Thursday, December 26, 2024

बात ख़तम और हज़म

#anilbhattcg 

बात खतम और हजम 

पुराने दौर की क्या कथा 
रहा सदा ज़ुल्म शोषण व्यथा 
भरा पड़ा दास्तां रनिवास अनगिनत कोठे हरम 
प्रस्तर पोर्न से अटा देवालयों के गर्भगृह का मरम 

होते रास, नियोग,साधनादि में पंचमकार 
स्वच्छंद यौनाचार  स्त्री ऊपर अत्याचार 

देवदासियों विधवाओं की दारुण दशा 
क्या और कैसे गिनाएं स्त्रियों की मनोव्यथा 

कहीं अग्नि परीक्षा कही हरण 
तो कहीं पर सरेआम चीर हरण 

उस पर भी तीक्ष्ण उलाहना नारी  नर्क द्वार 
वाह रे!अधम नर कैसा तेरा तिरस्कार 

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते आदर्श गढ़े गये 
रमन्ते तत्र देवता के वाग्जाल में फ़साये गये 
जख्म देकर गहरे यूँ मरहम लगाएं गए 
देकर वस्त्रआभूषण गुलाम बनाये गये 

पर इससे हुआ न कुछ भी भला 
अबला के ऊपर जुल्म सबला का 

पीटे गये ढ़ोल गँवार शूद्र पशु नारी 
नीम पर चढा करेला ताड़ना के अधिकारी 

यह दौर नया ही सही पर समान  हक हैं यही 
प्रेम न सही हवस सही मर  मिट जायें न कहीं 

भले जर ज़मीन के लिए हो युद्ध कहीं 
पर जोरू के लिए युद्ध हो न कभी 

स्त्री वस्तु, देवी नहीं स्त्री भोग्या नहीं
स्त्री केवल स्त्री कतई कुलटा वेश्या नहीं 

जीर्ण -शीर्ण पुरातन ढहें पुराने ख्यालात सुधरे 
जैसे पुरुष को ज़रूरत वैसे ही स्त्री की ज़रूरत

हो हक अधिकार दोनों का बराबर 
कोई क्या कहें थोड़े में बहुत समझ ले 

बस अब हमारी बात हुई यहीं पे खतम 
ना पचे तो हाजमोला खा करले  हज़म

डॉ अनिल भतपहरी / 9617777514

बात खतम और हजम

#anilbhattcg 

बात खतम और हजम 

पुराने दौर की
 क्या कथा 
रहा सदा ज़ुल्म 
शोषण  व्यथा 

भरा पड़ा रनिवास 
अनगिनत कोठे हरम 
प्रस्तर पोर्न से अटा पड़ा 
देवालयों के गर्भ गृह का मरम 

होते कर्मकांड  पंचमकार 
रास नियोग साधनादि में 
स्वच्छंद यौनाचार  
स्त्री ऊपर अत्याचार 

देवदासियों की 
दारुण दशा 
क्या और कैसे गिनाएं 
स्त्रियों की मनोव्यथा 

कहीं अग्नि परीक्षा 
कही हरण 
तो कहीं पर 
सरेआम चीर हरण 

उस पर भी तीक्ष्ण उलाहना 
नारी  नर्क द्वार 
वाह रे!अधम नर 
कैसा तेरा तिरस्कार 

फ़िर भी आदर्श गढ़े गये 
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते 
रमन्ते तत्र देवता 
वाग्जाल में विमर्श रचे गये 

जख्म देकर गहरे 
मरहम लगाएं गए 
पर इससे हुआ न 
कुछ भी भला 
अबला के ऊपर 
जुल्म सबला का 

पीटे गये ढ़ोल 
गँवार शूद्र पशु नारी 
नीम पर चढ़े करेला 
सकल ताड़न के अधिकारी 

यह दौर नया ही सही 
पर समान  हक हैं यही 
प्रेम न सही हवस सही 
मर  मिट जायें न कहीं 

भले जर ज़मीन के लिए 
हो युद्ध कहीं 
पर जोरू के लिए 
युद्ध हो न कभी 

स्त्री वस्तु नहीं 
स्त्री भोग्या नहीं 
स्त्री केवल स्त्री 
कतई वो वेश्या नहीं 

जीर्ण शीर्ण पुरातन ढहें 
पुराने ख्यालात सुधरे 
जैसे पुरुष को ज़रूरत 
वैसे ही स्त्री की ज़रूरत

हो हक अधिकार 
दोनों का बराबर 
कोई कितना क्या कहें 
थोड़े में बहुत सा समझ ले 

बस अब हमारी 
बात हुई खतम 
ना पचे तो हज्मोला खा 
कर ले इसे हज़म

डॉ अनिल भतपहरी / 9617777514

Monday, December 16, 2024

सतनाम पंथ में समग्र विकास का सूत्र


सतनाम पंथ में समग्र विकास का सूत्र 

    
सतनाम पंथ की मुख्य सिद्धांत मनखे मनखे एक वर्तमान समय में अत्यंत प्रासंगिक और महत्वपूर्ण हों चूके हैं.क्योंकि सारा विश्व धर्म सम्प्रदाय के नाम पर बटते ही नहीं बल्कि तेजी से कटते जा रहें हैं.अनेक देशों और देश के राज्यों  में भी धार्मिक और साम्प्रदायिक हिंसा अनवरत जारी हैं.तब सतनाम पंथ की बातें कितना मूल्यवान हैं यह समझा जा सकता हैं.इसे मात्र  आंदोलन कह उनके असीम भाव व्यंजना को सीमित और संकीर्ण करने की नापाक कोशिश जाने -अनजाने में हो रहें हैं. गुरु और उनके अनुयायी को  आंदोलनकारी और क्रांतिकारी कह उनकी सार्वभौमिक स्वीकार्य पर भी प्रश्न खड़े किए जाने लगे हैं. संभवतः इस कारण भी मुख्यधारा से प्रतिरोधी स्वर समझ लोग मूल्यांकन कर बैठते है. हलांकि उनके उच्चतम आदर्श अन्यान्न कारणों से विस्तारित नहीं हो सका परंतु  सोसल मीडिया आने से सतनाम धर्म संस्कृति के ऊपर अनेक तरह के आलेख और गीत भजन देखें पढ़े सुने जा सकते हैं. सबकी अलग अलग मन्तव्य और धारणाएँ हैं. इन सबके चलते गुरु घासीदास और उनका सतनाम पंथ पर सम्यक् दृष्टिपात करने की आवश्यकता है.

   बहरहाल  गुरु घासीदास नि:संदेह एक आध्यात्मिक संत हैं. और उन्होनें समाज और धर्म कर्म में परिव्याप्त बुराइयों को दूर करने हेतु अनेक तरह के सुधार और रचनात्मक कार्य निष्पादित किए.
    सतनाम आंदोलन नहीं बल्कि सतनामियो का आंदोलन हैं जिसके प्रणेता गुरु घासीदास के सुपुत्र राजा गुरु बालक दास हैं. गुरु घासीदास ने आजीवन मनुष्य को बेहतर बनने  उपदेश दिए और निरंतर अपने मतो सिद्धांतों के प्रचार -प्रसार और लोगों को जोड़ने हेतु दूर -दूर तक यात्राएँ की. खासकर  अपनी जगन्नाथ पुरी यात्रा  से वापसी के समय चंद्रसेनी देवी मंदिर चंद्रपुर  में  पशुबलि को देख हतप्रभ और विह्वल हुए -

देखें लहूटत चंदरसेनी म बलि छै दत्ता पाड़ा 
मन बिचलित हलाकन जीव हिंसा गाड़ा गाड़ा 
देख बबा के मन भिरंगे तीरथ मे शांति नई पाए 
पुन्नी के पुनवास मे सतनाम सतनाम उचारे...( सतनाम संकीर्तन (

 फिर वहीं से वे साधना हेतु सोनाखान जंगल चले गए 
आत्म ज्ञान और सिद्धि उपरांत वे गिरऊंदपुरी में फागुन शुक्ल सप्तमी 1795 को युगान्तरकारी जातिविहीन कर्मकांड विहिन समता पर आधारित  हजारों अनुयाइयों के समक्ष सतनाम पंथ का प्रवर्तन किये.

फिर धर्म कर्म में  व्याप्त अंधविश्वास बलि प्रथा जैसे कर्मकांड को  रोकने छत्तीसगढ़ के चारों  शक्ति पीठो चंद्रपुर, दंतेवाड़ा,डोंगरगढ़ रतनपुर  में यात्राएं की. इनके साथ  चिरई पदर,कांकेर,पानाबरस, भवरदाह,दल्हा पहाड़ जैसे विशिष्ट 9 स्थलों पर की गई " सतनाम रावटी यात्रा "अत्यंत महत्वपूर्ण हैं. रामत यात्रा के अनेक जगहों पर सामाजिक रुप से जातिभेद मिटाने और सतनाम पंथ में दीक्षित करने उनके इस महाभियान में अनेक संत महंत सम्मलित हुए. वर्तमान में इन जगहों को सतनाम शक्ति केंद्र के रुप में प्रतिष्ठित कर विविध आयोजन किये जा रहें हैं अत्यंत सुखद और अल्हादकारी हैं.
.    सतनाम पंथ चलाए यह एक सरल सहज जीवन शैली है जो एक व्यक्ति को किसी दूसरे व्यक्ति और समाज के साथ  कैसे समानता पूर्वक व्यवहार करें की नैतिक सीख है. सात्विक खान पान, सादगी पूर्ण रहन सहन, सत्य अहिंसा के प्रति निष्ठां व्यसन मुक्त जीवन शैली अपनाकर परिश्रम करते जीवन यापन से  व्यक्ति स्वयं के आर्थिक और सामाजिक स्तर को भी  ऊपर उठा सकते हैं और दूसरों को भी उक्त आदर्श जीवन शैली से सुधारा जा सकता है.

गुरु घासीदास की  उक्त सीख और शिक्षा पर चलते लोगों का कल्याण होने लगे तो जनमानस श्रद्धा वश  अपनी अर्जित उपलब्धियों को गुरुकृपा,आशीष या चमत्कार समझ लिए.और उन्हें अवतारी पुरुष मानकर पूजने लगे! इस तरह सतनाम पंथ की आध्यात्मिक और धार्मिक विरासत को, गुरु और गुरु की वाणी के प्रतिबद्ध साधक  विषम  परिस्थितियों और अभाव के बीच भी सुखी संतुष्ट जीवन शैली अपनाएं हुए शांति पूर्वक जीवन यापन करते आ रहें हैं.
गुरु घासीदास नें कभी राजनैतिक सत्ता, पद -प्रतिष्ठा के लिए ना ही कोई आंदोलन किए और ना ही वे इस तरह के  चीजों के आंदोलनकारी या  क्रांतिकारी थे. बल्कि  वे बुद्ध कबीर की तरह तत्व वेत्ता दार्शनिक और पंथ  प्रवर्तक है. वे लोगों के हृदय में राज़ करते है इस कारण सदैव प्रासंगिक.  उनका किसी राज्य के प्रजा के ऊपर राज्य नहीं न ही धन संपदा वाली ऐश्वर्य  . इस तथ्य को भली- भाँति लोगों को समझना चाहिये.
    गुरु घासीदास तो बुद्ध के तरह ही आर्थिक संपदा अर्जित करने के बाद मोती महल गुरुद्वारा और कई गाँवों की मिल्कियत को देख -समझ कर उन सब का परित्याग कर एकान्त वासी हो अज्ञात स्थल पर चलें गये ( धारणा है कि वे तपोभूमि गीरौदपुरी के सुरम्य वन प्रान्तर और छाता पहाड़ में रहने लगे ) यह बातें उन्हें महान तपसी,त्यागी संत और गुरु जैसे विशेषण से युक्त महापुरुष  बनाते  है.
      तो यह बातें स्वमेव सिद्ध हैं कि सतनाम अन्य धर्म मत पंथ से बिल्कुल अलग  समानता पर आधारित प्रथम जाति विहीन समुदाय का पंथ या धर्म हैं. जिसमें मानव विकास के समग्र सूत्र सन्निहित हैं. मनखे मनखे एक जैसी उदात्त  सिद्धांत वैश्विक  विस्तार पर हैं. सतनाम के   अनुयायी सतनामी  हैं और यह ज़ात -पात वर्ण रंग नस्ल भेद से ऊपर मानवता के संपोषक हैं. इन्ही सतनामियो का आंदोलन समाज में अपनी अस्मिता और वजूद को कायम करने हेतु राजा गुरु बालक दास के नेतृत्व में  हुआ. जो आज भी समय समय पर हक अधिकार के लिए या दमन शोषण के प्रतिरोध में यदा कदा स्थानीय स्तर पर होते हैं. इनके केन्द्र में गुरु घासीदास जी का सतनाम दर्शन और उनके उन्नत विचारधारा हैं. जों आने वाले समय में मानव समाज के लिए  अत्यंत उपयोगी और अनिवार्य होंगी.

.   डॉ अनिल भतपहरी / 9617777514
 प्राध्यापक,उच्च शिक्षा विभाग, छत्तीसगढ़

Sunday, December 15, 2024

सतनाम पंथ का दर्शन

#anilbhattcg 

सतनाम आंदोलन नहीं बल्कि जन जागरण वाली दर्शन एवं पंथ हैं.

    सतनाम पंथ को आजकल आंदोलन कह उनके असीम भाव व्यंजना को सीमित और संकीर्ण करने की नापाक कोशिश जाने -अनजाने हो रहें हैं. गुरु घासीदास को आंदोलनकारी और क्रांतिकारी कह उनकी सार्वभौमिक स्वीकार्य पर भी प्रश्न खड़े किए जाने लगे हैं. आजकल सोसल मीडिया में सतनाम धर्म संस्कृति के ऊपर अनेक तरह के आलेख और गीत भजन देखें पढ़े सुने जा सकते हैं. सबकी अलग अलग मन्तव्य और धारणाएँ हैं. इन सबके चलते गुरु घासीदास और उनका सतनाम पंथ पर सम्यक् दृष्टिपात करने की आवश्यकता है.

   बहरहाल  गुरु घासीदास नि:संदेह एक आध्यात्मिक संत हैं. और उन्होनें समाज और धर्म कर्म में परिव्याप्त बुराइयों को दूर करने हेतु अनेक तरह के सुधार और रचनात्मक कार्य निष्पादित किए.
    सतनाम आंदोलन नहीं बल्कि सतनामियो का आंदोलन हैं जिसके प्रणेता गुरु घासीदास के सुपुत्र राजा गुरु बालक दास हैं. गुरु घासीदास ने आजीवन मनुष्य को बेहतर बनने  उपदेश दिए और निरंतर अपने मतो सिद्धांतों के प्रचार प्रसार और लोगों को जोड़ने हेतु दूर दूर तक यात्राएँ की.
वे सतनाम पंथ चलाए यह एक सरल सहज जीवन शैली है जो एक व्यक्ति को किसी दूसरे व्यक्ति और समाज के साथ कैसे समानता पूर्वक व्यवहार करें की नैतिक सीख है. ऐसा कर भी अपने जीवन स्तर और आर्थिक स्तर को भी  सुधारा जा सकता है.
गुरु घासीदास  राजनैतिक सत्ता पद प्रतिष्ठा के लिए ना ही कोई आंदोलन किए और ना ही वे इस तरह के  आंदोलनकारी या  क्रांतिकारी थे. बल्कि  वे बुद्ध कबीर की तरह तत्व वेत्ता दार्शनिक और पंथ  प्रवर्तक है. वे लोगों के हृदय में राज़ करते है इस कारण सदैव प्रासंगिक.  उनका किसी राज्य के प्रजा के ऊपर राज्य नहीं न ही धन संपदा वाली ऐश्वर्य  . इस तथ्य को भली भाँति लोगों को समझना चाहिये.
    गुरु घासीदास तो बुद्ध के तरह ही आर्थिक संपदा अर्जित करने के बाद मोती महल गुरुद्वारा और कई गाँवों की मिल्कियत को देख समझ कर उन सब का परित्याग कर एकान्त वासी हो अज्ञात स्थल पर चलें गये ( धारणा है कि वे तपोभूमि गीरौद् पुरी के सुरम्य वन प्रान्तर और छाता पहड में रहने लगे ) यह बातें उन्हें महान तपसी त्यागी संत और गुरु जैसे विशेषण से युक्त महापुरुष  बनाते  है.
      तो यह बातें स्वमेव सिद्ध हैं कि सतनाम अन्य धर्म मत पंथ से बिल्कुल अलग  समानता पर आधारित प्रथम जाति विहीन समुदाय का पंथ या धर्म हैं. इनके अनुयायी सतनामी  हैं और इन्ही सतनामियो का आंदोलन समाज में अपनी अस्मिता और वजूद को कायम करने हेतु  राजा गुरु बालक दास के नेतृत्व में हुआ. जो आज भी समय समय पर हक अधिकार के लिए या दमन शोषण के प्रतिरोध में यदा कदा स्थानीय स्तर पर होते हैं. इनके केन्द्र में गुरु घासीदास जी का सतनाम दर्शन और उनके उन्नत विचारधारा हैं. जों आने वाले समय में मानव समाज के लिए  अत्यंत उपयोगी और अनिवार्य होंगी.

.   डॉ अनिल भतपहरी / 9617777514
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Sunday, December 8, 2024

दीरखा

#anilbhatpahari 

।।दीरखा ,पठेरा और भुलकी ।।
       
    छत्तीसगढ़ सहित देश भर के ग्रामों  के अधिकांश घरों की दीवारों पर  दीरखा,पठेरा  और भुलकी पाए जाते हैं। इसे  बनाने की विशिष्ट परंपराएँ हैं क्योकिं इनके माध्यम से मानव सहजतापूर्वक  अपनी जीवन यात्रा निर्बाध रुप से करते हुए ,इस मुकाम तक पहुँचा हैं। 
आज भी ग्राम्य अंचलों के घरों पर यह सब देखने मिलता हैं। हमारे लिए यह सब बेहद महत्वपूर्ण हैं। 
      दीरखा का आशय दीया रखने का जगह जो त्रिभुजाकार  मंदिर आकार के होते हैं। इसमें  दीपक,चिमनी ढिबरी आदि जलाकर रखते हैं। ज्यामितीय आकृति होने से हवा के झोंके दीया को बुझा नहीं पाते और अर्निहिश जलते हुए अँधेरे में निरंतर प्रकाश देते रहते हैं।
पठेरा चौकोन आलमारी नुमा बनाए जाते हैं। लकड़ी का पल्ला या पत्थर लगाकर दो या तीन खंडों में विभाजित रहते हैं। इन खंडों में रोज इस्तेमाल  की जाने वाली वस्तुएँ  यथा  दवाइयां , आइना कंघी , कागज पत्र ,  छतरी,  लाइटर ,थैले इत्यादि  रखते  हैं। 
    
   इसी तरह रसोई घर या घर के आँगन के दीवार पर एक छोटी सी  खिड़की जिसे "भुलकी " कहे जाते हैं बनाएं जाते हैं। इनका प्रयोग महिलाएं प्रायः एक- दूसरे से आग या साग मांगने के लिए प्रयोग करती हैं।  दो घरों में  परस्पर सहयोग करते आत्मीयता को बनाए रखने का अप्रतिम उदाहरण यह भुलकी हैं। जहाँ सुख - दु:ख की बातें महिलाएँ करती हैं। घर परिवार के सदस्यों  में जो तनाव और अनबोलना पन होते हैं। यही भुलकी उसे दूर करने का काम भी करती है। पर आजकल यह सब विलुप्तप्राय:  हो गये हैं। 

 बहरहाल एक ददरिया गीत में इनकी महत्ता का उल्लेख दर्शनीय हैं -

कांदी ल लुए संग म लुवागे  फुलकी 
आगी ल अमरबे तय घर के भुलकी ( स्त्रोत- डॉ. पीसीलाल यादव )

     प्राचीन  स्थापत्य के अवशेषों में भी दीरखा, पठेरा और भुलकी देखे जा सकते हैं।
 नदी किनारे के ग्रामों के घरों पर यह दीरखा पठेरा बाढ़ से बचने और घरों में भरे पानी निकासी का भी एक प्रमुख साधन होते हैं।हमारे गाँव जुनवानी  ( प्राचीन बौद्ध नगरी सिरपुर के समीप महानदी तट  ) के घर जो पत्थर से निर्मित 200 -250 वर्ष पुरानी हैं,में ऐसा दीरखा बना हुआ हैं। 
    दीरखा मतलब दीया रखने का जगह ।
     गाँव में 3-4 सौ वर्ष पुराने पत्थर के घर हैं उसमें भी इस तरह के दीरखा हैं। 

चित्र- नालंदा बिहार प्राचीन बौद्ध स्मारक में प्राप्त पुरावशेष का दीरखा / ताखा 
      - डॉ. अनिल भतपहरी/ 9617777514

Saturday, November 23, 2024

हिमालय

#anilbhatpahari 

हिमालय 

संसार का वैभव  त्याग कर लोग हिमालय की ओर प्रस्थान करते रहे हैं। कहते है कि वहां देव निवास करते है इसलिए तो हिमालय परिक्षेत्र को देवभूमि की संज्ञा दी गई हैं। 
  कुछ संकट आया , वय ढला  और सर के बाल सफेद हुये नहीं कि लोग कैलाश ٫त्रिशुल٫ नंदादेवी के शिखर दर्शन के लिए उद्दत हो जाते हैं।तो कुछेक अमरनाथ , बद्रीनाथ गंगोत्री, हरिद्वार की ओर प्रस्थान करते है कि गोया वहां जाने मात्र से मुक्ति मिलेगी या  दर्शन मात्र से मोक्ष या निर्वाण मिल जाएगा ! मानसरोवर को बुद्ध की मानिंद हस्तगत या हड़पकर  चाइना  "बुद्धम शरंणम गच्छामि" का उद्धोष कर रहा है या  उनके आंऊ माऊ चाऊ हम जैसों के भेजे मे समाते नहीं क्या?भले धर्मशाला खोलकर हम मैनपाट तक शरणागतों को आश्रय देकर धर्मप्रिय महादेश के "धर्मात्मा "बने हुये हैं।
 तो भैये कह रहे थे कि वहां तो अनेक साधु ,तपस्वी , संत मठ ,मंदिर ,आश्रम  दिखते भी हैं। जहां मोक्ष निर्वाण का कारोबर चलता हैं । वहा पर परमानंद -आत्मानंद की अकथ कथा का प्रवाह भी शिलाखंडों व हिमखंडों को‌ चकनाचूर कर आगे प्रयाण करते कल कल निनाद करते  रहे हैं।
   पर सच तो यह है कि  हिमालय की ओर आजकल  युवाओं का ज्यादा आकर्षण बढ रहा  हैं। वहां बड़ी तेजी से होटल, रिसार्ट, होम स्टे ,रेस्त्रां ,पब और विविध मौज मस्ती के लिए पर्यटन  के नाम पर मनोरंजन उद्योग  के केन्द्र स्थापित होने लगे हैं। पैराग्लाडिंग, ट्रेकिंग  ,रीवर राफ्टिंग, जीप लेने जैसे साहसिक कारनामें यदि जीवन संघर्ष में काम आये तो किसी  हठयोगी की तप साधना के प्रतिफल से कमतर नही समझना चाहिये। हमें योगी नही सस्टनेबल भोगी चाहिये तो वसुंधरा के वैभव को चक्रवर्ती सम्राट की तरह भोग सके।
     हिमालय व देवभूमि  दर्शन  वैराग्य भाव को जागृत करते थे अब राग ,रति ,रंग हिमालय ही जगा रहे हैं। राग -वैराग्य का अनुठा समन्वय वहां द्रष्टव्य हैं। हमलोग हिमालयन व्यु पांइट को अब इंडिया का स्वीट्जरलैंड कह महाआनंद में निमग्न हो जाते हैं। सच कहे तो आसपास बार व बार बलाएं हो, तो इंद्रलोक को पछाड़ दे और गर फिरदौंस ... जमी अस्त कहके उस जहांगिर को चुनौति दे कि केवल कश्मीर ही नही रोहतांग से लेकर नाथुला तक जगह -जगह पर ज़न्नत ईज़ाद कर लिए गये हैं। अब बहत्तर ही क्यों पचहत्तर सैसत्तर हुरें सुबह ए शाम मौज़ूद हैं।
  जहां  संन्यास  की दीक्षा ली जाती थी अब उसी भूमि व पावन स्थल में सुहागरात मनाकर गृहस्थ की शुभारंभ करने  लगे हैं।  यही बदलाव है भाया-" अब नइ सहिबो बदल के रहिबो ।"  पांडव लोग महाभारत युद्ध जीत कर विजय के प्रमाद मदमस्त स्वर्गरोहण करने या कहे   मरने हिमालय  गये अब भी कथित विजेताओं द्वारा यह किये  जाते है पर अब जीवन की शुरुआत करने जा रहे हैं।उनका तो स्वागत सत्कार होना चाहिये न कि ... 

