्रकृति के सानिध्य मे रहकर कुछ अलौकिक भाव आत्मबल जैसे चीजे अर्जित करने जाते है।तो प्रबंधको को चाहिए कि ऐसी चीजों को उपलब्ध करावे।
न कि लाखो चंदा लेकर एकत्र कर केवल दाल भात खिला कर अपनी कर्तव्य का इतिश्री कर ले?
श्रद्घालुओं को भी चाहिए कि वे भी अपनी दोनो तरह की भूख का शमन कर अपना नैतिक कल्याण कर सौभाग्यवान बने।
आमतौर पर देखा जाय तो तपोभूमि गिरौदपुरी सतधाम मेला परिसर सहित आसपास के कस्बो चौक -चौराहों में अनेक सामाजिक संस्था व्यक्ति खरोरा पलारी संडी वटगन बलौदाबाजार लवन कसडोल सहित चारो तरफ के पहुंच मार्गो मे पड़ने वाले अनेक जगहों पर विगत अनेक वर्षों से संचालित है।यह स्वस्फूर्त है जो सतनामियों की मूल प्रवृत्ति कि भूखे को भोजन प्यासे को पानी देने को अभिव्यक्त करते है। विगत कुछ वर्षों से छ.ग. शासन द्वारा मेले में नि:शुल्क दाल -भात सेंटर संचालित हो रहे है। बावजूद लाखों परिवार आदतन स्वपाकी होने के कारण जोंक नदी और वनप्रांतर मे पारिवारिक सहभोज एंव सात्विक आहार- विहार करते तीन दिनों तक साधनात्मक जीवन व्यतित करते आ रहें हैं।
परन्तु यह विडंबना है कि विशाल काय समुदाय के मानसिक छुधा के शमन और उन्हें सही मार्गदर्शन हेतु कोई व्यवस्थित आयोजन शिविर आदि की कोई प्रभावी आयोजन व उनके लिए कोई व्यवस्था नही हो पाते।और न ही छत्तीसगढ के संस्कृति विभाग द्वारा सतनाम सञस्कृति के संवर्धन और प्रदर्शन आदि करने के लिए कोई सार्थक पहल नही करते न ऐसा सोच या विचार कही हो पाते।
दाल -भात सेंटर और अनगिनत नि: शुल्क भोग भंडारा आदि देख ऐसा लगता है कि समाज का धन केवल जबरजस्ती लोगो के भूख मिटाने में अपव्यय हो रहे है।जबकि स्वाभिमानी समाज व श्रद्धालू दर्शनार्थी ऐसा कोई अपेछा भी नही रखते कि कोई हमे नि: शुल्क भोजन करावे!
ऐसे सेवादारों समितियों और संस्थाओं से अपील है कि आगामी वर्ष या इसी वर्ष से ही मेला परिसर मे होने वाले विभिन्न आयोजन में विविधता लाए ।कही सत्संग प्रवचन हो कही पर सतनाम सहज योग साधना शिविर लगे।समाधिस्थ संतों के इर्द गिर्द आध्यात्मिक आयोजन करे। अनेक साहित्यिक संस्थाए काव्यपाठ कथावाचन व संगीतमय प्रवचन करे । प्रगतिशील छत्तीसगढ सतनामी समाज विगत कुछ वर्षों ऐसा आयोजन करने की स्थिति में काफी संधर्ष के बाद आज सछम हो पाई है।और हमारे सैकड़ो लेखक कवि कलाकारों को उनकी अपनी प्रतिभा प्रदर्शन हेतु मंच उपलब्ध करा सके है। इसी तरह कुछ वर्षो से चिकित्सीय शिविर हमारे चिकित्सक वैद्य गण करने लगे है ।
सामान्य ग्यान प्रतियोगी परीछा से संदर्भित पुस्तक विक्रय केन्द्र और आडियो विडियो कैसेट सीडी पेन ड्राइव चिप्स आदि का स्टाल लगाए ।और उन्हे विशेष छूट प्रदान कर खरीदने प्रेरित करे। या कुछ सतनाम साहित्य आरती पंथी संग्रह या अमृतवाणी उपदेश युक्त कलेण्डर आदि नि: शुल्क उपलब्ध करावे ताकि सतनाम धर्म संस्कृति का उत्तरोतर संवर्धन और विकास हो।इस तरह के रचनात्मक कार्य करने वाली समिति को मुक्त हस्त से अनुदान व सहयोग दे ।न कि दाल भात सब्जियां खिला कर या समिति के सदस्य और घर -परिवार खा पीकर एकत्र किए संसाधन को नष्ट करें।
सब तरह के आयोजन युक्तियुक्त हो और उनका संचालन व्यवस्थित हो ताकि सब तरह से सबकों लाभ मिल सकें।
"भोजन भट्ट के जगह ग्यान भट्ट होना बेहद जरुरी हैं।"
डा. अनिल भट्ट
।। सतनाम ।।
डा अनिल भतपहरी
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।।भोजन भंडारा ही नही ग्यान भंडारा भी हो।।
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सभी अपनी भूख मिटाने में लगे है। यह भूख आमतौर पर दो तरह के है ।
पहला पेट की भूख
दूसरा मन मतिष्क की भूख
पेट की भूख - खाद्य समाग्री से मिटाई जाती है ।जबकि मन और मतिष्क की भूख ललित कलाओं और प्रेरक व रचनात्मक विचारों से मिटाई जा सकती है।
जिस व्यक्ति या समाज के पेट का भूख मिट गया हो या उनकी अपेछाकृत कम चिन्ता हो वह समाज या व्यक्ति मन मतिष्क का भूख मिटाने में संलग्न होकर सभ्यता के सोपान तय करते है। उनकी मन मतिष्क से ऊपजे चीजे ही उसे उन्नत व सुसभ्य करते है।
गुरुघासीदास जैसे समर्थ गुरु ने अपने अनुयाईयों की इसी मन मस्तिष्क की भूख मिटाने हेतु बिन आगी पानी से सतनाम दर्शन और विचार रुपी स्वादिष्ट भोजन पका कर अप्रतिम कार्य किया ।उनकी प्रशस्ति में यह पंथी गीत विगत २०० वर्षों से दिग् दिगंत में परिव्याप्त है-
तय तो रांधि डारे भोजन हो आगी के बिना ।
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प्रेम भाव से परोसत हे हमर गुरु रोइय्या हो ... देखो अजब रसोइय्या हो गुरु ....
