।।नाचा ।।
कोई धुन सुने और अच्छा लगे तो बिधुन नाचने लग जाय वह कलाकार नहीं तो क्या है? व्यक्ति जन्मजात कलाकार होते हैं वे नाचते -नुचाते गाते -बजाते अभिनयादि करते जीवन निर्वाह करते हैं। वैसे जो निराकार भावों को साकार करे वही तो कलाकार हैं। दु:ख दिखता नहीं रोकर दहाड़े मार ले लोग अनुभूत कर लेते हैं। वैसे सुख दिखता नहीं नाच गा उछल कूद लो लोग समझ जाएन्गे बड़े प्रसन्न है। यूं तो यह सब तरफ हैं, धर्म ,आध्यात्म ,राजनीति ,न्याय शासन -प्रशासन कोई अछूता नहीं है।
यह अलग बात हैं कि इस अनुक्रम में कला और यथार्थ का मणिकांचन संगम होते रहते हैं। कुछ लोग नाचते नहीं नचवाते हैं। बल्कि नाको चने चबवाते हैं। गाते नहीं गवाते हैं ... भले कोई बीरु बन खंबे से बंधे चिल्लाते रहे बंसती इन कुत्तों से सामने नाचना मत ... ऐसी ध्वनि नक्कार खाने में तुती की तरह विलिन हो जाते है और नाच होकर रहते हैं।
बहरहाल सुर सुखमय आनंद का हो या दु:खमय शोक का हो स्वर लहरियों का अनुगूंज सर्वत्र गूंजते हैं।
जीवन ही रंगमंच हैं और हम सब इनके कलाकार कोई कैसे कलाओं की उपेक्षा कर सकते हैं? पर लोग हैं कि अलगोजे से नराज़ हो जाते हैं। दूसरे की सुख से दु:खी लोगों की जमात बढ़ती तो जा रही हैं। पर है वे असंगठित क्योंकि चिढ़ने -चुढा़ने लोग एक साथ हो नहीं सकते। अन्यथा ऐसे लोग ही राज करते ।पर जो संगठित हैं वे लोग चिढाने में दक्ष हो जाय तो उनकी पौ बारह कभी- कभी ऐसा होता भी है।
जो लोग नाच -गान गीत- संगीत ,खेल -कूद से मुख मोड़ लेते हैं।वे इनके नकाबिल तो नहीं या गहिर गंभीर चिन्तन -मनन में डूबे किसी प्रायोजित सफलता के लिए लोगों के आनंद में खलल डालते हैं। ये लोग विध्न संतोषी हैं। जहां विध्न बाधाएँ होन्गे तो ताली पीटते नाच उठेन्गे और बेसुरा ही सही अलाप लेगे - लो देख लो बरजे बात नहीं मानते ? जो शंका थी सच हुआ।
बड़े- बड़े शंकालू -प्रश्नालू भी सामूहिक सार्वजनिक मंच में न ही होटल पब या बंद कमरे में कुछ व्यसनों की कृपा से नृत्य गान कर नचवा गवा लेते हैं। इनके लिए व्यवस्थाएँ कैसे हो जाती हैं, यह रहस्य अज्ञेय हैं। इसलिए इन्हें रहस्यमय कलाकार की श्रेणी में रखे जा सकते हैं।
कलाकार भूतपूर्व नहीं होते बल्कि अभूतपूर्व होते इसलिए अनेक लोग ऐसा होने निरंतर साधते व परिमार्जित होते रहते हैं। ऐसा करने वाले ही कालजयी होते हैं। साहित्यकार और कलाकार को कालजयी होने की चषक उनके परवर्ती लोगों ने भेंट कर रखें हैं। फलस्वरूप ये लोग भावों की समंदर से मोती निकालने गोते लगाते हिचकोले लगाते नाच -कूद रहा है। भले वह साधारण बने होने के स्वांग में असाधारण और विलक्षण होने कहे जाने की व्यसन में डूबे होते हैं।
बहरहाल नाचा ,खेल -तमाशा ही जीवन की जटिलताओं को दूर करते हैं। तमाम अभाव और दुख का शमन करते हैं। दु:ख का मंचन देख दु: ख का शमन साहित्य जगत विरेचन केथार्सिस हैं। और आनंद देख परमानंद की अनुभूति ऐसा हैं कि दिव्यांग और मत्यांध तक को थिरका दे नचा दे!