     बहरहाल  आइये हिमालय  दर्शन कीजिए और प्रकृति की प्रेम में निमग्न हो परमानंद में खो जाए ...और स्वामी अनिलानंद की भजन में डूब जाय -

कोई काहु में मगन कोई काहु में मगन 
मिटे सारे भ्रम हो प्रसन्न अन्तर्मन 
कोई गाये भजन कोई करे रमन ...

बाकी अंतरा कभी बाद में ...

"अगर बर्दास्त करो तो"  हमारे नये आकार ले रहे कथेतर संग्रह से

Tuesday, November 19, 2024

बरजोरी


#anilbhattcg

संसो सचरत हे

मुनगा  सेमी के गोठ बात
सुनिस अनिल आधा रात
चढ़े हस तय हर मोर ऊपर
सबके नज़र हर तोर ऊपर

अई तय कइसे गुठियाथस
सहारा देंव कह अटियाथस
जानत हव तोर डारा हे रटहा
रहिथस ठोस हँव के भोरहा

कहाँ के लमेरा पतरेंगी मुड़ चढ़े
बने हरियाये छछले अउ गहिदें
चारों मुड़ा ले लपेट मुस्की बांधे
फूल फर धरिस तहा मुंह ल ऐठे

कइसे येमन होवत हे झगरा
उलचत एक दूसर बर अंगरा
घर गृहस्थी ल बड़ जरोवत हे
माया पिरीत ल नंगत सरोवत हे

सुग्घर  संघरा लपटाय राहय
चार दिन के जिनगी ल पहाय 
जात धर्म अलग त काके पियार
एक रुख त  एक हर नार बियार

ऊपर ले ये राजनीति के करंजन
लीगरी लगा के रचे हे बड़ अल्हन
इकर रीत नीत  अउ प्रवृति अलग
रंग रुप चाल ढाल संस्कृति अलग

ये जोजवा भोकवा ओ चलवंतीन 

कलर कइया माते इकर रातदिन 

हरके बरजे माने नहीं करें सीना जोरी ज

इसे बसुन्दरा मन के चले बर जोरी 

भले साग मे एमन संघरा मीठाय
फेर दुनों के संग चिटको नई सुहाय
मनखे कस जात धर्म बर जबर बैर बांधे
इंकर झगरा सुन देख मन मोर कौव्वाथे

फेर संसो हर चारों कोती ले सचरत हे
मनखे के पय हर रुख राई मे बगरत हे
कइसे खेत खार बारी बखरी ल उजारत हे
ढीलाय गोल्लर मन खुरखूंद इन ला चरत हे

. _ डॉ अनिल भतपहरी, 9617777514

रचना 19- 20 नव 24 रात्रि 12 बजे से 1 बजे के मध्य अमली डीह रायपुर

Sunday, November 17, 2024

अनु जाति जनजाति की स्थति

छत्तीसगढ़ के अनुसूचितजाति एवं अनुसूचित जनजाति की स्थिति 

    छत्तीसगढ़  वनाच्छादित रत्नगर्भा और धान कटोरा से विभूषित शस्य श्यामला भूमि हैं. इनका पृथक अस्तित्व प्राचीन काल मे रहा हैं. मराठा और ब्रिटिश कलखंड में यह सी पी एंड बरार के रुप मे जाने गए और ज़ब आजादी मिली तो  मध्यप्रदेश हिंदी राज्य के अधीन हो गए.इस तरह पूर्व मे मराठा और बाद मे मप्र,उत्तर भारतीयों के सांस्कृतिक और भाषाई उपनिवेश मे जाने अनजाने जकड़ते गए. विराट भूखंड और जनजीवन के भाषा धर्म कला सांस्कृति  आदि तत्वों की उपेक्षा होती गई.  फलस्वरूप शिक्षा समझ बढ़ने से धीरे धीरे पृथक छत्तीसगढ़ के लिए महौल बना और 1 नवम्बर 2000 को छत्तीसगढ़ राज्य अतित्व में आई. 
    यहाँ 32+15 = 47% जनता अनु जाति /जनजाति का हैं. और इतनी बड़ी आबादी की  विकास एवं उनकी धर्म कला भाषा एवं संस्कृति  के  उत्थान लिए कोई सार्थक पहल विगत 24 वर्षों मे दिखाई नहीं पड़ता.

अनु जाति वर्ग मे सतनामी को छोड़कर शेष जातियां हिन्दू धर्म के अभिन्न अंग हैं और अनेक कुलदेवी देवता उपासक हैं. हिन्दुओं के सार्वजनिक धार्मिक आयोजनों मे उनकी भागीदारी अनिवार्य हैं. 
    सतनामी समाज मे किसी तरह की कट्टरताये नहीं हैं.एक तरह से यह समुदाय सबको सम्मान देता हैं.क्योंकि इस पंथ में अधिकतर जातियाँ हिन्दू धर्म से निकल कर जाति विहीन समुदाय के रुप विकसित हुआ हैं. इसलिए इनकी अपनी कोई पृथक धार्मिक पहचान नहीं हैं. हालांकि ब्रिटिश दस्तावेजों मे स्वतंत्र रिलीजन के रुप मे चिन्हकित की गई थी. पर आजादी के आंदोलन के समय हिन्दू सतनामी महासभा गठित साझा संघर्ष किये. आजादी तो मिली परन्तु अस्तित्व विलीन सा हो गए.विगत 40 वर्षो से इनमें कुछेक संस्थान और प्रबुद्ध जन पृथक  धर्म के लिए संघर्षरत हैं.
    जनजातियों मे ईसाई धर्म अपना लिए समुदाय को छोड़कर प्रायः सभी देव देवी उपासक हैं और इस तरह हिन्दू धर्म के ही अधीन हैं. शिक्षा से आई जागृति के कारण कुछ दशकों से पढ़े लिखें वर्ग सरना और गोंडी धर्म के लिए संघर्षरत हैं.

  अनु जाति /जनजाति को एक विभाग बनाकर यहाँ 16% अनु जाति को प्रायः आजादी के बाद से अनदेखा करते आ रहें .जबकि दोनों संवर्ग अलग अलग संस्कृति प्रवृत्ति के है. सुदूर वानंचलो के रहवासी होने से जनजातीय समुदाय के प्रति सहानुभूति और अनुजाति समुदाय जो मैदानी गाँवो / शहरों के सहवासी होने से प्रायःप्रतिद्वन्दविता झलकते हैं.

हमलोग अध्ययन काल से ही दोनों विभाग को अलग करने की मांग करते आ रहें हैं. ताकि अनु जाति वर्ग का भी अपेक्षित विकास हो पर सुने कौन?खैर अब जाकर अनु जाति प्राधिकारण का गठन हुआ है देखे आगे इनकी धर्म कला संस्कृति के साथ साथ अपेक्षित विकास क्या होगा?

Wednesday, November 13, 2024

बांध के सुनता

#anilbhatpahari 

।।बांध के सुंता ।।

इंहा  मनखे मन के 
कब  मान रहिस 
जुन्ना समे म तको 
असनेच हाल रहिस 
सिधवा मन बोकराच  
कस हलाल रहिस 
अउ चतुरा मन के 
जम्मा  माल रहिस 
जब तक तुमन  
एकमई हो जुरियाहूं नही 
अउ अपन चीज- बस  ल
बनेच पोटारहूं नही 
तब तक तुंहर गांजे खरही
 रोजेच उजरतेच  रही 
तिड़ी-बीड़ी होय मनखे मन 
 दाना अना बर लुलवातेच  रही 
 जात-पात म बाट के 
उन मन  राजेच करही 
कतको जुग बीत जय  
तभो ले अंधियारेच रही
पढव लिखव बनेच अउ 
मिल के सजोर होवव 
हक -अधिकार बर  
सब बंहजोर होवव 
अपन बोली भाखा अउ  
अस्मिता ल जतनव 
पुरखा के असीस मिलही 
थोकिन तो बात  परखव 
तुंहर जमीन तुंहर जंगल 
तुंहरेच हे  नंदी -पहाड़ 
बसुंदरा मन चगल लिन  
तुंहरेच खेती अउ खार 
कहां के सतजुग कहां के त्रेता 
द्वापर के दंश सुन लागे फदित्ता 
कलजुग के गोठ सुन सुन सिठ्ठा 
सिरतोन ये कि ,ये सब हांसी ठठ्ठा ?
तभो ले तुम हव कइसन 
एसन म बिकट मगन 
परलोक सुधारे बर करथव 
जबर भजन कीर्तन 
इहलोक बिगाडे के ये 
कइसन अलकरहा जतन 
भुखन ल देथव दुत्कार 
 अउ पथरा बर भोजन छप्पन 
फंसे हव अभीच ले 
पाप-पुन के  चक्कर म 
उन मन आके रपोट लिन 
सब के बारी बख्खर ल
सब जागव  सब डहन 
अउ खरतर खरबान धरव 
सडयंत्र के पर्दाफास बर
अब तो  सावधान रहव 
नवा साल म करव नवा परन 
परे झन रहव अरन -बरन 
चूर मंद-मांस म मेला-मड़ई 
यहा तरा देव-धामी के रीत मनई 
बांध के सुंता थोरकिन तो 
करमकांड ल कमतिया लव  
अवघट परे विकास के रद्दा ल 
अब तो बनेच  चतवार लव ...

   डा. अनिल भतपहरी / 9617777514 
सतश्री ऊंजियार सदन अमलीडीह, रायपुर

Sunday, November 10, 2024

एक थे ही कब

#anilbhattcg 

एक थे ही कब कि  बटेंगे 
डर क्यूँ फैला रहें कि कटेंगे

दम नहीं किसी में जो काट सकें 
बटे हुए को कोई और बाट सकें 

करना हैं गर एक तो वर्ण जात पात मिटाओं 
इसके जनक ऋचा श्लोक वेद ग्रन्थ से हटाओं

Saturday, November 9, 2024

सतनाम जपइया

सतनाम सुमरईया हवय ग़ मोर गुरु 
मोर बाबा संगी मोर गुरु 
मोर गुरु संतों मोर बाबा 
सतनाम जपोइया हावे ग मोर बाबा ....

औरा धौरा  के उड़त शोर 
तेंदू के तीर में छागे अंजोर 
गिरौदपुरी के रहैया गा मोर 

गुरु बाबा के बानी महान 
मनखे मनखे एक सामान 
सत मारग के बताइया गा मोर बाबा

सादा खानी बानी सादा विचार 
सत ईमान सबके जीवनाधार
डग डग के रद्दा देखइया ग मोर गुरु 

सब जीनस ले सतनाम सार 
गुरु के महिमा सब ले आपार 
भव सागर पार करैया गा मोर गुरु...

Thursday, November 7, 2024

सतनाम संस्कृति में योग

"सतनाम संस्कृति मे योग"
  गुरु घासीदास प्रवर्तित सतनाम संस्कृति मे योग एक अभिन्न अंग है।या युं कहे कि अनुयायी और  साधक सहज कर्म योग मे प्रवृत्त रहते हैं।
सतनाम सुमरन, ध्यान और समाधि यहाँ विशिष्ट संस्कृति है। बाह्याचार कर्मकांड आदि यहां निषिद्ध हैं। 
   गुरु घासीदास के पूर्वज मेदनीराय गोसाई संत प्रवृत्ति के थे,वे गिरौदपुरी परिक्षेत्र मे ख्याति नाम नाड़ी वैद्य रहे।मानव के साथ- साथ  अवाक पशुओं के चिकित्सा कर उनकी दु:ख और  पीड़ा का शमन करते थे।वे अपना  नित्य कर्म सतनाम सुमरन और सहज ध्यान योग से आरंभ करके  कर्मयोग मे निरत  हो जाया करते थे। 
   मेदनीदास /महगूदास के यहाँ अनेक सिद्ध साधु महात्माओ का  निरन्तर आगमन होते रहते और मानव कल्याण के साथ+ साथ जीवन के मुक्ति के संदर्भ मे साधु संगत समय- समय पर होते रहते थे।
  बाल्यावस्था में ही शिशु घासी को  विरासत से मानव और पशुओ की पीडा दु:ख का शमन करने की कला कौशल मिल गये थे। साधु महात्‍माओ के दर्शन व सत्संग से भी उन्हे अनेक तरह के  सद्ज्ञान मिला। अनेक सहजयानी ब्रजयानी  के साथ साथ गोरख पंथी साधुओं  का सानिध्य मिलते रहे हैं।
   जन्म के तत्छण बाद एक साधु का नवजात शिशु का दर्शन करने आना और बालक को गोद में लेकर आंगन मे नाचना तथा उनके चरणों मे शिश नवाना और एक विलक्षण बालक के शुभागमन का अप्रतिम संदेश देना द्रष्ट्व्य  है-
 आये जोगी द्वार मे एक साधु आये द्वार मे।
बालक रुप देख मोहाए आये साधु द्वार मे 
चरण म माथा टेकाए आये  साधु द्वार मे।

 ( संदर्भ सतनाम संकीर्तन पृष्ठ ७)
      धीर गंभीर संत प्रवृत्ति  उनके बाल चरित में अनायश  झलकता है।इसका रोचक व मुग्धकारी वर्णन द्रष्ट्वय है- 
   
  दिन दिन बढे अंगना गली खोर खेलय 
एक समय के बाते ये न 
खेलय गुल्ली डंडा
परगे गांव म डंका 
मरे चिरई ल करदिन चंगा ...(सं वही पृ १०)
 इस तरह देखे तो पशु पक्षी  के प्रति प्रेम और उनके धायल अवस्था मे उपचार कर नव जीवन देना महत्वपूर्ण है।
इसी तरह गन्ने की बाड़ी  में सर्पदंश से पीड़ित बालसखा   बुधारु का उपचार से विशिष्ट ख्याति फैलने लगते है- 
बाल पन म महिमा देखाए
 चिरई अउ बुधरु ल जियाये
(सं सतनाम सरित प्रवाह )
 
   किशोरावस्था के बाद नवयुवक घासी द्वारा एकान्त में ध्यान चिन्तन करना और कुछ असमान्य सा कार्य  जैसे बलि हेतु ले जा रहे " बकरा " अनुनय विनय कर के लोगों से मुक्त करना और स्वत: हल चलाकर अंधविश्वास का दमन करना ,गरियार बैल को प्रेम से सहलाकर  अधर नागर चलाना जैसे  अप्रतिम कार्य रहा है।यह सब कार्य एक विशिष्ट सुक्ष्म  शक्ति से संचालित हुआ। जिसे हम कह सकते है कि गुरु बाबा को विरासत से मिले ज्ञान की संवेदना से  यह शक्ति  उन्हे  मिला जिसे वे अपनी  ध्यान व यौगिक क्रियाओ से  विशिष्ट रुप दिया  । उनके द्वारा किया गया अनेक कार्यों को जनमानस चमत्कार समझने लगा ।
    कुछ कह सकते है कि एकाएक उसने यह सब कैसे अर्जित किया? इनका सहज सा उत्तर कि वह एक अज्ञात  साधु जो उन्हे बाल अवस्था मे पाकर आंगन मे नाचे और उनके चरण छुए ।तो यही उन्हे  स्पर्श या रैकी योग से आध्यात्मिक शक्ति जो साधारण जनमानस को समझ न आए इसलिए   रहस्य है ।नही दिखने के कारण अलौकिक है ।चमत्कार सा लगने लगे।
     गांव के ग्रामीण जन्य  घासी को जदुहा होने और तंत्र साधना करने वाले हठयोगी होने की बाते कहने लगे।  धुन के पक्का  किशोर घासीदास कही वैराग्य आदि लेकर साधु जोगी न बन जाय इसलिए उनका विवाह एक सुन्दर कन्या सफूरा से कर दी गई।

   पर सफूरा संयोग से  विलक्षण सहज योग साधिका रही ‌।वे इस  क्रिया को  अपने पिता महंत अंजोरदास या सिरपुर जो बौद्ध नगरी रही के किसी साधक वाशिंदे  से अर्जित की हुई थी। दोनो का  संयोग भी विलक्षण थे- 

सिरपुर नगर के मंहत रहय 
 नाम्ही अंजोरदास ग 
ओकर सुघ्घरर कइना रहय 
नाव सफुरा ताय ग 
उज्जर उज्जर रुप ओकर 
जइसे फूल कांस ग 
ये दे शोभा बरन नही जाय ग ...

(सतनाम संकीर्तन पृ १३ )

  विवाहोपरान्त सहज और कर्म  योग चलते रहा । पर इस बीच अनहोनी हुआ । उनके ७ वर्ष के ज्येष्ठ पुत्र अम्मरदास का खो जाना दु:ख का सबब बना ।कहते है उस विलक्षण बालक को किसी साधु ने योग सिद्धी की दीक्षा हेतु अपने  साथ वन ले गये।
    वे मन शान्ति प्रयोजनार्थ तीर्थ यात्रियों के जत्थे मे सम्मलित होकर जगन्नाथ पुरी  प्रयाण किए ।इस दरम्यान उन्हे साधु संगत मिला और अनेक पाखन्ड कुरीतियों से रुबरु हुए  - 
धरिन रद्दा जगन्नाथ के गजब सुनिस बड़ाई।
दीन दु:खिया दु:ख देखिस अउ पंडा के लुटाई ।।
कपड़ा रंगाये मिले गोरख मुनी, बइठिन उकर पास।
सुनिन परवचन  मुनि के फेर  पुरा नइ होइस आस
रंगहा कपड़ाफेर मन न इ रंगे 
    वे वापस अपने गृह ग्राम गिरौद आने का विचार कर लौट पड़े -
देखे लहुटत चंद्रसेनी म बलि छैदत्ता पाड़ा।
मन बिचलित हालाकान जीव हिंसा गाड़ा- गाड़ा  
देख बबा के मन भिरंगे तीरथ मे शांति न इ पाए ....
माघ पुन्नी के पुनवास म  सतनाम उच्चारे .....वही पृ १७
   अब वह आत्मज्ञान  और अनेक तरह के रहस्य को समझने सहज योग के स्थान पर हठ योग साधने का मन बना लिये  और कठोर अग्नि तपस्या मे लीन हो 6माह तक कठोर साधना सोनाखान जंगल मे करने चले गये। वहां स्थित रम्य स्थल  छाता पहाड मे  अग्नि धूनि  समाधि   द्वारा ध्यान- समाधि‌ मे लीन हो गये।

      इस दरम्यान पुत्र संताप और पति वियोग से सफुरा अवचेतन अवस्था मे घर पर ही  भाव समाधि ले ली।और उधर घासीदास कठोर  हठ योग अग्नि समाधि  मे प्रवृत्त हुये।
 कुण्डली जागरण और अनेक तरह के अपरा ज्ञान  से अभिभूत घासी को अहसास हुआ कि अब घर जाया जाए। क्योकि कुछ न कुछ अप्रिय घटना घट ग ई हैं।
   जब पता चला कि सफूरा के सामाधिस्थ देह को देहान्त हो गये समझ लोग  दफना दिए गये है।तो वह मानने तैय्यार नही हुये कि उनकी कैसी मृत्यु होगी? वह भावलीन समाधि मे सिद्धहस्त है ।उसने लोगो को कहा कि चलो दफन किये देह को निकाले ....

गांव वाले मन ल कहय घासीदास 
कोड़ के निकालव चलव सफूरा के लाश ...