आजकल हमने मन मतिष्क की भूख मिटाने गुरु उपदेश और उनके सद विचारो और सतनाम दर्शन रुपी अप्रतिम सामाग्री के जगह पापी पेट के भूख मिटाने दाल चांवल सब्जी जुगाड़ने और उन्हे स्वादिष्ट कर खाने पीने में उन्मत्त होते जा रहे है।
भोजन की मजा में लगा समाज भजन चिन्तन मनन से कोसो दूर छिटकते जा रहे है।और जिव्हा के स्वाद के लिए रात दिन लगा हुआ है। यह इन्द्रिय आग्रह छणिक सुख है। इन्द्रिय निग्रह सदा के लिए सुख नही ।
सतनाम धर्म सुख शांति और आत्मोत्सर्ग का महा धर्म और उनके प्रदाता सुधढ़ पंथ है न कि छद्म छणिक सुख के लिए यह गढ़ा गया है। हां गुरु उपदेश जरुर है कि "तय बारा महिना के खर्चा जोड़ ले तब भजन कर न इये झन कर ।"
अब सवाल यह है कि क्या हम बारहों माह इसी में उलझे नही रहते ? ३६५ दिन खाने पीने में नही लगे रहते ? तब विचार चिन्तन मनन और हक अधिकार के लिए कब लामबंद होन्गे? गिरौदपुरी मेला में कोई सतनामी नि:शुल्क खाने और महज धुमने फिरने नही जाता। अपितु गुरुबाबा के व्यक्तित्व कृत्तित्व व उनके संग साथ बिताए समय स्थल पर जाकर उनके सदृश्य होने और प्रेरणा लेने जाते है। वहां उनकी विचारों को ग्यान और दर्शन को जानने समझने और प्रकृति के सानिध्य मे रहकर कुछ अलौकिक भाव आत्मबल जैसे चीजे अर्जित करने जाते है।तो प्रबंधको को चाहिए कि ऐसी चीजों को उपलब्ध करावे।
न कि लाखो चंदा लेकर एकत्र कर केवल दाल भात खिला कर अपनी कर्तव्य का इतिश्री कर ले?
श्रद्घालुओं को भी चाहिए कि वे भी अपनी दोनो तरह की भूख का शमन कर अपना नैतिक कल्याण कर सौभाग्यवान बने।
आमतौर पर देखा जाय तो तपोभूमि गिरौदपुरी सतधाम मेला परिसर सहित आसपास के कस्बो चौक -चौराहों में अनेक सामाजिक संस्था व्यक्ति खरोरा पलारी संडी वटगन बलौदाबाजार लवन कसडोल सहित चारो तरफ के पहुंच मार्गो मे पड़ने वाले अनेक जगहों पर विगत अनेक वर्षों से संचालित है।यह स्वस्फूर्त है जो सतनामियों की मूल प्रवृत्ति कि भूखे को भोजन प्यासे को पानी देने को अभिव्यक्त करते है। विगत कुछ वर्षों से छ.ग. शासन द्वारा मेले में नि:शुल्क दाल -भात सेंटर संचालित हो रहे है। बावजूद लाखों परिवार आदतन स्वपाकी होने के कारण जोंक नदी और वनप्रांतर मे पारिवारिक सहभोज एंव सात्विक आहार- विहार करते तीन दिनों तक साधनात्मक जीवन व्यतित करते आ रहें हैं।
परन्तु यह विडंबना है कि विशाल काय समुदाय के मानसिक छुधा के शमन और उन्हें सही मार्गदर्शन हेतु कोई व्यवस्थित आयोजन शिविर आदि की कोई प्रभावी आयोजन व उनके लिए कोई व्यवस्था नही हो पाते।और न ही छत्तीसगढ के संस्कृति विभाग द्वारा सतनाम सञस्कृति के संवर्धन और प्रदर्शन आदि करने के लिए कोई सार्थक पहल नही करते न ऐसा सोच या विचार कही हो पाते।
दाल -भात सेंटर और अनगिनत नि: शुल्क भोग भंडारा आदि देख ऐसा लगता है कि समाज का धन केवल जबरजस्ती लोगो के भूख मिटाने में अपव्यय हो रहे है।जबकि स्वाभिमानी समाज व श्रद्धालू दर्शनार्थी ऐसा कोई अपेछा भी नही रखते कि कोई हमे नि: शुल्क भोजन करावे!
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सामान्य ग्यान प्रतियोगी परीछा से संदर्भित पुस्तक विक्रय केन्द्र और आडियो विडियो कैसेट सीडी पेन ड्राइव चिप्स आदि का स्टाल लगाए ।और उन्हे विशेष छूट प्रदान कर खरीदने प्रेरित करे। या कुछ सतनाम साहित्य आरती पंथी संग्रह या अमृतवाणी उपदेश युक्त कलेण्डर आदि नि: शुल्क उपलब्ध करावे ताकि सतनाम धर्म संस्कृति का उत्तरोतर संवर्धन और विकास हो।इस तरह के रचनात्मक कार्य करने वाली समिति को मुक्त हस्त से अनुदान व सहयोग दे ।न कि दाल भात सब्जियां खिला कर या समिति के सदस्य और घर -परिवार खा पीकर एकत्र किए संसाधन को नष्ट करें।
सब तरह के आयोजन युक्तियुक्त हो और उनका संचालन व्यवस्थित हो ताकि सब तरह से सबकों लाभ मिल सकें।
"भोजन भट्ट के जगह ग्यान भट्ट होना बेहद जरुरी हैं।"
डा. अनिल भट्ट
।। सतनाम ।।
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श्रद्घालुओं को भी चाहिए कि वे भी अपनी दोनो तरह की भूख का शमन कर अपना नैतिक कल्याण कर सौभाग्यवान बने।
आमतौर पर देखा जाय तो तपोभूमि गिरौदपुरी सतधाम मेला परिसर सहित आसपास के कस्बो चौक -चौराहों में अनेक सामाजिक संस्था व्यक्ति खरोरा पलारी संडी वटगन बलौदाबाजार लवन कसडोल सहित चारो तरफ के पहुंच मार्गो मे पड़ने वाले अनेक जगहों पर विगत अनेक वर्षों से संचालित है।यह स्वस्फूर्त है जो सतनामियों की मूल प्रवृत्ति कि भूखे को भोजन प्यासे को पानी देने को अभिव्यक्त करते है। विगत कुछ वर्षों से छ.ग. शासन द्वारा मेले में नि:शुल्क दाल -भात सेंटर संचालित हो रहे है। बावजूद लाखों परिवार आदतन स्वपाकी होने के कारण जोंक नदी और वनप्रांतर मे पारिवारिक सहभोज एंव सात्विक आहार- विहार करते तीन दिनों तक साधनात्मक जीवन व्यतित करते आ रहें हैं।
परन्तु यह विडंबना है कि विशाल काय समुदाय के मानसिक छुधा के शमन और उन्हें सही मार्गदर्शन हेतु कोई व्यवस्थित आयोजन शिविर आदि की कोई प्रभावी आयोजन व उनके लिए कोई व्यवस्था नही हो पाते।और न ही छत्तीसगढ के संस्कृति विभाग द्वारा सतनाम सञस्कृति के संवर्धन और प्रदर्शन आदि करने के लिए कोई सार्थक पहल नही करते न ऐसा सोच या विचार कही हो पाते।
दाल -भात सेंटर और अनगिनत नि: शुल्क भोग भंडारा आदि देख ऐसा लगता है कि समाज का धन केवल जबरजस्ती लोगो के भूख मिटाने में अपव्यय हो रहे है।जबकि स्वाभिमानी समाज व श्रद्धालू दर्शनार्थी ऐसा कोई अपेछा भी नही रखते कि कोई हमे नि: शुल्क भोजन करावे!
