[3/28, 12:44 PM] anilbhatpahari: "पंथी नृत्य "
पंथी नृत्य सतनाम पंथ का एक आध्यात्मिक और धार्मिक नृत्य के साथ एक अनुष्ठान है। सामूहिक अराधना हैं। इसके द्वारा बाह्यस्वरुप मे मनोरंजन एंव अन्त: स्वरुप मे आध्यात्मिक साधना है।
आरंभ मे यह भावातिरेक मे निमग्न भक्तजनों का आनंदोत्सव मे झुमने और थिरकने की क्रिया रहा है .... जो धीरे धीरे विकसित होकर नृत्य मे परिणीत हो गये।
छत्तीसगढ मे सतनाम पंथ का प्रवर्तन गुरु घासीदास ने सत्रहवी सदी के पूर्वार्ध मे १७९०-के दशक मे किया।वे समकालीन समय मे धर्म कर्म और समाज मे व्याप्त अंध विश्वास पांखड एंव कुरीतियो के विरुद्ध सदाचार और परस्पर भाईचारे के रुप मे सतनाम पंथ का प्रवर्तन किया। व्यवहारिक स्वरुप मे व्यक्तिगत व सामूहिक आचरणगत इसे निभाने हेतु नित्य शाम को वे सांध्य आरती पंगत संगत और अंगत का आयोजन गाव गाव रामत रावटी लगाकर करते और समाज मे निरंतर इन व्यवस्था को कामय रखने साटीदार सूचना संवाहक अधिकारी ।और भंडारी चंदे धन एव अन्य सामाग्री के प्रभारी अधिकारी के रुप मे नियुक्त किए एंव महंत जो संत स्वरुप और प्रग्यावान व प्रभावशाली थे की नियुक्ति कराकर अपनी सतनाम सप्त सिद्धान्त और अनगिनत उपदेशो व अमृतवाणियो का प्रचार प्रसार करते भारतीय संस्कृति मे युगान्तरकारी महाप्रवर्तन किए।
कलान्तर मे उनका यह मह्ती अभियान सतनाम पंथ के रुप मे स्पष्ट: रेखांकित हुई।
इस पंथ मे गाए जाने गीत पंथी गीत और उन गीतो धुनो मे भावप्रवण नृत्य की विधा पंथी नृत्य के रुप मे विश्व विख्यात हुई।
पंथी नृत्य से छत्तीसगढ राज्य की सत्य और सादगी से युक्त सांस्कृतिक छवि विश्व मे स्थापित हुई।सर्वाधिक तेज गति की यह नृत्य प्रख्यात रंगकर्मी पद्मविभुषण हबीब तनवीर के अनुसार सारी दुनिया को महज १० - १५ मिनट की पंथी नृत्य की प्रदर्शनी चकित करती रही है।
इस नृत्य के ख्यातिनाम नर्तक देवदास बंजारे ६५ देशो मे इनका शानदार प्रदर्शन कर एक मिशाल कायम किए।उसी तरह डा आर एस बारले एंव प्रतिमा बारले ने एक साथ २०० मादर वादको के साथ विराट स्वरुप मे पंथी नृत्य प्रदर्शन कर सर्वप्रथम वैश्विक कीर्तिमान स्थापित किए ।२०१५ मे विश्व सांस्कृतिक विरासत महासम्मेलन मे ११०० पंथी नर्तक एक लय धून मे आर्ट आफ लिविन्ग संस्था के सौजन्य से यमुना तट न ई दिल्ली मे इस आध्यात्मिक व धार्मिक नृत्य की प्रस्तुति देख सारा संसार सम्मोहित सा हो गये। यह पंथी नृत्य की आपार सफलता का स्वत: परिचायक है।
पंथी नृत्य उद्भव व विकास - पंथ से संबंधित होने के कारण इस के अनुयायाई की यह नृत्य पंथी नृत्य कहलाई। साथ ही इन नृत्य मे प्रयुक्त होने वाले गीत पंथी गीत के रुप मे स्थापित हुई।
पंथ शब्द पथ से निर्मित है ।
पथ का अर्थ मार्ग या रास्ता है।जिसपर चलकर अभीष्ट स्थल तक पहुंच सके।
जैसे दो गाव को शहर को जोडने वाला मार्ग या गाव से तालाब या नदी पर्वत तक पहुचने का रास्ता पगडंडी या सडक। यह भौतिक रुप मे विद्यमान व अवलोकनीय रहते है।इस पथ पर व्यक्ति का शरीर उनके द्वारा निर्मित वाहन आदि चलते है।
इसी पथ मे अनुस्वर लगने से वह पंथ हो जाते है ,इसका अर्थ हुआ विशिष्ट मार्ग । इस पर व्यक्ति का मन मत और विचार चलता है।और धीरे धीरे वह परंपरा और विरासत मे परीणित हो संस्कृति के रुप मे स्थापित हो जाते है।
इसी सतनाम पंथ की धार्मिक क्रिया है पंथी नृत्य।
यह प्राय: सामूहिक होते है।आदर्श संख्या १५ इसमे वादक भी सम्मलित है। पंथी नृत्य मे गायक मादंरवादक झांझ वादक झुमका वादक रहते है।स्वतंत्र रुप से १० नर्तक ३ वादक एक गायक व एक नृत्य निर्देशक सीटी मास्टर ।इस तरह १५ सदस्य को आदर्श माने जाते है।
पंथी नृत्य पुरुष प्रधान नृत्य है ।यह सतनामियो मे बारहो माह प्रतिदिन शांयकालीन जैतखाम व गुरुगद्दी गुडी के समछ की जाने वाली अनुष्ठानिक नृत्य है।इसके द्वारा आध्यात्मिक उत्कर्ष और चलित सामुहिक साधना द्वारा चरमोत्कर्ष आनंद की प्राप्ति है।
नृत्य करते करते अपनी अंतिम तीव्रावस्था मे नर्तक आत्मलीन हो जाते है और नृत्य की समाप्ति पर शांत चित्त मंडप मे ही बैठ या लेटकर भाव समाधि मे आबद्ध हो जाते है।गुरुप्रसाद व अमृतजल पाकर कृतार्थ हो जाते है।
मांदर की धोष ध्वनि और झांझ झुमका मंजीरे की रणत नाद उन्हे शीध्र भाव समाधि की ओर प्रविष्ट कराते है।इनके दर्शकों को भी यह रोमाचित व प्रभावित करते है।कही कही दर्शक देवता चढ जाते है।इसे सतपुरुष बिराजना कहते है।इसे स्थानीय जन देवता चढना भी कहते है जैसे जवारा और गौरा पूजा मे लोग चढ जाते है और झुपने लगते है।पंथी मे सतपुरुष बिराजने पर वह जमीन मे लहरा लेते हुए लोटने लगते है। भंडारी महंत उन्हे जैतखाम के समीप ले जाकर अमृतजल देकर नाडियल फोडकर शांति कराते है।
आजकल रिकार्ड और एकल प्रस्तुति से क्वालिटी व विशेषताओ को रेंखाकित करने एकल प्रस्तुतियां भी होने लगे हैं।
पंथी नृत्य का स्वरुप - पंथी के अनेक प्रकार है । भावगत व छेत्रगत विभिन्नताओं के कारण इनका सहज निर्धारण किए जा सकते है-
१ भावगत - पंथी गीत की रचना अनेक भावों को लेकर की गई है इनमे प्रमुखत: अध्यात्म ,धर्मोपदेश ,लोकाचार , शौर्य पराक्रम एंव चरित कथा गायन के आधार पर भावाभिव्यक्ति करते हुए नृत्य प्रदर्शन ।
२ छेत्रगत - अलग अलग परिछेत्र मे प्रचलित वेशभूषा, भाषा- शैली एंव सांगितिक विभिन्नताओ से युक्त प्रदर्शन ।
प्रमुख पंथी नर्तक दल - पंथी नृत्य दल प्राय: सभी सतनामी ग्रामों मे गठित है।अनुयाई आरंभ मे एक सांध्य अनुष्ठान के रुप मे प्रतिदिन शायंकालीन जैतखाम या सतनाम भवन के समीप एकत्र होकर पंथी नृत्य करते है ख्यातिनाम पंथी नर्तकों मे देवदास बंजारे, पुरानिक चेलक , दिलीप बंजारे ,करमचंद कोसरिया, प्रेमदास भतपहरी , कनकदास भतपहरी , सी एल रात्रे ,डा एस एल बारले , दिनेश जांगडे, हीराधर बंजारे मालखरौदा मनहरण ज्वाले कोरबा श्रवण कुमार चौकसे कोरबा रामनाथ रात्रे अकलतरा सूरज दिवाकर गिधौरी ,दिनेश जांगडे रायपुर , सुखदेव बंजारे मिलापदास बंजारे डा एस एल बारले अमृता बारले भिलाई सहित अनेक नाम है जो राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित है अनवरत पंथी नृत्य को साध रहे है।
कालाहांडी उडीसा मे घुमरपंथी नृत्य और असम मे बिहु सदृश्य पंथी नृत्य का मुग्धकारी प्रदर्शन वहा निवासरत सतनामी करते आ रहे है।
[पंथीनृत्य मे प्रयुक्त सामाग्री -
पंथीनृत्य अत्यंत सादगी पूर्ण होते है। जिस तरह व्यक्ति साधारणत: दैनिक जीवन व्यवहार मे रहते है यथावत केवल पांवो मे पहने खडाऊ जूते चप्पल उतार कर सीधे हाथ पांव पानी से धोकर अपने ऊपर जल परछन के शारीरिक व आत्मिक शुद्धिकरण कर सीधे नृत्य दल या नृत्य मे प्रविष्ट हो जाते है। कांधे पर सततागी जो सात कुंवारी धागो का समुच्चय है। जिन्हे विवाह के समय फेरे लेते पुरुष वर्ग द्वारा गुरु संत महंत भंडारी साटीदार और वर वधु के समछ जीवन निर्वाह करने समाज घर परिवार की जिम्मेदारी निभानेवर वर को धारण करवाए जाते हैं। इसे सततागी प्रथा कहते हैं। साधारण बोलचाल मे इसे मडवा दुनना भी कहे जाते हैं।आजकल इसे जनेऊ भी कहे जाने लगे हैं। पुरुष सततागी व महिलाए कंठी धारण करते हैं। कुछ पुरुष सततागी धारण करने के कठोर नियम के चलते कंठी धारण कर लेते हैं।
पारंपरिक रुप मे पंथी प्राय: अर्धविवृत देह जिनपर सततागी ( जनेऊ ) गले मे कंठी माला धारण कर माथे पर श्वेत चंदन तिलक लगाए जाते है।नीचे कमर से लेकर धुटने तक श्वेत धोती और पांव मे धुधरु बंधे हुए होते है।
निरंतर पंथी नृत्य के साधने से नर्तक के देहयष्टी आकर्षक सुडौल होते है। एक समान कद काठी रंग रुप मे समानता से युक्त अनेक नृत्य दल बेहद आकर्षक व सम्मोहक लगते है।
वाद्ययंत्र.