  ( हंसा अकेला सतनाम संकीर्तन )

 कब्र से एक दिन पूर्व का  साबुत देह निकालते है उसे अमृत जल देकर जागरण करते है।बात बिजली की करेन्ट की भांति सर्वत्र फैल ग ई ।हजारो की उपस्थिति मे माता सफुरा को उनकी समाधि से मुक्त करवाकर चेतना सम्पन्न किए। नवजीवन दिये इस प्रसंग को देखे-

ब्रंम्हाड मे सांस चढा के  करे गुरु योगासन 
जोति समागे लाश म करे नर-नारी  दरसन 
सतनाम सुमर के बबा देवय अमृतपानी...
    
( हंसा अकेला सतनाम संकीर्तन )

इस तरह उनकी ख्याति सर्वत्र  फैल ग ई ।गुरु भी अपनी विशिष्ट ज्ञान कला कौशल को  सहज योग से सदैव साधते रहे  ‌। औंरा -धौंरा तेन्दु वृक्ष के नीचे उनका ध्यान योग समाधि चलते और धुनि जलाते भीषण वन प्रांतर  मे साधनारत रहते। दूर दूर से दर्शनार्थी व पीड़ित जन आते उनकी कृपा पाते और खुश होकर बांस की पोंगरियों में अमृत कुंड से अमृत जल ले जाते और धार्मिक कार्यों का निष्पादन करते रहे।
 एक दिन आपार भीड़ के  समक्ष  सतनाम पंथ का सिद्धान्त और उपदेश तथा लोकाचार व सहज योग को व्यवहृत करने सात्विक जीवन व सत्य को सदैव अपने अन्त:करण मे धारण और व्यवहार करने की उपदेशना देते सतनाम धर्म ( पंथ )  का प्रवर्तन किया।
    नित्य प्रात:और संध्या  सूर्योपासना करते सात्विक जीवन यापन करना और सतनाम धुनि मे निमग्न कर्मयोग ही सतनाम का आधार है।हर अच्छाईयों का  समन्वय सतनाम मे सन्निहित है।पंचाक्षर " सतनाम "का नित्य सुमरन स्नान सूर्योपासना और ध्यान कर कर्म में लीन अभाव के मध्य जीना है।  जितना संसाधन हैं ,सामर्थ्य हैं  उतने में ही संतुष्ट और  सुखमय जीवन ही सतनाम का मरम और धरम हैं । 
  गुरु घासीदास के साधना अवस्था मे पद्मासन मुद्रा और  उनके उपदेश देते अभय मुद्रा तथा सर्व मंगल की कामना करते अर्ध निमिलित नयन ध्यान मुद्रा की चित्र अत्यन्त लोकप्रिय है। यह सभी तथ्य उनके  "महायोगी " होने का साक्ष्य  है। जिसने संसार मे मानव के दु:ख के निदान बताये । उनके द्वारा 7 सिद्धांत असंख्य उपदेश 42 अमृतवाणी 27  मुक्तक हैं। 
     अनेक सुन्दर भावप्रवण पंथी गीत, मंगलभजन व सामूहिक प्रदर्शन हेतु पंथी नृत्य जिसे देख सुन कर तन- मन वचन पवित्र होते है।दु:ख का तिरोभाव हो जाते हैं और अन्त:करण मे आनंद समाते है।
  इनके लिए वे गुरु,  संत- महंत ,भंडारी ,साटीदार जैसे धार्मिक पद सृजित किए।जो समाजिक व  धार्मिक कार्यों का निष्पादन करते हैं। कुछ साधक संत   अध्यात्म की परिचालन करते  "सतनाम दर्शन"  को व्यवहारिक स्वरुप देते है। जमीन के नीचे ढाई, तीन ,पांच और सप्त दिन की विशिष्ट भू समाधि आज भी सतनामियों मे प्रचलित हैं ।इसके सैकड़ों साधक वर्तमान मे है।इसी तरह जल समाधि ,अग्नि समाधि और सहज  समाधि प्रचलित है।गुरु वंशज गुरु मुक्ति साहेब जल समाधि मे प्रवीण है जो गुरुद्वारा खपरी धाम  सरोवर मे प्रति सोमवार संध्या जल समाधि लेते है हजारों श्रद्धालु एकत्र हो दर्शन लाभ लेते है।
   गुरु घासीदास के सम्मान व उनके समकक्ष  न होने के लिए "अग्नि समाधि " अब तक कोई नही लिए है।सहज समाधि हर किसी के लिए है और इसे लाखों लोग क्रिन्यान्वित व लाभान्वित होते  आ रहे है।
    जहा दु:ख है वहाँ  सतनाम नही  बल्कि  दु:खो के बीच ही सुख भाव मे रहकर सद्कर्म करते दु:ख का निदान ही सतनाम का प्रयोजन है।इस तरह देखे तो जन्म और सुखमय  जीवन का उपाय सतनाम मे हैं। यह उपाय या युक्ति ही  सहज योग है।   
   सत श्री सतनाम 
   डा- अनिल भतपहरी/ 9617777514
ग्रा जुनवानी  (तेलासी भंडार के समीप ) पो गिधपुरी  था पलारी , जि बलौदाबाजार छत्तीसगढ़

Monday, November 4, 2024

सतनाम जपैया हवे गा

सतनाम सुमरईया हवय ग़ मोर गुरु 
मोर बाबा संगी मोर गुरु 
मोर गुरु संतों मोर बाबा 
सतनाम जपोइया हावे ग मोर बाबा ....

औरा धौरा  के उड़त शोर 
तेंदू के तीर में छागे अंजोर 
गिरौदपुरी के रहैया गा मोर 

गुरु बाबा के बानी महान 
मनखे मनखे एक सामान 
सत मारग के बताइया गा मोर बाबा

सादा खानी बानी सादा विचार 
सत ईमान सबके जीवनाधार
डग डग के रद्दा देखइया ग मोर गुरु 

सब जीनस ले सतनाम सार 
गुरु के महिमा सब ले आपार 
भव सागर पार करैया गा मोर गुरु...

         _डॉ अनिल भतपहरी 

Sunday, October 27, 2024

मत मज़हब पंथ और धर्म

#anilbhattcg 

   ||धर्म और मत मज़हब पंथ ||

धर्म विशुद्ध भारतीय शब्द हैं यह पाली प्राकृत संस्कृत हिंदी में व्यवहृत होते हैं। अंग्रेज़ी या अन्य विदेशी भाषा के शब्द जैसे रिलीजन मज़हब आदि को धर्म का पर्याय नहीं समझना चाहिए। बल्कि रिलीजन मजहब को यहां के मत , पंथ,संप्रदाय के रुप में देखना चाहिए। यह सब नहीं होने और गहराई से विचार नहीं करने के कारण धर्म को ही मत मजहब रिलीजन पंथ आदि समझ लिए गए फलस्वरूप अनेक तरह के भ्रम जनमानस में फैल गए हैं।
अनुयाई और धार्मिक कौन हैं और दोनों का कर्तव्य क्या हैं दोनों की प्रवृत्ति क्या और कैसे हैं इन पर भी विचार विमर्श होने चाहिए। ताकि इस क्षेत्र में जो भ्रम और अनेक तरह प्रवाद प्रलाप फैले हुए हैं, उसका उचित निराकरण हो सके।
    धर्म का वास्तविक अर्थ मर्म में सद्गुणों को धारण कर व्यवहार करना हैं।घृ धातु से उत्पन्न धर्म का अर्थ धारण करना हैं।
अब सवाल होता है कि क्या धारण करना और कहां धारण करना?
सामान्य सा उत्तर हैं _"सत्य प्रेम करुणा परोपकार आदि गुण को मर्म यानि चित्त में धारण करना धर्म हैं। उसी तरह असत्य घृणा क्रुरता अपकर आदि अवगुण को धारण कर व्यवहार करना अधर्म हैं।"
    इस अर्थ में  देखें तो सद्गुण  धर्म और अवगुण अधर्म हैं । सदगुणी व्यक्ति ही धार्मिक हैं और अवगुणी ही अधार्मिक हैं।
    हिन्दू मुस्लिम ईसाई बौद्ध जैन सिख सतनाम क़बीरपंथ आदि धर्म नहीं  बल्कि यह सब  मत मजहब रिलीजन धम्म पंथ हैं। जिसे हम जीवन पद्धति ,प्रणाली या  अपने मत मज़हब पंथ के अनुरुप पूजा,आराधना इबादत आदि के तौर तरीका मात्र हैं। 
    इनके वाहक लोग अनुयाई हैं। अनुयाई सदगुणी या धार्मिक  हो यह जरुरी नहीं। अनेक अनुयाई अपने मतों जीवन पद्धति के प्रति कट्टर, समर्पित प्रचारक  और दूसरे के लिए क्रूर आलोचक दुष्प्रचारक होकर सद्गुणों से रहित हो जाते हैं। तब ऐसे अनुयाइयों को कैसे धार्मिक कहे?
धर्म बिल्कुल ही अलग चीज़ हैं मतों मजहबों पंथों रिलीजनो से उन्हें नहीं जोड़ना चाहिए पर यह कैसी विडंबना हैं कि ग्रंथों, किताबों शासन प्रशासन में मतों मजहबों रिलीजनो को ही धर्म कहे जा रहे हैं।
इस पर हमारे बुद्धिजीवियों विचारकों और प्रज्ञा संपन्न लोगों को पहल करना चाहिए ताकि उचित संशोधन हो और आम लोगों को धर्म का वास्तविक अर्थ समझाना चाहिए। धर्म कैसे इन मतों मजहबों से ऊपर की चीज़ हैं और यह सदैव वैयक्तिक प्रासंगिक और अनुकरणीय हैं। यह बातें भी लोगों को अवगत कराना चाहिए।

       _  डॉ अनिल भतपहरी/ 9617777514

Saturday, October 26, 2024

नवान्न खाने की पर्व नवाखाई देवारी और जेवठन

#anilbhattcg 

नवान्न खाने की पर्व नवाखाई , देवारी और जेवठन 

 कृषि संस्कृति के संवाहक मानव समाज में उनके बसाहट वातावरण और अनेक प्रकार के अन्न पकने के अवसर पर हर्षोल्लास पूर्वक पर्व होते हैं। विभिन्न समुदायों में नवाखाई पर्व अलग अलग समय और तौर तरीके से मनाए जाते हैं। उनमें छत्तीसगढ़ के प्रमुखत: नवान्न खाने का पर्व हैं_ 

 1भादों माह में टीकरा में ऊपजने वाले कोदों कुटकी रागी मंडिया यह लारियांचल में नुवाखाई/ दाल खई 
2   क्वांर माह दसहरा के दिन भाठा के हरहुना धान मोटा किस्म वाले छत्तीसगढ़ के मध्य मैदान में नावा खाई 
3 कार्तिक माह देवारी के खिचड़ी भात  मटासी खार के मध्यम धान सफरी बंगला महामाया स्वर्णा गुरमटियां आदि  मैदानी भाग 
4 कार्तिक एकादशी जेवठन कन्हार खार या बहरा नार वाले माई धान दुबराज, जवाफूल, लोहदी, सिरीकवल आदि।

   हमलोग महानदी तटवर्ती सिरपुर के इर्दगिर्द के लोगों की नवाखाई जेवठन हैं। इस दिन नए दुबराज  या सुगंधित चांवल पीसान के चुकीयां बना देवधामी में दीप प्रज्ज्वलित करते हैं और तसमई या दुध फरा बनाकर परिजनों सहित सामूहिक रुप में जेवनास करते हैं। चीला, पपची, अईरसा लाई सब नए चांवल से बनाए जाते हैं। हमारे घर पशुधन को सुहाई इसी दिन बांधते हैं। इसलिए भट्टप्रहरी परिवार के लिए देवारी से अधिक महत्वपूर्ण पर्व जेवठन हैं। 
     मैं घर का बड़ा लड़का हूं तो मुझे खेतों के बाली के दाने चबाने और दीपावली के अन्य गोत्रज परिजनों के यहां से आए नए चांवल के व्यंजन खाने सख्त मना हैं।
   हमारे लिए नवाखाई जेवठन हैं और इस दिन नवान्न ग्रहण करने  बेसब्री से प्रतीक्षा करते हैं। 

    बहरहाल बाल्यकाल से परिजनों के साथ सामूहिक जेवन से जेवठन तिहार हैं, समझते हैं पर आजकल देवउठन कह देवताओं के नींद से सोकर उठने की बातें भी समझने लगें हैं। थोड़ी सी आश्चर्य और कौतूहल भी होते हैं देवता भी सोते जागते हैं।
    

नोट _ छत्तीसगढ़ गेहूं उत्पादक क्षेत्र नहीं हैं इसलिए उसके लिए कोई पर्व नहीं। जबकि गेंहू उत्पादक राज्यों में बैसाखी आदि फरवरी माह में मनाए जाते हैं। यह समय छत्तीसगढ़ में दलहन तिवरा राहर बटरा मसूर का रहता हैं।

    _ डॉ अनिल भतपहरी/ 9617777514

Thursday, October 10, 2024

। जातपात अंधविश्वास ही क्या धर्म का आधार हैं।।


भारतीय समाज वर्ण जाति गोत्र इत्यादि मे विभक्त हैं। अनेक प्राचीन ग्रंथों में इनका जिक्र हैं।
डोम चमार चांडाल 
जे वर्णधाम तेली कुम्हारा.
स्व पच किरात कोल कलवारा कह जातिगत निंदा भी की गई हैं पर देखिए यही लोग ही ध्वजवाहक हैं।

जाति भास्कर 
जाति रहस्य 
मनुस्मृति 
छुआछूत 
मुलाकरम 
गंगावतरण प्रथम संतान को गंगा में प्रवाहित करना 
सतीप्रथा 
विधवाओ का परित्याग या मथुरा वृंदावन भेजना 
देवदासियां 
रथयात्रा में कुचल कर मरना 
काशी करवट लेना 
नरबलि 
पशुबली 
डोला उतराई 
घोड़ी मे शुद्रो/दलितों को न चढ़ने देना 
गुरुकुल में शिक्षा न देना 
और लार्ड मैकाले के स्कूल शिक्षा लागू होने के पूर्व और उसके बाद भी दशकों तक निरक्षर भारत का होना।

जैसे अनेक कुरीतिया क्या अंग्रेजो का देन हैं?
हर समस्या के लिए अंग्रेज के ऊपर दोष मढ़ना क्या उचित हैं वे नहीं आते तो इस देश का क्या हाल बेहाल रहता? ये जो सिस्टम चल रहा हैं रेल सड़क शिक्षा स्वास्थ्य आदि आधारभूत चीजे हैं हैं उन्ही लोगों के देन हैं। बहुसंख्यक समाज का कुछ भला होते दिख रहा हैं वह भारतीय संविधान के कारण हैं। यह न भूलिए
 कथित दिव्यास्त्रों वाले देश में घोर निरक्षरता मे क्यों साक्षरता अभियान चला ? 
गर्भवती सीता का शक के चलते परित्याग 
महारानी दौपदी को जुवे मे हरना और भरे दरबार एक अबला रजस्वला का चीर हरण करना कौन सी महानता और गर्व करने का प्रसंग हैं? सोचिए जब देवी स्वरूपों की यह निरीह दशा थी तब जन नारियों की कैसी नरकीय दशा रही होगी?
   आज भी शाम 6 के बाद अकेली लडकी घर से बाहर नहीं निकल सकती कौन सा यत्र नार्यस्तु पूज्यते तंत्र रमंते देवता कह दंभ हैं? निर्भया, मणिपुर और डा मैडम का रेप जैसे रोज घटने वाली कुसंस्कृति से भरा अमानवीय बर्बरताये क्या अंग्रेज पोषित हैं कि सामंतवाद अभिजात्य और घृणित जातिवाद जो शास्त्र पोषित हैं का कारनामा हैं?
     केवल आवाज तेज करने चीखने चिल्लाने और चंद एक दो उदाहरण या सुदामा ब्राह्मण के पैर पखारने या किसी नाईन द्वारा महावार लगाने चमारीन के द्वारा नाल कटवाने से समानता नहीं थी न सम्मान था।
     काव्यों की चमत्कारिक कारिक वर्णन को इतिहास न समझे।
देश की अकूत संपदा पर 15% अभिजात्य लोगों का अधिपत्य आरंभ से पूंजीवादी देश राजाओं मालगुजारो जमींदारो आजादी के बाद कथित उच्च वर्गो के नेतृत्व शासन प्रशासन और कलेजियम मीडिया आदि मे इन्ही लोगों का अधिपत्य और 65से 70% ग्रामीण परिश्रमी जनता का शोषण इनपर राज क्या नजर नहीं आते?
दुनिया अंतरिक्ष और ग्रहों तक जा रहे हैं यह नवग्रह शांति पाठ और छल्ले धारण करने और एक दूसरे के घर तक जा नही पा रहे एक दूसरे का छुआ नहीं खा रहे।
दलितों के कितने होटल रेस्तरां है? ग्रामीण कस्बों में किसी दलित शासकीय सेवकों को किराए का घर तक नहीं मिलता।
21 सदी के 25 वे वर्ष तक जात पात धर्म कर्मकांड ढोंग पाखंड चल रहा हैं। कोरोना ने सारे धर्मस्थल के पट बंद कर दिए बावजूद देश मे अस्पताल नहीं बड़ी बड़ी धर्मस्थान बन रहे हैं। चमत्कार ढोंग पाखंड और बाबागिरी बढ़ते जा रहे हैं।
भीषण बेरोजगारी हैं और हम स्व यशगान कर रहे हैं कि स्वान गान कर रहे हैं।
पूरे देश मे जातपात धर्म और भेदभाव प्रतिद्वंदिता बढ़ते जा रहे हैं।
तब ऐसे मे समृद्ध राष्ट्र कैसे बनाएंगे केवल पुरातन पंथी और व्यर्थ पोंगापंथ से काम नहीं चलेगा।

Saturday, October 5, 2024

जातिवाद और कट्टरपंथ से होकर हिंदू राष्ट्र की ओर बढ़ता देश

[10/5, 10:37 AM] Dr Anil Bhatpahari: जातिवाद और कट्टरपंथ से होकर हिंदू राष्ट्र की ओर बढ़ता देश 



वर्तमान दौर सर्वाधिक संक्रमण काल से गुजर रहा है। भले देश में एक दशक से अधिक पूर्ण बहुमत वाली सरकारें हैं लेकिन बहुत तेजी से गैर हिन्दू जानता असुरक्षित महसूस कर रहें हैं।
आज़ादी के बाद भी स्वतंत्रा आंदोलन से जुड़े पार्टी और विचारधारा की सत्ता रही । उस समय विजनरी नेतृत्व थे फलस्वरूप देश के नव निर्माण में आधारभूत औद्योगिक इकाईयों की स्थापना आधुनिक तीर्थ के रुप में हुईं और उन जगहों पर लधु भारत बसते गए जैसे भिलाई,कोरबा, राउरकेला, कोलकाता, मुंबई, चेन्नई, टाटानगर, भोपाल, बोकारो, गुरुगांव ईत्यादि। यहां की कालोनी कल्चर ने मिलीजुली संस्कृति ने राष्ट्रवाद को पोषण किया।  लोगों की जीवनशैली ने समृद्ध भारत की मिशाल पेश भी की।  नगरीकरण में सांस्कृतिक समन्वय भाव था भले वहां ग्रामीण और एक जातिय एक धर्मीय गाँव वाली आत्मीय भाव न रहें हों। 
      
