Thursday, September 10, 2020

लघु कथाएं १५-२१

[9/10, 22:31] anilbhatpahari: लघुकथा 15

ऐसा भी ...

सड़क पार करते वह बाल-बाल बचीं। भय मिश्रित विह्वल हो कह उठी -"आज तो  हो गया रहता!भगवान का लख -लख शुक्र हैं कि बची" रंगीन तबीयत वाले बेपरवाह ड्राइवर अक्सर खुबसूरत युवा महिलाओं को देख उनके समीप से  कट मारते सर्र से गाड़ी मोड़ते हैं। बेचारियों की कलेजे मुँह में आ जाया करती हैं। और वे सिगरेट की कश़ से छल्ले बनाते भोजपुरियां धुन में गाड़ी को नचनिया की कमर की तरह नचाते फूर्र हो जाते ...
     इस बड़ी बिल्डिंग के चौथें माले पर लिफ्ट से चढ़ने के बाद भी वे भय से  हांफ रही थीं। भला ऐसा कोई करता हैं, तमीज नहीं इन मुस्टंडों को क्या उनके घर बहन-  बेटी नहीं ? वे लगातार बड़बड़ाई जा रही थीं।
       तभी दनदनाते वह नये वर्जन के हिप्पी नुमा छोकरा  चायनिज़ कट खड़ी बाल, दाढ़ी -मूँछ बढाए ,बिना नहाए इत्र लगाए , फटी जिंस और मोबाईल पैंट के जेब में खोसें,  कानों में ईयर फोन ठूंसे, ठुमकते हुए सा सामने आ खड़ा हुआ।   उनकी इस तरह धमकने से  पल भर स्तब्ध हो चौंकी ! फिर बिना पहचाने वह अनजान बन मुँह फेर ली।
    वह जिस हुलियां का था और लोग देख उसे जो समझते ठीक उससे उलट बड़ी विनम्रता से कहे- "मैम ! सारी एक  छिपकली को बचाने हमसे हमारी  गाड़ी मुव हुई और इस तरह  आपको हर्ट हुआ। " 
      सच कहते गलें की टोढ़ी पकड़ -"गाड़ी पार्क कर सारी कहनें दौड़ते सीढ़ी चढ़ना हुआ।"  वे उसे हतप्रभ सी देखती  ही रह गई ...
       पास ही लिफ्ट के इंतजार में खड़े ,नये पीढ़ी के इस छोकरे के व्यवहार देख ,लेखक को भी सुकून मिला।
          -डा.अनिल भतपहरी, ९६१७७७७५१४
[9/10, 22:43] anilbhatpahari: लघुकथा 16

।।समझ ।।

         प्रात: ऊंजियार विहार  गेट के बाहर सड़क पर गुनगुनी धूप सेंक ही रहे थे कि पड़ोस का सज्जन दूर से नमस्ते  करते आ धमके ।और मगज चाटने लगे कि सर जी आप ही बतावें -"मूल्य और कीमत में क्या अन्तर हैं?" 
   हमने सहजता से दो टूक  कहें -"भई !कीमत सामग्री का होते हैं और मूल्य तो मानव का  होते है जिसे मानवीय मूल्य कहतें हैं।
   वे अति उत्साहित कहे -"अरे सर आपको पता हैं ... मास्टर आदमी हो । "
 देखिए  न हम लोग विगत ३ दिन से एक आध्यात्मिक संस्था के प्रवचन में यही समझ रहे हैं। बहुत ही शानदार और व्यवहारिक तरीके से संत जी हमें समझा रहे हैं। चाहे तो आप भी ज्वाइनिंग कीजिये । जीवन का उद्धार हो जाएगा ...जब से जा रहे हैं महत्वपूर्ण बदलाव महसूस कर रहे हैं।आप भी करने लगेन्गे ।
     अच्छा ! इसके मतलब आपको मूल्य का पता नहीं था? वे  तपाक  से कहे-" हां सर जी मूल्य मतलब सामान का ही समझते रहें।"
    अच्छा मूल्य को व्यवहार में लाते हैं कि अवगत होते रहते हैं? वे आशय समझा या नहीं पर खिलखिलाते कह उठे -लो भला ! यह भी पुछने की बात हैं साहब। व्यवहार में नहीं लाते तो आपके जैसे मूल्यवान व्यक्ति से दोस्ती करता भला ? आप तो सहज मिलनसार  सहयोगी व समाज सेवक हैं। संस्था के लिए हमें चंदा जुटाना हैं और आपके जैसे उदार दान दाता इस जमाने में भला कौन हैं ? 
     उनकी बातें सुन लगा कि वे वाकिय में बदल गये हैं। पहले वे अपने समक्ष किसी को कुछ समझते नहीं थे,अब वे सबको मूल्यवान दानदाता समझ रहे हैं।संत जी ने चंदा लेने बहुत बढ़ियां समझा दिए हैं।
       