पंथीनृत्य मे निम्न वाद्ययंत्र प्रयुक्त होते है-
१ मांदर - यह प्रमुख आधार वाद्ययंत्र है।पंथी मे मांदरवादक और गायक यह दो लोग ही आधार है।
मांदर मिट्टी के और लकडी खासकर आम पीपल जैसे गोलाकार व अपेछाकृत वजन मे कम काष्ट से निर्मित होते है।
लकडी के मादंर ही आजकल अधिक प्रयुक्त होने लगे है।क्योकि यह सहज परिवहन और हल्की पर मजबूत होते है। धेरे आसन मुद्रा व पिरामिड बनाने तथा उनपर चढकर लकडी का मांदर वादन सुविधाजन्य होते है।
मिट्टी के मांदर प्राय: बैठकर बजाए जाते है और यह मंगल भजन व महिला पंथी दलों मे सर्वाधिक प्रयुक्त होते है।
मांदर धोष ध्वनि वाद्ययंत्र है जो दोनो शिराओ मे चमडे मढे रहते हैं। और उनके ही रस्सी जिसे बद्धी कहते हैं से कसे होते हैं। बीच मे खरवन लगाते है और अनेक लेयर से इसे परिश्रम पूर्वक धीसे रहते है ।इन्हे बनाने वाले खास जाति जिसे गाडा कहते हैं। ये लोग अनेक तरह के वाद्ययंत्र बनाने बजाने मे निपुण होते है। यह वाद्ययंत्र भारतीय जनमानस खासकर छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति मे अभिन्न हिस्सा हैं। चाहे करमा पंथी जसगीत डंडानृत्य बारनृत्य हो मांदर अनिवार्य है।इनके बिना उक्त नृत्य और गीत की कल्पना ही नही की जा ससकती।
2 झांझ -मंजीरे से बडा रुप झांझ है ।यह कांसा धातु से बडा प्लेट आकार के जिनके बीच से रस्सी फंसाकर दोनो हाथ से चलित परस्पर टकराकर बजाते है (ताली बजाने के स्थान पर) इससे निकली ध्वनि की अनुगूंज मन को तरंगित करते है यह एक विशिष्ट ताल वाद्य है ।मांदर और झांझ की जुगलबंदी से निकली ध्वनि श्रोताओं को एक अलग दुनिया मे प्रविष्ट कराते हैं।केवल झांझ बजाकर चौका आरती भी किए जाते रहे हैं। झांझ चौका मे प्रयुक्त होने वाले आधार वाद्ययंत्र हैं।तो पंथी का आधार वाद्ययंत्र मादर हैं। दोनो की संयुक्त ध्वनि से भक्ति मय वातावरण निर्मित होते हैं।
३ धुंधरु- प्रत्येक पंथी नर्तक पावों मे धुंधरु बांधकर नृत्य करते हैं ।और कदमताल इस तरह मिलाते हैं कि सभी नर्तको के पावों का संचालन समान हो ,पदाधात एक सा हो ताकि उनसे घुंघरु एक साथ झंकृत हो और उससे निकलने वाली ध्वनि समान हो।
घुंघरु पीतल कांसे से बना छोटी छोटी बाटी आकार गोलाकार की खोखली आकृति है जिनके ऊपर रस्सी फसाने हूक लगे होते हैं। इन्हे रस्सी मे बांधकर ५० - १०० की संख्या मे नर्तक के पैरो मे बाधे जाते हैं। और पावों की थिरकन से इनसे निकली स्वर को मांदर के थाप से जोडे जाते हैं।
4झुमका - पंथी नृत्य मे प्रयुक्त तीसरा वाद्ययंत्र झुमका है ।यह पीतल या स्टील से बने गोलाकार पर बीच से पोली जिसमे कुछ स्टील के छर्रे भरे हुए होते हैं। यह एक लकडी के डंडे मे बधे दोनो हाथ से हिलाने से इसमे खनखनाहट की ध्वनि उत्पन्न होते हैं। यह नर्तक दलों की पावों मे बधे धुंधरु के मिलकर मधुर ध्वनि उत्पन्न होता हैं।इससे श्रवण करने आनंद प्राप्त होते हैं। कुशल नर्तक बीच मे केवल झुमका के साथ बिना मादर झांझ के पदाधात की ताल और घुंघरु व झुमका की संयुक्त ध्वनि से नृत्य कर विधुन हो जाते हैं बीच बीच मे इस तरह का अनुप्रयोग पंथी दलों मे होते हैं।
इस तरह देखे तो पंथी जो मांदर और दोनो हाथ के ताली साथ आरंभ हुई उसमे झांझ और झुमका जुडा और नर्तक पांवों मे धुंधरु बांधने लगे। महज ये तीन और धुंधरु के साथ चार वाद्ययंत्र ही पंथी का आधार वाद्ययंत्र के रुप मे प्रचलन मे रहे।
धीरे से इसमे चिकारा हारमोनियम और बेन्जो भी सम्मलित होने लगे आजकल इलेक्ट्रॉनिक वाद्ययंत्रों का सर्वाधिक उपयोग होने लगे हैं।
पंथी आयोजन का तिथि व समय - पंथी नृत्य सतनाम पंथ मे एक अराधना या इबादत की तरह है अत: इनका आयोजन प्रायः प्रतिदिन आयोजित होते हैं। केवल मरनी- हरनी और बरसात आदि को छोडकर।वैसे बारिश के दिनो मे भी गायन -वादन चलते रहते थे।
कलान्तर मे पंथीनृत्य गुरुघासीदास जयंती,एंव अन्य गुरुओ के जयंती व पुण्यतिथि मे आयोजित तो होते ही हैं। इसके अतिरिक्त शादी विवाह मे चलमाटी लाने बरात परधाने मे भी पंथी नृत्य की मनोहारी प्रदर्शन होते हैं।
आजकल अनेक जगहों पर गुरुपरब या लोकोत्सव एंव शासकीय आयोजनो में पंथी होने लगे हैं। और अपनी १०-१५ मिनट (इस अवधि एक भजन गाए जाते हैं।) की प्रस्तुति से पुरा महौल भक्तिमय हो जाते हैं। और उत्साह उमंग दर्शको श्रोताओं मे छा जाते हैं।
पंथी मे निरंतर नवाचार हो रहे हैं। अनेक वादयंत्रो के अनुप्रयोग और तेजी से भाव युक्त बनते बिगडते आसन आकृतियाँ (पिरामिड ) दर्शनीय होते हैं। पंथी का भविष्य उज्ज्वल हैं। प्रदर्शन भी भव्यतम और वैश्विक रिकार्ड के स्तर पर होने लगे पर जो सादगी और आध्यात्मिक व परमानंद की भाव से युक्त श्रद्धा भक्ति का यह नृत्य था जो इबादत और अराधना और अनुष्ठान जैसा था वह कही धीरे धीरे तिरोहित होने लगे हैं। पंथी मे उक्त भाव भक्ति व श्रद्धा आस्था जो आधुनिकता के चलते छरित होने लगे है उनका संरक्षण आवश्यक हैं।
अन्यथा यह केवल प्रदर्शन की वस्तु बनकर रह जायेन्गे ।
- डा अनिल कुमार भतपहरी
9617777514
सी - 11 ऊंजियार - सदन आदर्श नगर ,अमलीडीह रायपुर छत्तीसगढ
[3/28, 1:07 PM] anilbhatpahari: पंथी गीत १
जगमग जोत जलय हो सतनाम के मंदिर म ...
काकर घर परे निस अंधयरियां काकर अंगना दियना बरे हो ...
मुरख अंगना निस अंधयरियां
ग्यानी के अंगना दियना ल बरे हो...
काकर घर म बिस के लहरा
काकर घर म अमरित चुहय हो ..
पापी के घर म बिस के लहरा
धर्मी के घर म अमरित चुहय हो...
पंथीगीत २
साखी - घासीदास घनघोर गुरु पग बंदव कर जोर।
भूले सुध सुरता दिहव गुरु मोर सबद कहंव तोर ।।
मय कहंवा ल लानव हो आरुग फुलवा
क इसे मय चढावंव साहेब आरुग फुलवा ..
१ बगिया के फूल ल सबो भौरा जुठारे हे साहेब
कहा ले आरुग फूल लान चढावव साहेब ...
२ गाय के गोरस ल बछरु जुठारे हे
कहा के आरुग गोरस लानव साहेब
३ कोठी के अन्न ल सुरही जुठारे हे
कहा के आरुग चाउर के तस्म ई बनानव साहेब
४ नदिया के पानी ल मछरी जुठारे हे
कहा के आरुग जल मय लानव साहेब ....
५ आरुग हवे मोर हिरदय के भाव साहेब
ओही ल सरधा से तोर चरन म चढावंव साहेब ...
पंथी गीत ३
साखी - हाथ गोड नंदी नाला भये कि पेट भये संमुद ।
दु ई नैन भये कारी बदरिया ,टपक टपक चुहे बुंद ..
टपक टपक चुहे बुंद होत हे सकल काल की छय ।
बार बार सब प्रेम से बोलव सतनाम की जय।।
भजव हो गुरु के चरणा अहो मन मेरा ..
अहो मन मेरा साहेब अहो मन मेरा सुमरव हो गुरु के चरणा अहो मन मेरा ....
नैन मोर कहिथे गुरुदरसन करितेव
गुरुदरस करके परम पद पाइतेव
परम पद पाइके ये हंसा ल उबारितेव ....
२ नासिका मोर कहिथे चंदन सुवास लेइतेव
[3/29, 5:21 PM] anilbhatpahari: भावार्थ ३
साखी - मानव शरीर के यह अंग यथा हाथ और पैर नदी नाले हैं। और पेट सागर हैं। जहां विषय वासनाए जल सदृश्य बहकर एकत्र होते रहते हैं। या कहे हाथ पांव ही नदी सदृश्य परिश्रम करके पेट रुपी सागर को भरते रहते हैं।
यह नैन काली धटा हैं जिससे बारिश की बुंदे टपक रहे हैं।
सकल काल यानि बुरे वक्त नष्ट हो और अच्छा समय आए ऐसे सद्गुरु से कामना करते सतनाम की सदा जय हो !
