Monday, December 25, 2023

ईसा

ईसा 

जन्म अस्तबल में और मृत्यु हुआ  सलीब पें 
सत्य और प्रेम के मसीहा का कैसा नसीब थे  
जोड़े वे दोषी  और तोड़े वे बड़ा खुशनसीब हैं
दया का पाठ पढ़ाकर  हुये क्यो  बदनसीब  हैं
यह  दुनियां और  दुनियां  वाले  बड़े अजीब है 
कोई पास रह के दूर तो कोई दूर होके करीब हैं

  ।।क्रिसमस की बधाई सबका मंगल हो ।।
    
              डा. अनिल भतपहरी 
‌                 9617777514

Thursday, November 30, 2023

संभोग - समाधि

।‌।संभोग- समाधि ।।
    
ओशो की नही यह यह हमारी अपनी अवधारणा हैं। हालांकि यह शब्द और सोच विविध धर्म ग्रंथों वहां की अवधारणाओं एंव विभिन्न द्रष्टाओं और विचारकों  से आया उनमे ओशो भी समादृत है।  पर उन सबके बाद निकष में अप‌नी   स्व अनुभव व स्व विवेक से यह जानने -समझने प्रयत्न किया कि इस संघर्ष मय जीवन में कैसे और किस तरह से  सुखी व आनंदित रहें? या रहा जा सकता हैं।  
    ईश्वराश्रित दुनिया और स्वयं भू दुनियां में प्रतिद्वंद्विंता आरंभ से हैं। ज्ञात साहित्य  वेदों में न इति न इति कह उन्हे अनश्वर असमझ अनंत असीम कहे गये और लोकायतों  ने भी कमोबेश उसी के आसपास विचार व्यक्त किये । और उनकी स्थापनाएं व वेदो को नही माना न उन्हे अपौरुषेय कहे ।फलस्वरुप  दो धाराएं प्रस्फूटित हुई  आस्तिक- नास्तिक की ।
उनमें  भी  यह विचार है कि  
 ईश्वर भी एक भ्रम हैं। ओ है या नही पर विवाद है और आपको जानकर आश्चर्य होगा कि है नही के मध्य में वो है ऐसा  भी प्रवाद हैं। और लोग ऐसे संस्थापनाओं में उन्मत्त हैं।
   अपनी बातों को मनवाने के लिए कुछेक विचारक रचयिताओं ने उस अज्ञेय अजाना के लिए निराकार साकार ,अवतार , प्रकृति कुदरत कह उसे  निर्गुण -सगुण मानकर कथा कहानियों महाकाव्यों वृतांतों का अंबार लगा दिये गये हैं। अनेक धर्म मत पंथ उनको केंद्र में रखकर चल रहा हैं। वे कुछ प्रथाए क्रियाये ईजाद कर रखे है।
   जबकि  सद्गुणों के समुच्चय और उनके व्यवहार ही व्यक्ति  और समुदाय को सुख आनंद की अनुभूति करा सकते पर प्रवर्तक और अनुआई ने कुछेक गुणों को लेकर ऐसी हाय तौबा मचाई है कि उनका निर्वहन भी हास्यास्पद और रुढता जैसे हो ग ई ।
जैसे किसी ने सत्य को पकड़ा बस नारे लग रहे है निर्वहन नही ।किसी प्रेम को पकड़ा उन्हे पता नही कि किसे और कैसे प्रेम करे बस भजन कीर्तन गा और नाच रहे है ।किसी ने परोपकार को पकड़ा बस चंदे उगाही कर दो नंबर से रुपये जोड़कर दान करते कंबल रोटी फल बाट बस रहे है । कोई जरुरत मंद ही न रहे ऐसा कोई उपक्रम नही ।प्याज न खाकर ब्याज खाकर बस ईट पत्थर के ढाचे कर भोग भञडारा कर धार्मिक होने के होड़ करते जुलुस निकाल रहे है।
किसी काम वासनाओ विलासताओ  को त्याग तप तपस्या को अपनाया तो किसी ने वासनाओ को भोगते प्राप्त छणिक सुख को तथाकथित समाधि महासुख मे बदलने उपक्रम खोज निकाला ।  युगनद्ध युगल द्वय हठयोग के पंच मकार के मांस मदिरा मुद्रा मैथुन के लिए कुंठाग्रस्त काम पिपासु लोलुप भ्रमित लोग एकत्र किये गये और अनवरत संभोग घंटों क्रिया चलने वीर्य स्खनल को रोक उसे उर्ध्व साधने की अटपटी क्रिया विकसित कर ली ग ई ।
कहने का अर्थ जिनको जो सुझा सबने अपनी दुकाने खोल मेला में बैठ गये ।
  सभी अपनी समान सामान और मेवा को उत्तम बताने लगे ।
ओ तो बौराया जग को बौराने लगे जिनकी संख्या भारी उनकी ही सत्ताए जिनकी दौलत भारी वही प्रबंधक ।
     यह सब खेला है खेलते रहे और भ्रम को पाने के चक्कर मे भ्रमित रहे ।जिसे हमने ही बनाया और हमने ही उसे नही जाना बल्कि उसे जानबुझकर अनजाना किया दुनिया को दीवाना किया ।

जबकि धर्म कर्म साधना समाधि सुख आनंद व ईश भक्ति भगवद्प्राप्ति  आदि के उद्यम का  सार यह  है कि  स्वयं को सुधारो स्वयं को चेताओ न कि दूसरों  को सुधारने और कही कोई ग्रंथ जगह स्थल पर भगवान है को बताने या कुछ को लेकर या एकांत में ढूढने निकल पड़ो। 
   सच तो यह है कि कुछ ऐसा करो कि आपके वजह से कोई  परिजन और अन्य  हो ,को कोई भी तकलीफ न हो । वे प्रतिकार या प्रतिरोध कर आपके शांति व सुकून में बाधा न पहुचाएं। 
कबीर की तरह - जस की तस धर दिनी चदरिया रखो न कि कोई मत पंथ आदि बखेड़ा खड़ा कर यश नाम आदि कमाने उद्यम करो ।यह न मिला तो दु: ख और फिर उनके निदान के लिए प्रयत्न फिर चक्र मे जुत गये कोल्हू की तरह ।
     अर्थ ,धर्म  ,काम , मोक्ष तो सांसरिकता है  इन सबसे ऊपर उठोगे तो जानोगे कि जीवन और आनंद क्या है ? पर लोग इन्ही चक्र मे मरण और पुनर्जन्म लोक परलोक के चक्र में भ्रमित भटक रहे हैं।
     स्वयं का भोग ही संभोग है न कि पराई स्त्री या स्वयं की स्त्री का भोग को संभोग कहे ।वह सहवास है काम कलाए है ।सामर्थ्य है तो सहवास होगा अशक्त नि: शक्त या नंपुसक या किन्नर भला क्या और कैसे संभोग करेगा ? और उन्हे फिर कैसा सुख कैसा आनंद कैसा समाधि ?
       आपको जो मिला है चाहे संपदा या विचार या समझ उसे स्वयं के हितार्थ कैसे भोगते हो कि किसी दूसरे को फर्क न पडे उसे कष्ट न हो यही संभोग है ।और फिर उस से सुख पाओ या आनंद या उन्मनी रहो समाधिस्थ रहो या जो चाहे नाम दो उससे क्या ? कुछ लेना न देना मगन रहना ।

Friday, November 24, 2023

सामान्य सी बात

#anilbhatpahari 

।।सामान्य सी बात ।‌।

बहुत सहज 
सामान्य कथ्य है
पर बहुत से
असामान्य लोगों को 
असहज लगेंगें
कि आज देवता जगेंगें 
तो सब कुछ 
सुमंगल होगा
गंवाई गई 
सत्ता आ जायेगी 
या फिसलती हुई 
सत्ता ठहर जाएगी 
जल रहे है धूप-दीप 
घंटे और अज़ान भी 
गूंज रहे फ़िजा़ में 
हो रहे हैं यज्ञ हवन भी 
सुदूर  संकीर्तन भी 
इर्द गिर्द मंगल भजन भी 
इधर कुछ तांत्रिक 
कर रहे तंत्र साधना 
और उस तरफ  यांत्रिक 
कर रहे यंत्र साधना 
मांत्रिक लोग फूंक रहे मंत्र 
शंकालू प्रश्नालू भी 
कमर कस लिए है 
कि ईवीएम होगा हैंक 
जब चंद्रयान नियंत्रित होते यहां से 
तब क्या दस कदम दूर 
संत्रियों के साये में रखे मशीन 
मंत्रियों के ईशारे पर 
यंत्र साधकों द्वारा 
छेड़ा नही जा सकेगा ?
जबकि कुछेक संत्रियों ने 
कई मुजरिमों छोड़ दिया 
कुछेक ले दे कर 
इधर कुछेक सोनोग्राफर 
जो कैमरा माईक पकड़ 
टी वी स्क्रीन में 
भ्रूण परीक्षण में 
लगे हुये हैं-  
किसान होगा या व्यापारी 
नट होगा या मदारी 
माटी पुत्र कि पार्टी पुत्र 
पर यह एहतियात
 ज़रुरी है कि 
इतनी साधारण बात को 
कैसे बतड़ग किया जाय 
जीत की उम्मीदे हो  
तो हार के ठीकरे भी 
कही पर भी फोड़ दिया जाय 
सारे विकल्प खुले रखें
कि मौके पर 
वक्त जरुरत पर 
कहने के लिए 
कुछ कहे तो थे 
हालांकि 
इस साधरण सा कथ्य 
बहुत सा असाधारण लोगों को 
असहज लगेंगें
कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है 
तुम कुछ कह दोगे ?
जबकि कहना हमारा 
जन्म सिद्ध अधिकार है 
और केवल तुम्हरा सुनना 
एकाधिकार ही नही सर्वाधिकार है 
भले तुम जनता हो मतदाता हो 
पर तुम्हारे पास माईक नही हैं
लेने के लिए कोई बाईट नहीं हैं
क्यो चिल्ल पो और  हाहाकार 
अरे हो गया मतदान खतम बाजार 

- डा. अनिल भतपहरी ./ ९६१७७७७५१४

Thursday, November 23, 2023

हिमालय‌

#anilbhatpahari 

हिमालय 

संसार का वैभव  त्याग कर लोग हिमालय की ओर प्रस्थान करते रहे  हैं। कहते है कि वहां देव निवास करते है इसलिए तो हिमालय परिक्षेत्र को देवभूमि की संज्ञा दी गई हैं। 
  कुछ संकट आया , वय ढला  और सर के बाल सफेद हुये  नहीं कि लोग कैलाश त्रिशुल नंदादेवी के शिखर दर्शन के लिए उद्दत हो जाते हैं।तो कुछेक अमरनाथ , बद्रीनाथ गंगोत्री, हरिद्वार की ओर प्रस्थान करते है कि गोया वहां जाने मात्र से मुक्ति मिलेगी या  दर्शन मात्र से मोक्ष या निर्वाण मिल जाएगा ! मानसरोवर को बुद्ध की मानिंद हड़पकर या हस्तगत  चाइना  "बुद्धम शरंणम गच्छामि" का उद्धोष कर रहा है या  उनके आंऊ माऊ चाऊ हम जैसों के भेजे मे समाते नहीं क्या?भले धर्मशाला खोलकर हम मैनपाट तक शरणागतों को आश्रय देकर धर्मप्रिय महादेश के "धर्मात्मा "बने हुये हैं।
 तो भैये कह रहे थे कि वहां तो अनेक साधु ,तपस्वी , संत मठ ,मंदिर ,आश्रम  दिखते भी हैं। जहां मोक्ष निर्वाण का कारोबर चलता हैं जहां  परमानंद -आत्मानंद की अकथ कथा का प्रवाह भी शिलाखंडों व हिमखंडों को‌ चकनाचूर कर आगे प्रयाण करते कल कल निनाद करते  रहे हैं।
   पर सच तो यह है कि  हिमालय की ओर आजकल  युवाओं का ज्यादा आकर्षण बढ रहा  हैं। वहां बड़ी तेजी होटल, रिसार्ट, होम स्टे ,रेस्त्रां ,पब और विविध मौज मस्ती एंव  पर्यटन व मनोरंजन उद्योग  के केन्द्र स्थापित होने लगे हैं। पैराग्लाडिंग, ट्रेकिंग  ,रीवर राफ्टिंग, जीप लेने जैसे साहसिक कारनामें यदि जीवन संघर्ष में काम आये तो किसी  हठयोगी की तप साधना के प्रतिफल से कमतर नही समझना चाहिये। हमें योगी नही सस्टनेबल भोगी चाहिये तो वसुंधरा के वैभव को चक्रवर्ती सम्राट की तरह भोग सके। पारिवारिक कलह या आर्थिक संकट से भयभीत होकर झोला उठाकर कही भाग न जाये बल्कि शुतुरमुर्ग ही सही गर्दन रेत में घुसा कर डटे रहे या कछुए की मांनिंद भीतरी घर में या बीबी के पल्लु तलें ही बैठ कर मुकाबला करे ...
     हिमालय व देवभूमि  दर्शन  वैराग्य भाव को जागृत करते थे अब राग ,रति ,रंग हिमालय ही जगा रहे हैं। राग -वैराग्य का अनुठा समन्वय वहां द्रष्टव्य हैं। हमलोग हिमालयन व्यु पांइट को अब इंडिया का स्वीट्जरलैंड कह महाआनंद में निमग्न हो जाते हैं। सच कहे तो आसपास बार व बार बलाएं हो, तो इंद्रलोक को पछाड़ दे और गर फिरदौंस ... जमी अस्त कहके उस जहांगिर को चुनौति दे कि केवल कश्मीर ही नही रोहतांग से लेकर नाथुला तक जगह -जगह पर ज़न्नत ईज़ाद कर लिए गये हैं। अब बहत्तर ही क्यों पचहत्तर हुरें सुबह ए शाम मौज़ूद हैं।
  जहां  संन्यास  की दीक्षा ली जाती थी अब उसी भूमि व पावन स्थल में सुहागरात मनाकर गृहस्थ की शुभारंभ करने  लगे हैं।  यही बदलाव है भाया-" अब नइ सहिबो बदल के रहिबो ।"  पांडव लोग महाभारत युद्ध जीत कर विजय के प्रमाद मदमस्त स्वर्गरोहण करने या कहे   मरने हिमालय  गये अब भी कथित विजेताओं द्वारा यह किये  जाते है पर अब जीवन की शुरुआत करने जा रहे हैं।उनका तो स्वागत सत्कार होना चाहिये न कि .... 

     बहरहाल  आइये हिमालय  दर्शन कीजिए और प्रकृति की प्रेम में निमग्न हो परमानंद में खो जाए ...और स्वामी अनिलानंद की भजन में डूब जाय -

कोई काहु में मगन कोई काहु में मगन 
मिटे सारे भ्रम हो प्रसन्न अन्तर्मन 
कोई गाये भजन कोई करे रमन ...

बाकी अंतरा कभी बाद में ...

