Saturday, November 3, 2018

पश्यचुरु

"पश्यचुरु"

    सांझ तक धुंध की बादल छटने की उम्मीद तो है तब तक रौशनी का कोई उपयोग ही रह जाएन्गे ऐसे में सब्र रखने का कोई औचित्य नही।
     या यूं कहे कि प्यास लगने पर कोई नलकुप खोदने मशीन लाया है और वे इस तरह  हमारे हितैषी है !यह समझना भी ठीक नही ।
    पर इसी तरह के आश्वासनों की पिटारी लिए योद्धा इस बार युद्ध रत है.. जो अधिक आश्वासनों की ढेरी लगाएन्गे उसकी जीत होगी यह विष्लेशित होने लगा है।
   सब्जबाग की महक वाकिय में विभोर करती है और बहेलिये की फंदे मे हर बार परीदें फसते है।ऐसा कभी  हुआ नहीं  कि परिन्दे अपने साथ हितोपदेश की कहानी के सदृश्य जाल को ही उड़ा ले ....
        यदि इससे प्रेरणा ले तो ऊंट को किसी भी तरफ  करवटे लेने की जरुरत ही न पड़े ।
         कबीर सरकटा आदमी था इसलिए वे एक बीमार के लिए सौ अनार का जुगाड़ कर सकते थे ।
    हम सब का तो सर और धड़ वाले  है सो यहां हमारे वास्ते एक अनार सौ बीमार ही होन्गे भाई।
     बाहरहाल सब तरफ आम दरफ्त और धमाचौकड़ी का खबर है।रोजनामचे में बीमारों की संख्या अनगिनत व बेतरतीब दर्ज हो रहे है।पर इस बखत पाला पड़ गया है सो बाजार से अनार गायब है। इसलिए लोग सब्र की मंसुबे को गरी की चारा बनाकर  दरिया मे  डाल रखे है ताकि यहां- वहां तैरते मछलियां फंसे तो....
    अब यह  पता नही चल रहे है कि छूटपुट चारा डाले लोग मछन्दर  है कि इन मछन्दरों के  चारा नोचकर खाने वाली मछलियां ही असल में राजा बनने लगे है समन्दर के  ।
       झांकने के लिए खिड़की  और वहां साफ साफ   देखने के लिए दृष्टि चाहिए पर  यह विडंबना है कि जिनके पास खिड़की है दृष्टि नही और जिनके पास दृष्टि है उनके पास खिड़की नही।अपने यहां तो कहावत है - दांत हे चना नही अउ चना हे त दांत नही।सदा से  सुनते रहे है कि जनता होने के लिए ऐसा ही होना आवश्यक है।
इसलिए उम्मीद और आश्वासन की बीज यत्नपूर्वक  बोई गई  हैं। वे लहलहा भी रहे है .....सच तो यह कि जनता के पास उम्मीद के सिवा क्या है ? परन्तु यह दौर कैसा है कि  उनकी भी "पश्यचुरु "सदृश्य चोरी की की जा रही है।
   डा अनिल भतपहरी

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