"उम्मीद "
सांझ तक धुंध की बादल छटने की उम्मीद तो है तब तक रौशनी का कोई उपयोग ही रह जाएन्गे ऐसे में सब्र रखने का कोई औचित्य नही।
या यूं कहे कि प्यास लगने पर कोई नलकुप खोदने मशीन लाया है और वे इस तरह हमारे हितैषी है !यह समझना भी ठीक नही ।
पर इसी तरह के आश्वासनों की पिटारी लिए योद्धा इस बार युद्ध रत है.. जो अधिक आश्वासनों की ढेरी लगाएन्गे उसकी जीत होगी यह विष्लेशित होने लगा है।
सब्जबाग की महक वाकिय में विभोर करती है और बहेलिये की फंदे मे हर बार परीदें फसते है।ऐसा कभी हुआ नहीं कि परिन्दे अपने साथ हितोपदेश की कहानी के सदृश्य जाल को ही उड़ा ले ....
यदि इससे प्रेरणा ले तो ऊंट को किसी भी तरफ करवटे लेने की जरुरत ही न पड़े ।
कबीर सरकटा आदमी था इसलिए वे एक बीमार के लिए सौ अनार का जुगाड़ कर सकते थे ।
हम सब का तो सर और धड़ वाले है सो यहां हमारे वास्ते एक अनार सौ बीमार ही होन्गे भाई।
बाहरहाल सब तरफ आम दरफ्त और धमाचौकड़ी का खबर है।रोजनामचे में बीमारों की संख्या अनगिनत व बेतरतीब दर्ज हो रहे है।पर इस बखत पाला पड़ गया है सो बाजार से अनार गायब है। इसलिए लोग सब्र की मंसुबे को गरी की चारा बनाकर दरिया मे डाल रखे है ताकि यहां- वहां तैरते मछलियां फंसे तो....
अब यह पता नही चल रहे है कि छूटपुट चारा डाले लोग मछन्दर है कि इन मछन्दरों के चारा नोचकर खाने वाली मछलियां ही असल में राजा बनने लगे है समन्दर के ।
झांकने के लिए खिड़की और वहां साफ साफ देखने के लिए दृष्टि चाहिए पर अपने यहां तो कहावत है - दांत हे चना नही अउ चना हे त दांत नही।सदा से सुनते रहे है कि जनता होने के लिए ऐसा ही होना आवश्यक है।
इसलिए उम्मीद और आश्वासन की बीज यत्नपूर्वक बोई गई हैं। वे लहलहा भी रहे है .....
उम्मीद की फसलें भविष्य में पकते है इसलिए वह अधिक सुनहरे और सुखद लगते है। पर वाकिय यह सब होते भी है ? यह यछ प्रश्न अनादि काल से पीछा करते आ रहे है।
सुखद अहसास तो भूतकाल का होते भले व्यक्ति मौत के मूंह से बचकर आए हो पर उसमें विजयश्री वरण कर स्वयं को सिकंदर कहलाने में नही चूकते फलस्वरुप अनेक अतीत जीवी लोग वर्तमान से कूढ़ते- चिढ़ते अपने कथित भोगे गये स्वर्गिक या स्वर्णिम पल की जुगाली करते वर्तमान को कोसते रहते है।यह प्रवृत्ति खेले खाए भोगे अधाए लोग होते है जिनके कारण ही वर्तमान की यह दारुण दशा हुई है।
जिनके मकड़जाल में तरुण वर्ग गिरफ्त है और वे सदैव सुनहरे भविष्य की कपोल कल्पना में खोए और उलझे रहते है । वे अनिर्णय की दौर से गुजरते काल्पनिक दुनिया को बसाने चिंतन कम चिंता में डूबे नजर आते है।
कुछ लोग जो अपने पुरुषार्थ व परिश्रम से अपन भरोसा तीन परोसा खाने वाले लोग जिन्हे न अतीत से मतलब न भविष्य से वे वर्तमान को भोगते व रौन्दते मदमस्त नजर आते है ।ऐसे लोग बेपरवाह व खिलंदड़ा होते है ।इन्ही लोगो के चलते भोगवादी संस्कृति का वैश्विक विस्तार है ।वे सारी उम्र पल मे जीने और हद से बेहद होने की ललक में लिगल -अनलिगल करते रहते है।ऐसे लोग समाज मे कुछ दर्जे तक सफल व प्रभावी होते जा रहे है ।यह वर्तमान का एक अलग तरह का प्रतिष्ठित लोगो की नव जमात है।
जिनकी अगल - बगल व ऊपर-नीचे पूछ -पकड़ है।
बाहरहाल तीनो अवस्था और प्रवृत्ति मे से सकरात्मक तत्वों का उचित व आंशिक समन्वय कर मनुष्य अपनी अभिशापित जीवन को बेहतर कर सके ऐसी उम्मीद तो मुझ जैसे नाचीज को भी है ।तो आप सब तो चीज बश वालें है खुशियां खरीदों ,पाओं, पैदा करो, और लोगों में उसे बाटों ऐसा उम्मीद तो बनता है भाई साहब
-डां अनिल भतपहरी, जुनवानी
सी- ११ ,ऊंजियार सदन अमलीडीह रायपुर छ. ग
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