यहाँ पर एक भक्त सद्गुरु के समछ नम्र निवेदन करते हुए कह रहे हैं कि हे मेरे अंग प्रत्यंग जिनकी संरचना सतपुरुष ने बडे मनोयोग से किए ताकि उनका सही और उचित अनुप्रयोग कर जीवन को धन्य करे।पर यह क्या मै केवल अच्छा सोचते रहता हू और हंसा उबारकर मुक्ति पाने की ख्याली पुलाव बनाते रहता हू पर वह इस मायावी संसार से प्रभावित रहते हैं। अत: आर्तनाद पुकारते दृढप्रतिग्य हो कह उठते हैं- कि हे मेरे मन अब तो सद्गुरु चरण की वंदना करो।
ताकि उनकी कृपा से यह हंसा तरे और परमपद की प्राप्ति हो।
यह नेत्र की अभिलाषा है कि वह सद्गुरु के दर्शन करे ,नासिका चंदन सुवास लेना चाहते हैं और कान सद्गुरु की वाणी श्रवण करना चाहता ।इसी तरह मुख गुरुवाणी उच्चरित कर गुरु प्रसाद ग्रहण करने के आकांछी है।
हाथ दान पुण्य करना चाहता है। गुरु की आरती करने की मंगलकामनाए करता है पैर सद्गुरु धाम जाकर धन्य होना चाहते हैं ।पर उनकी मनोकामनाएं क्यो अपूर्ण है?
और यह हंसा क्यो कष्ट मे हैं। पद निरवाना क्यो कर नही मिल पा रहे हैं?
[3/29, 8:42 PM] anilbhatpahari: 4 पंथी मंगल भजन
बीज मंत्र सतनाम है गुरु संत हिरदय सो खेत।
भलि फसल ऊपजावहि गुरु करंव भजन म चेत।।
करमा बने हे धरमा बोये हवय धान
नाम के नंगरिहा चलय खेत जोते सियान ...
बल रुपी बइला चाप रुपी नांगर
धरम धरती के ऊपर रेंगे दुमन आगर
दरिया होइगे हैरान ,गाभी बने हे गुमान ....
बुद्धि के बियासी अउ नियम के निंदाई
प्रेम रुपी पांत घरके चाल हे चलाई
पानी भरे हवे परान ग्यान गंगा समान ....
सत रुपी सफरी हे मन मदुरिया धान
बुद्धि दुबराज बाको गुन गुरमटिया समान
धान लुवत हे किसान होवय देश महान ....
भावार्थ - गुरुघासीदास बाबा जी कहते है - सतनाम ही बीज रुपी महामंत्र हैं। और संत पुरुष का हिदय ही खेत है।
सद्गुरु की कृपा से मनभावन लहलहाती फसले ऊपजेन्गे हे संत जन भाव भजन मे ही चेत लगावे ध्यान लगावे ।
कृषि वृत्ति द्वारा बाबा जी इस भजन के माध्यम से जनमानस को उपदेशना देते कहते हैं कि सत रुपी पुरुष ही कुशल किसान बनकर इस संसार मे धर्म रुपी धान बो रहे हैं।
यहां नाम धारी नगरिहा चाहे वह घासी हो या अन्य नागर अर्थात हल चलाने निकल पडे है।
उनके बल या पुरुषार्थ रुपी बैल हैं। और चाप या ग्यान रुपी नागर हैं जो इस धर्म रुपी धरती पर तेज गति से चल रहा हैं।
तेजी धान बोवाते देख कर उनमे सिंचित करने वाले दरिया अर्थात नदी तालाब पोखर हैरान है कि कैसे इतने विशाल छेत्र को सींचित कर सकुंगा। गाभी अर्थात खेत का ऊपजाउ पन बडे ही गर्व से अपने अंदर स्वाभिमान भर रहे हैं कि इसे मै अच्छे से संवारुगा।
बुद्धि रुपी बियासी हो गये है और नियम से निंदाई कर सारे खरपतवार को निकाल दिए गये हैं। प्रेम रुपी पात धरे हुए हैं। अर्थात् हर चीज प्रेमपूर्वक आबद्ध है। कोई चीज अस्तवस्त नही।चाक चौबंद से धर्म रुपी कृषि कार्य निष्पादन हो रहे सुन्दर आगे प्रयाण किए जा रहे आगे चाल चले जा रहे हैं। सद्गुरु ही सफल कृषक हैं।
प्राण रुपी पानी लबालब भरा हुआ हैं। ग्यान की गंगा अनवरत सदानीरा सदृश्य प्रवाहमान है।
ऐसी सम और सुखद संयोग से सत रुपी सफरी धान की बालियां लहलहा रहे हैं। इसके कारण सब पहचाने जा रहे हैं। देखिए उधर बुद्धि रुपी दुबराज बाको धान है जो अपनी सुगंध फैला रहे हैं। और इधर गुण रुपी गुरमटिया धान भी इठालाने झुमने लगे हैं।
इस तरह सद्गुरु इस महान देश मे धर्म रुपी धान उगाकर सनाड्य हो रहे हैं। सर्वत्र सुख शांति और सत्य का विस्तार हो रहे हैं।
५ पंथी मंगल
साखी - प्रथम गुरु को सुमरनि जिहि जनि रचि जहान
पानी से पैदा हुए कि सतपुरुस निरवान ...
सतपुरुस एक वृक्ष बने निरंजन भ इगे डार..
तीन देख साखा भये कि पन्ना भये संसार ....
मुखडा - सुमरन गांवव तोर बंदना ल गांवव तोर
घासीदास बबा पंइय्या परत हवन तोर ....
यह संसार जलारंग भारी
क इसे उत्पति सृष्टि बिस्तारी
तंय बता दे गुरु मोर ग्यान लखा दे गुरु मोर ....
जीव जन्तु से भरे संसारा
अपनेच सख से करे निस्तारा
हद्द मे बंधै फिरे चहुं ओर ...
हद छाड गये जो अन हद
पावै दुख पीरा बड बिपत
सतनाम सुमरन मुकति हे तोर ...
भावार्थ -
साखी - सर्व प्रथम सद गुरु का सुमरन है जिन्होने यह सुन्दर व भव्य जहान की संरचना किए हैं।
यह संसार पानी से उत्पन्न है और सतपुरुष ही समस्त चराचर का निरवान या संचालन कर रहे हैं। और सभी अपने सीमाओ मे आबद्ध है।
सतपुरुस एक विशाल काय वृछ हैं। इनके तना निरंजन हैं।
जिनके शाखा त्रिदेव हैं। (अर्थात निरंजन और आद्या से ही तीन देव ब्रम्हा विष्णु शिव बने वही भारतीय संस्कृति के ३ शाखाए हैं। पल सभी के जड बीज सतनाम ही हैं।) और उस वृछ के अनगिनत असंख्य पत्ते ही यह संसार और जनमानस है।
हे सदगुरु गुरुघासीदास हमलोग आपके शरणागत है। आपकी सुमरन कर रहे हैं। वंदना गा रहे हैं। आप प्रग्यावान महाग्यानी है कूपया हमारी शंकाओ का समाधान करे कि यह संसार और इनमे विविधताए है। उन सबकी संरचना कैसे हुई किसने किया और वे कैसे स्थिर हैं।
गुरुघासीदास कहते हैं कि यह सृष्टि का विस्तार सागर से हैं। यह संसार पहले जलाजल थे।धीरे धीरे इनमे सप्तद्वीप नव खंड उभरे और उनमे आद्राज उष्मज पिण्डज अंडज चार राशियों मे जीव जन्तु की उत्पत्ति हुई।
इन जीवजन्तु से संसार भरा परस्पर द्वन्द्व हुए पर जो शक्तिशाली बलशाली रहे वह टिका रहा वे अच्छे से निस्तार कर सका ।
हर चीज प्राकृतिक नियमो मे आबद्ध है। जिसने हद पार किए या तोडे उनका विनाश हुआ।
और वे दुख पीडा एंव संकट से ग्रसित रहे ।
इन संकट से दुख से मुक्ति सतनाम सुमरन और ग्यानार्जन ही हैं। इसी से सबकी निरवान व मुक्ति संभव हैं।
६ पंथी मंगल गीत
साखी -
डोंगरी ऊपर जाइके सत म धियान लगाय
सब संतन सकेल के गुरु
गुप्त भेद बतियाय ..
तय तो राधि डारे जेवन हो आगी के बिना आगी के बिना साहेब पानी के बिना ....
तन कर चुल्हा मन कर अगिन ज इल्या हो
देखो अजब रसोइय्या ...
हिया कर हडिया भक्ति करि भात चित्त के चेटवा चल इय्या हो ...
बरी बैराग बरम कर बटकर
करम करेला तरोइय्या हो ....
दया के दाल भाव के भाजी
चटनी चाल चतुर इय्या हो ....
आदम आमा आचार विचार के
पतरी प्रेम परसोइय्या हो ...
धट कर धीव विस्वास सुपारी
सरधा सवांस सहरैय्या हो ...
घासीदास गुरु के गारी गावै
सद्गुरु हवे जेवनइय्या हो ....
भावार्थ -
पहाड़ी की शिखर पर अर्थात उच्च धरातल पर अपने विशिष्ट शिष्यों को लेजाकर गुरुघासीदास ने सतनाम पर ध्यान लगाकर उन शिष्यो को और उपस्थित जनसमूह को सतनाम की गुप्त ग्यान को सार्वजनिक किया लोगो को अवगत कराया ... जिससे उनकी सारी छुधा मिट ग ई वे सब तृप्त हो संतत्व को प्राप्त किए ।
इस प्रसंग से अल्हादित संत गा उठे ...
देखो देखो हमारे कुशल रसोइय्या कैसे बिना आग और पानी का जेवन अर्थात भोजन बनाया और हम सभी को प्रेम पूर्वक परोसकर खिलाकर तृप्त कर दिए ...
तन का चुल्हा मे मन की आग जलाया हृदय रुपी हांडी मे भक्ति रुपी भात पक रहे है जिस पर चित्त रुपी चटुआ से खेये जा रहे है। वैराग्य की बडिया जो रुखी सुखी कठोर है पर अप्रतिम स्वाद उनके वह पकाये जा रहे है जिनके ग्रहण से भ्रम निवारण होते है। बटकर भी रखे गये और दया का दाल व भाव की भाजी पकाई जा रही हैं। चाल चतुराई रुपी चटनी तीछ्ण है जो भोजन को स्वादिष्ट व चटपटा बना रहे हैं। आदत रुपी आम का आचार बना है विचार का भी उसमे समाहित है अर्थात स्वभाव का और विचार ही सजकर स्वादिष्ट आचार बना है।
प्रेम रुपी पत्तल बिछा है और सद्गुरु उसमे यह सब सामाग्री परोस रहे हैं। धी डाले गये है जिनकी सुंगध सुवासित हैं। विस्वास रुपी पान सुपाडी है और लौग इलायची सुगंधित सुवास है जो प्रशंसनीय है। सेहराने लायक हैं।
घासीदास गुरु के यह प्रशंसा गा रहे हैं। कि ऐसे अजब रसोइय्या है जो बिना आगि पानी के स्वादिष्ट भोजन पकाकर संत जनो को प्रेम पूर्वक ग्यानभोग करा कर संतृप्त किए छप्पन भोग कलेवा कराए ।और तृप्त किए।
[3/30, 9:32 AM] anilbhatpahari: 4 पंथी मंगल भजन
बीज मंत्र सतनाम है गुरु संत हिरदय सो खेत।
भलि फसल ऊपजावहि गुरु करंव भजन म चेत।।
करमा बने हे धरमा बोये हवय धान
नाम के नंगरिहा चलय खेत जोते सियान ...