ऐसे सेवादारों समितियों और संस्थाओं से अपील है कि आगामी वर्ष या इसी वर्ष से ही मेला परिसर मे होने वाले विभिन्न आयोजन में विविधता लाए ।कही सत्संग प्रवचन हो कही पर सतनाम सहज योग साधना शिविर लगे।समाधिस्थ संतों के इर्द गिर्द आध्यात्मिक आयोजन करे। अनेक साहित्यिक संस्थाए काव्यपाठ कथावाचन व संगीतमय प्रवचन करे । प्रगतिशील छत्तीसगढ सतनामी समाज विगत कुछ वर्षों ऐसा आयोजन करने की स्थिति में काफी संधर्ष के बाद आज सछम हो पाई है।और हमारे सैकड़ो लेखक कवि कलाकारों को उनकी अपनी प्रतिभा प्रदर्शन हेतु मंच उपलब्ध करा सके है। इसी तरह कुछ वर्षो से चिकित्सीय शिविर हमारे चिकित्सक वैद्य गण करने लगे है ।
सामान्य ग्यान प्रतियोगी परीछा से संदर्भित पुस्तक विक्रय केन्द्र और आडियो विडियो कैसेट सीडी पेन ड्राइव चिप्स आदि का स्टाल लगाए ।और उन्हे विशेष छूट प्रदान कर खरीदने प्रेरित करे। या कुछ सतनाम साहित्य आरती पंथी संग्रह या अमृतवाणी उपदेश युक्त कलेण्डर आदि नि: शुल्क उपलब्ध करावे ताकि सतनाम धर्म संस्कृति का उत्तरोतर संवर्धन और विकास हो।इस तरह के रचनात्मक कार्य करने वाली समिति को मुक्त हस्त से अनुदान व सहयोग दे ।न कि दाल भात सब्जियां खिला कर या समिति के सदस्य और घर -परिवार खा पीकर एकत्र किए संसाधन को नष्ट करें।
सब तरह के आयोजन युक्तियुक्त हो और उनका संचालन व्यवस्थित हो ताकि सब तरह से सबकों लाभ मिल सकें।
"भोजन भट्ट के जगह ग्यान भट्ट होना बेहद जरुरी हैं।"
डा. अनिल भट्ट
।। सतनाम ।।
डा अनिल भतपहरी
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[3/18, 21:14] Dr.anilbhatpahari: "तपोभूमि गिरौदपुरी सतधाम "
सतनाम धर्म के प्रवर्तक और महान मानवतावादी संत गुरु घासीदास बाबा का जन्मभूमि एंव तपस्थली है।गिरौदपुरी सतधाम का राष्ट्रीय व अन्तराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति है।१९३५ के गिरौदपुरी मेले के पाम्पलेट में उनके राष्ट्रीय स्तर पर प्रसार की उल्लेख मिलते है। जहाँ देश भर से लाखों श्रद्धालुओ के आगमन और उनके आने जाने ठहरने की सूचना है।
नैसर्गिक सुषमा से अच्छादित यह पावन स्थल अत्यन्त रमणीय व मनमोहक है।वन्य जीव से आबाद बार अभ्यारण्य और कलकल बहती जोगनदी व ट्रान्स महानदी के कछार पर स्थित गिरौदपुरी का सौन्दर्य हर किसी के मन को भाते है।
बन तुलसा( बडी तुलसी )के झाड़ियों से महकते पहाड़ी परिछेत्र में सुप्रसिद्ध औरा-धौरा वृछ के तले ध्यानरत गुरुघासीदास तेन्दू वृछ के समीप धर्मोपदेश व मनन चिन्तन और योग तपस्या मे निरत रहते थे ।समीप पहाड़ी के नीचे चरण कुण्ड और वहाँ से ५०० मीटर दूर अमृतकुण्ड का जल गंगाजल सदृश्य पवित्र है। यह दोनो प्राकृतिक कुण्ड सदानीरा है जहाँ स्वच्छ जलराशि बारहोमास पहाड़ी की तलहटी मे विद्यमान आस्था कौतुहल और अनुसंधान का विषय है।इस कुण्ड के जल का धार्मिक पूजापाठ मे गंगाजल जैसा ही अनुप्रयोग जनमानस करते रहे है।यहा तक कृषि कार्य और खेतों मे इनके छिडकाव हेतु दूर-दूर से लोग गैलनो, कनस्तरो और अन्य पात्रों मे भरकर ले जाते है।
इस जगह में आते ही सुकून शांति और मन हृदय मे पवित्रता का आभास श्रद्धालुओं को होते है।इसलिए स्वस्फूर्त बारहो मास वे उक्त आकर्षण मे आबद्ध हो सतधाम आते है।जहां पर अपनत्व और एक तरह से स्वच्छंदता का स्वानुभुति होते है।यहा पर पण्डे पुजारी कोई दान दछिणा रोक टोक नही है बल्कि लोग स्वत: अनुशासित होकर राग द्वेष से मुक्त परम आनंद मे निमग्न नजर आते है।मंगल भजन सत्संग चंदन तुलसी की महक शुद्ध प्राकृतिक हवाएँ प्रदूषण मुक्त नैसर्गिक जगह सचमूच सतलोक सदृश वातावरण इस पवित्र धाम का है। जहाँ प्रमुख दर्शनीय स्थल निम्नवत् है-
१ गिरौदपुरी ग्राम
२ झलहा मंडल का दोतल्ला घर
३ उसी घर से लगा गुरु बाबा का जन्म स्थल
४ गोपाल मरार के घर बाडी और कुंआ
५ गुरु द्वारा हल चलाए बाहरा खेत
६ बाहरा तालाब
७ नागर महिमा स्थल
८ बुधारु सर्पदंश उपचार स्थल
९ बछिया जीवन दान स्थल
१० सफुरामाता जीवन दान स्थल
११ शेर पंजा मंदिर
१२ औरा धौरा तेंदूपेड़/ मुख्य प्राचीन मंदिर
१३ चरण कुंड
१४ अमृतकुंड
१५ छाता पहाड
१७ पंचकुंडी
१८ सुन्दरवन
१९ जोक नदी
२० हाथी पथरा
२१ विशाल जैतखाम
२२ सतनाम धर्मशाला गिरौदपुरी मड़वा सरहद
इन सभी के सहित१५ कि मी परिछेत्र और फा शु पंचमी से सप्तमी तक १०-१५ लाख जनमानस के स्वनियंत्रित चहल- पहल ,भजन ,सत्संग- प्रवचन, चौका- पंथी, संत -महंत गुरु वंशज प्रतिभाशाली लेखक कवि कलाकार और सेवादार दर्शनीय है।निशुल्क चिकित्सीय शिविर जिसमे पारंपरिक वैद्यकीय व आधुनिक चिकित्सा सम्मलित है का शिविर स्वस्फूर्त हमारे सामाजिक चिकित्सक बंधु सेवार्थ व धर्मार्थ लगाते है। मुख्य मंच से अनवरत पंथी मंगल सतनाम संकीर्तन सत्संग प्रवचन चलते रहते है।
इस बार सतनाम सहज योग साधना शिविर और प्रगतिशील छग सतनामी समाज के सतनाम साहित्य प्रकोष्ठ के सौजन्य से अखिल भारतीय कवि सम्मेलन का आयोजन मेला
को और भी महिमामय व महत्वपूर्ण करेन्गे।
