Wednesday, September 30, 2020

श्रद्धांजलि ...

।।श्रद्धांजलि ।।

मारकर निर्भया को 
नर पिशाच
घुम रहे निर्भय 
देख दारुण दु:ख
मनीषा का 
द्रवित मन हृदय 
ऐसा कैसा साहस 
पाते यह लोग 
आओ करे 
गहराई से खोज 
जड़ कहां हैं 
या है यह अमरबेल 
दलन करने का तरकीब 
सदियों की सोची -समझी खेल 
नोचों उन मुखौटों को 
करों पर्दाफाश 
कही ऐसा न हो कि 
आस ही बन जाए लाश 
उठो जगों करो प्रयाण 
तब तक हो संधर्ष 
जब तक न मिले समाधान 
काटो जड़ मूल सहित 
उखडों वो दरख्त 
जिसके बनिस्पत 
पनपते ये कम्बख्त 
होगी सच्ची श्रद्धांजलि 
मुरझाएं न कोई कली 
विकसित हो ऐसी प्रणाली 
हो देश समाज गौरवशाली 

-डाॅ.अनिल भतपहरी

Saturday, September 26, 2020

।।अभरेट ।।

।।अभरेट।।

अपन गवनही बेटी ल बुदुक बतात राम्हीन कहिस - "अपन अंचरा मं  गुप्ती कस पइसा दमाद ल गठियाय रहिबे।"
   ओती फिरन्तीन तको अपन बेटा ल जीजी अन्तर  चेता दिस - " बहु ल कभुच  मुड़  मं झन चढाबे।"
      नाती के छठ्ठी मं दुनो समधिन घम-घम ले नवां लुगरा पहिन सोहर- मंगल गाईन अउ बनेच नाचिन -कुदिन। 
     फेर कोन दुखाही के नज़र लगिन ओ समे के गय ले, यहा तरा बुढ़त काल दुनो समधिन वृद्धाआश्रम में एक- दुसर ल  अभरेट डरिन अउ बोमफार के रोय लगिन।
    -डाॅ.अनिल भतपहरी

Thursday, September 24, 2020

वाक्या

आँखों देखी सत्य घटना 

।।वाक्या ।।

सांइस की इस युग में वह भी एन्ड्राइड और सोशल मीडिया मे  यह आखिन देखी  व्यक्त करना हमे भी रहस्यमय संसार को समझने मे बड़ा ही दुरुह लग रहा  है ।
अनन्य तर्क -वितर्क व उलझन के बाद  अंत मे सब संयोग है कह अपनी तर्क और ज्ञान  को सीमा बद्ध कर जिज्ञासु बने रहने के उपक्रम करते है,और यह वाक्या जो हुआ उसे दुहराते है-
  हुआ यूं बस मे एक महिला अपनी एक सवा वर्ष की बच्ची को लेकर सफर कर रही थी।भली चंगी उनकी बच्ची एकाएक रोने लगी चुप होने की नाम नही..
उनकी माँ सहित आसपास की  यात्री परेशान।पानी खाजी और दूध पिलाने के असफल चेष्टा कर मां भी बच्ची के साथ फफकने लगी।घन्टे भर बिलखती बच्ची और मां की दशा वाकिय मे करुणाजन्य थी ,पर चलती बस मे करे तो क्या करे? महिला को लवन के पास कोई गांव जाना था।सबके पूछने पर कहने लगी-" पन्दरही होगे १-२  दिन बाद अपने -अपन उमिया जथे।डाक्टर बैद ब इगा सब धर डरेन।रइपुर लाने रहेव डाक्टर सो
ये दे फेर जस के तस हे ।" और वह भी हताश रोने लगी
यात्रियो मे सम्मलित एक बुजुर्ग से यह देखा नही गया।वह उठे और बच्ची के सिर पर हाथ फेर कर बुदबुदाने लगे।सब लोग कौतुहल वश देखने लगे ..
वे ५-७ मिनट तक उनके सर और बदन पर हल्का सा हाथ फेरते रहे।बुजुर्ग कंठी माला  पहने हुये उसे झुकाकर स्पर्श कराए और सेत गुरु साहेब सतनाम उच्चारित करने लगे
...पल भर बाद एकाएक बच्ची चुप और बिफरना  बंद शांत हो गई। सभी लोग कौतुहल वश बच्ची और बुजुर्ग की ओर देखने लगे... मै भी हतप्रभ ! ऐसे कैसे हो‌ गया?
.भैसा के आसपास वह बुजुर्ग उतर गये। और आधे घन्टे बाद मै पलारी उतर गया।महिला संतुष्ट भाव लिए सोती बच्ची को दुलारती अपने गंतव्य की ओर इत्मनान पूर्वक चली गई यात्रिगण तरह -तरह की  बातों मे  लगे रहे और मै  गहन विचार विमर्श मे ...अंतत: मुसझे रहा नही गया और यहां पोष्ट कर बैठा!  वह निर्धन असहाय महिला कौन थी और वह कंठी धारी  सेतवसना मुंछ पर बिन दाढी वाले पैट शर्ट कंठी पहना अधेड़ सा व्यक्ति जो सतनाम उच्चारा ,वह कबीर पंथी या सतनामी थे? यह भी ज्ञात नही। न ही लोग. उनके धर्म ,जात- पात जानने के इच्छुक थे न पता ठिकाना। पर एक छण. के लिए उनका प्रभाव कायम हो चुका था।
बाहरहाल.  कृपया कोई इसे अंधविश्वास फैलाने वाली बात न समझे।
    सतनाम 
डां अनिल भतपहरी/ 9617777514

खाली दिमाग शैतान का घर

वक्त निकाल कर पढें- 

खाली दिमाग...( शैतान घर )

       मोबाईल है तो भले आदमी जो हो जाय पर खाली न होने से  शैतान हो ही नहीं सकते !अत: अब यह पारंपरिक मुहावरे तेजी से  अप्रासंगिक होते जा रहे हैं। किसी से पुछ लो खाली हो क्या ? तो बोलेन्गे मरने तक का समय नहीं है। तो मित्रों  ऐसे  बखत इस महादेश में  आ गये हैं। पता नहीं बिना काम सब व्यस्त हैं। और ऐसा लगता है कि कुछ चीज पाना नहीं हैं। बस डेटा और बैट्री चाहिए।  
     सच कहे   गांवों में हरियाणा पंजाब के ट्रेक्टर- हार्वेस्टर नहीं आएन्गे तो बिना बनिहार धान खेत में  नष्ट हो झड़ -सड़ जाएन्गे ! मजदूर ही नहीं है मानो सभी मंडल गौटिया हो गये हैं। अधिकतर शहरों में चौड़ी मजदूर या बिल्डरों के यहां दहाड़ी कुली कबाड़ी हो गये हैं। कोई -कोई सीखकर मिस्त्री बन गये तो बाकी रेजा कुली करके शाम को पौव्वा अधपौव्वा पी  मजे कर रहे हैं।
    नई पीढ़ी मोबाईल कुपोषित अस्थिबाधाग्रसित और तंत्रिकातंत्र व्याधिक हो रहे हैं। मनोरोग व नेत्ररोग तो इनके सहचरी हैं बावजूद दो दो सिम और अनलिमीटेड रिचार्ज लोगो के लिए कम पड़ रहे हैं। पुरा युथ वर्ल्ड  राइट -रांग चलते -चलते बीच में ही ठिठका हुआ  पोर्नोग्राफी में अटके भटके हुए लगते हैं। या  यौवनिक मजे में डूबे हुए  ।  सबसे अधिक व्यापार शौक खासकर फैशन कास्मेटिक और मोबाईल का ही हैं। गोया यही जिन्दगी हैं। कपडे ऐसे फटे सटे पहने मिलेन्गे कि कोई बलात् संगत से भगते भगाते लूटते पिटते फटते सटते बचे खुचे आए हुए हैं।

  बहरहाल पुरे एक सप्ताह बाद आवश्यक कार्यवश आज ऑफिस आना हुआ पर सर्वर डाऊन होने से काम- काज हो नहीं पा रहे हैं। मेन्यूअल होना नहीं और आन लाइन काम ठप्प हैं। और चंद दो चार लोगों को छोड़कर पुरा परिसर में भूतिया सन्नाटा छाया हुआ हैं। हमी दो चार सरकटा भूत टाईप लिंक के प्रतीक्षा में बैठे हैं। 
 अत: युं ही  पेन दिल दिमसग रखकर भी पेपर लेस ठप्पा टाईप क्यु में एम. फिल. पीएच-डी. डिग्रियाँ के बाद भी आजकल अपना वही पुरातन अंगुठे काम आ रहे हैं। चाहे मोबाईल चलाओं लेपटाप या आफिस में सिस्टम चलाओ । 
 
  तो भैय्ये !बात यह कि अब कैसे वक्त जाया करे ? कोई ग्रुप स्रुप तो है कि समाज देश सुधार हेतु लफ्फाजियां करे या खाये -पीये लोगों जैसे जुगाली करे या माफ किजिए अधिकतर  महिलाओं और कमतर पुरुषों जैसे चुगली करे। कोई मित्ता- सित्ता भी नहीं  आटसाप -वाटसाप खेले या टिकटाक - लुडो पब्जी खेले । 
या फिर खोजी पत्रकारिता सरीख इधर -ऊधर की गंध सुंधते फिरे । इसलिये अपने ही वाट्साप में कुछ लिखने लगा क्योंकि लिखने से सोच और परिश्रम दोनो साथ- साथ चलते हैं और वक्त युं निकल जाते हैं। खाली समय में व्यर्थ चिंता भय से बोनस स्वरुप अलग मुक्त रहते हैं। और न ही बुरे ख्याल या व्यसन की तलब जगते हैं। हां भई अब इसे ही व्यसन बना लिए समझो पर   यह अलग बात है ।कुछ लिखकर यश -अपयश तक कमा लेते हैं,तो कुछ युं ही जमींदोंज हो जाते हैं।  मजा और सजा इन दोनो अवस्था में हैं। इसलिए कम से कम जो‌ जान रहे हैं  वही खाली समय में करना चाहिए। हमारे छत्तीसगढ़ में ज्ञानी गुनी पेड़  के नीचे या चौरा पर बैठ कथा कहनी ,गीत भजन में रम जाते थे तो वही कही ढ़ेरा लेकर रस्सी आटने लग जाते थे।यह बैठागुरों का हैं। और सच कहे तो इनके अनुभव बेहतर करने में अपूर्व सहयोग करते आ रहे हैं। भले वह महत्वपूर्ण कार्य हो न हो ।प्रत्यक्ष लाभ मिले न मिले। पूंजीवादी व्यवस्था में यह वेस्ट हैं। और केवल डस्टबीन के लायक हैं। अब इस तरह के बहुत तेजी से अपनी शाश्वत मूल्यों को खारिज करती हुई शीध्रता से   पांव पसारते सुरसा को कैसे नियंत्रित करें। यह भी यक्ष प्रश्न हैं लोकतंत्र को  प्रभावित कर सीधे  सत्ता में हस्तक्षेप के कारण सक्षम नेतृत्व भी किंमकर्तव्यविमूंढम होते जा रहे हैं। जबकि सच तो यह है कि 
कोरोना के देश लाकडाउन हैं । महत्वपूर्ण केन्द्रीय कार्यालय और राजकीय कार्यालय खुले हुए हैं। इस महामारी से पुरा तंत्र सहित आम‌ जन भी बराबर संधर्षरत हैं।ऐसे में अति आवश्यक सेवाओं सहित महत्वपूर्ण शासकीय दायित्वों का निर्वहन जारी हैं। हमारे सरकारी अधिकारी - कर्मचारी चिकित्सीय अमले नगरी प्रशासन ,सफाई कर्मचारी सहित पुलिस प्रशासन प्रभावी व्यवस्था बनाने में सक्रिय हैं। पुरे परिदृश्य से गैर सरकारी महकमे व नीजिकरण को बढावा देने वालें लोग गायब हैं। जबकि यही लोग सरकारी दफ्तर और कर्मचारियों को हिकारत या द्वेष भाव से देखते आ रहे थे। 
         हमारे देश में शासकीय तंत्र नार्थ साउथ ब्लाक न ई दिल्ली से लेकर महानदी इंद्रावती होते    सुदूर गांव तक फैली हुई हैं। फलस्वरुप  यहां की हालात मूलभूत सुविधाएं अपेक्षाकृत न्युनतम होने के बावजूद विकसित व पूंजीवादी देश में इस समय फिलहाल बेहतर हैं।
               आज हमे तेजी बढ़ते यांत्रिक  दैत्याकार पूंजीवाद नहीं चाहिए जो एक नट बोल्ट के घिस जाने या कमजोर हो जाने पर भभाकर  कर ताश के पत्ते सरीख ढ़ह जाय । 
    बल्कि हमें संतुलित विकास हेतु जैव विविधताओं को कायम रखते समृद्धशाली भारत गढने होन्गे जो कि हमारे वर्तमान संवैधानिक तंत्र से ही यहाँ के लिए संभव हैं। बल्कि अन्य के लिए भी यह मार्गदर्शक है।  विश्व पृथ्वी दिवस पर हमें पृथ्वी का संरक्षण उसी तरह करना है। जैसे  अट्ठारहवीं सदीं में औद्योगीकरण के पूर्व थे। अपनी विलासिता के लिए प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन और भावी पीढ़ियों के लिए कुड़ा कर्कट प्रदूषण व बिमारी छोड़कर जाना नहीं हैं। जैसै कुंभ मेले के बाद स्थानीय नागरिकों के लिए  दुर्गंध प्रदूषण और बिमारी छोड  दिए जाते हैं। 
    समय है अब नीजिकरण को रोक कर सरकारी व सहकारिता को बढावा देने होन्गे।ताकि तेजी से देश में बढ़ रहे अमीरी -गरीबी के खाई को पाटा जा सके। जिससे सबका विकास सब तरफ विकास का नव प्रभात आ सकें।
                कम को जादा समझना 

       -डा.अनिल भतपहरी

Saturday, September 19, 2020

संपादकीय


संपादकीय ...

"कोरोनाकाल में  सामाजिक / धार्मिक गतिविधियां"


