Saturday, November 10, 2018

अक्लदाढ़ और अक्लवान

"अक्कलदाढ़  और अक्लवान "

   तुलसी के सिवाय बत्तीसों दांत वाले व्यक्ति बड़े भाग्यशाली रहते है। क्योकि जिनके पास यह होता है वह दछ कुशल प्रवीण और ताकतवर होते है। और यह न रहे तबतक वह, वह नही होते जो उपर्युक्त उल्लेखित हैं। बाहरहाल जो आरंभ से बत्तीसी वाले होन्गे वह तुलसी की तरह दुत्कारे ही नही परित्यक्त कर दिए जाएन्गे ।और आजकल कोई बाबा नरहरिदास नही जो अनाथ का नाथ हो उन्हे प्रशिछित कर युगद्रष्टा बना दे। भले उनकी गृहस्थी का बेड़ागर्क हो पर तुलसी दुत्कारे जाने और अपने एकनिष्ठ प्रेम के बावजूद तिरस्कृत हुए यह उनका अभाग्य नही तो क्या ? भले उसे  मरणोपरांत भारतरत्न जैसे घर- घर पूजने का  सम्मान का प्रचलन हो गया हो पर उससे क्या?
    सचमूच समय से पहले और समय से बाद का हर चीज जमाने को अग्राह्य है। भले आजकल उन्नत तकनीक से हर चीज समय बे समय उपलब्ध होने लगे है शायद इसलिए अब चीजे महत्वपूर्ण नही रहे ।लोगों की शौक महत्वपूर्ण होने लगे है।
इसलिए अब समय- समय पर होने वाले उत्सव पर्व फीके होते जा रहे है और  परिजनों- दोस्तो - परिचीतों के हर समय होने जनमदिन, विवाहदिन ,गृह प्रवेशदिन  आदि की उत्सव रंगीन व सितारा मय होने लगे है ।जहां हर वो चीज है जिनके आकर्षण से लोग खींचे चले आते -जाते  है।
    तो बात बत्तीसी वालों की सफलताओं से है।जिनके है वह वाकिय में ऐश्वर्यवान है क्योकि तब वह कृपण भले रहे रुपवान तो है।चेहरे भरापुरा और अक्ल व सेहत सुदृढ़ जो रहते है। कहे जाते कि ३२ दांत २५ के बाद पूर्ण होते है और ४५ तक  बिना यत्नपूर्वक रखे जा सकते है।हां इस बीच यदि मां - बाप रहे तो जरुर बेअक्ल और जोरु के गुलाम कहाते रहें... पर अपने इर्द - गिर्द जरुर प्रभावशाली रहते है।और यदि परिजन न रहे तो खुद मुख्तार हो पत्नी बच्चों और परिजनों में  ऐश्वर्यवान  रहते है।
     अकलदाढ़ २५ के पहले नही उगते जिनके उगते है वह अलग तरह के फर्टीलाइजर वाले होते है बेचारे रामबोला पेट में उगाने का उपक्रम फलस्वरुप उनकी गति कैसी हुई यह जग जाहिर है। इसलिए बिना अकलदाढ़ उगे होशियारी नही  दिखाना व बधार‌ना चाहिए ।
       कुछ लोग अकलदाढ़ उखड़वाने के बाद भी अकलवाले होने के भ्रम में जीते है। क्योकि यह आखिर में उगता है । जो कि बिन बुलाए मेहमान की तरह सबसे पीछे खड़े रहते है।  मिल गये तो खाय या  पीछे खड़े  लुलवाए या पछताते रहते है।अब कोई दीन दयाल तो नही जो अंत्योदय कहते कहते किसी अनजान जगह पर अनजान जैसे  चल बसे। भले उनके जाने के बाद वही भारतीय संस्कृति में पूज्यनीय या सम्मानीय बने।पर दूर्भाग्य अकलदाढ़ का कि बेचारे का आना भी दुखदाई और जाना भी दुखदाई।