नाच में मांदर मृदंग ढोल जैसे ताल वाद्य न हो तो नाचना सहज भी नहीं ।मांदर की धोष ध्वनि बादल की गर्जना से आए प्रतीत होते हैं तभी तो -
धत्तनिक धत्तनिक बाजय माटी के मांदर
बाजय माटी के मांदर गरजय जइसे बादर
पंथी धुन सुन नाचय मन दू मन आगर ...
ऐसा लगता है कि सफलता -असफलता के बीच तनी रस्सी पर हम नाचते रहते हैं। और अपने अराध्य को सुमरते भी हैं ... अब आप- हम सूर तो नहीं कहते फिरे -उधरि बदन नचन चहत हो... क्योकि उन्हे क्या पता कि उधरि बदन होने के बाद दर्शक को क्या फिल होगा?
वैसे भई आजकल नाच -गान में उधरे बदन का चलन तेजी से हो रहा है। पहले पहल नायिकाए होती थी अब जब से सलमान ने शर्ट उतारा पुरुषों में होड़ लगी हैं।
चलो मानते हैं ठंड देश के पुरुष ठंडी से बचने सूट टाई में होते हैं। पर बहकटी टू पीस वहाँ की स्त्री क्यों ? क्या उन्हे सर्दी होती नहीं?
और यहाँ गरम देशों में उधरि संस्कृति हैं। हमारे नायक अर्ध विवृत उत्तरीय जनेऊ ज्वेलरी धारी हैं। और नायिकाएं ... कंचुकी और सारी में फूलों की गहनों से लदी डालियां हैं जो अल्हड़ शकुन्तला सी वन विहारनी हैं। पर आजकल की न ई शकुन्तलाओं की फैशन से उनकी अल्हड़ता कही खोई छीनी सी जान पड़ती हैं। फटी जिंस और टाप की बाहें फटी देख कुछ अलग तरह का फिल होते हैं भ ई यह जंगल झाड़ी से नहीं बल्कि किसी और से उलझ कर फटी हैं।
खैर श्लील नजरों में हो और जिनकी दृष्टि अश्लील वह सर्वत्र अश्लीताएं ढूंढ लेते हैं। ऐसे लोगो को बडे हास्पिटल की बर्न युनिट का सैर करना चाहिए जहाँ दहेज न मिलने पर कितनी नवोढ़ा जला दी ग ई होती है। जिनके पांव से माहुर निकले हैं , न हाथ से मेहंदी ।
खैर आजकल समुद्र किनारे स्वच्छंद नाच गान का अड्डा बनते जा रहे हैं। इससे वहाँ के लोगो को रोटियां तो मिल रही हैं। अन्यथा बेचारे ज्वर -भाटे की खतरों के बीच बमुश्किल समुद्री उत्पाद मछली -धेंधे से काम चला रहे थें।
ऊपर से संतो की सीख कि मांस मछली खाना- मारना पाप हैं। हमने मछुआरों की टोलियां देखी डलियां में मच्छी रखे नाचते गाते अपने अराध्य में वैसे ही श्रद्धा भक्ति पूर्वक चढ़ाते जैसे इधर मैदान में हम धान गेहूँ की बालियां चढाते हैं। पुण्य तो दोनो ओर मिलता होगा न ?
आदिम जीवन को वनो कंदराओं और दुर्गम जगहों पर संजोये विषय परिस्थितियों में भी आनंद से जीते ये प्रकृति पुत्रों की हास परिहास उच्छवास कितने प्रेरणीय हैं कोई उनके समीप्य होकर देखे ।हम सौभाग्यशाली रहे कि ९० की दशक में सुदुर बस्तर के वन में पहाड़ी नाले सा खिलखिलाते उल्लास से उफनते जन जीवन देखे हैं। उसके बाद तो बस्तर बद्तर हो गये ...!!!
छत्तीसगढ़ में अनेक प्रदेशों और देशों के आदिवासियों का नाचा देख मन प्रफुल्लित ही नही यह अनुभव हुआ कि विषमताओं से ग्रसित दुनियाँ में रहना हैं तो केवल जुझों ही नहीं बल्कि समूह वत नाचो- गाओं, खेलों -खाओं, पढों -लिखों और संगठित होकर सफलताएं पाओं। जीवन को उत्सव में परिणित करों चाहे जैसा भी हो ।
यह सब नहीं किया तो आखिर क्या किया?
-डा. अनिल भतपहरी
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