लघुकथा
।।दार्शनिक।।
प्रात: सैर के दरम्यान गाॅर्डन में वाकिंग करते मालती मिली।उसने ही पहचाना, भला महिलाएँ पहचान में आती ही कहाँ हैं? बच्चे हुए नहीं कि दादी- नानी लगती हैं।
बहरहाल कालेज कैम्पस में बिंदास- खिलखिलाती ,चिन्तामुक्त यह वो नहीं जो ज़माने की बोझ लिए झुकी कमर, बेझिल आँखें लिए थकी -थकी सी चली आ रही थी कि आमना -सामना हो गई... पहले इनकी आँखों के ऊपर शायरी और बाब कट बालों के ऊपर नारी स्वतंत्रता एंव स्त्री सशक्तीकरण पर हमारी आधुनिक कविताएँ भी लिखी जा चूकी हैं। लिखने -पढ़ने और छपने के कारण असमय हम समव्यस्कों में मैच्योर्ड हो इन बिंदासों के वास्ते अंकल या भैय्ये हो गये।
बहरहाल वें एक सांस में अपनी करुण कहानी सुनाती हुई फ़फ़कने लगी ।युं सुबह- सुबह किसी स्त्री का रोना हमें बर्दाश्त नहीं हो रहा था,पर सहपाठी के दु:ख सुन उन्हे हल्का भी कराना था।उदास -निराश मित्रों की मन को बोधना भी हमारा कर्तव्य रहा हैं,जैसा कि पहले भी करते रहे हैं। हालाँकि हमारा मन बोधने वाला - वाली अब तक कोई हुआ नहीं ,इसलिए शरीर के हर भाग चोटिल हो जाय, मन को चोटिल होने बचाते रहे हैं।
इत्म़ीनान के साथ फुटपाथ के उस पार लगे सीमेन्ट के बैंच में बैठते- बिठाते हौले से कहां - "रोने के वास्ते एकांत चाहिए पर हँसने के लिए एक का साथ तो चाहिए ही।कोई एक अकेला कैसे हँस सकता हैं?"
यदि ऐसा करे भी तो जमाना पागल समझे या फिर स्त्री के लिए गाली हो जाएगी ।
वे ठंडी सांसे लेती चुपचाप सुनती रही ...और साला अपुन उनके लिए दार्शनिक हो गये।
-डा. अनिल भतपहरी
9617777514
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