 प्रिय संत समाज‌

         जय सतनाम 
        दुनियां कोविड 19 वायरस जनित महामारी कोरोना से आक्रांत है । डब्लू एच  ओ के निर्देशानुसार सभी को सावधानीपूर्वक रहन -सहन करना हैं। इनके लिए  मुखटोप (माक्स) लगाकर सामाजिक दूरियां बनाकर  हाथों को सेनेटाइज करते रहना है। साथ  स्वयं  व परिवार की इम्युनिटी सिस्टम को बढाकर या मेंनेट कर इस से बचा जा सकते हैं। इनके लिए घरेलू नुस्खे जिसमे अदरक, सोठ ,काली मिर्च अजवाइन कर्णफूल, मेथी ,सौप ,दालचीनी का काढा उपयोगी हैं। जो प्रायः किचन में ही सहज उपलब्ध रहते हैं। इसे बराबर मात्रा में लेकर चूर्ण बनाकर प्रति गिलास एक चम्मच की मात्रा लेकर आधे तक उबालकर  काढा   सपरिवार पीते रहे । आयुर्वेदिक /एली पैथी/ होम्योपैथी मेडीसिन एडवाइज किए जा रहे हैं। 
फिलहाल बचाव ही इनका निदान हैं। 
        अभी तक कोई वैक्सीन, व दवाई  ईजाद ‌नही हुआ है और यदि  बन भी जाय तो भी आम लोगों को उपलब्ध होने में ४-५ साल लगने की संभावनाएँ जानकार लोगों द्वारा व्यक्त किए जा रहे हैं।
ऐसे में हमारा सामाजिक व धार्मिक गतिविधियां कैसी होगी इन पर संक्षिप्त विचार करना प्रासंगिक हैं। क्योंकि बिना कोई आयोजन सलाह मशविरा के समाज में ,अराजकताएं फैलने की‌ संभावनाएँ हैं। इसलिए यदा कदा नियमों के अधीन आयोजन करने होन्गे या वर्तमान में उपलब्ध तकनीक के माध्यम  वर्च्युवल  कार्यक्रम संपादित करने होन्गे ताकि आयोजनों द्वारा लोगों को जोडे रखे।
    यह सच हैं कि "जान है तो जहान है" यह  प्रथम ग्राह्य पंक्ति है ।पर जहान है तभी जान संरक्षित है यह उनसे संबंध द्वितीय पंक्ति  है जो व्यवहारिक है। मनुष्य सामाजिक प्राणी है। वह अलग थलग नहीं रह सकता अन्यथा उनमें अनेक तरह के असामाजिक गतिविधियों और अवसाद व्यसन आदि लग सकते हैं।
इसलिए भी आयोजन आवश्यक है।इस कोरोना काल में  हालात इतने भयावह होते जा रहा है कि हमे बेहद सावधानीपूर्वक जीवन निर्वाह करने  ही होन्गे।
   हमारा  सतनामी समुदाय ग्रामीण पृष्ठभूमि के मेहनत कश कृषक समुदाय है। उनका वार्षिक अनिश्चित आय है जिसे वह सोच समझकर वर्ष भर अपनी जरुरतों की प्रतिपूर्ति हेतु  व्यय करते हैं। अधिकतर  जनसंख्या मध्यम लधु कृषक है और वे कृषि उत्पाद पर ही निर्भर हैं।  जो कृषि मजदूर या अल्प कृषि जोत वाले हैं वे प्रायः परिश्रम हेतु  देश के  विभिन्न शहरों में रोजी- रोजगार हेतु पलायन करते हैं। केवल १० % ही शासकीय सेवा और स्व व्यवसाय  व बडी कृषि जोत वाले संपन्न वर्ग में है जिनके पास निश्चित आमदनी हैं। इनमें भी चंद गिने- चुने लोग ही  विचारक और योजनाकार है जो समाज को व्यवस्थित करने और प्रभावशाली बनाने में लगे होते हैं।  
इनके साथ - साथ धार्मिक क्षेत्र में 
गुरु, संत, महंत, पंडित- पुजारी भी है जो यथा- योग्य अपना उत्तरदायित्व का निर्वहन करते आ रहे हैं।  यह  लोग  केवल पूजा -पाठ ही नहीं बल्कि सामाजिक संगठन में प्रभावशाली भूमिका का निर्वहन कर रहे हैं।
       अब सवाल यह होता है कि ऐसे वैश्विक महामारी वाली  विषम परिस्थिति सामाजिक व धार्मिक कार्यों का निष्पादन कैसे करे? ताकि‌ हमारी धार्मिक भावनाओं की प्रतिपूर्ति भी हो और हम संक्रमण आदि से बचे।
     वर्तमान में आधुनिक शिक्षा व  वैज्ञानिक सोच के चलते ऊपर से  रोजी- रोजगार से जुझते  युवा वर्गों में, धार्मिक कार्य व आयोजन  के प्रति उदासीनता देखे जा सकते हैं। वे लोग जाने -अनजाने आलोचनाएँ तक कर बैठते हैं पर यही क्रिया- कलाप ही हमारे समाज को अन्य समाज के समक्ष खड़ा होने और उनकी प्रतिरोधी शक्ति से जुझने व निपटने की  शक्ति प्रदान करते हैं।
   व्यक्ति का व्यैक्तिक सोच और समाज का सामूहिक सोच में सदैव अन्तर रहते हैं। जहां समाज हित हो वहाँ व्यक्तिगत हित या सोच का स्तर गौण हो जाया करते हैं।  इसलिए भी कुछेक युवा साथी शीध्र मोहभंग की अवस्था में आ जाते हैं  और इस तरह बिखराव होने लगता हैं। ऐसा हर मत पंथ जाति समुदाय में द्रष्टव्य हैं। उनमें युक्तियुक्त सामंजस्य ही इनका एक मात्र हल है वह समाज सुसंगठित व संस्कारित है जहां समाज हित सर्वोपरि है हमें इस स्थिति को सुदृढ़ रुप में प्रतिष्ठित करना हैं।
   बहरहाल यह माह सतनाम धर्म- संस्कृति में दस  गुरुगद्दी पूजा महोत्सव एंव गुरुदर्शन दंशहरा मेला का हैं। 
      भारतीय कलेण्डर के अनुसार इस वर्ष  अधिमास होने से क्वार एकम दिनांक 17 अक्टूबर को गुरुगद्दी की स्थापना होगी और  25 को  शोभायात्रा जुलूस के साथ समोखन ( समापन)  किए जाएन्गे।
        दस दिवसीय यह आयोजन आजकल सुविधा अनुसार सप्त दिवसीय भी होने लगे हैं। सतनाम संस्कृति में गुरु दर्शन मेला को दंश हरा परब भी कहे जाते हैं। क्योंकि क्वार का महिना कृषि संस्कृति में टूटवारों का माह होते हैं। फलस्वरुप तंगी के चलते अनेक तरह के दंश व  तकलीफ से गुजरते है। ऐसे में सार्वजनिक रुप से दस दिनों तक का धार्मिक व  सामाजिक आयोजन हमारे दु:ख दंश को हर लेने का नायाब आयोजन हैं। इनका शुरुआत राजा गुरु बालकदास के राज्याभिषेक के उपरान्त प्रतिवर्ष विजया दसमी को दंशहरा यानि दसहरा मेला  के रुप में ‌ तेलासी व भंडारपुरी में मनाने की प्रथा गुरु घासीदास बाबा के निर्देशन में राजा गुरु बालकदास के राजाज्ञा से 1820-25 के आसपास  शुभारंभ हुआ । क्योंकि यह दोनो  जगह सतनाम धर्म नगरी के रुप में विख्यात हैं।
        तेलासी - भंडारपुरी के आसपास के ग्रामों के अनुयायियों ने  गुरुदर्शन  दशहरा मेला में शोभायात्रा करने पंथी व अखाड़ा सजाते हैं। उनकी तैयारी हेतु क्वार शुक्ल एकम से अपने अपने ग्रामों में गुरुगद्दी स्थापित कर या निशाना में पूजा पाठ कर पंथी नृत्य और अखाड़ा का प्रदर्शन हेतु अभ्यास करने लग जाते हैं। इसमें खासकर युवा लोग बड़े उत्साह से भाग लेते रहे हैं। आज तक यह प्रथा आबाद रुप से चला आ रहा है। 
       दरअसल गुरुगद्दी पूजा महोत्सव  शीत काल में शारीरिक शौष्ठव बढाने, योग कसरत करने तथा पंथी नृत्य अभ्यास करने का आयोजन है इनके निरंतर दस दिनों तक अभ्यास करने से स्वयं की भीतरी शक्ति, वील पावर या  आत्मबल  का विकास होता  है । एक तरह से यह स्कील डेवलप करने का अनुष्ठान है। यही आज के लिए इम्युनिटी पावर है।  अत: आयोजन प्रासंगिक हैं। और इसे ज्ञान भक्ति  मनोरंजन आदि के निमित्त सावधानीपूर्वक करना चाहिए। इससे  मानव के नैराश्य भाव में आशा का संचार  होगा। 
क्योंकि जब किसी गांव में गुरुगद्दी स्थापित होते हैं तो प्रात: सांझ नित्य आरती होते हैं। लोग स्नान ध्यान कर गुरुगद्दी के समक्ष उपस्थित होते हैं। तत्पश्चात् युवा वर्ग पंथी व अखाडा अभ्यास में लग जाते हैं। बच्चे विभिन्न क्वीज , कब्बडी आदि प्रतियोगिताओं में लग जाते हैं। और वृद्ध जन भोग भंडारा पूजा पाठ में रम जाते हैं। महिलाएँ धर सज्जा  द्वाराचार रंगोली दीपक जलाने और आरती में सम्मलित ‌हो जाते हैं। गांव आयोजन में खुशहाल हो जाते हैं। बेटियाँ लिवा लिए जाते हैं और उनके आने से घरों  खुशियाँ बिखरने लगने लगते हैं। इस तरह दस दिन दंशहरा परब होते हैं आखिरी दिन दसमी को गुरुगद्दी को शोभायात्रा निकाल सामुदायिक भवन गुरुद्वारा में प्रतिष्ठापित कर दुसरे दिन भंडारपुरी में जगत प्रसिद्ध गुरुदर्शन परब हेतु पंथी आखाडा लेकर सामूहिक रुप से सम्मलित होकर धन्य धन्य होते हैं।
       तो इस तरह के आयोजन इस कोरोना काल मे सावधानीपूर्वक सोशल डिस्टेंसिंग को पालन करते सामाजिक/ धार्मिक  भूमिका का निर्वहन करें।
       स्वयं, घर -,परिवार सहित समाज ,प्रदेश व देश का भला करे अवसाद आदि से बचने धार्मिक व सामाजिक कार्यक्रम को शासन- प्रशासन  के  निर्देशानुसार आयोजित करे ।
     सभी की सुखमय व स्वस्थ जीवन की  मंगलकामनाओं सहित ...
  ।‌।जय सतनाम ।।

  डाॅ. अनिल भतपहरी 

अमलीडीह , रायपुर छग
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From: Anil Bhatpahari <anilbhatpahari@gmail.com>
To: lakhanlal koshley <llkoshley@rediffmail.com>
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Date: Sun, 20 Sep 2020 09:13:56 +0530
Subject: सतनाम संदेश के लिए संपादकीय ...
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सतनाम व सनातन

सतनाम और सनातन 

सतनाम संस्कृति श्रमण संस्कृति है और यह  सैंधव सभ्यता से अबतक  निर्बाध चला आ रहा है। सच्चनाम से  सतनाम  होते सत्य‌नाम तक की यात्रा की बड़ी लंबी प्राचीन वृतांत है,जिसे  सनातन कहे जा  रहे हैं वह भी सतनाम के समानांतर ही हैं। इस में  बुद्ध से लेकर गुरुघासीदास तक अनेक प्रज्ञावान प्रवर्तक  महापुरुष हो चुके हैं और आगे होते रहेन्गे ।
      देव-देवादि उनके अवतार लीला वृतांत  यह तो राजतंत्र के आविर्भाव से हुआ और  राजाओं /राजकुमारों को जो ऐश्वर्यवान हुए उन्हे ईश्वर तक धोषित किए गये। जब किसी को  शिखर तक पहुँचाए जाएन्गे तो किसी  न किसी को गर्त तक पहुचना या पहुचाना ही होगा । इस तरह राजतंत्र से ही भेदभाव जन्य जाति वर्ण शास्त्र आदि निर्माण हुआ। उनसे पूर्व से ही प्राकृतिक रुप से सतनाम संस्कृति रहा हैं। जिसे प्राकृत धर्म भी कहते हैं। उसे कोई राजाश्रय शास्त्रकार और महाकवि नहीं मिला। जो भी प्रतिभाशाली हुआ उनकी बातें लोगों को समझ आती ग ई  वह अलग मत पंथ के रुप से आकृति ग्रहण कर पृथक होते चले गये। 
    इस तरह हम देखते है कि सतनाम ( सनातन )जनमानस के परस्पर आचार ,विचार और व्यवहार से स्वस्फूर्त चलते आ  रहा हैं। इनके सूक्ष्म भेद के पचड़े में जन साधारण नहीं पड़ते उन्हे तो जीवन की जटिलताएं और कष्ट संताप से मुक्ति और आत्मवि चाहिए। यह सब उन्हें कुछ के  क्रियाएँ कर्मकांड या पूजा पद्धति में मिल जाते वह उन्ही के संग साथ लो लिए। हां उनकी इन सारल्य और अबोधता का भरपूर फायदे सुविधा भोगियों ने उठाते आया है उठा रहे हैं और उठाते रहेन्गे ।
               ।।सतनाम ।।
        -डाॅ. अनिल भतपहरी

छत्तीसगढ़ी में ग़ज़ल का न होना पर व्यक्त्व

ग़ज़ल काव्य की एक विधा मात्र हैं।
    असल चीज़ है काव्य का होना। 
मात्रा वर्ण रदीफ़ काफिया बहर शेर श्लोक मंत्र सूक्त छंद दोहा चौपाई आदि केवल तकनीक मात्र हैं।
तकनीक हो पर काव्य न हो तो तकनीक का कोई मतलब नहीं ।
      अब छत्तीसगढ़ में मीनार गुम्बद नहीं बन सकते कहना या समझना नादां या अल्पज्ञ  होना  हैं।

भाषा सरलता से जटिलता की ओर प्रयाण करते हैं।

[9/19, 18:07] anilbhatpahari: भाषा सदा सरलता से जटिलता के ओर जात्रा करथे। कत्कोन गुणवंता मन नदिया कस उद्गम ले समंदर तक जाय के रुपक बांधथे त कत्कोन मन नदियाँ के उलट बहुत कन मिंझरे संधरे  हर धीरे- धीरे छनत- छुनात विशुद्ध रुप में उद्गम कस फरिल हो जथे कथे । इही मान्यता मं दु विचार धारा हवे 
एक जो दैवी कृपा जोन ईश्वरीय विधान मान ले गय हे।
दूसर जोन विकासवादी सिद्धांत हवय ।
 
छत्तीसगढ़ी सहित तमाम लोक भाषा हर  सहज सरल रुप‌ म ही रहिथे 
     धीरे -धीरे उनमन परमारजित परवर्धित  होत सुघ्घर रुप घर लेथय।  बोली से विभाषा से भाषा के रुप मे विकसित होथे।
ज्ञानी गुणी मन उन ल अउ बने सजा धजा के  प्रसंस्करन कर लेथय संस्कृत ओइसने विकसित होय हवय जोन सामंत वर्ग के भाषा के रुप मं प्रतिष्ठित हवे।
   विकासवाद सिद्धान्त म धीरे धीरे ही अगढता ह सुगढता म बदलथे । पहिलीच ल कोनो समरथ अउ सुघर न इ सिरजे रहय।एक प्रक्रिया के तहत होथे।
    हमर देश धार्मिक देश आय अउ आजतक ये दृढ मान्यता हवय कि ये जगत के संचालन सर्व शक्तिमान ईश्वर  करत हे उन ईश्वर  के तको घर परिवार स्वजन हव अउ उनकर बोली भाषा हे जेन संस्कृत के नाव ले जाने जाथे  । 
ते पाय के संस्कृत ल देववाणी कहिथे अउ ओकर ग्रंथ या शास्त्र ल वेद कहे माने गे हवय। ओला एकरे सेती अपौरुषेय कहे जाथे।
उहीच रकम के कुरान शरीफ अउ ओल्ड टेस्टामेंट बाइबिल के तको मान्यता हवे। इन मन ल राजतंत्र के मान्यता हवे अउ ओकरे सेती सदियों से ओकर संरक्षण संवर्धन चले आत हवय। ये लोक मान्यताएँ और ईश्वरीय विधान मं आबद्ध हवय ।
      त दुसर डहन विकासवाद के अवधारणा ले आधुनिकतम विचारधारा हवय जोन वैज्ञानिक चिन्तन धारा ये येमा जो ही संप्रभुता या ऐश्वर्य विभिन्न क्षेत्र म दिखथय ओ हर एक सतत प्रक्रिया से होत चले आत हे अउ जो हो चूके हे उही अंतिम श्रेष्ठतम न इ ये भलुक आगे अउ बेहतर अउ श्रेष्ठतम हो सकते ऐसे संभावना विद्यमान हे ...
     ये लोगन अपन अपन स्वभाव रुचि अउ विवेक अनुसार ग्रहन या मान समझ सकथे।
   जय छत्तीसगढ़

Friday, September 18, 2020

गुरुगद्दी पूजा महोत्सव व गुरुदर्शन मेला

सतनाम धर्म संस्कृति का मांगलिक अनुष्ठान
 
             *गुरुगद्दी पूजा व गुरुदर्शन शोभायात्रा महोत्सव*
   
            सतनाम धर्म -संस्कृति में  क्वारं शुक्ल एकम से दसमी तक आयोजित "गुरुगद्दी पूजा महोत्सव और उनके समापन में भव्य शोभायत्रा जुलूस का आयोजन गुरुघासीदास के पुत्र  "राजा गुरु बालकदास " का राज्याभिषेक और उनकी शान में किए जाने वाले राज दशहरा पर्व की शोभायात्रा की मांगलिक अनुष्ठान हैं। 
       क्वार शुक्ल  एकम से दसमी  तक यह आयोजन होते हैं। दसमी को सतघरा स्नान कर गुरुगद्दी व सतनाम ज्योत कलश को शोभायात्रा द्वारा  सतनाम भवन में स्थापित जोत में समाहित कर देते हैं। 
   दूसरे दिन पंथी नर्तक दल और आखाड़ा वाले क्वार एकादसी को  गुरु दर्शन मेला भंडारपुरी जाते हैं। वहाँ भव्यतम हाथी घोडे के जुलूस  निकाल अनेक करतब पंथी नृत्य ,अखाडा साजते हैं।
   कुछ विद्वान कहते हैं कि  यह परंपरा आशोक दशहरा हैं ।जो सतनाम संस्कृति में आंशिक संशोधन के बाद  १८२० के बाद प्रचलित हुआ।  तब साक्षात् गुरुघासीदास इस आयोजन के सूत्रधार थे।
         सन १८६० में राजा गुरु बालकदास की हत्या और उनके बाद समाज में नेतृत्व शून्यता भीषण अकाल एंव उनके गिरफ्त में जनमानस , बोड़सरा बाड़ा व तेलासी बाड़ा के महाजनों व अन्य के पास  हस्तगत हो जाने और अनेक सामाजिक उथल- पुथल से यह आयोजन स्थगित हो गया।
  केवल  राज दसहरा  गुरुदर्शन मेला के नाम पर भंडारपुरी में एक दिवसीय होते रहे। आसपास के लोग सम्मलित होते और यथा संभव पंथी ,अखाडा  आदि प्रदर्शन करते उसे पूर्ववत तेजस्वी स्वरुप देते नव कलेवर के साथ भंडारपुरी के समीपस्थ ग्राम जुनवानी में शिक्षक सुकालदास भतपहरी एंव मध्य बाल समाज व युवा जागृति मंच के संयुक्त तत्वावधान से १९८५ में दस दिवसीय आयोजन  किए गये‌ ।उसके बाद व्यवस्थित ढंग से गांव -गांव दसदिवसीय गुरुगद्दी पूजा महोत्सव आयोजन कर शौर्य -पराक्रम अर्जित करने  वाली उक्त महाआयोजन का पुनश्च आरंभ हुआ।यह सैकड़ों  ग्रामों /कस्बो में उत्साह पूर्वक मनाए जा रहे हैं।
   गुरुगद्दी पूजा महोत्सव ३५वां वर्ष का आयोजन  तो हमारे ग्राम जुनवानी में  इस वर्ष हो रहा हैं। 

" गुरुगद्दी पूजा समोखन "
   और दु:ख-दंश हरा परब

सतनाम धर्म के चारों शाखाओं और देश विदेश में निवासरत सतनामियों मे गुरुगद्दी पूजा विधान प्रचलित है।
  गुरुगद्दी सद्गुरु के आसन है जिसपर  आसनगत  होकर अपने सम्मुख उपस्थित अनुयायियों को धर्मोपदेश देते और उनके तमाम उलझनो परेशानियों और दसो तरह  दु:ख व्याधि के हरन का उपाय बताते इसलिए भी यह दु:ख दंशहरा परब है।
   क्वार शुक्ल एकम से  दशमी तक दस दिवसीय इस महापर्व का आयोजन होते है नित्य प्रात: शाम आरती पूजा के साथ साथ संत महंत गुरुओ द्वारा  ग्यान वर्धक व्यख्यान्न सत्संग प्रवचन गुरु ग्रंथ व चरित का पाठ एंव लोक कलाकारों द्वारा प्रेरक व मनोरंजक नाट्य मंचन गायन व नर्तन होते है।कही कही हर शाम सामूहिक भोग भंडारा होते है जिससे इस विकट समय टुटवारो के दिन में परस्पर मिलजुल कर सहभोज कर आत्मिक आनंदोत्सव मनाते है ।यह सब सद्गुरु के समछ  होते है।ताकि पुरी पवित्रता और महत्ता कायम रहे उनका सदैव आशीष मिलता रहे।इस कठिन वक्त जब फसलें खेत मे है और लगभग जन साधारण के अन्नागार कोठी खाली हो उस समय साधन सछम लोग जन कल्याणार्थ इस महा पर्व मे अन्नदान कर सामूहिक भोग भंडारा चलाते है ताकि गरीब गुरबा बडे बुजुर्ग महिलाओं  व बच्चो  को  गुरुप्रसादी के रुप मे भोजन मिल सके।और रात्रिकालीन होने वाले ग्यान वर्धक व मनोरंजक कार्यक्रमों का लाभ उठाकर सुखमय जीवन निर्वाहन कर सके।इसी  प्रयोजनार्थ  सतनाम संस्कृति मे यह महत्वपूर्ण आयोजन है।
    दसवें दिन "सदगुरुआसन" का  प्रात: शोभायात्रा निकाल ग्राम गलियों की परिक्रमा कराते है।और सदानीरा नदी सरोवर के समीप जल परछन कराकर वापस गुरुद्वारा या कोई श्रद्धालु अपने घर नित्य आगामी उत्सव तक पूजा अर्चन करने स्थापित करते है।
   शाम को तेलासी अमसेना खपरी बोडसरा ( वर्तमान मे स्थगित) खडुआ गुरु वंशजो के दर्शनार्थ जाते है शोभायात्रा और उनके सम्मुख श्री मुख से सद्गुरु की अमृतवाणी श्रवण करते कृतार्थ होते है।गुरु उपदेश सिद्धान्त रावटी महात्म से परिपूर्ण संत महंत की उपदेशना चौका आरती भजन पंथी एव ग्यान व मनोरंजन पूर्ण कार्यक्रम देख सुन कृतार्थ होते है।
    दूसरे दिन जग प्रसिद्ध भंडारपुरी गुरुदर्शन दशहरा पर्व का आयोजन हर्षोल्लास पूर्वक होते है।इस दिन हाथी घोडे ऊट पैदल चतुरंगी शोभायात्रा गुरु वंशजो व गुरुगद्दी नशीन धर्मगुरु का उपदेश व प्रवचन होते है।
   सतनामियो का यह सबसे बडा और प्राचीन महोत्सव है। जहां गुरुवंशज के घर से गुरु प्रसादी भोग भंडारा पाकर श्रद्धालु गण लोग धन्य-धन्य हो जाते है।
     छग मे स्थापित सतनामधर्म का यह उत्सव १८३०-४० जब मोती महल गुरुद्वारा का उद्धाटन हुआ और राजा धोषित होने बाद चतुरंगी सेना साजकर आम‌जन मानस को दर्शनार्थ सद्गुरु घासीदास के मंझले पूत्र राजा गुरु बालकदास  भाई आगरदास पुत्र साहेब दास हाथी मे संवार आमजनमानस के बीच आकर गुरु उपदेशना व पंथ संचालन हेतु आवश्यक दिशा निर्देशन किए।
  तब से यह विशिष्ट आयोजन परंपरागत आन बान से आयोजित किए जा रहे हैं। देश भर के लाखों श्रद्धालु गण एकत्र होते हैं जिसे गुरुगद्दी नशीन धर्म गुरु एंव अन्य  गुरु वंशज वर्ष भर के धार्मिक क्रिया कलापों की जानकारियों के साथ- साथ देते हुए सुखमय जीवन हेतु धार्मिक उपदेशना प्रदान करते हैं। संत महंत भी इस अवसर पर उपस्थित जन समूह को संबोधित करते हैं। 
      इस महाआयोजन से समाज सुसंगठित होते हैं। और उपस्थित गांवो के मुखिया /प्रतिनिधि गण  यहाँ से सीखे समझे बातों को अपने अपने ग्रामों जगहों पर संचालित करते हैं। इसलिए  सतनाम संस्कृति में "गुरु दर्शन मेला"  का अतिशय महत्व हैं। 