श्रद्धा-भक्ति और आस्था के अनगिनत स्थलो मे तपोभूमि गिरौदपुरी सतधाम अप्रतिम व अद्वितीय है।इनका दर्शन मात्र से आत्मकल्याण व आत्मिक सुखानूभुति होते है।
।।जय सतनाम।।
- डां अनिल भतपहरी
सचिव
सतनाम साहित्य प्रकोष्ठ
प्रगतिशील छत्तीसगढ़ सतनामी समाज
[3/18, 21:15] Dr.anilbhatpahari: *तपोभूमि दोसी पहाड़ नारनौल सतनाम धाम"
वीरभान बाबा की यह तपस्थली
सतनाम की अजस्र धारा बह चली
तृप्त हुई सदियों से तृषित अरावली
सुमर सतअवगत निर्वाण की बात चली
पावन पालों की लहरों से होते मन तरंगित
सत्धाम की दर्शन पाकर होते जन प्रफूल्लित
सदा सतपंथ मे चलने होते जन-मन संकल्पित
।।सत श्री सतनाम।।
-डा. अनिल भतपहरी
[3/18, 21:17] Dr.anilbhatpahari: करमसेनी नामक यह देवी श्रमिक समाज की अराध्य देवी हैं।
लोक गीतों में सिया पहाड़ में अनमन जनमन की जिक्र आते हैं।
करमसेनी को कलान्तर में करमा कहे गये। यह आदिवासियों में भी मिलते हैं। करम डार खोंस कर करमा तिहार मनाए जाते हैं यह सरगुजा परिक्षेत्र में द्रष्टव्य हैं।
इसी करमसेनी देवी के संग सतनाम संस्कृति के आराध्य देवी सतवन्तीन मितानीन बद कर विंध्याचल से लेकर दक्षिणापथ तक यानि की म प झारखंड उड़ीसा छत्तीसगढ़ तक एक विशिष्ट श्रम और सत्य की समन्वय भाव की विशिष्ट संस्कृति निर्मित होती हैं।
इस प्रसंग को विद्जनों को गहाराई से समझने होन्गे।लोक जन तो व्यवहृत करते आ ही रहे हैं।
[3/18, 21:18] Dr.anilbhatpahari: सहोद्रा माता की झांपी -२
गुरुघासीदास की सुपुत्री सहोद्रामाता की झांपी जो (उनके गृहग्राम कुटेला बाद मे डूम्हा मे )उनके परिजन दीवान परिवार के पास संरछित है। उसमे गुरु घासीदास द्वारा व्यवहृत की ग ई सामाग्री संचित है जिसमे चरणपादुका , कंठी और सोटा सम्मलित है।ध्यान दे उनमे जनेऊ आदि नही है। उसे प्रत्येक वर्ष होली के दिन विधिवत पूजा अर्चना कर सफेद वस्त्र से बांधकर पलटे जाते है। जैसे गद्दी व नाडियल पलटते है।
इसे देखने दूर दूर से कुछ विशिष्ट श्रद्धालू आते है।खासकर बोडसरा परिछेत्र जो सहोद्रामाता की ससुराल परिछेत्र है ,उधर के लोग अधिकतर आते है।
आने वाला समय मे डुम्हा ग्राम मेले के रुप मे परिणित हो सकते है ,जहां बडी संख्या मे लोग बाबा जी की उक्त पवित्र अवशेष के दर्शनार्थ आयेन्गे।
हमारी तो यह दिली चाह है कि डुम्हा मे गद्दी सोटा और कंठी माला के लिए भव्य स्मारक बने और दीवान परिवार उनके संरछक सेवादार रहे।
साथ ही साथ गुरु बाबा घासी दास द्वारा सतनाम धर्म प्रचार हेतु लगाए गये ९ रावटी स्थल - चिर ई पहर ,दंतेवाडा , कांकेर ,पानाबरस , डोंगरगढ ,भंवरदाह ,भोरमदेव ,रतनपुर और दल्हा पहाड मे भी स्मारक बने एंव कंठी माला के एक एक मनके को रजत या स्वर्ण मंजुषा मे रखकर स्थापित व संरछित करे।
यह धार्मिक योजना बडी ही महत्वाकांछी योजना है। इनके लिए समाज के सभी वर्ग खासकर गुरु परिवार दीवान परिवार साधु संत महंत भंडारी साटीदार अधिकारी कर्मचारी गण से प्रतिनिधी मंडल बनावे एंव उक्त निर्माण एंव संबंधित जगहो के विकास व वहां मेले संगत पंगत अंगत की सतनामी सांस्कृतिक अनुष्ठान आरंभ करावे।
तब जाकर सतनाम धर्म के मार्ग प्रशस्त होन्गे।
धर्म और धार्मिक आयोजन ही जनमानस मे सांस्कृति एकता स्थापित कर सकते है।और परस्पर मेलजोल से संगठन और संगठन से ही शक्ति ।शक्ति से हस्ती और हस्ती से युक्ति युक्ति से मुक्ति......!.
धार्मिक आयोजन ही मुक्ति के प्रथम सोपान है। दुर्भाग्यवश समाज मे सिवाय जंयती और मेले के अतिरिक्त कुछ हुआ ही नही न ढंग से कुछ हो पा रहे है...... इस दिशा मे प्रग्यावानों को गंभीरता पूर्वक विचार विमर्श करना चाहिए ।
सतनाम
डा अनिल भतपहरी
[3/18, 21:19] Dr.anilbhatpahari: छत्तीसगढ़ के पवित्र "ग्राम कुटेलाधाम" यहां नहीं मनाई जाती है "होली, नवरात्र, जेवारा" सादगी पूर्ण तरिके से रहते है सभी समाज के लोग, करते है सम्मान माता जी के आदेशों का
आज 9 मार्च को मेरे मन में बहुत दिनों से छत्तीसगढ़ के महान संत शिरोमणि गुरु बाबा घासीदास जी के जेष्ठ सुपुत्री माता सुभद्रा जी के
"पवित्र ग्राम कुटेलाधाम " की यात्रा किया जन श्रुति के अनुसार यह पवित्र ग्राम को माता सुभद्रा-बुधुदीवान जी ने गिरौदपुरी,भंडार, तेलासीपुरीधाम, चेटुवापूरी धाम, से कुटेलाधाम की दुरी 85 किलोमीटर है, वैसे तो माता जी का ससुराल गिरौदपुरी से लगा "सुकली- कौवाताल पुरान ग्राम है और बोड़सरा से वही 15,20 किलो मीटर की दुरी पर मस्तूरी ब्लॉक के अंतर्गत आता है !
माता सुभद्रा-बुधुदेवान सतनामी जमींदार के द्वारा
" पवित्रग्राम कुटेलाधाम " को माता सुभद्रामाता जी ने सोलह किसान जो तेली, कुर्मी, यादव, आदिवासी, लोहार, मरार, एसे ही सभी समाज को एक समान मानते हुए माता जी ने यहां लाकर बसाया और वह ग्राम जो अन्धविश्वास, रूढ़िवादी परम्परा, को नहीं मानने वालों को स्थान दिया! कुटेला धाम में सदियों से होली, नवरात्र, जेवारा, बलिप्रथा, किसी भी प्रकार के ढोंग आडंबरवाद को यहां के निवासी नहीं मानते है ! यहां सिर्फ सादगी पूर्ण रूप से जीवन ब्यतीत करने वाले लोग रहते है !