      - डां. अनिल भतपहरी ९६१७७७७५१४
[9/10, 22:47] anilbhatpahari: लघुकथा 17

"स्वर्ग सुरा-सुन्दरी "

यह तीनो शब्द परस्पर अन्तर्संबंधित हैं और एक दूसरे के बिन अपूर्ण भी हैं ।तीनो संग- साथ हैं ,तभी महत्ता कायम हैं। अन्यथा इनमें तीनों  को अलग होकर देखे जेहन में वह भाव ही नहीं आएगा जिनके प्राप्ति के लिए  मानव प्रजाति युगो से अनवरत उद्यम करते आ रहे हैं।  भले स्वर्ग को जन्नत हैवन कह ले आखिर सभी समनार्थी हैं। और भाव एक सा ही हैं।जैसे जल को  पानी नीर कहने से उनके गुण धर्म बदल नहीं जाते ठीक स्वर्ग जन्नत हैवन कहने से वह भिन्न  नहीं  हो सकते ।
     ठीक इसी तरह  सुरा, शराब, शैम्पेन  कहे या हूर परी अप्सरा कोई गल नहीं जी।  तीनों की दरकार  मानव को उनके जीते जी और उनके मरने बाद भी उपलब्ध हैं या होनी चाहिए खासकर पुण्यात्मा या धर्मी चोला को , ऐसी हमारी शानदार  व्यवस्था हैं। यदि अपनी -अपनी मान्यताओं के अनुरुप  कार्य करे तो देव नबी और मैसेंजर की श्रेणी में आकर मृत्युपर्यन्त और उनके बाद भी  इनकी उपभोग करने  की शानदार प्रलोभन युक्त शास्त्रीय  व्यवस्थाएँ हैं। 
   बहरहाल एक आजकल वायरस जनित बिमारियों की प्रकोप के चलते शहर के भीड़ वाली जगहें सिनेमा  माल स्कूल कालेज व  कुछ पब्लिक पैलेस व सरकारी  दफ्तर आदलते  जहां भीड़भाड़ वाली जगहें बंद होते जा रहे हैं। बल्कि इन सब भीड़ वाली जगहों के स्थान पर, निर्जन व प्राकृतिक सुषमा से अच्छादित जगहों पर जाने और रहने की  बातें हो‌ने लगी हैं। कम से कम तापमान ३० सेंटी ग्रेट बढ़ते तक क्योंकि इतने उच्च ताप में बहुत सी बैक्टीरियां और वायरस स्वत:  नष्ट हो जाते हैं। फलस्वरुप सभी भीड़ भरे जगहों को खाली कर‌ने की फरमान हो चूके हैं। माल थियेटर शासकीय अशासकीय  आयोजन मेले  महोत्सव स्थगित किए जा चूके है। 
    शादी ब्याह में बड़ी संख्या में  बारात बैंड आर्केस्ट्रा  और सार्वजनिक भोज भी प्रतिबंधित होने लगे हैं। 
     बहरहाल हम डरे सहमें सबन की भांति सुकून शांति के तलाश और प्राण रक्षार्थ वन प्रांतर और नदी किनारे की बेहतरीन आक्सीजोन में वक्त गुजारने के निमित्त पहुँचे ... शहरों की तरह वहाँ कोई भय और अफरा -तफरी जैसा महौल नहीं हैं। बल्कि स्वस्थ्य और स्वागोत्सुक महौल हैं। हमने इत्म़ीनान से नजरें इधर - उधर दौडा़ई और  आराम से गुलमोहर के नीचे बनें बैंच में बैठकर प्रकृति के खूबसूरत  नजारे को निहारने लगे ... ऐं क्या सामने झुरमुट में अवांछित कचड़े का ढेर लगा हुआ हैं। पन्नी ,पेकेट , शीशियां  ,अधजली सिगरेटे एंव माला डी व कंडोम‌ आदि  बिखरे पड़े हैं।यह देख मन खराब लगा इतनी खुबसूरत जगह को लोग कैसे गंदे और प्रदूषित कर देते हैं? 
   तभी एक बंदा हंसते हुए एलबम रखे कुछ नुमाइश के लिए आया और कहने लगा ...वेलकम‌ टू अवर युनिक  हैवन ! 
   बारीकी से जन्नत का मुआयना तो कर ही लिया था अब  स्वर्गीक आनंद में निमग्न कराने यह स्वर्गदूत आया हैं। चलिए यही सही पैराडाइज़ में प्रवेश कर लिया जाय।अन्यथा बाहर करोना का कहर और जा़लिम दुनिया का जहर हैं ।उससे पल भर ही सही, भय मुक्त हो ही  लिया जाय ..!
सोचकर रिसार्ट का रुम‌ रेंट और उपलब्ध सुविधाएँ वाले  एलबम देखने लगा ।
    डॉ॰ अनिल भतपहरी
[9/10, 22:50] anilbhatpahari: लघु कथा 18
"मनमोहिनी रइपुर "