   गुरुगद्दी पूजा महोत्सव का आयोजन प्रत्येक सतनामी ग्रामों में होना चाहिए दस दिनो तक सामूहिक आयोजन होने से परस्पर लोग सामाजिक व धार्मिक कार्यों में प्रवृत्त होते हैं संगठित होते हैं और वर्ष भर की जाने अनजाने कटुताओं का समापन होते हैं। साथ ही न ई पीढ़ी के लोगों को अपनी समृद्धशाली संस्कृति का हस्तांतरण होते हैं। इस आयोजन का यही प्रमुख उद्देश्य हैं। 

     ।।जय सतनाम ।।

-डॉ. अनिल भतपहरी, 
    9617777514 
सतश्री ऊंजियार- सदन अमलीडीह रायपुर छग

Wednesday, September 16, 2020

छत्तीसगढ़ी पाठ्यक्रम - सत्यभामा आडिल के व्यक्त्व पर लेख

[9/16, 20:31] anilbhatpahari: प्रेरक अउ महत्वपूर्ण आंतरिक गोठ।
विरोधी मन बड़  नामधारी अउ बडे बडे सम्मान ले  सम्मानीय हवे । 
    यहां तक के  पद्म सम्मान तको  गैर छत्तीसगढ़िया मन छत्तीसगढ़ी ल प्रदर्शित करके झटक लिए हवे अउ ओकर हकदार मन कलेचुप सन्न खाय बोकबाय परे हवे।
भाषाई अउ बौद्धिक उपनिवेश से छत्तीसगढ़ आजादी के बाद से अबतक रौंदात चले आत हवय।
जोन थोर थिर लिख पढ़ गुन सकथे उहुमन उनकर मन के परभाव म मोकाय कोंदा ब उला हवे।
   आपमन के छत्तीसगढ़ी के ऊपर  अधातेच मया अउ मिहनत बड़ सेहरौनिक हवय  दीदी जी।
     यदि अध्ययन शाला अउ पाठ्यक्रम म आप ल संधरे के मौका  नइ मिलतिस त अउ जोगी जी दृढ इच्छा शक्ति न ई रहितिस  छत्तीसगढ़ी  अउ छत्तीसगढ़िया मन के बड़ दुरदसा हो जतिस ।

 इनकर मन के उलाहना महु ल सुने अउ सहे बर परे हवय।
भले उनमन पंडित जी कहय फेर मोर छत्तीसगढी पना हिन्दी अउ एक अलग तरह के चिन्तनधारा वाले प्रस्तुति म बड़ रोक छोक करय ।
     महाविद्यालीन प्रोफेसर संगी मन ये मन जानथे तको।  छत्तीसगढी म एम ए अउ छत्तीसगढ़ी के मानकीकरण कार्यशाला भाषा अउ साहित्य विभाग र वि वि करा के बनेच बुता करे के उदीम मढाय रहिस आज ओहर बने सिधीयाय ल घर ले हवय ... आधु चलके अब सब कुछ बढिया होही मोकाय सोकाय भकवाय मन के चेत लहुटही हम ल आस बिसवास हवय ।
आप दुनो बहिनी मन के छत्तीसगढ़ी प्रेम अउ समरपन भाव अधातेच सेहरौनिक हवय ।
महत्वपूर्ण जगा मं सही मनखे मन के रहे से ही विकास के नवा रद्दा खुलथे नहीं त यथास्थिति वाद के चलागन म नव प्रवर्तन के सुर ह दबक छपक जाथे ।
         सुखी स्वस्थ रहत सिरजन रत रहव ।
पैलगी

आपके सहयोगी धमतरी निवासी डॉ. तेजराम दिल्लीवार जी  संग काशी विश्वविद्यालय मं रिफ्रेशर कोर्स  मं संग रहेव। पाठ्यक्रम निर्माण प्रक्रिया के  बने संस्मरण सुनावय  ।सविता मिश्रा जी संग तको काम करे हव आप के दरस  संभाषण अउ असीस तको मिले हे समे समे में असीस मिलतेच रथे ।आप कहेव कि मोर पीएचडी थीसीस के अ मूल्यांकन आपमन करा आय रहिस जान के बड़ श्रदाभाव मन मं जागिस ।
      कहे के मतलब जनपदीय भाषा छत्तीसगढ़ी पाठ्यक्रम के निर्माण म लगे  डाॅ, सत्यभामा आडिल डॉ, तेजराम  दिल्लीवार अउ डाॅ सविता मिश्रा तीनो के सांधरों पाय के धन भाग हमला मिले हवय। ओमा संधरे रचनाकार मे आद डॉ विनय पाठक पहली तो ओकर रचना मं एक टिप्पणी देय कि "  जेन रद्दा मं  रेंगे ओ हो जथे मेड़ रे " क इसे होही काबर खेत के मेड़ किसान के रेंगे के नोहय भलुक पानी रोके अउ नीदा खरपतवार मोखला काटा करगा मन राखे के आय।अउ साफ सुथरा खेत हे त मेड़ में तिली राहेर बोय के जगा ये। किसान तो खेत भीतर ले रेंग के परखथे कि कहा क इसे धान के स्थिति हे। ये असंगत प्रयोग हवे । तब से उकर संग मोर बनेच जमथे  अउ मान तको  देथे  अउ एक संग बहुत कन जगा मं काम करे के मौका मिले हवय ।

  आद मुकु्द कौशल जी गजल के तो मय दिवानाच रहेव ओमन सो भी मिलन भेटन गोठ बात होथेच । मोला  उनमन पं. दानेश्वर के कार्यकाल म राजभाषा आयोग के डहन ले  बलौदाबाजार मं सम्मान करे हवे। उन सब झन  साधक मन के मय मया दुलार पाय हव।परसंग वश  सुरता करथव त अपन आप ल  बड़ भागी हव कस लगथे ।
   डॉ. अनिल भतपहरी 
   पैलगी जय छत्तीसगढ़
[9/16, 20:38] anilbhatpahari: 👆🏼हां, सरला बहन,
डॉ, पालेश्वर शर्मा के ललित निबन्ध--छत्तीसगढ़ी मं!
जब  2001 म जब मैं

 छत्तीसगढ़ी साहित्य  के पाठ्यक्रम तैयार कराएंव एम,ए, हिंदी साहित्य के एक प्रश्नपत्र बनाये बर, तब संस्कृति विभाग के बैठक म आवाहन करेंव सबो लेखक मन ल कि, अपन किताब दव,रचना के चुनाव करना हे, तब मंत्री धनेंद्र साहू कहिन--" छत्तीसढ़ी म कोर्स बहिनी?"
त स्कूली शिक्षामंत्री    ताम्रध्वज  साहू कहिन-"हहो कोर्स बनावत है दीदी ह!अब कालेज म घलो पढ़हीं लइका मन गा!"
डॉ,  राजेन्द्र मिश्र बोले---
"सत्यभामा,  दिमाग खराब हो गया है?"
मैंने कहा--"हां भैयाजी ,खराब हो गया है। छत्तीसगढ़ के विद्यार्थी एक पेपर छत्तीसगढ़ी पढ़ेंगे और अच्छा अंक हासिल करेंगे"।
"पर किताबें कहां हैं?
फिर यह भाषा भी नहीं है।"
विनोदशंकर शुक्ल ने कहा--"ये तो नोकर चाकर की भाषा है?हमारी नहीं!"
पहली बार मेरा दिमाग गरम हो गया!
मैंने कहा"--छत्तीसगढ़ में रहना है,तो अब,यू,जी,सी,के अनुसार क्षेत्रय भाषा पढ़नी होगी---यदि छत्तीसगढ़ में नोकरी करनी है तो?"
में और ताम्रध्वज साहू खड़े हो गए।राजेन्द्र मिश्र व विनोदशंकर शक्ल चुप हो गए।हम मीटिंग से बाहर आ गए।राहुलसिंह ने मीटिंग खत्म होने की घोषणा की!
छत्तीसगफही लोकाक्षर ग्रुप के भाइयों और बहनों,कलमकारों--छत्तीसगढ़ी  को आज इस विकास की स्थिति में लाने के लिए,बहुत विरोध झेला हमने बहुत संघर्ष किया।2001 से 2005 का काल मेरे लिए बहुत कठिन काल था--छत्तीसगढ़ी को स्थापित करने के लिए।
पी,एस,सी में लाने के लिए भी 2008 की बैठक में अड़ी रही।
यह किस्सा अपने नए लेखकों को बताना जरूरी था। मैं, श्यामलाल चतुर्वेदी व नन्दकिशोर तिवारी ने राज्यपाल को लिखा व उनसे भेंट कर विरोध की स्थिति भी बतलाई।
मित्रो,
अब आपका रास्ता आसान हो गया।आप लिखें, कसकर लिखें, अब कोई आपका विरोधी नहीं।
तुमन सुगम रददा म चलत हव।
मोर असीस बने रइही!!
मोर गिरफ्तारी वारंट घलो निकलगे रिहिस है2002 में। रातभर मुख्यमंत्री निवास म आपात बैठक चलिस। आई, जी, अवस्थी फोन करिस--"सॉरी मैडम,आपकी गिरफ्तारी वारंट है।मुख्यमंत्री निवास में आपात बैठक चल रही है।"आप सरेंडर करेंगी?आपकी छत्तीसगढ़ी बुक पर?"
मोर कडक जवाब--"क्यों सरेंडर?"आप गिरफ्तार कर लें।"
इहु किस्सा बनगे!
🌹त आज मै हिंदी अउ छत्तीसगढ़ी म मिंझरा लिखेंव।आनन्द लव नवा पीढ़ी के मन!इहु
अन्तर्सम्बन्ध आय!
,   सत्यभामा आडिल

👆🏼अनिल भाई ,
जनपदीय भाषा  साहित्य के पाठ्यक्रम निर्माण में , डॉ, तेजराम दिल्लीवार, अउ डॉ, सविता मिश्रा के कोई योगदान नई ये। काबर कि ये दूनों पाठ्यक्रम समिति के सदस्य नई रहिंन।
जब विश्वविद्यालय अउ शिक्षा विभाग--दूनों मन पुस्तक प्रकाशित करेबर तैयार नई होइन ,त परेशान हो गेंव ,--काबर कि नवा पाठ्यक्रम बने हे, त बिन पुस्तक के अध्यापक कइसे पढाही अउ विद्यार्थी मन कइसे पढ़हीं?--सोच के में स्वयम अपन "विकल्प प्रकाशन"खोल के,बैंक से लोन लेके,खर्चा करके एम,ए, अउ बी,ए, भाग-एक,दो,तीन के हिंदी साहित्य के पाठ्य पुस्तक  प्रकाषित करेंव। सत्ती बाजार रायपुर के सब--पुस्तक दुकान म सप्लाई करेंव।
तेजराम दिल्लीवार ,सविता मिश्र मन सहयोग करेके  इच्छा जाहिर करिन।
मैं  उंखर सहयोग लेंव।
शिक्षा विभाग अउ विश्वविद्यालय  हाथ झाड़ दिन--"हम क्यों प्रकाशित करें? हमारी जिम्मेदारी नहीं!"
अजीब रवैया।
शिक्षा के दुर्गति!!
अपन बलबूता म 4 साल के कार्यकाल ल निपटाय हंव।
एक साथ तीन पद म रेहेंव--विश्वविद्यालय में---तेखर सेती दबंगता से काम करेंव।
3 पद-----
अध्यक्ष-हिंदी अध्ययन मंडल,
डीन--कला व विधि संकाय,
कार्यपरिषद सदस्य
फेर पी,एस, सी, म घलो
परीक्षक के जिम्मेदारी।

त अनिल भाई बहुत संघर्ष करेंव।
मैंअपन आप ल ये बात के धन्य मानथव--कि सबो जीवित वरिष्ठ साहित्यकार मन मोर घर आके,अपन किताब दीन।जइसे--श्यामलाल चतुर्वेदी जी,नारायणलाल परमार जी।हृरि ठाकुरजी, लक्ष्मण मस्तूरिहा, डॉ, बघेल के नतनिन, टिकेंद्र टिकरिहा के बेटा,  आदि।
अन्य मन के जुगाड़ करेंव।
नन्दकिशोर तिवारी जी ह जुगाड़ करे म कछु मदद करिस।
पवन दीवानजी ल खबर करेंव, त हांसत हांसत कठल गए।
ओ मोला दीदी कहय, मोर ले एक साल जूनियर रिहिन,तेकर सेती।उंखर संग तो बहुत रोचक प्रसंग जुरे हे। घर आवय त"भांटो--भांटो"चिल्लावत आंवय,अउ आडिल साहब के गला लग जाय।तीन बेर घर आय  रिहिन दीवान जी।हमर दूनोंके जन्मदिन एक जनवरी आय।मोर ले एक साल छोटे रहिंन दीवान जी।
अनिल भाई क़िस्साच किस्सा हे मोर करा।
अब भईगे। रात बहुत होंगे।
सुते के बेरा होंगे।तुंहर रात बने बीतय भाई।।
--दीदी सत्यभामा आडिल

छत्तीसगढी राजभाषा दिवस के अगोरा मं‌

अवइया २८  नवंबर 

            ।।छत्तीसगढ़ी राजभाषा दिवस के अगोरा मं ।।

       भाषा के ऊपर बिचार करब म ये तो डगडग ले चिनहउ हवे कि जुन्ना जनपदीय भाषा जेमा छत्तीसगढ़ी,गोंडी , कोसली, मागधी , मैथिली, अवधि  ,बघेलखंडी   अउ नवा सिरजे "हिन्दी "यानि की १८५७ प्रथम स्वतंत्रता संग्राम जेन ल स्थानीय राज राजवाड़ा मन के जेमा (छत्तीसगढ़ के वीर नारायण सिंग अउ राजा गुरु बालकदास तको रहिन वीर नरायण सिंग ल १८५७ मं  दोषी करार के तोप से उडा दिन  अउ जन नायक श्रद्धा के पात्र राजा गुरुबालकदास ल सडयंत्र पूर्वक भोजन करते १८६० में हत्या करवा दिए गये  ) कुछेक सभिमानी राजा अउ ओकर सामंत मन सिपचाय रहिन ओमा भारतीय जनपदीय भाषा अउ उर्दू के बड सुघ्घर समन्वय रहिन जे न "  हिन्दुस्तानी "  तको कहे जाय उकर भाषा अउ आन आन जगा के लोगन के संपर्क भाषा के  रुप म सिरजे  "हिन्दी " के मूल उद्गम भाषा पाली अउ प्राकृत आय । अउ उर्दू अरबी फारसी के तको शब्द मिंझरे हवय।
     छत्तीसगढ़ मं तो जतका जुन्ना शिलालेख हवे उनमन पाली भाषा के ब्राम्ही लिपि म हवय। फेर छत्तीसगढ़िया रचनाकार मन ओ लिपि अउ भाषा के कभु खियाल न इ करिस तेन पाय के सबकुछ छुटतेच गय । लेकिन धियान से उच्चरित ध्वनि ल देखहु त  छत्तीसगढ़ी गोड़ी कोसली ह  पाली अउ प्राकृत के कत्कोन शब्द निमगा ब उरत चले आत हवय।
पाली भाषा राजभाषा के संगे संग  जनभाषा रहिस। जोन राजा बोलय ओला परजा समझय अउ जोन ल परजा बोलय ओला राजा ते पाय के प्राचीन भारत के श्रमण संस्कृति हर विश्व विख्यात रहिन तक्षशिला नालंदा विक्रमशिला जैसे विश्वविख्यात प्रतिष्ठा न रहिन जिहां हजारों साहित्यिक दार्शनिक  नीतिपरक और राजकीय सामरिक धातु कार्मिक यांत्रिकी  वैद्यकीय  के अध्ययन अध्यापन होवय । नालंदा के ग्रंथागार के जलाय के आगी महिनो न इ बुझाय सके रहिन सोचोव कतेक साहित्यिक पांडुलिपियाँ नष्ट कर दिए ।
 अउ  त अउ लगभग ६-८ सदी के जतका खडहर ( पुरा अवशेष ) हवय जेमा सिरपुर  राजिम मल्हार तम्माण  डमरु तरीधाट गुंजी  में मिले शिलालेख के भाषा पाली अउ  लिपि  ब्राम्ही हवय । ओमा बहुत भारी ज्ञान विज्ञान के बात हवय ओला सामने लाने के जरुरत हवे।
    हमर साहित्यकार कलाकार मन ल चाही कि अपन जगा मिले जिनिस के मूल तत्व के स्थापना बर मिहनत करय। तब मौलिकता आही। 
     नहीं त अधिकतर छत्तीसगढ़ी साहित्य हर  आन प्रांत के पटन्तर लगथय।
   छत्तीसगढ़ी  हिन्दी अउ पाली के बीच जो संबंध हवे उन हर  खाल्हे लिखाय हवय-
पाली        छत्तीसगढ़ी   हिन्दी 
अग्गि            आगी         आग 
मनख्ख        मनखे          मानव 
दुक्ख             दुख            दु: ख
 सुरज.           सुरुज         सूरज
इस्सर              इसर          ईश्वर 
खन्ध.             खांध.         कंधा 
अमिय.          अमरित.      अमृत 
अक्खर.           आखर.     अक्षर
 
