Tuesday, July 21, 2020

सतनाम संस्कृति में आध्यात्म

"सतनाम संस्कृति में आध्यात्म" 


आध्यात्म का शाब्दिक अर्थ है आत्मा से संबंधित अध्ययन चिन्तन मनन ।
पर इनका वास्तविक अर्थ है अपने भीतर विद्यमान चैतन्य शक्ति को जनाना  व मन- मतिष्क की क्रिया को समझना इसके साथ  कथित  आत्मा तत्व को  भी जानने -समझे की प्रक्रिया ।
आत्मवादी दर्शन में "आत्मा"  को समझना या इनके दर्शन करना या उनमें तादात्म्य भाव स्थापित करना प्रमुख ध्येय हैं। जबकि अनात्म दर्शन में आत्मा जैसी चीज के संदर्भ में कोई चिन्तन विचार नहीं है।  
बहरहाल आध्यात्म तो दोनो दर्शन में है और यह एक तरह से व्यक्ति का  अन्तर्यात्रा भी कहे जा सकते हैं।  जिससे आत्म साक्षात्कार या दर्शन की प्राप्ति होती हैं। और फिर बहिर्जगत के साथ उनका तादाम्य स्थापित करना होता है।
आध्यात्म लगभग सभी धर्मो, मतो‌ं ,पंथो में नीहित हैं।  अनुयाई लोग अपनी सुविधा और विवेक से इसे व्यवहृत व परिभाषित करते हैं। 
पर सच तो यह भी हैं। बहुत सी विचार धाराएँ आत्मा को ही नहीं मानते और वहाँ आध्यात्म का मतलब अनात्म दर्शन है ।इसमे मुख्यतः बौद्ध दर्शन और चार्वाक या लोकायत आते हैं।
     आत्मा या प्राण या जीवन एक   सहज प्रक्रिया हैं जो चैतन्य तत्व हैं। ऊर्जा है जिसके द्वारा प्राणियों और वनस्पतियाँ के  शरीर शाखाएँ पत्रादि संचालित होते हैं। 
असल चीज शरीर है न कि आत्म तत्व इसलिये शरीर उनके उचित  व्यवहार रखरखाव संरक्षण आदि के बारे में  विचार किए जाते हैं।
  जबकि आत्म दर्शन में शरीर व्यर्थ मिट्टी का पुतला कामी भोगी है इसलिए वहा  आत्मा को सर्वोच्च मानकर आत्मा और परमात्मा अर्थात ईश्वर की परिकल्पना की गई हैं। और बड़ी- बड़ी ग्रंथ व उनके स्थल निर्मित किए गये हैं उनके रख- रखाव व संरक्षण हेतु पुरोहित  वर्ग( धर्म कर्म. कांड करने के समुदाय)  खड़े  किए गये हैं। उनके द्वारा निरंतर  प्रचार- प्रसार हेतु  प्रतिबद्ध टीम है राजा सामंत पुरोहित सेवादार सबकुछ नियुक्त है। फलस्वरुप आत्मा यानि परमात्मा के वजूद वाले धर्म दुनिया में वैभव शाली व लोकप्रिय है। जनास्था भी बहुतायत द्रष्टव्य  है भले इनसे उनको अपेक्षित लाभ मिले न मिले पर इन क्रिया कर्मो व्रत उत्सव आदि से मनरंजन और जीवन की जटिलताएं विगलित होते हैं। अनेक तरह की ललित कलाओं का संरक्षण भी इनके द्वारा हुए हैं। ईश्वरीय आराधना मन रंजन भी है संभवतः इसलिए परमात्मा को  आनंद कारक मान लिए गये हैं। फलस्वरुप लोग परमानंद प्राप्त करने नाना किस्म के उद्यम करते रहते हैं। इसमे नाच- गान लीला छप्पन भोग शोभायात्रा से लेकर जुलुश प्रदर्शन सबकूछ सम्मलित हैं। इसलिए इनका व्यापक प्रभाव परिलक्षित होते हैं।
   पर  इन सबसे परे शैन: शैन: तत्ववेत्ताओं अन्वेषको द्वारा  अनात्म दर्शन व्यक्तिक होते हुए भी प्रज्ञावानों में लोकप्रिय हैं। और इनका प्रभाव भी जन साधारण में पड़ने लगा हैं।