सुभद्रा माता जी के पांचवा पीढ़ी के वंसज साहेब भागवत दास देवान जी और उनके मंझले भाई साहेब मानिकदास देवान जी से मेरा खास मुलाकात के पल.....कुछ इस तरह से रहा !!
सुभद्रामाता-बुधुदेवान सतनामी जी के पांच सुपुत्र हुए !!
1- फाटेदास
2- बाजेदास
3- फत्तेदास
4- पीलादास
5- कैददास के चार सुपुत्र
1-शम्भूदास
2- समेदास
3- सुखदादास
4- प्रीतमदास
फत्तेदास 3 नंबर के कोई संतान नहीं है
पीलादास 4 नंबर के पुत्र है
1- गजराज दास - परागदास- 1-ईश्वरदास
2-प्राणदास
संभुदास के 2 पुत्र
1- जगमदास
2- बलमदास के कोई संतान नहीं है
जगमदास के
3 पुत्र कुटेला धाम निवास 1-भागवत दास - देवेंद्र दास
2- मानिकदास - प्रकाश दास
डुमहाधाम निवास 3- सभादास - महेंद्र दास - धर्मेंद्र दास अब तक
सम्पति : कुटेला 700एकड़ तलाब: बंधवा
तलाब: छेत्रफल 7 एकड़ में स्थित
ठकुरदेवा ग्राम : में 60 एकड़ जमीन जिसका
नाम पर्रा- बिजना नाम था
रिस्दा मस्तूरी में : 60 एकड़ जमीन और बाड़ा : जिसका
नाम कसिया पारा के नाम से जानते है
दर्रीघाट मस्तूरी : बिस्कोबगीचा
लीमतरी, सुकली, कौवाताल ये माता जी के निवास स्थान रहा है
संतसमागम मिलन कुटेला : समय दिसंबर माह में 23,24,25 को लगता है
समाधि स्थल छेत्रफल : 8.5 एकड़ जो बंधवा तलाब से लगा बगीचा में माताजी का समाधि स्थल है
प्राप्त जानकारी : भगवतदास देवान stnami एवं मानिकदास देवान सतनामी के द्वारा जानकारी दिया गया जिसे मैं समाज ke बिच में प्रसारित कर रहा हु: प्रेस रिपोर्टर अनिल बघेल, बिलासपुर छत्तीसगढ़
बड़े ही शौभाग्य के साथ मुझे आज माता जी के दर्शन करने का अवसर प्रदान हुआ है आप सभी संत समाज से निवेदन करते हुए की आप सभी हमारे पवित्र धाम माता जी का इस तरफ थोड़ा ध्यान दे और यथा शक्ति सहयोग करे.. जय सतनाम जय माता सुभद्रा ji
[3/18, 21:20] Dr.anilbhatpahari: " ममतामयी मिनीमाता जयंती "
छत्तीसगढ मे सतनाम धर्म के चतुर्थ गुरु वंशज व १९३५ में भारत की अंतरिम सरकार में छत्तीसगढ़ के प्रतिनिधित्व करने वाले एंव स्वतंत्र भारत के प्रथम सांसद गुरुअगमदास गोसाई की धर्मपत्नी व गुरुमाता प्रथम महिला सांसद ममतामयी मिनीमाता जी की जन्म होलिका दहन की मध्य रात्रि १९१३ में दौलगांव जमुनामुख असम में हुई।और ११ अगस्त १९७२ को ही १९५२ से ७२ तक ५ बार सांसद रहती हवाई जहाज दुर्घटना में उनकी अग्नि समाधि हो गई ।
वे प्रज्ज्वलित अग्नि आभा से प्रकट हुई और उसी अग्नि की आभा में समाहित हो ग ई ।
नवयुग की महाकारुणिक व वात्सल्यमयी छवि की साछात प्रतिमूर्ति रही दीन दु:खियों की सेवा ही उनकी जीवन की ध्येय रही ।सतनाम के प्रवर्तक गुरुघासीदास की परिवार की सबसे प्रभावशाली वधु एंव विशाल सतनाम धर्म की धर्मगुरुमाता के नाम से विख्यात हैं।
परन्तु उनकी जन्मतिथि केवल इसलिए वृहत रुप में नही मनाते कि इस दिन होली की हुडदंद होते हैं और मांस मदिरा पान किए मौजमस्ती में लोग डूबे रहते हैं।
जबकि उनकी शहादत तिथि ११ अगस्त को उत्सव के रुप में मनाते हैं। यहाँ तक कि राजकीय आयोजन भी होते हैं।बाहरहाल संतो के निर्वाण दिवस भी उत्सव है। आयोजन होना ही चाहिए।परन्तु जन्मोत्सव को क्यों विस्मृत किया जाय?
अत: विगत कुछ वर्षों से बलौदाबार जिला से मिनीमाता जन्मोत्सव होली के दिन ही भव्यतम रुप से मनाने की शुरुआत हुई। और यह सोशल मीडिया से प्रचारित हो क ई जगहों पर मनाए जाने लगे हैं। यह बडी ही अच्छी और प्रेरक पहल हैं।
इस आयोजन से समाज में सुचिता आएगी और महिला सशक्तिकरण की ओर तीव्रतर समाज गतिमान होन्गे। छत्तीसगढ के शासन- प्रशासन को चाहिए कि आधुनिक छत्तीसगढ़ की शिल्पी और अस्पृश्यता निवारण बिल की प्रस्तोता गुरुमाता मिनी माता जी के जन्मोत्सव मनाने हेतु सार्थक पहल करे।
समस्त मानव समाज को गुरुमाता मिनीमाता जयंती की हार्दिक बधाई ।
सतनाम
डा- अनिल भतपहरी
९६१७७७७५१४
[3/18, 21:21] Dr.anilbhatpahari: ।।रामनामियों की दयनीय दशा ।।
सतनाम संस्कृति के एक अंग रामनामी में सतनाम के स्थान पर हृदय मन में रमने वाले निर्गुण रामनाम को सुमरने और धारण करने की प्रथा (गुरुघासीदास के पुत्र गुरुबालकदास के शहादत १८६० के बाद ) १८९० के आसपास चल पड़े को दशरथ सुत श्रीराम की भक्ति समझ कर मूल्यांकन करने की अजीब परिपाटी विकसित हो गई है।
और तो और महज इसलिए श्रीराम को रोम -रोम में बसा लेने की ऐतिहासिक साक्ष्य के रुप में इन रामनामियों को प्रस्तुत किए जा रहे हैं।जबकि इनके साथ कथित रामभक्त सदैव दोयम दर्जे और भेदभाव करते रहे हैं। अब मौका है कि इन्हे केवल मुख्यधारा ही नही बल्कि रामाश्रय आधारित हिन्दूत्व में इन्हे सर्वोपरि स्थान दें। क्योकि इस क्षेत्र में कोसिर नामक ग्राम है जिसे श्री राम के माता कौशल्या की मायका समझे जाते है।छत्तीसगढ़ में राम को भांजा मानकर उस रिश्ते को पूजने की परंपरा है ,तथा कुछेक संस्थाएं एंव उनके प्रतिबद्ध लेखकगण इन्हे रामायण कालीन संस्कृति होने की बातें सिद्ध करने में लगे हुए हैं।
बहरहाल यह कौतुहल व अन्वेषण का विषय हो सकते है । पर उनकी दयनीय दशा और सामाजिक वर्जनाओं का दंश झेलते इनकी हालात पर भी दृष्टिपात होनी चाहिए
अन्यथा यह रामनामी प्रथा एकाद दशक बाद १९३० तक विलिन हो जाएन्गे।
केवल १५० के आसपास बुजुर्ग बचे है , कुछ संस्थाए संरक्षण के नाम पर अनुदान या सहयोग देकर इनकी वार्षिक भजन मेला को प्रोत्साहन दे रहे है ।तथा इन्ही में से कुछ लोलुप वर्ग कपड़े मे रामनामी ओढ़कर धनार्जन व जीवकोपार्जन करने की माध्यम बना लिए है।
ऐसी जानकारियां समय समय पर उन लोगों से मिलती रहती हैं।
विगत कुछ वर्षों से इन्हे अनु जाति वर्ग का जाति प्रमाण पत्र बनवाने में भी परेशानियां उठाने पड़ते है। फलस्वरुप शासकीय योजनाओं के लाभ से वंचित रहे ।तथा हिन्दूओ से दुराव और सतनामियों से भी अलगाव का दंश भी झेलते आ रहे थे।परन्तु १९८४ बसपा के अभ्युदय के बाद इनके युवा वर्गों में सतनाम संस्कृति और बौद्ध धर्म के प्रति रुझान जागृत हुए ।इस तरह देखे तो अब पहले से बेहद सजग और विकास की ओर अग्रसर यह रामनामी परिक्षेत्र है।
[3/18, 21:24] Dr.anilbhatpahari: ।।वीर नारायण सिंह द्वारा जेल ब्रेक व पनाह
एक संस्मरण ।।
गुरु घासीदास द्वारा अभिमंत्रित और उपचारित वीर नारायण सिंह जन कल्याणार्थ बलिदान देकर अमरत्व प्राप्त किए आज उनकी शहादत दिवस पर उन्हे सत सत नमन !