 इत्यादि 

धियान से देखव हमर छत्तीसगढ़ी पाली के संग कतेक सुघ्घर मिलथे  जब शब्द मिलथे त कला संस्कृति  क इसे न इ मिलही ? ओ भुले बिसरे गाथा  वृतांत. इतिहास ल खोजे ल परही।
    असल में विगत २-३ सौ साल से हमन जब से स्कूली  शिक्षा आय हे तब ले उप म प्र  बिहार के लेखक कवि के रचना ल ही पढ लिख समझ के उही मं रच खप गय हन । अउ हमन अपन तीर तखार के जतनाय जिनिस डहन न सुर ले सकत हन ल शोर संदेश ।
    रमैन महाभारत वेद पुरान के बाहिर कत्कोन अउ जिनिस हवय आपार पाली साहित्य ,सिद्ध साहित्य व संतो की निर्गुण बानी मन के पांडुलिपि‌ हवय अउ  प्रकाशित ग्रंथ पुस्तक तको  हवय। अलेख अवस्था में हजारो लोकमंत्र मन  बैगा गुनिया सिद्ध साधु संत मन कना  मुखाग्र कंठस्थ रहय अउ अभी तक ओ चलागन पाठ पीढा ले दे के रुप मं चले आत हे । उन सब ल न  पढे  के ,न खोजे  अउ समझे के न सख नइये न जोम हे ।ते पाय के हमर समृद्धशाली ऐतिहासिक गौरव के संगे -संग हमर अति प्राचीन छत्तीसगढ़ी भाषा के सही अउ ठोस स्थापना न इ कर सकत हवन।  जबकि छत्तीसगढ़ी  लोक गीत लोककथा अउ जनश्रुति मं हमर बड सुघ्घर संस्कृति कला इतिहास के जानकारी हवय ।फेर उन ल तियाग के औपनिवेशिक रुप से आजादी के बाद से, अब तक हिन्दी के कारण  या कहे छत्तीसगढ ह म प्र मे संधरे से  अध्ययन अध्यापन म हिन्दी अंग्रेजी संस्कृत  त्रिभाषा फार्मूला के सेती उत्तर भारतीय संस्कृत निष्ठ भाषा के शिकार होत चले आत हन। हिन्दी के उर्दू और देशज सरुप तको आजकल नंदावत चले जात हे। अमीर खुसरो से ले के  प्रेमचंद  तक जोन हिन्दी रहिस आज नपता होगे हवे। येला जानबूझकर करत या करवाय जात हवय ।
   खैर सच कहे त छत्तीसगढ मे आज ले भी संस्कृत निष्ठ हिन्दी जोन क्लिष्ट हे तेकर चलन बिल्कुल नइये। सरल सहज सरुप तीन चार अक्षर के मेल से बने लालित्य पूर्ण भावप्रवण शब्द छत्तीसगढ़ी म मिलथे जोन पाली प्राकृत के विशेषता रहीन ओ ज्यो के त्यो छत्तीसगढ़ी मं देखे जा सकत हे। एक हिसाब से देखे जाय त गांव- गंवई मं तो हिन्दी बोलइ ल "हमेरी" झाड़त हे कहे जाथे अउ अंग्रेजी तो कोनो भुल के तको नइ गोठियाय सकय। काबर कि जीभेच नइ लहुटय अंगरेज जमाना के कत्कोन मूल अंगरेजी शब्द रेडिया, सइकिल ,इसकुल‌ ,मोटर कंडिल‌, बकसा , छत्तीसगढ़ी पुट दे के ज्यों के त्यों बौरात चले आत हे।
    पांच  आखर के शब्द ठीक  बोले  नी जा सके । समरसता ल समर +सता कहे  जाथे । संयुक्ताक्षर के साफ उच्चारण न इये प्रहर ल पहर ही कहे जा सकथे अउ त अउ भगवान के नांव विष्णु ल तको बिसनू कहे जाथे।
    
      त हमर सुधि पाठक मन सो गिलौली हवे कि उनमन थोरिक उप बिहार अउ हिन्दी संस्कृत के प्रभाव से मुक्त होके अपन मूल छत्तीसगढ़ी के उपर धियान केन्द्रित करके सच्चाई के स्थापना कर में अपन बल बुद्धि लगावय त छत्तीसगढ़ी सहित छत्तीसगढ़ के तको भला होही अउ  फरिल जस तको तुहु मन ल मिलही । शासन- प्रशासन ल‌ तको जुन्नटहा अउ जतनाय जिनिस मन ल खोजवाय छपवाय के उदिम करना चाही।  एक अलग प्रभाग गठन करके छत्तीसगढ़ी मूल संस्कृति के संरक्षण बर ठोस उपाय करे के जरुरत हवय ।

     ।।जय छत्तीसगढ़ी जय जय छत्तीसगढ़ ।।

     -डाॅ. अनिल भतपहरी

छत्तीसगढ़ी पाठ्यक्रम

प्रेरक अउ महत्वपूर्ण आंतरिक गोठ।
विरोधी मन बड़  नामधारी अउ बडे बडे सम्मान ले  सम्मानीय हवे । 
    यहां तक के  पद्म सम्मान तको  गैर छत्तीसगढ़िया मन छत्तीसगढ़ी ल प्रदर्शित करके झटक लिए हवे अउ ओकर हकदार मन कलेचुप सन्न खाय बोकबाय परे हवे।
भाषाई अउ बौद्धिक उपनिवेश से छत्तीसगढ़ आजादी के बाद से अबतक रौंदात चले आत हवय।
जोन थोर थिर लिख पढ़ गुन सकथे उहुमन उनकर मन के परभाव म मोकाय कोंदा ब उला हवे।
   आपमन के छत्तीसगढ़ी के ऊपर  अधातेच मया अउ मिहनत बड़ सेहरौनिक हवय  दीदी जी।
     यदि अध्ययन शाला अउ पाठ्यक्रम म आप ल संधरे के मौका  नइ मिलतिस त अउ जोगी जी दृढ इच्छा शक्ति न ई रहितिस  छत्तीसगढ़ी  अउ छत्तीसगढ़िया मन के बड़ दुरदसा हो जतिस ।

 इनकर मन के उलाहना महु ल सुने अउ सहे बर परे हवय।
भले उनमन पंडित जी कहय फेर मोर छत्तीसगढी पना हिन्दी अउ एक अलग तरह के चिन्तनधारा वाले प्रस्तुति म बड़ रोक छोक करय ।
     महाविद्यालीन प्रोफेसर संगी मन ये मन जानथे तको।  छत्तीसगढी म एम ए अउ छत्तीसगढ़ी के मानकीकरण कार्यशाला भाषा अउ साहित्य विभाग र वि वि करा के बनेच बुता करे के उदीम मढाय रहिस आज ओहर बने सिधीयाय ल घर ले हवय ... आधु चलके अब सब कुछ बढिया होही मोकाय सोकाय भकवाय मन के चेत लहुटही हम ल आस बिसवास हवय ।
आप दुनो बहिनी मन के छत्तीसगढ़ी प्रेम अउ समरपन भाव अधातेच सेहरौनिक हवय ।
महत्वपूर्ण जगा मं सही मनखे मन के रहे से ही विकास के नवा रद्दा खुलथे नहीं त यथास्थिति वाद के चलागन म नव प्रवर्तन के सुर ह दबक छपक जाथे ।
         सुखी स्वस्थ रहत सिरजन रत रहव ।
पैलगी

आपके सहयोगी धमतरी निवासी डॉ. तेजराम दिल्लीवार जी  संग काशी विश्वविद्यालय मं रिफ्रेशर कोर्स  मं संग रहेव। पाठ्यक्रम निर्माण प्रक्रिया के  बने संस्मरण सुनावय  ।सविता मिश्रा जी संग तको काम करे हव आप के दरस  संभाषण अउ असीस तको मिले हे समे समे में असीस मिलतेच रथे ।आप कहेव कि मोर पीएचडी थीसीस के अ मूल्यांकन आपमन करा आय रहिस जान के बड़ श्रदाभाव मन मं जागिस ।
      कहे के मतलब जनपदीय भाषा छत्तीसगढ़ी पाठ्यक्रम के निर्माण म लगे  डाॅ, सत्यभामा आडिल डॉ, तेजराम  दिल्लीवार अउ डाॅ सविता मिश्रा तीनो के सांधरों पाय के धन भाग हमला मिले हवय। ओमा संधरे रचनाकार मे आद डॉ विनय पाठक पहली तो ओकर रचना मं एक टिप्पणी देय कि "  जेन रद्दा मं  रेंगे ओ हो जथे मेड़ रे " क इसे होही काबर खेत के मेड़ किसान के रेंगे के नोहय भलुक पानी रोके अउ नीदा खरपतवार मोखला काटा करगा मन राखे के आय।अउ साफ सुथरा खेत हे त मेड़ में तिली राहेर बोय के जगा ये। किसान तो खेत भीतर ले रेंग के परखथे कि कहा क इसे धान के स्थिति हे। ये असंगत प्रयोग हवे । तब से उकर संग मोर बनेच जमथे  अउ मान तको  देथे  अउ एक संग बहुत कन जगा मं काम करे के मौका मिले हवय ।

  आद मुकु्द कौशल जी गजल के तो मय दिवानाच रहेव ओमन सो भी मिलन भेटन गोठ बात होथेच । मोला  उनमन पं. दानेश्वर के कार्यकाल म राजभाषा आयोग के डहन ले  बलौदाबाजार मं सम्मान करे हवे। उन सब झन  साधक मन के मय मया दुलार पाय हव।परसंग वश  सुरता करथव त अपन आप ल  बड़ भागी हव कस लगथे ।
   डॉ. अनिल भतपहरी 
   पैलगी जय छत्तीसगढ़

छत्तीसगढ़ी राजभाषा के अगोरा मं‌

अवइया २८  नवंबर 

            ।।छत्तीसगढ़ी राजभाषा दिवस के अगोरा मं ।।

       भाषा के ऊपर बिचार करब म ये तो डगडग ले चिनहउ हवे कि जुन्ना जनपदीय भाषा जेमा छत्तीसगढ़ी,गोंडी , कोसली, मागधी , मैथिली, अवधि  ,बघेलखंडी   अउ नवा सिरजे "हिन्दी "यानि की १८५७ प्रथम स्वतंत्रता संग्राम जेन ल स्थानीय राज राजवाड़ा मन के जेमा (छत्तीसगढ़ के वीर नारायण सिंग अउ राजा गुरु बालकदास तको रहिन वीर नरायण सिंग ल १८५७ मं  दोषी करार के तोप से उडा दिन  अउ जन नायक श्रद्धा के पात्र राजा गुरुबालकदास ल सडयंत्र पूर्वक भोजन करते १८६० में हत्या करवा दिए गये  ) कुछेक सभिमानी राजा अउ ओकर सामंत मन सिपचाय रहिन ओमा भारतीय जनपदीय भाषा अउ उर्दू के बड सुघ्घर समन्वय रहिन जे न "  हिन्दुस्तानी "  तको कहे जाय उकर भाषा अउ आन आन जगा के लोगन के संपर्क भाषा के  रुप म सिरजे  "हिन्दी " के मूल उद्गम भाषा पाली अउ प्राकृत आय । अउ उर्दू अरबी फारसी के तको शब्द मिंझरे हवय।
     छत्तीसगढ़ मं तो जतका जुन्ना शिलालेख हवे उनमन पाली भाषा के ब्राम्ही लिपि म हवय। फेर छत्तीसगढ़िया रचनाकार मन ओ लिपि अउ भाषा के कभु खियाल न इ करिस तेन पाय के सबकुछ छुटतेच गय । लेकिन धियान से उच्चरित ध्वनि ल देखहु त  छत्तीसगढ़ी गोड़ी कोसली ह  पाली अउ प्राकृत के कत्कोन शब्द निमगा ब उरत चले आत हवय।
पाली भाषा जनभाषा रहिस अउ लगभग ६-८ सदी के जतका खडहर ( पुरा अवशेष ) हवय जेमा सिरपुर  राजिम मल्हार तम्माण  डमरु तरीधाट गुंजी  में मिले शिलालेख के भाषा पाली अउ  लिपि  ब्राम्ही हवय ।
    हमर साहित्यकार कलाकार मन ल चाही कि अपन जगा मिले जिनिस के मूल तत्व के स्थापना बर मिहनत करय। तब मौलिकता आही। 
     नहीं त अधिकतर छत्तीसगढ़ी साहित्य हर  आन प्रांत के पटन्तर लगथय।
   छत्तीसगढ़ी  हिन्दी अउ पाली के बीच जो संबंध हवे उन हर  खाल्हे लिखाय हवय-
पाली        छत्तीसगढ़ी   हिन्दी 
अग्गि            आगी         आग 
मनख्ख        मनखे          मानव 
दुक्ख             दुख            दु: ख
 सुरज.           सुरुज         सूरज
इस्सर              इसर          ईश्वर 
खन्ध.             खांध.         कंधा 
अमिय.          अमरित.      अमृत 
अक्खर.           आखर.     अक्षर
 
 इत्यादि 

धियान से देखव हमर छत्तीसगढ़ी पाली के संग कतेक सुघ्घर मिलथे  जब शब्द मिलथे त कला संस्कृति  क इसे न इ मिलही ? ओ भुले बिसरे गाथा  वृतांत. इतिहास ल खोजे ल परही।
    असल में विगत २-३ सौ साल से हमन जब से स्कूली  शिक्षा आय हे तब ले उप म प्र  बिहार के लेखक कवि के रचना ल ही पढ लिख समझ के उही मं रच खप गय हन । अउ हमन अपन तीर तखार के जतनाय जिनिस डहन न सुर ले सकत हन ल शोर संदेश ।
    रमैन महाभारत वेद पुरान के बाहिर कत्कोन अउ जिनिस हवय आपार पाली साहित्य ,सिद्ध साहित्य व संतो की निर्गुण बानियों की पांडुलिपियाँ व प्रकाशित ग्रंथ पुस्तकें हैं। अलेख अवस्था में हजारो लोकमंत्र है जो बैगा गुनिया सिद्धों के पास मुखाग्र कंठस्थ हैं। उन ल न  पढे  के खोजे समझे के न सख न इये न जोम ।ते पाय के हमर समृद्धशाली ऐतिहासिक गौरव के संगे संग हमर अति प्राचीन छत्तीसगढ़ी भाषा के सही अउ ठोस स्थापना न इ कर सकत हवन। जबकि छत्तीसगढ़ी  लोक गीत लोककथा अउ जनश्रुति मं हमर बड सुघ्घर संस्कृति कला इतिहास के जानकारी हवय ।फेर उन ल तियाग के औपनिवेशिक रुप से आजादी के बाद से अबतक हिन्दी के कारण उत्तर भारतीय संस्कृत निष्ठ भाषा के शिकार होत चले आत हन।
   छत्तीसगढ मे आज ले भी संस्कृत निष्ठ हिन्दी जोन क्लिष्ट हे तेकर चलन बिल्कुल न इये ।

गांव म तो हिन्दी बोलइ ल "हमेरी" झाडत हे कहे जाथे अउ अंग्रेजी तो कोनो भुल के तको नइ गोठियाय सकय।जीभेच नइ लहुटय।
    पांच  आखर के शब्द ठीक  बोले  नी जा सके । समरसता ल समर +सता कहे  जाथे । संयुक्ताक्षर के साफ उच्चारण न इये प्रहर ल पहर ही कहे जा सकथे अउ त अउ भगवान के नांव विष्णु ल तको बिसनू कहे जाथे।
    
      त हमर सुधि पाठक मन सो गिलौली हवे कि उनमन थोरिक उप बिहार अउ हिन्दी संस्कृत के प्रभाव से मुक्त होके अपन मूल छत्तीसगढ़ी के उपर धियान केन्द्रित करके सच्चाई के स्थापना कर में अपन बल बुद्धि लगावय त छत्तीसगढ़ी सहित छत्तीसगढ़ के तको भला होही अउ  फरिल जस तको तुहु मन ल मिलही । शासन प्रशासन ल‌ तको जन्नटहा जतनाय जिनिस मन ल खोजवाय छपवाय के उदिम करना चाही।  एक अलग प्रभाग गठन करके छत्तीसगढ़ी मूल संस्कृति के संरक्षण बर ठोस उपाय करे के जरुरत हवय ।

     ।।जय छत्तीसगढ़ी जय जय छत्तीसगढ़ ।।

     -डाॅ. अनिल भतपहरी

Tuesday, September 15, 2020

चाह

।।चाह ।।
अपनी खिड़की हो
अपना हो आसमान 
छत पर खड़ा हो तो 
जगे जरा स्वाभिमान
कर्म भी सविशेष हो 
धर्म से मिले सम्मान 
सुख से बीते जीवन 
ऐसा हो प्यारा मकान 
फिर ग़म नहीं छोड़कर 
जाने से इस जहान 
मरते सभी तो एक दिन 
पर जिंदा रहे होकर इंसान
  -डाॅ.अनिल भतपहरी
इंद्रावती , १५-९-२० समय दोप  ३ बजे 