बल रुपी बइला चाप रुपी नांगर
धरम धरती के ऊपर रेंगे दुमन आगर
दरिया होइगे हैरान ,गाभी बने हे गुमान ....
बुद्धि के बियासी अउ नियम के निंदाई
प्रेम रुपी पांत घरके चाल हे चलाई
पानी भरे हवे परान ग्यान गंगा समान ....
सत रुपी सफरी हे मन मदुरिया धान
बुद्धि दुबराज बाको गुन गुरमटिया समान
धान लुवत हे किसान होवय देश महान ....
भावार्थ - गुरुघासीदास बाबा जी कहते है - सतनाम ही बीज रुपी महामंत्र हैं। और संत पुरुष का हिदय ही खेत है।
सद्गुरु की कृपा से मनभावन लहलहाती फसले ऊपजेन्गे हे संत जन भाव भजन मे ही चेत लगावे ध्यान लगावे ।
कृषि वृत्ति द्वारा बाबा जी इस भजन के माध्यम से जनमानस को उपदेशना देते कहते हैं कि सत रुपी पुरुष ही कुशल किसान बनकर इस संसार मे धर्म रुपी धान बो रहे हैं।
यहां नाम धारी नगरिहा चाहे वह घासी हो या अन्य नागर अर्थात हल चलाने निकल पडे है।
उनके बल या पुरुषार्थ रुपी बैल हैं। और चाप या ग्यान रुपी नागर हैं जो इस धर्म रुपी धरती पर तेज गति से चल रहा हैं।
तेजी धान बोवाते देख कर उनमे सिंचित करने वाले दरिया अर्थात नदी तालाब पोखर हैरान है कि कैसे इतने विशाल छेत्र को सींचित कर सकुंगा। गाभी अर्थात खेत का ऊपजाउ पन बडे ही गर्व से अपने अंदर स्वाभिमान भर रहे हैं कि इसे मै अच्छे से संवारुगा।
बुद्धि रुपी बियासी हो गये है और नियम से निंदाई कर सारे खरपतवार को निकाल दिए गये हैं। प्रेम रुपी पात धरे हुए हैं। अर्थात् हर चीज प्रेमपूर्वक आबद्ध है। कोई चीज अस्तवस्त नही।चाक चौबंद से धर्म रुपी कृषि कार्य निष्पादन हो रहे सुन्दर आगे प्रयाण किए जा रहे आगे चाल चले जा रहे हैं। सद्गुरु ही सफल कृषक हैं।
प्राण रुपी पानी लबालब भरा हुआ हैं। ग्यान की गंगा अनवरत सदानीरा सदृश्य प्रवाहमान है।
ऐसी सम और सुखद संयोग से सत रुपी सफरी धान की बालियां लहलहा रहे हैं। इसके कारण सब पहचाने जा रहे हैं। देखिए उधर बुद्धि रुपी दुबराज बाको धान है जो अपनी सुगंध फैला रहे हैं। और इधर गुण रुपी गुरमटिया धान भी इठालाने झुमने लगे हैं।
इस तरह सद्गुरु इस महान देश मे धर्म रुपी धान उगाकर सनाड्य हो रहे हैं। सर्वत्र सुख शांति और सत्य का विस्तार हो रहे हैं।
५ पंथी मंगल
साखी - प्रथम गुरु को सुमरनि जिहि जनि रचि जहान
पानी से पैदा हुए कि सतपुरुस निरवान ...
सतपुरुस एक वृक्ष बने निरंजन भ इगे डार..
तीन देख साखा भये कि पन्ना भये संसार ....
मुखडा - सुमरन गांवव तोर बंदना ल गांवव तोर
घासीदास बबा पंइय्या परत हवन तोर ....
यह संसार जलारंग भारी
क इसे उत्पति सृष्टि बिस्तारी
तंय बता दे गुरु मोर ग्यान लखा दे गुरु मोर ....
जीव जन्तु से भरे संसारा
अपनेच सख से करे निस्तारा
हद्द मे बंधै फिरे चहुं ओर ...
हद छाड गये जो अन हद
पावै दुख पीरा बड बिपत
सतनाम सुमरन मुकति हे तोर ...
भावार्थ -
साखी - सर्व प्रथम सद गुरु का सुमरन है जिन्होने यह सुन्दर व भव्य जहान की संरचना किए हैं।
यह संसार पानी से उत्पन्न है और सतपुरुष ही समस्त चराचर का निरवान या संचालन कर रहे हैं। और सभी अपने सीमाओ मे आबद्ध है।
सतपुरुस एक विशाल काय वृछ हैं। इनके तना निरंजन हैं।
जिनके शाखा त्रिदेव हैं। (अर्थात निरंजन और आद्या से ही तीन देव ब्रम्हा विष्णु शिव बने वही भारतीय संस्कृति के ३ शाखाए हैं। पल सभी के जड बीज सतनाम ही हैं।) और उस वृछ के अनगिनत असंख्य पत्ते ही यह संसार और जनमानस है।
हे सदगुरु गुरुघासीदास हमलोग आपके शरणागत है। आपकी सुमरन कर रहे हैं। वंदना गा रहे हैं। आप प्रग्यावान महाग्यानी है कूपया हमारी शंकाओ का समाधान करे कि यह संसार और इनमे विविधताए है। उन सबकी संरचना कैसे हुई किसने किया और वे कैसे स्थिर हैं।
गुरुघासीदास कहते हैं कि यह सृष्टि का विस्तार सागर से हैं। यह संसार पहले जलाजल थे।धीरे धीरे इनमे सप्तद्वीप नव खंड उभरे और उनमे आद्राज उष्मज पिण्डज अंडज चार राशियों मे जीव जन्तु की उत्पत्ति हुई।
इन जीवजन्तु से संसार भरा परस्पर द्वन्द्व हुए पर जो शक्तिशाली बलशाली रहे वह टिका रहा वे अच्छे से निस्तार कर सका ।
हर चीज प्राकृतिक नियमो मे आबद्ध है। जिसने हद पार किए या तोडे उनका विनाश हुआ।
और वे दुख पीडा एंव संकट से ग्रसित रहे ।
इन संकट से दुख से मुक्ति सतनाम सुमरन और ग्यानार्जन ही हैं। इसी से सबकी निरवान व मुक्ति संभव हैं।
६ पंथी मंगल गीत
साखी -
डोंगरी ऊपर जाइके सत म धियान लगाय
सब संतन सकेल के गुरु
गुप्त भेद बतियाय ..
तय तो राधि डारे जेवन हो आगी के बिना आगी के बिना साहेब पानी के बिना ....
तन कर चुल्हा मन कर अगिन ज इल्या हो
देखो अजब रसोइय्या ...
हिया कर हडिया भक्ति करि भात चित्त के चेटवा चल इय्या हो ...
बरी बैराग बरम कर बटकर
करम करेला तरोइय्या हो ....
दया के दाल भाव के भाजी
चटनी चाल चतुर इय्या हो ....
आदम आमा आचार विचार के
पतरी प्रेम परसोइय्या हो ...
धट कर धीव विस्वास सुपारी
सरधा सवांस सहरैय्या हो ...
घासीदास गुरु के गारी गावै
सद्गुरु हवे जेवनइय्या हो ....
भावार्थ -
पहाड़ी की शिखर पर अर्थात उच्च धरातल पर अपने विशिष्ट शिष्यों को लेजाकर गुरुघासीदास ने सतनाम पर ध्यान लगाकर उन शिष्यो को और उपस्थित जनसमूह को सतनाम की गुप्त ग्यान को सार्वजनिक किया लोगो को अवगत कराया ... जिससे उनकी सारी छुधा मिट ग ई वे सब तृप्त हो संतत्व को प्राप्त किए ।
इस प्रसंग से अल्हादित संत गा उठे ...
देखो देखो हमारे कुशल रसोइय्या कैसे बिना आग और पानी का जेवन अर्थात भोजन बनाया और हम सभी को प्रेम पूर्वक परोसकर खिलाकर तृप्त कर दिए ...
तन का चुल्हा मे मन की आग जलाया हृदय रुपी हांडी मे भक्ति रुपी भात पक रहे है जिस पर चित्त रुपी चटुआ से खेये जा रहे है। वैराग्य की बडिया जो रुखी सुखी कठोर है पर अप्रतिम स्वाद उनके वह पकाये जा रहे है जिनके ग्रहण से भ्रम निवारण होते है। बटकर भी रखे गये और दया का दाल व भाव की भाजी पकाई जा रही हैं। चाल चतुराई रुपी चटनी तीछ्ण है जो भोजन को स्वादिष्ट व चटपटा बना रहे हैं। आदत रुपी आम का आचार बना है विचार का भी उसमे समाहित है अर्थात स्वभाव का और विचार ही सजकर स्वादिष्ट आचार बना है।
प्रेम रुपी पत्तल बिछा है और सद्गुरु उसमे यह सब सामाग्री परोस रहे हैं। धी डाले गये है जिनकी सुंगध सुवासित हैं। विस्वास रुपी पान सुपाडी है और लौग इलायची सुगंधित सुवास है जो प्रशंसनीय है। सेहराने लायक हैं।
घासीदास गुरु के यह प्रशंसा गा रहे हैं। कि ऐसे अजब रसोइय्या है जो बिना आगि पानी के स्वादिष्ट भोजन पकाकर संत जनो को प्रेम पूर्वक ग्यानभोग करा कर संतृप्त किए छप्पन भोग कलेवा कराए ।और तृप्त किए।
७ पंथी मंगल गीत
गाडी अटके रेत म ब इला अटके धाट ।
हंसा अटके सतनाम बिना सद्गुरु लगावे पार ।।
चल चलो हंसा अम्मरलोख जाइबोन
इंहा हमर संगी कोनो न इये हो...
एक संगी हवे बर बिहाई
देखे म जियरा जुडाथे
ओहू तिर ई बनत भरके
मरे म दुसर बनाथे ....
एक संगी हवे कुख कर बेटवा
देखे म धोसा बताथै
ओहू बेटा बनत भर के
बहु आये ले बहुताथे ....
एक संगी हवय धन अउ लछ्मी
देखे म चोला लोभाथे
धन अउ लछ्मी बनत भर के
मरे म ओहू तिरियाथे ....
एक संगी हवे परभू सतनाम
पापी मब ल मनाथै
जनम मरन सबोदिन के
ओही सरग अमराथै .....