"अगर बर्दास्त कर सको  तो"  हमारे नये आकार ले रहे कथेतर संग्रह से

हिमालय

#anilbhatpahari 

हिमालय 

संसार का वैभव  त्याग कर लोग हिमालय की ओर प्रस्थान करते रहे  हैं। कहते है कि वहां देव निवास करते है इसलिए तो हिमालय परिक्षेत्र को देवभूमि की संज्ञा दी गई हैं। 
  कुछ संकट आया , वय ढला  और सर के बाल सफेद हुये  नहीं कि लोग कैलाश त्रिशुल नंदादेवी के शिखर दर्शन के लिए उद्दत हो जाते हैं।तो कुछेक अमरनाथ , बद्रीनाथ गंगोत्री, हरिद्वार की ओर प्रस्थान करते है कि गोया वहां जाने मात्र से मुक्ति मिलेगी या  दर्शन मात्र से मोक्ष या निर्वाण मिल जाएगा ! मानसरोवर को बुद्ध की मानिंद हड़पकर या हस्तगत  चाइना  "बुद्धम शरंणम गच्छामि" का उद्धोष कर रहा है या  उनके आंऊ माऊ चाऊ हम जैसों के भेजे मे समाते नहीं क्या?भले धर्मशाला खोलकर हम मैनपाट तक शरणागतों को आश्रय देकर धर्मप्रिय महादेश के "धर्मात्मा "बने हुये हैं।
 तो भैये कह रहे थे कि वहां तो अनेक साधु ,तपस्वी , संत मठ ,मंदिर ,आश्रम  दिखते भी हैं। जहां मोक्ष निर्वाण का कारोबर चलता हैं जहां  परमानंद -आत्मानंद की अकथ कथा का प्रवाह भी शिलाखंडों व हिमखंडों को‌ चकनाचूर कर आगे प्रयाण करते कल कल निनाद करते  रहे हैं।
   पर सच तो यह है कि  हिमालय की ओर आजकल  युवाओं का ज्यादा आकर्षण बढ रहा  हैं। वहां बड़ी तेजी होटल, रिसार्ट, होम स्टे ,रेस्त्रां ,पब और विविध मौज मस्ती एंव  पर्यटन व मनोरंजन उद्योग  के केन्द्र स्थापित होने लगे हैं। पैराग्लाडिंग, ट्रेकिंग  ,रीवर राफ्टिंग, जीप लेने जैसे साहसिक कारनामें यदि जीवन संघर्ष में काम आये तो किसी  हठयोगी की तप साधना के प्रतिफल से कमतर नही समझना चाहिये। हमें योगी नही सस्टनेबल भोगी चाहिये तो वसुंधरा के वैभव को चक्रवर्ती सम्राट की तरह भोग सके। पारिवारिक कलह या आर्थिक संकट से भयभीत होकर झोला उठाकर कही भाग न जाये बल्कि शुतुरमुर्ग ही सही गर्दन रेत में घुसा कर डटे रहे या कछुए की मांनिंद भीतरी घर में या बीबी के पल्लु तलें ही बैठ कर मुकाबला करे ...
     हिमालय व देवभूमि  दर्शन  वैराग्य भाव को जागृत करते थे अब राग ,रति ,रंग हिमालय ही जगा रहे हैं। राग -वैराग्य का अनुठा समन्वय वहां द्रष्टव्य हैं। हमलोग हिमालयन व्यु पांइट को अब इंडिया का स्वीट्जरलैंड कह महाआनंद में निमग्न हो जाते हैं। सच कहे तो आसपास बार व बार बलाएं हो, तो इंद्रलोक को पछाड़ दे और गर फिरदौंस ... जमी अस्त कहके उस जहांगिर को चुनौति दे कि केवल कश्मीर ही नही रोहतांग से लेकर नाथुला तक जगह -जगह पर ज़न्नत ईज़ाद कर लिए गये हैं। अब बहत्तर ही क्यों पचहत्तर हुरें सुबह ए शाम मौज़ूद हैं।
  जहां  संन्यास  की दीक्षा ली जाती थी अब उसी भूमि व पावन स्थल में सुहागरात मनाकर गृहस्थ की शुभारंभ करने  लगे हैं।  यही बदलाव है भाया-" अब नइ सहिबो बदल के रहिबो ।"  पांडव लोग महाभारत युद्ध जीत कर विजय के प्रमाद मदमस्त स्वर्गरोहण करने या कहे   मरने हिमालय  गये अब भी कथित विजेताओं द्वारा यह किये  जाते है पर अब जीवन की शुरुआत करने जा रहे हैं।उनका तो स्वागत सत्कार होना चाहिये न कि .... 

     बहरहाल  आइये हिमालय  दर्शन कीजिए और प्रकृति की प्रेम में निमग्न हो परमानंद में खो जाए ...और स्वामी अनिलानंद की भजन में डूब जाय -

कोई काहु में मगन कोई काहु में मगन 
मिटे सारे भ्रम हो प्रसन्न अन्तर्मन 
कोई गाये भजन कोई करे रमन ...

बाकी अंतरा कभी बाद में ...

"अगर बर्दास्त कर सको  तो"  हमारे नये आकार ले रहे कथेतर संग्रह से

Friday, November 17, 2023

स्त्री

८ मार्च महिला दिवस पर...हमारी  वर्षो पूर्व  लिखी कविता द्रष्टव्य है -  
 
"लड़की"

महुंए की फूल है 
न जाने कब टपक पड़े 
ख़ानाबदोश है 
कब कहां डेरा पड़े
सच कहें तो
शीशी है इत्र की 
ढीली हुई डांट 
कि गंधाती उड़ पड़े 
दहलीज़ फांदते ही 
ऊग आतें हैं 
असंख्य पर 
उड़ना चाहती हैं
वह भी 
स्वच्छंद आकाश पर 
पर ,पर कतर दी जाती हैं
कहकर कि तुम 
घर की इज्जत हो 
तुम्हारे बाहर जाने से
किसी से युं ही
हस बोल लेने से 
या किसी को शक्ल 
दिखा / दिख जाने मात्र से  
वह चली जाएगी 
जिसे पुरखों ने 
वर्षों प्रखर पराक्रम से 
अर्जित किया हैं
भले पुरुष 
और उनके परिवार
उसे भुनाते समृद्ध हो
किसी के इज्ज़त  
से खेलते रहे 
मान मर्दन कर 
अट्टहास करते रहें
पौरुष प्रदर्शन कर
उपहास करते रहे
हास परिहास करते रहे
ऊपर से यह सुक्ति 
गजब की यह युक्ति 
बिन राग रति रंग के 
भव में बुड़े
और संग इनके 
भव से तरें  
पाते पुरुष मुक्ति 
नरक द्वार से 
गूंजते सुदूर कही 
यत्र नार्यस्तु पुज्यंते  
रमन्ते तत्र देवता  !
तब मासूम सा 
एक सवाल 
कि देवी कैसे,
और कहां रमती है? 
तलाशती फिरती
सकल ब्रम्हाण्ड 
जारी है यात्रा
दहलीज़ भीतर  
मुगालते में बाहर 
खाट पर बैठें 
लटकते ताले सदृश्य 
कठोर पुरुष 
भले वे हो लुंज -पूंज
घुत्त नशे में 
या हो अशक्त 
वृद्धा कोई जो 
कोमलांगी तो है 
पर ओढ़े हुए पौरुष
ढ़ोते हुए भार 
कठोर- कुरुप 
बेचारी लड़की
औरत बेचारी 
बेचारी नारी ..!!!!

पिता ,पति- पुत्र 
के अधीन सदा 
नारी तेरी अधीनता 
रही है मर्यादा 
और यही है 
नारी की अस्मिता 
नारी की गौरव गान 
बालबिल कुरान गीता
गाई गयी असीम महिमा 
पर कहीं न कहीं 
है एक घड़ा रीता 
तलाशती स्वयं अपनों में 
अपनी ही अस्मिता 
द्रौपदी रुक्मणी राधा 
सीता अहिल्या सूर्पनखा   
लोई आमिन यशोधरा 
मरियम रजिया सफरा 
बेटी बहु बहन बन कर मां 
हुआ जग में न्यारा ...

- डा. अनिल भतपहरी

चित्र -जीवन संगिनी श्रीमती अनीता भतपहरी (उसे ही समर्पित यह कविता । )

Friday, November 10, 2023

कन्फ्युज्ड

#anilbhatpahari 

।।कन्फ्युज्ड ।।

है भी ना 
भी है ना 
ना भी हैं
है भीना
हैभी ना  
हैंना भी 
भीना है 
भीहैंना 
नाभीहैं
हैंभीना 
हैंभीना के 
नाभी मे हैं भी 
हैना के नाभी में है 
नाभी में हैं न 
नाभी में हैं
इस तरह यहां
बातों -बातों में 
बतडंग करने 
की परिपाटी हैं
लालबुझ्झड़ 
और बतड़ग भैये 
ही बस खाटी है
बाकी दो कौड़ी की 
मिलावटी हैं
नेति-नेति की 
आरती है 
यहां लोगन  
भांति-भांति हैं
जो गूंगे- बहरे है 
जो अंधें- संधे हैं
उसे ही शांति हैं 
जो न सुने 
जो न बोले 
जो न देखें
जो कुछ न सोचें 
जो जिये और मरे 
पर कुछ भी न करे 
ओ निर्मोही 
ओ निर्दोषी 
ओ बैरागी 
ओ तपसी 
ओ मुनि
ओ जति 
उनके भी 
है क्या गति 
कैसी  मति 
है उनकी 
सुध न उन्हें 
तन- मन की 
क्या करे कल्याण 
जन मन की 
जो काम न आवे 
किसी की 
लगता है 
ओ सनकी 
या फिर शिकार 
किसी के हनक की 
क्या मतलब 
ऐसे जिनगी की  
पर उसे क्यों 
ढोते लोग 
बातों में उनके 
खाते गोते लोग ..

     - डा. अनिल भतपहरी/ 9617777514

Sunday, October 29, 2023

मंगल असीस

।।मंगल असीस ।।

उतरिस चंद्रयान चंदा म त,
 देखत मन भाइस 
उन्चालिस बछर पहली लिखे,
 कविता के सुरता आइस 
सोला बछर के रहेंव 
जब देखेंव  पुन्नी के चंदा  
मन में भारी उथल - पुथल
काटेंव रतिहा उसनिंधा 
चित्र भारती म पढ़न  स्पेस स्टार्स 
रोचक विज्ञान कथा 
चकमक ,पराग, सरिता,मुक्ता 
सरस सलिल ,चंदा मामा 
कत्कोन रहस्य रोमांच तिलस्म 
सब मन म भरे रहय 
आनी- बानी के जिनिस ल 
जाने- समझे के सउक रहय 
खाए- पीए जिनिस छोड़ 
पाकेट मनी म पत्रिका बिसावन 
कोर्स के किताब तिरिया के  
सनन भर पढ़त रहन 
बिन्दू मिला के छुपे हुये  ल खोजन 
 दू समान चित्र म चूक ल निकालन 
पढ़त खेलत खात मजा से 
अध्धर साइकिल चलावन 
पूल घाट म मारत छलांग 
नरवा म ससन भर नहावन 
बड़ उछाहित मन हमर 
सिरतोन अगास म किंजरय 
फिटिक चंदेनी देखत रतिहा 
कुटॆला , खटिया सुकुवा मन ल चिन्हन 
नवबज्जी रतिहा  पतालू नरवा के
बंधानी घाट म बइठे 
भैया चरन संग पढई -लिखई 
गोठ मन ल गोठियाते 
ऊपर सरग ले  मोर मुड़ म आइस 
टार्च मारे कस  गोर घेरा अंजोर 
देख दुनो सुकुड़दूम 
भागेन पल्ला छोर 
लीम चौरा ब इठे सियान मन सो 
ये घटना ल सोरियायेन 
कुछु अनहोनी प्रेत बाधा होही 
सुन बहतेच डराएन  
शिक्षक बाबू जी हर हमन ल समझाइन 
उल्का पिंड खगोलीय घटना ल बताइन 
उड़न तश्तरी के तको चिंता मन बियापिन 
कछु अनहोनी झन होय सतपुरुष ल सुमरिन 
तभो ल सियान मन के मन नइ माढिस 
अउ गांव के देवालू -चुकनू बइगा करा झरवाइस 
पता नही अगास म मन बिचरत रहय 
बने बर वैज्ञानिक हमरो मन करय 
फेर गणित कापी म ज्यामिति  के जगा
 कविता लिखा जाय 
गुप्ता सर खिसियावत 
अउ कापी ल प्रिसिपल बाबु ल देखा दय 
स्कूल म सब झन  तीर तो 
अबडेच  खिसियाय 
फेर घर आवय त कविता
 ल देखे पढ़े  बर मंगाय 
कुछ अक्षर ल जोड़य 
अउ कुछ मन  ल सुधारय 
साहित्य संगीत प्रेमी 
पिता श्री के असीस  दुलार मिलय 
बिग्यानिक तो बनेन नही 
फेर बनगेयन  कवि 
बरनन करत रहिथन आनी बानी
 गढ़त रथन छवि 

आज अगास के चंदा म उतरिस चंद्रयान 
देख मन मगन हमर बाढिस देश के मान 
उछाहित मन म सिरतोन  नव उमंग भरगिस 
चौवन साल के ये तन म मन  सोला साल होगिस 
बधाई सब झन ल अउ हवय मंगल कामना 
मिलते रहय उपलब्धि बढ़वार सदा शुभकामना

          - डां . अनिल भतपहरी / 9617777514

चंद्रयान ,चांद पर  उतरने की खुशी में 23- 24 8-1923 रात्रि 11 से 1 बजे के मध्य ।

Sunday, October 22, 2023

तुरते ताही ( छत्तीसगढ़ी मे याचिका को अरजी कहते है )

तुरते- ताही 

।।याचिका ल छत्तीसगढ़ी म अरजी कहिथे  ।।

   
छत्तीसगढ़ी माध्यम से शिक्षा पर लगी जनहित याचिका पर सुनवाई के समय  हुई जिरह में छत्तीसगढ़ी की अक्षमता के ऊपर टीप अनुचित हैं।
  याचिका को क्या कहते है ? पर वकील साहब को जवाब नही सुझा । ऐन वक्त भाषा के अनुप्रयोग न करने से उचित शब्द स्मृत भी नही होते यह स्वभाविक हैं।
   असल में याचिका शब्द अंग्रेजी के पीटिशन के विधिक हिन्दी शब्द है , जो याचक से बना है ।  इसके पर्याय प्रार्थना , विनती , अर्ज़ आदि है। देश  मुगलों के शासन से कचहरी ,वकील ,अर्जी, अर्जीनिवेश, मोहर्रिर , दफ्तरी पटवारी तहसीलदार जैसे शब्द लोक भाषाओं में आया। इस तरह याचिका को छत्तीसगढ़ी  "अरजी"  कहते है। 

   हर क्षेत्रिय भाषा  रिजनल लेंगवेंज विस्तारित होकर राजकीय  और सक्षम भाषा बनती  है।उसमे मूल शब्द प्राय,: कम ही रहते हैं । आगत और तस्सम तद्भव शब्दों से वह समृद्ध होती और इनके अनेक वर्ष लगते है।
 छत्तीसगढ़ी के अनेक मूल शब्द न  अंग्रेजी मे है संस्कृत मे है न हिन्दी । इसके मतलब इन भाषा को  अक्षम कहे या माने जाय  ?  क्या यह  सही हैं? नही । 
  सावा ,बदौरी ,करगा ,ओगन , ठुलु  ,गासा ,पखार , जुड़ा सुमेला पंचाली आदि  का कोई पर्याय अंग्रेजी संस्कृत मे हो तो बतावे?
     दर असल शब्द आवश्यकता  प्रयोग और प्रवृत्ति आदि के बनती हैं और व्यवहृत होती है। मनुष्य का दायरा जितना विस्तारित होगा उनकी भाषा उतनी ही विस्तृत और समृद्ध होंगे। 
     पाठ्यक्रम लागू करके देखे महज एक दशक में जो परिणाम आएगा चौकाने वाला होगा। छत्तीसगढ़ी हिन्दी की कृत्रिम व नवीन भाषा नही यह प्राकृतिक रुप से विकसित हजारों वर्षों की यहां तक विक्रम खोल , चितकबरा डोंगरी , सिंघनमाड़ा से प्राप्त आदिम चित्र से प्रमाणित आदिम मानव द्वारा बोली जाने वाली जनभाषा हैं।
     स्कूली शिक्षा के  इतिहास में आरंभ से इसे पढ़ाए जाते तो यहां भी उडिया मराठी बंगाली तमिल‌ तेलगु जैसे परिस्थियां और प्रतिभाएं विकसित होती । पर दुर्भाग्यवश जो समझी और व्यवहृत नही की जाती ऐसी तीनों भाषाएं  हिन्दी संस्कृत और अंग्रेजी पढाये जा रहे हैं।  इस भाषा में छत्तीसगढ़ी दैनंदिनी में उपयोग आने वाली शब्द ही नही हैं। फलस्वरुप लोग अपनी मातृभाषा छत्तीसगढ़ी को विस्मृत करने की अवस्था में पहुच गये हैं। यह बेहद चिंतनीय हैं। 
    यदि आधुनिक ज्ञान- विज्ञान के चलते कोई शब्द न भी हो तो अन्य भाषा के शब्द को ज्यों की त्यों तत्सम रुप या ध्वनि प्रवर्तित कर तद्भव रुप में अंगीकृत की जाती है। तो छत्तीसगढ़ी में इस तरह आत्मसात करने की बेहतरीन व्यवस्था हैं। छत्तीसगढ़ सात राज्यों की सीमा से लगा हुआ हैं।  आजादी के पूर्व म प्र  उप बिहार उडीसा महाराष्ट्र मारवाड़ आदि  से साक्षर लोगो को बुलाकर मालगुजारी , रैय्यतवाड़ी  में कर्मचारी नियुक्त किये  वे स्थायी रुप से बसते गये। उस दृष्टि से भॊ  भाषाई वैविध्य है। आजादी के बाद पंजाबी सिंधी बंगलादेशी एंव तिब्बतियों को बसाये गये। भिलाई कोरबा जैसे नवरत्न श्रेणी के उद्योग के चलते पुरा लघु भारत इन जगहों पर बसा हुआ हैं।
   उन सबके शब्द छत्तीसगढ़ी में आत्मसात होते गये अब भी यह जारी है। कहने का तात्पर्य अन्य भाषा के शब्दों को  ग्राह्य करने अपूर्व  क्षमता हैं। इसलिए अधिक या अनावश्यक या कहे " बरपेली संसो न इ करना चाही।"
    राज के  नान्हे नान्हे लरिका बच्चा मन ल अपन दाई- ददा अपन दादा- दादी , नाना - नानी  के भाखा म पढाय- लिखाय अउ समझाय के तुरते बेवस्था होना चाही। नइते ओमन अपन भाषा के संग अपन संस्कृति तको ल भुला जही ।  वैसे भी विगत सवा सौ साल के स्कूली शिक्षा के चलते तथाकथित शिक्षित अउ रोजी - रोजगार पाए  शहर पहर धरे मनखे मन ही प्राय: छत्तीसगढ़ी ल गांव- गली खेत - खार ,मजदूर- श्रमिक‌ की बोली समझ आत्महीनता से ग्रसित कन्नी काट लिये हैं।इनकी संख्या महज कुछ हजार या लाख से अधिक नही‌ है। इनकी बिना परवाह किये आठवी सदी में समृद्ध दक्षिण कोशल ( पुरा वैभव सिरपुर मल्हार तुम्मण आदि )  की वैभव को पुनर्स्थापित करने का अब वक्त आ गया हैं। और वह हमारी प्यारी छत्तीसगढ़ी भाषा और संस्कृति से ही संभाव्य होगा ।
    उधारी -बाढ़ी के जिनीस ह कतेक ल पुरही अउ काबर फुटानी मारबोन  । अपन ल जतनव अउ उपजाव ।
          ।।जय छत्तीसगढ़ी जय छत्तीसगढ़ ।।
     - डा. अनिल भतपहरी / 9617777514