Friday, September 11, 2020

नाचा

।।नाचा ।।

कोई धुन सुने  और अच्छा लगे तो  बिधुन नाचने लग जाय वह  कलाकार नहीं तो क्या है? व्यक्ति जन्मजात कलाकार होते हैं वे  नाचते -नुचाते गाते -बजाते अभिनयादि करते जीवन निर्वाह करते हैं। वैसे जो निराकार भावों को साकार करे वही तो कलाकार हैं। दु:ख दिखता नहीं रोकर दहाड़े मार ले  लोग अनुभूत कर लेते हैं। वैसे सुख दिखता नहीं नाच गा उछल कूद लो लोग समझ जाएन्गे बड़े प्रसन्न है। यूं तो‌ यह सब तरफ हैं, धर्म ,आध्यात्म  ,राजनीति ,न्याय  शासन -प्रशासन कोई अछूता नहीं है।
    यह अलग बात हैं कि इस अनुक्रम में कला और यथार्थ का मणिकांचन संगम होते रहते हैं। कुछ लोग नाचते नहीं नचवाते हैं। बल्कि नाको चने चबवाते हैं। गाते नहीं गवाते हैं ... भले कोई बीरु बन खंबे से बंधे चिल्लाते रहे बंसती इन कुत्तों से सामने नाचना मत   ... ऐसी ध्वनि नक्कार खाने में तुती की तरह विलिन हो जाते है और नाच होकर रहते हैं। 
 बहरहाल सुर सुखमय आनंद  का हो या  दु:खमय शोक का हो  स्वर लहरियों  का अनुगूंज सर्वत्र गूंजते हैं। 
    जीवन ही रंगमंच हैं और हम सब इनके कलाकार कोई कैसे कलाओं की उपेक्षा कर सकते हैं?  पर लोग हैं कि अलगोजे से नराज़ हो जाते हैं। दूसरे की सुख से दु:खी लोगों की जमात बढ़ती तो जा रही हैं। पर है वे असंगठित क्योंकि चिढ़ने -चुढा़ने लोग एक साथ हो नहीं सकते। अन्यथा ऐसे लोग ही राज करते ।पर जो  संगठित हैं वे लोग  चिढाने में दक्ष हो जाय तो उनकी पौ बारह  कभी- कभी ऐसा होता भी है।
   जो लोग  नाच -गान गीत- संगीत ,खेल -कूद से मुख मोड़ लेते हैं।वे इनके नकाबिल तो नहीं या गहिर गंभीर चिन्तन -मनन में डूबे किसी प्रायोजित सफलता के लिए लोगों के आनंद  में  खलल डालते हैं। ये लोग विध्न संतोषी हैं। जहां विध्न बाधाएँ होन्गे तो ताली पीटते नाच उठेन्गे और बेसुरा ही सही अलाप लेगे - लो देख लो बरजे बात नहीं मानते ? जो शंका थी सच हुआ।
    बड़े- बड़े शंकालू -प्रश्नालू भी  सामूहिक सार्वजनिक मंच में न ही होटल पब या बंद कमरे में कुछ व्यसनों की कृपा से  नृत्य गान कर  नचवा गवा लेते हैं। इनके लिए व्यवस्थाएँ कैसे हो जाती हैं, यह रहस्य अज्ञेय हैं। इसलिए इन्हें रहस्यमय कलाकार की श्रेणी  में रखे जा सकते हैं।
     कलाकार भूतपूर्व नहीं होते बल्कि अभूतपूर्व होते इसलिए अनेक लोग  ऐसा होने  निरंतर साधते  व परिमार्जित होते रहते हैं। ऐसा करने वाले ही कालजयी होते हैं।  साहित्यकार और कलाकार को कालजयी होने की चषक उनके परवर्ती लोगों ने भेंट कर रखें हैं। फलस्वरूप ये लोग  भावों की  समंदर से मोती निकालने गोते लगाते हिचकोले लगाते नाच -कूद रहा है। भले वह साधारण बने होने के स्वांग में असाधारण और विलक्षण होने कहे जाने की व्यसन में डूबे होते हैं।
   बहरहाल नाचा ,खेल -तमाशा ही जीवन की जटिलताओं को दूर करते हैं। तमाम अभाव और दुख का शमन करते हैं। दु:ख का मंचन देख दु: ख का शमन साहित्य जगत  विरेचन केथार्सिस हैं।  और आनंद देख परमानंद की  अनुभूति ऐसा हैं कि  दिव्यांग और मत्यांध तक को थिरका  दे नचा दे!  
   नाच में मांदर मृदंग ढोल‌ जैसे ताल वाद्य न हो तो नाचना सहज भी नहीं ।मांदर की धोष ध्वनि बादल की गर्जना से आए प्रतीत होते हैं तभी तो -
    धत्तनिक धत्तनिक बाजय माटी के मांदर 
    बाजय माटी के मांदर गरजय जइसे बादर 
      पंथी धुन सुन नाचय  मन दू मन आगर ...
    ऐसा लगता है कि सफलता -असफलता के बीच तनी रस्सी पर हम नाचते रहते हैं। और अपने अराध्य को  सुमरते भी  हैं ... अब आप- हम सूर तो नहीं कहते फिरे -उधरि बदन नचन चहत हो... क्योकि उन्हे क्या पता कि उधरि बदन होने के बाद दर्शक को क्या फिल होगा?  
   वैसे भई आजकल नाच -गान में उधरे बदन का चलन तेजी से हो रहा है। पहले पहल नायिकाए होती थी अब जब से सलमान ने शर्ट उतारा पुरुषों में होड़ लगी हैं।
   चलो मानते हैं ठंड देश के पुरुष ठंडी से बचने सूट टाई में होते हैं। पर बहकटी टू पीस वहाँ की स्त्री क्यों ? क्या उन्हे सर्दी होती नहीं? 
   और यहाँ गरम देशों में उधरि संस्कृति हैं। हमारे नायक अर्ध विवृत उत्तरीय जनेऊ ज्वेलरी धारी हैं। और नायिकाएं ... कंचुकी और सारी में फूलों की गहनों से लदी डालियां हैं जो अल्हड़  शकुन्तला सी वन विहारनी हैं। पर आजकल की न ई शकुन्तलाओं  की फैशन से उनकी अल्हड़ता कही खोई छीनी सी जान पड़ती हैं। फटी जिंस और टाप की बाहें फटी देख कुछ अलग तरह का फिल होते हैं भ ई यह जंगल झाड़ी से नहीं बल्कि किसी और से उलझ कर फटी हैं। 
     खैर श्लील नजरों में हो और जिनकी दृष्टि अश्लील वह सर्वत्र अश्लीताएं ढूंढ लेते हैं। ऐसे लोगो को बडे  हास्पिटल की   बर्न युनिट का सैर करना चाहिए जहाँ दहेज न मिलने पर कितनी नवोढ़ा जला दी ग ई होती है। जिनके पांव से माहुर निकले हैं , न हाथ से मेहंदी । 
   खैर  आजकल समुद्र किनारे स्वच्छंद नाच गान का अड्डा बनते जा रहे हैं। इससे वहाँ के लोगो को रोटियां तो मिल रही हैं। अन्यथा बेचारे ज्वर -भाटे की खतरों के बीच बमुश्किल समुद्री उत्पाद मछली -धेंधे से काम चला रहे थें।
    ऊपर से संतो की सीख कि मांस मछली खाना- मारना पाप हैं। हमने मछुआरों की टोलियां देखी डलियां में मच्छी रखे नाचते गाते अपने अराध्य में  वैसे ही श्रद्धा भक्ति पूर्वक चढ़ाते जैसे इधर मैदान में हम  धान गेहूँ की बालियां चढाते  हैं। पुण्य तो दोनो ओर मिलता होगा न ?
  
     आदिम जीवन को वनो कंदराओं और दुर्गम जगहों पर संजोये विषय परिस्थितियों में भी आनंद से  जीते  ये प्रकृति पुत्रों की हास परिहास उच्छवास कितने प्रेरणीय हैं कोई उनके समीप्य होकर देखे ।हम सौभाग्यशाली रहे कि ९० की दशक में सुदुर बस्तर के वन में पहाड़ी नाले  सा   खिलखिलाते उल्लास से   उफनते जन जीवन देखे हैं। उसके बाद तो बस्तर बद्तर हो गये ...!!!
            छत्तीसगढ़ में अनेक  प्रदेशों और  देशों के आदिवासियों का नाचा देख मन प्रफुल्लित  ही नही यह अनुभव हुआ कि विषमताओं से ग्रसित दुनियाँ में रहना हैं तो  केवल जुझों ही नहीं बल्कि समूह वत  नाचो- गाओं,  खेलों -खाओं, पढों -लिखों और संगठित होकर सफलताएं पाओं। जीवन को उत्सव में परिणित करों चाहे जैसा भी हो ।
              यह सब नहीं किया तो आखिर क्या किया?
     -डा. अनिल भतपहरी

Thursday, September 10, 2020

तोर मया कुवांर कस घाम‌

आपके वास्ते छकड़ी हमरी 

 ।।तोर मया कुंवार कस घाम।।

तोर मया संगी कुवांर कस घाम जनाथे 
आंखी  चौंधियाथे  अउ  बड़  चरचराथे 
सित्तो  रे करिया तोरेच  रंग मं रंग जाथे  
हरदाही रंग राधा के कहां उड़िया जाथे  
खेत-खार हरियर मगन मन झुम्मर गाथे 
छटकत बाली ल देख बड़ खुशी अमाथे 

  बिंदास कहे डाॅ.अनिल भतपहरी

लघु कथाएं १५-२१

[9/10, 22:31] anilbhatpahari: लघुकथा 15

ऐसा भी ...

सड़क पार करते वह बाल-बाल बचीं। भय मिश्रित विह्वल हो कह उठी -"आज तो  हो गया रहता!भगवान का लख -लख शुक्र हैं कि बची" रंगीन तबीयत वाले बेपरवाह ड्राइवर अक्सर खुबसूरत युवा महिलाओं को देख उनके समीप से  कट मारते सर्र से गाड़ी मोड़ते हैं। बेचारियों की कलेजे मुँह में आ जाया करती हैं। और वे सिगरेट की कश़ से छल्ले बनाते भोजपुरियां धुन में गाड़ी को नचनिया की कमर की तरह नचाते फूर्र हो जाते ...
     इस बड़ी बिल्डिंग के चौथें माले पर लिफ्ट से चढ़ने के बाद भी वे भय से  हांफ रही थीं। भला ऐसा कोई करता हैं, तमीज नहीं इन मुस्टंडों को क्या उनके घर बहन-  बेटी नहीं ? वे लगातार बड़बड़ाई जा रही थीं।
       तभी दनदनाते वह नये वर्जन के हिप्पी नुमा छोकरा  चायनिज़ कट खड़ी बाल, दाढ़ी -मूँछ बढाए ,बिना नहाए इत्र लगाए , फटी जिंस और मोबाईल पैंट के जेब में खोसें,  कानों में ईयर फोन ठूंसे, ठुमकते हुए सा सामने आ खड़ा हुआ।   उनकी इस तरह धमकने से  पल भर स्तब्ध हो चौंकी ! फिर बिना पहचाने वह अनजान बन मुँह फेर ली।
    वह जिस हुलियां का था और लोग देख उसे जो समझते ठीक उससे उलट बड़ी विनम्रता से कहे- "मैम ! सारी एक  छिपकली को बचाने हमसे हमारी  गाड़ी मुव हुई और इस तरह  आपको हर्ट हुआ। " 
      सच कहते गलें की टोढ़ी पकड़ -"गाड़ी पार्क कर सारी कहनें दौड़ते सीढ़ी चढ़ना हुआ।"  वे उसे हतप्रभ सी देखती  ही रह गई ...
       पास ही लिफ्ट के इंतजार में खड़े ,नये पीढ़ी के इस छोकरे के व्यवहार देख ,लेखक को भी सुकून मिला।
          -डा.अनिल भतपहरी, ९६१७७७७५१४
[9/10, 22:43] anilbhatpahari: लघुकथा 16

।।समझ ।।

         प्रात: ऊंजियार विहार  गेट के बाहर सड़क पर गुनगुनी धूप सेंक ही रहे थे कि पड़ोस का सज्जन दूर से नमस्ते  करते आ धमके ।और मगज चाटने लगे कि सर जी आप ही बतावें -"मूल्य और कीमत में क्या अन्तर हैं?" 
   हमने सहजता से दो टूक  कहें -"भई !कीमत सामग्री का होते हैं और मूल्य तो मानव का  होते है जिसे मानवीय मूल्य कहतें हैं।
   वे अति उत्साहित कहे -"अरे सर आपको पता हैं ... मास्टर आदमी हो । "
 देखिए  न हम लोग विगत ३ दिन से एक आध्यात्मिक संस्था के प्रवचन में यही समझ रहे हैं। बहुत ही शानदार और व्यवहारिक तरीके से संत जी हमें समझा रहे हैं। चाहे तो आप भी ज्वाइनिंग कीजिये । जीवन का उद्धार हो जाएगा ...जब से जा रहे हैं महत्वपूर्ण बदलाव महसूस कर रहे हैं।आप भी करने लगेन्गे ।
     अच्छा ! इसके मतलब आपको मूल्य का पता नहीं था? वे  तपाक  से कहे-" हां सर जी मूल्य मतलब सामान का ही समझते रहें।"
    अच्छा मूल्य को व्यवहार में लाते हैं कि अवगत होते रहते हैं? वे आशय समझा या नहीं पर खिलखिलाते कह उठे -लो भला ! यह भी पुछने की बात हैं साहब। व्यवहार में नहीं लाते तो आपके जैसे मूल्यवान व्यक्ति से दोस्ती करता भला ? आप तो सहज मिलनसार  सहयोगी व समाज सेवक हैं। संस्था के लिए हमें चंदा जुटाना हैं और आपके जैसे उदार दान दाता इस जमाने में भला कौन हैं ? 
     उनकी बातें सुन लगा कि वे वाकिय में बदल गये हैं। पहले वे अपने समक्ष किसी को कुछ समझते नहीं थे,अब वे सबको मूल्यवान दानदाता समझ रहे हैं।संत जी ने चंदा लेने बहुत बढ़ियां समझा दिए हैं।
       
      - डां. अनिल भतपहरी ९६१७७७७५१४
[9/10, 22:47] anilbhatpahari: लघुकथा 17

"स्वर्ग सुरा-सुन्दरी "

यह तीनो शब्द परस्पर अन्तर्संबंधित हैं और एक दूसरे के बिन अपूर्ण भी हैं ।तीनो संग- साथ हैं ,तभी महत्ता कायम हैं। अन्यथा इनमें तीनों  को अलग होकर देखे जेहन में वह भाव ही नहीं आएगा जिनके प्राप्ति के लिए  मानव प्रजाति युगो से अनवरत उद्यम करते आ रहे हैं।  भले स्वर्ग को जन्नत हैवन कह ले आखिर सभी समनार्थी हैं। और भाव एक सा ही हैं।जैसे जल को  पानी नीर कहने से उनके गुण धर्म बदल नहीं जाते ठीक स्वर्ग जन्नत हैवन कहने से वह भिन्न  नहीं  हो सकते ।
     ठीक इसी तरह  सुरा, शराब, शैम्पेन  कहे या हूर परी अप्सरा कोई गल नहीं जी।  तीनों की दरकार  मानव को उनके जीते जी और उनके मरने बाद भी उपलब्ध हैं या होनी चाहिए खासकर पुण्यात्मा या धर्मी चोला को , ऐसी हमारी शानदार  व्यवस्था हैं। यदि अपनी -अपनी मान्यताओं के अनुरुप  कार्य करे तो देव नबी और मैसेंजर की श्रेणी में आकर मृत्युपर्यन्त और उनके बाद भी  इनकी उपभोग करने  की शानदार प्रलोभन युक्त शास्त्रीय  व्यवस्थाएँ हैं। 
   बहरहाल एक आजकल वायरस जनित बिमारियों की प्रकोप के चलते शहर के भीड़ वाली जगहें सिनेमा  माल स्कूल कालेज व  कुछ पब्लिक पैलेस व सरकारी  दफ्तर आदलते  जहां भीड़भाड़ वाली जगहें बंद होते जा रहे हैं। बल्कि इन सब भीड़ वाली जगहों के स्थान पर, निर्जन व प्राकृतिक सुषमा से अच्छादित जगहों पर जाने और रहने की  बातें हो‌ने लगी हैं। कम से कम तापमान ३० सेंटी ग्रेट बढ़ते तक क्योंकि इतने उच्च ताप में बहुत सी बैक्टीरियां और वायरस स्वत:  नष्ट हो जाते हैं। फलस्वरुप सभी भीड़ भरे जगहों को खाली कर‌ने की फरमान हो चूके हैं। माल थियेटर शासकीय अशासकीय  आयोजन मेले  महोत्सव स्थगित किए जा चूके है। 
    शादी ब्याह में बड़ी संख्या में  बारात बैंड आर्केस्ट्रा  और सार्वजनिक भोज भी प्रतिबंधित होने लगे हैं। 
     बहरहाल हम डरे सहमें सबन की भांति सुकून शांति के तलाश और प्राण रक्षार्थ वन प्रांतर और नदी किनारे की बेहतरीन आक्सीजोन में वक्त गुजारने के निमित्त पहुँचे ... शहरों की तरह वहाँ कोई भय और अफरा -तफरी जैसा महौल नहीं हैं। बल्कि स्वस्थ्य और स्वागोत्सुक महौल हैं। हमने इत्म़ीनान से नजरें इधर - उधर दौडा़ई और  आराम से गुलमोहर के नीचे बनें बैंच में बैठकर प्रकृति के खूबसूरत  नजारे को निहारने लगे ... ऐं क्या सामने झुरमुट में अवांछित कचड़े का ढेर लगा हुआ हैं। पन्नी ,पेकेट , शीशियां  ,अधजली सिगरेटे एंव माला डी व कंडोम‌ आदि  बिखरे पड़े हैं।यह देख मन खराब लगा इतनी खुबसूरत जगह को लोग कैसे गंदे और प्रदूषित कर देते हैं? 
   तभी एक बंदा हंसते हुए एलबम रखे कुछ नुमाइश के लिए आया और कहने लगा ...वेलकम‌ टू अवर युनिक  हैवन ! 
   बारीकी से जन्नत का मुआयना तो कर ही लिया था अब  स्वर्गीक आनंद में निमग्न कराने यह स्वर्गदूत आया हैं। चलिए यही सही पैराडाइज़ में प्रवेश कर लिया जाय।अन्यथा बाहर करोना का कहर और जा़लिम दुनिया का जहर हैं ।उससे पल भर ही सही, भय मुक्त हो ही  लिया जाय ..!
सोचकर रिसार्ट का रुम‌ रेंट और उपलब्ध सुविधाएँ वाले  एलबम देखने लगा ।
    डॉ॰ अनिल भतपहरी
[9/10, 22:50] anilbhatpahari: लघु कथा 18
"मनमोहिनी रइपुर "


मोर मनमोहिनी चल तोला रइपुर देखाहूं ... लोक गायक पंचराम मिर्झा की इस गीत से इस्पायर होकर महज  १९ वर्ष की आयु में "मनमोहिनी " लोक कला मंच बनाए और अनेक गीत रचकर स्वरबद्ध करने लगे। उनमें एक चर्चित रहा और जनता की फरमाइश पर भी गाते रहा ...
        रइपुरहिन के नखरा हजार 
        किंदरय वोहर गोल बजार 
        छिन मे सदर बजार 
        आमापारा के बजार 
        कि महोबा बाजार 
         छिन म  बैरन बाजार ...