अधिनायक वाद और सामंतवाद के विरुद्ध समानता व स्वाभिमान के लिए "जनक्रांति का मशाल " प्रज्ज्वलित करने वाले वीर नारायण सिंह और राजा गुरु बालकदास व्यक्ति स्वतंत्रता के दो महानायक है। संयोगवश दोनो सोनाखान- गिरौदपुरी निवासी पड़ोसी व बालसखा भी रहे हैं। जिनकी बलिदान से आज भारत वर्ष एंव छत्तीसगढ़ समानता और समृद्धि के पथ पर अग्रसर हैं।
यह संयोग और सौभाग्य की बात हैं कि वीर नारायण सिंह की पहली गिरफ्तारी के बाद वे रायपुर सेट्रंल जेल की दीवार फांद कर फरार हो गये ।दौड़ते - भागते ३० मील दूर अपने मित्र राजा बालकदास के गढ़ी भंडारपुरी आए। उनकी खातिरदारी कर उसे छुपाने व सुरक्षित सोनाखान पहुचाने अपने विश्वस्त सहयोगी व सतनाम सेना प्रमुख माखन साय भतपहरी के ग्राम जुनवानी के घर पनाह लिए और दूसरे दिन यहाँ के निवासी उन्हे ससम्मान महानदी पार कराकर बार अभ्यारण होते सोनाखान पहुँचाए ।
ग्राम जुनवानी के वयोवृद्ध ग्रामीण जन उक्त रोमांचक धटना का संस्मरण सुनाते गौरवान्वित होते हैं कि हमारे पूर्वज लोक कल्याण के महान कार्यों में आरंभ से ही गुरुघासीदास गुरुबालकदास वीर नारायण सिंह जैसे विभूतियों के साथ दिए। एंव आजादी के आन्दोलन व डा अम्बेडकर के अभियान से जुड़कर सक्रिय सहभागिता निभाते आ रहे हैं।
हम जैसे नये पीढ़ी के लोग यह सुनकर रोमांचित व गौरवान्वित होते हैं कि हमारे छोटे से ग्राम जुनवानी जो तेलासी -भंडार से लगा महानदी तट पर सिरपुर के समीप स्थित है की बड़ी ऐतिहासिक उपलब्धि हैं। यहाँ साक्षात् गुरुघासीदास गुरु बालकदास वीर नारायण सिंह के चरणरज पड़े मंत्री नकूल देव ढ़ीढ़ी व महंत नंदू नारायण भतपहरी एंव एड मनोहरलाल भतपहरी सतनाम संकीर्तन कार सुकालदास भतपहरी जैसे विभूतियों की जन्म व कर्म स्थली रहा हैं।
संस्मरण - सतलोकी अमोलदास भतपहरी सतलोकी रामदयाल धृतलहरे ग्राम जुनवानी ।
[3/18, 21:25] Dr.anilbhatpahari: "अशांत "
अशांत से अशांति न हो बल्कि
आपका स्नेह और आशीष बना रहें। दरअसल इस फिल्म को देख मन द्रवित और विषाद से भर आया। जहाँ कहीं अशांत पना दबा हुआ रहा पुनश्च पल में जागृत हो आया। इसी तरह की एक सुप्रसिद्ध फिल्म अंधेर नगरी ( ओमपुरी , स्मिता पाटिल नसीरुद्दीन अभिनीत ) देख हफ्तों व्याकूल रहा। प्रसिद्ध उपन्यास "ययाति "पढ़कर आरंभ से मानवता के विरुद्ध अन्याय जुल्म जानकर हतप्रभ रहा ।
स्वकथ्य प्रस्फुटित भी हुआ- "सत्यता व मानवता के विरुद्ध अन्याय जुल्म देख हृदय में उत्पन्न संवेदनांए ही शब्दों में ढ़लकर हमारी कविता बनती हैं।"
हमने श्रृंगार -हास्य आदि कलात्मकता के लिए लिखे कविताएँ तो केवल क्रांति के निमित्त रचना हुआ भले वह किसी के काम आए न आए ।
फलस्वरुप अध्ययन के दरम्यांन ही हमारी प्राध्यापिका व साहित्यिक मित्रों ने "अशांत " उपनाम दे दिए । उसे हमने शासकीय सेवा में आते ही विसर्जित कर दिए ... पर फेशबुक में महज पुराने मित्र जाने यह सोचकर लिखे हुए हैं।
बहरहाल भारतीय संस्कृति में निःसंदेह उत्कृष्ट चितंन और आपार सहिष्णुताएं हैं। बावजूद चंद मौका परस्त और लोलुप लोगों के चलते वह उच्च आदर्श अनवरत खंडित होते रहे भी हैं। ऐसे में इन सब विकृतियों के विरुद्ध स्वर न गूंजे यह हो नहीं सकते। सच तो यह है कि हमारे ऋषियों और मनीषियों की वह अप्रतिम चीजें कहीं चंद सुविधा भोगियों के अति से विस्मृत न हो जाए। . जिनसे विश्व को न ई दृष्टि दी जा सकती हैं। उनसे हम अपनी अहं तुष्टि कर अपने ही स्वजन परिजन को दासता में जकड़े और मूढ असभ्य कायम रखे यह वाकिय बर्दाश्त नहीं हो पाते और यदाकदा मन अशांत हो जाया करते हैं। आप जैसे गुणी जनों का आशीष और समझाइस (अब तो बडे भ्राता ) ही धैर्य धराता हैं।
कृपा है कि यह छोटी सी कमेन्ट्स आपके संज्ञान में आया ।
नमस्कार , प्रणाम सर !