   आजकल  उक्त दोनो मन: स्थिति से पृथक तेजी से 
आत्मा -परमात्मा के जगह सामूहिक  सेवा, परस्पर मेल-मिलाप ,प्रेम, परोपकार आदि  से युक्त आयोजन होने लगे हैं। यह संत मत हैं या कहे प्राचीन  श्रमण  परंपरा का नव वर्जन है इनकी प्रभाव आत्म दर्शन व अनात्म दर्शन दोनों देखे जा सकते हैं। 

      छत्तीसगढ़ के  सतनामियों में अभी कोई एक चीज रेखांकित या अंगीकृत नहीं है यहा सब "समेलहा " मतलब जो जहां से जितना सुन समझ सकता हैं। उतने कर सकने की बातें होने लगी है। यानि समन्वय वादी दृष्टिकोण विकसित हुआ हैं। क्योंकि सर्वाधिक लोगों की  मान्यताएँ तो पूर्ववर्ती रहा है जैसे छत्तीसगढ़ के मूल निवासियों की संस्कृति है वही यहाँ ज्यों की त्यों हैं। बस उपासना पद्धति में आंशिक फेरबदल गुरुघासीदास के कारण हुआ और लोग पुरोहिती मंदिर मूर्ति कर्मकांड बलि प्रथा अंध विश्वास  आदि के जगह  सतनाम पंथ की नव संस्कृति को आत्मसात करने लगे हैं।
पहले -पहल तो कोई खास आयोजन होते ही नहीं थे ,केवल जीवन वृत्त और जो पारंपरिक व्रत त्योहार है वही मना लिए जाते थे।
    धीरे -धीरे अब धार्मिक आयोजन होने लगे हैं जहां  आध्यात्मिक परिचर्चा आदि यदा- कदा हो रहे हैं। 
   रामत- रावटी में सत्संग -प्रवचन की प्रथाएं थी वह केवल प्रबंधन और डाड़- बोड़ी तक सीमित रह होने लगे ।
    फलस्वरुप गुरु शब्द डरावना हो गया कही वह नाराज न हो जाय। रामत में गुरु के आने की खबर मात्र से लोग अपने रहन- सहन ,खान -पान के लिए भयभीत होने लगते! समाज को संस्कारित करने यह भी एक हद तक जरुरी था। पर विगत ४०-५० वर्षो में गुरुओं की प्रतिष्ठा क्षरित होते जा रहे हैं। यहाँ बड़े  और सामूहिक आयोजन तो हो रहे हैं। पर नाच- गाने शो बाजी और फिजुल खर्ची के सिवा जादा कुछ नहीं हैं। इसे आत्मदर्शन वाले सगुण पंथी वालों की तरह  धार्मिक आयोजन कहे जा सकते इनके द्वारा हम अपनी अस्मिता स्थापित करने मे लगे हुए है। अध्यात्मिक  यात्रा अभी आरंभ नहीं हुआ हैं न कोई प्रतिभाशाली आध्यात्मिक व्यक्ति या गुरु हैं जो लोगों की तमाम प्रश्नों शंकाओं का समाधान कर उसे भीतर या अनर्यात्रा की ओर प्रवृत्त करा सके। जरुर समाज में समाधि साधक संत मिलते हैं। यह सहजयोग के इतर हठ साधना जैसा है और उनके भी अपने विशिष्ट प्रभाव देखने मिलते हैं।
इस तरह जो जितना समझ बुझ सकते हैं वह उतने में निमग्न नजर आते हैं। संभवतः इसलिए भ्रमित सशंकित भी कि इनमें सही क्या है? भू समाधि, जल समाधि, अग्नि समाधि  आदि करतब प्राचीन ब्रजयानी साधुओ या हठयोगियों की क्रिया का ही अनुकरण है पर इन क्रियाओं का जनता पर गहराई से प्रभाव पड़ते हैं। वे यह देख हैरत सा होकर साधक के प्रति श्रद्धा वनत हो जाते हैं। पर पढे लिखे अन्वेषक व विचार वान तबका इनसे अलग चाहते है इसलिए कुछ इच्छुक लोग अन्यत्र  आव्रजन करने लगे हैं। क्योंकि यहाँ इस संदर्भ में अधिक जानकारियाँ या आयोजन का अभाव हैं।