 इस बीच ग्रामीण क्षेत्रों में नगरी और कस्बाई संस्कृति पनपी लोगों की जरुरत पूर्ति हेतु महाजनी संस्कृति ने ग्रामीण अर्थ व्यवस्था को बुरी तरह जकड़ लिऐ। कृषक समुदाय सूदखोर सेठ साहूकार महाजनों के कर्ज तले दब गए उनके उन्मूलन हेतु सहकारिता ग्रामीण बैंक की स्थापना हुई। प्रधानमंत्री इंदिरागंधी ने 20 सूत्रीय कार्यक्रम चलाकर सेठ साहूकार द्वारा चलाए जा रहें देशी बैंकर्स का उन्मूलन किया। फलस्वरूप यहीं तबका अपने अस्तित्व रक्षा हेतु धर्म कर्म के सहारा लेकर नई पार्टी गठित कर अनेक सांस्कृतिक धार्मिक इकाईयां गठित कर संवैधानिक रुप से धर्मनिरपेक्ष देश और समाज को दिग्भ्रमित कर कट्टरवाद और चरमपंथ को बढ़ावा दिया। इन वर्गों के पास देश की अकूत संपदा,शिक्षा व अन्य प्रतिभाएं रही फलस्वरुप असल राष्ट्रवादियों के हाथों से सत्ता फिसलती ,भटकती हुई अंततः इन्ही धार्मिक कट्टरपंथियों के हाथों चली गईं। फलस्वरुप हर तरफ धार्मिक उन्माद और जातिवाद का विकृत रुप दिखाई पड़ने लगी हैं।
ऐसा लगता हैं कि 
भाषण और साहित्य सृजन से जातिवाद कभी खत्म नहीं होगा क्योंकि ऐसा तो बुद्ध से लेकर डा अंबेडकर तक हजारों वर्षो से प्रभावी हस्तक्षेप होते हैं। अंध विश्वास, पाखंड आदि संस्कृति और परंपरा के नाम पर चलाएं जा रहें हैं उनके प्रतिरोध  करने पर राष्ट्र विरोधी घोषित कर दिए जा रहें हैं ।संगठित गिरोहों का आक्रमण और अन्य कार्यवही करने की भय हैं । जातिवाद और वर्णवाद का इनसे पोषण हो रहा हैं। ऐसे में इनके उन्मूलन हेतु कठोर एक्शन लेने वाली राजनैतिक ईच्छा शक्ति वाले कोई दल भी दूर दूर तक दिखाई नही दे रहें हैं। ऐसे में सवाल हैं किस दल और सत्ता पे यह दम हैं कि देश और समाज से जातिवाद और कट्टरपंथ का पूर्णतः उन्मूलन कर सकें? जबकि यह पता हैं कि राष्ट्र रुपी वृक्ष में यही तत्व दीमक हैं। जो भीतर से खोखले करते जा रहें हैं।
     कटु सत्य हैं कि आज़ादी के इतने वर्षों बाद नगर निगमों और सरकारी आफिसों मे सफाई कर्मी के नाम पर भर्ती ब्राह्मण कर्मी से ओबीसी अधिकारी यहां तक दलित अधिकारी तक काम नहीं करा सकते। उनसे अन्य दफ्तरी काम लेते हैं या वें किसी किसी सफ़ाई कामगार जाति को मजदूरी देकर काम करवा लेते हैं।शासन _प्रशासन में घोर अघोषित जात _पात विद्यमान हैं, तो समझिए आम जन जीवन में क्या हालत होगी? कल ही मान सुप्रीम कोर्ट का कहना हैं कि जाति आधारित कामकाज ऑफिस से मंदिर तक चल रहा हैं ऐसे में जातिय उन्मूलन कैसे हो पाएगा?
 वर्तमान में तो धर्म_ कर्म उफान पर हैं हिंदू _मुस्लिम के खेला मे अब ईसाई उद्वेलित हो रहें हैं। मणिपुर तो जल ही रहें हैं,कुकी मैताई का जातिय संघर्ष की चिंगारी बस्तर और सरगुजा तक फैलती जा रहीं हैं।
देश का प्रथम जातिविहीन सतनाम पंथ तो अपनी समानता और कबीर के निर्गुणवाद से आगे अनीश्वरवाद के कारण आरम्भ से ही बहिष्कृत हैं। कुछ पढ़े _लिखें लोग कुछेक दशकों से समझने लगें हैं पर जो ग्रह्यता आज़ादी के पूर्व थी अब लोग भूले भटके प्रेम विवाह या जातिय बहिष्कार के कारण जीवन निर्वाह हेतु ही सतनाम पंथ को अंगीकार कर रहें हैं।
   जैन ,फारसी, वणिक वृति से अर्जित अकूत संपदा को बड़ी धार्मिक स्थल बनाकर शान समझ जनकल्याण से विमुख जान पड़ते हैं और यथास्थितिवाद के ही पोषक हैं। नव बौद्ध दलित हैं और केवल पेटबिकली से उबर नहीं पाए हैं कुछेक संपन्न वर्ग सवर्ण होने की ओर अग्रसर अपने वर्गों से ही दूरी बनाकर रहने मे भला समझते हैं । सिख भोजन भंडारा और मे ही मगन हैं जबकि हरित क्रांति और 1 रुपए चावल से जनमानस भूख से उबर चुके हैं रैदास पंथी  भी परस्पर जात पात,रैगर,जाटव, चमार, महार दुसाध, आदि में बिखरे हैं। अनु जाति और पौनी पसारी से जुड़े श्रमिक जातियां नाई धोबी 
मेहतर गाड़ा घसिया केवट कोस्टा कुम्हार कलार लोहार सोनार आदि अपनी पुश्तैनी पेशा मे मग्न  यथास्थिति के ही पोषक हैं।
   आदिवासी के शिक्षित और युवा वर्ग ईसाई धर्मांतरण के इतर अपनी प्राचीन मान्यताओं के आधार पर गोंडी सरना धर्म की ओर बढ़ रहें हैं । छत्तीसगढ ही नही शैन शैन देश भर में धर्म और जात पात के नाम पर लामबंद हो रहें हैं , कट्टरपंथ बढ़ चूके।बहुसंख्यक  शूद्र (ओबीसी) ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य की युति ही हिंदू हैं जबकि हिन्दू धर्म सूचक शब्द नहीं स्थान बोधक हैं। इसलिए सनातन शब्दों का प्रचलन होने लगे हैं और यह शब्द भी बौद्ध धर्म से आयातित हैं। बहरहाल जैसे तैसे विगत एक दशक देश हिंदू राष्ट्र की ओर राजनैतिक शक्ति अर्जित कर बढ़ रहें हैं वर्तमान सत्तारूढ़ दल और उनके मातृ संस्थान धार्मिक संगठन द्वारा अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण और भव्यतम लोकार्पण हिंदू राष्ट्र के प्रतिकार्थ के जानबूझकर जाने समझें लगने लगे हैं।
अल्पसंख्यकों  के  कट्टरपंथ और उनमें तीक्ष्ण मतभेद ही उन्हें विखंडित कर शक्ति विहीन कर रहें हैं। पास पड़ोस में धर्म आधारित राष्ट्र होने से यहां भी बहुसंख्यक लोग धार्मिक देश बनाने की झांसे में आते जा रहें हैं। 
  जब देश दुनियां धर्म कर्म में लामबंद हैं चर्च मस्जिद मौलाना पादरी में उलझे हैं तब भारत भी मंदिर मूर्ति पंडे पुजारी मे ही उलझा हैं तो कोई भला क्या कर सकता हैं।
   सतनाम पंथी तो  मंगल_ पंथी भजन गायेंगे नाचेंगे ही 
कुछ लेना न देना मगन रहना... 
रहना नहीं देश बिराना हैं...
ये माटी के चोला कै दिन रहिबे बता दे मोला...


डॉ अनिल भतपहरी/ 9617777514
[10/5, 1:32 PM] Dr Anil Bhatpahari:

संपादकीय 
जातिविहीन समुदाय की सरंचना भारतीय समुदाय और संविधान

मज्झिम निकाय के अनुसार तथागत बुद्ध के समय कंबोज यवन क्षेत्र में दो ही वर्ग थे_अमीर और गरीब।यह व्यवस्था नैसर्गिक हैं और सदा रहेगा। कमोबेश मध्य देश दक्षिणापथ में आर्य_अनार्य  से पृथक सत्यवंत लोगों में भी कोई जाति वर्ग व्यव्स्था नहीं थीं और वे लोग सत्य के अनुगामी स्वेत ध्वज वाहक प्रकृति उपासक समुदाय थे।
        पर आर्य अनार्य संघर्ष में सत्यवन्त प्रजाति टीक नहीं पाई और इन दोनों संस्कृति में समाहित हों गई। पर यह बात रेखांकित करने योग्य हैं कि इसी भूमि में हजारों वर्ष के बाद जब जात_ पात, ऊंच _नीच का मकड़ जाल फ़ैला और इंसानियत खतरे में पड़ी तो समानता के लिऐ सतनाम पंथ का उद्भव हुआ।
   यह भारतवर्ष का युगांतरकारी घटना हैं कि " मनखे मनखे एक" जैसे दिव्योक्ति के साथ सतनाम पंथ धर्म होने की ओर अग्रसर हैं।
  भारत में जितने भी धर्म और पंथ हैं वें सभी कहीं न कहीं जाति वर्ग के रुप में विभाजित हैं। आधुनिक शिक्षा और लोकतंत्र गणराज्य हो जानें के बाद हर पांच वर्ष के चुनाव ने लोकतंत्र मजबूत जरुर किया पर वोट बैंक ने धर्म और जात पात को पूर्व के अपेक्षा और अधिक सुदृढ़ की हैं।
कुछेक विचारक मानते हैं कि यह जो दिख रहा हैं वह जातिय नहीं बल्कि वार्गिक चेतना हैं। 6 हजार जातियों में विभक्त विराट हिंदू धर्म के अंतर्गत संविधानिक रुप से समान्य, ओबीसी, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के रुप में चिन्हाकित कर इनके ही हितार्थ योजनाएं चलाई जा रहीं हैं। फलस्वरुप यह वर्ग के अंतर्गत आने वाली जातियां अपने अपने समुदाय में वर्चस्व हेतु पहले से अधिक सचेत और सुदृढ़ होने लगे हैं।
    कुछ माह पूर्व सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी की कि अनुजाति वर्ग में क्रीमी लेयर लाकर अति पिछड़े समुदाय को लाभ दिया जाय जैसे कि ओबीसी वर्ग में हैं। इस पर देश भर में तीखी बहसे हुई और यह बात सामने आई कि यह वर्ग अब भी मुख्यधारा में नहीं हैं न ही समाजिक धार्मिक प्रतिष्ठा में बढ़ोत्तरी हुई तब एक वर्ग के विभिन्न जातियों को ही परस्पर प्रतिद्वंदी बनाना हैं। यह बातें व तथ्य समझी गई और मामला विचाराधीन हुईं हैं पर ख़त्म हुई नहीं।
मान न्यायालय की टिप्पणी पर महीन दृष्टि समाजिक सरोकार से लगाई जा रहीं हैं कि इनका दूरगामी परिणाम और प्रभाव क्या होगा? क्या चार वर्ग फिर से जातियों तक चली जाएगी और देश में जातिय गणना की उठती मांग से क्या दशा निर्मित होंगी इन पर विचार और परिचर्चाये की  जा सकती हैं। यह मामला थमी ही नही कि एक ध्यानाकर्षण टिप्पणी अभी अभी सुप्रीम कोर्ट से आई कि जेल में निरुद्ध अपराधियों के जाति देखकर कार्यों की बटवारा है । यह तो अपराधियों के मामले हैं सोचो जो बाहर विभिन्न शासकीय अशासकीय निगमों मंडलों में  भृत्य ,सफ़ाई कर्मचारी के रुप में उच्च जाति के लोग पदस्थ हैं उन्हें उनके मूल कार्य न लेकर अन्य दफ्तरी कार्य लिऐ जाते हैं। मतलब जन्मना जातिय श्रेष्ठता/ निम्नता बोध का कार्य शासन प्रशासन में चल ही रहा हैं। ऐसे में समानता पर आधारित जातिविहीन सतनाम पंथ की दर्शन और बातें कितना प्रासंगिक हैं, समझें जा सकते हैं।
     बाहर हाल समाज में गुरुगद्दीपुजा महोत्सव क्वार एकम से दशमी तक 10 _7_ 5 दिवसीय आयोजन की धूम मची हुई हैं। भंडारपुरी, तेलासी, खपरी  दशहरा की तैयारी भी जोर शोर हो रहें हैं। गुरुद्वारा के सैकड़ों स्मीपस्थ ग्रामों मे गुरुगद्दी पूजा महोत्सव प्राचीन अनुष्ठान हैं जो अब  सार्वजनिक उत्सव के रुप ग्रहण कर लिए हैं। इसका विस्तार अब सुदूर स्थलों की ओर भी होने लगे यह सुखद हैं। क्योंकि एक स्थान पर  लम्बी अवधि की आयोजन से समाजिक और धार्मिक प्रभाव कायम होते हैं नए पीढ़ी में धर्म और संस्कृति के प्रति आस्था जगते हैं और प्रतिभाओ का विकास होते हैं। विवधतापूर्ण आयोजनों रंगोली चित्रकला भाषण काव्यपाठ मंगल भजन गायन प्रवचन आदि से उन्हें उचित मंच मिलते हैं।
      भंडारपुरी दशहरा मेला पर्व एवम गुरुगद्दी पूजा पर्व की हार्दिक बधाई सहित यह अंक समाज को सादर समर्पित हैं....

  डॉ अनिल भतपहारी/ 9617777514

   संपादक/ सचिव 
 सतनाम साहित्य 
प्रगतिशील सतनामी समाज छत्तीसगढ

Tuesday, October 1, 2024

पटवा

#anilbhattcg 

पटवा 

    कृषको के लिए अत्यंत उपयोगी पटवा का पौधा मुख्यत:  रस्सी बनाने के काम आते हैं। पर इनके कोमल पत्ते की स्वादिष्ट सब्जी बनती हैं और फल की चटनी।
यह दो प्रकार के होते है पटवा और अमारी पटवा 
अमारी पटवा भाजी को खटाई के लिए उपयोग कर अन्य सब्जियों के साथ मिक्स कर चटपटे और स्वादिष्ट तरकरिया बनाई जाती हैं।
 दही मही, इमली की पत्ती कुरमा, आम का चूर्ण अमचूर अमारी, करौंदा आदि खटाई के लिए हमारे दैनदिनी खानपान में सम्मिलित हैं।इससे विटामिन सी सहित अनेक खनिज और पोषण तत्व प्राप्त करते हैं।
       खट्टी और चिपचिपी इसमें धनिया मिर्च लहसुन मिलाकर सील बट्टे से पीसकर चटनी बनाई जाती हैं। इनकी कोमल पत्ते की चने या राहर दाल के सब्जी या केवल सुखी सब्जी बनाई जाती हैं।
आकाशवाणी के पुराना चिकारा वादक गायक कलाकार मानदास टंडन जी स्वर में पटवा भाजी अमर हो गए _

  पटवा भाजी बासी मे गजब सुहाथे ...
 
    पटवा से अमारी पटवा ज्यादा खट्टी होती हैं और उनकी रस्सी नहीं बनती।
     पटवा को सडाकर ढेरा आट कर रस्सी डोर आदि मजबूत रस्सी बनाई जाती हैं_
    मेरी एक वर्षा गीत मे यह जिक्र हैं 
     हरियर बन दुबी ह गहीदे सरग अमरन लागे 
    परछी में बईठ बाबा हर ढेरा ल आटन लागे ..

 मोटे पटवा रस्सी डोर से बाल्टी बांधकर कुएं से पानी खींचने धान की बीड़ा को गाड़ी में भरकर डोर से बांधकर लाने के काम आते हैं।धान दलहन तिलहन फसलों की बोरा की सिलाई हेतु पतली सुतली या लकड़ी अन्य आवश्यक वस्तुएं गाड़ी में भर बांध कर लाने ले जाने के काम आते हैं।

   पटवा से रस्सी निकालने के बाद सफेद संडऊवा काड़ी बचते हैं उसका उपयोग ठंड सुबह सुबह चूल्हा जलाने चाय बनाने या भुर्री तापने के काम आते हैं।

 लक्ष्मण मस्तुरिया, भैय्यालाल हेड़ाऊ कविता वासनिक की लोकप्रिय होली गीत _

गोरी के कनिहा संडऊवा के काड़ी 
गोरी के आंखी गोटा रन के बाटी ...

  विवाह के समय तेल चढ़ाई रस्म मे संडऊवा काड़ी से चूलमाट के दिन दूल्हा दुल्हन को उनके सर पे रखकर नीचे मां की हथेली होते हैं ऊपर से कई जगह बड़ी दीदी, फुफू चाची मामी आदि उंगली लगाती हैं और ऊपर अंजरी रोटी फसाकर घी या अलसी का तेल टपकाते हैं। मां हथेली में उसे एकत्र कर दूल्हा_ दुल्हन को पिलाती हैं और कहती हैं कि चाटना मत नहीं तो आने वाले बच्चे तोतले हो जायेंगे। बड़ी बुजुर्ग महिलाएं गीत गाती हैं _

  जुनवानी ले निकले पथर फोर केकरा, रयपुर ले निकले रेल 
हमरो गोसाईं बबा के दूई झन बेटवा, पहिने सोनहा जनेव।
मेरे साथ विवाह में यह  रस्म हुआ हैं । तो इस तरह हमारे खानपान हमारे उपयोग और गीत भजनों हमारे रीति रिवाज रस्मों में पटवा और उसकी पत्ते की भाजी फल और रस्सी तथा संडउवा  का समावेश हैं।

ऐसा कोई बाड़ी या ब्यारा नही जहां बारिश में पटवा न बोते हों। यह हमारे कृषि संस्कृति के अभिन्न अंग हैं।
हालांकि अब नायलोन रस्सी आने से और ट्रैक्टर हार्वेस्टर आ जाने से यह सब विलुप्ति की कगार में हैं।
फिर भी यदा_ कदा दिख जाते हैं।

   आज सोसल मीडिया में  झारखंड की लोकप्रिय खाद्य वस्तु के रुप में आए पोस्ट देख कर मुझे  लगा कि यह केवल खाद्य ही नहीं हमारी संस्कृति और रस्मों रिवाज़ के भी अभिन्न अंग हैं इसलिए लिखना हुआ।

                    डॉ. अनिल भतपहरी/ 9617777514

Saturday, September 28, 2024

धर्म

#anilbhattcg 

धर्म 

धृ धातु से व्युत्पन्न धर्म का अर्थ मर्म यानि चित्त या मन में धारण करना । क्या धारण करना,गुण या अवगुण?
गुण धारण करना और उसे व्यवहार में लाना ही धर्म हैं।
इसे बताने समझने वाले ही प्रवर्तक या धर्मगुरु हैं।
   धर्म गुरु या प्रवर्तक अपने समकालीनों को बताते हैं इसलिए उन बातों और तथ्यों को अपना ईजाद न कह किसी अज्ञेय सत्ता/शक्ति से प्रायोजित कह सर्व स्वीकार्य के योग्य बनाते हैं। कलांतर में अनुयाई उसे सर्वोत्कृष्ट और सर्वोत्तम घोषित कर पूजा पाठ इबादत सुमरन प्रार्थना में संलिप्त हो अनेक रम्य स्थलों पर भव्यतम प्रतिष्ठान बना लेते हैं, अकूत संपदा एकत्र हो जाते हैं। फिर अलग अलग मतों पंथों मे होड़ संघर्ष होना शुरु हो जाते हैं। देश दुनियां में जो सत्ता संघर्ष हैं उनपर इन्ही मतों का सर्वाधिक प्रभाव हैं।
   
बहरहाल मानव एक प्रजाति हैं और उनमें भी अन्य प्रजातियों की तरह नर मादा होते हैं,यदा कदा उभय लिंगी किन्नर भी मिलते हैं। ऐसा पशु _पक्षी,जीव _जंतु के प्रजाति में भी हो सकते हैं।
       धर्म स्वभाव या गुण हैं जिसे मानव सहित सभी प्रजाति अपने मर्म मे धारण कर व्यवहार करते हैं। कोई हिंसक कोई अहिंसक कोई विषैले पर मानव प्रजाति सभी प्रजातियों में विरले और अनेक गुणों,इल्मों को सतत साधते /अनुसंधान करते विशिष्ट उपलब्धियां को हासिल करते आ रहें हैं।
    इसी तरह अधर्म अवगुण हैं इसे भी वे मर्म मे धारण किए होते हैं और इसी के अनुरुप जीवन निर्वाह करते कुख्यात भी हो जाते हैं।
पर जिसे आजकल धर्म की संज्ञा दी गईं हैं असल में वह धर्म नहीं बल्कि प्रणालियां या पद्धतियां हैं।जैसे हिंदू मुस्लिम ,सिख ,ईसाई ,जैन, बौद्ध ,सतनाम पंथ कबीरपंथ राधास्वामी , आदि मत मजहब पंथ धम्म संप्रदाय सेक्ट रिलीजन हैं।जिन्हे व्यक्ति विरासत या अपने विवेक से अपनाता हैं और उनके नियम से जीवन निर्वाह करते हैं।
   इसके मतलब वह धार्मिक हो ऐसा नहीं। वे मतावलंबी, अनुयाई,मजहबी सिखी जैनी बौधिष्ट बस होते हैं। वे तीर्थयात्री कर्मकांडी अनेक प्रतिक रंग वस्त्र माला तिलक कंठी जनेऊ मुद्रा धारी हो सकते हैं जिससे उनका पहचान हो। इन सब से वह धार्मिक हो यह ज़रूरी नहीं। अधिकतर अपराधी भी इन सबको धारण कर कानून से बचते हैं या अपनी स्वार्थ सिद्ध करते हैं।

  दरअसल धार्मिक होना मतलब सत्यनिष्ट, दयालु,
परोपकारी, मानवतावादी होना हैं ,वर्ग जाति से ऊपर उठकर नैतिक होना हैं।
     सवाल यह है कि ऐसा कितने हैं जिसे हम धार्मिक कह सकें?