Friday, October 20, 2023

बाबू खान

जनाब बाबू खान साहब 
 
     बालसमुंद स्थित गुरु घासीदास मंदिर के समीप पुष्पवाटिका के पास अपने धुन में बिधुन  एक लंबा पतला सा अघेड़ पुरुष  कुर्ता पैजामा और सलुखा पहिने राजपुरुष सा छवि वाले एक शख्स से मूलाकात हुई।
दुआ -सलाम के बाद , बात  आगे बढ़ी । उनसे मिलने के  पूर्व उनके नाम से परीचित था। क्योकि उनकी एक छोटी सी पुस्तिका गुरुघासीदास चरित की चर्चा से भी वाकिफ़ रहे हैं। पता चला कि यही जनाब " बाबू खान " हैं जो पलारी क्षेत्र की विभिन्न सूचनाओं  एंव समस्याओं को नवभारत समाचार पत्र के माध्यम से उठाते रहे हैं।
  शा कन्या महाविद्यालय पेड्रारोड  से स्थानांतरण के बाद 10 जून 2000 को शा महाविद्यालय पलारी में  कार्यभार ग्रहण कर  हीरा सेठ व्यवसायी के घर किराये पर रहता था। और प्राय: आदतन शाम को भ्रमण हेतु नगर के सुप्रसिद्ध जलाशय जिसमें 8 वी सदी के  प्राचीन सिद्धेश्वरनाथ मंदिर  , राधा कृष्ण, सीता- राम एंव गुरुघासीदास मंदिर तथा द्वीप मे नव निर्मित शारदा मंदिर स्थापित हैं, जाया करता क्योकि यहां के महौल हमें प्रेरित करते और सृजन के कुछ सूत्र मिलते।
     कमल पुष्प से अच्छादित अत्यंत मनोरम बालसमुंद पूरे प्रदेश भर में चर्चित हैं। यहां कार्तिक पूर्णिमा के दिन और गुरुघासीदास जयंती दिसबंर माह में मेले लगते हैं।  आस-पास के हजारों श्रद्धालू एकत्र होते हैं। मेले के बाद  रासेयो पलारी के छात्रों द्वारा मंदिर व मेला परिसर की साफ -सफाई नियमित गतिविधी कार्यक्रम में करते रहे हैं। एक तरह से  बालसमुंद पलारी कालेज के  रासेयो ईकाई  का स्थाई परियोजना स्थल हैं । जहां पर 2003 से 2019 तक हमें कार्यक्रम अधिकारी होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। साफ- सफाई , पौधारोपण , रोपित पौधे मे पानी तराई इत्यादि गतिविधियां हेतु महाविद्यालय के स्वयंसेवक जाते ही रहते थे‌। 
    बहरहाल बाबू खान साहब के आकर्षक व्यक्तित्व व सधे हुए धीर-गंभीर आवाज के हम कायल हो गये और उनकी शेरो- शायरी, गीत -ग़ज़ल के दीवाने भी। खान साहब एक तरह से सच्चे मानवतावादी इंसान थे। शा महाविद्यालय में प्राय: सभी साहित्यिक / सांस्कृतिक आयोजन में सहभागी होते और महाविद्यालयीन कार्यक्रमों के  फोटोग्राफर /रिपोर्टर भी। हमारे सभी दस व सप्त दिवसीय  रासेयो कैम्प  पलारी के लगभग सभी बडे ग्रामों में उनकी  कवि और रिसोर्स परसन के रुप मे दो तीन दिनों तक आम दरफ्त होते । वे इस तरह महाविद्यालयीन बच्चों के साथ धुल-मिल जाते। उनका स्नेह  सदैव मिलते रहा हैं। वे महाविद्यालय मे आयोजित कार्यक्रमों में सहज ही उपलब्ध होते थें।
          साहित्यिक मनीषी और प्रशासनिक अधिकारी डा देवधर महंत जी तब पलारी में तहसीलदार थे और उनसे हमारी मित्रता महाविद्यालय के ग्रंथपाल भट्ट जी माध्यम   हुई ही थी कि  समन्यय परिवार  पलारी का गठन हुआ। उसमें बाबू खान , रामकुमार साहू , टेसूलाल धुरंधर , रामनारायण यादव , पोखनलाल ,पुरनलाल , नेहरुलाल , बाबुलाल गेंड्रे , रविशंकर चंद्राकर  जैसे नवांकुर लोग सम्मलित रहें। प्राय: प्रत्येक गोष्ठी जो गायत्री मंदिर प्रांगण , मेरे निवास या रामकुमार साहू के निवास में होते और परिक्षेत्र मे साहित्यिक कारवां आगे बढ़ती गई । 

2004 में हमारे संपादन में पलारी क्षेत्र के होनहार कवियों की साझा संग्रह  - "परसन "  नामक स्मारिका प्रकाशित हुई। परिणाम स्वरुप बलौदाबाजार , महासमुन्द , भाटापारा नेवरा तिल्दा आरंग , खरोरा,  सारागांव क्षेत्र के साहित्यकारों के बीच हमारे अंचल के साहित्यकारों का आव्रजन होने लगा। इसमे प्रमुखत: मीर अली मीर  रामरुप वर्मा , संदीप पांडे , सुरेन्द्र शर्मा , हितेन्द्र ठाकुर ,  ताराचंद अग्रवाल , द्वारिका मंडल , डा आर एस जोशी , नरेन्द्र वर्मा , सुमन बाजपेई , सरिता तिवारी , दत्तात्रेय अग्निहोत्री , सालिकराम सेन , अनिल जांगड़े गौतरिहा , कृपाल पंजवाणी  नेहरुलाल यादव ,डां. उमाकांत मिश्र , डां  अनिल भतपहरी जैसे साहित्य प्रेमी साधक गणों ने साहित्य सुमन ,  समन्वय साहित्य परिवार व छत्तीसगढ़ी राजभाषा साहित्य समिति गठित कर विगत 20-25 वर्षों से इस ट्रांस महानदी परिक्षेत्र साहित्य की लौ  जलाई जिससे नव पीढी आलोकित हैं। 
         उनमें खान साहब की गरिमामय उपस्थिति उनकी  मां सरस्वती की वंदना, फिर उनके लोकप्रिय गीत  जिसमे हमर गांव बलावत हवय.. और अनेक शेरो.- शायरी नज्म ग़ज़लो से महफिल में शमा बंध जाते। उनकी  घोष स्वर के हम सभी दीवाने थे। 
   खान साहब सामाजिक सौहार्द्र के मिशाल थे वे जन्मजात कांग्रेसी थे लेकिन भाजपा के गढ़ और कर्णधार समझे जाने वाले बृजलाल वर्मा पूर्व केबिनेट मंत्री के गांव में  हर वर्गों के बीच बेहद लोकप्रिय थें। सोसल मीडिया से पता चला कि  खान साहब नही रहें। मन एकदम सा उदास हो गया और उनके साथ बिताये बेहतरीन  लम्हों की याद में खो गये।
     खान साहब का जाना परिक्षेत्र के अपूर्णीय क्षति हैं। साथ ही सामाजिक सौहार्द्र व गंगा जमुनी तहजीब के एक अध्याय का पटाक्षेप हैं। खान साहब के व्यक्तित्व व कृतित्व के ऊपर " स्मारिका " आदि का प्रकाशन अब वहां के साहित्यिक जनों की नैतिक दायित्व हैं। उक्त कार्य में जो भी सहयोग की अपेक्षा होगी करने सदैव तत्पर हैं।
    पलारी - बलौदाबाजार  अंचल के  साहित्यिक बिरादरी द्वारा यह कार्य यदि भविष्य में संपादित होता है  तो नि:संदेह खान साहब के लिए  सच्ची श्रद्धांजलि होगी। उनकी मातमपुर्सी होगी। आजीवन क्वारे खान साहब सामाजिक साहित्यिक व अपनी पार्टीगत गतिविधियों सदैव सक्रिय थे। वे साफ- सुथरे छवि के मालिक और सादगी पूर्ण जीवन शैली के संवाहक थे।
     इंशा अल्लाह ! खुदा उन्हे जन्नत बक्खे!  और उनके कुनबा आबाद रखें।
     
       - डां. अनिल भतपहरी / 9617777514

Thursday, October 19, 2023

अथ भट्टप्रहरी कथा

।।अथ भट्टप्रहरी कथा ।।

    प्राचीन भारत  के बुद्धकाल में नगर ,संस्थान, महल ,चैत्य विहारों  एंव चौक चौराहो के प्रहरी के प्रमुख   भट्टप्रहरी थे।‌:सिरपुर के निकट जुनवानी जैसे पांच गाव में वंशज आबाद हैं। बडे -बुजुर्ग पांव छूते ही असीस देते है - "पांच गांव के गौटिया बन "  !
वैसे इस गोत्र की उत्पत्ति को भारतीय संस्कृति अनुरुप देखे तो सबके मूल में कृषि व ऋषि संस्कृति जान पड़ता हैं। इस आधार पर इसे भारद्वाज की परंपरा से जोड़ते हैं। क्योकि अधिकतर धर्म - कर्म विचार की दृष्टि से  संत महंत साटीदार पं कडियार  कलावंत  इत्यादि वृत्ति वाले अधिकतर हैं। 
    दक्षिणापथ या दक्षिण कोसल के राजवंश सद्वाहों या सत्यवंतों में  "भट्टप्रहरी " यही लोग रहे हैं। सिरपुर संग्रालय मे प्राप्त सजीले रौबदार प्रस्तर प्रतिमा  खड्धारी  ही वहां की "भट्टप्रहरी " शासक हैं।  प्राकृतिक आपदा या अन्य कारणों  से सिरपुर का  भठ जाने पर लोक  कैसे किस्से गढ़ते है कि ये लोग जहां जाएन्गे भठा देंगें? ये भठा देने वाले भठपहरी है जिनके आकार भी ब्रज भटरी जैसे हैं। ये सब तांत्रिक- मांत्रिक सिद्ध टाइप के लोग भी बच के रहे ।
      

    वैसे कहे तो यह अवधारणा है कि  भट्टप्रहरी का अपभ्रंश मुख विश्रांति हेतु  भतपहरी कहे जाने लगे। यही देशज छत्तीसगढ़ी ध्वनि हैं। इसकी व्याख्या भी भात रखवार टाइप सारल्य भाव  भात ह पहर गे  ओ भतपहरी जेन ढीड़ा परगे वो ढ़ीढ़ी वाह ! कहां भट्ट और कहां भात ?
  पर लोग इसी भाव पर मुग्ध है । 

  गुरुघासीदास के अभ्युदय और उनके  सतनाम पंथ प्रवर्तन में यही लोग  बढकर हिस्सा लिया क्योकि निराकार उपासाना और सत्यवंत संस्कृति के ये लोग ध्वजवाहक अपने उद्भव काल से  रहे । सिरपुर महानदी तट पार स्थित जुनवानी  वालों के पैतृक काम कृषि के साथ पत्थर खदान रहा है - जहां सतपुरुष की असीस और कृपा  छाहित है - 
  काट के देखाएन पथरा ल जइसे कतरा ।
   संसार मे परसिद्ध हे जुनवानी के पथरा ।।
    कठोर पत्थर को मुलायम कतरे के मानिंद काटने की हुनर और शौर्य के अधिपति यही लोग श्रद्धापूर्वक भंडारपुरी - तेलासी में भव्यतम बाडा महल गुरुद्वारा अपने खदान के पत्थरों से बनाये । 
      सतनाम संस्कृति से  इतर लोगों का उच्चारण भटपहरी ही  रहा । फलस्वरुप भट्ट या भट हो गये। कही -कही भारद्वाज और भारती भी लिखने । जब स्कूल मे आये तो शिक्षक आदि  " भट्ट प्रिय " या " प्रिय भट्ट" हो गये।
      प्रिंट मीडिया में सदैव मेरे नाम 1989 से अब तक प्राय: त्रुटिपूर्ण ही लिखते गये जैसे - भट्टहरी , भतपहरि , भटरी , भट्टपट्टरी  ,भतपट्टरी , भृतपहरी , भृतहरी  आदि छपने और आपत्ति दर्ज करते ही  रहे पर नक्कार खाने में तुती। कु़छ संपादक का दो टूक- " छप रहा है गमीनत समझो।" अन्यथा भेजा मत करो। कुछ तो ऐसे कि सीधे मुंह बात तक नही ।  नाम के पीछे मेरी रचनाओ की प्रशंसक हमारे  आध्यापिका  मैडम व मित्रों के आग्रह पर  अशांत  और उद्वेलित करती रचना कर्म के चलते तखल्लुश  "  अनिल अशांत " होकर अमन शांति खोजते रहे । खरी खरी और फरी फरी कहने के चलते जो सफलताएं मिलनी  चाहिये वह बाधित रहा । क्योकि तब और अब इस तरह की बाते अब तक अग्राह्य ही हैं।
       बहरहाल थोड़ी प्रखरता और यथास्थितिवाद के विरुद्ध नव प्रवर्तन वाले स्वर को नापसंद करने वालों की धमक कि "शांत कर दिये जाओगे !" तब गांव मे नजरबंद या भूमिगत टाइप रहा । संपादक महोदय बेहद तनाव मे रहे ।मित्र बताये कि वह अस्पताल मे भर्ती हो गये गुर्गो की आतंक भी कम नही हुए इस जमाने मे तब ओ जमाना था कि शान मे कुछ गुस्ताखी कर दिखाए कोई ?
    सचमूच इसी वर्ष सरकारी सेवक बनते ही कदाचार के लिए शांत रहना आवश्यक समझ लेखन  डायरी तक रह गये। पिता श्री की समझाइस साहित्य अंत: सलिला है वह  भिगोती है और ऊपजाती है ।बाढ़ की तरह बहाती नही।और न फसलों को तबाह करती हैं। वे विगत 23 वर्षो से नही पर सीख और उनके संस्कार सदैव छत्र बना हुआ हैं।
    
 
    इस तरह 1996 के बाद की चुप्पी पिता श्री के आकस्मिक अवसान 2000  से टूटी!  पर स्वर संयत और जिम्मेदारी बोझ से विनयावनत हो गये और वह स्वर  परसन के संपादन मे प्रस्फूटित हुई।  यदा -कदा नव शिल्प हाइकू आदि साधते वह तेवर सम्हाले ही रहा पर 2007 में सद्य: प्रकाशित कब होनी बिहान "की मुहाखरा मे आक्रोश और विवशताएं साथ- साथ रहें। कुछेक बड़ी साहित्यिक हस्तियों ने भी इसे सदैव प्रासंगिक‌ शीर्षक युक्त भीतर  पन्नों की  स्वर को मुखर सुघड़ व अवगढ़  कहे । 
    मोबाइल और  सोसल मीडिया में ब्लाग लिखने की शुरुआत 2008 से हो गये और  पेन से थीसीस लिखने की‌ परिश्रम से मुक्ति पाने मोबाइल की कीबोर्ड से लिखकर विश्राम करते रहे ।  
     तब तक पी-एच.डी. होकर महामहिम राष्ट्रपति‌‌ प्रणव मुखर्जी  के समक्ष गौरवान्वित हुये। पर पद मर्यादा शास सेवा के सुख भोगते कभी वंशधारी सहिनाव भाट हो नही सके। पता नही क्यों प्रशस्ति गान मे गुंगे हो जाते हैं? इस बीच  पावन पिरीत के लहरा , हंसा अकेला , गुरुघासीदास  और उनका सतनाम पंथ ,  The value of a cup of tea , ठोस विचारों की कीमागिरी ,   6 पुस्तकें छप गई । और कुछ सम सामयिक रचनाएं पत्र  -पत्रिकाओं में छपती रही । साथ ही दूरदर्शन व आकाशवाणी मे प्रसारण भी ।
   कोरोना काल के लाकडाउन मे ऊपर कमरे में गुरुदेव गुणवंश व्यास द्वारा सुराना स्टोर्स रायपुर से  हारमोनियम मनमोहिनी  रखी पड़ी थी वह धो पोछ कर टेबल में आई।
 और फेसबुक मे स्वर लहरिया बिखेरनी लगी। तो एक संगीत प्रेमी हमे जिद करके स्टूडियो तक ले गये फिर छत्तीसगढ़ी के वे चुनिंदे गीत रिकार्ड होने लगे जो कभी नवाकिरन और मनमोहिनी लोकमंच के आधार गीत होते थे। सत श्री म्यूज़िक अनिल भतपहरी चैनल युट्युब में भी बना लिए  गये। पर नाम  मोबाइल वाइस या स्मार्ट टी वी मे  सर्च करो तो पसीने निकल आते है  जुबान  लडखड़ा जाते है पर  नाम नही। भतपहरी लिख ही नही पाते ।तो 
फिर चैनल चलाने नाम  Anilbhatt किये गये ।
       अभी अभी एक समाचार पत्र अनिल भारत पहाड़ी नाम छाप कर मुझे यह लेख लिखने विवश किया कि इस 53 वर्षो में मेरा एक अदद नाम  हिन्दी  पत्रकारिता जगत ने क्यो नही दे पाया ? लोग दो चार लिखकर नाम कमा लिए । यहां ठीक से अनिल भतपहरी लिख नही पाया ।
  क्या यह प्राचीन भाव प्रवण सरनेम वाकिय मे उच्चारण के लिए क्लिष्ट व दुरुह हैं? क्योकि मेरे शिक्षक और  प्रोफेसर  हाजरी के समय कक्षा में प्रथम (अल्फाबेटिकल मेरा ही ) उच्चारण ही दोष पूर्ण अटके सटके टाइप होते यह शिकायत बच्चो का भी रहा पर वंश प्रेम व विरासत के मोह से कोई परिवर्तन नही किये भले लोगो को तकलीफ हो । और  आजकल  तो कर्मचारी अधिकारी भी अनिल जी कहने में अधिक  अपने आप को सहज महसूस करते हैं। बजाय भतपहरी कहने में।
   कुछेक कहते है कि साहब जोड़ने पर ही उच्चारण सही होता है। मैने मन ही मन मुदित जहा - चलो सभी न ई पीढी इस बहाने साहब बन कीर्तिमान हो जाए अपने पूर्वजों के मानिंद ... हा हा हा हा ! 
  