    अभी हमारे धार्मिक व्यक्ति जो थोडी बहुत आध्यात्मिक बातें कर सकते हैं वे  ग्रामीण पृष्ठभूमि और अनेक तरह के अभाव  से ग्रस्त हैं। साथ ही उन्हे अपेक्षित सम्मान नहीं मिलते और तो और अनावश्यक वाद -विवाद व प्रलाप भी  चल पडते हैं। क्योंकि अभी ग्रामीण व कृषक समाज भूख  मिटाने और आवश्यक साधन एकत्र करने में लगे हैं। और चंद साधन सम्पन्न नौकरी पेशा शहरी तबका  भौतिक सुख की मोह से ग्रसित हैं।  
    आध्यात्म इन दोनो परिस्थितियों से अलग है और इस मार्ग का राही एकेला होते हैं। वह समूह में नहीं चल सकता समूह केवल उत्सव हैं मौज मस्ती व  मन रंजन है। 
प्रगतिशील छत्तीसगढ़ सतनामी समाज के अभ्युदय से हम लोग सतनाम साहित्य प्रकोष्ठ के माध्यम से गुरुघासीदास चरित व  सतनाम धर्म संस्कृति व्याख्यान माला आयोजित कर विगत ७ वर्षों से  पढे लिखे रचनाकारों और पांपरिक साधु संतो को आध्यात्मिक / धार्मिक  परिसंवाद करने गिरौदपुरी मेले में मंच उपलब्ध कराने की प्रयास करते रहे हैं। इनके द्वारा थोड़ी बहुत नवाचार जैसे सतनाम सहज योग और सतनाम सुमरन साधना  की नींव डाली गई हैं। गुरुवंदना में भी सतनाद व आध्यात्मिक परिसंवाद सत्संग ,भजन -कीर्तन प्रति सोमवार या रविवार कही -कही होने लगे हैं। वहाँ तस्मई  ,पान -प्रसाद आदि वितरण भी होने लगे हैं।  ताकि बाल बच्चे युवा वृद्ध  लोगों की जुडाव हो सके। आगे और भी बेहतर होन्गे ऐसी उम्मीद हैं। 
गुरुघासीदास के  सतनाम दर्शन  लोकायत बुद्ध व चर्वाक के अनात्म दर्शन से अधिक सामीप्य हैं।
      वह कल्पित ईश्वर से अधिक अपने भीतर की आत्मबल और सद्गुणों  को धारित कर परस्पर व्यवहार  करते सात्विक संयम अनुशासित जीवन को जीते हुए जीते  जी पद निर्वाण या परमपद के कारक बताए हैं। न कि पूजा पाठ कर्मकांड व्रत उत्सव तीर्थाटन आदि करने कहे हैं। वे तो दान दक्षिणा के भी प्रखर विरोधी हैं! उनकी अमृतवाणी है -
" दान के देव इया पापी दान के लेव इया पापी " 
   समाज में न कोई दाता हो न याचक बल्कि समान आर्थिक व्यवस्था सहित समान भाव से रहने की उत्तम व्यवस्था सतनाम पंथ में प्रावधान किए हैं।
परन्तु यह  आदर्श परिकल्पना चरितार्थ नहीं दिखते यही सतनाम दर्शन को प्रतिष्ठित न हो सकने का प्रमुख कारण बना हुआ है।
हमारे लोग शीध्र ही गुरु उपदेश  के  विपरीत उनके उन्ही के पूजा पाठ करने में उन्मत्त हो गये ।
और उनके द्वारा विकसित प्रणाली सहजयोग ध्यान सात्विक आहार विहार और सद्गुणों के अनुपालन  से दुर होते जा रहे हैं। यह बहुत ही विडंबना पूर्ण परिस्थिति हैं।
जबकि वह  तथाकथित परम शक्ति जिसे यहां कुछ लोग कबीर पंथ के सत्यपुरुष के अनुसार भक्ति करने की बातें कही पर वे साफ साफ कहे - 
" तोला भक्ति करेच बर हवे त तय हर बारा महिना के खरचा जोर ले तब भक्ति कर नइते झन कर ।" 