      - डॉ. अनिल भतपहरी/ 9617777514

Friday, September 13, 2024

स्नान

।।स्नान।।

    महानदी और उनकी सहायक पतालू नाला के तट पर सिरपुर कालीन प्राचीन ग्राम जुनवानी गिधपुरी बसा हुआ हैं। वहा एक जातिय नहीं बल्कि एक गोत्रीय भट्टप्रहरी परिवार निवास करते हैं । बड़े बुजुर्गों का कथन हैं कि राजदरबार सिरपुर के शस्त्रधारी संरक्षक हमारे पुरखे हैं । आज भी विशिष्ट अवसर मे खास तरह की अनुष्ठान होते हैं जिसमें अन्य गोत्र और महिला बेटी ही क्यों ना हों सम्मलित होना वर्जित हैं।अब तो बेटियाउज बस जाने से अनेक गोत्रिय और एक हजार से अधिक आबादी के गांव  के रुप में परिणीत हों गए हैं। अठ्ठारहवी सदी मे पूर्वज गुरु घासीदास और सतनाम पंथ से प्रभावित हों सतनामी हो गए।  पुरखों का पांच गांव जुनवानी, बरछा, गोटीडीह, उजीतपुर, महानदी जोकनदी के मध्य कोई गांव आबाद हैं। बड़े बुजुर्ग पांव छूते ही असीस देते हैं पांच गांव के गौटिया हो। 
       इसी ऐतिहासिक गांव  के शिक्षक पिता सतलोकी सुकालदास भतपहरी  माता केराबाई के घर  मेरा जन्म 17 जुलाई 1969 को जगदीशपुर अस्पताल महासमुंद में रथयात्रा के दिन हुआ। महानदी मे बाढ़ के कारण प्रथम पुत्र को नाव नही चढ़ाने की मान्यता के चलते रायपुर व्याहा खरोरा भंडारपुरी होते ग्राम जुनवानी आना हुआ। पर नाव चढ़कर या नदिया तैरकर ही आवागमन होते रहें,जीवन चलता रहा।

   इस तरह नदी नाले तालाब स्नान का लहर या चस्का ऐसा लगा कि भारत के तीनो ओर का समुद्र नाप लिए । गंगरेल, माडम सिल्ली, कोडार, गजगिधनी,खरखरा, क्षीरसागर,खुटाघाट, बंगो यहां तक बोधघाट नर्मदा, भाखड़ा नांगल का नहर, बरगी, इलाहाबाद संगम, बनारस, हरिद्वार, मे गंगा स्नान कर आए। नदियों तालाबों की निर्मल जलराशि को देख स्नान और तैरने  की साध बचपन से हैं। गांव के पतालू नाला सोझ्झी घाट, बांधनी घाट,पुलघाट चूहरी और  ऊपर घाट, पत्थर खदान में तैरकर की बड़े हुए। बुंदेली और कोसरंगी तो तालाबों का गांव था जहां प्राथमिक और हाई स्कूल की पढ़ाई हुईं। वहां प्रायः हर रविवार तारिया पार करने की बाज़ी लगता और उसमें कई बार जीतते आया। 

बहरहाल जब  उच्च शिक्षा लेने रायपुर आया और 1987- 88 शा आयुर्वेदिक कालेज कालोनी  के I type 7 में रहते दुर्गा महाविद्यालय में अध्ययनरत था। तब हमारे वहा के रिश्तेदार कर्मचारी को मकान खाली करने कहा तो एकाएक निर्माणाधीन गुरुघासीदास छात्रावास आमापरा मे बीना बिजली पानी वाश रूम सुविधा के कक्ष क्र 7 मे शिफ्ट हो गए। चौकीदार का लड़का पानी भर देते और टीपी कनेक्शन से एक लाइट और टेबल फैन सिन्नी का चलाने का पल्ग / वायर खरीदकर देर रात्रि तक लगा लिए। और रस्नान आदि के किए विवेकानंद आश्रम के पीछे गली के सुलभ मे मंथली बंधा लिए। पूनम होटल बाद मे आश्रम के वृन्दावन रेस्त्रां से  मासिक भोजन 250 मे बंधवा लिए।
पर हमलोगो को जो महानदी तटवर्ती गांव के थे नदी तालाब में जी भर तैरकर नहाने वाले तो सुलभ मे नहाना नहाना नहीं था बस पानी को तेल की तरह चुपरना मात्र था। इसलिए आसपास आमापारा तालाब , बुढातालाब, खो खो तालाब और रिंग रोड के पास का तालाब जो प्राय साफ रहते वहा तक सायकल से नहाने का कार्यक्रम बनता। इसी अनुक्रम मे सुशील यदु, रामप्रसाद कोसरिया,बद्री प्रसाद यदु परमानंद, डा सीताराम साहू  , सुखदास बंजारे, जैसे तालाब स्नान प्रेमी कवियों गीतकारों के जमात से जा मिला,जो कि मेरे लिए सोने पे सोहगा हुआ।इनकी संगति का लाभ मिला ,छत्तीसगढ़ी साहित्य समिति से जुड़ा और रायपुर की साहित्यिक प्रतिभावों जिसमें प्रमुखतः आचार्य सरयूकांत झा, हरि ठाकुर केयूर ,भूषण मन्नूलाल यदु, अमरनाथ त्यागी, हमारे प्रो बालचंद कच्छवाहा, डा विभुकुमार खरे, डा हरिशंकर शुक्ल, डा रामदास शर्मा, मेरा शोध निर्देशक डा देवकुमार जैन, बेधड़क रायपुरी, बलिराम पांडे, निकुम जी चेतन भारती, डा सुखदेव साहू जागेश्वर प्रसाद, रामेश्वर शर्मा जी जैसे वरिष्ठ जनों का सानिध्य मिला एवम् सुशील वर्मा, चंद्रशेखर, मयंक, नृपेंद्र शशांक खरे,गिरीश पंकज, राजेश  गनोदवाले, आनन्द निषाद ,  उमाशंकर , आलोक सातपुते जैसे समवयो का प्रेमल साख्य व्यवहार इन सबसे कही न कहीं आयोजनों में मिलते ही रहते हैं।
 तब इन 35 वर्ष पूर्व तब रायपुर के तालाब नहाने योग्य था। शहर छोटा होने और अयोजन मे अपनत्व भाव होने से बिन नेवताए भी जाते तब कोई आयोजको और सहभागियो मे कोई दुराव या अनचिन्हार भाव ही नही था बल्कि सदैव अपनत्व भाव रहता 

    दुर्गा महाविद्यालय के साहित्यिक प्राध्यापको का स्नेह तो मिलता ही ठेठ छत्तीसगढ़ी चेतना के रचनाकारों के साथ भी उठक बैठक होने लगे। तालाबों में घुम घुम कर नहाना अब भी नहीं छूटा हैं।
   कालेज में शिक्षक बन जाने के बाद प्रथम नियुक्ति शास महाविद्यालय पेंड्रारोड के आसपास नर्मदा सोन मलनिया अरपा झरना भैरोसांग लक्ष्मण धारा हों या अमरकंटक जो रिश्तेदार परिचीत जाते तो इनके दर्शन और स्नान जरुर करते। फिर पलारी महाविद्यालय में 16 वर्ष कार्यक्रम अधिकारी के रुप में महाविद्यालयीन रासेयो के कुछेक छात्रों के साथ बड़े ग्रामों के बड़े तालाबों बाल समुंद आल्हाबंद पेंड्रावन छुइहा टैंक आदि में तैरना और उन्हें पछाड़ने का क्रम चल ही रहा था। इसी बीच संचालनालय और प्रतिनियुक्ति सेवा के चलते 2019 से कॉलेज छूट गया पर तालाबों में तैरकर नहाने का शौक़ नहीं। अब भी तीज त्योहार खासकर दीपावली मे गांव जाते हैं तो  बाल बच्चे सहित महानदी मे ही स्नान होते हैं। बच्चे अपना नदी अपना घाट समझ प्रफुल्लित होते हैं। बैट बाल लेकर मज़े भी करते हैं 5 भाई बहन के भरे पुरे परिवार में 11 बच्चे हैं। मां प्राय: कहती रहती हैं मोर केरा के एक दर्जन पर... 1 का आना शेष हैं।
  बहरहाल रायपुर में क्रेडा गार्डन तालाब, सेंध तालाब और किसी किसी रविवार अपने सहपाठी इंजी मित्र शिव जी के साथ May fair lake तो कही सिरपुर महानदी मे बहते पानी से स्नान की चाह अब तक छूटा नहीं हैं।
           अभी अभी हमलोग सुदूर बस्तरांचल रम्य वन प्रांतर मे निर्झरणी स्नान हेतु जाने को सहमत हुए हैं। फिर सावन माह मे जानबूझकर वर्षास्नान होते हैं और प्राकृतिक जलाभिषेक से शिवोहम की अवस्था से होकर गुजरते हैं।
    हमें पता हैं कि एक न एक दिन पूर्वजों के जगह महानदी के जुनवानी सिरपुर घाट में जाना ही हैं तो जब तक सांस हैं नलजल मे नहाना होते ही हैं! समय निकाल स्नान और ध्यान जरुर कर लेते हैं ताकि पुरखा कहें और असीस दे- "बने असनान्द  धी धियान अउ तउर तार के आय हवस।"

    डा. अनिल भतपहरी/9617777514

Wednesday, September 11, 2024

शास्त्रीय संगीत में छत्तीसगढ़ी का समावेश हों

#anilbhattcg 

शास्त्रीय संगीत में छत्तीसगढ़ी का समावेश हो 

चक्रधर महोत्सव की धूम मची हुई हैं और देश भर से ख्यातिनाम कलाकारों की प्रस्तुति हो रही हैं।
परंतु शास्त्रीय प्रस्तुतियों में छत्तीसगढ़ झलक नहीं रहें हैं ।    रायगढ़ घराने की कत्थक या एशिया की प्रथम संगीत विश्वविद्यालय खैरागढ़ की नृत्यादि प्रस्तुतियों में छत्तीसगढ़ी वस्त्राभूषण और गायकी में बोल बंदिश ख्याल ठुमरी आदि का समावेश  होना चाहिए ।
    यहां के घराने और विश्वविद्यालय की प्रस्तुतियों में छत्तीसगढ़ी संस्कृति की झलक परिलक्षित हों ताकि कला जगत यहां की लालित्य और सौंदर्य से परिचित हो सके। जैसा कि अन्य राज्यों की भाषाएं और वस्त्राभूषण वहां की शास्त्रीय प्रस्तुतियों में समाहित होते हैं।
 लोक कलाएं समृद्ध होकर सुगम और शास्त्रीय स्वरुप ग्रहण करती हैं जबकि यहां की कलाएं उन्नत तो हैं, पर ऐसा कब होगा ? 

               _डॉ. अनिल भतपहरी / 9617777514

Saturday, September 7, 2024

समृद्ध भारत

#anilbhattcg 

 समृद्ध भारत 

दो अक्षर क्या पढ़े 
गांव उजाड़ने लगे 
35 साल नौकरी के लिए 
जन्मों की नाता तोड़ने लगे 
कुछ चलाकियां सीखें 
अपने को ज्ञानी समझ लिए 
जो भोले भाले रहें 
उन्हें मूर्ख अज्ञानी समझ लिए 
पाकर अवसर आपने 
चढ़े ऊंचाई पर 
जिन्हें मिला नहीं अवसर 
तंज उनकी सचाई पर 
इस तरह आपने ही 
दीवार खड़ी की 
ऊंच नीच जाति पाती की 
मीनार खड़ी की 
मिलकर हम सबको 
इसे ढहाने होंगे 
विषमता से भरी समाज में 
समता लाने होंगे 
जो पिछड़ा रहा 
पिछड़ते ही गए 
ऊंच नीच भेदभाव की 
खाईयां बढ़ते ही गए 
गांव ही शहर बना 
सुविधाओं से 
करने होंगे विकट उद्यम 
हटाने विकास के बाधाओ से 
तभी गांव रहेगा आबाद 
खुशहाल शहर 
संतुलित विकास का
दिखेंगे सर्वत्र असर
वर्ग जाति विहीन 
समाज का निर्माण 
 से ही होगा समृद्ध 
विकसित भारत का निर्माण

_ डॉ. अनिल भतपहरी/ 9617777514

Saturday, August 31, 2024

छूद्र जीवन विश्वासी हैं?

वाट्सअप फेसबुक सोसल मीडिया 
 माना कि आभासी हैं।
पर क्या रिश्तों नातों से भरा 
यह  छूद्र जीवन विश्वासी हैं ?

कोई मन का मीत मिले
ज्ञानी गुरु सच्चा साथी मिले 
भटकते रहें ताउम्र अकेले 
पर कोई न हमराही मिले 

आना जग में अकेला और 
जाना जग से अकेला हैं 
सच कहें तो यह जग जीवन
 चार दिनों का ही मेला हैं 

तब क्यों न मगन बिताओ 
वक्त आभासी दुनियाँ में 
हर तरफ मृगमरीचिका हैं 
सम्हल कर रहना दुनियां में 

दोखा हम खाते नहीं बल्कि देते हैं 
समझने के लिए कितने ही गेटे हैं 
फिर भी आज तक मनुष्य नहीं चेते है 
बेफिक्र मौज कर रहा पर सच कब्र में लेटे हैं

Friday, August 16, 2024

जागृत सतनाम धर्म सुषुप्त क्यों?

वीरेंद्र ढीढ़ी एवम् डॉ. अनिल भतपहरी के संयुक्त विचार/ परिचर्चा 
     ।।जागृत और सुषुप्त सतनाम धर्म की दशा।।

(8/15, 11:00 PM) +91 94252 01225: जागता हुआ सतनाम धर्म।
         संगठित होता हुआ सामाजिक संगठन। 
         संगठन में शामिल होता हुआ व्यक्ति ।
         और अंगड़ाई लेता हुआ नवयुवक।
         सिर्फ मेरा व्याख्या है । विचारणीय आप सब सभी प्रबुद्ध जनों के लिए है, उपरोक्त चार बातें आज सतनामी समाज के लिए ज्वलंत है जिस पर विचार करना आवश्यक है।
        सतनाम और उनका धर्म , प्रकृति की तरह काल के बंधन से मुक्त, साफ ,स्वक्छ, निर्मल , पवित्र , अहिंसक ,सम्यक और अनंत है। हम सतनाम धर्म को अपने अपने ढंग से व्याख्या कर कर के सीमित दायरा में बांधने का काम किया है। सतनाम धर्म को इतना सीमित कर दिया गया की मनुष्य अपने मन के विचार और इतिहास को भुला दिया है और अब हम हिन्दू धर्म के अनुयाई हो गए है क्योंकि उस तथाकथित हिंदूवादी परंपरा को मानने के कारण सतनाम धर्म की व्याख्या भूल चुके है और लगभग सभी सतनामी हिन्दू लिखने लगे। हमे हिंदू धर्म के अनुयाई के रूप में सरकारी रिकार्ड में जरूर गिनते है परंतु वास्तव में हमे हिन्दू नही मानते थे  क्योंकि सतनामी पारा और हिन्दू पारा का स्पष्ट विभाजन गांव और शहर में दिखाता था और अब भी मानते है। कई बार मैने अपने लेख में लिखा हूं की सतनामी को नाई नही मिला हमारे लोग नाई बन गए , हमे हमारे संस्कार के प्रयोजन हेतु पंडित नही मिला , हमारे लोग पंडित बन गए। हम उन तमाम समस्याओं का सामना किए है जो हमारे तथाकथित हिन्दू भाइयों ने हमे सामाजिक प्रताड़ना दिया है और आज हम एक जागता हुआ सतनाम धर्म की ओर बढ़ रहे है। यह एक पक्ष है जो बीत गया और बीत रहा है , हमने दूसरा पक्ष का अवलोकन नही किया है ।
         सतनाम धर्म आज बढ़ रहा है । इसको जानने के पहले हमे हमारी मान्यता और संस्कार पर विचार करेंगे तभी तो हमे पता चलेगा कि हम सतनाम धर्म के तरफ क्यों आकर्षित हुए है और किस प्रचलित विचार और धर्म का हम पर प्रभाव पड़ा है जिससे सतनाम धर्म आज हमारे मन मस्तिष्क पर प्रभाव डाला है और हम आज उसे स्थापित करने का प्रण ले रहे है। चलो विचार करे।
           बाबा गुरु घासीदास जी का जन्म 18 दिसम्बर 1756 को हुआ। तब छत्तीसगढ़ में सतनाम धर्म या पंथ का नामोनिशान नहीं था क्योंकि हम मानते है की सतनाम पंथ या धर्म गुरु बाबा घासीदास जी का देन है। जैसे की थोड़ा बहुत ऐतिहासिक लेख कहता है की  बाबा गुरु घासीदास 6 माह के विलुप्त होने या तपस्या करने के बाद लोगो के बीच आए तब उसमे एक अद्भुत आभा चमक रहा था जो की प्रकाशित अर्थात जो होश पूर्वक जागा  हुआ व्यक्ति पर ही दिखाता है। बाबा जी लोगो के बीच आकर लोगो को शिक्षा दिए जिसमे मुख्य रूप से मूर्ति पूजा का विरोध करना था ,समानता की पाठ पढ़ाया , अंध भक्ति के प्रति लोगो को जागरूक किए । लोग उनके इस विचारधारा से जुड़ते गए जो सतनाम पंथ बाद में सतनाम धर्म के नाम से जाना गया और उनके अनुयायियों को सतनामी कहा जाने लगा। इसी विचार धारा को उनके सुपुत्र बाबा बालक दास जी ने संगठनात्मक रूप देकर भंडारी और छडीदार के रूप में आगे बढ़ाया जो की आज भी विद्यमान है। इस पर मैं ज्यादा विवेचना नही करूंगा क्योंकि भंडारी और छडीदार के व्याख्या पूर्व के लेख में कर चुका हूं।
          बाबा गुरु घासीदास जी , बालकदास जी और अमरदास जी की सतनाम धर्म 20 वी सदी के आते आते तक लगभग हिंदूवादी परम्परा में विलीन हो चुका था। कुछ मान्यता के लिए बाकी था तो वह घर में निशाना था अर्थात छोटा जैतखाम ,चौका आरती कबीर दास जी के पूजन पद्धति पर आधारित था और साधु अखाड़ा संगीत कार्यक्रम होता था जो आत्मा और परमात्मा , जन्म मरण 84 लाख योनि पर जीवन की जन्म लेने की बाते करते थे। यह प्रक्रिया चलता रहा। 
       दिनांक 18 दिसंबर 1938 को मंत्री नकुल ढीढी जी के द्वारा अपने गृह ग्राम भोरिंग में जयंती मानने और जयंती के प्रचार होने के बाद  सतनाम पंथ या धर्म अपने चरमोत्कर्ष की ओर बढ़ने लगा। इस सतनाम विचार के उन्नयन में कोई भी गुरु और स्थापित सतनामी नेता का हाथ नहीं है , केवल मंत्री नकुल ढीढी जी का संघर्ष का परिणाम है की आज सतनाम का मार्ग फल फूल रहा है।
         गुरु बाबा जी की जयंती का मानने का परिणाम यह हुआ कि सामाजिक संगठन बनाकर समाज संगठित होने है। संगठन में समाज के व्यक्ति शामिल हो कर  समाज के विकास के लिए नए नए आयाम खोज रहे है। नवयुवक गण अपना शौर्य का प्रदर्शन कर रहे है।
          इन सबके बावजूद समाज को शिक्षा के प्रति जागरूक होकर उच्च से उच्च शिक्षा प्राप्त करना चाहिए क्योंकि जो समाज जितना शिक्षित होगा उनका शोषण न ही धर्म के लोग करेंगे न ही समाज के तथाकथित गणमान्य लोग करेंगे न ही शासन और प्रशासन के लोग करेंगे । यही मंत्री दादा नकुल ढीढी जी का अंतिम संदेश है  अतः इस संदेश के साथ  दिनांक 16 अगस्त 2024 को उनके पुण्यतिथि पर मंत्री नकुल ढीढी जी को श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं। 

       आपका बीरेंद्र ढीढी भोरिंग और रायपुर।

 Dr. Anil Bhatpahari: सुंदर विचार भैय्या जी 

      कोई नया धर्म तब जन स्वीकार्य होता हैं जब आडंबर विहीन, सरल सहज हृदयंगम हों। सतनाम पंथ आरंभ में ऐसा ही था फलस्वरूप अनेक जातियों के लोग खींचे चले आएं और 20% जनता सतनामी बन गए। गुरु बालकदास की हत्या और उतराधिकारी वंशजो के परस्पर कलह से अनेक लोग घर वापसी और ईसाई बन गए। सतनाम धर्म केवल सिद्धान्त मे ही रहा व्यवहारिक धरातल मे उतर नहीं पाया।
     सतनामी को शासकीय दस्तावेज हिंदू तब लिखें गए जब गुरु अगमदास, महंत नयनदास महिलांग, अंजोरदास, आदि ने कांग्रेस से जुड़कर सतनामी हिन्दू महासभा गठित कर 1921 में सतनामी आश्रम संचालित किए गए। तब से पौनी पसारी सेवा के लिए समकालीन युवा वर्ग नकुल ढीढ़ी नंदूनारायण जैसे नव साक्षर लोगों ने अभियान चलाया गुरु घासीदास जयंती इसके माध्यम बना।  यह वर्ग डा अंबेडकर से जुड़े हुए थे और उनका संघर्ष और आंदोलन ही एक मात्र रास्ता था। उनके संघर्ष आज पर्यंत जारी हैं ग्रामीण क्षेत्रों में सामाजिक और धार्मिक आयोजनों में पौनी पसारी सेवा अघोषित प्रतिबंधित हैं। हमारे  शासकीय सेवकों को किराए का मकान और घरेलू कार्य हेतु बईया ग्रामीण/ कस्बाई जगहों पर आज भी नहीं मिलती। यह अत्यंत विडंबना पूर्ण परिस्थिति हैं। कुछेक राजनेता या उच्चाधिकारियों को केवल शासकीय आयोजनों में, राजनैतिक सभा सोसायटी में या कभी कभी छठी, गृहप्रवेश या शादी विवाह में बफे स्टाइल खाने या नाश्ता कर लेने मात्र को सामाजिक स्वीकार्य या मुख्यधारा में शामिल होने का भ्रम ना समझें।
    सच तो यह हैं कि आज़ादी के बाद कांग्रेस सत्ता में आई इससे जुड़े लोग प्रभाव शाली हुए। जबकि डा अंबेडकर और आरपीआई से जुड़े लोग कभी सत्ता या प्रभावशाली पदों तक पहुंचे ही नहीं। इसलिए समाज दो राजनैतिक विचार धारा में बट कर रह गईं।
तीसरी विचारधारा आरएसएस की रही। जब दोनों विचारधारा में कुछ  महत्वाकांक्षी लोगों को महत्व नहीं मिला या नोटिस नहीं किए गए तब वे लोग जनसंघ और भाजपा की दामन थाम कर लिए।
इस तरह समाज धर्म और पंथ की अध्यात्मिक और सामाजिक संगठन से हटकर केवल राजनैतिक संगठन में जुड़ते गए पद प्रतिष्ठा की चाह लिए।
शासकीय अधिकारी/कर्मचारी जो सामाजिक सोच रखते हैं और कुछेक साधु संत लोग ही धार्मिक सामाजिक कार्यों में संलग्न हैं।
    इस तरह समाज शासकीय/ अशासकीय नौकरी वाले और राजनैतिक पार्टी वाले के रुप में चिन्हाकित हो गए हैं।
   हमारे गुरु साधु सन्त महंत भंडारी सतीदार आदि धार्मिक पदाधिकारी केवल गांवों तक सिमट कर रह गए और विविध धार्मिक कार्यों में चढ़ावे दान दक्षिणा आदि में उलझ गए हैं।
क्योंकि आज तक एक व्यवस्थित और सुसंगठित संगठन नहीं बना सकें जो पार्टियों को योग्य नेतृत्व प्रदान कर सकें।
यहां तो जो पार्टी सत्ता में आए और जी व्यक्ति मंत्री विधायक बने वहीं नेतृत्व करने लग जाते हैं।
बुद्धिजीवियों शिक्षाविदों विचारकों योजनाकारों का यहां कोई पुछ परख नहीं हैं। इसलिए अनेक उपलब्धियों के बाद भी समाज निरीह और विवश नजर आते हैं।
      जागृत सतनाम धर्म कैसे और क्यों "सुषुप्तावस्था"में हैं ।इन पर विचारक अपना विचार दे ताकि नई संभावनाओं के सूत्र तलाशा जा सके। क्योंकि मजबूत धार्मिक और सामाजिक संगठन ही वर्तमान में सत्ता के कारक  हैं। जिसमें लोक कल्याण की अनंत संभावनाएं विद्यमान हैं।

