Friday, November 2, 2018

उम्मीद

"उम्मीद "

    सांझ तक धुंध की बादल छटने की उम्मीद तो है तब तक रौशनी का कोई उपयोग ही नही रह जाएन्गे। ऐसे में सब्र रखने का कोई औचित्य नही।
     या यूं कहे कि प्यास लगने पर कोई नलकुप खोदने मशीन लाया है और वे इस तरह  हमारे हितैषी है !यह समझना भी ठीक नही।
    पर इसी तरह के आश्वासनों की पिटारी लिए योद्धा हर बार की तरह इस बार भी युद्ध रत है.. जो अधिक आश्वासनों की ढेरी लगाएन्गे उसकी जीत होगी यह विष्लेशित होने लगा है।
    पर आश्वासन न रोटी है न लगोटी जिन्हे खाया और पहिना जाय ।हां चोटी जरुर है जिससे बहुमुखी रचनाकार सुकालदास भतपहरी के कार्टून चित्र के अनुरुप वर्षा से बचने  छतरी तक बांधे और लटकाएं जा सकते है।जिनके चोटी रहे वही छत्रपति हुए या यू कहे कि छत्रपति होना है तो चुटिया रखना इस देश की महान संस्कृति रहा है।
   बाहरहाल सब्जबाग की महक वाकिय में विभोर करती है और बहेलिये की फंदे मे हर बार परीदें फसते है।ऐसा कभी  हुआ नहीं  कि परिन्दे अपने साथ हितोपदेश की कहानी के सदृश्य जाल को ही उड़ा ले ....
        यदि इससे प्रेरणा ले तो ऊंट को किसी भी तरफ  करवटे लेने की जरुरत ही न पड़े ।
         कबीर सरकटा आदमी था इसलिए वे एक बीमार के लिए सौ अनार का जुगाड़ कर सकते थे ।
    हम सब का तो सर और धड़ वाले  है सो यहां हमारे वास्ते एक अनार सौ बीमार ही होन्गे भाई।
     इसतरह  सब तरफ आम- दरफ्त और धमाचौकड़ी मचने की धूम व खबर है।रोजनामचें में बीमारों की संख्या अनगिनत व बेतरतीब दर्ज हो रहे है।पर इस बखत पाला पड़ गये सो बाजार से अनार गायब है। इसलिए लोग सब्र की मंसुबे को गरी की चारा बनाकर  दरिया मे  डाल रखे है ताकि यहां- वहां तैरते मछलियां फंसे तो....
    अब यह  पता नही चल रहे है कि छूटपुट चारा डाले लोग मछन्दर  है कि इन मछन्दरों के  चारा नोचकर खाने वाली मछलियां ही असल में  समन्दर के  छत्रप है हा मगरमच्छ जरुर दिखाई नही पड़ रहे है ।पर सब खेला उसी का है।
       झांकने के लिए खिड़की  और वहां साफ- साफ देखने के लिए दृष्टि चाहिए पर अपने यहां तो कहावत है - "दांत हे चना नही अउ चना हे त दांत नही।"सदा से  सुनते रहे है कि जनता होने के लिए ऐसा ही होना आवश्यक है।
इसलिए उम्मीद और आश्वासन की बीज यत्नपूर्वक  बोई गई  हैं। वे लहलहा भी रहे है .....
   डा अनिल भतपहरी

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