Saturday, March 21, 2020

अपन घट के देव ल मनाइबोन

"अपन धट के देव ल मनइबोन "
  गुरुघासीदास ने छत्तीसगढ़ में सतनाम धर्म की प्रवर्तन करते कहा कि हे संतो अबतक जाने अनजाने में  जिस मान्यताओं को जन्म से मृत्यु तक मानते आ रहे हैं वह निरा भ्रम व मिथक हैं ।उन्ही के कारण दु: ख संताप कलह अशांति और शोषण के शिकार हैं। इन सबसे बचना हैं तो सर्व प्रथम कल्पित देव और उनके कल्पित निवास स्थल मंदिर आदि जाना त्यज्य दे मूर्तिपूजा पुरोहितों को दान दछिणा देना बंद कर दे क्योकि यह सब मन को बहलाने वाला भ्रमित करने बहेलिया हैं ।यह सब करते क इ जुग बित गया पर अबतक मानव जीवन  कोई बदलाव आया ही नहीं ।मंदिर नही वह मंदरिवा हैं जहा राग रंग रति दान दछिणा के नाम पर शोषण आशीर्वाद के नाम छल कपट द्वेष प्रपंच से युक्त मानसिक व धार्मिक गुलामी दी जाती हैं। इसलिए वहां जाना व्यर्थ हैं ।का करने जाय ? 
यदि सुमरन करना हैं भाव भक्ति ही करना हैं तो अपने धट  में विराजमान अनेक तरह के सद्गुण हैं। उनकी अराधना करे ।ऐसा एकत्रित संत समुदाय को धर्मोपदेश देते उनकी श्रीमुख से यह काव्यात्मक पंक्ति नि:सृत हुआ - 

मंदिरवा म का करे जइबोन 
अपन घट के देव ल मनइबोन .....

धट शब्द बहुअर्थी हैं। 
एक यह शरीर 
दुसरा उस शरीर का  अंतस  भाग 
तीसरा मन हृदय बुद्धि 
चौथा  घर जहा हम निवास करते हैं। 
पाचवा वह परिछेत्र जहा समुदाय सहित रहते हैं
इस आधार पर एक से दूसरे या आसपास रह रहे समुदाय से परस्पर सकरात्मक संबंध 
    अब इन्हे तरह से देखे - 
धट का देव सत्य करुणा परोपकार प्रेम आदि हैं। 
और घर में देव  दादा दादी माता पिता  बडे भाई भाभी हैं। उन्हे आदर दे उनकी पूजा सत्कार करे।
गुरुघासीदास की सत्य अमृतवाणी - "अपन धट के देव ल मन इबोन" का आशय यही हैं।
   सद्गुण को धारण करते जो बडे बुजुर्ग अनुभवी हैं को आदर सत्कार देते सात्विक जीवन ही सार हैं। ऐसा करने मात्र से व्यक्ति को जीते जी परमपद या पद निरवाना की प्राप्ति होती हैं।

इस आशय का पंथी मंगल भजन हैं- 
भजौ हो गुरु के चरणा अहो मन मेरा- 
सभी इन्द्रियों  सहित हाथ पैर की आकांछा व्यक्त करते हुए अंतिम अंतरा में वर्णित हैं- 

अंतस म संतो  सतनाम ल बसाइतेव 
दया मया सत म ये जिनगी पहाइतेव 
जिनगी पहावत परम पद पाइतेव 
परम पद पाइके ये हंसा ल उबारितेव ...भजौ हो गुरु के चरणा ....

इस तरह देखे तो सतनाम धर्म ईश्वराश्रित नही सद्गुणाश्रित महान व्यवहारिक और सत्य पर आधारित समानता से युक्त मानवतावादी धर्म हैं। जो सभी अनुयायियों को सदैव सद्गुण से युक्त परस्पर प्रेम व सौहार्दपूर्ण आचरण करने की प्रेरणा देता हैं। न कि इन गुणो से रहित किसी  की पूजापाठ दान दछिणा व्रत उपवास तीर्थ   आदि की प्रेरणा देता है। 
 सात्विक रहन सहन और अपने आसपास के लोगो से सौहार्द्रपूर्ण व्यवहार और सत्संग ही मानव जीवन का सार हैं। यही भाव को  धारण करना ही धर्म हैं।
   सतनाम धर्म अपनी मूल प्रवृत्ति में  सरल सहज व सबसे निराला हैं। इनके अनुयाई होना सौभाग्य एंव    स्वाभिमान की बात है।  

       ।।सतनाम ।। 

डा अनिल भतपहरी‌ 
९६१७७७७५१४ 
जुनवानी ,रायपुर छत्तीसगढ

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