गुरुघासीदास कबीर की तरह ईश्वर या बह्म की निर्गुण स्वरुप के गायक नहीं हैं।
बल्कि बुद्ध की तरह सत्य के अन्वेषी तत्ववेत्ता हैं।
कबीर पंथ कबीर ने नहीं चलाया बल्कि उनके शिष्य श्रुति गोपाल और धर्मदास जो वैष्णव पंथी थे ने चलया हैं। जबकि गुरुघासीदास ने सतनाम पंथ का प्रवर्तन बुद्ध की तरह धर्म चक्र प्रवर्तन की तरह कठोर तपस्या से आत्म ज्ञान अर्जित कर के किया।
बुद्ध ने सारनाथ में 5 लोगों को दीक्षा बौद्ध धम्म या ज्ञान धम्म का प्रवर्तन किया। और आजीवन धर्मोपदेश देते अपने मत का प्रचार प्रसार करते रहे।
इसी तरह गुरुघासीदास ने तेलासी में सतनाम पंथ में अनेक जातियों के सैकड़ों लोगों एकमई करते तस्मई (अइटका ) खिलाकर जातिविहिन समुदाय की स्थापना किया और निकल गये अपने महाभियान में और जगह जगह रामत रावटी लगाकर सतनामी करण करते रहे।
बावजूद सामाजिक संगठन व प्रबंधन में
सतनामियों में कबीर पंथियों का भी समागम होने कारण बहुत सी समानताएँ है ।पर यह मूलतः नहीं अपितु बाद की है।
कबीर वाणी से मिलती जुलती भजने शब्द आदि है चौका तो ज्यों का त्यों है। कबीर पंथियों सत्यनाम व सतनामियों का सतनाम और कबीर पंथियों सत्यपुरुष और सतनामियों का सतपुरुष में समानताएँ देखे जाते हैं।
और तो और गुरु गुरुगद्दी वंश गोसाई संत /महंत ,कडिहार/ चौकहार , कोठारी /भंडारी छड़ीदार / साटीदार जैसे धार्मिक पदाधिकारी भी समान्यत: एक जैसा है। चोवा चंदन तिलक कंठी जनेऊ नाम पान आदि सब में समानताएँ झलकते है।
कबीर पंथियो का निशान और सतनामियों के जैतखाम भी लगभग समान हैं। पर निशान केवल कबीर कुटी या आश्रम में होते हैं। जबकि जैतखाम चौक चौराहे या खुले मैदान कही पर भी स्थापित कर दिए जाते हैं।
ऐसे में लगता है कि कैसे कबीर पंथ के ईश्वर की निराकार या निर्गुण उपसना वाली पद्धति के प्रभाव से सतनाम पंथ को बचाया जाय।
या मूल रुप में उनकी वास्तविक स्वरुप को स्थापित किया जाय यह बड़ी चुनौती है।
हालांकि हमारे इस बात से बहुत लोग असहमत भी हो सकते हैं ।पर सच तो यह है कि सतनाम पंथ ईश्वर वादी नहीं है । जबकि कबीर पंथ ईश्वरवादी हिन्दू धर्म भक्ति का एक ज्ञान मार्ग शाखा हैं। जो सनातन संस्कृति का हिस्सा है।
सतनाम पंथ सनातन नहीं श्रमण संस्कृति या प्राचीन भारत की तत्ववादी या अनीश्वरवादी दर्शन से अधिक निकट है।
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