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शाकाहार बनाम मांसाहार
शाकाहार संत संस्कृति है और यह जीव दया पर आधारित है।
संत संस्कृति एक तरह से वीतरागी साधु संत समुदाय , बौद्धिक कार्य पर रत और शारीरिक परिश्रम से दूर वे लोग है ,जिनके लिए गरीष्ठ या आमिष आहार अपच्य ,अजीर्ण व व्याधि कारक है। इसलिए इनको धृणा मय व त्यज्य धोषित कर दिया हैं।इसमे व्यापारी,जो एक ।पुजारी और प्रवाचक वर्ग आते है जो छोटी सी जगह पर दस दस घंटे बैठे हुये वक्त बिताते है साथ ही करुणा दया आदि भाव दिखा या बताकर याचना कर अपना आजीविका चलता है।
इन सबके पोषक कृषक है और उत्पादक वर्ग है जिन्हे साहस बल और पौरुष चाहिये। जो दूर दूर तक फैलो खेतों मे गर्मी वर्षा एंव ठंड मे जी तोड़ मेहनत करते है। पसीने बहाते है। यदि वे लोग खेतो मे व्याप्त कीट- पतंगें नही मारेंगे ? चिडीया , चूहे ,चिटरे ,खरगोश ,वानर , हिरण वराह नही मारेन्गे या भगाएन्गे नही तब उनकी फसलें कैसी सुरक्षित होगी ?
और जो मरेन्गे वह उनके भोजन का काम भी आते है जिससे उसमें नीहित प्रोटिंस, मिनरल विटामिन्स अक्षय उर्जा मिलता है तभी वह श्रमश्राद्य कार्य कर सकेगा । इसी तरह खेत सुखते हैं, नाना किस्म की मछलियां जिसमें औषधीय गुण रहते है उनके भोजन के हिस्सा हैं।
वनवासी तो वनोपज और पशु -पक्षी पर ही निर्भर हैं। समुद्र किनारे का मछुवारा के लिए मछलियां धान और गेहूं की बालियां है जिसे वे श्रद्धापूर्वक अपने अराध्य में मैदान की कृषक समुदाय जैसे ही चढाते हैं। और उत्सव मनाते हैं।
शाकाहार - मांसाहार को नाहक पुण्य- पाप की श्रेणी मे विभाजित कर रखे है । जो मांस खाया एक झटके मे पापी हो गया और जो साग सब्जी खाये वह तुरंत पुण्यात्मा हो गया ! क्या गज़ब की धारणाएं बनी हुई हैं।
असल मे पाप किसी व्यक्ति की आत्मा को दुखाना झुठ बोलना या दूसरो पर अन्याय करना है ।जबकि ऐसा तो शाकाहारी भी करता है।
मांसाहारी जो अनेक देव- देवियों मे पशुबलि चढाता और मांस को प्रसाद मानकर ग्रहण करता है उसे फिर धार्मिक क्यो माना गया है ?
"वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति" क्यो कहा गया ?
और तथाकथित राक्षसों / असुरों का वध तो सारे देवी -देवता गण अस्त्र -शस्त्र लेकर करते है।उन कथाओं को भव्य मंचों पर क्यो सुनाते है ? हमारे महाकाव्य युद्ध और हिंसा पर ही रचा गया है। उसके नायक का अदम्य साहस का प्रदर्शन ही हमारे संरक्षक होने की पुष्टि करता हैं। फलस्वरुप वे हमारे अराध्य है ,हमारी श्रद्धा उनकी उसी शौर्य प्रदर्शन पर ही टीका हुआ हैं ।
हमारे ख्याल से शाकाहार- मांसाहार व्यर्थ प्रलाप है और नाहक व्यक्ति के बीच खान- पान को लेकर अभेद्य दीवार खड़ा करने की नापाक इरादे हैं। यह देश काल परिस्थित और स्वरुचि ऊपर केन्द्रित हैं।
हा स्वरुचि भोजन पर रुचि श्रृंगार जरुर होना चाहिये । यह नीति कथन है और व्यक्ति को सदाचारी व परोपकारी होना चाहिये न कि शाकाहारी या मांसाहारी ।
- डा. अनिल भतपहरी
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