   कथित संस्कृत और संस्कृति प्रेमी जन समरसता को  समर सता कहते है वैसे ही इस पंचाक्षरी को भतप हरी कहकर आनंदित होते है ।ये है हमारे हिन्दी प्रेम जो अब तक सध नही पाए।
  पर  सच तो यह है बंदा 1981-82   आठवीं   से लिख पढ रहा है।1989 से  अब तक सैकड़ो छप छुप चुका हैं। 8 वी  किताब  "सुकवा उवे न मंदरस झरे "   विमोचित हो गई और  मेरे ब्लाग में  " हड्डी की जीभ नही कि न फिसले "  2022  छापते अन्तर्राष्ट्रीय प्रकाशन संस्थान  वन एलिगन ने 2200 पेज को 10 पुस्तको के रुप मे  समसामयिक लेख ,कविता लघु कथा, कहानी  के रुप मे प्रकाशित करने एम ओ यु कर लिये हैं।
   तब तक पेज और बढते ही जा रहे हैं। पर डाक्टर अनिल कुमार भतपहरी था वह अब  "अनिल भट्ट " छोटे होते जा रहे हैं। यु ट्युब और सोसल मीडिया में फिलहाल यही शार्ट नाम चलेगा ।  क्योकि यह तो वाइस टाइप में  भतपहरी रीड कर  सर्च कर ही नही पाता सो मजबुरन यह करना पड़ रहा हैं। और लोग है कि अंग्रेंजी Bhatpahari लिखे a लेटर कही न कही खा जाते है या अंतिम ri के जगह re लिख डालते है ।ऐसे ढूंढते रह जाओगे ... कही मिलेगा नहीं।
    वैसे हम पहले ही लिख चुके है -
  
    अब तो कोई भट्टप्रहरी न रहा ...
     शेष कविता पढ़ने मेरे ब्लाग या किताबों की सैर तो करना ही पड़ेगा ... इतनी सहज सरल उपलब्ध नही करा सकते । हा किताबो का लिंक जरुर अमेजान फिल्पकार्ट गूगल प्ले स्टोर्स मे मिल जाएगा ।

विगत ढाई हजार वर्षो की निर्बाध यात्रा युं ही नही गुजरे ।
इस परिक्षेत्र मे प्राप्त अवशेष और बोली - भाषा में व्यवहृत शब्द जींवत साक्ष्य हैं ।कोई अन्वेषक आये और इन तमाम रहस्यों को उजागर  करते छत्तीसगढ़ की ऊंजियार को सर्वत्र फैलाएं 

     ।।जय छत्तीसगढ़ जय भारत जय भतपहरी ।।
  
       -डा अनिल भतपहरी / 9617777514

Wednesday, October 18, 2023

सिरपुर का पुरा वैभव

#anilbhatpahari 

।। सिरपुर का पुरा वैभव ।।

        सिरपुर मुगल काल तक आबाद था । वहां उत्खनन से प्राप्त चांदी  के  सिक्के औरंगजेब ने  ढ़लवाए थे। जिसे  मथुरा -नारनौल परिक्षेत्र  के सतनामियो ने औरंगजेब से युद्ध  के बाद 1662 के आसपास  लाए। सिरपुर परिक्षेत्र महानदी के इर्द - गिर्द सतनामियों की  बसाहट हुई। वे लोग अपने साथ लेकर यहां आये , ऐसा प्रथम द्रष्टया लगता हैं।  
        रुपया को महिलाएं गले में  हार आभूषण‌ की मानिंद पहनती भी रही है।यह प्रथा अब भी है, उक्त आभूषण का नाम रुपिया ही है , का दास्तान बता भी रहे हैं । 
   यानि कि छटवीं सदी से लेकर मुगलकालीन 16 वी सदी तक एक हजार साल का उन्नत सभ्यता का केन्द्र सिरपुर समकालीन छत्तीसगढ़ की वैभव का जीवन्त दस्तावेज़ हैं। जिसे जानना -समझना और उन तथ्यों‌ पर लेखन की आपार संभावनाएं  विद्यमान हैं। बौद्ध धम्म के सहजयानियो , सत्यवंत प्रजाति  की सतवाहनो या  सद्वाहों और वर्तमान सतनामियों की सांस्कृतिक और धार्मिक मान्यताओं में जो एकरुपता या सम्यता दिखाई पड़ती है।वह अनेक विषयों के लिए अन्वेषण का मार्ग प्रशस्त करती हैं । 
      आध्यापकों , अन्वेषकों , इतिहासकारों और साहित्यकारों को  इन पर गंभीरता पूर्वक  कार्य करना चाहिये ताकि  छत्तीसगढ़ की स्वर्णिम कालखंड और पुरा वैभव व सांस्कृतिक प्रतिमानों  से देश और दुनिया  अवगत हो सकें  ।

ज्ञात हो कि आरंभ से लेकर अठ्ठारहवीं सदी तक सिरपुर आबाद था जहां पर विजयस इंद्रभूति महाशिवगुप्त बालार्जुन  सम्राट हुये । बुद्ध नागार्जुन आनंद प्रभु महंत अंजोरदास जैसे शास्ता व धम्मादेशक हुये। अंजोरदास की पुत्री का विवाह गुरुघासीदास से हुआ । 5 कि मी दूर ही सुप्रसिद्ध तेलासी बाड़ा  एंव मोती महल गुरुद्वारा भंडारपुरी अवस्थित हैं। यह परिक्षेत्र शैव शाक्त बुद्ध जैन व सतनाम पंथ का समन्वय अंचल भी रहा हैं। राजभाषा पालि और छत्तीसगढ़ी के शब्द और उच्चारण इस अंचल में देखे- सुने जा सकते हैं।
   

   - डा. अनिल भतपहरी / 9617777514

Friday, October 13, 2023

समानता की सुसंस्कृति

#anilbhatpahari 

।।समानता की सुसंस्कृति ।।

सत्य और प्रेम सनातन हैं 
वैसे फरेब और नफ़रत भी 
तो सनातन ही  हैं 
उनकी सहचरी की तरह 
ठीक उजाला -अंधेरा 
या कहे,
दिन और रात की तरह 
सुख और दु:ख 
धूप और छांह की तरह 
तब उनकी दुहाई क्यों 
वहाँ जाने की ढिठाई क्यो 
क्योंकि यह तो
सदा से सर्वत्र  हैं 
हां सत्य , प्रेम 
उजाला, छांह 
और सुख ही 
क्षरित होते रहे हैं
तुम्हारे प्रबंधन से 
चिंतन मनन सृजन से 
तो मिथ्या और धृणा 
अंधेरा और फरेब 
दु:ख और नफ़रत 
ही फैले हुए है 
तुम्हारे धर्म संस्कृति में
राष्ट्र की नीति में...
 चाहते हो अगर अमन  
तो सुधारों धर्म संस्कृति 
और राष्ट्र की नीति 
कलुष हो चुके राजनीति 
व्याप्त हो रहे विकृति को 
मिटाओ विभेदकारी कृति को 
स्थापित करो 
समानता की सुसंस्कृति को
क्योंकि समानता ही संवाहक हैं
सनातन की 
आरंभ से ही विद्यमान 
करती आई गुणगान 
शाश्वत पुरातन की 
पर भले मानुष 
यथास्थितिवाद को 
पिलाने पीयुष 
गढे समरसता 
पाते रहे सुख -सत्ता 
होते रहे न्योछावर 
ये जन गण मन 
पर अब जनतंत्र में 
समता का हो चलन 
बहे सुरभित पवन 
विमल  विष्णन मन 

      - डॉ. अनिल भतपहरी / 9617777514

सत्य सनातन

#anilbhatpahari 

।।सत्य - सनातन ।। 

देख दुनिया 
रीत -नीत 
फैले हुए है 
द्वेष - प्रीत 
अगणित शत्रु
अगणित मीत 
कोई नही 
कबीरा एक 
उठते हृदय में 
भावातिरेक 
राग अनेक 
अनुराग अनेक 
पर विराग से 
आते विवेक 
होते एकाग्र 
चित्त-मन 
जागृत अन्तर्मन 
आहर राग है 
सब राग के
अधिपति शिव है 
बिन आहार 
जीव निर्जीव है 
राग ही  शक्ति  
बिन शक्ति 
शिव शव है 
राग-विराग के
द्वंद्व में पलते  
भ्रम-भव है
विगता गत के 
वही तथागत 
वही अभ्यागत 
वही बुद्ध 
वही संत गुरु 
वही मेधा प्रबुद्ध 
राग त्याग 
वैराग्य लेकर 
प्रणय कैसे 
यह जीवन 
बिन प्रणय 
चलेगा कैसे 
जीर्ण -शीर्ण 
त्यज पुरातन 
जिस से हो 
जन कल्याण 
और इसी से 
स्व कल्याण 
होगा तब  यह 
धरा स्वर्ग 
ढहे द्वेष  मोह  
हो नव विमर्श 
जगति तल का 
हो उद्धार 
प्रिये कांधे पर 
यह विकट भार 
राग विराग युक्त 
कर्म नित्य नूतन 
कल्याणक हो 
हर चिंतन- मनन 
यही तो है शाश्वत 
सत्य सनातन 

- डा. अनिल भतपहरी / 9617777514

Wednesday, October 11, 2023

शाकाहार बनाम मांसाहार

#anilbhatpahari 

शाकाहार बनाम मांसाहार 

शाकाहार संत संस्कृति है और यह जीव दया पर आधारित है।
   संत संस्कृति  एक तरह से वीतरागी साधु संत  समुदाय , बौद्धिक कार्य पर रत और शारीरिक परिश्रम से दूर वे  लोग है ,जिनके लिए  गरीष्ठ या आमिष आहार अपच्य ,अजीर्ण व व्याधि कारक है। इसलिए इनको धृणा मय व त्यज्य धोषित कर दिया हैं।इसमे व्यापारी,जो एक ।पुजारी और प्रवाचक वर्ग  आते है  जो  छोटी सी जगह पर दस दस घंटे बैठे हुये वक्त बिताते है साथ ही करुणा दया आदि भाव  दिखा  या  बताकर  याचना‌ कर  अपना आजीविका चलता है।
   इ‌न सबके पोषक कृषक है और उत्पादक वर्ग है जिन्हे साहस बल और पौरुष चाहिये। जो दूर दूर तक फैलो खेतों मे  गर्मी वर्षा एंव ठंड मे जी तोड़ मेहनत करते है। पसीने बहाते है।  यदि वे लोग खेतो मे व्याप्त  कीट- पतंगें  नही मारेंगे ? चिडीया , चूहे ,चिटरे ,खरगोश ,वानर , हिरण वराह नही मारेन्गे या भगाएन्गे नही तब उनकी फसलें कैसी   सुरक्षित होगी ?
   और जो मरेन्गे वह उनके भोजन का काम  भी आते है जिससे उसमें नीहित   प्रोटिंस, मिनरल  विटामिन्स अक्षय उर्जा मिलता है तभी वह श्रमश्राद्य कार्य कर सकेगा । इसी तरह  खेत सुखते हैं, नाना किस्म की मछलियां जिसमें औषधीय गुण रहते है उनके भोजन के हिस्सा हैं।
  वनवासी तो वनोपज और पशु -पक्षी पर ही निर्भर हैं। समुद्र किनारे का मछुवारा के लिए मछलियां  धान और गेहूं की बालियां है जिसे वे  श्रद्धापूर्वक अपने अराध्य में मैदान की कृषक समुदाय जैसे ही चढाते हैं। और उत्सव मनाते हैं।
   शाकाहार - मांसाहार को नाहक  पुण्य- पाप की श्रेणी मे विभाजित कर रखे है । जो मांस खाया एक झटके मे पापी हो गया और जो साग सब्जी खाये वह तुरंत पुण्यात्मा हो गया ! क्या गज़ब की धारणाएं बनी हुई हैं। 
    असल मे पाप किसी व्यक्ति  की आत्मा को दुखाना झुठ बोलना या  दूसरो पर अन्याय करना है ।जबकि ऐसा तो शाकाहारी भी करता है।
    मांसाहारी जो अनेक  देव- देवियों मे पशुबलि चढाता और मांस को प्रसाद मानकर ग्रहण करता  है उसे फिर धार्मिक क्यो माना गया है ?
  "वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति" क्यो कहा गया ?
      और तथाकथित राक्षसों / असुरों का  वध तो सारे देवी -देवता  गण अस्त्र -शस्त्र लेकर करते है।उन कथाओं को भव्य मंचों पर क्यो सुनाते है ? हमारे महाकाव्य युद्ध और हिंसा  पर ही रचा गया है। उसके नायक का अदम्य साहस का प्रदर्शन ही हमारे संरक्षक होने की पुष्टि करता हैं। फलस्वरुप वे हमारे अराध्य है ,हमारी श्रद्धा उनकी उसी शौर्य प्रदर्शन पर ही टीका हुआ हैं ।
   हमारे ख्याल से शाकाहार- मांसाहार व्यर्थ प्रलाप है और नाहक व्यक्ति के बीच खान- पान को लेकर अभेद्य दीवार खड़ा करने की नापाक इरादे हैं। यह देश काल परिस्थित और स्वरुचि ऊपर केन्द्रित हैं।
   हा स्वरुचि भोजन पर रुचि श्रृंगार जरुर होना चाहिये । यह नीति कथन है और व्यक्ति को सदाचारी व परोपकारी होना चाहिये न कि शाकाहारी या मांसाहारी ।
       - डा. अनिल भतपहरी

याचिका को छत्तीसगढ़ी मे अरजी कहते हैं।

तुरते- ताही 

।।याचिका ल छत्तीसगढ़ी म अरजी कहिथे  ।।

   
छत्तीसगढ़ी माध्यम से शिक्षा पर लगी जनहित याचिका पर सुनवाई के समय  हुई जिरह में छत्तीसगढ़ी की अक्षमता के ऊपर टीप अनुचित हैं।
  याचिका को क्या कहते है ? पर वकील साहब को जवाब नही सुझा । ऐन वक्त भाषा के अनुप्रयोग न करने से उचित शब्द स्मृत भी नही होते यह स्वभाविक हैं।
   असल में याचिका शब्द अंग्रेजी के पीटिशन के विधिक हिन्दी शब्द है , जो याचक से बना है ।  इसके पर्याय प्रार्थना , विनती , अर्ज़ आदि है। देश  मुगलों के शासन से कचहरी ,वकील ,अर्जी, अर्जीनिवेश, मोहर्रिर , दफ्तरी पटवारी तहसीलदार जैसे शब्द लोक भाषाओं में आया। इस तरह याचिका को छत्तीसगढ़ी  "अरजी"  कहते है। 