        अक्लदाढ़ उगते समय बेहद कष्ट होता है ठीक हठयोग की तरह जबड़े सुज जाते है अन्नजल जल का परित्याग करने होते है।यह अनुक्रम हफ्तो - महिनो और कभी कभी ठहर -ठहर कर २८-३० मे से ४- २ को उगाते वर्ष दो वर्ष साधना में गुजारने होते है तब कही जाकर सिद्धि मिलती है।  इस तरह  कठोर संताप से गुजरना होते है।मुझे तो २-३ साल लग गये जब पूर्णत: बत्तीसी हुए तब तक एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हो गये। तब जाके मां की बातें सच साबित हुई कि-" बाप बनबे तब पता चलही  ददा !"
         पर अब जैसे ही पैंतालिस पार करने हुए कि यह जबरिया मेहमान  जिसे  अन्यान्नभाव या अत्यं मे रहने से राज करते लोगों के नजरों से ओझल रहे और शोषित पीड़ित रहे उन्हे  सही पोषण नही मिला। टुथब्रश दातुन मंजन पेष्ट  आदि वहां नही पहुंचा और स्वादिष्ट व्यंजन भोजन  व मिठाई को वह लालची संग्रहित रखा .... जो अभावग्रस्त होते है अक्सर वही व्यर्थ को एकत्र करते रहते है फलस्वरुप वे कैवीटिग्रस्त  होकर   जल्द ही सेन्सटिव होते गया । वैसे भी वह लोग समाज सर्वाधिक संवेदनशील होते है जो अभावग्रस्त होते है।उन्हे खाने चबाने की जरुरत नही पड़ा अत: उनके हिस्से में उनके अवशेष मिले जिसे वह बेवकूफ घुरवा जैसे कचरों को संजोकर  पकड़े रहा ,फलस्वरुप  गर्म ठंडा पानी मिठा या तीखा  सब वर्ज्येत है। क्योकि जब यह लगता तो यह जालिम असहनीय दर्द देता ..और सारा शरीर तड़फता ।जब यह सब उनके चलते अग्राह्य तब यही हमारे लिए ग्राह्य क्यो? और यह असह्य वेदना के कारक क्यो कर धारणीय इनका परित्याग ही धर्म है। आज वह जबरिया उखवाड़े और बेदखल होने की ओर प्रयाण कर रहे है। सनसनाहट और फिर असहनीय दर्द इही कलमुंहे के चलते होने लगा ।इसलिए डेन्टीस्ट ने साफ-  साफ  दो टूक कहा कि " इनकी कुर्बानी आवश्यक है, अन्यथा यह बाकी के लिए धातक है। यह वो मछली है जो तालाब को गंदा करने लगे है इसे निकाल फेकों।
   वाकिय में जब किसी के अक्ल की आंतक  से लोग परीचित होते है तो उन्हे बेअक्ल करने की ठानते है। आज हमारे अक्लदाढ़ अपनी इसी नियति के कारण उखड़ने जा है।
   अच्छा है अब इस ४८ में बेअक्ल हो जाना बड़े होते  बच्चों और पत्नी व उनके मायकों वालों के लिए अत्युत्तम है। हमने ऐसा होने ठान लिए और बीच में रुट केनाल करवाकर /कैप लगाकर कृत्रिम रुप से अक्लवान बने रहने की प्रवृत्ति को बदलकर जब तक रहे बिना अक्लदाढ़ के बेअक्ल रहने की मंसूबे पालने  लगे है।
   क्योंकि अब इस उम्र में जब सब कुछ उसी अक्ल के चलते खाने- पीने का प्रबंधन कर लिए तब नकली ही सही दांतो से खाने के लिए अक्ल की क्या जरुरत ?जब तेजी से बच्चे अक्लवान होने की अग्रसर है!आखिर कबतक अपने अकल को रगड़ते और खरच करते रहे भाया !!!

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