सदैव मार्गदर्शन की अपेक्षा में ...
[3/18, 21:35] Dr.anilbhatpahari: "पंचमुखी / सप्तमुखी सर्पफेन छत्र और उनका
महत्व "
गुरु घासीदास के ससुराल सिरपुर में सर्पछत्रपति बुद्ध प्रतिमाएं है।
जनश्रुति है कि महंत अजोरीदास कबरा महंत की पुत्री सफुरा मंदिर की पुजारन और सहज योग मे निष्णान्त सद्गुणी रुपसी थी। उनका वरण गुरु ने किया। और दोनो ने मिलकर युगान्तरकारी सतनाम धम्म प्रवर्तन किया।
गुरुघासीदास ने बुद्ध की तरह कठोर तपस्या कर आत्मग्यान अर्जित किए ।तो जनमानस उन्हे बुद्ध की तरह महा सिद्ध महायोगी कह गुरु पद आसिन कर श्रद्धावनत हो गये। सफूरा भी सफूरामाता के नाम से विख्यात पुज्यनीय हुई।
यहां भंडारपुरी गुरुद्वारा १८३० में स्थापित सद्गुरु आसन का चित्र और सिरपुर की सुप्रसिद्ध " सर्पफेन सिरो छत्रधारी बुद्ध " का ध्यान मग्न प्रतिमा अवलोकनीय है।
ऐसा प्रतीत होता है कि बुद्ध प्रतिमा के बाद भारतीय समाज में उनके अनुकरण करते सारे देवी देवताओ के मूर्तियां बनने लगे व आकंठ मूर्तिपूजा में रमने लगे । इनके साथ -साथ ढोंग ,पाखंड, पूजा कर्मकांड आदि होने लगे ।भव्य और बड़ी बड़ी मंदिर काम कलाओ आदि वैभव व विलासिता पूर्वक बनने लगे और जनमानस उसी खोने लगे तब कही जाकर पुनश्च इन जगहों से जनमन को शोषण आदि से बचाने पुनश्च प्रबुद्ध महापुरष के रुप में गुरुघासीदास का अवतरण हुआ। वे जनमानस को मंदिर मूर्ति और पंडे पुरोहित के मकड़जाल से मुक्त कराकर सहज योग और परस्पर सद्भाव व सात्विक आहार विहार व्यवहार से जीवन में सुख शांति समृद्धि पाने का सहज मार्ग प्रशस्त किए जो सतनाम दर्शन व पंथ या धर्म के रुप मे विख्यात हुए।
दोनो जगहों की दूरी महज १० कि मी है।और इस परिछेत्र में प्राचीन काल से जनजीवन आबाद है।
प्रग्यावान ग्यानवान और महायोग साधक सिद्ध महापुरुष जिसे पालि मे बुद्ध और जन भासा में सिद्ध कहे गये ।जिन्हे सहस्त्रचक्र कमल व अष्टचक्र सिद्ध कह उनके सर के ऊपर कुंडली जागृत के प्रतीकार्थ सर्प फेन युक्त कर संस्मृत किए गये। इसलिए बुद्ध महावीर और अन्य सिद्ध साधक को प्राचीन शिल्पकार नागफन से युक्त दिखाए।कुछ विचारक व इतिहास विद इसे नागवंशी धोषित करते रहे है।
बाहरहाल इन दोनो की और इन सब तथ्यों के संबंध विचारणीय व अध्ययनीय है।
इसलिए अन्तर्राष्ट्रीय बौद्ध महासम्मेलन १९९३ सिरपुर में आर्य नागार्जुन सुरई - ससाई ने गुरुवंशज दयावन्त साहेब अनेक बौद्ध भिछुक सतनामी संत महंत व सरदार दीलिप सिंग जी सिख पंचायत के अध्यछ और सैकड़ो प्रबुद्ध विचारको /हजारो आसपास के सहजयानी सतनामियों की गरिमामय उपस्थिति में गुरुघासीदास को "बोधिसत्व गुरुघासीदास " के नाम से संबोधित करते उन्हे बोधिसत्व कह जन कल्याणकारक " बुद्धमहापुरुष ' धोषित किए।
सभागार धन्य धन्य कह जय सतनाम जय बुद्ध की हर्ष ध्वनि से गुंजायमान हो उठे।
सौभाग्यवश उस महासम्मेलन में हम सचिव के रुप में उपस्थित थे।अध्यछ रामलाल बौद्ध नागराज और उपाध्यछ फत्तेलाल बौद्ध अन्य पदाधिकारियों मे डा उपराम बधेल और चिखली जुनवानी देवगांव अमसेना तेलासी के लोग रहे। अपनी जड़ अ
[3/18, 21:37] Dr.anilbhatpahari: "सतनाम संस्कृति का उद्गमभूमि "
महानदी एंव जोक नदी धाटी सभ्यता में बौद्ध धम्म का प्राचीन अवशेष सर्वत्र विद्यमान है।इसी स्थल से महायान शाखा का सूत्रपात भी हुआ। सम्राट इंद्रभूति सरहपाद आनंद प्रभु नागार्जुन सदृश्य महान व्यक्तित्व की जन्मभूमि रहा है।उनके प्रभाव जनमानस और इस परिछेत्र की भाषा बोली और संस्कृति पर पड़ा ।
ट्रान्समहानदी का यह छेत्र अपनी नैसर्गिक सौन्दर्य और सधन वन प्रांतर के के कारण साधको अन्वेषकों के लिए सदा आकर्षण का केन्द्र रहा। इसी परिछेत्र सतपथ संस्कृति का भी उद्गम हुआ।सत्यवंत प्रजाति जो श्वेत ध्वजवाहक रहे का कर्मभूमि रहा।शैव शाक्त वैष्णव बौद्ध नाथ सिद्ध साधुओं साध्वियों का यह साधना स्थली तुरतुरिया सिद्धखोल साधुगढ सिंहगढ सिहांसन पाट गिरौदपुरी कुर्रुपाट सोनाखान नारायणपुर सिरपुर बम्हनी जैसे जगहों मे इनके केन्द्र है। पलाशनी को जोकनदीऔर
अब सतनाम संस्कृति मे "योगनदी" कही जाने लगी है।
तपोभूमि गिरौदपुरी इनके तट पर विराजित है जहां सुरम्य व नैसर्गिक सौन्दर्य का सृजन करती है।सोनाखान और गिरौदपुरी के मध्य बीच नदी मेंं हाथी की आकृति वाली शिलाखंड को श्रद्धालू सोनाखान राजा रामराय द्वारा गुरुघासीदास को मरवाने मद पिलाकर भेजे गये मानते है जो बाबा जी के तपबल से शिलाखंड मे परिवर्तित हो गये ।