   हर क्षेत्रिय भाषा  रिजनल लेंगवेंज विस्तारित होकर राजकीय  और सक्षम भाषा बनती  है।उसमे मूल शब्द प्राय,: कम ही रहते हैं । आगत और तस्सम तद्भव शब्दों से वह समृद्ध होती और इनके अनेक वर्ष लगते है।
 छत्तीसगढ़ी के अनेक मूल शब्द न  अंग्रेजी मे है संस्कृत मे है न हिन्दी । इसके मतलब इन भाषा को  अक्षम कहे या माने जाय  ?  क्या यह  सही हैं? नही । 
  सावा ,बदौरी ,करगा ,ओगन , ठुलु  ,गासा ,पखार , जुड़ा सुमेला पंचाली आदि  का कोई पर्याय अंग्रेजी संस्कृत मे हो तो बतावे?
     दर असल शब्द आवश्यकता  प्रयोग और प्रवृत्ति आदि के बनती हैं और व्यवहृत होती है। मनुष्य का दायरा जितना विस्तारित होगा उनकी भाषा उतनी ही विस्तृत और समृद्ध होंगे। 
     पाठ्यक्रम लागू करके देखे महज एक दशक में जो परिणाम आएगा चौकाने वाला होगा। छत्तीसगढ़ी हिन्दी की कृत्रिम व नवीन भाषा नही यह प्राकृतिक रुप से विकसित हजारों वर्षों की यहां तक विक्रम खोल , चितकबरा डोंगरी , सिंघनमाड़ा से प्राप्त आदिम चित्र से प्रमाणित आदिम मानव द्वारा बोली जाने वाली जनभाषा हैं।
     स्कूली शिक्षा के  इतिहास में आरंभ से इसे पढ़ाए जाते तो यहां भी उडिया मराठी बंगाली तमिल‌ तेलगु जैसे परिस्थियां और प्रतिभाएं विकसित होती । पर दुर्भाग्यवश जो समझी और व्यवहृत नही की जाती ऐसी तीनों भाषाएं  हिन्दी संस्कृत और अंग्रेजी पढाये जा रहे हैं।  इस भाषा में छत्तीसगढ़ी दैनंदिनी में उपयोग आने वाली शब्द ही नही हैं। फलस्वरुप लोग अपनी मातृभाषा छत्तीसगढ़ी को विस्मृत करने की अवस्था में पहुच गये हैं। यह बेहद चिंतनीय हैं। 
    यदि आधुनिक ज्ञान- विज्ञान के चलते कोई शब्द न भी हो तो अन्य भाषा के शब्द को ज्यों की त्यों तत्सम रुप या ध्वनि प्रवर्तित कर तद्भव रुप में अंगीकृत की जाती है। तो छत्तीसगढ़ी में इस तरह आत्मसात करने की बेहतरीन व्यवस्था हैं। छत्तीसगढ़ सात राज्यों की सीमा से लगा हुआ हैं।  आजादी के पूर्व म प्र  उप बिहार उडीसा महाराष्ट्र मारवाड़ आदि  से साक्षर लोगो को बुलाकर मालगुजारी , रैय्यतवाड़ी  में कर्मचारी नियुक्त किये  वे स्थायी रुप से बसते गये। उस दृष्टि से भॊ  भाषाई वैविध्य है। आजादी के बाद पंजाबी सिंधी बंगलादेशी एंव तिब्बतियों को बसाये गये। भिलाई कोरबा जैसे नवरत्न श्रेणी के उद्योग के चलते पुरा लघु भारत इन जगहों पर बसा हुआ हैं।
   उन सबके शब्द छत्तीसगढ़ी में आत्मसात होते गये अब भी यह जारी है। कहने का तात्पर्य अन्य भाषा के शब्दों को  ग्राह्य करने अपूर्व  क्षमता हैं। इसलिए अधिक या अनावश्यक या कहे " बरपेली संसो न इ करना चाही।"
    राज के  नान्हे नान्हे लरिका बच्चा मन ल अपन दाई- ददा अपन दादा- दादी , नाना - नानी  के भाखा म पढाय- लिखाय अउ समझाय के तुरते बेवस्था होना चाही। नइते ओमन अपन भाषा के संग अपन संस्कृति तको ल भुला जही ।  वैसे भी विगत सवा सौ साल के स्कूली शिक्षा के चलते तथाकथित शिक्षित अउ रोजी - रोजगार पाए  शहर पहर धरे मनखे मन ही प्राय: छत्तीसगढ़ी ल गांव- गली खेत - खार ,मजदूर- श्रमिक‌ की बोली समझ आत्महीनता से ग्रसित कन्नी काट लिये हैं।इनकी संख्या महज कुछ हजार या लाख से अधिक नही‌ है। इनकी बिना परवाह किये आठवी सदी में समृद्ध दक्षिण कोशल ( पुरा वैभव सिरपुर मल्हार तुम्मण आदि )  की वैभव को पुनर्स्थापित करने का अब वक्त आ गया हैं। और वह हमारी प्यारी छत्तीसगढ़ी भाषा और संस्कृति से ही संभाव्य होगा ।
    उधारी -बाढ़ी के जिनीस ह कतेक ल पुरही अउ काबर फुटानी मारबोन  । अपन ल जतनव अउ उपजाव ।
          ।।जय छत्तीसगढ़ी जय छत्तीसगढ़ ।।

Sunday, October 8, 2023

खनाबदोश जाति देवार की गायन पद्धति

खानाबदोश जाति देवार की गायन पद्धति 

   छत्तीसगढ़ की खानाबदोश जातियों में   देवार प्रमुख हैं अन्य में मित्ता , मंगन -भाट , बसदेवा, नट पारधी ,शिकारी ,किस्बा  आदि आते है। इनका कोई स्थायी घर या गांव नही होते ।ये लोग आजीविका और वस्तुओं के उपलब्धता के दृष्टि से इधर - उधर घुमते रहते है। इनमे मंगन  भाट - बसदेवा लोग अब घर या गांव बसा लिए है। पर मित्ता देवार आदि अब भी खनाबदोश जीवन जीते है। इनके रहने की जगह को डेरा या भसार कहते है ।जो शहर या गांव से दूर रहते हैं।‌ इनके इर्द - गिर्द कुत्ते ,सुअर गधे आदि पशुए भी इनके साथ रहते है। कही कही कुछ बडे ग्रामों , कस्बो मे लंबी अवधि के लिए डेरे लग जाते है ।जहां अनेक घुमंतु जातियां मिलकर रहते हैं। उनके बीच मेल मिलाप से  सांस्कृतिक व प्रवृत्ति गत एकीकरण होने लगे लगे हैं। प्रेम प्रसंग मे शादी ब्याह होने से इन घुमंतुओं मे एक नवीन सम्मिश्रण संस्कृति का विकास होने लगे हैं। 
  बाहरहाल  इनमे देवारों के साथ साथ कुछ अन्य के भी कार्य गायन वादन एंव नर्तन हैं। राजतंत्र के समय खासकर कलचुरियों एंव हैहयवंशीय राज्य में  देवारों को राजकीय संरक्षण प्राप्त था और ये लोग चारण -भाट की तरह ही राजा एंव राज्य की यशगान करते आजीविका चलाते हैं। ये कलावंत समाज है जिसकी स्त्रियां भी नृत्य- गान प्रवीण होती है। रानियों/ सामंतों की स्त्रियों  व आम महिलाओ के  लिए सौन्दर्य प्रसाधन की वस्तु जैसे ये बालों के  लिए रीठा ,आंवला ,शिकाकाई अन्य जड़ी - बुटी  बेचती तथा गोदने गोदती और उनके एवज में पैसे व अनाज प्राप्त कर आजीविका चलाती रहीं। 
इनके गीत व बोल बडे ही सम्मोहक मनोरंजक व नीति परक होते है ।
मांदर, रुंझु, सरांगी  , खंजेरी, चुटका आदि लोक वाद्य द्वारा आकर्षक नृत्य गीत पस्तुत करते है -
रामे रामे रामे गा मोर रामे रामे भाई ग 
ज उने समय के बेरा हवे भाई ...
कथा प्रसंग उठाते है और सरांगी कानो मे अमृत घोरते है ।
चिंताराम देवार की गायन आकाशवाणी रायपुर से प्राय: प्रसारण होते ही रहते है। किस्मत बाई , मालाबाई , फिदाबाई , पूनम , पद्मा ,  जयंती  रतन सबिहा ,जीयारानी जैसी अनेक मधुर गायिकाएं व नृत्यांगनाए हैं।

  नाचा के पुरोधा  दाऊ मंदराजी जी ने छत्तीसगढ़ की बेहद लोकप्रिय नाट्य प्रस्तुति  नाचा मे हारमोनियम और महिला देवारिन कलाकार का प्रयोग कर नाचा की लोकप्रियता को शीर्ष पर ले गया ।तब से देवारिनों नाच आर्केस्ट्रा में काम मिलने लगी और उनकी कलाओं को चार चांद लगे।इनकी  झुमर नाच , करमा घुच्ची करमा नृत्य व गान में इनके  पुरुष मांदर व रुंझू खजेरी चुटका  बजाते थे।
 झुम के मांदर वाला रे करमा धुन म मय नाच मातेंव...
 उनकी सर्वधर्म सम भाव और सर्व मत संप्रदाय के बीच जाकर उनके मन बोधने व गायन का बेहतरीन स्तर द्रष्ट्व्य है - 

राउर पिंजरा म बइठ सुवा मैना बोलत हे राम राम 
अहा बोलत हे राम 
बैसनो साकत बुद्ध जैन कबीर पंथ सतनाम हरि जी ...
  इनमें रोज कमाओ रोज खाओ और मद्य- मांस आदि के चलते  गरीबी और अनेक बुराई पनपी और निरंतर यह समाज मुख्य धारा से कटते चले गये।
हालांकि इनकी भाषा इनके शब्द आदि एक अलग तरह के सांस्कृतिक तथ्य समेटे हुए है जिनका अपना एक अलग महत्व हैं।
   इतिहास साहित्य के अलावा समाज शास्त्र ,मानव शास्त्र सहित भाषा विज्ञान के लिए यह समाज अन्वेषण का विषय है।
 साठ - सत्तर के दशक में बघेरा निवासी दाऊ रामचंद्र देशमुख जी ने देवार डेरा नामक संस्था बनाकर देवार और देवारिनों की कला को पहली बार मंचीय स्वरुप दिया । अनेक तरह की उनकी लोक गीत और वाद्य यंत्र व कलाकारों द्वारा भव्यतम प्रस्तुति दी जाने लगी।  एक तरह से देवार गीत और उनकी  नृत्य  गान वाद्य कलाएं शिष्टता लिए हुए सामने आई - 
आज जागत हे जनता के भाग रे मैना बोलय 
मैना बोलय सुवा न के साथ रे मैना बोलय ...
देवार एक जगह टीक कर नही रहते बल्कि वे लोग हर  महिने दो महिने में डेरे बदलते रहते है ।उनके पास जरुरी भोजन के पात्र कुछ कपडे और कुछ कथरियों और मुर्गे सुअर के सिवा लोई संपदा भी नही । उन्हे लगभग समाज अस्पृश्य की श्रेणी में रखते भेदभाव करते है। 
   इसकी तीक्ष्ण प्रतिक्रिया इन लोगो द्वारा गाई जाने वाली  लोकगाथा " दशमत कइना" में देखने मिलता हैं। लोक मे यह विश्वास है कि यह सत्य घटना पर आधारित कथानक हैं।
    अत्यंत रुपसी दशमत ओड़न  की प्रेम में एक ब्राह्मण लड़का अपनी जाति वंश त्याग कर दशमत को पाने  उनके बीच आकर रहने लगते है -

नव लाख ओडिया नव ओड़निन 
खोदे सगुरिया जाय ।
जुगजुग बरय एक झन नोनी 
नाव जसमतिया ताय ।।

दशमत से प्रणय निवेदन करते कहते है -

मोर घर हवय हंसा परेना , सेज सुपेती अनलेख ।
हीरा मोती रतन पदारथ पाबे अटल  सुख सरेख ।।  

दसमत कहती है -

तोर घर हवे हंसा परेवना त मोर कुकरी अनलेख ।
तोर घर हवय सेज सुपेती त मोर कथरी अनलेख ।।

  इस तरह दोनो के बीच वार्तालाप  और तुलनात्मक बातों से युवक  यह तय करना कठिन होता है श्रेष्ठ जैसा कुछ नही जिसमे जीवन चले और सुख मिले वही उपयोगी  वस्तु ही श्रेष्ठतम है ।

  चिरई म सुघ्घर पतरेंगवा सांप सुघ्घर मनिहार ।
कमा खा हस ले गा ले जात म सुघ्घर देवार ।।

  कह अपनी जातिय संस्कृति को यह लोग किसी से कमतर नही मानते बल्कि सुंदर समझते हैं।

 अंतत: दशमत को पाने के लिए ब्राह्मण युवक देवार की तरह शराब पीते है सुअर मांस खाते है !  जनेऊ तिलक भंग कर साधारण मनुष्य बनकर देवारों जैसा स्वरुप मे आते है ।
दशमत तो उनकी इस बलिदान से प्रभावित हो प्रेम करने लगती है पर पुरुष वर्ग उन्हे वरण नही करने देते और  उनकी जात और कथित उच्च होने की धारणाओं पर खिल्ली उड़ाते जातिय दर्प को कुचल कर गधे में बिठाकर ताल सगुरिया में डुबो देता है ।
उनकी इस  कृत  ब्राह्मण युवक  रुदन करते है-
  माथा धर के बाभन रोवय 
का करम करम डारेव ।
मया म अरझे रहिके मय कुल बंश बोर डारेंव ।।
  
छत्तीसगढ़ में गुरुघासीदास की शिक्षा  " मनखे मनखे एक " हर संवर्ग और लोगो को अभिप्रेरित किया एक देवार गीत मे इस संदेश की बानगी द्रष्ट्व्य है -

मनखे ल मनखे मन अब मनखे  मानत हे 
आज जुरमिल मित्ता मन भजन गावत हे ...
     देवार लोग अपने जन्म से मृत्यु पर्यन्त  रस्मों के गीत के अलावा दान दया धरम के गीतों साथ प्राय: प्रेम प्रसंग के गीत  नगेसर कैना ,  करमा ,  ददरिया ,चंदैनी ,गाकर नाच कर लोगो को रिझाते व मनोरंजन कर के जीवन यापन करते हैं।
   ये लोग बंदर नचाने और कुछ करतब दिखा कर भी रोजी रोजगार करते है।
   देवार -मित्ता लोग अन्य घुमंतु जातियों जैसे  मंगन ,भाट ,बसुदेवा , किस्बा ,  डंगचंगहा , मदारी, नट ,सपेरे पारधी , शिकारी  आदि घुमंतु लोगो के आसपास रहने से उनके जैसे ही जीवन वृत्त अपनाने लगे है । फलस्वरुप उनकी विशेषताएं व लक्षण यदा - कदा इनमे भी दिखते है। ये लोग जड़ी -बुटी मंदरस , बधिया तेल  सुअर मुर्गे आदि पालने व  बेचने  आदि के कार्य भी करते हैं। 
पर राजतंत्र के खात्में और आधुनिक प्रसाधनों की वस्तुओं से बाजार सज जाने से इनकी पारंपरिक कार्य विलुप्त सा हो गये। इनके रोजी - रोटी छिना गया ।
      
फलस्वरुप  वर्तमान में अपने आजीविका हेत  हमारे दैनंदिनी में उपयोग की वस्तुओं के बचत या वेस्ट सामाग्री को जिसे हम कुड़ा दानों में फेंक देते है को  एकत्र कर कबाडियों के पास बेचना हैं। और कुछेक धरेलू या खिलौने की सामान के बदले लोगों की वेस्ट चीजें एकत्र करना हैं। 
   बहुत ही निर्धन पर जो संसाधन है उसी पर मस्ती पूर्वक जिंदादिली से यह तबका जीते आ रहा है। शासन - प्रशासन से इन्हे कोई अपेक्षा नही और न कभी अपने हक अधिकार के लिए एकजूट होते है।
ये संख्या में कम भी है और कलावंत समुदाय होने के कारण इनकी युवा महिलाएं और स्त्रियां नाच पेखन लोक कला मंचों से जुड़ी हुई है। वहां की आय से यह समुदाय बिना कोई  कठोर परिश्रम किये जीवन गुजार देते हैं। ये लोग कही स्थिर टिक कर रहते नही फलस्वरुप अनेक कल्याणकारी योजनाओं से दूर रहते हैं।  साथ ही चाह कर भी प्रशासन उन तक पहुंच नही पाते।
    हालांकि अब स्लम एरिया मे चलता - फिरता अस्पताल आदि खुल जाने से इनका लाभ इन समुदायों को मिलने लगा हैं। और सामाजिक चेतना भी यदा - कदा आने लगी हैं। फिर भी इनके बीच मोबाइल अस्पताल जैसे इनके बच्चों के लिए चलता - फिरता स्कूल आदि खोलने से परिणाम सकरात्मक आएन्गे। कुछ कुछ समाज सेवी लोग व संस्थाएं इनकी दशा सुधारने सक्रिय है।
   इनके बच्चों को नि: शुल्क शिक्षा या कंबल फल मिठाई दवाई आदि वितरण करते देखे सुने जाते हैं।
   रायपुर आदि बड़ी जगहों पर शादी / पार्टी/  भंडारा  आदि के बचत खाने भी इन्हे परोस दिये जाते है। कुछ लोग  पुराने कपडे दान करते है।नेकी की दीवार से भी ये लोगों द्वारा छोड़े गये पुराने कपड़े पहन लेते है। इस तरह  जैसे - तैसे इन लोगों का निर्वह‌न हो ही जाते है। कुछ लोग सुअर पालने लगे है और उससे इनका जीवन स्तर सुधरने लगा है ।पर शराब आदि के कारण निर्धनता व्याप्त है । ये लोगों में अपराधिक प्रवृत्तियां भी पाई जाती है।  मद्यपान चोरी  लड़ाई झगडे बलवा  जबकि पुराने समय मे देवार निष्ठावान थे और चोरी आदि से दूर परिश्रमी थे।
   वृद्धावस्था मे ये लोग भिक्षाटन करते हं। इस जाति की पुनर्वास बेहद जरुरी है । शासन - प्रशासन को चाहिये  कि बेहतर कार्ययोजना बनाकर इनके भसार यानि डेरे या मोहल्ले मे चलित क्लीनिक टाइप चलित स्कूल खोले ।उनके बच्चों को उनकी संस्कृति के अनुरुप शिक्षा दे ताकि  इस समाज के हालात में नव प्रवर्तन हो सकें।

