Thursday, October 19, 2023

अथ भट्टप्रहरी कथा

।।अथ भट्टप्रहरी कथा ।।

    प्राचीन भारत  के बुद्धकाल में नगर ,संस्थान, महल ,चैत्य विहारों  एंव चौक चौराहो के प्रहरी के प्रमुख   भट्टप्रहरी थे।‌:सिरपुर के निकट जुनवानी जैसे पांच गाव में वंशज आबाद हैं। बडे -बुजुर्ग पांव छूते ही असीस देते है - "पांच गांव के गौटिया बन "  !
वैसे इस गोत्र की उत्पत्ति को भारतीय संस्कृति अनुरुप देखे तो सबके मूल में कृषि व ऋषि संस्कृति जान पड़ता हैं। इस आधार पर इसे भारद्वाज की परंपरा से जोड़ते हैं। क्योकि अधिकतर धर्म - कर्म विचार की दृष्टि से  संत महंत साटीदार पं कडियार  कलावंत  इत्यादि वृत्ति वाले अधिकतर हैं। 
    दक्षिणापथ या दक्षिण कोसल के राजवंश सद्वाहों या सत्यवंतों में  "भट्टप्रहरी " यही लोग रहे हैं। सिरपुर संग्रालय मे प्राप्त सजीले रौबदार प्रस्तर प्रतिमा  खड्धारी  ही वहां की "भट्टप्रहरी " शासक हैं।  प्राकृतिक आपदा या अन्य कारणों  से सिरपुर का  भठ जाने पर लोक  कैसे किस्से गढ़ते है कि ये लोग जहां जाएन्गे भठा देंगें? ये भठा देने वाले भठपहरी है जिनके आकार भी ब्रज भटरी जैसे हैं। ये सब तांत्रिक- मांत्रिक सिद्ध टाइप के लोग भी बच के रहे ।
      

    वैसे कहे तो यह अवधारणा है कि  भट्टप्रहरी का अपभ्रंश मुख विश्रांति हेतु  भतपहरी कहे जाने लगे। यही देशज छत्तीसगढ़ी ध्वनि हैं। इसकी व्याख्या भी भात रखवार टाइप सारल्य भाव  भात ह पहर गे  ओ भतपहरी जेन ढीड़ा परगे वो ढ़ीढ़ी वाह ! कहां भट्ट और कहां भात ?
  पर लोग इसी भाव पर मुग्ध है । 

  गुरुघासीदास के अभ्युदय और उनके  सतनाम पंथ प्रवर्तन में यही लोग  बढकर हिस्सा लिया क्योकि निराकार उपासाना और सत्यवंत संस्कृति के ये लोग ध्वजवाहक अपने उद्भव काल से  रहे । सिरपुर महानदी तट पार स्थित जुनवानी  वालों के पैतृक काम कृषि के साथ पत्थर खदान रहा है - जहां सतपुरुष की असीस और कृपा  छाहित है - 
  काट के देखाएन पथरा ल जइसे कतरा ।
   संसार मे परसिद्ध हे जुनवानी के पथरा ।।
    कठोर पत्थर को मुलायम कतरे के मानिंद काटने की हुनर और शौर्य के अधिपति यही लोग श्रद्धापूर्वक भंडारपुरी - तेलासी में भव्यतम बाडा महल गुरुद्वारा अपने खदान के पत्थरों से बनाये । 
      सतनाम संस्कृति से  इतर लोगों का उच्चारण भटपहरी ही  रहा । फलस्वरुप भट्ट या भट हो गये। कही -कही भारद्वाज और भारती भी लिखने । जब स्कूल मे आये तो शिक्षक आदि  " भट्ट प्रिय " या " प्रिय भट्ट" हो गये।
      प्रिंट मीडिया में सदैव मेरे नाम 1989 से अब तक प्राय: त्रुटिपूर्ण ही लिखते गये जैसे - भट्टहरी , भतपहरि , भटरी , भट्टपट्टरी  ,भतपट्टरी , भृतपहरी , भृतहरी  आदि छपने और आपत्ति दर्ज करते ही  रहे पर नक्कार खाने में तुती। कु़छ संपादक का दो टूक- " छप रहा है गमीनत समझो।" अन्यथा भेजा मत करो। कुछ तो ऐसे कि सीधे मुंह बात तक नही ।  नाम के पीछे मेरी रचनाओ की प्रशंसक हमारे  आध्यापिका  मैडम व मित्रों के आग्रह पर  अशांत  और उद्वेलित करती रचना कर्म के चलते तखल्लुश  "  अनिल अशांत " होकर अमन शांति खोजते रहे । खरी खरी और फरी फरी कहने के चलते जो सफलताएं मिलनी  चाहिये वह बाधित रहा । क्योकि तब और अब इस तरह की बाते अब तक अग्राह्य ही हैं।
       बहरहाल थोड़ी प्रखरता और यथास्थितिवाद के विरुद्ध नव प्रवर्तन वाले स्वर को नापसंद करने वालों की धमक कि "शांत कर दिये जाओगे !" तब गांव मे नजरबंद या भूमिगत टाइप रहा । संपादक महोदय बेहद तनाव मे रहे ।मित्र बताये कि वह अस्पताल मे भर्ती हो गये गुर्गो की आतंक भी कम नही हुए इस जमाने मे तब ओ जमाना था कि शान मे कुछ गुस्ताखी कर दिखाए कोई ?
    सचमूच इसी वर्ष सरकारी सेवक बनते ही कदाचार के लिए शांत रहना आवश्यक समझ लेखन  डायरी तक रह गये। पिता श्री की समझाइस साहित्य अंत: सलिला है वह  भिगोती है और ऊपजाती है ।बाढ़ की तरह बहाती नही।और न फसलों को तबाह करती हैं। वे विगत 23 वर्षो से नही पर सीख और उनके संस्कार सदैव छत्र बना हुआ हैं।
    