मोर मनमोहिनी चल तोला रइपुर देखाहूं ... लोक गायक पंचराम मिर्झा की इस गीत से इस्पायर होकर महज  १९ वर्ष की आयु में "मनमोहिनी " लोक कला मंच बनाए और अनेक गीत रचकर स्वरबद्ध करने लगे। उनमें एक चर्चित रहा और जनता की फरमाइश पर भी गाते रहा ...
        रइपुरहिन के नखरा हजार 
        किंदरय वोहर गोल बजार 
        छिन मे सदर बजार 
        आमापारा के बजार 
        कि महोबा बाजार 
         छिन म  बैरन बाजार ...

       गोल बाजार की रौनक देख मुग्ध होते रहा ...पर नये बाजार मेग्नेटो माल  में सेल्फी जोन देख मन रइपुर के इस परिवर्तन पर सम्मोहित हो गया।
पते कि बात बताना तो भूल  ही गया ।  बडे़ बुजुर्ग जेन मं हमर दादी- नानी  कहती थी-" रइपुर शहर में खल्लारी देवी सरीख तीर -तखार के देबी मन  सजे -धजे ‌बजार करे बर आथे।संग मं परेतिन- चुरेतिन,  मल्लिन- भटनिन तको  सज- सम्हर के किंदरत बुलत रहिथे अउ  जवनहा टुरा मन ल जुगती मोहनी खवाके उकर मति ल फेर देथे।" 
          ६-७  वर्ष की आयु में (१९७५-७६ )  कुल्फी लेने  के चक्कर में गोल बाजार शाम ६ बजे जाकर वहां की भूल -भुलैय्या में भूल गया !और  लाइट की चकाचौंध में वापसी के रास्ते भूल गये गोल गोल घुमते ही रह गये  !घर में सभी परेशान रिक्शा- माइक लगाकर एनाउंसमेंट करते खोजने की तैय्यारी हो चूके  थे ।साढ़े  तीन धंटे बाद  रात्रि  साढ़े नौ बजे  एक लांड्री वाले को पता बताते पहुंचा ।वे लोग हमें डराकर रखे थे कि  गुमे हुए बच्चों के हाथ -पैर तोड़कर या आंखे निकालकर भीख मंगवाते है। डरा- सहमा मामा के  घर आया था।  हमारे नाना -नानी कहने लगे - "भुलन जरी पागे रहिस होही ! गोल बाजार मं सबो किसिम के जड़ी- बुटी बेचाथे ।"  
         सही कहय इहा मोहनी मंतर तको चलथे तेही पाय के मोकाय- मोहाय मोती बाग कना  सालेम स्कूल में पढ़त एक देबी संग भांवर  तको किंजर डरेन अउ दू टुरा अवतार डरेन ।उही मन ल अंग्रेजी  पढाय के संउक सेती  ददा -पुरखा के भुंइया  पावन  जुनवानी गांव ल छोड़ छाती मं करजा लदक दू खोली के कुरिया बना के इहंचे बस गे हन ।
    तब से राजधानी  रायपुर से एक अजीब सा लगाव हो गया हैं। एकाद हप्ता ऐती- ओती चल दे त हदरासी लगथे भाई ।कब पहुँचन अपन रयपुर ।

