तुरते- ताही
।।याचिका ल छत्तीसगढ़ी म अरजी कहिथे ।।
छत्तीसगढ़ी माध्यम से शिक्षा पर लगी जनहित याचिका पर सुनवाई के समय हुई जिरह में छत्तीसगढ़ी की अक्षमता के ऊपर टीप अनुचित हैं।
याचिका को क्या कहते है ? पर वकील साहब को जवाब नही सुझा । ऐन वक्त भाषा के अनुप्रयोग न करने से उचित शब्द स्मृत भी नही होते यह स्वभाविक हैं।
असल में याचिका शब्द अंग्रेजी के पीटिशन के विधिक हिन्दी शब्द है , जो याचक से बना है । इसके पर्याय प्रार्थना , विनती , अर्ज़ आदि है। देश मुगलों के शासन से कचहरी ,वकील ,अर्जी, अर्जीनिवेश, मोहर्रिर , दफ्तरी पटवारी तहसीलदार जैसे शब्द लोक भाषाओं में आया। इस तरह याचिका को छत्तीसगढ़ी "अरजी" कहते है।
हर क्षेत्रिय भाषा रिजनल लेंगवेंज विस्तारित होकर राजकीय और सक्षम भाषा बनती है।उसमे मूल शब्द प्राय,: कम ही रहते हैं । आगत और तस्सम तद्भव शब्दों से वह समृद्ध होती और इनके अनेक वर्ष लगते है।
छत्तीसगढ़ी के अनेक मूल शब्द न अंग्रेजी मे है संस्कृत मे है न हिन्दी । इसके मतलब इन भाषा को अक्षम कहे या माने जाय ? क्या यह सही हैं? नही ।
सावा ,बदौरी ,करगा ,ओगन , ठुलु ,गासा ,पखार , जुड़ा सुमेला पंचाली आदि का कोई पर्याय अंग्रेजी संस्कृत मे हो तो बतावे?
दर असल शब्द आवश्यकता प्रयोग और प्रवृत्ति आदि के बनती हैं और व्यवहृत होती है। मनुष्य का दायरा जितना विस्तारित होगा उनकी भाषा उतनी ही विस्तृत और समृद्ध होंगे।
पाठ्यक्रम लागू करके देखे महज एक दशक में जो परिणाम आएगा चौकाने वाला होगा। छत्तीसगढ़ी हिन्दी की कृत्रिम व नवीन भाषा नही यह प्राकृतिक रुप से विकसित हजारों वर्षों की यहां तक विक्रम खोल , चितकबरा डोंगरी , सिंघनमाड़ा से प्राप्त आदिम चित्र से प्रमाणित आदिम मानव द्वारा बोली जाने वाली जनभाषा हैं।
स्कूली शिक्षा के इतिहास में आरंभ से इसे पढ़ाए जाते तो यहां भी उडिया मराठी बंगाली तमिल तेलगु जैसे परिस्थियां और प्रतिभाएं विकसित होती । पर दुर्भाग्यवश जो समझी और व्यवहृत नही की जाती ऐसी तीनों भाषाएं हिन्दी संस्कृत और अंग्रेजी पढाये जा रहे हैं। इस भाषा में छत्तीसगढ़ी दैनंदिनी में उपयोग आने वाली शब्द ही नही हैं। फलस्वरुप लोग अपनी मातृभाषा छत्तीसगढ़ी को विस्मृत करने की अवस्था में पहुच गये हैं। यह बेहद चिंतनीय हैं।
यदि आधुनिक ज्ञान- विज्ञान के चलते कोई शब्द न भी हो तो अन्य भाषा के शब्द को ज्यों की त्यों तत्सम रुप या ध्वनि प्रवर्तित कर तद्भव रुप में अंगीकृत की जाती है। तो छत्तीसगढ़ी में इस तरह आत्मसात करने की बेहतरीन व्यवस्था हैं। छत्तीसगढ़ सात राज्यों की सीमा से लगा हुआ हैं। आजादी के पूर्व म प्र उप बिहार उडीसा महाराष्ट्र मारवाड़ आदि से साक्षर लोगो को बुलाकर मालगुजारी , रैय्यतवाड़ी में कर्मचारी नियुक्त किये वे स्थायी रुप से बसते गये। उस दृष्टि से भॊ भाषाई वैविध्य है। आजादी के बाद पंजाबी सिंधी बंगलादेशी एंव तिब्बतियों को बसाये गये। भिलाई कोरबा जैसे नवरत्न श्रेणी के उद्योग के चलते पुरा लघु भारत इन जगहों पर बसा हुआ हैं।
उन सबके शब्द छत्तीसगढ़ी में आत्मसात होते गये अब भी यह जारी है। कहने का तात्पर्य अन्य भाषा के शब्दों को ग्राह्य करने अपूर्व क्षमता हैं। इसलिए अधिक या अनावश्यक या कहे " बरपेली संसो न इ करना चाही।"
राज के नान्हे नान्हे लरिका बच्चा मन ल अपन दाई- ददा अपन दादा- दादी , नाना - नानी के भाखा म पढाय- लिखाय अउ समझाय के तुरते बेवस्था होना चाही। नइते ओमन अपन भाषा के संग अपन संस्कृति तको ल भुला जही । वैसे भी विगत सवा सौ साल के स्कूली शिक्षा के चलते तथाकथित शिक्षित अउ रोजी - रोजगार पाए शहर पहर धरे मनखे मन ही प्राय: छत्तीसगढ़ी ल गांव- गली खेत - खार ,मजदूर- श्रमिक की बोली समझ आत्महीनता से ग्रसित कन्नी काट लिये हैं।इनकी संख्या महज कुछ हजार या लाख से अधिक नही है। इनकी बिना परवाह किये आठवी सदी में समृद्ध दक्षिण कोशल ( पुरा वैभव सिरपुर मल्हार तुम्मण आदि ) की वैभव को पुनर्स्थापित करने का अब वक्त आ गया हैं। और वह हमारी प्यारी छत्तीसगढ़ी भाषा और संस्कृति से ही संभाव्य होगा ।
उधारी -बाढ़ी के जिनीस ह कतेक ल पुरही अउ काबर फुटानी मारबोन । अपन ल जतनव अउ उपजाव ।
।।जय छत्तीसगढ़ी जय छत्तीसगढ़ ।।
- डा. अनिल भतपहरी / 9617777514
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