     डॉ. अनिल भतपहरी , जुनवानी रायपुर 9617777514

टीप: 15 अगस्त स्वतंत्रता दिवस की रात्रि 12 बजे जब देश और समाज सो गया।तब सतनाम धर्म की जागरण के लिए समाज सेवा से जुड़े दो घराने मंत्री नकुल ढीढ़ी, और महंत नंदू नारायण भतपहरी के तीसरी पीढ़ी के वीरेंद्र ढीढ़ी और अनिल भतपहरी  की रोचक बातें और परिचर्चा जरुर श्रवण कीजिए।

Tuesday, July 16, 2024

विरह

"विरह "

मदहोशी की खुमार में 
बिताते है दिन 
आशिक  काटते है  
रातें तारे गिन- गिन 
बिन  प्रेयसी  के  
चैन नही पल-छिन
सुझे गर उपाय  
कोई तो  कुछ कहिन 
लैहो सब बलाइयां 
उनकी लागि लगिन 
अब सच तन में 
प्राण न रहन चाहे उनके बिन
 -डा.अनिल भतपहरी

Sunday, July 14, 2024

सबक

#anilbhattcg  #टेबलेटकविता 

।।सबक।।

रयपुर के राज 
सबर दिन 
बीरान के 
गौटियां मंडल 
तको इंहा 
हैरान हे 
तोर का 
पूंछता 
बड़ चोकठई 
लगा के 
गोठयाइस 
फिरंता

_डॉ. अनिल भतपहरी/ 9617777514

क्यों कलम अमंगल उगलती हैं

#anilbhattcg 

क्यों कलम अमंगल उगल रही 

नैसर्गिक रुप में 
सदियों से 
उगे वनस्पतियां 
मां वसुंधरा की 
श्रृंगार अप्रतिम 
झील झरने नदिया 
इनकी धानी आंचल रही 

जिसकी छाया 
फल फूल और 
महकती पुरवाई 1
लोक जीवन 
सहित जीव जंतु 
के लिए सुखदाई 
इनसे आबाद अंचल रही 

पनपे कई 
कथा ,कहिनी 
गीत ,भजन 
नृत्य मनमोहनी 
हर की नसों में बहती 
दिल की धड़कन 
संस्कृति मचल रहीं 

चाह की पूर्ति 
हेतु स्व बेबस 
अरे! मानव 
साधन से संकट 
लाकर क्यों होते
परस्पर दुराव/अलगाव 
उपलब्धियां तेरी विफल रहीं 

बौखला कर 
साधनों के गुलाम 
पाने हल 
कर रहे हो 
दोहन अंधाधुन 
दोहन प्रतिपल
उजड़ती रम्य जंगल रही 

बिलखते नर्मदा घाटी 
बोधघाट, टेहड़ी गढ़वाल 
पोलावरम नित्य रोती हुई 
समा गए गंगरेल 
हीराकुंड भाखड़ा नंगल 
रेत हो अरावली 
बताती दास्तां कलपती हुई 
कभी यहां नित्य मंगल रही 

कटती फेफड़े 
अब बारी है 
हसदेव की 
कुछ लोगों के लिए 
दिन आएंगे 
बहुतों के दुर्देव की 
क्यों कलम अमंगल उगल रही

उधर देखो 
करतब कुछ 
भरी हुई नादानियां 
उजाड़ मां की आंचल  
उनके नाम पौध रोपने की 
देख कलाबाजियां 
बहुत कुछ कहने मन मचल रहीं 

       डॉ. अनिल भतपहरी /9617777514

चित्र : सुरम्य हाथी पथरा घाट,जोगनदी गिरौदपुरी

Wednesday, July 10, 2024

सबक

#anilbhattcg  #टेबलेटकविता 

।।सबक।।

रयपुर के राज 
सबर दिन 
बीरान के 
गौटियां मंडल 
तको इंहा 
हैरान हे 
तोर का 
पूंछता 
बड़ चोकठई 
लगा के 
गोठइयाइस 
फिरंता

_डॉ. अनिल भतपहरी 10/7 24 / 9617777514

Tuesday, July 9, 2024

सृजन

#anilbhattcg 

सृजन 

किशोर वय से 
लिखने वाले 
बुजुर्गों सा
लिखते हैं 
धर्म अध्यात्म 
वैराग्य की 
बातें कर 
शीघ्रता से 
बुद्ध ,कबीर 
विवेकानंद 
होना चाहते हैं 

युवा रचनाकार 
संघर्षों से घिरे 
यथार्थ से परे 
आदर्श रचने की 
फ़िराक में 
प्रभाव के लिए 
प्रतिरोध के जगह 
यथास्थिति रचते हैं 

और प्रौढ़ लोग 
वसंत की बिदाई कर
लड़ते- झगड़ते 
भावहीन 
प्रेम गीत गाते हैं 

बुजुर्गों को भला 
क्या कहें 
वे तो बाल गीत 
गाते परलोक 
सवारते हैं 

पर क्या इन्हीं मनोवृति
और प्रवृत्ति से  
नव प्रवर्तन होगा
उत्कृष्ट सृजन होगा

जहां किशोर कल्पना में 
दिग्रभ्रमित हो 
युवा दिशाहीन हो 
प्रौढ़ में लिप्सा हो
और बुजुर्ग मे 
बचपना हों 

उस समाज और देश का 
भगवान मालिक 
चल रहा दौर 
है बड़ा सामयिक 

            डॉक्टर अनिल भतपहरी/ 9098165229

Monday, July 8, 2024

स्नान

।।स्नान।।

    महानदी और उनकी सहायक पतालू नाला के तट पर सिरपुर कालीन प्राचीन ग्राम जुनवानी गिधपुरी बसा हुआ हैं। वहा एक जातिय नहीं बल्कि एक गोत्रीय भट्टप्रहरी परिवार निवास करते हैं । बड़े बुजुर्गों का कथन हैं कि राजदरबार सिरपुर के शस्त्रधारी संरक्षक हमारे पुरखे हैं । आज भी विशिष्ट अवसर मे खास तरह की अनुष्ठान होते हैं जिसमें अन्य गोत्र और महिला बेटी ही क्यों ना हों सम्मलित होना वर्जित हैं।अब तो बेटियाउज बस जाने से अनेक गोत्रिय और एक हजार से अधिक आबादी के गांव  के रुप में परिणीत हों गए हैं। अठ्ठारहवी सदी मे पूर्वज गुरु घासीदास और सतनाम पंथ से प्रभावित हों सतनामी हो गए।  पुरखों का पांच गांव जुनवानी, बरछा, गोटीडीह, उजीतपुर, महानदी जोकनदी के मध्य कोई गांव आबाद हैं। बड़े बुजुर्ग पांव छूते ही असीस देते हैं पांच गांव के गौटिया हो। 
       इसी ऐतिहासिक गांव  के शिक्षक पिता सतलोकी सुकालदास भतपहरी  माता केराबाई के घर  मेरा जन्म 17 जुलाई 1969 को जगदीशपुर अस्पताल महासमुंद में रथयात्रा के दिन हुआ। महानदी मे बाढ़ के कारण प्रथम पुत्र को नाव नही चढ़ाने की मान्यता के चलते रायपुर व्याहा खरोरा भंडारपुरी होते ग्राम जुनवानी आना हुआ। पर नाव चढ़कर या नदिया तैरकर ही आवागमन होते रहें,जीवन चलता रहा।

   इस तरह नदी नाले तालाब स्नान का लहर या चस्का ऐसा लगा कि भारत के तीनो ओर का समुद्र नाप लिए । गंगरेल, माडम सिल्ली, कोडार, गजगिधनी,खरखरा, क्षीरसागर,खुटाघाट, बंगो यहां तक बोधघाट नर्मदा, भाखड़ा नांगल का नहर, बरगी, इलाहाबाद संगम, बनारस, हरिद्वार, मे गंगा स्नान कर आए। नदियों तालाबों की निर्मल जलराशि को देख स्नान और तैरने  की साध बचपन से हैं। गांव के पतालू नाला सोझ्झी घाट, बांधनी घाट,पुलघाट चूहरी और  ऊपर घाट, पत्थर खदान में तैरकर की बड़े हुए। बुंदेली और कोसरंगी तो तालाबों का गांव था जहां प्राथमिक और हाई स्कूल की पढ़ाई हुईं। वहां प्रायः हर रविवार तारिया पार करने की बाज़ी लगता और उसमें कई बार जीतते आया। 

बहरहाल जब  उच्च शिक्षा लेने रायपुर आया और 1987- 88 शा आयुर्वेदिक कालेज कालोनी  के I type 7 में रहते दुर्गा महाविद्यालय में अध्ययनरत था। तब हमारे वहा के रिश्तेदार कर्मचारी को मकान खाली करने कहा तो एकाएक निर्माणाधीन गुरुघासीदास छात्रावास आमापरा मे बीना बिजली पानी वाश रूम सुविधा के कक्ष क्र 7 मे शिफ्ट हो गए। चौकीदार का लड़का पानी भर देते और टीपी कनेक्शन से एक लाइट और टेबल फैन सिन्नी का चलाने का पल्ग / वायर खरीदकर देर रात्रि तक लगा लिए। और रस्नान आदि के किए विवेकानंद आश्रम के पीछे गली के सुलभ मे मंथली बंधा लिए। पूनम होटल बाद मे आश्रम के वृन्दावन रेस्त्रां से  मासिक भोजन 250 मे बंधवा लिए।
पर हमलोगो को जो महानदी तटवर्ती गांव के थे नदी तालाब में जी भर तैरकर नहाने वाले तो सुलभ मे नहाना नहाना नहीं था बस पानी को तेल की तरह चुपरना मात्र था। इसलिए आसपास आमापारा तालाब , बुढातालाब, खो खो तालाब और रिंग रोड के पास का तालाब जो प्राय साफ रहते वहा तक सायकल से नहाने का कार्यक्रम बनता। इसी अनुक्रम मे सुशील यदु, रामप्रसाद कोसरिया,बद्री प्रसाद यदु परमानंद, डा सीताराम साहू  , सुखदास बंजारे, जैसे तालाब स्नान प्रेमी कवियों गीतकारों के जमात से जा मिला,जो कि मेरे लिए सोने पे सोहगा हुआ।इनकी संगति का लाभ मिला ,छत्तीसगढ़ी साहित्य समिति से जुड़ा और रायपुर की साहित्यिक प्रतिभावों जिसमें प्रमुखतः आचार्य सरयूकांत झा, हरि ठाकुर केयूर ,भूषण मन्नूलाल यदु, अमरनाथ त्यागी, हमारे प्रो बालचंद कच्छवाहा, डा विभुकुमार खरे, डा हरिशंकर शुक्ल, डा रामदास शर्मा, मेरा शोध निर्देशक डा देवकुमार जैन, बेधड़क रायपुरी, बलिराम पांडे, निकुम जी चेतन भारती, डा सुखदेव साहू जागेश्वर प्रसाद, रामेश्वर शर्मा जी जैसे वरिष्ठ जनों का सानिध्य मिला एवम् सुशील वर्मा, चंद्रशेखर, मयंक, नृपेंद्र शशांक खरे,गिरीश पंकज, राजेश  गनोदवाले, आनन्द निषाद ,  उमाशंकर , आलोक सातपुते जैसे समवयो का प्रेमल साख्य व्यवहार इन सबसे कही न कहीं आयोजनों में मिलते ही रहते हैं।
 तब इन 35 वर्ष पूर्व तब रायपुर के तालाब नहाने योग्य था। शहर छोटा होने और अयोजन मे अपनत्व भाव होने से बिन नेवताए भी जाते तब कोई आयोजको और सहभागियो मे कोई दुराव या अनचिन्हार भाव ही नही था बल्कि सदैव अपनत्व भाव रहता 

    दुर्गा महाविद्यालय के साहित्यिक प्राध्यापको का स्नेह तो मिलता ही ठेठ छत्तीसगढ़ी चेतना के रचनाकारों के साथ भी उठक बैठक होने लगे। तालाबों में घुम घुम कर नहाना अब भी नहीं छूटा हैं।
   कालेज में शिक्षक बन जाने के बाद प्रथम नियुक्ति शास महाविद्यालय पेंड्रारोड के आसपास नर्मदा सोन मलनिया अरपा झरना भैरोसांग लक्ष्मण धारा हों या अमरकंटक जो रिश्तेदार परिचीत जाते तो इनके दर्शन और स्नान जरुर करते। फिर पलारी महाविद्यालय में 16 वर्ष कार्यक्रम अधिकारी के रुप में महाविद्यालयीन रासेयो के कुछेक छात्रों के साथ बड़े ग्रामों के बड़े तालाबों बाल समुंद आल्हाबंद पेंड्रावन छुइहा टैंक आदि में तैरना और उन्हें पछाड़ने का क्रम चल ही रहा था। इसी बीच संचालनालय और प्रतिनियुक्ति सेवा के चलते 2019 से कॉलेज छूट गया पर तालाबों में तैरकर नहाने का शौक़ नहीं। अब भी तीज त्योहार खासकर दीपावली मे गांव जाते हैं तो  बाल बच्चे सहित महानदी मे ही स्नान होते हैं। बच्चे अपना नदी अपना घाट समझ प्रफुल्लित होते हैं। बैट बाल लेकर मज़े भी करते हैं 5 भाई बहन के भरे पुरे परिवार में 11 बच्चे हैं। मां प्राय: कहती रहती हैं मोर केरा के एक दर्जन पर... 1 का आना शेष हैं।
  बहरहाल रायपुर में क्रेडा गार्डन तालाब, सेंध तालाब और किसी किसी रविवार अपने सहपाठी इंजी मित्र शिव जी के साथ May fair lake तो कही सिरपुर महानदी मे बहते पानी से स्नान की चाह अब तक छूटा नहीं हैं।
           अभी अभी हमलोग सुदूर बस्तरांचल रम्य वन प्रांतर मे निर्झरणी स्नान हेतु जाने को सहमत हुए हैं। फिर सावन माह मे जानबूझकर वर्षास्नान होते हैं और प्राकृतिक जलाभिषेक से शिवोहम की अवस्था से होकर गुजरते हैं।
    हमें पता हैं कि एक न एक दिन पूर्वजों के जगह महानदी के जुनवानी सिरपुर घाट में जाना ही हैं तो जब तक सांस हैं नलजल मे नहाना होते ही हैं! समय निकाल स्नान और ध्यान जरुर कर लेते हैं ताकि पुरखा कहें और असीस दे- "बने असनान्द  धी धियान अउ तउर तार के आय हवस।"

    डा. अनिल भतपहरी/9617777514

Sunday, July 7, 2024

विरह

"विरह "

मदहोशी की खुमार में 
बिताते है दिन 
आशिक  काटते है  
रातें तारे गिन- गिन 
बिन  प्रेयसी  के  
चैन नही पल-छिन
सुझे गर उपाय  
कोई तो  कुछ कहिन 
लैहो सब बलाइयां 
उनकी लागि लगिन 
अब सच तन में 
प्राण न रहन चाहे उनके बिन
 -डा.अनिल भतपहरी

Thursday, July 4, 2024

दो पाटन में

।।दो पाटन में।।

सवा अरब जनसंख्या वाली महादेश में 
जिधर देखो उधर हर मौसम परिवेश में 

होना ही है भाई  भीड़  में भगदड़ 
चिल्ल पो, धक्का -मुक्की हुड़दंग 

जानबूझ कर  जाते हैं  मजे -सजे लेने 
मेला ,मड़ई ,हाट-बाजार देखने -दिखाने 

देखो मानव  जीवन हैं  विकट दुःखों से भरा 
मिल जाय सुख शांति बस इतना हैं चाह जरा 

इसलिए तीर्थ व्रत और दान पुण्य स्नान 
सत्संग -प्रवचन,पूजा-पाठ,जप तप ध्यान 

बाबाओं की  चमत्कार  और  उनके दर्शन 
आस्था का सैलाब और सम्मोहित जन मन 

दुःख दूर करने ,संताप हरने करते नही गुहार 
जिन्हें वोट देकर बनाए हैं ये अपनी  सरकार 

उधर बेफिक्र होकर नेता अपनी झोली हैं भरते 
इधर बेचारी जनता चमत्कार की आस में मरते 

बाबाओं से हैं साठ -गाठ नेताओं से बड़ी गहरी 
वोट बैंक के मालिक ओ  और ये होते व्यापारी 

मिल कर सरकार बनाते धर्म राजनीति की युति 
ये दिखाते सपने विकास के और वे दिखाते मुक्ति 

बेचारी भोली जनता पीस रहें  देखो दो पाटन मे 
धर्म-राजनीति का घालमेल हैं शासन-प्रशासन में 

          -डा अनिल भतपहरी /9617777524

Wednesday, July 3, 2024

सूर्योपासना

#anilbhatpahari 

छठ पर्व पर एक  ध्यानाकर्षण आलेख 

सूर्योपासना 

         सतनाम संस्कृति में सूर्योपासना (नमस्कार ) संझा- बिहंचा होथे । ते पाय के उत्ती मुहाटी के घर बनाय जाथे । दीया अउ जैतखाम पालो उत्ती दिशा म राखे जाथे ।आजकल मंदिर- गुरुद्वारा तको उत्ती मुंहा बनाय जात हे।         पहिली मंदिर के चलागन नइ रहिस । केवल  भंडारपुरी गिरौदपुरी अउ तेलासी म ही रहिस ।

  सुरुज-चंदा नाव जैतखाम गड़ाये 
  सतनाम धजा सुघ्घर पालो चढ़ाये 
 
  
       सूर्योपासना  छठेच  परब म नहीं भलुक सदा दिन चले आत हे ।

           ।। सूर्योपासना (छठ )परब के अघादेच बधाई ।।

🌞 *आधुनिक सूर्य षष्ठी/ छठ व्रत-एक  प्राचीन समन/श्रमण बौद्ध  परंपरा*🌞 

_BHOLA CHOUDHARY 
(GOLD MEDALIST) 
MECH DEPT,SECR, RAIPUR 
MOB 09752445661

ABSTRACT -     
    
 छठ या सूर्येउपासना मुख्यतः निसर्ग सूर्य  की  उपासना है। छठ मूल रूप से बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के तराई क्षेत्र का पर्व है। ये पूरा इलाका वहीं है, जहाँ गौतम बुद्ध घूमा करते थे। छठ मूल रूप से मनौती का पर्व है। मनौती के लिए ही बौद्ध धर्म में मनौती स्तूप बनाए जाते थे। छठ घाट पर बनी छठ की वेदी मनौती स्तूप से मेल खाती है। बिहार के सारण क्षेत्र में छठ - वेदी को सिरसौता कहा जाता है। इस सिरसौते का आकार - प्रकार ठीक वैसा ही होता है, जैसा कि नालंदा, वैशाली समेत अनेक बौद्ध- स्थलों पर बने मनौती स्तूप का होता है। आश्चर्यजनक रूप से छठ के प्रसाद के रूप में जो ठेकुए या अघरवटा बनाए जाते हैं, उस पर पीपल - पाँत और धम्म चक्र की छाप होती है।
छठ हर हाल में  ईश्वर भगवान काल्पनिक  देवी देवता और मध्यस्थता करने वाले पुरोहित पुजारी पंडित विहीन श्रमण पर्व है।इस प्रकार यह ईश्वर के साथ भी और ईश्वर के बाद भी के सिद्धान्त पर आधारित नैसर्गिक प्रकृति पूजा का समन/ श्रमण मूलनिवासी  बौद्ध संस्कृति का व्रत है।

INTRODUCTION-

समाज ही वह चमन है जिसमें मानवीय  संस्कारो संस्कृति की पुष्प खिलते है।  जिस कारण भारतीय समाज प्राचीन काल से  ही उत्सव पर्व प्रेमी  रूप में सांस्कृतिक मूल्यों का विकास करता रहा है। इस प्रकार
भरतीय श्रमण कोइतुर मुलनिवासी लोक परंपरा  के संदर्भ में पर्व पावनता का ,उत्सव उमंग का  एवं त्योहार त्याग,  तितिक्षा और तत्परता का प्रतीक रही  है। मूलनिवासी भातीय सामाजिक व्यवस्था में श्रम, साहस त्याग,कुशलता, मिहनत और पुरुषार्थ पर आधारित  श्रमण  सम्यक सौम्य  संस्कृति ही आदी, मूलनिवासी संस्कृति रही है। इसी कारण भारत  के सभी पर्व प्रकृति ,पर्यावरण संरक्षण,लोक स्वास्थ्य , कृषक, श्रमण संस्कृति से  जुडी रही  है। 

मूलत: मूलनिवासी श्रमण  परम्परा छठ पूजा का त्योहार प्रकृति  मौसम परिर्वतन,कृषक व्यवस्था, उसके कृषक कार्य में सहयोगी पशुओं एवं उनके रक्षको पालको सेवादारो  के प्रति प्रेम भाव सहकार  भाईचारे और सम्मान  का पर्व रही  है। भारतीय संस्कृति में धर्म  परम्परा मान्यताओं का प्रमुख स्थान है । कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि से सप्तमी तिथि की सुबह तक मनाया जाने वाला षष्ठी पर्व बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश एवं अन्य राज्यों में बसे लाखों लोगों की  ब्रह्याण्ड को आलोकित और ओजस्वी बनाने वाले  सूर्येउपासना  रूपी नैसर्गिक आस्था का महान पर्व है । इस पर्व में षष्ठी को जहाँ अस्ताचल गामी सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है, वहीं सप्तमी की सुबह उद्याचल गामी मार्तण्ड को अर्घ्य देकर इस पर्व का उद्यापन  और समाप्ति होता है। 
इस पर्व को  धर्म भक्ति,श्रद्धा,  आस्था समर्पण और  भावना  की परम्परा से इसीलिए जोड़ा जाता है ताकि प्रकृति के इस योगदान  सहकारी भाव, स्वरूप रूप से  मानव समाज  जुड़े  रहे और उसकी अमूल्य धरोहरों को समझे जिनसे ही आदमी का जीवन और अस्तित्व  है। 

इस लेख में छठ पर्व की उत्पति से संबंधित विभिन्न  पक्षो  संदर्भ पर  एवं बौद्ध परंपरा के रूप में  छठ पर्व  का विस्तृत रूप से  प्रकाश डालने की कोशिश किया गया है। ताकी इस  प्राकृतिक  त्योहार की मौलिक श्रमण  बौद्ध  स्वरूप उभर  सके  जिससे  भारतीय समाज मे फैली अंधविश्वास और पाखंड से  निजात पाते हुए सामाजिक सरोकार भाईचारे बंधुत्व और प्रकृति के प्रति मानवीय उत्तरदायित्व का निर्वाह किया जा सके। 
 