चित्र गोल बाजार  एंव मेग्नेटो माल ,रायपुर

-डॉ॰ अनिल भतपहरी / 9617777514
[9/10, 22:51] anilbhatpahari: लघु कथा 19 

।‌।डिप्रेशन ।।

       सज्जन पति के चलते ही ससुर- सास ,  जेठ -जेठानी और  ननदादि के तीव्र  विरोध के बावजूद ससुराल से दूर मायके के समीप टीचर की नौकरी पर आ गई ।क्योंकि गृहजिला के वेकेन्सी और निवास प्रमाण- पत्र मायके के बना था। 
       कुछ महिनें  अच्छे से  व्यतित हुए। मायके में रह स्कूटी से ३० कि मी अप- डाउन कर लेती ‌ । शाम सब्जी भाजी तक ले आती । पर धीरे -धीरे भाभियों  ,मुहल्ले के कुछ छिछोरे छोकरों तथा विध्न संतोषियों के ताने -छींटाकसीं के चलते  जीना दुश्वार होते गये। बात  यही नहीं मिर्च- मसाले सहित स्वच्छंद विचरण की बातें ससुराल और पतिदेव के कानों तक जा पहुँचें।परिणाम स्वरुप  पारिवारक कलह और उनके परीणति  पति व्यसनी हो गये।न चाहकर पारिवारिक कलह व पति को सम्हालने अवकाश लेकर जाना हुआ। 
      वहाँ भी शक -सुबहा के चलते  तू -तू, मैं -मैं और  नित नये बखेड़ा  होने लगे  समस्या सुलझने के बजाय उलझने बढ़ने लगी। मामला तलाक आदि तक  तक पहुंच गये । तथाकथित  मान- प्रतिष्ठा और स्वाभिमान वाले समाज ,स्त्री को घर में नौकरानी बना के शोषण कर तो सकती हैं पर जरा सी आजादी नही  दे सकते । भले  घर-परिवार की हालात सुघरे नही सुधरे पर मिथ्या  मान कायम रहें ।
      बहरहाल पुरुष प्रधान समाज में एक स्त्री को शासकीय नौकरी क्या मिली दोनो जगह  कोहराम मच गये।अब उन्हें घर चाहिए कि एक अदद नौकरी इसी उलझन में खोई  बेचारी सुध - बुध खोई "डिप्रेशन" में हैं।
         सचमुच  लोग दूसरे की सुखी से दुःखी और परेशान होते हैं।यह सब  देखना हो तो, उनके  मोहल्ले की चक्कर लगा आइये ।
            - डा.अनिल भतपहरी
[9/10, 22:52] anilbhatpahari: लघु कथा - 20 
लघु कथा 

"कड़वाहट" 