 
    इस तरह 1996 के बाद की चुप्पी पिता श्री के आकस्मिक अवसान 2000  से टूटी!  पर स्वर संयत और जिम्मेदारी बोझ से विनयावनत हो गये और वह स्वर  परसन के संपादन मे प्रस्फूटित हुई।  यदा -कदा नव शिल्प हाइकू आदि साधते वह तेवर सम्हाले ही रहा पर 2007 में सद्य: प्रकाशित कब होनी बिहान "की मुहाखरा मे आक्रोश और विवशताएं साथ- साथ रहें। कुछेक बड़ी साहित्यिक हस्तियों ने भी इसे सदैव प्रासंगिक‌ शीर्षक युक्त भीतर  पन्नों की  स्वर को मुखर सुघड़ व अवगढ़  कहे । 
    मोबाइल और  सोसल मीडिया में ब्लाग लिखने की शुरुआत 2008 से हो गये और  पेन से थीसीस लिखने की‌ परिश्रम से मुक्ति पाने मोबाइल की कीबोर्ड से लिखकर विश्राम करते रहे ।  
     तब तक पी-एच.डी. होकर महामहिम राष्ट्रपति‌‌ प्रणव मुखर्जी  के समक्ष गौरवान्वित हुये। पर पद मर्यादा शास सेवा के सुख भोगते कभी वंशधारी सहिनाव भाट हो नही सके। पता नही क्यों प्रशस्ति गान मे गुंगे हो जाते हैं? इस बीच  पावन पिरीत के लहरा , हंसा अकेला , गुरुघासीदास  और उनका सतनाम पंथ ,  The value of a cup of tea , ठोस विचारों की कीमागिरी ,   6 पुस्तकें छप गई । और कुछ सम सामयिक रचनाएं पत्र  -पत्रिकाओं में छपती रही । साथ ही दूरदर्शन व आकाशवाणी मे प्रसारण भी ।
   कोरोना काल के लाकडाउन मे ऊपर कमरे में गुरुदेव गुणवंश व्यास द्वारा सुराना स्टोर्स रायपुर से  हारमोनियम मनमोहिनी  रखी पड़ी थी वह धो पोछ कर टेबल में आई।
 और फेसबुक मे स्वर लहरिया बिखेरनी लगी। तो एक संगीत प्रेमी हमे जिद करके स्टूडियो तक ले गये फिर छत्तीसगढ़ी के वे चुनिंदे गीत रिकार्ड होने लगे जो कभी नवाकिरन और मनमोहिनी लोकमंच के आधार गीत होते थे। सत श्री म्यूज़िक अनिल भतपहरी चैनल युट्युब में भी बना लिए  गये। पर नाम  मोबाइल वाइस या स्मार्ट टी वी मे  सर्च करो तो पसीने निकल आते है  जुबान  लडखड़ा जाते है पर  नाम नही। भतपहरी लिख ही नही पाते ।तो 
फिर चैनल चलाने नाम  Anilbhatt किये गये ।
       अभी अभी एक समाचार पत्र अनिल भारत पहाड़ी नाम छाप कर मुझे यह लेख लिखने विवश किया कि इस 53 वर्षो में मेरा एक अदद नाम  हिन्दी  पत्रकारिता जगत ने क्यो नही दे पाया ? लोग दो चार लिखकर नाम कमा लिए । यहां ठीक से अनिल भतपहरी लिख नही पाया ।
  क्या यह प्राचीन भाव प्रवण सरनेम वाकिय मे उच्चारण के लिए क्लिष्ट व दुरुह हैं? क्योकि मेरे शिक्षक और  प्रोफेसर  हाजरी के समय कक्षा में प्रथम (अल्फाबेटिकल मेरा ही ) उच्चारण ही दोष पूर्ण अटके सटके टाइप होते यह शिकायत बच्चो का भी रहा पर वंश प्रेम व विरासत के मोह से कोई परिवर्तन नही किये भले लोगो को तकलीफ हो । और  आजकल  तो कर्मचारी अधिकारी भी अनिल जी कहने में अधिक  अपने आप को सहज महसूस करते हैं। बजाय भतपहरी कहने में।
   कुछेक कहते है कि साहब जोड़ने पर ही उच्चारण सही होता है। मैने मन ही मन मुदित जहा - चलो सभी न ई पीढी इस बहाने साहब बन कीर्तिमान हो जाए अपने पूर्वजों के मानिंद ... हा हा हा हा ! 
  