भावार्थ साखी - नदी के किनारे रेत पर गाडी अटक अर्थात् फस गये हैं। और उसमे जुते बैल को छोड देने पर वह धाट मे जाकर पानी पीने आदि के चलते वहाँ जाकर फस गये हैं। मतलब सभी अस्त व्यस्त हैं। कोई कार्य निष्पादन नही हो पा रहे हैं।
और मानव तन के हंसा सतनाम के बिना अटक कर मुसीबत मे फसे अनेक कष्ट पा रहे हैं।
अब तो सद्गुरु ही सहारा जिनके कृपा से ही वह भवसागर पार कर सकता हैं। अर्थात गुरुवाणी और उनकी आशीष से ही कष्ट मे करलत इस हंसा की मुक्ति है ।गुरु ही इनकी नैय्या पार लगाएन्गे।
पंथी का भावार्थ - साधक आत्मने पद मे स्वत: कह रहे हैं कि अरे हंसा अर्थात हे प्राण तत्व ! हे जीव ! अब चलो चली इस संसार से क्योकि यहां हमारा कोई नही।
एक सगी मित्र बनाए और एक सुन्दर स्त्री से बर बिहाव कराये।उस बिहाई स्त्री भी केवल अच्छा रहने से साथ रहेन्गे ।कोई कष्ट या मुसीबत आए या मृत्यु हुये नही कि वह दूसरे आश्रय तलाश लेते हैं। वह भी सच्चा संगी नही है।
दूसरा कोख ऊपजारे पुत्र है जिसे देखकर यह मन हृदय तृप्त होता है कि चलो अपना कुछ तो हैं। जो सदा साथ देन्गे पर यह क्या बहु आते ही वह हमे त्याग कर बहु के संग दूर चला जाता है। कोई सुध संदेश तक नही लेते।
एक संगी यह धन दोगानी है जिसे मन मन लुभाता हैं। कि इनके चलते मुझे कुछ नही होगा ।कोई कष्ट हो तो यह उबार लेन्गे ।पर यह क्या मृत्यु होने पर यह स्वत: तिरिया जाते हैं। मतलब साथ नही आते छूट जाते हैं।
कहने का आशय कि पत्नी पुत्र व संपदा कोई काम का नही यह केवल अच्छा रहने पर ही ठीक है। मुसीबत मे सब साथ छोड देते हैं।
एक संगी सतनाम है जिनका का प्रभुत्व सदा कायम है।यह कभी खत्म या दूर होने वाला नही। रे मन इसी सतनाम की निरंतर अराधना कर और उस पर चल क्योकि सतनाम ही तुम्हे सरग अर्थात अमरलोक पहुचाये ।
इसलिए हे हंसा तु सतनाम सुमर और यहा से चलो अमरलोक क्योकि यहां हमारा कोई नही।
८ पंथी मंगल गीत
साखी - तन के मोह छोड परिन्दा पिंजरा बिन ये म यना ।
मया म भुलाये सतनाम बिसारे काबर तय नयना ।
ये माटी के काया ये माटी के चोला
के दिन रहिबे बता दे मोला
बाल पन सब खेल गवाये
भौरा बाटी म मन ल लुभाये
[3/30, 10:30 AM] anilbhatpahari: 4 पंथी मंगल भजन
बीज मंत्र सतनाम है गुरु संत हिरदय सो खेत।
भलि फसल ऊपजावहि गुरु करंव भजन म चेत।।
करमा बने हे धरमा बोये हवय धान
नाम के नंगरिहा चलय खेत जोते सियान ...
बल रुपी बइला चाप रुपी नांगर
धरम धरती के ऊपर रेंगे दुमन आगर
दरिया होइगे हैरान ,गाभी बने हे गुमान ....
बुद्धि के बियासी अउ नियम के निंदाई
प्रेम रुपी पांत घरके चाल हे चलाई
पानी भरे हवे परान ग्यान गंगा समान ....
सत रुपी सफरी हे मन मदुरिया धान
बुद्धि दुबराज बाको गुन गुरमटिया समान
धान लुवत हे किसान होवय देश महान ....
भावार्थ - गुरुघासीदास बाबा जी कहते है - सतनाम ही बीज रुपी महामंत्र हैं। और संत पुरुष का हिदय ही खेत है।
सद्गुरु की कृपा से मनभावन लहलहाती फसले ऊपजेन्गे हे संत जन भाव भजन मे ही चेत लगावे ध्यान लगावे ।
कृषि वृत्ति द्वारा बाबा जी इस भजन के माध्यम से जनमानस को उपदेशना देते कहते हैं कि सत रुपी पुरुष ही कुशल किसान बनकर इस संसार मे धर्म रुपी धान बो रहे हैं।
यहां नाम धारी नगरिहा चाहे वह घासी हो या अन्य नागर अर्थात हल चलाने निकल पडे है।
उनके बल या पुरुषार्थ रुपी बैल हैं। और चाप या ग्यान रुपी नागर हैं जो इस धर्म रुपी धरती पर तेज गति से चल रहा हैं।
तेजी धान बोवाते देख कर उनमे सिंचित करने वाले दरिया अर्थात नदी तालाब पोखर हैरान है कि कैसे इतने विशाल छेत्र को सींचित कर सकुंगा। गाभी अर्थात खेत का ऊपजाउ पन बडे ही गर्व से अपने अंदर स्वाभिमान भर रहे हैं कि इसे मै अच्छे से संवारुगा।
बुद्धि रुपी बियासी हो गये है और नियम से निंदाई कर सारे खरपतवार को निकाल दिए गये हैं। प्रेम रुपी पात धरे हुए हैं। अर्थात् हर चीज प्रेमपूर्वक आबद्ध है। कोई चीज अस्तवस्त नही।चाक चौबंद से धर्म रुपी कृषि कार्य निष्पादन हो रहे सुन्दर आगे प्रयाण किए जा रहे आगे चाल चले जा रहे हैं। सद्गुरु ही सफल कृषक हैं।
प्राण रुपी पानी लबालब भरा हुआ हैं। ग्यान की गंगा अनवरत सदानीरा सदृश्य प्रवाहमान है।
ऐसी सम और सुखद संयोग से सत रुपी सफरी धान की बालियां लहलहा रहे हैं। इसके कारण सब पहचाने जा रहे हैं। देखिए उधर बुद्धि रुपी दुबराज बाको धान है जो अपनी सुगंध फैला रहे हैं। और इधर गुण रुपी गुरमटिया धान भी इठालाने झुमने लगे हैं।
इस तरह सद्गुरु इस महान देश मे धर्म रुपी धान उगाकर सनाड्य हो रहे हैं। सर्वत्र सुख शांति और सत्य का विस्तार हो रहे हैं।
५ पंथी मंगल
साखी - प्रथम गुरु को सुमरनि जिहि जनि रचि जहान
पानी से पैदा हुए कि सतपुरुस निरवान ...
सतपुरुस एक वृक्ष बने निरंजन भ इगे डार..
तीन देख साखा भये कि पन्ना भये संसार ....
मुखडा - सुमरन गांवव तोर बंदना ल गांवव तोर
घासीदास बबा पंइय्या परत हवन तोर ....
यह संसार जलारंग भारी
क इसे उत्पति सृष्टि बिस्तारी
तंय बता दे गुरु मोर ग्यान लखा दे गुरु मोर ....
जीव जन्तु से भरे संसारा
अपनेच सख से करे निस्तारा
हद्द मे बंधै फिरे चहुं ओर ...
हद छाड गये जो अन हद
पावै दुख पीरा बड बिपत
सतनाम सुमरन मुकति हे तोर ...
भावार्थ -
साखी - सर्व प्रथम सद गुरु का सुमरन है जिन्होने यह सुन्दर व भव्य जहान की संरचना किए हैं।
यह संसार पानी से उत्पन्न है और सतपुरुष ही समस्त चराचर का निरवान या संचालन कर रहे हैं। और सभी अपने सीमाओ मे आबद्ध है।
सतपुरुस एक विशाल काय वृछ हैं। इनके तना निरंजन हैं।
जिनके शाखा त्रिदेव हैं। (अर्थात निरंजन और आद्या से ही तीन देव ब्रम्हा विष्णु शिव बने वही भारतीय संस्कृति के ३ शाखाए हैं। पल सभी के जड बीज सतनाम ही हैं।) और उस वृछ के अनगिनत असंख्य पत्ते ही यह संसार और जनमानस है।
हे सदगुरु गुरुघासीदास हमलोग आपके शरणागत है। आपकी सुमरन कर रहे हैं। वंदना गा रहे हैं। आप प्रग्यावान महाग्यानी है कूपया हमारी शंकाओ का समाधान करे कि यह संसार और इनमे विविधताए है। उन सबकी संरचना कैसे हुई किसने किया और वे कैसे स्थिर हैं।
गुरुघासीदास कहते हैं कि यह सृष्टि का विस्तार सागर से हैं। यह संसार पहले जलाजल थे।धीरे धीरे इनमे सप्तद्वीप नव खंड उभरे और उनमे आद्राज उष्मज पिण्डज अंडज चार राशियों मे जीव जन्तु की उत्पत्ति हुई।
इन जीवजन्तु से संसार भरा परस्पर द्वन्द्व हुए पर जो शक्तिशाली बलशाली रहे वह टिका रहा वे अच्छे से निस्तार कर सका ।
हर चीज प्राकृतिक नियमो मे आबद्ध है। जिसने हद पार किए या तोडे उनका विनाश हुआ।
और वे दुख पीडा एंव संकट से ग्रसित रहे ।
इन संकट से दुख से मुक्ति सतनाम सुमरन और ग्यानार्जन ही हैं। इसी से सबकी निरवान व मुक्ति संभव हैं।
६ पंथी मंगल गीत
साखी -
डोंगरी ऊपर जाइके सत म धियान लगाय
सब संतन सकेल के गुरु
गुप्त भेद बतियाय ..
तय तो राधि डारे जेवन हो आगी के बिना आगी के बिना साहेब पानी के बिना ....
तन कर चुल्हा मन कर अगिन ज इल्या हो
देखो अजब रसोइय्या ...
हिया कर हडिया भक्ति करि भात चित्त के चेटवा चल इय्या हो ...
बरी बैराग बरम कर बटकर
करम करेला तरोइय्या हो ....
दया के दाल भाव के भाजी
चटनी चाल चतुर इय्या हो ....
आदम आमा आचार विचार के
पतरी प्रेम परसोइय्या हो ...
धट कर धीव विस्वास सुपारी
सरधा सवांस सहरैय्या हो ...
घासीदास गुरु के गारी गावै
सद्गुरु हवे जेवनइय्या हो ....
भावार्थ -
पहाड़ी की शिखर पर अर्थात उच्च धरातल पर अपने विशिष्ट शिष्यों को लेजाकर गुरुघासीदास ने सतनाम पर ध्यान लगाकर उन शिष्यो को और उपस्थित जनसमूह को सतनाम की गुप्त ग्यान को सार्वजनिक किया लोगो को अवगत कराया ... जिससे उनकी सारी छुधा मिट ग ई वे सब तृप्त हो संतत्व को प्राप्त किए ।
इस प्रसंग से अल्हादित संत गा उठे ...
देखो देखो हमारे कुशल रसोइय्या कैसे बिना आग और पानी का जेवन अर्थात भोजन बनाया और हम सभी को प्रेम पूर्वक परोसकर खिलाकर तृप्त कर दिए ...