     दु:ख  से भरी जिन्दगी में आज वह  बहुत खुश थी,आफिस  बालकनी के छत पर किसी की  प्रतीक्षा में खड़ी बेसब्र हुई जा रही थीं।
       जैसे ही सामाना हुआ कि वह  मुस्कुरा कर कहीं -"सर आज मुझे जो खुशी मिली हैं उसे आपके संग बाटना चाहती हूँ।"
   मैने उत्सुकतावश पुछा -"अरे बताओं तो सही, क्या हुआ ?  
    वे मुस्कराती कह उठी - "सर आज मेरी  बेटी पी. एस. सी. में  सलेक्ट हो  डिप्टी कलेक्टर बन बन गई।" 
   हौसला अफ़जाई करते कहा- "बहुत खुब! मिठाईयाँ बाटों और हमें भी खिलाओं! "जी हां सर ..अभी अभी तो मोबाइल से सूचना मिली , कल जरुर लाऊंगी । अच्छा ठीक है कहते वे आगे बढ़ गये...तभी उनके कुछ कलिग पुरुष कर्मचारी , ड्राइवर गुजरे  उन्हे भी वह खुशी- खुशी बताई, सबने उन्हे व उनकी बेटी  को बधाई दिए। पर कुछ सहकर्मी  महिलाएं आई पर न जाने क्यों  वह उन्हे नहीं बताई । 
     और सीधे अपनी चेम्बर में आकर बैठ गई , आज काम करने का मन नहीं हुआ और शीध्र ही घर जाने बेसब्र होने लगी। तभी कुछ महिलाएँ आई और केंटिन से मिठाई लाकर खिलाने और बाटने लगी यह कहते कि बहन बड़ी मुस्किल से पढ़ाई -लिखाई और काबिल बनाई।  चलिए अब वो हमारे हक अधिकार और ये जालिम मर्दों वाली दुनियाँ से बदला लेगीं।
    न जाने क्यो वह इन परित्यक्तता महिलाओं के संग नारी निकेतन में काम करती पुरुषों के प्रति विष वमन के बाद भी उनके जैसे नहीं हो सकी।वे आज भी स्वयं परित्यक्त नहीं मानती क्योकि वह पुत्री के जन्म के बाद ससुराल वालों की प्रताड़ना और उनके समक्ष अपने पति के चुप्पी के बाद उनके परित्याग कर मायके चली गई ।खूब मेहनत की और महिला बाल विकास विभाग में क्लर्क बन इस नारी निकेतन में पदस्थ हो गई ।
      पर ज्यों -ज्यों महिलाओं से  पुरुष प्रताड़ना की बातें सुनती त्यों- त्यों उनकी पौरुष  दृढ़ होती गई और उनकी स्त्रैण स्वभाव गायब होती गई  फलस्वरुप महिलाएं उनसे दूर भागती गई ,उनसे डाह करने लगी व विद्वेष तक पालने लगी इसलिए वह उनसे दूर ही रहा करती ।सिवाय हाय हलो के।पर आज अपनी खुशी  में उन महिलाओं द्वारा खिलाई व बांटी  जा रही मिठाई में क्यों भीतर   "कड़वाहट" सी घुलने  लगी ? शायद यह उन्हें भी ठीक -ठाक पता नहीं।   
    -डा.अनिल भतपहरी 9617777514
[9/10, 22:56] anilbhatpahari: महिला दिवस की पूर्व संध्या पर -
लघु कथा 21 
।।एक प्याली चाय की कीमत ।।

तुम क्या जानो बाबु ,एक प्याली चाय की कीमत ? 
फिल्मी डायलाग नुमा बोलती वे मुस्कराती गर्मागरम चाय की ट्रे लेकर  सामने हाजिर हुई।
   जबकि पहले से कहे जा चुके थे कि चाय नहीं पीते इनकी जरुरत नहीं ,पर वे मानेंगी तब ? क्योंकि उनकी हाथों की बनी चाय की यशगान का वृतांत साथ आये मित्र  के श्रीमुख से अब तक ख़त्म नहीं हुए हैं,तब तक वह प्रकट हो गई ।
    बहरहाल चाय वाकिय में लाज़वाब और अलग तरह के फ्लेवर युक्त हैं। सुड़कते कहां - "शुक्रियाँ , नाहक आप परेशान हुई । ऐसा लग रहा है कि आप फिल्मों की बड़ी शौकिन हैं?"
  'हां, पर मुआ अब हमारी च्वाइस की बनती कहां हैं?'
 "बनने लगी हैं बल्कि अब तो पहले से अधिक स्वभाविक व यथार्थवादी सिनेमा का दौर हैं।"

' पर जो माधुर्य, सुन्दर दृश्यवलियां और गरिमामय वस्त्राभूषण थे वे  नजर नहीं आते ?'
       