*भारत मे  पर्व  की उत्पत्ति एवम ऐतिहासिक  पृष्ठभूमि*

 अदिमानव का  का जीवन अनेक  प्राकृतिक सामाजिक भौगोलिक समस्यायों , कष्टों और विपदाओं से भरा हुआ  था। वह भाग दौड़ की जिंदगी मे  दिन-रात अपने जीवन की समस्यायों  कष्टो और  पीड़ा का समाधान ढूंढने में जुटा रहता था । ताकि उसकी मानवीय अस्तित्व की रक्षा हो सके। इसी आशा और निराशा के क्षणों में उसका मन व्याकुल दुखमय बना रहता था । इस बिविधतावादी समस्याओं की  सामाजिक और मनोवैज्ञानिक समाधान के रूप में मूलनिवासी   श्रमण  मानवसमाज ने पर्व उत्सव और त्योहार का अबलम्बन प्राप्त किया।  पर्वो और त्योहारो की शृंखला आदिकाल से सभ्य मानव समाज तक अबाध रूप से चलती रही।  जिस कारण आज आधुनिक  भारतीय    समाजिक  व्यवस्था में ऐसे ही क्षणों में  सूर्य सष्ठी जैसे पर्व उसके जीवन में  सूर्य की  ऊर्जा और  साहस  के  रूप में खुशियां भाईचारे   सदभाव सज्जनता साहस सत्कर्म  और जीवन मे  आशा का संचार करते हैं। 
उपरोक्त  प्रस्तावना के  आधार पर कहा जा सकता है कि  होली दीवाली, दियारी  मौलिक  रूप से एक श्रमण मुलननिवासी पर्व  रहे है। प्रकृति के  सूर्य की किरणें पेड़ पौधों को ऊर्जा देती है फिर उसी  पेड़ को फलों सब्जियों की खाकर हम  मानव समाज ऊर्जावान होते है इसलिए हम सब प्रकृति के रूप है ।सूर्य चन्द्र जल अग्नि पवन  सब प्रकृति है इसलिए सूर्य को प्रकृति का साक्षात ऊर्जा स्रोत मानकर  उसे लाभ  प्राप्त किया जाता है। 
लेकिन आधुनिक काल मे   मुलननिवासी पर्व त्योहारो के मौलिक स्वरूप को ब्राह्मणीकरण करके रूपांतरित कर दिया गया है।  लेकिन फिर भी  इसके  मौलिक स्वरूप में बहुत परिवर्तन नही आया है। इस पर्व की सबसे बड़ी बात यह है कि इसमें किसी  पुरोहित, तंत्र -मंत्र, कर्मकांड आदि का कोई महत्व नहीं है। इसमें किसी काल्पनिक भगवान  देवी देवता की उपासना नहीं है ,बल्कि प्रत्यक्ष रूप से दिखाई देने वाले  नैसर्गिक देवता सूर्य को ही नैसर्गिक सत्ता मान लिया गया है। सभी  व्रत साक्षात सूर्य, ऊर्जा के प्रमाणिक स्रौत, की उपासना साधना से जुड़ी है। इसमें एक ही साथ कृषि, पशु, जल एवं ऊर्जा के मुख्य स्रौत सूर्य को महत्व दिया जाता है।जो शास्वत और वैज्ञानिक रूप से  सत्य है ।

खेती में उपजाने वाले हर एक दाने के लिए प्राकृतिक पंचतत्व (वायु, मिटटी, पानी, अग्नि, आकाश) की कृपा समझा जाने लगा। जब भी कोई नयी फसल पकती उसे पहले प्रकृति शक्ति फड़ापेन को ही समर्पित किया जाता था. उसके बाद उस फसल में सहयोग देने वाले पशुओं को कुछ हिस्सा दिया जाता है. 

भारत की कृषि व्यवस्था में फसलों को दो प्रमुख समूहों में बांटा गया है, पहला, उन्हारी (रबी) की फ़सल और दूसरा, सियारी (खरीफ) की फ़सल। वंजी (धान) सियारी की मुख्य फ़सल होती है इसलिए पूरे सियारी फ़सल(धान, उडद,  जिमीकन्द, सिंघाड़ा, गन्ना इत्यादि) के स्वागत और  कुदरत को समर्पित करने  के लिए ये पर्व मनाया जाता है, इसलिए इसे सियारी पर्व  ,नवा खाई भी कहते हैं। धीरे धीरे अन्य  संस्कृतियों के लोगों द्वारा इस पर्व का स्वरूप पूर्ण-रूपेण बदल दिया गया और आज पूरा देश इस त्योहार को दीपावली या दीवाली  के तुरंत बाद सूर्येउपासना के पर्व  छठ पूजा के नाम से मनाता है।।

*भारत मे श्रमण छ्ठ पूजा की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि*

​ प्राचीन  बौद्ध काल में विहार/बिहार का  मगध देश बहुत सुखी और समृद्ध देश था। 
पाटलिपुत्र की धरती , चन्द्रगुप्त मौर्य की धरती और भगवान बुद्ध की धरती  रही है।   बौद्ध इतिहास में एक पर्व ‘दीपदानोत्सव’ नाम से जाना जाता था।  यह एक बौद्ध पर्व था जिसका वर्णन तृतीय शती ईसवी के उत्तर भारतीय बौद्ध ग्रन्थ ‘अशोकावदन’ तथा पांचवी शती ईस्वी के सिंहली बौद्ध ग्रन्थ ‘महावंश’ में प्राप्त होता है। 
वहाँ वर्ष में दो फसल के सृजन का अच्छा प्राकृतिक वातावरण उपलब्ध है। वहाँ साल में  बरसात' के बाद नवम्बर-दिसम्बर जनवरी में थोड़ा अच्छा वातावरण  होने पर रबी फसल अच्छी तरह से होती है। छठ पर्व की पुजा का आधार अच्छी फसल मान कर  फसलोत्पादन के रूप में करते हैं। जैसा कि सभी अवगत है कि सम्पूर्ण कृषि सामाजिक व्यवस्था में  जिस वर्ष फसल अच्छी ।मात्रा में  होती ही उस साल सभी त्योहार  भव्य और अच्छी तरह  मनाई जाती है। ठीक उसी तरह अच्छे फसल के खुशी में  छठ माइ की पुजा अच्छी तरह मनाई जाती है।  अच्छे फसल के लिए कार्तिक महीना  में खरीब फसल के रूप में छठ पुजा और रबी फसल अच्छी होगी तब चैत महीने  की  रबी फसल की छठ पूजा मनाते हैं।​
​बंगाल (कलकत्ता) में उत्तर भारत के लोग गंगा के किनारे छठ माई  कीे पुजा करते हैं। 

छठ पर्व का इतिहास कब का है इस बात का तो दावा नहीं किया जा सकता  है।लेकिन यह *कुषाणकाल से पहले का मनाया जाने वाला पर्व है*।कुषाण काल के बाद ही कुषाण राजाओं द्वारा बुद्ध की मूर्तियों का निर्माण किया जाना प्रारंभ हुआ जिसमे बुद्ध की माता का संदर्भ छठी मईया के रूप में  इस पर्व में सूर्य पूजा के साथ जुड़ गई।

इसमें सूर्य और छठी मईया दोनों की पूजा की जाती है। चूंकी छठी मईया के नाम पर इस पर्व का नाम है इसलिए यह कहा जा सकता है कि सूर्य पूजा छठ पर्व में बाद में आई। 
 जैसा कि माना जाता है कि कुषाण काल के राजा कनिष्क के समय में *‘मग’ लोग सूर्य की मूर्ति लाए*, *जो मूर्ति ‘मग’ लेकर आए वो घुटने तक जूता पहने हुए थी  क्योंकि कुषाण काल में राजा भी घुटनों तक जूता पहनते थे*।  क्योंकि *किसी भी सभ्यता संस्कृति के परंपरा उसके सामाजिक,  सांस्कृतिक,राजनीतिक,  आर्थिक  और धार्मिक व्यवस्था के प्रतीक होते है*।  *वर्तमान में बिहार के औरंगाबाद जिलें में जो सूर्य मंदिर है उसमें भी सूर्य की मूर्ति घुटनों तक जूता पहने हुए है। यह परम्परा भारत में कुषाण काल में मग लेकर आए (मग लोग ईरान से आए और ईरान में सूर्य पूजा ( सूर्यवशी आर्य) की मान्यता काफी है) और उन्हीं लोगों ने सूर्य की एक विशेष प्रकार की पूजा चलाई*।

*वैदिक मतों  या आर्यो के मत पितृसत्तात्मक परंपरा में  में सूरज को पुरुष देवता माना जाता है।और चंद्रमा  को  स्त्री देवता*। *लेकिन  मूलनिवासी द्रबिड़ो अनार्यो के  मातृसत्तात्मक व्यवस्था के अनुसार सूरज महिला देवता और चंद्रमा पुरुष देवता माने जाते है*। *उनका विश्वास था कि सूरज की कृपा से समुद्र के पानी वाष्प के रूप में ऊपर उठता है ऊपर उठकर बादल बनकर वर्षा होती है, इसलिए उन क्षेत्रों में खरीब(धान) की फसले अच्छी होती रही है। फिर सूर्य की कृपा से सर्दियों के समय में  अत्यधिक शीत की बरसा होती है तो चैत माह में   रबी ( गेहू)फसल अच्छी होती है*।
*
यह कहा गया कि छठ माई के पूजा में सूरज को पानी में खड़े  होकर पूजन सामग्री (सूपली में) में रखकर अर्ध्य स्वरूप अर्पण करते हैं। विभिन्न प्रकार के सामान जैसे - गेहू से बना ठेकुआ, चावल के लड्डु वताबी नेबु (गागल), नारियल, गन्ना, पानी फल (सिंधाड़ा) ,मूली ,शकरकंद, सिजनल फल, अमरूद,सेव्, अनार, संतरा केला - अन्नादि। ये सब अनार्य के समय का प्रचलन है। इससे समझा जाता है कि  आर्य  वैदिक सभ्यता  के साथ कोई संबंध नहीं है।
 बौद्ध काल मे  मगध  शव्द एक खास प्रकार के  विचार और संस्कृति के लिए प्रयोग होता  था। जिसमें  पटना गया नालंदा  मगध के अंतर्गत आते थे।  यहाँ छठ पूजा जल में खड़े होकर उगते और अस्त होते सूर्य की ओर देखते हुए छठ पुजा की  जाती है। छठ पुजा न होने पर प्रकृति कुपित हो बाधित कर सकती है, यह धारणा है। छठ माई के रूप में सूर्य के  असंतुष्ट हो तो कई प्राकृतिक  खतरे बन जाएंगे, प्रकृति रुष्ट हो जाएगी ।
यह  छठी माई भक्ति भय जनित भक्ति है। पूजा  से ममत्व उमड़ेगा माई के दिल में और भला होगा सबका। 
सर्वप्रथम छठ पूजा मगध क्षेत्र में आरम्भ हुआ और क्रमशःअन्य क्षेत्रो में फैलता गया।
इस प्रकार छठ पूजा प्रकृति पूजा अर्थात जड़ पूजा है जो भय मानसिकता से प्रेरित होकर प्राचीन काल में लोग अपने  मानव समाज से शक्तिशाली जड़सत्ता को पूजते थे। प्रकृति पूजा मन को स्थूल की ओर ले जाता है, जबकि परमचैतन्य अर्थात स्वयं  अंतःकरण की साधना मन  विचार चेतना को सूक्ष्म से सुक्षतम की ओर ले जाता है। प्रकृति पूजा से व्यष्टि या समष्टि का आध्यात्मिक उन्नति नही हो सकता है।आध्यत्मिक उन्नति के लिए एक  स्वयं की आत्मिक चेतना , ऊर्जा  सत्ता का अपने भीतर अनुभूति करना होगा जो भक्ति के द्वारा ही सम्भव है। 

*छठ पर्व एक ऐतिहासिक श्रमण बौद्ध परम्परा* 
( *छठपर्व- ईश्वर के साथ भी ईश्वर के बाद भी*) 
 
इस आलेख  के इस भाग में  में छठपर्व की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के बाद इसकी विभिन्न गतिविधियों का मौलिक विश्लेषण कर इसके बौद्ध परंपरा के रूप में स्थापित करने की कोशिश किया गया है।

*प्राचीन बौद्ध छठ पर्व की  भौगोलिक क्षेत्र*-

छठ पर्व *कार्तिक शुक्ल पक्ष/उजियारी पाख के चतुर्थी* से लेकर षष्ठी*  तक  मनाया जाने वाला एक  बौद्ध पर्व है। यह पर्व मुख्य रूप से पूर्वी भारत के बिहार, झारखंड पूर्वी यूपी और नेपाल के तराई क्षेत्रों में मनाया जाता है। यह पर्व  आधुनिक भारत मे मुख्य रूप से हिंदु धर्म के लोगों में मुख्य पर्व के तौर पर मनाया जाता है। इसमें छठ मईया और सूर्य की पूजा की जाती है जिसे सूर्येउपासना सूर्यषष्ठी व्रत  भी कहते है।  भाषा वैज्ञानिक पुरातात्विक विशेषज्ञ डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह ने इस पर्व के संबंध में अपनी राय रखी और छठ के नए पहलुओं से अवगत कराया। उनके अनुसार 
"*छठ प्राकृत भाषा का शब्द है*। जो प्राकृत के षट शव्द से बना है जिसका अर्थ छह या छह की संख्या का प्रतीक  है।  छठ के संबंध में सारा ध्यान हमारा जो जाता है वो इस बात पर जाता है कि छठ उन्हीं इलाकों में मनाया जाता है जहाँ गौतम बुद्ध भ्रमण  करते थे ,समतामूलक  बंधुत्व मूलक समाज बनाने के लिए जिन–जिन इलाकों में उन्होंने भ्रमण कर अपने उपदेश दिए। इसकारण मुख्यत: छठ की परम्परा बिहार, पूर्वी यूपी, नेपाल की तराई में मानाया जाता है। नेपाल की तराई, बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के क्षेत्रों में ही  गौतम बुद्ध प्राय: घूमा करते थे*। यह कोई मामूली स्थापना और तर्क नहीं है कि छठ केवल उन्हीं  क्षेत्रों में मनाया जाता है जहाँ बुद्ध का अपना इलाका था, जहाँ से उनका लगाव था। यह स्थापना  गणेश पूजा, दूर्गा पूजा, ओणम, नवाखाई ,   हरेली  जैसी हरेक पर्व त्योहार और परंपरा के  साथ लागू होता है।  जिसमे पर्व  का उदगम किसी खास भौगोलिक क्षेत्र संस्कृति से होता है लेकिन समयानुसार  आधुनिकता   संचार के साधनों  यातायात व्यवसाय  रोजगार  की विविधता के कारण  सर्वेभौमिक रूप से  वैश्विक स्तर पर विस्तृत हो  जाता है। 
आज आधुनिक काल मे भूमंडलीकरण औद्योगिकरण शहरीकरण के कारण परम्पराओ त्योहारो का भी वृहत विस्तार हुआ है। जिस कारण   बिहार से लेकर उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश ,बंगाल , महाराष्ट्र आदि राज्यों तक ही नही बल्कि  नेपाल बंगलादेश अमेरिका इंग्लैंड  में  प्रबजन के कारण  विस्तार हुआ है। जीओ

*छठ पर्व की महत्वपूर्ण  मौलिक विशेषता* 

1)छट पूजा याने सूरज या सूर्य की पूजा होती है, जिसे सूर्य देव की पूजा कहते है।
2) इस पूजा में सूर्य देव के रूप में अमिताभ बुद्ध के साथ छठ माता याने  वास्तव में  दुर्गा के रूप में  बसुधारा बुद्द की पूजा होती है।
3) इस पूजा में उगते हुवे और डूबते हुवे दोनों समय के सूर्य की पूजा होती है

अमित नरवाडे, बुद्धिस्ट इंटरनेशनल नेटवर्क के अनुसार छट पूजा को सही, ऐतिहासिक और तथ्यात्मक परिपेक्ष में देखे तो, सूर्य देव  की पूजा करना यह एक  उपासना की प्रतीकात्मक रूप है। ब्रह्मण्ड के ऊर्जा का  एक मात्र स्रोत  सूर्य एक प्रतीक है।   डॉ बाबासाहेब अम्बेडकर के बुद्धा एंड धम्म में बौद्ध धम्म में बुद्ध को अमिताभ कहा गया है। अमिताभ याने जिसकी प्रतिभा (ताभ) ज्ञान प्रज्ञा बुध्दिमता  असिम  अथाह और अमिट हो। जिसकी प्रतिभा  बुद्धि प्रज्ञा सूर्य के प्रतिभा ओज तेज प्रखरता के समान  हो। बौद्ध ग्रंथों में 
बुद्ध को ही शाक्य सूर्य और बाद में सूर्य देव कहा गया और  माना भी गया है। आज   भारतीय  लोग छठपर्व की  पूजा में सूर्य को पूजते है, हकीकत में  अमिताभ बुद्ध को ही  सूर्येउपासना के सूर्य रूप में पूजने कि  ऐतिहासिक परंपरा है।

 भारत मे बुद्ध के परिनिब्बान ( परिनिर्वाण) के पश्चात  मौर्य काल और उसके बाद भी भारत मे सूर्य मंदिरों का निर्माण किया गया। जिस में प्रमुख रूप में,
१) ओडिसा का कोणार्क सूर्य मंदिर
२) गुजरात का मोढेरा सूर्य मंदिर
३)  कश्मीर का मार्तंड सूर्य मंदिर
 यह सारे मंदिर कलाशास्त्र और पुरातत्व के  दृष्टिकोण से बुद्ध विहार,चैत्य और स्तुप है,  जिसमे सभी  मंदिर स्तूप ज्यादातर नागर शैली  के माने जाते है  है।
इस मंदिरों के ऊपर कई बुद्धकी, बोधिसत्व पद्मपाणि, वज्रपाणि, तथा महिला बोद्धिसत्व में मंजुश्री, वासुधारा और महामाया की प्रतिमाये चिन्हित है।
कई सौ वर्षों के बाद बोधिसत्व पद्मपाणी को  श्रमण के विरोधी ब्राह्मणों ने  विष्णु और वज्रपाणि को शिव के रूप में प्रसारित और स्थापित कर   सम्पूर्ण  श्रमण बौद्ध इतिहास और परंपरा को मानो बदल के ही रख दिया।

आधुनिक काल मे  बौद्ध परंपरा के पद्मपाणि को पहचानने का एक तरीका है, वह यह है कि अलंकार युक्त पुरुष रूप में, जिस के हाथ मे कमल का फूल उसके डंडी के साथ हो वह पद्मपाणि की मूर्ति होती है।

जिस पुरुष रूप अलंकारित मूर्ति के हाथ मे वज्र यह हत्यार होता है वह वज्रपाणि की मूर्ति होती है।
छठपर्व पूजा में छठ माता को भी पूजने की परंपरा है। साथियो यह छठ माता की पूजा याने  ब्राह्मणी दुर्गा  के  रूप में मूलतः वसुधारा बुद्ध ,तारादेवी की पूजा है।
बौद्ध परम्परा के तांत्रिक वज्रयानी बुद्धिज़्म में दुर्गा यह बोद्धिसत्व महिला याने बुद्धिस्ट गॉडेस है जिसे  वज्रयानी बुद्धिज़्म में वासुधारा भी कहा गया है। इसलिए संभवतः यह  बुद्ध के  माता महामाया का भी प्रतीक हो सकता है। जिसे बाद के काल मे  ब्राह्मणों द्वारा हिन्दू धर्म मे  दुर्गा और लक्ष्मी के  रूप  मे स्थापित कर पूजा जाने लगा। 
 इस पर्व में उगते और डूबते (sun rise and sun set) दोनों समय  सूर्येउपासना और पूजा का संबंध है जो संभवतः बुद्ध के जन्म और परिनिब्बाण के प्रतीक रूप में प्रचलित हुआ है। हम सभी जानते है गौतम  बुद्ध का जन्म और परीनिब्बाण दोनों पूर्णिमा  के दिन ही हुवा है ।

आज वर्तमान में छठपर्व पूजा का वास्तविक इतिहास, उसकी परंपरा और उसके सांस्कृतिक संबंधों के बारे में बहुजन  मूलनिवासी समाज अनजान और अनभिज्ञ  है क्योंकि  ब्राह्मण साहित्यकारों  ने पुराण, कथा और mythology से लोगो को संभ्रमित किया है।  जिस कारण लोग सही और वास्तविक  इतिहास  नही  जानते है। लेकिन इस विश्लेषण के माध्यम से  बौद्ध संस्कृति के रहस्योद्घाटन किया गया है ताकि समाज सच्चाई को जानकर अपनी मौलिक ऐतिहासिक परंपरा से जुड़ सके।

*छठपर्व की विभिन्न गतिविधियों में बौद्ध परंपरा*-

भगवान  गौतम बुद्ध के बाद भी  भारत मे जबतक पालि भाषा रहा है तब तक व्रत और पर्व शब्द का उदय नही हुआ था।
उस समय पाली भाषा मे  *विरत और पब्ब* शब्द का प्रचलन था। जिसमें *विरत* का प्रयोग  मानव के मानवीय, चारित्रिक स्वाभाविक राग द्वेष कामना वासना, लोभ,मोह, व्यभिचार पाप, हिंसा से दूर रहने हेतु और *पब्ब*/पर्व*  *का प्रयोग राग द्वेष को दूर करने वाले आयोजन समारोह घटना वातावरण  से  था*। इसी कारण समन बौद्ध परंपरा में मानवीय दोषो से विरत मुक्त रहने के लिए कुछ अनुष्ठान करने की परंपरा प्रचलित हुई।  जिसमे 
 छठपर्व चतुर्थी से सप्तमी तक मनाई जाती है।इसमें प्रथम दिन चतुर्थी तिथि को मनाए जाने वाले  परम्परा को  नहाय-खाय से आरंभ करते है।  क्योंकि बौद्ध परंपरा में  शारिरिक  मानसिक चित शुद्धि से चेतना की   शुद्धि  का उपक्रम अपनाने की प्रक्रिया रही है। यह व्रत तन की शुद्धि और मन की शुद्धि के लिए है, जिससे संतान के  मन विचारों में शुद्धता आए और वह स्वस्थ रहे, सूर्य-सम ओजस्वी-तेजस्वी  प्रगतिशील प्रज्ञावान बना रहे।