    डा. अनिल कुमार भतपहरी
      मो न 9617777514 
           सचिव 
छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग 
सी - 11/ 9077 सेंट जोसेफ टाउन अमलीडीह रायपुर छत्तीसगढ़ 492001

Tuesday, September 19, 2023

सत्य सनातन

#anilbhatpahari 

।।सत्य - सनातन ।। 

देख दुनिया 
रीत -नीत 
फैले हुए है 
द्वेष - प्रीत 
अगणित शत्रु
अगणित मीत 
कोई नही 
कबीरा एक 
उठते हृदय में 
भावातिरेक 
राग अनेक 
अनुराग अनेक 
पर विराग से 
आते विवेक 
होते एकाग्र 
चित्त-मन 
जागृत अन्तर्मन 
आहर राग है 
सब राग के
अधिपति शिव है 
बिन आहार 
जीव निर्जीव है 
राग ही  शक्ति  
बिन शक्ति 
शिव शव है 
राग-विराग के
द्वंद्व में पलते  
भ्रम-भव है
वही तथागत 
वही बुद्ध 
वही संत गुरु 
वही मेधा प्रबुद्ध 
राग त्याग 
वैराग्य लेकर 
प्रणय कैसे v.  
यह जीवन 
बिन प्रणय   
चलेगा कैसे 
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जिस से हो ग 
जन कल्याण 
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- डा. अनिल भतपहरी / 9617777514

Monday, September 11, 2023

संधिकाल के चश्मदीद गवाहों का यह दौर

#anilbhatpahari 

   " संधिकाल के चश्मदीद गवाहों का यह दौर "

          50 + के लोगों को आधुनिक और पारंपरिक जीवन शैली के संक्रमण काल के आखिरी पीढ़ी के लोग कहे जा सकते हैं। ये लोग  एक पैसे( कुछेक टिकली भोंगटी वाले किस्मत जानी बचे हुए हैं ) के  साथ रहे हैं। ढेकी -जाता के चावल- आटे खाकर बड़े हुए और दौरी-बेलन में धान मींजे हैं। नाव मे बैठ नदी और गले तक हाथ मे बस्ता उठाए नाले पार कर स्कूल गये हैं। यहाँ तक पेड़ के नीचे क ख ग सीखते शास्त्रों में वर्णित गुरुकुल का दृश्य  तक यदा -कदा देखे गये हैं। 
         बैलगाड़ी, साईकल, रेडियो से लेकर बस ,ट्रेन, कार और किस्मत वालें  जहाज तक चढ़ रहे हैं। चिठ्ठी से लेकर ईमेल, एस एम एस , वाट्साप तक प्रयोग कर रहे हैं। सब्जी/ सामान  बेचते फेरीवाले के हांका  से लेकर सुपर स्टार्स का  सामान बेचने वाली( ब्रांड एम्बेसडरों) विज्ञापन और बाजारवाद से कुछ- कुछ  परीचित हो रहे हैं। खड़खड़िया, ताश काट पत्ती से लेकर लाटरी  शेयर मार्केट जैसे जुएं में भाग्य अजमा भी रहे हैं।
        सप्ताह में बुधवार को रेडियो में बिनाका गीत माला और सुर-श्रंगार के मनमोहक गीतों के लिए प्रतिक्षारत लोगों  को एसियाड 1982 में एंटीना टी वी और  में इसी टी वी की आरती उतार कर  रामानंद सागर के रामायण देखते लोग हैं। साथ ही बीच -बीच में बिना रिमोट के पुरा  विज्ञापन देखकर जबरिया जरुरत पैदा कर पाकेट ही नहीं  कोठी के धान बिकवा कर शौक पूरा करने की भूख पैदा कर दिए को पुरा करते परिजन  को देखे हैं । 
    चंद अग्रज  भैयों को शौक के लिए भूखा पेट रह कर सिनेमा देखने लड़ कट  जाय  लेकिन फस्ट शो देखने और फिल्म का कहानी सुनाते दोस्तों में क्रेज जमाते ऐसे लोगों में गिनती वालों में रहे हैं। गड़वा बाजा से लेकर बैञड बाजा मे नागिन डांस करते  बारात और जुलुस के   मंजर से  भी  रुबरु  हुए हैं। भले नई पीढ़ी को यह  कथा- कहानी लगे पर उनके असल नायक हमी लोग हैं। जो रात. रात भर नाच पेख‌न देखते परी को टार्च से बुलाकर फरमाइशी गीत सुन सीटी बजाते  मौज मस्ती के शिखर स्पर्श किए हुए लोग रहे हैं। 
      धान- चावल बेच कर  तवा  केसेट क्रय करने वाले   और खेत बेचकर टी वी ,  मोटर साइकिल, खरीदने का उपक्रम  हुआ उनका और  ग्रामीण अंचल में   शराब- बीड़ी - सिगरेट  और चाय -पानी में ही धनहा बेचते लोगों का यह दौर  चल ही  रहा है। 
        औद्योगिकरण/ नगरीकरण के चलते  फैक्ट्री या कालोनी  (नया रायपुर भी )बसाहट ग्रामीण  इलाके में "फोकट ल पाय मरत ल खाय" जैसे कहावत को साकार करते हुए  शराब और स्पीड बाइकर्स कार चलाते असमय काल कवलित लोगो की बस्ती जिसे हमारी कहानी "विडोस एरिया" बनते देखने का हम जैसे चश्मदीद  गवाहों का दौर भी कह सकते हैं। जिसे तेजी से बदलते दुनिया में यह अंचल उसी तेजी से संघरते  हुए देखा जा सकता हैं ...
                   - डा. अनिल भतपहरी / 9617777514

देश का नामकरण

सामयिक विमर्श : देश का नामकरण 
    
     भारत और इंडिया नाम पर देश भर मे हो रहे परिचर्चा के संदर्भ में यह तथ्य रखना समीचीन व प्रासंगिक हैं।

        पूर्व पश्चिम दक्षिण तीनो दिशाओं में  समुद्र और उत्तर मे हिमालय पर्वत श्रृंखला के मध्य ,विशालकाय द्वीप नुमा भूखंड हैं। जहां  सघन वन एंव बहुतायत रुप मे विशालकाय जीव "जम्बू" यानि "हाथी"  मिलने के कारण "जम्बूद्वीप" नामकरण हुआ। इस भूखंड को भौगोलिक व सामाजिक सांस्कृतिक दृष्टि से  "गोडवाना भूमि "( लैंड) भी कहे जाते हैं। दो एशिया  दूसारा भाग "अंगारा भूमि‌ "(लैंड ) मध्य " टैथिस सागर" जो वर्तमान हिमालय है। दोनो ओर से ये दोनो महाभूखंड सरक रहे है उनके दबाव से हिमालय  की प्रति वर्ष बढ़ भी रहे हैं।
     बाहरहाल इस जंबूद्वीप या  गोडवाना भूमि में आर्यों के आव्रजन व विस्तार होने से विराट भूभाग "आर्यावर्त" के नाम से जाने जाने लगे। जहां आर्य नही पहुंचे वह "दक्षिणापथ "और  "द्रविड़ देश"  कहलाए। इस तरह आर्य- अनार्य और द्रविड़ देश के नाम से भी जाने जाते रहे हैं।
   कलान्तर मे चक्रवर्ती सम्राट  भरत  ( भरत नाम अनेक प्रसिद्ध पात्र है ) के अभ्युदय के बाद इस महादेश का नाम  "भारत "पड़ा । यह तीनो  नाम अत्यंत प्राचीन  और इसी देश व निवासियों द्वारा प्रयुक्त देशज नाम  हैं। महाभारत नामक महाकाव्य यहां जन जीवन में बेहद लोकप्रिय हैं।
   ग्रीक सभ्यता के युनानी- फारसी लोग" इंडस वेली" के पार इस महादेश को  ई पू से  ही "इंडिया" कहें। यह नाम भी दो हजार वर्ष पूर्व से प्रचलन में हैं। यवन हुण शक  सिकंदर  के अभियान व मेगास्थनीज और ह्वेंग सांग के लेखों व यात्रा वृतांतों में इंडिया शब्द का उल्लेख हैं। इस नाम को अंग्रेंजों ने नही दिया बल्कि भारत के पर्याय प्रयुक्त किया। कोलंबस भी इंडिया की तलाश करते अमेरिका पहुच गया वहां के मूल निवासियों को उन्होने रेड इंडियन कहा।  
   जबकि हिन्दुस्तान नाम मुगलों ने दिया । यह नाम अर्वाचीन हैं। ज्ञात हो कि अंग्रेज भारतीयों को इंडियन और हिन्दूस्तानी कहकर  संबोधित करते थे।
            हजारों वर्षो से जो नाम प्रचलन में हो और हमारी संस्कृति व प्रवृत्ति में रच- बस गया हो उन पर अनावश्यक हस्तक्षेप  राष्ट्रहित में  नही होना चाहिये।
       ।।  जय भारत  जय इंडिया  ।।

Wednesday, August 16, 2023

संपादकीय जून 2023

संपादकीय...

विगत अनेक वर्षों से हमारे होनहार युवाओं के लिए शासकीय अवसर के दरवाजे बंद सा हो गये थे। क्योकि आरक्षण का निर्धारण राजकीय और राष्ट्रीय सत्ता की खीचतान से उलझ सा गया था।   
      भीषण कोरोना काल  से असमान्य जीवन से उबरे तनाव ग्रस्त घर परिवार व समाज इन्ही के आशाओं का केन्द्र उनके होनहार संतति आन लाइन परीक्षा से उत्तीर्ण  नव स्नातक / स्नातकोत्तर व डिप्लोमा धारी नव युवक गण  दलीय सत्ता प्रतिद्वंद्विता की विकट  स्थिति से निरुत्साहित होकर आक्रोशित हो चले थे ।उनमें नव उत्साह व कुछ कर पाने की ललक को कायम कर पाना  परिजनों के लिए प्राय: चुनौती बन गया था । 
   तभी न्यायालीन फैसले ने राज्य के नवयुवकों में नव उत्साह का संचार किया । शासन- प्रशासन  विभिन्न विभागों की रिक्तियों के विरुद्ध अनेक पदों की विज्ञापन जारी किया फलस्वरुप  मई की चिलचिलाती धूप में उत्साहित वही नवयुवक गण च्वाइस सेंटरों ,कम्युटर केन्द्रों, रोजगार आफिसो, आवेदन देने जमा करने  में लगे है ।  अनेक पुस्तक  दुकानें  ट्युसन केन्द्र में  आने जाने लगे हैं। जहां विरानी थे वह जगह अब आबाद हो गये हैं।  नवयुवकों का उत्साह दर्शनीय हैं। ऐसा लगता है कि खुशियों सौगात ले आए ...इन लोगों का लक्ष्य दिखाई पड़ने लगा ।  इसके पूर्व किमकर्तव्यविमूढ़म टाइप देश दुनिया से बेखबर हताश -निराश  थे।
    बहरहाल होनहार और योग्य नव युवकों को उनका अपेक्षित लक्ष्य मिले इसके लिए वे विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं में  जी जान से जुट जाए क्योकि असवर सदैव एक अनार सौ बीमार टाईप का रहता हैं। इसलिए प्रतिस्पर्धा के लायक बनना ही होगा । चाहे नौकरी- चाकरी हो या  उद्यम ब्यापार या फिर खेती किसानी ही सही इन सभी जगहों पर प्रतिस्पर्धा है । हमारे युवा वर्गो को चाहिए कि अंत्याव्यवसायी योजना के तरह स्वरोजगार , लघु उद्योग के लिए गंभीरतापूर्वक प्रयास करे। क्योकि सबके लिए शा नौकरिया संभव नहीं। हर कार्य उत्कृष्ट रहता है मनोयोग से करने पर प्रत्येक छोटे बडे कार्य कर सफलताओं के शिखर तक स्वस्थ प्रतिस्पर्धा द्वारा पहुंचा जा सकता हैं। 

 इस  तरह से  देखे  तो मानव जीवन संघर्षमय प्रतिस्पर्धा ही  हैं। सुख शांति व सुकून पाने के लिए भी संघर्ष यानि सद्कर्म आवश्यक हैं। बिना इनके कोई रास्ता नही न ही कोई आसमानी दुवाएं या ईश्वरीय कृपा विद्यमान है  इस महामारी ने साबित भी किया हैं। 
     अन्यथा अबतक यह मान्यताएं रही है - अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम ... इस प्रवृत्ति का दिन  लद चुका है । अब तो कर्मो से ही गुजारा चल पाएगा । इसलिए भाग्यवादी के जगह कर्मवादी बने । यह सद्गुरु घासीदास बाबा के अमृत वाणी  भी है- "तय अपन बर बारा महिना के खर्चा जोर ले तब भक्ति कर  न इते झन कर।"
      इस तरह की विरासत और संस्कृति के संवाहक सतनाम पंथ और उनके अनुयाई जीवन में लक्ष्य प्राप्ति हेतु प्रतिबद्ध ढंग से सतत परिश्रम में लगना चाहिए चाहे पुश्तैनी खेती हो या पढाई लिखाई या उद्यम व व्यापार रुचि अनुसार इन सब कार्यो में नवयुवकों को प्रवृत्त होना चाहिए ।आर्थिक विकास अनेक विकासों के सहचरी है इसलिए आत्म निर्भरता बेहद आवश्यक हैं।
   बहरहाल ज्ञानार्जन और मनोरंजन हेतु अनेक ग्रामों में 1-2-3-5-7 दिवसीय  सतनाम सत -संगत भजन कीर्तन  का प्रचलन तेजी से चल रहा है जो स्वागतेय पहल है । इससे समाज सुसंगठित व सुसंस्कारित होते है और न ई पुरानी पीढ़ी  परस्पर सार्वजनिक जीवन व्यवहार के कदाचार सीखते -सीखाते हैं।
   गुरुघासीदास बाबा जी ने इसलिए रामत रावटी जैसे सांस्कृतिक अनुष्ठानों का प्रवर्तन किया । हमारे पास एक उच्च स्तरीय आध्यात्मिक विरासत और श्रेष्ठतम आयोजन है उनका क्रिन्वायन आयोजन समितियां गठित कर अपने आय से कुछ बचत कर परस्पर  बरार से सहयोग से सार्वजनिक व धार्मिक आयोजन करे और समाज में सांस्कृति सुरभि का प्रसारण करें।
    ऐसी उम्मीद के साथ हमारे नवयुवकों की उज्ज्वल भविष्य की कामना करते हुए कृषक समाज को  आने वाला "बीज बौनी बर बतर बेरा "  के  बधाई ।
     जय सतनाम ....