तन का चुल्हा मे मन की आग जलाया हृदय रुपी हांडी मे भक्ति रुपी भात पक रहे है जिस पर चित्त रुपी चटुआ से खेये जा रहे है। वैराग्य की बडिया जो रुखी सुखी कठोर है पर अप्रतिम स्वाद उनके वह पकाये जा रहे है जिनके ग्रहण से भ्रम निवारण होते है। बटकर भी रखे गये और दया का दाल व भाव की भाजी पकाई जा रही हैं। चाल चतुराई रुपी चटनी तीछ्ण है जो भोजन को स्वादिष्ट व चटपटा बना रहे हैं। आदत रुपी आम का आचार बना है विचार का भी उसमे समाहित है अर्थात स्वभाव का और विचार ही सजकर स्वादिष्ट आचार बना है।
प्रेम रुपी पत्तल बिछा है और सद्गुरु उसमे यह सब सामाग्री परोस रहे हैं। धी डाले गये है जिनकी सुंगध सुवासित हैं। विस्वास रुपी पान सुपाडी है और लौग इलायची सुगंधित सुवास है जो प्रशंसनीय है। सेहराने लायक हैं।
घासीदास गुरु के यह प्रशंसा गा रहे हैं। कि ऐसे अजब रसोइय्या है जो बिना आगि पानी के स्वादिष्ट भोजन पकाकर संत जनो को प्रेम पूर्वक ग्यानभोग करा कर संतृप्त किए छप्पन भोग कलेवा कराए ।और तृप्त किए।
७ पंथी मंगल गीत
गाडी अटके रेत म ब इला अटके धाट ।
हंसा अटके सतनाम बिना सद्गुरु लगावे पार ।।
चल चलो हंसा अम्मरलोख जाइबोन
इंहा हमर संगी कोनो न इये हो...
एक संगी हवे बर बिहाई
देखे म जियरा जुडाथे
ओहू तिर ई बनत भरके
मरे म दुसर बनाथे ....
एक संगी हवे कुख कर बेटवा
देखे म धोसा बताथै
ओहू बेटा बनत भर के
बहु आये ले बहुताथे ....
एक संगी हवय धन अउ लछ्मी
देखे म चोला लोभाथे
धन अउ लछ्मी बनत भर के
मरे म ओहू तिरियाथे ....
एक संगी हवे परभू सतनाम
पापी मब ल मनाथै
जनम मरन सबोदिन के
ओही सरग अमराथै .....
भावार्थ साखी - नदी के किनारे रेत पर गाडी अटक अर्थात् फस गये हैं। और उसमे जुते बैल को छोड देने पर वह धाट मे जाकर पानी पीने आदि के चलते वहाँ जाकर फस गये हैं। मतलब सभी अस्त व्यस्त हैं। कोई कार्य निष्पादन नही हो पा रहे हैं।
और मानव तन के हंसा सतनाम के बिना अटक कर मुसीबत मे फसे अनेक कष्ट पा रहे हैं।
अब तो सद्गुरु ही सहारा जिनके कृपा से ही वह भवसागर पार कर सकता हैं। अर्थात गुरुवाणी और उनकी आशीष से ही कष्ट मे करलत इस हंसा की मुक्ति है ।गुरु ही इनकी नैय्या पार लगाएन्गे।
पंथी का भावार्थ - साधक आत्मने पद मे स्वत: कह रहे हैं कि अरे हंसा अर्थात हे प्राण तत्व ! हे जीव ! अब चलो चली इस संसार से क्योकि यहां हमारा कोई नही।
एक सगी मित्र बनाए और एक सुन्दर स्त्री से बर बिहाव कराये।उस बिहाई स्त्री भी केवल अच्छा रहने से साथ रहेन्गे ।कोई कष्ट या मुसीबत आए या मृत्यु हुये नही कि वह दूसरे आश्रय तलाश लेते हैं। वह भी सच्चा संगी नही है।
दूसरा कोख ऊपजारे पुत्र है जिसे देखकर यह मन हृदय तृप्त होता है कि चलो अपना कुछ तो हैं। जो सदा साथ देन्गे पर यह क्या बहु आते ही वह हमे त्याग कर बहु के संग दूर चला जाता है। कोई सुध संदेश तक नही लेते।
एक संगी यह धन दोगानी है जिसे मन मन लुभाता हैं। कि इनके चलते मुझे कुछ नही होगा ।कोई कष्ट हो तो यह उबार लेन्गे ।पर यह क्या मृत्यु होने पर यह स्वत: तिरिया जाते हैं। मतलब साथ नही आते छूट जाते हैं।
कहने का आशय कि पत्नी पुत्र व संपदा कोई काम का नही यह केवल अच्छा रहने पर ही ठीक है। मुसीबत मे सब साथ छोड देते हैं।
एक संगी सतनाम है जिनका का प्रभुत्व सदा कायम है।यह कभी खत्म या दूर होने वाला नही। रे मन इसी सतनाम की निरंतर अराधना कर और उस पर चल क्योकि सतनाम ही तुम्हे सरग अर्थात अमरलोक पहुचाये ।
इसलिए हे हंसा तु सतनाम सुमर और यहा से चलो अमरलोक क्योकि यहां हमारा कोई नही।
८ पंथी मंगल गीत
साखी - तन के मोह छोड परिन्दा पिंजरा बिन ये म यना ।
मया म भुलाये सतनाम बिसारे काबर तय नयना ।
ये माटी के काया ह न ई आवय कछु काम.
ये माटी के चोला ह न ई आवय कछु काम
तय सुमर ले सतनाम ....
बाल पन सब खेल गवाये
भौरा बाटी म मन ल लुभाये
बितगे उमरिया तोर तमाम न इ जपे तय सतनाम .....
आये जवानी रंग मातन लागे
गलियन खुब सुहावन लागे
सखी संगी मन भावन लागे
बीतगे उमरिया तोर तमाम
न इ तो जपे तय सतनाम ..
तय सुमरले सतनाम ....
आये बुढापा सर डोलन लागे
देह निच्चट गरुवावन लागे
बितगे उमरिया तोर तमाम
न इ तो जपे तय सतनाम ....
तय सुमरले सतनाम ....
भावार्थ - हे हंसा इस तन रुपी पिंजडे का मोह छोड दे क्योकि यह पिंजडा जीर्ण शीर्ण हो चुका ।और इनकी प्रेम मे फंस कर सतनाम को क्यो विस्मृत कर रहे हो। क्योकि सतनाम ही तम्हे परमपद और निर्वान देकर मुक्त करेन्गे।
रे हंसा रे मन तु नित्य सतनाम सुमर और सद् मार्ग पर चल
क्योकि यह नश्वर शरीर जो मिट्टी से निर्मित हैं वह कोई काम आने वाला नही।केवल मिट्टी मे मिट्टी मिल जाएगा।
बालक पन को खेल कर गंवा दिए भौरा बाटी गिल्ली डंडा म मे मन लुभाए रखे और अपनी उम्र खपा दिए तथा भूलकर भी सतनाम नही सुमर पाए ...,अब तो चेत ।
युवावस्था आते ही यौवन की मद से मदमस्त हो गये और गलियो मे सखी संगी के साथ प्रेमालाप करने निकल पडे घर द्वार अच्छा नही लगता परिजन और उनकी सीख नही सुहाते और प्रेमाकर्षण मे बंधे बाहर ही मित्रो के बीच समय व्यतित करते उम्र खपा दिए भूलकर भी सतनाम नही सुमरे न सद्मार्ग पर चले।
धीरे धीरे शरीर मे बुढापा आ गये अनेक तरह के व्याधि समा गये और स्वयं को यह शरीर वजन लगने लगा भारी लगने लगा।
बावजूद मोह माया और संसारिकता मे डूबे हुए है।
अब तो चेत चौथे पन आ चुके हैं। सतनाम सुमर और अपने जीवन को संवार ।
९ पंथी मंगल
गुरुमिलन को जाइये तज माया अभिमान।
ज्यो ज्यो पग आगे धरत कोटिन यग्य समान ।।
झन भुलाबे बाबाके अम्मर कहानी ल
गाले गाले गुरु के गाथा सुहानी ल...
अठरा दिसंबर सतरा सो छप्पन अघ्घन पुन्नी गुरुवार ग
गिरौदपुरी म महंगू अमरौतिन घर गुरु लिन्ह अवतार ग
दू मन आगर होके सुनावंव गुरु के गाथा सुहानी ल ....
बालपन म महिमा दिखाए चिर ई अउ बुधरु ल जिलाये
गरियार ब इला ल आगु फांद के अधरे अधर नागर चलाये
मुठ्ठी भर बिजहा खाडी भर धनहा करे अजब किसानी ल ....
सफूरा संग बिहाव रचाए ससुर के मान बढाये तय
कमती होइस भात बराती बर झाल म हाथ लगाये तय
देखते देखत झाल भरगे परगट अन्न कुवारी ह...
बाहरा खेत के मुंही म रहिस धुटवा भर पानी ग
उही पानी म दू ठन मछरी बोलय अमरित बानी ग
दरस पाके घासी गुरु के तारिन अपन जिनगानी ल .....
भावार्थ -
१० पंथी मंगल
[3/30, 11:18 AM] anilbhatpahari: 4 पंथी मंगल भजन
बीज मंत्र सतनाम है गुरु संत हिरदय सो खेत।
भलि फसल ऊपजावहि गुरु करंव भजन म चेत।।
करमा बने हे धरमा बोये हवय धान
नाम के नंगरिहा चलय खेत जोते सियान ...
बल रुपी बइला चाप रुपी नांगर
धरम धरती के ऊपर रेंगे दुमन आगर
दरिया होइगे हैरान ,गाभी बने हे गुमान ....
बुद्धि के बियासी अउ नियम के निंदाई
प्रेम रुपी पांत घरके चाल हे चलाई
पानी भरे हवे परान ग्यान गंगा समान ....
सत रुपी सफरी हे मन मदुरिया धान
बुद्धि दुबराज बाको गुन गुरमटिया समान
धान लुवत हे किसान होवय देश महान ....