 नहाय-खाय के दूसरे दिन अर्थात् पञ्चमी तिथि को मनाए जाने वाले *खरना व्रत* के अर्थ  को लेकर अलग-अलग कयास लगाए जाते हैं, जबकि *भषा-विज्ञान के आधार पर यह स्पष्ट है कि यह खरा (शुद्ध) ,निर्मल परिष्कृत ,विशुद्ध होने की क्रिया है*। जैसे पढ़ से पढ़ना है, लिख से लिखना है, वैसे ही खर से खरना है ।  खरना अर्थात्   शारिरिक,आध्यात्मिक, मनोवैज्ञानिक व्रत, उपचार  द्वारा अंतःकरण को शुद्धकरने की  क्रिया खरनाहै।  अर्थात साधना की  उच्चतम स्तर की प्राप्ति के लिए तन मन चित से निर्मल होकर तैयार होने की  आध्यात्मिक प्रक्रिया है। जहाँ तक इसके धार्मिक मनोवैज्ञानिक  पक्ष की बात है तो हम जानते हैं कि भारतीय  श्रमण संस्कृति में साधना का प्रारंभ श्रद्धा और विश्वास से होना माना गया  है। जिसमें शुद्धिकरण  प्रथम  सोपान है। *ईसके उपरांत  महिलाएं  सूर्येउपासना की कड़ी में प्रथम दिवस की अर्घ्य देने के लिए शारिरिक और मानसिक  रूप से योग्य और सक्षम हो जाती है*। 

 *अस्ताचल एवं उदयमान  सूर्य का अर्घ्य*
इस पर्व पर  महिलाएं अस्ताचल सूर्य एवं उदीयमान सूर्य को  नदी तालाब के पानी  में खड़ी होकर हाथ मे सुप में विभिन्न फल और पकवान धारण कर अर्घ्य देती है।  यही एकमात्र पर्व है जिसमें अस्ताचल सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है।
छठ पर्व एक ओर  डूबते सूर्य की आराधना का पर्व है। डूबता सूर्य इतिहास होता है, और कोई भी सभ्यता तभी दीर्घजीवी होती है जब वह अपने इतिहास को को याद करके सीखे। बाबा साहेब अम्बेडकर  ने इसलिए ही  कहे है कि जो अपना इतिहास नही जानता वह इतिहास निर्माण भी नही कर सकता है।  अपने इतिहास के समस्त योद्धाओं  मौलिक मूल्यों त्योहारो को पूजे और इतिहास में अपने विरुद्ध हुए सारे आक्रमणों और षड्यंत्रों को याद रखे।
       दूसरी ओर छठ उगते सूर्य की आराधना का पर्व है। उगता सूर्य मानव सभ्यता का भविष्य होता है, और किसी भी सभ्यता के यशश्वी होने के लिए आवश्यक है कि वह अपने भविष्य को पूजा जैसी श्रद्धा और निष्ठा से सँवारे। हमारी आज की मूलनिवासी  श्रमण पीढ़ी यही करने में चूक रही है, पर उसे यह करना ही होगा। यही छठ व्रत का मूल भाव है। 

 *छठपर्व की पूजा  सामग्री में बौद्ध  इतिहास*

इस पर्व का जो प्रसाद पकवान  है उसमें सर्वाधिक प्रमुख है अगरौठा  ( अर्घ्य की पकवान) जिसका संबंध अर्घ /अरग/अर्घ्य देने से है। अगरौठा की जो आकृति है, जिसका ठप्पा ,छाप ठेकुए/ठोकोउया( आटे गुड़ से  ठोककर बिना बेले हुए निर्मित पकवान)  पर मारा जाता है  जिसमे आज भी उसमें दो प्रकार के चिन्ह मिलते हैं। पहला चिन्ह मिलता है पीपल के पत्ते का और दूसरा चिन्ह मिलता है  बुद्ध के अष्टचक्र के चक्र का।   पीपल बुद्ध के बिहार में  बोधज्ञान (बोधगया) के  बोध,ज्ञान  प्राप्ति का प्रतीक है तो दूसरी ओर  अष्टचक्र अष्टांगिक मार्गे का प्रतीक है*।यह कोई मामूली तर्के और प्रमाण  नहीं है ।क्योंकि श्रमण मूलनिवासी समाज और  हाशिए का इतिहास ऐसे ही  त्योहारो प्रतीकों उत्सवों लोककथाओं जीवन के मानवीय मूल्यों में लिखा गया है जो कहीं पत्थरों पर, कहीं दीवार में, कहीं ठेकुए पर भी आज भी  जीवित है । पीपल के पत्ते और चक्र का चिन्ह दोनों ही छठ को बौद्ध परम्परा से जोड़ते हैं।
 छठ का नामकरण मूलत: छठी मईया पर है।  छठी मईया  श्रमण संस्कृति की मातृसत्तात्मक व्यवस्था के कारण ही इस पर्व का नाम छठ है।  बाँस से बने सूप का प्रयोग इसमें बहुत ही महत्त्व रखता है। ध्यान दें कि बाँस को वंशवृद्धि का प्रतीक माना गया है, और भाषा विज्ञान के अनुसार दोनों शब्दों का मूल एक ही है।

*बौद्ध  छठपर्व के बौद्ध स्वरूप की पुरातात्विक प्रमाण*- 
प्रसिद्ध इतिहासकार पुरातत्ववेता एवं भाषावैज्ञानिक डॉ राजेन्द्र प्रसाद सिंह के अनुसार
बौद्ध पर्व छठ घाट की सफाई में बौद्ध स्थल का   पुरातात्विक प्रमाण प्राप्त हुआ है। 
बिहार के जिला बाँका के भदरिया गाँव में चाँदन नदी की धारा में छठ घाट की सफाई के दौरान प्राचीन भवनों के अवशेष मिले हैं।
आज के भदरिया गाँव का उल्लेख बौद्ध ग्रंथों में भद्दिय गाँव के रूप में है ( अंगुत्तर निकाय) ।इसके  साथ ही भद्दिय गाँव का उल्लेख  बाबासाहेब डाॅ. अंबेडकर, राहुल सांकृत्यायन और हवलदार त्रिपाठी ने  भी किया है। कभी गोतम बुद्ध वैशाली से चारिका करते हुए लगभग 1200 भिक्खुओं को साथ लिए भद्दिय गाँव पधारे थे।
तब भद्दिय गाँव के एक बड़े श्रेष्ठी मेण्डक हुआ करते थे। मेण्डक ने अपनी पोती विशाखा को बुद्ध के सत्कार में अगवानी के लिए भेजा था, जिन्हें मिगार माता विशाखा कहा जाता है।
प्राचीन भवन के अवशेष में कई कमरे दिख रहे हैं, ईंटें हाथ से थापकर बनाई गई हैं, फिर पकाई गईं हैं। भदरिया गाँव के लोग पहले से ही मानते रहे हैं कि हमारे गाँव बुद्ध कभी पधारे थे।
अब बौद्ध पर्व छठ के अवसर पर उन्हें पुरातात्विक सबूत मिले हैं।

 *छठपर्व की  सिरसौता का बौद्ध परम्परा से तुलना*-

छठ के नाम पर नए चरित्र को गढ़ा गया है उसकी मूर्ति भी अब कुछ लोग बैठा रहे है। जबकि हजारों साल से छठ को  तालाब पोखरे नदी के किनारे बने बौद्ध स्तूपों पर  महिलाए जाकर प्राकृतिक फल फूल चढ़ा कर सूरज को अर्घ देकर मनाती थी, यह पर्व दीप दान उत्सव जिसे बदल कर दीपावली किया गया जो बुद्ध से जुड़ा था के बाद मनाया जाता रहा है। साथ में यह पर्व छठ यानि छठी यानि छठवें से जुड़ा है, तो  महिलाओ का मानना था की वो व्रत  उपवास रहेंगी तो उनको गौतम बुद्ध की तरह यश कीर्ति वाला पुत्र मिलेगा ।   जैसा कि मालूम है कि गौतम बुद्ध की माता  लुम्बिनी का निर्वाण यानी देहांत  गौतम  बुद्ध के जन्म के छठवें दिन हो गया था तो यह  महिलाएं उस लिए उपवास रहती थी और कामना करती थी कि उन्हें बुद्ध के समान संतान की प्राप्ति हो । फिर हजारों साल में बौद्ध सभ्यता को मिटाने की कोशिश आर्य  ब्राह्मणवादी  लोगो ने किया पर  मौलिक उत्सव नही मिटाए जा सकते थे तो उसका रूप बदल दिया   और कई काल्पनिक मनगढंत झूठी कहानियां फैलाते गए ।

प्रसिद्ध इतिहासकार पुरातत्ववेता एवं भाषावैज्ञानिक डॉ राजेन्द्र प्रसाद सिंह के अनुसाप्रसिद्ध इतिहासकार पुरातत्ववेता एवं भाषावैज्ञानिक डॉ राजेन्द्र प्रसाद सिंह के अनुसार
"इस पर्व में लोग  नदी तालाब के किनारे अर्घ्य देने, कोसी भरने  के लिए छठघाट पर खासतौर से दक्षिण बिहार में जो  मिट्टी ,गन्ने के वेदी /सिरसौता  बनाते हैं वो  बौद्ध स्तूप के आकार का होता है।  उत्तर बिहार में उस वेदी को सिरसौता कहा जाता है, सिरसौता का जो आकार–प्रकार है वो बिल्कुल बौद्ध धम्म के  मनौती स्तूप से मिलता–जुलता है। ऐतिहासिक दृष्टिकोण से देखी जाय तो बौद्ध काल मे जीवन की खुशहाली के लिए, संतान उतपत्ति के लिए मन्नते रखने,  प्रकृति से माँगने  हेतु मणौति रखने की   परंपरा का  प्रमाण मिलता है। और इसी मनोती की पूर्ति उपरांत  बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद मनौती स्तूप बनाने का जो आर्ट  कला  परंपरा है वो आज का नहीं है वो बहुत पुरानी  है। यदि बिहार के नालंदा विश्वविद्यालय के खंडहरों को देखेंगे तो वहाँ आपको बहुत सारे  बौद्ध काल के मनौती स्तूप मिलेंगे।  

सार रूप में यह कहा जा सकता है कि छठ मूल रूप से बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के तराई क्षेत्र का पर्व है। ये पूरा इलाका वहीं है, जहाँ गौतम बुद्ध घूमा करते थे। छठ मूल रूप से मनौती का पर्व है। मनौती के लिए ही बौद्ध धर्म में मनौती स्तूप बनाए जाते थे। छठ घाट पर बनी छठ की वेदी मनौती स्तूप से मेल खाती है। बिहार के सारण क्षेत्र में छठ - वेदी को सिरसौता कहा जाता है। इस सिरसौते का आकार - प्रकार ठीक वैसा ही होता है, जैसा कि नालंदा, वैशाली समेत अनेक बौद्ध- स्थलों पर बने मनौती स्तूप का होता है। आश्चर्यजनक रूप से छठ के प्रसाद के रूप में जो *ठेकुए या अघरवटा/अरघौता* बनाए जाते हैं, उस पर पीपल - पाँत और धम्म चक्र की छाप होती है।
छठ हर हाल में  *ईश्वर भगवान काल्पनिक देवी देवता और मध्यस्थता करने वाले पुरोहित पुजारी पंडित विहीन समन संस्कृती,श्रमण पर्व और व्रत है*।
*छठपर्व का सामाजिक महत्व*।                          छठ दरअसल   जीविकोपार्जन के। लिए माइग्रेटेड समाज के लोगो के लिए वह राहत है जो अपने मुलनिवास से उजड़े हुए लोगों को उनका घर लौटाती है। विस्थापितों को भरोसा दिलाती है कि वे कहीं और स्थापित हो रहे हैं। *उन्हें बताती है कि उनका एक पांव उस जल में है जो कहीं न कहीं किसी छोर पर उनके गांव की सादगी, संस्कार,संस्कृती भाईचारे रुपी नदी में जा मिलता है*। *इस लिहाज से यह धार्मिक पूजा-पाठ से ज़्यादा एक सामाजिक आत्मीयता भाईचारे का त्योहार बन जाता है*। बेशक, हमारे इस सोशल मीडिया युग में सबकुछ  तर्क विमर्श की वेदी पर चढ़ाया जाता है तो छठ के भी इससे अछूता रहने की कल्पना नहीं की जा सकती है।  यह पूछने वाले निकल सकते हैं कि प्रगतिशील तत्वों को छठ मनाने के कर्मकांड में क्यों पड़ना चाहिए और आधुनिक नारीवादी महिला को छठ का उपवास क्यों रखना चाहिए। लेकिन इस जड़विहीन समाज में सारे तर्क और विमर्श जैसे मनबहलाव के साधन हैं- वे अमूमन किसी सांस्कृतिक मूल्य के निर्माण की ज़रूरत से पैदा होते नहीं दिखते। 

*संलग्न तस्वीरों का विश्लेषण*-

 इसमे  अनेक  फ़ोटो संलग्न है। 
1 प्रथम फ़ोटो में अर्घ्य देते हुए महिलाओं की तस्वीर है।
2 दूसरे तस्वीर सिरसौता की है और सिरसौते पर चढ़ाया गया चक्र छाप ठेकुए (पकवान) की है।
3 तीसरी तस्वीर मनौती स्तूप की है, जो सिरसौते से मेल खाती है। 
4 चौथी तस्वीर एक किताब के पन्ने की है, जिसमें सिरसौता और मनौती स्तूप की तुलना है।
आखिर में छठ का प्रसाद जिस पर पीपल - पाँत तथा चक्र की छाप है।

इसलिए मेरा मानना है कि  आधुनिक छठ पर्व के पीछे  मूलनिवासी श्रमण  बौद्ध  धम्म की परंपरा छिपी हुई है और इस पर भविष्य में गहन  शोध अध्ययन और नए सन्दर्भ के  साथ विवेचन करने की जरूरत है"।
निष्कर्ष- 

उपरोक्त विश्लेषण  के  आधार पर कहा जा सकता है कि  छठपर्व  मौलिक  रूप से एक श्रमण बौद्ध पर्व है। छठ या सूर्य या प्रकृति की पूजा पूर्ण रूप से बुद्ध की याद में मनाई जाती है, बुद्ध ने कहा है  कि हम सब प्रकृति निसर्ग के  विभिन्न रूप है । प्रकृति के  सूर्य की किरणें पेड़ पौधों को ऊर्जा देती है फिर उसी  पेड़ को फलों सब्जियों की खाकर हम  मानव समाज ऊर्जावान होते है इसलिए हम सब प्रकृति के रूप है ।सूर्य चन्द्र जल अग्नि सब प्रकृति है इसलिए सूर्य को अर्ध्य दिया जाता है। 
लेकिन आधुनिक काल मे  इसके स्वरूप को ब्राह्मणीकरण करके रूपांतरित कर दिया गया है।  लेकिन फिर भी  इसके  मौलिक स्वरूप में बहुत परिवर्तन नही आया है। इस पर्व की सबसे बड़ी बात यह है कि इसमें किसी  पुरोहित, तंत्र -मंत्र, कर्मकांड आदि का कोई महत्व नहीं है। इसमें किसी काल्पनिक भगवान  देवी देवता की उपासना नहीं है ,बल्कि प्रत्यक्ष रूप से दिखाई देने वाले  नैसर्गिक देवता सूर्य को ही भगवान मान लिया गया है। यह व्रत साक्षात सूर्य, ऊर्जा के प्रमाणिक स्रौत, की उपासना से जुड़ी है। इसमें एक ही साथ कृषि, पशु, जल एवं ऊर्जा के मुख्य स्रौत सूर्य को महत्व दिया जाता है।जो शास्वत और वैज्ञानिक रूप से  सत्य है ।

*दिवाली और छठ फ़सलों की कटाई के बाद की मानव समाज की समृद्धि के त्योहार हैं। आज होली, दिवाली, दसहरा के साथ बहुत सारी भव्य और मिथकीय काल्पनिक कहानियां जुड़ गई हैं, लेकिन छठ ने अपने-आपको ऐसी कथाओं से दूर रखा है। *उसमें पंडित और उसका पतरा नहीं हैं, बस नदी का हिलता हुआ जल है, डूबते और निकलते सूर्यों की कांपती रोशनियां हैं, स्त्रियों का गीला आंचल है, उनके कंठ से फूटते गीत हैं, फल है और  सुर्य अर्ध का दौरा है , ठेकुआं है जिसमें स्वाद से ज़्यादा संस्कार और साझेदारी आत्मीयता का सुख है। *होली के अलावा यह दूसरा त्योहार है जिसने बाज़ार की दानवी जकड़ से खुद को बचाए रखा है*। यहां ग़रीबी और सादगी भी किसी अभिमान की तरह खिलती है और घाटों पर सुबह-सुबह तिरते दीए किसी सभ्यता की उम्मीद की तरह दूर तक निकल जाते हैं। 

  भारत की मूलनिवासी श्रमण सभ्यता और संस्कृति के इतिहास को मुख्य धारा के मनुवादी विभेदकारी  इतिहासकारों ने बहुत ज़्यादा तवज्जो नहीं दिया, जिसकी वजह से बहुत सारा प्रामाणिक और मौलिक इतिहास पुस्तकों साहित्यों में दर्ज नहीं है, वो मौखिक, लोक परम्परा प्रचलन  लोकगीतों कहानियों मिथको और लोककथाओं में है।
*ब्राह्मण  मनुवादी विचारधारा मानने वाले धर्म के पास ऐसा कुछ भी नहीं था, जिसे संस्कारवान या नैतिकता बौद्धिक कहा जाये। अतः उन्होंने बुद्ध की   जातक कथाओं के मूल शिक्षाओं  उपदेशो को चुराना  नकल करना शुरू किया और ब्राह्मण हिन्दू  धर्म का ठप्पा (मुहर) लगाकर बाजार (समाज) में उतार दिया।* इसलिए हमारे मूलनिवासी  श्रमण परम्परा रूपी घर मे कोई कब्जा किया है तो घर को तोड़ेंगे  छोड़ेंगे नही  बल्कि  उस घर से  कब्जा धारियो को खाली   कराकर उसपर अधिकार करके   नए संदर्भ के साथ  उन उत्सवों त्योहारो को मनाना शुरू करेगे।अन्यथा कब्जा  विकृत करने वालो को केवल कोसते रहेंगे तो  अंत मे मूलनिवासी श्रमण समाज के पास   अपनी संस्कृति विरासत कुछ भी नही बचेगा। इस कारण  विकृत रीतिरिवाजों की आलोचना और  वैज्ञानिक तर्के की एक सीमा तक ही प्रयोग करने की जरूरत है। क्योकि कोई भी परंपरा संस्कृति के मानक रीतिरिवाज पत्तागोभी(CABBAGE) के पतो के समान होता है जिसे गंदगी कीड़े मकोड़े से  मुक्त करने के लिए परत दर परत निकालते जायेगे तो अंत मे  कुछ भी शेष नही बचता है।अर्थात  विविध धर्म के मान्यतायों  रीतिरिवाजों  को  खंडन  मंडन करते रहेंगे तो एक समय ऐसा आएगा कि समाज मे  समाजिकता मानवता भाईचारे बंधुत्व सदभाव बढ़ाने के कोई    भी सामूहिक आयोजन ही नही  बचेगे क्योंकि  केवल  आधुनिक तर्क विज्ञान के आधार पर  किसी भी संस्कृति धर्म  मजहव की कोई भी   रीतिरिवाज त्योहार  मान्यताएं 100% शुद्ध खरा और   प्रामाणिक सिद्ध नही होंगे।          हमसब छठ पर सोशल मीडिया में बधाइयों, ठेकुआं, अर्घ्य की तस्वीरों तक सीमित न रहें, अपनी प्राचीन समन संस्कृती के मौलिक सांस्कृतिकता का मोल समझें और यह भी देखें कि अपने समाज से, अपनी जड़ों से कटी हुई, मूलत:  राजनीतिक लक्ष्यों से प्रेरित तथाकथित धार्मिकता ने समाज में कितना ज़हर पैदा किया है। *निःसंदेह aछठ का ठेकुआ यह ज़हर नहीं काट सकता, लेकिन यह दुख या संतोष बांट सकता है कि हममें से बहुत सारे समन लोगों को इस ज़हर की पहचान है*।
 अतः आज जरूरत है कि निराधार, अमानवीय, अन्यायपूर्ण भेदभावपूर्ण व अविवेकपूर्ण  धार्मिक कर्मकांड विश्वासों मान्यताओं रीतिरिवाजों  से मुक्ति पायें।    आज हमसब  को  देश काल परिस्थिति के अनुरूप मध्यम मार्ग का अनुसरण करते हुए   उचित अनुचित  का ख्याल करते हुए विवेकपूर्ण विचार से   मानवीय जीवन को खुशहाल  समाज को आधुनिक, विश्वाशों  मान्यतायों को विवेकपूर्ण , सम्बन्धों को न्यायपूर्ण, जीवन को तनावमुक्त सक्रिय व संतुलित बनायें तभी मानव समाज का भविष्य उज्जवल होगा।         *अब विज्ञान की गंगोत्री से वही ज्ञान की धारा है*।    *समण संस्कृती काउद्धार करेंगे यह संकल्प हमारा है*।।
 
  BHOLA CHOUDHARY

संदर्भ-
1 डॉ सूर्यवाली ध्रुवे , कोया पुनेमि दर्शन
2 डॉ  राजेंद्र प्रसाद सिंह, बौद्ध सभ्यता की खोज, सम्यक प्रकाशन , नई दिल्ली
3 डॉ राजेन्द्र प्रसाद, इतिहास का  मुआयना, सम्यक प्रकाशन
4 अमित नरवाडे का लेख 
बुद्धिस्ट इंटरनेशनल नेटवर्क