   डा. अनिल कुमार भतपहरी 
           प्रबंध संपादक 
          सतनाम संदेश 
प्रगतिशील छत्तीसगढ़ सतनामी समाज

सतनामियों का स्वतंत्रता आन्दोलन में सहभागिता

।।सतनामियों का स्वतंत्रता आन्दोलन में सहभागिता ।।

     अंग्रेजों के देश छोड़ने और स्वतंत्रता मिलने पर जीवन के हर क्षेत्र में  आमूलचूल नव प्रवर्तन होन्गे ।इस उम्मीद के साथ सतनामियों में नव उत्साह का संचार हुआ ।फलस्वरुप  यह समुसाय अपना समय व संसाधन राष्ट्रहित के लिए  समर्पित कर दिये  । इसका साक्ष्य समकालीन समय के दास्तावेज़ो और बड़े बुजुर्गों के संस्मरणों से प्राप्त होते हैं। हालांकि इस पर अपेक्षित लेखन अन्यान्न कारणों से हो नही सका ।
   इस कड़ी में अगस्त क्रांति और भारत छोड़ो आन्दोलन पर अनुशीलन करते डां शबनूर सिद्धीकी का यह विवरण द्रष्ट्व्य हैं। 
     स्वतंत्रता संग्राम और समाज सुधार के क्षेत्र में सतनामी आश्रम  (स्थापना  1921 हालांकि इसमे 1928 लिखा हैं। पर 1921 से संस्थान सक्रिय रहा हैं)  का सर्वाधिक महत्व रहा है । इस संस्थान का  योगदान  सदैव अविस्मरणीय ‌ रहेगा । गुरु अगदास गोसाई का रायपुर स्थित  सतनाम बाड़ा स्वतंत्रता आन्दोलन का केन्द्र था।  जहां पर पं मोतीलाल नेहरु महात्मा गांधी के विश्वस्थ  बाबा रामचंद्र जी रहकर परिक्षेत्र में स्वतंत्रता आन्दोलन को संचालित कर रहे थें। उनके साथ गुरु गोसाई सहित 72  संत- महंत जिसमें रतिराम मालगुजार गौटिया अंजोरदास कोशले , राज महंत नयनदास महिलांग , प मिलऊ दास कोसरिया  लालसाय, बरनुदास ,रामचरण  बहोर‌न , सेखवा , रेंगहू , कन्हैलाल कोसरिया , डेरहाराम घृतलहरे , रेशमलाल जांगड़े जैसे अनगिनत पुरोधा थे तो मंत्री नकूलदेव ढ़ीढ़ी महंत नंदूनारायण भतपहरी, आदि डा अम्बेडकर के विचारधारा के झंडाबरदार होकर सामाजिक क्रांति के शंखनाद कर रहे थें।
          आजादी के अमृतकाल के इस समापन काल और अगस्त क्रांति माह में ।सतनामी आश्रम संस्थान और उनसे जुड़े अनगिनत हिरावल दस्ता के प्रणम्य स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों व सामाजिक क्रांति के प्रणेताओं को सादर नमन ।
     जय हिन्द जय सतनाम जय छत्तीसगढ़ 

चित्र - समकालीन समय पर सक्रिय सामाजिक संस्थानों की वर्षवार सूची ।  जिसमें प्रथम स्थान पर  एंव वर्ष में सबसे प्रथम सक्रिय होने का उल्लेख हैं। डा शबनुर सिद्धीकी  का अनुसंधान अनुशीलन ।
   सौजन्य  (प्रो घनाराम साहू जी के वाल से  प्राप्त  )

किन्नर कथा : दर्द पीते खुशनसीब लोग

#anilbhatpahari 

   दर्द पीते खुशनसीब  लोग 

  हमारे पौराणिक साहित्य  में भारतीय मनीषा  यक्ष, किन्नर, गंधर्व ,देवादि के रुप में वर्णित हैं और उनकी महत्ता आज पर्यन्त  बनी हुई हैं। इनमें किन्नर ऐसा समुदाय है जिनकी दुआएं किसी देवी- देवता की दुवाओं  से कम नहीं है। चाहे अर्धनारीश्वर के रुप में रुद्रावतार हो या रामायण में वर्णित  राम वनवास के समय अयोध्या के सरहद पर प्रतिरक्षा रत किन्नर समुदाय हो महाभारत में  वृहन्नला के रुप में अर्जुन का अज्ञातवास और शिखंडी के माध्यम से महायोद्धा भीष्म पितामह का वध का छण रहा हो यह सब अविस्मरीण  प्रेरक प्रसंग हैं।
      इस के साथ -साथ ऐतिहासिक दस्तावेज़ में कुशल रणनीति कार ,योद्धा और राज- रजवाडे के अंत:पुर में सैनिक हो इनकी उपादेयता रही हैं। अलाउद्दीन खिलज़ी का सिपहसालार जिनके नेतृत्व में अपराजेय दक्कन  फतह  किया  गया ।ऐसे अनेक रोचक  दास्तान  इतिहास में मिलते हैं।
     गत दिवस  संस्कृति विभाग छत्तीसगढ़ शासन के सौजन्य से तृतीय लिंग ( ट्रान्स जेंडर ) समुदाय के ऊपर आयोजित कार्यक्रम में आमंत्रित होकर गौरवान्वित हुआ।
   वहाँ पर  उनकी दशा -दिशा को देखते, विमर्श करते  उनकी परिस्थितियों को समझते हुए करुणा के सागर में गोते लगाते हुए  द्रवित और आनंदित होने का विलक्षण अनुभव से गुजरना हुआ । वर्णातीत है इन समुदाय का सानिध्य पाना । मानव समाज  उन्हें अपने अभिन्न होने की अहसास कराकर उनकी असीम दु:खों का निदान कर सकती हैं। 
     शासन - प्रशासन द्वारा भी उनकी शिक्षा स्वास्थ्य एंव रोजगार हेतु गंभीरतापूर्वक कार्य कर रहे।  परन्तु इतना ही   पर्याप्त नहीं बल्कि  आम जनमानस में भी चेतना जागृत कराना होगा कि यह हमारे  समाज का अभिन्न अंग हैं। और उनसे  सहज - सरल  व्यवहार करना हैं। तभी दु:खो की दरिया से इस समुदाय को  बाहर निकाल सकते हैं। 
             बेहद प्रतिभाशाली और कलावंत समुदाय को  मौका देना चाहिए बेहतर प्रदर्शन के लिए।  किसी क्षेत्र में सेवाएँ देने के लिए यह समुदाय अब सहज रुप से सामने आने लगे हैं ... यह स्वागतेय पहल हैं।

मंत्री नकूल देव ढ़ीढ़ी

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पृथक छत्तीसगढ़ हेतु   प्रथम जेल यात्री : "क्रांति द्रष्टा मंत्री नकूल देव ढीढी"
              महान मानवतावादी विचारक और छत्तीसगढ़ मे गुरु घासीदास के सिद्धान्त "मनखे मनखे एक" को व्यवहारिक धरातल मे स्थापित करने मे मह्ती भूमिका निभाने वाले क्रान्तिद्रष्टा मंत्री नकूल ढीढी का जन्म १२ अप्रेल १९१४ मे भोरिन्ग महासमुन्द मे हुआ।आपके  कारण ही  सर्व समाज मे पौनी पसारी राउत  नाई धोबी  प्रथा का प्रभावी  प्रचलन  हुआ ।पारंपरिक शोषण वृत्ति के जगह सेलुन लाण्ड्री  जैसे नवीन व्यवसाय शहरो और बडे ग्रामो मे खुले और ये श्रमिक जातियां सांमती शोषण से बचे‌
परित्यक्ता विधवा विवाह हेतु  चूडी पहनाई  और बरंडी जैसे गुरु घासीदास प्रवर्तीत  नवीन प्रथाओ का प्रभावी रुप मे प्रचार प्रसार कर महिलाओ की दयनीय दशा को सुधारने मे अभूतपूर्व  कार्य किया।अपने पुश्तैनी अस्सी एकड जमीन और उसके आय को सामाज सेवा को समर्पित कर दिये।
   नकूल देव ढीढी एक ऐसे समाज सुधारक व सेवक रहे जो पद प्रतिष्ठा के लिए नही बल्कि समाज के  स्वाभिमान व आत्मसम्मान  के लिए  आजीवन संघर्ष किया।
हिन्दू और सतनामी‌ छग के गांवो मे समान रुप से बसे है इसके बावजूद दोनो के बीच एक सांस्कृतिक रुप से स्पष्ट विभाजन देखे जा सकते है।किसी भी गांव मे भले जातिय बसाहट हो पर अधिकतर सभी जातिया चाहे वह ब्राह्मण छ्त्री वैश्य या शुद्र मे अनगिनत पेशेवर जातिया यथा  तेली ,तमोली, कुरमी कोयरी,  राउत  मरार, महार  ,लुहार , चमार नाई, धोबी, गाडा मेहतर  मे भोलिया रौतिया  मेहर  मोची  सभी एक साथ एक दुसरे से अभिन्न रुप. से आबद्ध है।और वे   अनेक भिन्नता के बावजूद हिन्दू है।क्योकि उन सबके कुल देवता अलग अलग है। पर सारे देवी- देवता त्रिदेव के अधीन बहु देवोपासना  है। इन सबसे अल्हदा
एकेश्वरवाद सतनाम सतपुरस के अवधारणा से सहज कर्मयोग पर आधारित सतनाम धर्म. और इसके अनुयायी सतनामी है।जो समानता और गुण के आधार पर संगठित है। मनखे मनखे एक जैसे उदात्य सिद्धान्त और जाति वर्ग विहिन समाज जो सबको अपने मे सागर सदृश्य समाहार करते है।   इसलिए जात पात भेदभाव उच् नीच वाले हिन्दू लोग  इन से द्वेष जनित व्यवहार करते है  और मेलजोल से इसलिए बचते है कि सतनामी न बना  ले।अपने मे समा न ले !
मंत्री जी   हिन्दुओ के  इन्ही वर्जनाओ और द्वेषभाव के विरुद्ध शंखनाद करने वाले कुशल क्रांतिकारी योद्धा थे।
   उनका संग्राम संवैधानिक रहे। वे दो टूक साफ साफ कहते - यदि हमे हिन्दू मानते है तो पौनी पसारी की सुविधा  मिले।यदि नही तो दोषी को कानुन सजा दे। या तो हिन्दू से हमे  पृथक करे। उनके भाषण तर्क सम्मत सरल व हृदयग्राही थे।वे तत्कालीन सभी राजनेताओ मे मुखर थे।समाज कल्याण हेतु अनगिनत मुकदमे लडे।
फलस्वरुप वे  जनमानस के हृदय में राज करते आ  रहे है। उनके जाने के बाद  समाज उन्हे मंत्री  और दादा जैसे आत्मीय शब्दो से संबोधित करते है।
  ईसाई और बौद्ध धर्म की सिद्धान्त और विशेषताओ ने उन्हे प्रभावित किया। आचरण गत शुद्धता और सादा जीवन उच्च विचार ,परोपकार विरासत से उन्हे सतनाम से मिला ।फलस्वरुप उनके व्यक्तित्व एक युग द्रष्टा संत सदृश्य रहे।सतनामी समाज मे वे कुशल प्रबंधक, जंयती मेले जैसे वृहत बडे  आयोजन 
कर्ता के रुप मे विख्यात. थे।
१९३० महज सोलह वर्ष के उम्र में आपने खेलुराम और महन्त बरनू कोसरिया के साथ तमोरा महासमुन्द  जंगल सत्याग्रह में भाग लेकर गिरफ़्तार हुए। अपने 
गांव  भोरिंग मे उत्साही नवयुवको के साथ मिलकर रामलीला का मंचन करते रावण का अभिनय करते और बेहतरीन पारंपरिक  मंगल भजन पंथी  संकीर्तन भी करते। पहले- पहल कांग्रेस व गांधी के प्रभाव में रहे गांधीवादी ईसाई पादरी एस डी एम सिन्ह जो गुरुकुल कांगडी के संचालक थे के प्रभाव से आपने रामलीला के जगह सामाजिक चेतना लाने हेतु १९३६ - १९३८ में  गुरु घासीदास जंयती व संकीर्तन आरंभ कर परिछेत्र मे प्रसिद्धी प्राप्त किए । १९४२ अग्रेज भारत छोडो आन्दोलन में वे अपने साथियों सहित भाग लिए। इसी दरम्यान वे कुछ सडयंत्रियो ने  धर्मगुरु मुक्तावन दास को  हत्या के  झुठी मुकदमा में फसा कर जेल भिजवा दिये उसके लिए संधर्ष किए और डा अम्बेडकर के प्रतिनिधि वकील बाबू हरिदास आवडे से संपर्क कर डा को पैरवी के लिए तैय्यार करवाए और बा इज्जत बरी करवाए। इस तरह संपूर्ण सतनामी जगत में वे विख्यात हुए।आगे चलकर आपने   डा अम्बेडकर के शेड्युल कास्ट फेडरेशन  से जुडकर आजीवन उनके मिशन को गतिमान रखे आप आर पी आई. के संस्थापक सदस्य रहे। म प्र. गठन के पूर्व से ही सीपी एण्ड बरार के समय १९५१ में पृथक छत्तीसगढ़ के परिकल्पना कर अपनी बाते रखते रहे।
   आर पी आई के बैंगलोर अधिवेशन मे पृथक छत्तीसगढ हेतु आवाज बुलंद किए इनके लिए  आन्दोलन चलाए व १७ अक्टबुर १९७२ से सत्याग्रह  मे बैठे १० दिन बाद २७ अक्टूबर  १९७२ को गिरफ्तार कर लिए गये इस तरह वे   प्रथम जेल यात्री रहे।अपने १९ सहयोगी सहित जेल यात्रा करके वे मिशाल कायम किए। उनके अनन्य सहयोगियो मे नन्दूनारायण भतपहरी, रामचरण, इन्द्रदेव टंडन, सुखरु प्रसाद बंजारे  र म ई फत्तेलाल ,रामलाल, किशुन सुकालदास भतपहरी धनिराम सखाराम चन्द्रबलि किशुन  गेन्डरे धनसिह भिछु रामेश्वरम ,कोन्दा प्रसाद बधेल,.मनोहरलाल. भीषम्देवढीढी, बाबु हरिदास आवडे  खेलुराम टंडन दौव्वा आवडे, महंत बरनु कोसरिया , जैसे सैकडो प्रतिबद्ध सहयोगी के साथ सामाजिक जागरण के कार्य मे संल्गन रहे डा अम्बेडकर के विश्वस्त लोगो में आपका नाम रहे।आपने  विदर्भ वादी नेता  बी डी खोब्रागढे दादासाहेब रुपवते  आर एस गव ई देवीदास वासनिक जीएस कट्टी समता सैनिक दल के अध्यक्ष ए आर बाली प्रख्यात बौद्ध भिछु भदन्त आनंद कौल्यायन इत्यादि के साथ मिलकर डा अम्बेडकर चेतना और मिशन को आजीवन समाज में विस्तारित करते रहे।   
वे कुशल प्रवक्ता संकीर्तन कार कानुन के जानकर थे।
डा अम्बेडकर के निकटस्थ सहयोगी वे रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया के छग प्रभारी रहे और आजीवन रायपुर महासमुन्द आरंग  लोक सभा / विधान सभा चुनाव लडते बहुमुखी प्रतिभा के  धनी मंत्री जी सामाजिक चेतना को गतिमान करते हुये १६ अगस्त १९७५ को सतलोक प्रयाण कर गये।
ऐसे क्रान्ति द्रष्टा और युग सचेतक महापुरुष मंत्री दादा  नकुलदेव ढीढी के पूण्यतिथि 
अवसर  पर सादर श्रद्धांजलि उन्हें शत शत नमन -----
    
जय जय हो मंत्री नकुल देव ढीढी 
तोर पूजा करही पीढी पीढी ।।

       सत श्री सतनाम
डा. अनिल भतपहरी सी ११ ऊंजियार सदन आदर्श नगर अमलीडीह रायपुर छग 
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Sunday, July 30, 2023

स्वतंत्रता संग्राम सेनानी पं. मिलऊदास कोसरिया

#anilbhatpahari 

स्वतंत्रता संग्राम सेनानी पं. मिलऊ दास  कोसरिया 

   गुरुघासीदास के उपदेश, बोध कथाओं और उनकी अमृतवाणियों के जानकार पं. मिलऊ दास कोसरिया  जी कौंदकेरा राजिम के निवासी  थें। वे सत्संग प्रवचन के लिए पुरे राजिम परिक्षेत्र में प्रसिद्ध थे।  चमसुर निवासी पं सुन्दरलाल शर्मा  जी आपसे प्रभावित होकर गुरुघासीदास व  सतनाम संस्कृति को जाने -समझे। तथा सतनामियों के साथ सत -संगत करने लगें। दोनों मे धार्मिक सद्भाव व समझ के चलते ही गहरी मित्रता रही।
     इस बीच देश मे चल रहे स्वतंत्रता आन्दोलन मे दोनो सम्मलित होने रायपुर अन्य जगहों पर आने - जाने लगे। जंगल सत्याग्रह का नेतृत्व पं कोसरिया जी ने किया और अपने साथ अनेक सहयोगियों  को राष्ट्र सेवा मे संलग्न किए। 
    बलौदाबाजार - भाटापारा परिक्षेत्र मे सतनामियों का महंत नयन दास महिलांग द्वारा आरंभ  किये गये गोरक्षा आन्दोलन पुरे देश भर मे चर्चित रहा । पं. मिलऊ दास जी को उनकी जानकारी और उन आन्दोलन कारियों से संपर्क रहा है। कलान्तर में गुरु अगमदास गोसाई  व महंत नयन दास महिलांग सहित  अनेक संत -महंत से उन्होने पं. सुन्दरलाल शर्मा जी का परिचय करवाया । उन सबसे मिलकर पं.  शर्मा जी  सतनाम संस्कृति से बहुत गहराई से  प्रभावित हुआ और वे "सतनामी पुराण"  की रचना 1907 में की।  आगे चलकर 1921 मे सतनामी आश्रम और कटोरी प्रथा ( धान मंडी मे  प्रति बोरा एक कटोरी धान की चंदा  )  चलाकर सतनामी स्कूल / छात्रावास भी  अमीन पारा बुढापारा पुरानी बस्ती रायपुर  से आरंभ किए गये।

    इस तरह वर्तमान अवस्था से सुधार व निजात पाने की चाह लिए सतनामी समाज भारतीय  कांग्रेस  पार्टी / डा अम्बेडकर की शेड्युल कास्ट फेडरेशन आदि संगठनो से जुड़कर उनके राष्ट्रीय कार्यक्रम में सहभागिता निभाने लगे।  इस बीच वे राजिम मंदिर में सतनामियों सहित वंचित वर्गों के सुत ,सारथी, गाड़ा घसिया, कहार , महार आदि समुदाय को एकत्रित कर  मंदिर प्रवेश का ऐतिहासिक कार्यक्रम चलाया। कहते है कट्टर पंथियों के विरोध और रैली बहिष्कार से शासन- प्रशासन चाक- चौबंद हो गये। मंदिर प्रवेश के बहाने अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध अभियान समझ  सामाजिक सद्भाव बिगाड़ने का आरोप लगा कर  प्रशासनिक  प्रतिरोध पैदा किए गये। फलस्वरुप   राजिम लोचन परिसर मे स्थित  राम- जानकी मंदिर में  प्रवेश कर कार्यक्रम सम्पन्न किए गये।
     इनसे इन दोनो  की ख्याति सर्वत्र फैल गई। फलस्वरुप रायपुर की एक सभा मे महात्मा गांधी ने सुन्दरलाल शर्मा जी को अपना गुरु माना -