बाहरहाल इस किवदंती से यह तो पता चलता है कि तत्कालीन समय में गुरु बाबा के नव प्रवर्तन जो व्यक्ति स्वतंत्रता व समानता पर आधारित रहे से सुविधाभोगी गण राजा सामंत व पंडे पुजारीआदि उद्वेलित रहे और उनके सतनाम जागरण के तीव्र विरोध किए। बाबा जी को ग्राम्य देवी कुर्रुपाट मे नरबलि तक दिए गये .... फलस्वरुप वे अपने प्रिय जन्म और साधना स्थल को छोड़ने विवश हुए ... वे महानदी पार कर गिरौदपुरी से तेलासी भंडार तकरीबन ७०-८० कि मी दूर आकर बसे! महासमुन्द जिला के प्राचीन नगरी सिरपुर ही बाबा जी के ससुराल है।और वहा से ५-१० कि मी दूर तेलासी भंडार (बीच मे हमारे ग्राम जुनवानी ) स्थित है।सतनाम धर्म के उद्गम और विकास योगनदी महानदी के कछार में हुआ । और यह तेजी से विस्तारित भी ।
गुरुघासीदास जी की अमृतवाणी में लरिया का स्पष्ट प्रभाव है। और इसलिए उनके अनुयाई छत्तीसगढ और सीमावर्ती उड़ीसा मे आबाद है।
महानदी और योगनदी वंदनीय है जिनकी पावन तट पर संसार की" प्रथम जातिविहिन मानव समुदाय" का गठन हुआ। भारतीय नवजागरण का शंखनाद हुआ।
।। सतनाम ।।
-डा. अनिल भतपहरी
[3/18, 21:38] Dr.anilbhatpahari: आदिधर्म सतनाम श्रमण संस्कृति का अभिन्न श्रुति परंपरा हैं। इनमें वक्ता "गुरु" और श्रोता शिष्य या अनुयाई हैं। यह गुरु चेला के मध्य वार्तालाप परीक्षण प्रसंस्करण द्वारा जनमानस में अजस्त्र प्रवाहमान हैं। इसलिए यहा गुरुमुखी संस्कृति का दिग्दर्शन होते हैं-
गुरुमुख गुरुमुख पार उतरगे नेगुरा ह गये भुंजाय
जैसे साखी से यह प्रमाणित होते हैं। साधना सिद्धि कर कोई भी प्रग्यावान सतनाम के स्वरुप को जान समझकर गुरुत्व भार गुरुपद धारण करते है। तथा अपनी वाणी ध्यान स्पर्श व आशीर्वाद से शिष्य के अन्तर्मन को प्रकाशमान करता है। उनके अंदर की आत्महीनता तमस आलस्य प्रमाद को हटाकर उन्हे ओजस्वी तेजस्वी और विवेकी बनाते हैं।
ऐसे ही समर्थवान शिष्य ही गुरु के निर्देशानुसार जनकल्याण के निमित्त अनेक रचनात्मक कार्य में प्रवृत्त होते हैं।
मन वचन कर्म से यदि कोई व्यक्ति इन मह्ती कार्य को करे तो वह निर्मल यश के प्रतिभागी होकर जीते जी परमपद व सतलोक प्राप्त करता हैं।
यह सतनाम संस्कृति बौद्ध धम्म ,खालसा पंथ ,कबीर पंथ ,साध पंथ ,सतनामी पंथ, राधास्वामी मानव धर्म, प्रेम पंथ,जैसे अनेक मत पंथ सम्प्रदाय में अस्तित्व मान होकर इसी श्रुति परंपरा संगत पंगत अंगत द्वारा वैश्विक विस्तार की ओर अग्रसर है।
।।सतनाम ।।
संसार सतनाम मय हो
सतश्रीसतनाम
डा- अनिल भतपहरी
चित्र - सतनाम धाम नारनौल दोशी पहाड़ समीप नई दिल्ली भारत
[3/18, 21:40] Dr.anilbhatpahari: संतों की सद्गति
बुद्ध का मृत देह था उसे जला दिए गये और अस्थियाँ केश आदि संरछित कर लिए गये ताकि ऐसा विलक्षण व्यक्ति होने का साछ्य रहे।शायद यह उनके इच्छानुसार ही हुआ। वे निब्बान पाए ... अनगिनत स्तुप बने अवशेष रखे और उनकी पूजा अर्चना शुरु हो गये यानि कि शव साधना मृतक पूजा.....
कबीर मगहर में प्राण त्यागे पर देह फूल में बदल गये हिन्दू मुस्लिम उन्हे बाट लिए .... और अनगिनत मठ बने यहां भी समाधि व मठ में चादर पोशी होने लगे शव व मृतक पूजा जारी ही हैं ...
गुरुघासीदास १८५० के बाद नहीं दिखे वे कहा गये कि मृत्यु हुए कि किसी जानवर या सडयंत्र आदि का शिकार अब भी अग्येय हैं। केवल जनश्रुति है कि वे बंगोली में एक और सहिनाव घासीदास के साथ समाधि लिए ...
लोग इसे सच नहीं मानते
कुछ लोग कहते हैं कि बलौदाबाजार लवन के बीच वे दिखे .... उसे तलाशने / मनाने महानदी तट तक परिजन गये ..पर नहीं मिला ... क्या वह नदी में प्रवाहित हो गये या किसी तरह वहां से निकल अपने प्रिय जन्म स्थल गिरौदपुरी गये कि साधना स्थल छाता पहाड़ जनश्रुति है कि वे वहां जाकर ही ध्यान करते शरीर त्यागे जिसे कोई न देख पाए इसे ही अछप या अन्तर्ध्यान जैसे अलंकृत शब्द से जनमानस व्यवहृत किए। छाता पहाड की उस कंदरा को सतलोकी गुफा कहते हैं। और संयोगवश वह तीन भागो में विभक्त हैं। बीच में जैतखाम स्थापित हैं। लाखो सर वहां श्रद्धा से झुकते हैं।
पर उनके देह न मिलने पर कोई अन्तेष्टी क्रिया नहीं हुए ।अन्यथा एक समर्थ राजा बालकदास अपने पिता के कुछ न कुछ अन्तेष्टी करते ... और लाखो श्रद्धालु जरुर उनमे जुटते पर ऐसा नही हुआ।
उनकी प्रयुक्त सामाग्री खडाउ सोटा कंठी जरुर उनकी पुत्री संरछित किए हैं( आज वही उनके अप्रतिम साछ्य है जो मारकंडे साहब आपके गाव डुम्हा के दीवान परिवार के पास सुरछित है।) वह पुरानी होन्गे और जो धारण किए रहे हो वह न मिला या हो सकता हैं। वह वही हो( भले देह न मिला )और उनकी ही प्रतिकार्थ श्रद्धा वश पूजा होते हैं। क्योकि गुरुघासीदास असधारण थे उन्हे साधारण करने कोई अशोभनीय बाते नहीं की जा सकती ।न करना चाहिए ...
यानि की तीन महापुरुषो की अंत और उनके अवशेष से यह समझा जाय कि जो विलछण व असाधारण होते हैं। उनके संदर्भ में विशिष्ट क्रिया या अलंकृत वृतान्त बनते ही हैं।
।।सतनाम ।।
डा. अनिल भतपहरी
9617777514
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