       गोल बाजार की रौनक देख मुग्ध होते रहा ...पर नये बाजार मेग्नेटो माल  में सेल्फी जोन देख मन रइपुर के इस परिवर्तन पर सम्मोहित हो गया।
पते कि बात बताना तो भूल  ही गया ।  बडे़ बुजुर्ग जेन मं हमर दादी- नानी  कहती थी-" रइपुर शहर में खल्लारी देवी सरीख तीर -तखार के देबी मन  सजे -धजे ‌बजार करे बर आथे।संग मं परेतिन- चुरेतिन,  मल्लिन- भटनिन तको  सज- सम्हर के किंदरत बुलत रहिथे अउ  जवनहा टुरा मन ल जुगती मोहनी खवाके उकर मति ल फेर देथे।" 
          ६-७  वर्ष की आयु में (१९७५-७६ )  कुल्फी लेने  के चक्कर में गोल बाजार शाम ६ बजे जाकर वहां की भूल -भुलैय्या में भूल गया !और  लाइट की चकाचौंध में वापसी के रास्ते भूल गये गोल गोल घुमते ही रह गये  !घर में सभी परेशान रिक्शा- माइक लगाकर एनाउंसमेंट करते खोजने की तैय्यारी हो चूके  थे ।साढ़े  तीन धंटे बाद  रात्रि  साढ़े नौ बजे  एक लांड्री वाले को पता बताते पहुंचा ।वे लोग हमें डराकर रखे थे कि  गुमे हुए बच्चों के हाथ -पैर तोड़कर या आंखे निकालकर भीख मंगवाते है। डरा- सहमा मामा के  घर आया था।  हमारे नाना -नानी कहने लगे - "भुलन जरी पागे रहिस होही ! गोल बाजार मं सबो किसिम के जड़ी- बुटी बेचाथे ।"  
         सही कहय इहा मोहनी मंतर तको चलथे तेही पाय के मोकाय- मोहाय मोती बाग कना  सालेम स्कूल में पढ़त एक देबी संग भांवर  तको किंजर डरेन अउ दू टुरा अवतार डरेन ।उही मन ल अंग्रेजी  पढाय के संउक सेती  ददा -पुरखा के भुंइया  पावन  जुनवानी गांव ल छोड़ छाती मं करजा लदक दू खोली के कुरिया बना के इहंचे बस गे हन ।
    तब से राजधानी  रायपुर से एक अजीब सा लगाव हो गया हैं। एकाद हप्ता ऐती- ओती चल दे त हदरासी लगथे भाई ।कब पहुँचन अपन रयपुर ।

चित्र गोल बाजार  एंव मेग्नेटो माल ,रायपुर

-डॉ॰ अनिल भतपहरी / 9617777514
[9/10, 22:51] anilbhatpahari: लघु कथा 19 

।‌।डिप्रेशन ।।

       सज्जन पति के चलते ही ससुर- सास ,  जेठ -जेठानी और  ननदादि के तीव्र  विरोध के बावजूद ससुराल से दूर मायके के समीप टीचर की नौकरी पर आ गई ।क्योंकि गृहजिला के वेकेन्सी और निवास प्रमाण- पत्र मायके के बना था। 
       कुछ महिनें  अच्छे से  व्यतित हुए। मायके में रह स्कूटी से ३० कि मी अप- डाउन कर लेती ‌ । शाम सब्जी भाजी तक ले आती । पर धीरे -धीरे भाभियों  ,मुहल्ले के कुछ छिछोरे छोकरों तथा विध्न संतोषियों के ताने -छींटाकसीं के चलते  जीना दुश्वार होते गये। बात  यही नहीं मिर्च- मसाले सहित स्वच्छंद विचरण की बातें ससुराल और पतिदेव के कानों तक जा पहुँचें।परिणाम स्वरुप  पारिवारक कलह और उनके परीणति  पति व्यसनी हो गये।न चाहकर पारिवारिक कलह व पति को सम्हालने अवकाश लेकर जाना हुआ। 
      वहाँ भी शक -सुबहा के चलते  तू -तू, मैं -मैं और  नित नये बखेड़ा  होने लगे  समस्या सुलझने के बजाय उलझने बढ़ने लगी। मामला तलाक आदि तक  तक पहुंच गये । तथाकथित  मान- प्रतिष्ठा और स्वाभिमान वाले समाज ,स्त्री को घर में नौकरानी बना के शोषण कर तो सकती हैं पर जरा सी आजादी नही  दे सकते । भले  घर-परिवार की हालात सुघरे नही सुधरे पर मिथ्या  मान कायम रहें ।
      बहरहाल पुरुष प्रधान समाज में एक स्त्री को शासकीय नौकरी क्या मिली दोनो जगह  कोहराम मच गये।अब उन्हें घर चाहिए कि एक अदद नौकरी इसी उलझन में खोई  बेचारी सुध - बुध खोई "डिप्रेशन" में हैं।
         सचमुच  लोग दूसरे की सुखी से दुःखी और परेशान होते हैं।यह सब  देखना हो तो, उनके  मोहल्ले की चक्कर लगा आइये ।
            - डा.अनिल भतपहरी
[9/10, 22:52] anilbhatpahari: लघु कथा - 20 
लघु कथा 

"कड़वाहट" 

     दु:ख  से भरी जिन्दगी में आज वह  बहुत खुश थी,आफिस  बालकनी के छत पर किसी की  प्रतीक्षा में खड़ी बेसब्र हुई जा रही थीं।
       जैसे ही सामाना हुआ कि वह  मुस्कुरा कर कहीं -"सर आज मुझे जो खुशी मिली हैं उसे आपके संग बाटना चाहती हूँ।"
   मैने उत्सुकतावश पुछा -"अरे बताओं तो सही, क्या हुआ ?  
    वे मुस्कराती कह उठी - "सर आज मेरी  बेटी पी. एस. सी. में  सलेक्ट हो  डिप्टी कलेक्टर बन बन गई।" 
   हौसला अफ़जाई करते कहा- "बहुत खुब! मिठाईयाँ बाटों और हमें भी खिलाओं! "जी हां सर ..अभी अभी तो मोबाइल से सूचना मिली , कल जरुर लाऊंगी । अच्छा ठीक है कहते वे आगे बढ़ गये...तभी उनके कुछ कलिग पुरुष कर्मचारी , ड्राइवर गुजरे  उन्हे भी वह खुशी- खुशी बताई, सबने उन्हे व उनकी बेटी  को बधाई दिए। पर कुछ सहकर्मी  महिलाएं आई पर न जाने क्यों  वह उन्हे नहीं बताई । 
     और सीधे अपनी चेम्बर में आकर बैठ गई , आज काम करने का मन नहीं हुआ और शीध्र ही घर जाने बेसब्र होने लगी। तभी कुछ महिलाएँ आई और केंटिन से मिठाई लाकर खिलाने और बाटने लगी यह कहते कि बहन बड़ी मुस्किल से पढ़ाई -लिखाई और काबिल बनाई।  चलिए अब वो हमारे हक अधिकार और ये जालिम मर्दों वाली दुनियाँ से बदला लेगीं।
    न जाने क्यो वह इन परित्यक्तता महिलाओं के संग नारी निकेतन में काम करती पुरुषों के प्रति विष वमन के बाद भी उनके जैसे नहीं हो सकी।वे आज भी स्वयं परित्यक्त नहीं मानती क्योकि वह पुत्री के जन्म के बाद ससुराल वालों की प्रताड़ना और उनके समक्ष अपने पति के चुप्पी के बाद उनके परित्याग कर मायके चली गई ।खूब मेहनत की और महिला बाल विकास विभाग में क्लर्क बन इस नारी निकेतन में पदस्थ हो गई ।
      पर ज्यों -ज्यों महिलाओं से  पुरुष प्रताड़ना की बातें सुनती त्यों- त्यों उनकी पौरुष  दृढ़ होती गई और उनकी स्त्रैण स्वभाव गायब होती गई  फलस्वरुप महिलाएं उनसे दूर भागती गई ,उनसे डाह करने लगी व विद्वेष तक पालने लगी इसलिए वह उनसे दूर ही रहा करती ।सिवाय हाय हलो के।पर आज अपनी खुशी  में उन महिलाओं द्वारा खिलाई व बांटी  जा रही मिठाई में क्यों भीतर   "कड़वाहट" सी घुलने  लगी ? शायद यह उन्हें भी ठीक -ठाक पता नहीं।   
    -डा.अनिल भतपहरी 9617777514
[9/10, 22:56] anilbhatpahari: महिला दिवस की पूर्व संध्या पर -
लघु कथा 21 
।।एक प्याली चाय की कीमत ।।

तुम क्या जानो बाबु ,एक प्याली चाय की कीमत ? 
फिल्मी डायलाग नुमा बोलती वे मुस्कराती गर्मागरम चाय की ट्रे लेकर  सामने हाजिर हुई।
   जबकि पहले से कहे जा चुके थे कि चाय नहीं पीते इनकी जरुरत नहीं ,पर वे मानेंगी तब ? क्योंकि उनकी हाथों की बनी चाय की यशगान का वृतांत साथ आये मित्र  के श्रीमुख से अब तक ख़त्म नहीं हुए हैं,तब तक वह प्रकट हो गई ।
    बहरहाल चाय वाकिय में लाज़वाब और अलग तरह के फ्लेवर युक्त हैं। सुड़कते कहां - "शुक्रियाँ , नाहक आप परेशान हुई । ऐसा लग रहा है कि आप फिल्मों की बड़ी शौकिन हैं?"
  'हां, पर मुआ अब हमारी च्वाइस की बनती कहां हैं?'
 "बनने लगी हैं बल्कि अब तो पहले से अधिक स्वभाविक व यथार्थवादी सिनेमा का दौर हैं।"

' पर जो माधुर्य, सुन्दर दृश्यवलियां और गरिमामय वस्त्राभूषण थे वे  नजर नहीं आते ?'
       
  कल्पनाशीलता और कला के लिए कला जैसी दौर खत्म सा होने लगा हैं। और फैमिली न होने अब फैमिली ड्रामा खत्म  हुआ मानो।"
     
   वे लगभग झेपती सी  पर दृढ़ता से कहीं -'नहीं ,ऐसा बिल्कुल  नहीं ,फैमिली कभी खत्म नहीं होगा।जब तक लोग हैं परिवार रहेगा सिनेमा नाटक सदृश्य एकल पात्रिय नही हो सकता ,होगा तो वह चलेगी नहीं ।
          अच्छा! इतनी गहरी समझ और अपट्रेक्टीव लूक के बावजूद आप कभी इस लाईन में जाने की नहीं सोची ? सहसा बातचीत में भीतर से प्रश्न अनुगूंजित हुई। 
    -'हां मैने थियेटर की ,एक दो सिरियल्स और ३ सिनेमा भी ।पर वे रिलिज़ नहीं हो सकी ,फिर ये ब्याह लाए और खूंटे से बांध दी गी।' 
   ठंसी सांसे लेते ..'सच कहें तो हम भारतीय नारियाँ  मैहर -नैहर वालों के लिए गाय ही तो हैं, कैसे शेरनी हो जाती?  दोनों  कूल  की लाज पल्ले में  पंडित जी अग्नि के साक्ष्य में बांध दिए  है... वह छूट पाना  सरल नहीं।'
और ठठाकर हंस पड़ी।
         "जैसा सुना  बढ़कर निकली आप ...आपकी ये ताज़ी  उपन्यास आपबीति हैं कि जगबीति ... मुझे इनके आधार पर स्क्रिप्ट लिखने हैं सो आना हुआ ।"
         'यह जानकर क्या करोगे ... जगबीति में ही आपबीति समाहित हैं।'

   साथ आए  मियां ,चाय और बिस्कुट के संग  मस्त घर की अस्त- व्यस्त पर  ही व्यस्त हैं। 
   खूंटे से बंधन तोड़  प्राय: हरही गाय भागती हैं। और जहाँ -तहाँ खप -खुप जाती हैं !
पर  आजकल बांझ कह खूंटे  से मुक्त यदा- कदा ही हो पाती है। कुछ तो अपने ऊपर शौतन, तो  कुछ गोद ले लेते है या आजकल  सेरोगोसी -टेस्ट ट्युब  जैसे  तकनीक से बंधी जीवन निर्वाह करती हैं । 
          वे विलक्षण हैं, जो बंधन मुक्त हैं और लड़ रही हैं उत्पीड़ित वनिताओं के वास्ते ।
       पर कुलक्षणी कह निर्वासित इस प्रख्यात लेखिका की कहानी पर फिल्म बनाने उनसे मिलने निर्माता के  संग आए  स्क्रीप्ट राईटर जो कभी  चाय नहीं पीते ,आज उनके अंदर पता नहीं क्यों? मिठास घुलती ही जा रही हैं।फलस्वरुप वे  शुभ्र व सभ्य  लगने लगी । हांलाकि यह आधी आबादी की प्रवक्ता हुई जा रही हैं।
         अपने प्राकृतिक अधिकार की तिलांजलि इसलिए दे दी कि बुजुर्ग माता -पिता भाईयों- भाभियों द्वारा दुत्कारे न जाकर ससम्मान इनके साथ रहें।
         तो दूसरी ओर नैहर वालों की अहं भी फूले -फले ! भले वे एक कंठ विषपायी सदृश्य नारी से नर होना दृढ़तापूर्वक  स्वीकार ली।
    स्क्रिप्टर पर चाय की माधुर्य चढ़ा देख  लेखिका को भी यह आभास हुआ ...और उन्हें लगने लगा कि "एक प्याली चाय की कीमत क्या हैं।" इसका रियल अहसास होने लगा ।
         
-डा. अनिल भतपहरी 9617777514

लघु कथा _15 ऐसा भी

लघुकथा 15

ऐसा भी ...

सड़क पार करते वह बाल-बाल बचीं। भय मिश्रित विह्वल हो कह उठी -"आज तो  हो गया रहता!भगवान का लख -लख शुक्र हैं कि बची" रंगीन तबीयत वाले बेपरवाह ड्राइवर अक्सर खुबसूरत युवा महिलाओं को देख उनके समीप से  कट मारते सर्र से गाड़ी मोड़ते हैं। बेचारियों की कलेजे मुँह में आ जाया करती हैं। और वे सिगरेट की कश़ से छल्ले बनाते भोजपुरियां धुन में गाड़ी को नचनिया की कमर की तरह नचाते फूर्र हो जाते ...
     इस बड़ी बिल्डिंग के चौथें माले पर लिफ्ट से चढ़ने के बाद भी वे भय से  हांफ रही थीं। भला ऐसा कोई करता हैं, तमीज नहीं इन मुस्टंडों को क्या उनके घर बहन-  बेटी नहीं ? वे लगातार बड़बड़ाई जा रही थीं।
       तभी दनदनाते वह नये वर्जन के हिप्पी नुमा छोकरा  चायनिज़ कट खड़ी बाल, दाढ़ी -मूँछ बढाए ,बिना नहाए इत्र लगाए , फटी जिंस और मोबाईल पैंट के जेब में खोसें,  कानों में ईयर फोन ठूंसे, ठुमकते हुए सा सामने आ खड़ा हुआ।   उनकी इस तरह धमकने से  पल भर स्तब्ध हो चौंकी ! फिर बिना पहचाने वह अनजान बन मुँह फेर ली।
    वह जिस हुलियां का था और लोग देख उसे जो समझते ठीक उससे उलट बड़ी विनम्रता से कहे- "मैम ! सारी एक  छिपकली को बचाने हमसे हमारी  गाड़ी मुव हुई और इस तरह  आपको हर्ट हुआ। म YouTube mein dalo
      सच कहते गलें की टोढ़ी पकड़ -"गाड़ी पार्क कर सारी कहनें दौड़ते सीढ़ी चढ़ना हुआ।"  वे उसे हतप्रभ सी देखती  ही रह गई ...
       पास ही लिफ्ट के इंतजार में खड़े ,नये पीढ़ी के इस छोकरे के व्यवहार देख ,लेखक को भी सुकून मिला।
          -डा.अनिल भतपहरी, ९६१७७७७५१४

लघु कथाएँ 1-14

लघु कथा 1

।।जात- पात।। 

रविवार मुर्गे -बकरों की शामत का दिन है। आज शहर में बकरीद की मानिंद सैकड़ों बकरे कटेन्गे और तकरीबन ८०-९०% घरों में पकेन्गे। और जब ये पकेन्गे तो इन्हे पचाने मदिरा तो आएन्गे ही आएन्गे ।
    बहरहाल इस आलम में जो अछूते हैं वही रियल में अछूत हैं। सरकारी नौकरी चाकरी से लेकर दिहाडी करने वाले व  कुली कबाडी तक "जश्न ए संडे " में डूब जाते हैं। क्या गजब का अंग्रेज़ी तिहार है ।
    सुबह -सुबह चर्च से प्रेयर से मुक्त होते माइकल  मुलायम बकरे की गोश्त  खरीदने के लिए साइकिलिंग करते शहर की पुरानी कसाई खाना गये। सोचा कुछ कीमा भी लेते आए अर्सा हो गये कबाब खाए? लाकडाउन में होटले/ बिरयानी सेंटर  बंद है तो धर में ही पका -खा ले ।  दूर से एक बंदा शायद  जासुस सा हाव भाव देखते समझ गया और जोर से आवाज दिए-" ओय सर जी ! यही मिलेगा शानदार मक्खन जैसा  "करीम का कीमा " 
      पास सायकल खड़ा करते पुछे -"क्या भाव ?" 
"सर जी !७०० रुपये १०० रुपये तो कुटने का लगा रहे हैं। मेहनत बहुत है सर जी !
    अरे लूट रहे हो जी उधर हमारे तरफ तो ६०० में गोश्त लो या कीमा सब समान रेट हैं।
    अरे जनाब !क्या कह रहे हैं कसाई कभी बेईमानी नहीं करता उधर गड़ेरिये और हिन्दुओं की दूकाने है। भला वे लोग हमसे बेहतर कटिंग्स क्या जाने ? यहाँ क्वालिटी और कटाई -चुनाई का महत्व है तभी तो जानकार टूट पड़ते हैं। 
    सच में खाल उतरे बकरे रस्सी से लटके करीने से सजे थे भले मक्खियाँ भिनभिना रही थी उसे हांकते और उनकी तरफ दिखाते कहे -"ऐसा सफाई और चुनाई ओ कर दे तो ,कसम मौला की !धंधे छोड़ दे और बकरियाँ चराने गड़रिये बन जाय !"
   "अच्छा यह तो अच्छी बात है! कसाई से गड़रिये यह तो पुण्य का काम है । ये मारना - काटना छोड़ पालना शुरु कीजिए ।
   अरे साहब! काहे नीच नराधम बनाने की सोच रहे हैं। हमारे ही लहु सने दिए पैसों  से पलने वाले गड़रिये से हम ऊचे दर्जे का है। वे हमारे आगे गिड़गिड़ाते है हमसे छोटे हैं। 
    माइकल सोच मे पड़ गये -"ये ऊच -नीच   कहा कहां घुस गये हैं। उस दिन कबाड़ वाले देवार कह रहे थे कि हम नेताम आदिवासी देवार  सुअर पालने वाले शहरी  देवार से ऊच है।  इसी तरह घसिया सूत सारथी सफाई करने वाले  भंगी मेहतर से  ऊच है कहते हैं। और  खाल छिलने वाले  मेहर  से खाल की जूते बनाने वाले मोची ऊच बना बैठा है। मलनिया से अधिक प्रतिष्ठित सेलून में बाल काटने वाले नाई है और  बड़ी मच्छी मार नाविक  केवट से नीच छोटी मच्छी और उनकी सुक्सी बेचने वाले  ढीमर हैं। किसान के  बरदी चराने व गोबर बिनने वाले  राउत से बडा खुद के डेयरी चलाने , कचरा करने वाले यादव बने हुए हैं। इधर किसानो में कुर्मी -तेली बडहर व प्रतिष्ठित है और लोधी अघरिया हिनहर कैसे हो गये हैं।शादी ब्याह व सत्यनारायण  कथा करने  वाले ब्राह्मण अंत्येष्टि  करने से ब्राह्मण से उच्च बना हुआ हैं।और पैदल सैनिक से बडा हाथी घोडे वाले क्षत्रिय बडा बना बैंठा है।"
       विचित्र मान्यताओं व संस्कृति वाले  अजायबघर देश में मांस ,मदिरा, खान -पान वाले आमिष आहारी और निरामिष के बीच  सडयंत्र कर परस्पर एक- दूसरे को लडाने वाले छुआ-छूत, जात- पात को बढावा देने  प्रभावशाली तथाकथित सात्विक आहारी -विहारी उनके शास्त्र आदि को  यही कीमियागिरी  लोग  पूज्यनीय बना रखे है! जिनकी गाढ़ी कमाई और श्रद्धा के वही लोग सौदागर बने मजे लूट रहे हैं।
    इधर कुछ जातिविहिन समानता वादी  सिख सतनामी बौद्ध जैन  ईसाई  भी केवल उत्सवी बन‌कर रह गये हैं। और उनमें इनके देखा -देखी अनेक धड़े, फिरके बनने लगे हैं। 
    बहरहाल  ठोस विचारों की किमागीरी करते अपने रास्ते पैडल मारते माइकल आए ..और हमें देख फूट पड़े  ओ लेखक महोदय ! कब इस देश से  जात -पात, ऊंच -नीच  भेदभाव जाएगा और  मानवता स्थापित होकर समानता का मार्ग प्रशस्त होन्गे ? उनके औचक प्रश्न व व्यवहार देख हम हतप्रभ सा रह गये।

    -डॉ. अनिल भतपहरी सी- ११ ऊंजियार सदन सेंट जोसेफ टाऊन अमलीडीह रायपुर छ. ग. 

