"सतनाम दर्शन में गुरुमुख संस्कृति "
सतनाम संस्कृति भारत की प्राचीन संस्कृति हैं और यह गुरुमुखी संस्कृति हैं। यह मानव सभ्यता के विकास के साथ ही क्रमिक विकास पर प्रकृतस्थ रुप में अग्येय प्रग्यावान संत गुरु महात्माओं द्वारा संस्थापित हैं। कलान्तर में इनके प्रवर्तको में चाहे बुद्ध, सरहपाद नागार्जुन ,गुरुगोरखनाथ कबीर रैदास उदादास ,जगजीवन या गुरुघासीदास हो वे अपनी मुखार वृन्द से अपने सम्मुख ज नों को उसी मूल सतनाम दर्शन का साधनाओं द्वारा दिग्दर्शन कर सतोपदेश देते आए और विशिष्ट धम्म पंथ का प्रवर्तन किए। उनके बाद धम्मोपदेश या पंथोपदेश देने अनेक प्रग्यावान साधक संत गुरुवंश उनकी ही वाणी चरित को अपनी समझ विवेक और मुख से जनमानस श्रवण कराते रहे हैं। उनकी धम्म पंथादि को गतिमान करते आ रहे हैं तथा प्रचार प्रसार कर रहे हैं और यह प्रणाली गुरु मुख प्रणाली ही हैं ।यह मुखिया या प्रधान वाली प्रणाली नहीं है। पर राजतंत्र के कार्यकाल में गुरुओ और उनके वंशजों ने राजसत्ता भी सम्हाले इसलिये उन्हे प्रधान कहे गये।पर देखा जाय तो राजा होते हुए भी खालसा और सतनाम पंथ में गुरु गुरुवाणी के आधार पर ही चले।वह सांमत जैसे स्वेच्छाचारी व राज नहीं किए बल्कि सत्याचरण सदव्यवहार से जनमानस के समछ धर्मोपदेश ही कहते रहे।रामत रावटी शोभायात्रा जुलुस गुरुदर्शन पर्व आदि में जनमानस के सम्मुख उपदेशना ही किए। और जनता भी गुरुमुखी होकर उनके वचनो को शिरोधार्य किए।
अत: यह स्वमेव सिद्ध होते हैं कि गुरुमुखी संस्कृति से गुरु जन अपनी ग्यान विवेक से लोगो के मन ,बुद्धि,और हृदय पर रमन करते हैं। न कि वह शक्तिशाली या अधिक लोगों के बीच लोकप्रिय आदि होकर उनके मुखिया प्रतिनिधि बनकर उनके प्रधान बन राज पाट करते हैं।
परन्तु जाने अनजाने में आध्यात्मिक व धार्मिक पद धीरे धीरे राजनैतिक पद में बदल कर सत्ता की प्रभाव व बल में परीणित होते जा रहे हैं। जबकि भारत वर्ष की सतनाम संस्कृति में सदैव संतो गुरुओं के समक्ष राजा सामंत मंत्री आदि नतमस्तक होते रहे हैं।
इसी सतनाम संस्कृति में "अपन धट के देव ल मनइबोन "
गुरुघासीदास ने छत्तीसगढ़ में सतनाम धर्म की प्रवर्तन करते कहा कि हे संतो अबतक जाने अनजाने में जिस मान्यताओं को जन्म से मृत्यु तक मानते आ रहे हैं वह निरा भ्रम व मिथक हैं ।उन्ही के कारण दु: ख संताप कलह अशांति और शोषण के शिकार हैं। इन सबसे बचना हैं तो सर्व प्रथम कल्पित देव और उनके कल्पित निवास स्थल मंदिर आदि जाना त्यज्य दे मूर्तिपूजा पुरोहितों को दान दछिणा देना बंद कर दे क्योकि यह सब मन को बहलाने वाला भ्रमित करने बहेलिया हैं ।यह सब करते क इ जुग बित गया पर अबतक मानव जीवन कोई बदलाव आया ही नहीं ।मंदिर नही वह मंदरिवा हैं जहा राग रंग रति दान दछिणा के नाम पर शोषण आशीर्वाद के नाम छल कपट द्वेष प्रपंच से युक्त मानसिक व धार्मिक गुलामी दी जाती हैं। इसलिए वहां जाना व्यर्थ हैं ।का करने जाय ?
यदि सुमरन करना हैं भाव भक्ति ही करना हैं तो अपने धट में विराजमान अनेक तरह के सद्गुण हैं। उनकी अराधना करे ।ऐसा एकत्रित संत समुदाय को धर्मोपदेश देते उनकी श्रीमुख से यह काव्यात्मक पंक्ति नि:सृत हुआ -
मंदिरवा म का करे जइबोन
अपन घट के देव ल मनइबोन .....
धट शब्द बहुअर्थी हैं।
एक यह शरीर
दुसरा उस शरीर का अंतस भाग
तीसरा मन हृदय बुद्धि
चौथा घर जहा हम निवास करते हैं।
पाचवा वह परिछेत्र जहा समुदाय सहित रहते हैं
इस आधार पर एक से दूसरे या आसपास रह रहे समुदाय से परस्पर सकरात्मक संबंध
अब इन्हे तरह से देखे -
धट का देव सत्य करुणा परोपकार प्रेम आदि हैं।
और घर में देव दादा दादी माता पिता बडे भाई भाभी हैं। उन्हे आदर दे उनकी पूजा सत्कार करे।
गुरुघासीदास की सत्य अमृतवाणी - "अपन धट के देव ल मन इबोन" का आशय यही हैं।
सद्गुण को धारण करते जो बडे बुजुर्ग अनुभवी हैं को आदर सत्कार देते सात्विक जीवन ही सार हैं। ऐसा करने मात्र से व्यक्ति को जीते जी परमपद या पद निरवाना की प्राप्ति होती हैं।
इस आशय का पंथी मंगल भजन हैं-
भजौ हो गुरु के चरणा अहो मन मेरा-
सभी इन्द्रियों सहित हाथ पैर की आकांछा व्यक्त करते हुए अंतिम अंतरा में वर्णित हैं-
अंतस म संतो सतनाम ल बसाइतेव
दया मया सत म ये जिनगी पहाइतेव
जिनगी पहावत परम पद पाइतेव
परम पद पाइके ये हंसा ल उबारितेव ...भजौ हो गुरु के चरणा ....
इस तरह देखे तो सतनाम धर्म ईश्वराश्रित नही सद्गुणाश्रित महान व्यवहारिक और सत्य पर आधारित समानता से युक्त मानवतावादी धर्म हैं। जो सभी अनुयायियों को सदैव सद्गुण से युक्त परस्पर प्रेम व सौहार्दपूर्ण आचरण करने की प्रेरणा देता हैं। न कि इन गुणो से रहित किसी की पूजापाठ दान दछिणा व्रत उपवास तीर्थ आदि की प्रेरणा देता है।
सात्विक रहन सहन और अपने आसपास के लोगो से सौहार्द्रपूर्ण व्यवहार और सत्संग ही मानव जीवन का सार हैं। यही भाव को धारण करना ही धर्म हैं।
सतनाम धर्म अपनी मूल प्रवृत्ति में सरल सहज व सबसे निराला हैं। इनके अनुयाई होना सौभाग्य एंव स्वाभिमान की बात है।
।।सतनाम ।।
डा अनिल भतपहरी
९६१७७७७५१४
जुनवानी ,रायपुर
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