भावार्थ - गुरुघासीदास बाबा जी कहते है - सतनाम ही बीज रुपी महामंत्र हैं। और संत पुरुष का हिदय ही खेत है।
सद्गुरु की कृपा से मनभावन लहलहाती फसले ऊपजेन्गे हे संत जन भाव भजन मे ही चेत लगावे ध्यान लगावे ।
कृषि वृत्ति द्वारा बाबा जी इस भजन के माध्यम से जनमानस को उपदेशना देते कहते हैं कि सत रुपी पुरुष ही कुशल किसान बनकर इस संसार मे धर्म रुपी धान बो रहे हैं।
यहां नाम धारी नगरिहा चाहे वह घासी हो या अन्य नागर अर्थात हल चलाने निकल पडे है।
उनके बल या पुरुषार्थ रुपी बैल हैं। और चाप या ग्यान रुपी नागर हैं जो इस धर्म रुपी धरती पर तेज गति से चल रहा हैं।
तेजी धान बोवाते देख कर उनमे सिंचित करने वाले दरिया अर्थात नदी तालाब पोखर हैरान है कि कैसे इतने विशाल छेत्र को सींचित कर सकुंगा। गाभी अर्थात खेत का ऊपजाउ पन बडे ही गर्व से अपने अंदर स्वाभिमान भर रहे हैं कि इसे मै अच्छे से संवारुगा।
बुद्धि रुपी बियासी हो गये है और नियम से निंदाई कर सारे खरपतवार को निकाल दिए गये हैं। प्रेम रुपी पात धरे हुए हैं। अर्थात् हर चीज प्रेमपूर्वक आबद्ध है। कोई चीज अस्तवस्त नही।चाक चौबंद से धर्म रुपी कृषि कार्य निष्पादन हो रहे सुन्दर आगे प्रयाण किए जा रहे आगे चाल चले जा रहे हैं। सद्गुरु ही सफल कृषक हैं।
प्राण रुपी पानी लबालब भरा हुआ हैं। ग्यान की गंगा अनवरत सदानीरा सदृश्य प्रवाहमान है।
ऐसी सम और सुखद संयोग से सत रुपी सफरी धान की बालियां लहलहा रहे हैं। इसके कारण सब पहचाने जा रहे हैं। देखिए उधर बुद्धि रुपी दुबराज बाको धान है जो अपनी सुगंध फैला रहे हैं। और इधर गुण रुपी गुरमटिया धान भी इठालाने झुमने लगे हैं।
इस तरह सद्गुरु इस महान देश मे धर्म रुपी धान उगाकर सनाड्य हो रहे हैं। सर्वत्र सुख शांति और सत्य का विस्तार हो रहे हैं।
५ पंथी मंगल
साखी - प्रथम गुरु को सुमरनि जिहि जनि रचि जहान
पानी से पैदा हुए कि सतपुरुस निरवान ...
सतपुरुस एक वृक्ष बने निरंजन भ इगे डार..
तीन देख साखा भये कि पन्ना भये संसार ....
मुखडा - सुमरन गांवव तोर बंदना ल गांवव तोर
घासीदास बबा पंइय्या परत हवन तोर ....
यह संसार जलारंग भारी
क इसे उत्पति सृष्टि बिस्तारी
तंय बता दे गुरु मोर ग्यान लखा दे गुरु मोर ....
जीव जन्तु से भरे संसारा
अपनेच सख से करे निस्तारा
हद्द मे बंधै फिरे चहुं ओर ...
हद छाड गये जो अन हद
पावै दुख पीरा बड बिपत
सतनाम सुमरन मुकति हे तोर ...
भावार्थ -
साखी - सर्व प्रथम सद गुरु का सुमरन है जिन्होने यह सुन्दर व भव्य जहान की संरचना किए हैं।
यह संसार पानी से उत्पन्न है और सतपुरुष ही समस्त चराचर का निरवान या संचालन कर रहे हैं। और सभी अपने सीमाओ मे आबद्ध है।
सतपुरुस एक विशाल काय वृछ हैं। इनके तना निरंजन हैं।
जिनके शाखा त्रिदेव हैं। (अर्थात निरंजन और आद्या से ही तीन देव ब्रम्हा विष्णु शिव बने वही भारतीय संस्कृति के ३ शाखाए हैं। पल सभी के जड बीज सतनाम ही हैं।) और उस वृछ के अनगिनत असंख्य पत्ते ही यह संसार और जनमानस है।
हे सदगुरु गुरुघासीदास हमलोग आपके शरणागत है। आपकी सुमरन कर रहे हैं। वंदना गा रहे हैं। आप प्रग्यावान महाग्यानी है कूपया हमारी शंकाओ का समाधान करे कि यह संसार और इनमे विविधताए है। उन सबकी संरचना कैसे हुई किसने किया और वे कैसे स्थिर हैं।
गुरुघासीदास कहते हैं कि यह सृष्टि का विस्तार सागर से हैं। यह संसार पहले जलाजल थे।धीरे धीरे इनमे सप्तद्वीप नव खंड उभरे और उनमे आद्राज उष्मज पिण्डज अंडज चार राशियों मे जीव जन्तु की उत्पत्ति हुई।
इन जीवजन्तु से संसार भरा परस्पर द्वन्द्व हुए पर जो शक्तिशाली बलशाली रहे वह टिका रहा वे अच्छे से निस्तार कर सका ।
हर चीज प्राकृतिक नियमो मे आबद्ध है। जिसने हद पार किए या तोडे उनका विनाश हुआ।
और वे दुख पीडा एंव संकट से ग्रसित रहे ।
इन संकट से दुख से मुक्ति सतनाम सुमरन और ग्यानार्जन ही हैं। इसी से सबकी निरवान व मुक्ति संभव हैं।
६ पंथी मंगल गीत
साखी -
डोंगरी ऊपर जाइके सत म धियान लगाय
सब संतन सकेल के गुरु
गुप्त भेद बतियाय ..
तय तो राधि डारे जेवन हो आगी के बिना आगी के बिना साहेब पानी के बिना ....
तन कर चुल्हा मन कर अगिन ज इल्या हो
देखो अजब रसोइय्या ...
हिया कर हडिया भक्ति करि भात चित्त के चेटवा चल इय्या हो ...
बरी बैराग बरम कर बटकर
करम करेला तरोइय्या हो ....
दया के दाल भाव के भाजी
चटनी चाल चतुर इय्या हो ....
आदम आमा आचार विचार के
पतरी प्रेम परसोइय्या हो ...
धट कर धीव विस्वास सुपारी
सरधा सवांस सहरैय्या हो ...
घासीदास गुरु के गारी गावै
सद्गुरु हवे जेवनइय्या हो ....
भावार्थ -
पहाड़ी की शिखर पर अर्थात उच्च धरातल पर अपने विशिष्ट शिष्यों को लेजाकर गुरुघासीदास ने सतनाम पर ध्यान लगाकर उन शिष्यो को और उपस्थित जनसमूह को सतनाम की गुप्त ग्यान को सार्वजनिक किया लोगो को अवगत कराया ... जिससे उनकी सारी छुधा मिट ग ई वे सब तृप्त हो संतत्व को प्राप्त किए ।
इस प्रसंग से अल्हादित संत गा उठे ...
देखो देखो हमारे कुशल रसोइय्या कैसे बिना आग और पानी का जेवन अर्थात भोजन बनाया और हम सभी को प्रेम पूर्वक परोसकर खिलाकर तृप्त कर दिए ...
तन का चुल्हा मे मन की आग जलाया हृदय रुपी हांडी मे भक्ति रुपी भात पक रहे है जिस पर चित्त रुपी चटुआ से खेये जा रहे है। वैराग्य की बडिया जो रुखी सुखी कठोर है पर अप्रतिम स्वाद उनके वह पकाये जा रहे है जिनके ग्रहण से भ्रम निवारण होते है। बटकर भी रखे गये और दया का दाल व भाव की भाजी पकाई जा रही हैं। चाल चतुराई रुपी चटनी तीछ्ण है जो भोजन को स्वादिष्ट व चटपटा बना रहे हैं। आदत रुपी आम का आचार बना है विचार का भी उसमे समाहित है अर्थात स्वभाव का और विचार ही सजकर स्वादिष्ट आचार बना है।
प्रेम रुपी पत्तल बिछा है और सद्गुरु उसमे यह सब सामाग्री परोस रहे हैं। धी डाले गये है जिनकी सुंगध सुवासित हैं। विस्वास रुपी पान सुपाडी है और लौग इलायची सुगंधित सुवास है जो प्रशंसनीय है। सेहराने लायक हैं।
घासीदास गुरु के यह प्रशंसा गा रहे हैं। कि ऐसे अजब रसोइय्या है जो बिना आगि पानी के स्वादिष्ट भोजन पकाकर संत जनो को प्रेम पूर्वक ग्यानभोग करा कर संतृप्त किए छप्पन भोग कलेवा कराए ।और तृप्त किए।
७ पंथी मंगल गीत
गाडी अटके रेत म ब इला अटके धाट ।
हंसा अटके सतनाम बिना सद्गुरु लगावे पार ।।
चल चलो हंसा अम्मरलोख जाइबोन
इंहा हमर संगी कोनो न इये हो...
एक संगी हवे बर बिहाई
देखे म जियरा जुडाथे
ओहू तिर ई बनत भरके
मरे म दुसर बनाथे ....
एक संगी हवे कुख कर बेटवा
देखे म धोसा बताथै
ओहू बेटा बनत भर के
बहु आये ले बहुताथे ....
एक संगी हवय धन अउ लछ्मी
देखे म चोला लोभाथे
धन अउ लछ्मी बनत भर के
मरे म ओहू तिरियाथे ....
एक संगी हवे परभू सतनाम
पापी मब ल मनाथै
जनम मरन सबोदिन के
ओही सरग अमराथै .....
भावार्थ साखी - नदी के किनारे रेत पर गाडी अटक अर्थात् फस गये हैं। और उसमे जुते बैल को छोड देने पर वह धाट मे जाकर पानी पीने आदि के चलते वहाँ जाकर फस गये हैं। मतलब सभी अस्त व्यस्त हैं। कोई कार्य निष्पादन नही हो पा रहे हैं।
और मानव तन के हंसा सतनाम के बिना अटक कर मुसीबत मे फसे अनेक कष्ट पा रहे हैं।
अब तो सद्गुरु ही सहारा जिनके कृपा से ही वह भवसागर पार कर सकता हैं। अर्थात गुरुवाणी और उनकी आशीष से ही कष्ट मे करलत इस हंसा की मुक्ति है ।गुरु ही इनकी नैय्या पार लगाएन्गे।
पंथी का भावार्थ - साधक आत्मने पद मे स्वत: कह रहे हैं कि अरे हंसा अर्थात हे प्राण तत्व ! हे जीव ! अब चलो चली इस संसार से क्योकि यहां हमारा कोई नही।
एक सगी मित्र बनाए और एक सुन्दर स्त्री से बर बिहाव कराये।उस बिहाई स्त्री भी केवल अच्छा रहने से साथ रहेन्गे ।कोई कष्ट या मुसीबत आए या मृत्यु हुये नही कि वह दूसरे आश्रय तलाश लेते हैं। वह भी सच्चा संगी नही है।
दूसरा कोख ऊपजारे पुत्र है जिसे देखकर यह मन हृदय तृप्त होता है कि चलो अपना कुछ तो हैं। जो सदा साथ देन्गे पर यह क्या बहु आते ही वह हमे त्याग कर बहु के संग दूर चला जाता है। कोई सुध संदेश तक नही लेते।
एक संगी यह धन दोगानी है जिसे मन मन लुभाता हैं। कि इनके चलते मुझे कुछ नही होगा ।कोई कष्ट हो तो यह उबार लेन्गे ।पर यह क्या मृत्यु होने पर यह स्वत: तिरिया जाते हैं। मतलब साथ नही आते छूट जाते हैं।
कहने का आशय कि पत्नी पुत्र व संपदा कोई काम का नही यह केवल अच्छा रहने पर ही ठीक है। मुसीबत मे सब साथ छोड देते हैं।
एक संगी सतनाम है जिनका का प्रभुत्व सदा कायम है।यह कभी खत्म या दूर होने वाला नही। रे मन इसी सतनाम की निरंतर अराधना कर और उस पर चल क्योकि सतनाम ही तुम्हे सरग अर्थात अमरलोक पहुचाये ।
इसलिए हे हंसा तु सतनाम सुमर और यहा से चलो अमरलोक क्योकि यहां हमारा कोई नही।
८ पंथी मंगल गीत
साखी - तन के मोह छोड परिन्दा पिंजरा बिन ये म यना ।
मया म भुलाये सतनाम बिसारे काबर तय नयना ।
ये माटी के काया ह न ई आवय कछु काम.