9617777514


लघु कथा 2

।।बैठक।।

सरकारी योजनाओं के प्रभावी क्रिन्यान्वयन हेतु प्रति माह की ५ तारिख बैठक निर्धारित हैं।साहब देर रात्रि तक प्रपत्र तैयार करवाते रहे इसलिए विलंब हुआ।
    अपने पति और पत्नी को  दोनों देर तक समझाते रहें पर दोनो यह सब मानने क्या, सुनने भी तैयार नहीं हुए। रोज की तरह जली -कटी सुने नही खाए भी और चुपचाप सो गये सुबह उठकर आफिस जाने के लिए  ।  
   ऐसा विगत दो वर्षों से दोनों के घर कलह हैं इसलिए तो आफिस में सुकून तलाशने रोज आते फलस्वरुप दोनों वर्क लोड से दबे हुए हैं।
महकमें में यह चर्चा भी हैं कि ये लोग  किसी दि‌न फूर्र हो जाएन्गे ...इनके लिए तोता- मैना से लेकर क्या क्या उपमान तक नहीं बांधे जाते हैं। अक्सर बैठक के बहाने यही लोग बाहर आते - जाते हैं ,अफसर इन्हे तो नहीं इनके काम को पसंद करते हैं । फलत: दोनो युज़ भी बहुत होते हैं। 
      बहरहाल  घर -बाहर दोनों जगह बिना कुछ किए बदनाम हैं। इससे तो अच्छा कुछ  करके बदनाम होने की मंसुबे के चलते आज दोनों आर्य मंदिर प्रांगण में बैठक करने गये हैं ।
     -डाॅ. अनिल भतपहरी
लघु कथा -3

जीना भी कोई ...
   
शरद पूर्णिमा के कारण आज रतजगा हुआ।वैसे भी पूनम की चांद हमें बचपन से सोने नही देती।
 तस्मई सोंहारी चीला से महकते घर -आंगन , चंद्रमा की दूधियां रंग ऊपर से विविध भारती की छाया गीत अब तो मोबाईल से रात्रि ११ बजे के बाद एफ एम से मधुर फिल्मी गीत सुनते छत पर टहलते रहना एक अपूर्व आनंद व खुशियां मन में भरते रहा है। 
गांव में  पिता जी बांसुरी से स्वर लहरी बिखेरते तो  हम हारमोनियम से छूकर  चिटिक अंजोरी निरमल छंइहा गली गली बगराए वो पुन्नी चंदा ..या  तुके मारे रे नैना की धुन छिड़ते तो लगता समय ठहर सा गया है ... गांव के वृहत्त  आंगन  मे सरग उतर रहे है ।
       पर इन दिनों शहर  की बजबजाती नालियों का दूर्गंध मक्खी के आकार का  काले मच्छड़ों की तीखे डंक का आतंक ,आवारा कुत्तों की भौंकते रहने साथ ही घर- घर पल रहे श्वनों की समवेत स्वर से जीना हराम सा हो गये है।भले मनोरंजन सुख -सुविधाओं से लैश है पर हम जैसों प्रकृति प्रेमियों के लिए बड़ा ही क्लेश है।
       सारे सुकून प्रदान वाले कारक शैन: शैन: छरित होने लगे है ।ऐसा लगता है कि सुविधाएं ही सकंट उत्पन्न करा रहे है ।और प्रकृत्स्थ जीवन जो रहा अब दिवास्वप्न सा हो गये है....
क्या अब मोबाइल रखकर भी नो कनेक्टीविटी जोन में रहने  चले जाय   टी वी रेडियों समाचार पत्रों से दूरिया बना ले  .... गांव के लीम चौरा में बैठे फिर वही ददरिया झड़काए ... जब देखेंव पुन्नी के चंदा रतिहा मय उसनिंधा ....
      मन के बात मन म रहिगे प्रात: ६ बजे  मोबाइल में भरे अलार्म बज उठे ... यंत्रवत उठे ब्रश में शेनम पेष्ट लगाए और छत पर चढ़ गये ... गुनगुनाती धूप में धूमते तभी देखते है कि सामने ही  कालोनी के दो पडोसी महिलाएं पालतू  कुत्ते की बीट के कारण लड़ रही है ।और पीछे दो पुरुष कार पासिंग के लिए तू तू मैं मैं हो रहे है। बच्चे वजनी बस्ता थामें कुछ चबाते -खाते चौक में खड़ी स्कूल बस की ओर भाग रहे है। कीचन से जीरा प्याज के छौंक का गंध आने लगे ... तो तंद्रा टूटा । स्नान करने लपका ...बिना स्वाद जाने समझे हलक से तीन रोटियां सब्जी गरमागरम गोंजे और पानी पीते कपड़े  पहिन दांत में बढ़ते  सेंससीविटी के कारण बिन दो लौंग में मुंह मे व कंधे मे  बैकपैंक डाल  यंत्रवत रात्रि ८ बजे तक लौटने के लिए निकल लिए ....ये कहते कि ये जीना ..भी कोई जीना है लल्लू !
   - डाॅ. अनिल भतपहरी

लघु कथा 4

 लाकडाउन 

"परेशानियाँ ‌कहां नहीं हैं, बिना इनके जिन्दगी कैसे बीतेगी भला ?"
समझाते हुए वे कहें पर उनकी बातें लोगों को समझ आते ही कहां हैं इसलिए अनसुनी कर दी जाती हैं।
     बावजूद वे कहते कि हर हाल में जीने के लिए मस्ती न छोड़ो और मस्ती आती हैं नशे से चाहे वह धन का रुप का ज्ञान का या संतान का हो। 
      संकट के  हल निकालने सभी भयानक चिन्ताओं में डूबे हुए हैं। मतलब हंसी खेल कौतुक सब गायब हैं। फलस्वरुप बहुत तेजी से लोग डिप्रेशन में जाने लगे हैं।
उन्हें उबारने शराब और नशे आदि को लाकडाउन से छूट दिए जा रहे हैं। ताकि लोगों को व्यसन मिले और डिप्रेशन से मुक्ति भी।
    लोगों को पागल होने से बचाने के लिए फिलहाल  मधुशाला ही  चाहिए। मठ मंदिर मस्जिद गिरिजा गुरुद्वारा की जरुरत ही नहीं ।
     बस्तर का घोटूल किसी धाम से कमतर हैं क्या ? जहाँ प्रेम और कर्त्तव्य के पाठ सामूहिक रुप से सहजता से सीखते हैं।जिससे  निरापद  जीवन जीए जाते हैं। 

क्या अब क्लब माल सिनेमा बार डांस  रेव पार्टियों जैसे चीजों के जगह स्वदेशी  चीजे प्रचलन में न लाया जाय? 
     मानवीय संबंध भी कैसा है कि हर चीज के उपभोग के बाद अतृप्त पना हैं। यह अतृप्ति ही उन्हे सक्रिय किए हुए हैं। भोग की पराकाष्ठा से ही विश्व संचालित हैं। योगी लोग तो दुनिया को अपने जीवन में ही तबाह कर दे?
   यह क्या सदाचारी रहो व्यसनी मत बनो तो तमाम सोनागाछी गंगा जमुना मोहल्ला चांदनी बार और शाम ए अवध कैसे रंगीन व महकदार होन्गे? 
    कजरी ठुमरी दादरा और ये कत्थक मोहिनी अट्टम या ओडिसी कैसे संरक्षित रहेन्गे । कितने कलावंत और सर्वाधिक ग्लेमर्स व संभावनाओं को समेटे फिल्मोद्योग की भठ्ठा बैठ जाएन्गे। हमारे नचनियों अभिनेताओं  ने जो कीर्तिमान बनाया वह तो राजनेताओं ने नहीं अर्जित कर पाया । इन जगहों से निकले लोग भारत रत्न तक हुए ।
 कैसे यह भूल जाय कि कीचड़ में ही कमल खिलते हैं। सच तो यह है कि कमल खिलाना हो तो कीचड़ बनाना पडेगा ।हाथ है तो उन्हे रोजगार देना होगा और रोजगार के हजार रास्ते हैं। 
 बहरहाल ग्लैमर्स के  देखा सीखी आजकल  कथित धार्मिक   बाबाओ एंव  माताओ ने भी ग्लेमर्स को अपनाकर जो दिखता वह बिकता है की शानदार परिपाटी विकसित किए हैं। क्या वह एक झटके लाक डाउन हो जाय ?
   और तो और अब स्वदेशी का नारा जोर शोर से होना आरञभ हुआ ।लधु मध्यम व कुटीर उद्योग आत्मनिर्भरता लाएन्गे  तो उनके उपभोक्ताओं का होना आवश्यक हैं। गंजे लोगों की बस्ती में कंधी बेचा ही नहीं जा सकता ।
    अंग्रेज मुफ्त में चाय पिलाकर लती किए और आज चाय सकल ब्रिटेन की आय से अधिक कमाकर दे रहा है। तो भ इये जहा    महुए  फूल  है  तेंदू व  तंबाकू पत्ता हैं। वहाँ आप सत्संग प्रवचन नहीं करा सकते इसलिए  आत्मनिर्भरता के लिए यह आवश्यक है ।
क्या यह संभव है कि महुए ,सल्फी ताड़ी व लांदा  का उत्पादन  न करे और बीडी तंबाकू को भूल जाय ?जिसके माध्यम जनमानस तमाम विषम परिस्थितियों के बावजूद उपलब्धियां हासिल करते यहाँ तक आए हैं। कितने बीडी श्रमिक अपने बच्चों को इनके बनिस्पत डा इंजी बनाए आइ ए एस  नेता और पद्मश्री विभूषण तक पाए ।
   यदि यह बुरे थे तब उन्हे शासकीय संरक्षण क्यो? और इन सब चीजों में  विदेशी ठप्पा क्यो? क्या केवल लूटने खसोटने और यहाँ के बाशिंदों के पेट पर लात मारने  । 

 व्यसनों और शौक व फैशन  के व्यवसाय चाहे वह बार  होटल पब रेस्त्रां  कपडे ज्वेलरी सेलुन ब्युटी पार्लर हो या पान ठेले आदि सब जगहों पर तालेबंदी हैं। और अरबो रुपये फंसे पड़े है।
       यदि  मरना ही तय हैं तो क्या जीना छोड़ दे ? वह प्रवचन  देते रहे हैं भले श्रोता हो या सरोता हो।
    कोरोना महामारी ने तथाकथित बुद्धिजीवियों और अनीश्वरवादियों को अधिक मुखर व वाचाल बना दिए हैं। वे सदियों की मान्यताओं और आस्थाओं पर हथोडा चला दिया और आस्था व श्रद्धा की भव्यतम स्मारकों में यत्र तत्र दरारें डाल दिए गये या अपनी वज्रधात से जीर्ण -शीर्ण कर दिए हैं।
    ऐसी हालात में आज एक आस्तिक और ईश्वरीय शक्ति के साक्षात्कार प्राप्त बड़ी हस्ती से मिला ।वे सक्षम अधिकारी है। और जिस समाज के हैं उनकी हालात दयनीय हैं। उस समाज की प्राकृतिक मान्यताओं की लोग हंसी उडाते हैं। और उसमे वह भी शामिल हैं तथा संगठन और धार्मिक पदाधिकारियों के कटु आलोचक भी हैं। साथ ही विभिन्न पार्टियों में चयनित जनप्रतिनिधियों को हमेशा आडे हाथ लेते कटु आलोचक हैं।
       बहरहाल वे आजकल एक ब्रम्हकुमारियों के मोह फास में आबद्ध सतयुग की महान प्रतीक्षा में रत इस वैश्विक संकट को प्रलय सा शुभ मान सतयुग आने की आहट समझ उन्मादग्रस्त हैं। कि उनके प्रणेताओं की परिकल्पना साकार हो रहे हैं।
      हमने  ऐसे बहुत से साम्प्रदायिक पागल पंथिकों के धारणाओं से स्वयं को पृथक  करते केवल सत्य प्रेम करुणा और परोपकार जैसे गुण को धारणीय धर्म माना जो सर्वत्र समान हैं। बाकी केवल प्रणाली मात्र हैं और ईश्वराश्रित हैं। कुछ ही प्रवर्तक हुए हैं जो ईश्वरीय या किसी आलौकिक शक्ति से अलग स्वयं की शक्ति पर विश्वास कराते धर्मोपदेश दिए हैं। और वह भी एक प्रणाली में बदल गये 
   इस तरह से विचार जन्मते है और आगे वह अलग अलग रुप अख्तियार कर ही लेते धारा बहती हुई कही द्वीप कही झील कही गहरी कही उथली हो ही जाते हैं समन्दर न मिलने पर कुछ बड़ी  नदियों में  ही समागम हो सागर की ओर प्रयाण करने होते हैं। फिर यह तो निश्चित है कि बुंद का समुंद में विलिन होना ।
अब तलाशों की समुन्द में वह कहां गया कैसा हुआ। 
           बहरहाल देश को बेसब्री से इंतजार है कि लाकडाउन हटे जीवन सामान्य हो‌ । कोरोना का से मुक्ति मिले फिलहाल मुक्ति के प्रसाद बाटने वालों को भी यह सामान्य सी बातें समझ में आनी चाहिए ।अन्यथा जात पात मत पंथ धर्म कर्म का बहुत बखेडा देश में हो चूका अब मानवता को प्रतिष्ठापित करने होन्गे और जहा जहा जो संसाधन व सुविधाएँ हैं। उन्हे मानव कल्याण के निमित्त उपयोग में लाना चाहिए। क्योकि मानव और मानवता ही सबकुछ हैं।

-डाॅ. अनिल‌ भतपहरी 9627777514

ऊंजियार सदन सेंट जोसेफ टाऊन अमलीडीह रायपुर छ ग
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लघुकथा 5

 "सुगंध "
रोज की तरह सुबह की सैर से लौटते नुक्कड़ की सब्जीवाली से ताजी भाजी लेकर घर आने का क्रम चल ही रहा था कि आज घर की दरवाजे पर एक दूसरी सब्जीवाली को भाजी की गठ्ठर सर पर रखी हुई  देखा।
  श्रीमती अंदर से  रुपये देने आई तब तक वे  पहुंच गये और पुछने लगे - क्या ले ली ? पत्नी प्रश्न का उत्तर प्रश्न मे देती कही -
आप क्या लाए ?
"लाल भाजी "
कित्ती जुरी ?
२० की  ११ 
अच्छा रोज लूटाते हो और ऊपर से एक कि मी बोझ लादे लाते हो।
ये देखो २० की १३ 
आज से वहां से भाजी लाना बंद।ये बाई रोज लाएगी 
वह भी बदल- बदल कर ।
"लाल पालक चौलाई और हां तुम्हारे फेवरेट चेंच भी"एक सांस मे कह गई ।उधर अधेड़ भांजी वाली मुंह मे हंसी दबाई चली गई ये कहते "कालीअतकेच बेर चौलाई लानहू" 
   बहुत दिनों बाद खाली हाथ पीछे गली से आए।और जो सम वयस्क भाजीवाली से नेह जुड सा गये थे वह एकाएक टूट गये।
    यह अनुक्रम दो चार दिन चला कि नींद ७ बजे खुलने लगी। धूप चढ़ने और अखबार देख सैर की इच्छा खत्म होने लगे ।तब से छत पर ही थोड़ी बहुत टहलना होने लगा ।अब पहले जैसे उमंग उत्साह भी कमतर होने लगा।
भाजी वाली  की आमदरफ्त से मैडम खुश है ।दूधवाले ,पेपरवाले  लांड्री वाली व कामवाली के बाद और एक नियमित सेवादार के बढ़ जाने उनकी रौब-दाब में बढोत्तरी होने लगे ।भले महगांई व  बाड़ी में लगे पंप की बिल जादा आने लगे कह नई भाजी वाली  कुछ दिन बाद  २० की १० और अब तो ८ जुड़ी देने लगी है।
    अचानक नुक्कड़ की पुरानी भाजी वाली को अपने गली मे फेरी देते देख  छत से उतरने लगे.!तब तक गेट खोल कर पत्नी पुछने लगी क्या भाव?वो बोली बीस के बारा !कम्पीटेसन बहुत हवे औने पौने तको दे ल परथे । एक से सेक चारी-चुगरी म गिराहिक टोरे -जोरे के उदीम चलथे..वो बाजार की तरीका बताने लगी मैडम उनकी बातें सुन मन ही मन "लपहरी "कह भाजी  की क्वालिटी को पंसद कर छाटने लगी।साहब को नीचे सीढी उतरते देख मुस्काती भाजी वाली धनिया की एक जुरी पुरौनी दे गई... निवीया  की डियों से धनियां की सुगंध का अहसास हुआ! आज आफिस की काम काज में दूनी उमंग-उत्साह आने लगा!
     सच कहे तो सडयंत्र और उनके चपेट कम जादा जितना हो किसी को बर्दाश्त नहीं पर पापी पेट का सवाल है ।हर कोई काम- धंधे ,रोजी -रोटी पाने में इनका किंचित उपयोग करते है जो दस्तुर सा तो हो गये है पर इनमें विश्वास और नेह की छौंक ऐसी चीज है जिनकी चमक कभी फीकी  नही पड़ती न धाटे की सौदा होते है।
          डां - अनिल भतपहरी
               9617777514



 लघुकथा 6

         ।।दार्शनिक।।

प्रात: सैर के दरम्यान  गाॅर्डन में वाकिंग करते मालती मिली।उसने ही पहचाना, भला महिलाएँ पहचान में आती ही कहाँ हैं? बच्चे हुए नहीं कि  दादी- नानी  लगती हैं। 
बहरहाल कालेज कैम्पस में  बिंदास- खिलखिलाती ,चिन्तामुक्त यह वो नहीं जो ज़माने की बोझ लिए झुकी कमर, बेझिल आँखें लिए थकी -थकी सी चली आ रही थी कि आमना -सामना हो गई... पहले इनकी आँखों के ऊपर शायरी और बाब कट बालों के ऊपर नारी स्वतंत्रता एंव  स्त्री सशक्तीकरण  पर हमारी आधुनिक कविताएँ भी लिखी जा चूकी हैं। लिखने -पढ़ने और छपने के कारण असमय हम समव्यस्कों में मैच्योर्ड हो इन बिंदासों के वास्ते अंकल या भैय्ये हो गये।  
      बहरहाल वें एक सांस में अपनी करुण कहानी सुनाती हुई फ़फ़कने  लगी ।युं सुबह- सुबह किसी स्त्री का रोना हमें बर्दाश्त नहीं हो रहा था,पर सहपाठी के दु:ख सुन उन्हे हल्का भी कराना था।उदास -निराश मित्रों की  मन को बोधना भी हमारा कर्तव्य रहा हैं,जैसा कि पहले भी करते रहे हैं। हालाँकि हमारा मन बोधने  वाला - वाली अब तक कोई हुआ नहीं ,इसलिए शरीर के हर भाग चोटिल हो जाय, मन को चोटिल होने बचाते रहे हैं। 
      इत्म़ीनान के साथ फुटपाथ के उस पार लगे सीमेन्ट के बैंच में बैठते- बिठाते  हौले से कहां - "रोने के वास्ते एकांत चाहिए पर हँसने के लिए एक का साथ तो चाहिए ही।कोई एक अकेला कैसे हँस सकता हैं?"  
      यदि ऐसा करे भी तो जमाना  पागल समझे या फिर स्त्री के लिए गाली हो जाएगी । 
    वे ठंडी सांसे लेती चुपचाप सुनती रही ...और साला अपुन उनके लिए दार्शनिक हो गये।

        -डा. अनिल भतपहरी
                9617777514


लघुकथा 

"स्वेटर "7
  ठंड में बैगर स्वेटर ,स्कूटर से आफ़िस जाना  बेहद कष्टप्रद हैं।  ऊपर से शहर की प्रदूषण से सर्दी -खांसी!  शुक्र हैं कि भेड़ अपनी रुंए मानव प्रजाति के लिए अर्पित कर रखा है अन्यथा ...इसके पालक  पर्वतांचलवासी गर्म वस्त्र के  कारोबार में लगे  हैं इसलिए  शीतकाल में  गरम कपड़े बेचने देश भर में फैल जाते हैं। 
   बहरहाल हुआ यूं कि कल गुरुघासीदास  जयंती पर्व की  छुट्टी होन्गे इसलिए जितने जैकेट स्वेटर थे धुलवाने निकाल डूबा दिए गये.. केवल एक को छोड़कर क्योंकि उन्हे पहिन इस हड्डियां कपा देनी वाली ठंड में आफिस जाना होगा। 
    पर यह क्या भोजनोपरांत जब कपड़े पहनने लगे तो वह स्वेटर मिला नहीं , जिसे पहिनकर आफिस आना था।  ढूंढ़ने पर पता चला कि वह भी वाशिंग मशीन में डल चूका हैं। दो चार है तो , पर इन सभी का  हिसाब रखती  श्रीमती क्यो अपनी मति खराब करे ? 
    अब हो गया न सत्यानाश ... ! बस इसी बात में तू तू, मैं मैं शुरु ...स्वेटर खंगालती काम वाली  बाई हंसी जा रही थीं। उनकी खीं -खीं डाइनिंग हाल तक सुनाई पड़ रही हैं। गुस्से से लाल -पीले होते आफिस बैग पकड़ स्कूटर पर कीक मारते गुस्सें का शमन कर रहे हैं। ऊधर श्रीमती अपनी मति न मार ,मति खाए जा रही रहीं हैं कि घर का सारा काम मुझे ही देखना हैं ,..बस जीना हराम हैं! 