इस विचार करे तो  सामीप्य के पूर्व साम्यता शब्द  मन में आया था।पर साम्यता में समानता की बातें हैं और सामीप्य में निकटता का भाव है।
गुरुघासीदास खाओ पीओ उडाओ ऐसा चर्वाक जैसा नहीं कहे और न ही बुद्ध की तरह सारे वैभव त्याग कर भिक्षु बन भिक्षावृत्ति करे कहे हैं।
   गुरुघासीदास के दर्शन बेहद व्यवहारिक है जिसे कोई भी सहज रुप से अंगीकृत कर सकते हैं। 
इसलिए  सतनाम दर्शन अनात्मवाद के  सामीप्य कहे जा सकते है  क्योकि इन दर्शन में ईश्वर आत्मा परमात्मा जैसा गडबड झाला नहीं है। बल्कि एक मनुष्य का दूसरे मनुष्य के साथ कैसा व्यवहार किए जाय यह विशिष्ट बातें हैं । उन्होंने बहुत ही सहजता से पुरी के सागर तट पर घोषित किए -
 "मनखे ए पार के होय कि ओ पार के करिया होय के गोरिया हो मनखे -मनखे  एक बरोबर आय ।"
उपर्युक्त  बातें गुरुघासीदास बाबा को  अठ्ठारहवीं सदी में  आधुनिकतम " सतनाम  दर्शन " का सबसे बड़ा प्रवर्तक  के रुप में वैश्विक स्तर पर प्रतिष्ठित कर सकता हैं। बशर्ते इस बात को विश्व पटल पर बड़ी शिद्दत के साथ रखने का मौका मिले और प्रतिभाशाली विचारक वहां जाकर   सतनाम पंथ की विशेषताओं  को रखे।या इस संदर्भ में उत्कृष्ट लेखन आदि करें भौतिक वाद का दस्तक हो चुका था अंग्रेजों की राज्य थी और अनेक तरह के मशीनी और औद्योगिकरण की चर्चाएँ भी होने लगी थी।
गुरुघासीदास सदैव गतिमान रहे रामत -रावटी द्वारा देशाटन करते रहे। वे  अट्ठारहवीं सदी के आधुनिकतम बदलाव के  आभाष से परिचित थे। वे महान द्रष्टा है  इसलिए उनकी वाणी में उपदेश में यह सब बातें समाहित है जो शैन: शैन: अब जाकर लोगों को उनकी हर एक बात प्रासंगिक ही नहीं परम सत्य प्रतीत हो रहे हैं।
     आइए हम सब उनकी शिक्षा और उपदेशनाओं के अनुरुप जीवन शैली अपनाए और भगत (इसमे स्वयं भी सम्मलित है )कल्याण सहित जगत कल्याण की दिशा में सतनाम पंथ पर प्रयाण करें।
 
              सतनाम

-डॉ. अनिल भतपहरी / 9617777514

सी- ११ ऊंजियार- सदन अमलीडीह ,रायपुर छत्तीसगढ़

1 comment:

  1. गुरु घासीदास आधुनिक समाज के सृषटा और अध्यात्मिक उपदेश कर्ता हैं।🏳️ सतनाम

    ReplyDelete