  कल्पनाशीलता और कला के लिए कला जैसी दौर खत्म सा होने लगा हैं। और फैमिली न होने अब फैमिली ड्रामा खत्म  हुआ मानो।"
     
   वे लगभग झेपती सी  पर दृढ़ता से कहीं -'नहीं ,ऐसा बिल्कुल  नहीं ,फैमिली कभी खत्म नहीं होगा।जब तक लोग हैं परिवार रहेगा सिनेमा नाटक सदृश्य एकल पात्रिय नही हो सकता ,होगा तो वह चलेगी नहीं ।
          अच्छा! इतनी गहरी समझ और अपट्रेक्टीव लूक के बावजूद आप कभी इस लाईन में जाने की नहीं सोची ? सहसा बातचीत में भीतर से प्रश्न अनुगूंजित हुई। 
    -'हां मैने थियेटर की ,एक दो सिरियल्स और ३ सिनेमा भी ।पर वे रिलिज़ नहीं हो सकी ,फिर ये ब्याह लाए और खूंटे से बांध दी गी।' 
   ठंसी सांसे लेते ..'सच कहें तो हम भारतीय नारियाँ  मैहर -नैहर वालों के लिए गाय ही तो हैं, कैसे शेरनी हो जाती?  दोनों  कूल  की लाज पल्ले में  पंडित जी अग्नि के साक्ष्य में बांध दिए  है... वह छूट पाना  सरल नहीं।'
और ठठाकर हंस पड़ी।
         "जैसा सुना  बढ़कर निकली आप ...आपकी ये ताज़ी  उपन्यास आपबीति हैं कि जगबीति ... मुझे इनके आधार पर स्क्रिप्ट लिखने हैं सो आना हुआ ।"
         'यह जानकर क्या करोगे ... जगबीति में ही आपबीति समाहित हैं।'

   साथ आए  मियां ,चाय और बिस्कुट के संग  मस्त घर की अस्त- व्यस्त पर  ही व्यस्त हैं। 
   खूंटे से बंधन तोड़  प्राय: हरही गाय भागती हैं। और जहाँ -तहाँ खप -खुप जाती हैं !
पर  आजकल बांझ कह खूंटे  से मुक्त यदा- कदा ही हो पाती है। कुछ तो अपने ऊपर शौतन, तो  कुछ गोद ले लेते है या आजकल  सेरोगोसी -टेस्ट ट्युब  जैसे  तकनीक से बंधी जीवन निर्वाह करती हैं । 
          वे विलक्षण हैं, जो बंधन मुक्त हैं और लड़ रही हैं उत्पीड़ित वनिताओं के वास्ते ।
       पर कुलक्षणी कह निर्वासित इस प्रख्यात लेखिका की कहानी पर फिल्म बनाने उनसे मिलने निर्माता के  संग आए  स्क्रीप्ट राईटर जो कभी  चाय नहीं पीते ,आज उनके अंदर पता नहीं क्यों? मिठास घुलती ही जा रही हैं।फलस्वरुप वे  शुभ्र व सभ्य  लगने लगी । हांलाकि यह आधी आबादी की प्रवक्ता हुई जा रही हैं।
         अपने प्राकृतिक अधिकार की तिलांजलि इसलिए दे दी कि बुजुर्ग माता -पिता भाईयों- भाभियों द्वारा दुत्कारे न जाकर ससम्मान इनके साथ रहें।
         तो दूसरी ओर नैहर वालों की अहं भी फूले -फले ! भले वे एक कंठ विषपायी सदृश्य नारी से नर होना दृढ़तापूर्वक  स्वीकार ली।
    स्क्रिप्टर पर चाय की माधुर्य चढ़ा देख  लेखिका को भी यह आभास हुआ ...और उन्हें लगने लगा कि "एक प्याली चाय की कीमत क्या हैं।" इसका रियल अहसास होने लगा ।
         
-डा. अनिल भतपहरी 9617777514

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