 वर्षों से आलमीरा के कोने में मुड़े-तुड़े रखे मोटे खद्दर खादी का शर्ट निकाल प्रेस करते अपने गुस्से की सलवटे भी शर्ट के साथ प्लेन कर  जींस के साथ आफ़िस आना हुआ। 
     पहुंचते ही देखा कुछ महिला कर्मचारी ऊन से स्वेटर बुनती लान में धूप सेंक रही हैं। इस दिसंबर में  रुंह कंपा देने वाली ठंड में बिना स्वेटर के अपने साहब को देख  एक -दूसरे को आश्चर्य से देखती दबी जुबान से हस पड़ी...
    महिलाओं का यूं हसना और काम छोड़कर गप्पे लड़ाते स्वेटर बुनना उसे नागवर गुजरा...सातवें आसमान में चढ़ते  गुस्से को काबू करते कहे ... ये स्वेटर  यहाँ ? 
   तभी महीन सी स्वर पशमीना जैसी गर्मी चढ़ाते कानों में मिश्री घुली ... सर आपके वास्ते भी  स्वेटर  बुनी जा रही हैं । साहब का उद्वेलित मन बर्फ सा शांत हो हिमांचल की सैर करने चल पड़ा... अच्छा! अच्छा !! 
    डां. अनिल भतपहरी
       9617777514
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लघुकथा 

 "कीड़ा और कूड़ा "8

अभिजात्य अपना  छोड़, सब चीज को  कूड़ा ही समझते  हैं जबकि वे अच्छाई की वजूद मिटा कर कूड़ा फैलाने वाले कीड़े हैं ।
    कीड़े सफाचट करने प्राय: प्रयोजित ढंग से समूह वत होकर आक्रमण करते हैं।
    यह खेद की बात है कि कीटनाशक के खोज अब तक नहीं हो पाया हैं फलस्वरुप कूड़े का ढ़ेर बढ़ते ही जा रहे हैं।  
 
-डाॅ. अनिल भतपहरी


लधु- कथा 9

"अकेला "

अजीब सा मंजर हैं, सर्वत्र अराजकता फैलती जा रही हैं। जिधर देखो उधर परस्पर एक-दूसरे  की बातों,विचारों में मीन- मेख निकाले जा रहे हैं। जो निकालने में सफल हुए समझों उस भीड़ के नायक होते चले जा रहे हैं।
   इस तरह अनेक क्षेत्रों से अनेक तरह के नायकों का उद्भव हो रहे हैं। यह दौर इसी तरह के नायकों के उभरने का हैं। 
    आलोचनाओं और फूहड़ गाली -गलौचों से ही नये नेतृत्व आ रहे हैं, प्रखर प्रवक्ता हो रहे हैं। जो जितना अधिक  इन सब में काबिल हैं ,वही राज कर रहें हैं।इसलिए इनके लिए बकायदा कोचिंग इंस्टीट्यूट प्रशिक्षण संस्थान व पार्टियां खुलती व बनती जा रही हैं!
  प्रखर चिंतक के इस संबोधन के बाद उसे कोई संस्था या पार्टी के मंच में आज तक कोई बोलते नहीं सुना गया न पत्र पत्रिकाओं में उनके लेख छपे न आकाशवाणी दूरदर्शन में वार्ताएं या परिचर्चाएं। हां सोशल मीडिया के लिए वह अनफिट हैं। उसे  नेट व एंड्राइड चलाने आता नहीं ।
   इस तरह आजकल वे  बेचारे अकेला ,अलग- थलग और विस्मृत हो चले हैं।

             -डाॅ.अनिल भतपहरी

 लघुकथा 10

   ।।आभास।।

                  नये साल की शुभकामनाओं  से एफ बी और तमाम ग्रुप अटा पड़ा हैं। ६४ जी बी रेम्प वाला मोबाइल हैंक होने लगा। यह देख सुकून मिला - "चलो आभासी ही सही, फारर्वड करने वालों और यूं ही  स्व प्रचारित करने वालों की कृपा से अपना सेट हेंग तो हुआ।" 
    कम से कम  पत्नी और बच्चों से यह  कह तो सकते हैं कि हमें भी लोग लाइक कमेट्स और शुभकामनाएँ भेजने वालों  की कमी नहीं हैं। भले तुम लोग बधाईयां दो न दो ।अब बोलने - बतियाने वाले न रहे , सीधे मिलने भेटने वाले न रहे पर लोगों के नोटिस और राडर में तो हैं! 
      यह सोचकर कुछ ज्यादा ही खुश होते एलान किया कि "आज रात घर में खीर- पुड़ी और व्यंजन बनेन्गे।"
   एलान खत्म होने के पहले टोकते  हुए चीखें गूंज उठी..."अच्छा कौन बनाएगीं? मै.. मुझसे अब न होगा । आज तो कम से कम बख्श दें! फिर  सब कुछ रेडीमेड पैक्ड आ रहे हैं।"
   और क्या पापा !सारे लोग होटल रेस्तराँ जा रहे हैं और हम लोग...?
       "सच में पप्पू ! खाने के मेज में बधाई देन्गे कह अब तक नहीं दिए हैं!"
 जमाने से कटकर रहना मुनासिब नहीं ,चलों‌  जश्न मनाने ! अब  हम ओ तो  रहे नहीं  कि कभी अपनी चलाते और  गरज के कहते   कि  "जमाना हमसे चलती है जमाने से हम नहीं" 
    आजकल ऐसा कहने वालें‌ नस्ल तेजी से विलुप्त हो रहे हैं। काश !नये साल में इनका संरक्षण हो। ठंडी आह के साथ कार की पीछे सीट पर बैठे कि कार स्टार्ट करते  मधुर गीत नहीं बल्कि उलाहना के राक -पाप बज उठे !  कब तक यह बसंती चलेगी ? ..अब तो डस्टर , इनोवा , एक्स यु बी, या सेडान वगैरह आ गये है ,उनमें‌ कोई आए तभी मिठाई खाएन्गे क्यो मम्मी ? 
   "मै तो कब से यही कह रही हूं पर ये माने तब !" 
       ऐसा लगा कि नये वर्ष में  सब कुछ बदल जाएन्गे सिवाय इंकम के।  ‌वे पुनश्च आभासी दुनियाँ में प्रविष्ट होने जेब टटोलने लगे और पुरानी मोबाइल को देख स्वयं से कहे -"ये जरुर  बदलेंगे, ताकि स्नेह क्षरण के इस दौर में  छद्म ही सही स्नेहिल आभास होता रहे।"

        -डा. अनिल भतपहरी ९६१७७७७५१४


 लघु-कथा 11

साक्षात्कार  

       बच्चे!कहने को  रह गये हैं। अब तो वे बाप बनने लगे हैं। हर वक्त गुस्सा और डिमांड ज्यादा होगा तो घर से भाग जाने की धमकी ! ऐसा लगता हैं कि संतान जन के कोई अपराध किए हैं। इससे तो बेऔलाद अच्छा ...एक सांस में यह सब वे कहती गई और फ़फक कर रोने लगी।
   क्या ,क्या हुआ ? 
जैसे  कुछ जानते नहीं?  सब कुछ जानकर यूं ही  अनजान बने रहना तुम्हारा फितरत हैं। 
     अच्छा तो मै क्या करुं? 
डाटो -फटकारो पर यूं सर पर न चढ़ाओं !आज देख लिया तुम्हारे ढ़ील का नतीजा ।
       दोनो साथ- साथ  फ़फकने लगे ...
    बच्चे स्कूल -ट्युशन नहीं जाते देर रात बाहर स्ट्रीट फूड में जंक फूड खाना और समय बेसमय बीमार तक होना  ,रात भर मोबाईल में लगे रहना  और दोपहर १-२ बजे सोकर उठना ! 
      ऐसा लगता हैं कि मोबाईल ही अभिशाप बनकर इस परिवार पर कहर ढ़ा रहे हैं। शुरु- शुरु में ससुराल का देर- सबेर  फोन दोनो  के बीच स्ट्रेस लाए ..अब बच्चे हाई स्कूल में आए तो यही मोबाईल तहस -नहस करने लगे। 
     "सुविधाएँ ही  संकट लाते हैं" अर्सा़ पहिली  अपनी इस व्यक्त विचार और कविता के  खतरनाक सच से वह भीतर तक सिहर गये ... दहशत में घिर गये! उसे क्या  पता था कि इस तरह उससे साक्षात्कार होगा?  

  -डां अनिल भतपहरी 
        9617777514 

लघु- कथा 12

।।अज्ञेय ।।

  रोज की तरह  शाम को वह  फिर लौट आए पंछियों की तरह चहचहाते नहीं ,बल्कि  दारुण दु:ख में डूबे बेरोजगारों  की तरह। 
   दरवाजे की कुंडी खोल बिना बल्व जलाएं धुप्प अँधेरे में बैठे रहा।इस बीच दिन कई दफ़तरों /दुकानों की चक्कर अनुनय- विनय और कुछ  मान ,मनौव्वल झिड़की  की बातें जेहन में गूंजती रहीं...
    आज  वह बेहद दु:खी हैं ।एक सप्ताह पहले वह कितनी आशाएं और स्वप्न संजोए गांव से  विवाहोपरांत नई नवेली की इच्छा अनुरुप काम तलाशने और शहर में बसने के निमित्त कुछ नगद लेकर रिश्तेदार कें घर आए थे।पर  उनके सारे सपने चूर -चूर हो गये। बिना अनुभव ,पहुँच व पहचान के सारे काबिलियत और  ईमानदारी  व्यर्थ हैं।
     एकाएक किसान पुत्र से बेरोजगार हो जाना और नाकाबिल घोषित हो जाना उनके स्वाभिमान को चोटिल कर गया...अब वह पत्नी से भी मिलने से जी चुराने लगा कि वे क्या सोचेगी ?
 बेचारी की शहर की साध पुरा नहीं कर सका।
   और मां -बाप को क्या बताउंगा? उल्टे ताने  कि लौट के बुद्धु घर को आए। हालांकि वे लोग  भी खेती- बाड़ी की बेफयदा काम से अच्छा शहर इसलिए भेजे कि घर की हालात सुधरेन्गे , छोटे भाई -बहन पढ़ लिख काबिल बनेन्गे और दवा ईलाज के लिए शहर में थेभा  भी हो जाएन्गे । पर इन ५-७ दिनों की दौड़- धूप और हर जगह नो वेकेन्सी ने सबके चाहत पर पानी फेर दिए। 
     तभी जोर से डी.जे. बजता धार्मिक जुलुस निकला...औरतें- बच्चें यहां तक बड़े -बुजुर्ग तक  धुमाल पार्टियों के आगे डांस करते ,थिरकते जा रहे हैं। पीछे बग्गी में सजे -धजे संत जी बैठ हैं। आगे भव्यतम झांकी चल रहे हैं। राजनेता अधिकारी - कर्मचारी व  प्रबुद्ध गण पैदल चल रहे हैं।अनेक जगहों पर  स्वागत -सत्कार व चढावें हो रहे हैं। पंगत - संगत की धूम मची हुई हैं - अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम ... भजन लाउड में बज रहे हैं...कारवां निकला और पुनश्च नीरवता छाने लगी। रिश्तेदार  सपरिवार जुलुस कम पंगत में गये हुए हैं...एक गहरी  उच्छवास के साथ वह घम्म! से  खाट पर गिरा!  
            सभी को पता है कि  रात के बाद सुबह होगी,पर उनकी सुबह कब होगी? यह किसी को पता नहीं ।
       
           - डाॅ. अनिल भतपहरी  
लघु कथा 13
।। सत्कार ।।

यह जानकर आश्चर्य हुआ कि आप कवि भी हैं? 
    उसने आदरपूर्वक बिठाते कहते गये - चलिए इसी बहाने मनोरंजन होता रहेगा आपसे कविताएँ सुनकर बोझिल काम की थकान से युं रिफ्रेश होते रहेन्गे ।
जी शुक्रियां !कहते वे बैठे कि धंटी बजाकर एक प्यून को बुलाया और दो चाय बिना कुछ पुछे आर्डर किए ...
    संकोच वश वे कहे जी इनकी जरुरत नहीं वैसे मै चाय नहीं ... बीच में वे बोले काफ़ी चाहिए। 
नहीं .. नहीं सर असल में ऐसा मेरा कोई व्यसन नहीं।
   वे प्यून को रोकते कहे अच्छा चाय व्यसन हैं? 
और खुद ही उत्तर दिए कि भई अब खाना -पीना और स्वागत- सत्कार  को व्यसन  समझे और उनपर रोक -टोक हो ,तो हो गये न जीना, कमाना और खाना !
       आगन्तुक झेंपते हुए कहें ऐसी बात नहीं,असल  मैं चाय पीता नहीं हूं।
    मतलब आप पीते क्या है-
दूध ,लस्सी ,जूस कि ....???

जी पानी पिला दीजिये! चौथे माला  चढ़ते गले जो सुख गये हैं। 
       अरे भाई! यहाँ यही नहीं मिलते...!
वे व्याख्यान देने लगे -
 सबको अपने घर से आरो एक्वा लाने होते हैं इसलिए यहाँ अलग से लगाए नहीं गये हैं। पानी  ऊपर हेड टंकी से आते हैं जो पीने योग्य नहीं  और बाटल किसी को माऊथ  इंफेक्शन के चलते दे नहीं सकते ।आप तो जानते हैं सांस में कितने सुक्ष्म कीटाणु रहते हैं।
     
       तभी उनके मोबाइल कालर बजने लगे - भूखे ल भोजन देबे पियासे ल पानी...

वे अनमने सा प्यून को आर्डर किए एक बिसलेरी और चार ग्लास ।
 साब! कृपा हैं  ... दबी सी जुबान में प्युन हंसते / कहते प्रवेश किया। 
    -डा.अनिल भतपहरी
  लघु कथा 14
"साहित्यकार"
 
    पता नहीं किस दुनियाँ में खोए रहते हैं? न स्वयं की परवाह न  घर- परिवार की सुध ...इनके  पल्लूं बंध जीवन ख्वार हो गया! वो तो मां- बाप की  मान व स्वयं की इज्जत के खातिर ,इनके खुंटे से बंधी हूँ अन्यथा ... पुरे मुहल्ले और कालेज में सबसे प्रखर प्रोग्रेसिव व प्रतिभाशाली रही हूँ ।
     अपनी सहली से फोन पर दु:ख बाटती  हल्का होती रश्मि थोड़ी चमक सी जाती हैं। अन्यथा वह मंद्धिम लौ सी कब बुझ जाएगी पता नहीं? 
    तो यह ध्यान भटकाने की नई तरकीब हैं भई ! काठ की हांडी से ही यहाँ खिचड़ी पकती व खिलाई जाती हैं ... लो देखिए देश में मंदी की भयावह दौंर चल रहा है चहुँओर  बेरोजगारी और ऊपर से ये प्रकृति का कहर !..बावजूद लगे हैं जात- पात, धर्म- कर्म और उलूल- जुलूल कार्य में गोया  कि ऐसा करने से  धर्म- संस्कृति के संरक्षक  कहलाए जाएन्गे । अरे भाई आदमी सुकून से और जिन्दा रहेन्गे तभी तो धर्म, कला -संस्कृति  की महत्ता है। यह कैसी व्यवस्था है कि चंद खाए- पीए,  अधाए की चिन्ता और करोड़ों लोग के लिए अराकताएं व जीवट संधर्ष  ...महान देश में यह कैसी विपदा हैं ? 
    अच्छा ! तुम्हें देश दिखता हैं ,अपना घर- परिवार नहीं ? अपने धुन में खोए चिन्तक साहित्यकार को पत्नी की कर्कश ध्वनि में किसी समीक्षक  वनिता की ध्वनि नजर आई ... वे दार्शनिक सा मुद्रा बनाते कबीर को जींवत करते बुदबुदाने लगे-"जो घर जारै आपने चले हमारे संग ..."
    बेचारी सर ही नहीं छाती भी  पीट रही हैं। उधर साहित्यकार को सम्मानित करने धर्म ,कला -संस्कृति के सरंक्षण संस्थाएँ  सरकार से अनुदानें लेकर आयोजनों  में जुटी हुई हैं।सूचना पाकर उत्सव धर्मी लोग मदमस्त व मगन हैं  आयोजनों के लिए तैयारी जोरो से जारी हैं।

    - डा. अनिल भतपहरी
           9617777514