   कथित संस्कृत और संस्कृति प्रेमी जन समरसता को  समर सता कहते है वैसे ही इस पंचाक्षरी को भतप हरी कहकर आनंदित होते है ।ये है हमारे हिन्दी प्रेम जो अब तक सध नही पाए।
  पर  सच तो यह है बंदा 1981-82   आठवीं   से लिख पढ रहा है।1989 से  अब तक सैकड़ो छप छुप चुका हैं। 8 वी  किताब  "सुकवा उवे न मंदरस झरे "   विमोचित हो गई और  मेरे ब्लाग में  " हड्डी की जीभ नही कि न फिसले "  2022  छापते अन्तर्राष्ट्रीय प्रकाशन संस्थान  वन एलिगन ने 2200 पेज को 10 पुस्तको के रुप मे  समसामयिक लेख ,कविता लघु कथा, कहानी  के रुप मे प्रकाशित करने एम ओ यु कर लिये हैं।
   तब तक पेज और बढते ही जा रहे हैं। पर डाक्टर अनिल कुमार भतपहरी था वह अब  "अनिल भट्ट " छोटे होते जा रहे हैं। यु ट्युब और सोसल मीडिया में फिलहाल यही शार्ट नाम चलेगा ।  क्योकि यह तो वाइस टाइप में  भतपहरी रीड कर  सर्च कर ही नही पाता सो मजबुरन यह करना पड़ रहा हैं। और लोग है कि अंग्रेंजी Bhatpahari लिखे a लेटर कही न कही खा जाते है या अंतिम ri के जगह re लिख डालते है ।ऐसे ढूंढते रह जाओगे ... कही मिलेगा नहीं।
    वैसे हम पहले ही लिख चुके है -
  
    अब तो कोई भट्टप्रहरी न रहा ...
     शेष कविता पढ़ने मेरे ब्लाग या किताबों की सैर तो करना ही पड़ेगा ... इतनी सहज सरल उपलब्ध नही करा सकते । हा किताबो का लिंक जरुर अमेजान फिल्पकार्ट गूगल प्ले स्टोर्स मे मिल जाएगा ।

विगत ढाई हजार वर्षो की निर्बाध यात्रा युं ही नही गुजरे ।
इस परिक्षेत्र मे प्राप्त अवशेष और बोली - भाषा में व्यवहृत शब्द जींवत साक्ष्य हैं ।कोई अन्वेषक आये और इन तमाम रहस्यों को उजागर  करते छत्तीसगढ़ की ऊंजियार को सर्वत्र फैलाएं 

     ।।जय छत्तीसगढ़ जय भारत जय भतपहरी ।।
  
       -डा अनिल भतपहरी / 9617777514

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