ये माटी के चोला ह न ई आवय कछु काम
तय सुमर ले सतनाम ....
बाल पन सब खेल गवाये
भौरा बाटी म मन ल लुभाये
बितगे उमरिया तोर तमाम न इ जपे तय सतनाम .....
आये जवानी रंग मातन लागे
गलियन खुब सुहावन लागे
सखी संगी मन भावन लागे
बीतगे उमरिया तोर तमाम
न इ तो जपे तय सतनाम ..
तय सुमरले सतनाम ....
आये बुढापा सर डोलन लागे
देह निच्चट गरुवावन लागे
बितगे उमरिया तोर तमाम
न इ तो जपे तय सतनाम ....
तय सुमरले सतनाम ....
भावार्थ - हे हंसा इस तन रुपी पिंजडे का मोह छोड दे क्योकि यह पिंजडा जीर्ण शीर्ण हो चुका ।और इनकी प्रेम मे फंस कर सतनाम को क्यो विस्मृत कर रहे हो। क्योकि सतनाम ही तम्हे परमपद और निर्वान देकर मुक्त करेन्गे।
रे हंसा रे मन तु नित्य सतनाम सुमर और सद् मार्ग पर चल
क्योकि यह नश्वर शरीर जो मिट्टी से निर्मित हैं वह कोई काम आने वाला नही।केवल मिट्टी मे मिट्टी मिल जाएगा।
बालक पन को खेल कर गंवा दिए भौरा बाटी गिल्ली डंडा म मे मन लुभाए रखे और अपनी उम्र खपा दिए तथा भूलकर भी सतनाम नही सुमर पाए ...,अब तो चेत ।
युवावस्था आते ही यौवन की मद से मदमस्त हो गये और गलियो मे सखी संगी के साथ प्रेमालाप करने निकल पडे घर द्वार अच्छा नही लगता परिजन और उनकी सीख नही सुहाते और प्रेमाकर्षण मे बंधे बाहर ही मित्रो के बीच समय व्यतित करते उम्र खपा दिए भूलकर भी सतनाम नही सुमरे न सद्मार्ग पर चले।
धीरे धीरे शरीर मे बुढापा आ गये अनेक तरह के व्याधि समा गये और स्वयं को यह शरीर वजन लगने लगा भारी लगने लगा।
बावजूद मोह माया और संसारिकता मे डूबे हुए है।
अब तो चेत चौथे पन आ चुके हैं। सतनाम सुमर और अपने जीवन को संवार ।
९ पंथी मंगल
गुरुमिलन को जाइये तज माया अभिमान।
ज्यो ज्यो पग आगे धरत कोटिन यग्य समान ।।
झन भुलाबे बाबाके अम्मर कहानी ल
गाले गाले गुरु के गाथा सुहानी ल...
अठरा दिसंबर सतरा सो छप्पन अघ्घन पुन्नी गुरुवार ग
गिरौदपुरी म महंगू अमरौतिन घर गुरु लिन्ह अवतार ग
दू मन आगर होके सुनावंव गुरु के गाथा सुहानी ल ....
बालपन म महिमा दिखाए चिर ई अउ बुधरु ल जिलाये
गरियार ब इला ल आगु फांद के अधरे अधर नागर चलाये
मुठ्ठी भर बिजहा खाडी भर धनहा करे अजब किसानी ल ....
सफूरा संग बिहाव रचाए ससुर के मान बढाये तय
कमती होइस भात बराती बर झाल म हाथ लगाये तय
देखते देखत झाल भरगे परगट अन्न कुवारी ह...
बाहरा खेत के मुंही म रहिस धुटवा भर पानी ग
उही पानी म दू ठन मछरी बोलय अमरित बानी ग
दरस पाके घासी गुरु के तारिन अपन जिनगानी ल .....
भावार्थ - साखी गुरु या संत मिलन को जावे पर सारी माया और अभिमान जो त्यागकर जावे।
क्योकि एक एक पग आगे बढाने पर यह कार्य करोडो यग्य जैसे फलदायक हैं। बल्कि गुरुमिलन एक सकरात्मक अनुष्ठान की तरह है। मनोवांछित फल प्रदान. करते हैं।
हे संत जन आपलोगो से करबद्ध विनय है कि महान गुरु के उदात्य अम्मर कहानी को कभी न भूलना ।वे किन विषम परिस्थितियों मे मानव कल्याण के सुत्र तलाशे और लोगो को सद्मार्ग मे लाए।
उनका जन्म १८ दिसंबर १७५६ ,तदनुसार अघ्घन पुन्नी दिन गुरुवार को हुआ।
महंगूदास पिता और अमरौतिन माता हैं। जिनके घर सतपरुष अवतार लिए है।जो जगतितल के भार का उद्धार करेन्गे।मानवता व सत्य को प्रतिष्ठित करेन्गे।उनकी सुहानी गाथा को मय गाकर सुना रहा हूं।
बालक पन में वह अद्भुत महिमा जनमानस मे दिखाया करते थे ।एक बार वह मृत सम धायल पछी का इलाज कर उन्हे नवजीवन दिए ।ठीक उसी तरह सर्प काटे बुधारु का इलाज कर नवजीवन दिए।
खेत मे गरियार बैल को हल मे जोत के आगे चलाए और अधरे अधर नागर चलाए।
मुठ्ठी भर बीज से पांच खाडी के बडा धनहा को बोकर एक अद्भुत और अप्रतिम कृषि कार्य को निष्पादित किए।
सिरपुर वासी महंत अंजोरदास की रुपवती गुणवती कन्या सफूरा से विवाह रचाए और दोनो पछ के लोगो के भोजन कम पडा तो झाल मे हाथ लगाकर उसे लबालब कर दिए और सभी को तृप्त किए।
इसी तरह एक दिन भ्रमण करते खेत के मुहाने मे छिछली धुटने तक पानी मे दो युगल मछली को जोडे को देखे और उनकी तडफ व पीडा देख उन्हे मुक्त किए अर्थात नदी मे छोड आए।यह रुपक उन्हे जीवदया और अहिंसा सात्विक आहार विहार का नैतिक सीख देते हैं।
जब गुरुघासीदास बाबा नीरिह पंछी पशु हिरन गाय मछली की कल्याण की कामना करते हैं। तो मनुष्य की कल्याण की क्यो नही।वे समस्त जीव जन्तु व प्रकृति के संरछण की बाते कहने वाले महान प्रग्या पुरुष है।जो लाखो करोडो के गुरु हैं। और मानव प्रजाति को प्रेरणा देते रहेन्गे।
१० पंथी मंगल
आए हस अकेला नरतन जाबे तय अकेला
सोच समझ के सउदा कर ले मया के लगे हे मेला ...
मनखे के का चिन्हा हे जात
सब उतरिन एकेच धाट
तंय तो छुआछूत म जीनगी ल बिता डारे रे मानुष मुरख गंवार ...
तय तो जात पात के जाल म अरझ गये रे .....
जात पंछी म जरुर
सोल्हाई कोकडा अउ मंजुर
ओमन एके पेड खोंधरा बना डरिन रे मानुख मुरख गंवार .....
२ जात पशु म जरुर
बधवा भालू अउ लंगूर
ओमन बीच जंगल म सुन्ता मढा डरिन हो ...
३ जात अन्न म जरुर
धान तिवरा अउ मसुर
ओमन मनखे मन भुख ल मिटा डरिन हो ....
४ जात पेड के जरुर
आमा अमली अउ बंबुर
ओमन छाजन बनके जिनगी संवार डारिन हो ...
५ जात मनखेच म जरुर
एक नारी अउ पुरुष
ओमन दस दरवाजा महल सिरजा डारिन हो ....
भावार्थ -
साखी - अकेला ही इस संसार मे आना है और अकेला ही यहा से जाना हैं। फिर हम मुसाफिर होते इतने भेदभाव क्यो पालते हैं। जातपात मोह माया मे क्यो उलझे है। सोच समझ कर यहां जीवन निर्वाह के सद्कर्म करते नाम कमाकर अकेला चल चले ।
अरे मुरख गंवार मनुष्य क्यो नाहक जात पात ऊंच नीच मे फंसा हुआ हैं।
क्योकि मानव मानव एक हैं। इनकी केवल दो जाति है एक नर यानि पुरुष और दूसरा नारी आने कि स्त्री ।यह दोनो मिल कर सुन्दर घर और अपने समान संतति बना लेते हैं।
हा पंछी मे जातिया हैं और उसे दूर से देखते ही पहचाने जा सकते हैं जैसे सोल्हाई ( मैना) दुसरा कोकडा ( बगुला ) और तीसरा मंजुर ( मोर ) परन्तु विभिन्न रंग आकृति प्रवृत्तियों के बावजूद एक साखा मे वे लोग धोसला बना कर मिलजुल कर जी लेते हैं।
इसी तरह पशु मे भी जातिया हैं। बाध है भालू हैं। लंगुर हैं। हाथी धोडे गाय कुत्ते हैं सभी अलग है। पर परस्पर मिलजुलकर रह लेते हैं। लेकिन मनुष्य क्यो नही?
इसी तरह अनाज धान तिवडा मसुर अलग अलग है। पर साथ मिलकर भोजन बन लोगो के भूख मिटाते है।
और वृछ की भी जाति हैं। कही आम इमली तो बंबुल है यह सब मिलकर मानव उपयोगी हैं। परन्तु मनुष्य एक होकर भी परस्पर विरोधी क्यो ? आक्रामक और हिंसक क्यो? और सुन्दर प्रकृति के विनाशक क्यो?
अरे मुरख नाहक जातपात छुआछूत मे अपनी बेशकीमती जीवन को बरबाद कर रहे हैं। ईर्ष्या द्वेष मे जलकर खाक हो रहे हैं। कब तुम सम्हलोगे ।चेतोगे।
बहुत सार्थक उपयोगी सटीक जानकारी दी गई है साहेब सतनाम
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