    गांधी ले पहिली सुन्दर लाल करिस शुरु 
    भरे  सभा म उन ल अपन  मानिस  गुरु 

     एक तरफ पं सुन्दरलाल शर्मा को उनके समाज वाले बहिष्कृत कर दिए।तो दूसरे तरफ कट्टर पंथ जहरिया सतनामी  मंदिर मूर्ति पूजा पर पं मिलऊ दास  कोसरिया जी को भी समाज दंडित किए गये। फिर भी दोनो मित्र आजीवन  देश व समाज सेवा में जुड़कर सामाजिक सद्भाव और स्वतंत्रता आन्दोलन व सभा सोसायटी में सक्रिय रहें।
      
           ऐसे साहसी शूरवीर और समाज व देश सेवा के सर्वस्व समर्पित रहने  वाले इस  मनीषी को सादर नमन ।

 चित्र - पं. मिलऊ दास घृतलहरे जी का प्रतिमा कौंदकेरा राजिम 
  
            - डा. अनिल कुमार भतपहरी / 9617777514

Friday, July 28, 2023

छत्तीसगढ़ी शब्द

**यहू ला जानव**

भूखण्ड/खेती भुइयाँ ले जुड़े शब्द

*मेड़*- खेत के चारो मुड़ा के पार।

*डोली/खेत*- मेड़युक्त भूखण्ड जिहाँ धान, गहूँ, चना या पानी ले पकइया फसल  बोय जाथे।

*भर्री*- बिना मेड़ के भूखण्ड जेमा पानी नइ माड़े, ज्यादातर येमा कम पानी मा पकइया नगदी फसल बोय जाथे।

*चक*- प्लाट, एक ले अधिक एकड़ के एके जघा स्थित खेत।

*खार*- बड़ अकन खेत या भर्री। खार के नामकरण भूखण्ड के स्थिति, दिशा, दशा,बनावट, गांव ,बाँध, पेड़ पात के अधिकता ला आधार बनावत होथे। जइसे- खाल्हे खार, रकसहूँ खार, दर्रा खार, बम्हरी खार, बन्धिया खार, खैरझिटी खार, चुहरी खार आदि कतको हे।

*गाँसा*- अइसन जघा जेमा बरसा के पानी गिरत साँठ माड़ जाथे। खेत के खँचका भाग।

*पखार*- अइसन डोली जिहाँ बरसा के पानी नइ माड़े, बल्कि सबे बोहा जथे। खेत के डिपरा भाग।

*मुही*- डोली के मेड़ मा बने छोटे भुलका, जेती ले पानी आथे जाथे। येला स्वेच्छा ले बनाये जाथे।

*भोक*- खेत के मेड मा बने अइसन भुलका जिंहा के खेत के पानी बोहा जथे। ये खुदे बन जाथे,एखर ले किसान मन ला नुकसान हो जथे।

*भरका*- बरसात के पानी पाके खेत या भर्री मा बने छोटे छोटे भुलका। 

*दर्रा*- भुइयाँ मा बने लामी लामा दरार। दर्रा गर्मी मा दिखथे, बरसा घरी मुँदा जथे।

*बिला*- केकरा अउ कतको जीव जानवर के द्वारा बनाये भुलका(छेद)। मेड पार मा कतको बिला दिख जथे।

*हदिक-हादक*- उबड़ खाबड़।

*उतारू*- उतार जघा/ ढलान।

*चघउ*- चढ़ाव।

*बिच्छल*- पानी गिरे ले माटी मा चिकनाई आ जथे, अउ अइसन जघा मनखे के पांव साबुत नइ माड़े।

*गाड़ा रावन*- गाड़ा के दूनो चक्का ले बने रस्ता।

*पैडगरी*- मनखे मनके अवई जवई ले बने डहर।

*धरसा*- खेत खार जाए बर बने रस्ता/डहर/बाट

*हरिया*- जोतत बेरा किसान, खेत के एक निश्चित भाग ला नांगर बइला ले जोतत जथे।

*पाँत*- खेत के बन काँदी ला निंदे बर धरे एक निश्चित भाग।

*टोकान*- खेत के कोन्हा।

*खँड़*- किनारा/भाग।

*खोधरा*- गढ्ढा

*ढिलवा*- डिपरा

*टेड़गी डोली*- चार ले जादा टोकान वाले डोली। अइसने डोली मा किसान मन बोवई या खेती काम के मुहतुर घलो करथे।

*लमती डोली*- लामा लामी डोली। 

*टेपरी डोली*- छोटे आकार के डोली।

*बाहरा डोली*- अइसन डोली जे कम संसाधन मा घलो जादा पैदावर देथे। पानी सहज आके भर जाथे। आकार प्रकार हिसाब ले, बड़े बाहरा, छोटे बाहरा, टेड़गी बाहरा बाहरा के कई प्रकार हे। बाहरा बहार शब्द ले बने हे, जिहाँ पैदावार घलो जादा होथे।

*गर्दी रेंगाना*- खेत के बीचों बीच, पानी निकाले बर  रापा कुदारी मा बनाये छोट नाली।

*खँधाला*- सीढ़ी, पेड़ के डाला।

*बनखरहा*- वो डोली या भर्री जिहाँ जादाच बन काँदी उपजथे।

*मउहारी*- मउहा के बन।

*कउहा रवार*- कउहा पेड़ के जंगल।

*अमरइया*- आमा बगीचा।

*जमराई*- राय जाम या चिरई जाम के बगीचा।

*डिही*-  पहली जमाना मा बसे बस्ती जे वर्तमान में उजाड़ होके बन बगीचा मा घिर गे हवै।

*चुहरी*- ये शब्द चाहली(पानी मा माते भुइँया) ले बने हे। अइसन जघा जेमा ज्यादातर पानी भरे रहिथे। 

*बतर/पाग*- बाँवत(धान बोय) बर उपयुक्त समय

*जरखेदी*-  चुकता, जमें।

*रेगहा*- एक विशेष दिन तिथि बाँधत खेत ला फसल बोय बर लेना।

*अधिया*- खातू,कचरा,धान,पान अउ जम्मो लागत ला आधा आधा लगाके खेती करना।

*कट्टू*-  लागत वागत काट पिट के एक निश्चित राशि या धान पान मा खेत बोना।

*भाँठा*- मटासी माटीयुक्त ठाहिल भुइयाँ, जिहाँ पानी नइ माढ़ें। ये रेतीला भी हो सकत हे।

*परिया*- अइसन जघा  जेमा खेती बाड़ी के काम नइ होय।

*चरागन*- गाय गरुवा मन के चारा चरे के जघा।

*दइहान/ गौठान/खइरखा*- अइसन जघा जिहाँ बरदी(गाय गरवा के समूह) बिहना ठहरथे।

*भोड़ू/भिम्भोरा*- जमीन मा बने दीमक के घर,जिहाँ साँप, बिच्छी, गोइहा, खुसरे दिखथे।

*तरिया*- गाँव घर के उपयोग बर भरे पानी। तरिया के बनाबट,स्थिति, दशा दिशा अउ रुखराई के हिसाब ले नाम देखे सुने बर मिलथे।

*ढोंड़गी*- नरवा/नाला के छोटे रूप।

*पैठू*- पैठू तरिया ले जुड़े रहिथे, बरसा के पानी एखरो माध्यम ले तरिया मा आथें अउ जब भर जाथे ता निकलथे घलो।

*बन्धिया/बाँध*- खेत खार के सिचाई बर भरे पानी। बाँध मा *नहर नाली(सिंचाई बर बने नाला)* जुड़े रथे।

*उलट*- बाँध भरे के बाद जादा पानी निकले के जघा, 

*डबरा*- भुइयाँ मा बने गड्ढा, जिहाँ बरसा घरी पानी भराये रहिथे।

*घुरवा*- खातू कचरा फेके बर बने जघा।

*कुँवा*- जमीन के गहराई मा जलस्रोत।

*बावली*- जमीन के गहराई मा भरे पानी जिहाँ सीढ़ी रिथे।

*मसानघाट*- अइसन जघा जिहाँ मनखे मन ला ,मरे के बाद दफनाये, जलाए जाथे।

*खदान*- धातु,पथरा, छुहीमाटी निकाले बर भुइयाँ मा बने गड्ढा।

*कछार*- नदिया तीर के भुइयाँ।

*डुबान/ बुड़ान*- बांध या नरवा भरे के बाद, बांध ले लगे वो जघा जिहाँ पानी भर जाथे।

*माड़ा*- जंगली जानवर मन के रहे के जघा।

*साँधा*- खोल

*अपासी*- सिंचित भुइयाँ

*लगानी*- अइसन जमीन जेखर लगान पटाये(भरना)बर लगथे

*खरखरहा*- ना गिल्ला ना सुक्खा, भर्री अइसने पाग मा बने जोताथे।

*किरचहा*- कठोर,कड़ा, टांठ।

*चिक्कन*- चिकना

*चिखला*- कीचड़

*लेटा*- लसलसा कीचड़ के गाड़ा चक्का या पाँव मा चपक जथे।

*निँदा*- निदाई करे के बाद निकले बन/खरपतवार

*मेड़ो/सिवान/सियार*- कोनो गाँव, शहर,या देश राज के आखरी छोर।

*सियार*- मेड़ो मा गड़े पथना, या कोनो चिन्हा।

*खंती*- खेत खार के एक निश्चित भाग ल कोड़ना, ज्यादातर खंती कोड़ के खेत ला बरोबर करे जाथे।

*गोदी*-  जमीन के एक निश्चित भाग ल कोड़े बर चिन्हित जघा। एक फुट गहरा अउ दस फुट समान लंबाई चौड़ाई के नापी भुइयाँ- एक गोदी।

*डंगनी*- गोदी नापे के पैमाना।

*ठिहा/आँट*- गोदी कोड़त बेरा गहराई के नाप बर छोड़े टापू। एखरे ले अंदाजा लगथे कि वो जघा कतका ऊँच रिहिस।

*ढेला*- भुइयाँ ला कोड़े/खने मा निकले छोट छोट साबुत खण्ड।

*गूँड़ा*- माटी के बुरादा।

*कन्हार डोली*- काला माटी वाले खेत।

*मटासी*- पिंवरा माटी वाले खेत।

*मुरमुहा*- मुरूम युक्त भुइयाँ।

*कनाछी*- रेती।

*कुधरिल*- रेत युक्त धूल।

*फुतकी/धुर्रा*- माटीयुक्त धूल।

*कुंड़/सेला*- नांगर जोतत बेरा बने चिन्हा।

*गोंटा*- जमीन मा पड़े पिवरा रंग के गोल गोल पथरा।

*कँसियारा*- काँसी युक्त खेत।

*राता खार*- दुरिहा के भाँटा जमीन।

*फुटहन/कटही बन*- काँटेदार पेड़ पौधा ले युक्त भुइयाँ।

*नर्सरी*- फलदार,फूलदार,छायादार  अउ औषधीय वृक्ष के पौधा तैयार करे के जघा।

*कुलापा/पुलावा*- छोटे नहर नाली, छोटा नाला,

*रपटा*- कामचलाऊ नाली।

*कूना*- चना, गहूँ के कूढ़ी।

*मांदा*- क्यारी/ओरी

*बुकनी*- चिकना।

*दुवार*- घर के आघू के खाली जघा, अंगना।

*बारी/बखरी*- घर के नजदीक साग भाजी लगाय के जघा।

*कोठार/बियारा*- धानपान या अन्य फसल ला जिहाँ रखे, मिन्जे जाथे।

*रकबा/एकड़/हैक्टेयर/जरी*- जमीन नाप के पैमाना

*डोंगरी*

*पहाड़*

*मैदान*

जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को,कोरबा(छग)

Wednesday, July 26, 2023

सुध लाम्हे रथे

सुध लाम्हे रथे तोर डहन 
मोला कछु नही भाये  
सिरतोन तोर बिन रे   
मोला कछु नइ सुहाये ...

नंजरे -नंजर म तय ह  झुलत रहिथस 
कर ले मया मोर संग तय ह कहिथस 
जाथव तोर तीर म रे, छन म कहां पराये 

का तय सरग परी रुप धरे मोहनी 
खवाये मोला अउ बइहा करे मोहनी 
देखे हव जब ले तोला रे, मोर सुध- बुध हजाये ...

जस तोर हाल रे संगी ,तस मोरो हाल 
तोर मया पाये बर ,रहिथव मय बेहाल  
होतिस पांखी संगी मोर त उड़ि चलि  आते...

Monday, July 24, 2023

रोपा अउ खोपा

रोपा अउ खोपा 

लगाबे  तेकर  खोपा  छोरे  ल परथे 
लगाथे  ओला  खोपा  पारे ल  परथे 
तभे लगथे रोपा हमुला कहे ल परथे 
बिना नेंग -जोंग के हांसी ठठ्ठा लगथे
किसानी के कारज बड़ मस्कुल होथे 
माटी म माटी मिलबे लौहा बुता झरथे

    - डा. अनिल भतपहरी /9617777515

Sunday, July 23, 2023

हरेली गीत

#anilbhatpahari 

।।हरेली ।।

देंख-ताक कहिले झन कहिबे बरपेली 
हर लेही  दु:ख  हमर  असो के  हरेली 
‌कइसे  बुढादेव  बबा , कस  बुढ़ी दाई ...

खरिखा डाड़ म सबो गरवा सकलाये 
दसमुड़ ,गोंदली संग सब लोंदी खवाये 
देख मेछरावय बछवा मतावय  चाहली 
हांसे शंकर भोला संग म पारबती ...

बोवनिया जमनिया  बादर ह  बरसिस  
सम्मत  देख के  किसान  मन हरसिस 
झुलबोन  झुलना अउ झुलबोन रहचुली 
कैसे भैया किसना कस भौजी रुखमनी ...

जांगर  टोर  करेन ,जबर  मतासी 
तभे लौहा झरिस हे  रोपा-बियासी 
नांगर  धोवागे  अउ  खपागे  गेड़ी 
कइसे कका बिसनु कस काकी लछमी ...

सरधा राखव अउ सइता मन म धरव 
देव धामी  ल बने सुमरव  अउ  बदव 
चीला  चढ़ाके चल , मना बोन  हरेली
कइसे बुध,कबीर साहेब गुरु बबा  घासी ...

   - डा. अनिल भतपहरी / 9617777514

Friday, July 14, 2023

क्या और कब तक

#anilbhatpahari 

 क्या और कब तक ?

तुम्हारा यह बोल 
विरोध नही विद्रोह है 
विरोध बर्दास्त है 
पर विद्रोह नही 
क्योकि विरोध
को समझा लेंगे
या उसे ही सौप देंगे 
सब भार 
ढोने के लिए 
अब रहो तैयार 
जो चला आ रहा है 
निर्वाह करो श्रद्धा से 
वह हो जाएगा अपना 
गर होने दो पुरा 
उनके है कुछ सपना 
वैसे विरोधी तो 
अपने ही होते है 
जरा मनौव्वल से 
मान ही जाते हैं 
पर विद्रोही को समझाना 
और विद्रोह को थामना 
या उन्हें कुचल देना 
आसान नही 
न ही थम जाने 
या कुचल जाने से 
मिले इत्मीनान 
अंदर ही अंदर परेशान 
सांसें कोई चैन की नही 
चाह मीठे बैन की नही 
हरदम लगा रहता है ध्यान 
कि कही कोई हवा चले 
और भड़क न जाये चिंगारी 
जल न जाए 
यह स्वर्ण नगरी 
करना पड़ता  है यत्न 
विकट  प्रयत्न 
हवाएं कही से न चल पड़े 
काटने पड़ते हैं दरख्त 
ढहाने होते हैं पहाड़ 
सुखाने होते है दरियां
उजाड़ने पड़ते हैं वह गांव 
जिसे लोग बे़वजह 
सरग की उपमान देते है 
बजबजाते रहते हैं जात-पात 
अशिक्षा अंधविश्वास की काली रात 
बसकर शहर में
चलकर राजपथ में
सचाई से अनजान रहते है 
वही कोई बैठकर 
लीमचौरा में  
किस्से गढ़ते है  
फिरके तोड़ते है  
सबको साथ लेकर 
पगडंडी पर चलते हैं 
करो उसे बहिष्कृत 
अपने लोक से तिरस्कृत 
लायक नही राजपथ के  
नालायक है 
हमारी रिवायत के 
हमारी शरीयत के 
असल खलनायक है 
सच में !
कि वह विद्रोह के
असल नायक हैं!
तिरस्कार के तीर से 
करो वध 
आबाद रहे अवध 
मुबारक  मगध 
मगर कब तक 

 - डा. अनिल भतपहरी/9617777514