सतनाम संस्कृति में आध्यात्म
आध्यात्म का शाब्दिक अर्थ है आत्मा से संबंधित अध्ययन चिन्तन मनन ।
पर इनका वास्तविक अर्थ है अपने भीतर विद्यमान चैतन्य शक्ति को जनाना मन मतिष्क की क्रिया को समझना और कथित आत्मा तत्व को भी जानने -समझे की प्रक्रिया ।
इसे अन्तर्यात्रा भी कहे जा सकते हैं जिससे आत्म साक्षात्कार या दर्शन की प्राप्ति होती हैं। और फिर बहिर्जगत के साथ उनका तादाम्य स्थापित करना होता है।
आध्यात्म लगभग सभी धर्मो मतो पंथो में नीहित हैं। लोग अपने अपने सुविधा और विवेक से इसे व्यवहृत व परिभाषित करते हैं।
पर सच तो यह भी हैं। बहुत सी विचार धाराएँ आत्मा को ही नहीं मानते और वहाँ आध्यात्म का मतलब अनात्म दर्शन है ।इसमे मुख्यतः बौद्ध दर्शन और चार्वाक या लोकायत आते हैं।
आत्मा या प्राण या जीवन एक सहज प्रक्रिया हैं जो चैतन्य तत्व हैं। ऊर्जा है जिसके द्वारा प्राणियों और वनस्पतियाँ के शरीर शाखाएँ पत्रादि संचालित होते हैं।
असल चीज शरीर है न कि आत्म तत्व इसलिये शरीर उनके उचित व्यवहार रखरखाव संरक्षण आदि के बारे में विचार किए जाते हैं।
जबकि आत्म दर्शन में शरीर व्यर्थ और आत्मा को सर्वोच्च मानकर आत्मा और परमात्मा अर्थात ईश्वर की परिकल्पना की ग ई हैं। और बडी बडी ग्रंथ व उनके स्थल निर्मित किए गये हैं उनके रख रखाव व संरक्षण हेतु पुरोहित वर्ग खडे किए गये हैं। इनके प्रायोजन और अनवरत प्रचार प्रसार हेतु प्रतिबद्ध टीम है राजा सामंत पुरोहित सेवादार सबकुछ नियुक्त है फलस्वरुप आत्मा यानि परमात्मा के वजूद वाले धर्म दुनिया में वैभव शाली व लोकप्रिय है।
पर शैन शैन अनात्म दर्शन व्यक्तिक होते हुए भी प्रज्ञावानों में लोकप्रिय हैं।
आजकल उक्त दोनो मन: स्थिति से पृथक तेजी से
आत्मा -परमात्मा के जगह सामूहिक सेवा परस्पर मेल जोल प्रेम परोपकार से युक्त आयोजन होने लगे हैं। यह संत मत हैं या कहे प्राचीन श्रमण परंपरा का नव वर्जन है इनकी प्रभाव आत्म दर्शन व अनात्म दर्शन दोनो देखे जा सकते हैं।
छत्तीसगढ़ के सतनामियों में अभी कोई एक चीज रेखांकित या अंगीकृत नहीं है यहा सब समेलहा मतलब जो जहां से जितना सुन समझ सकता हैं। उतने कर सकने की बातें होने लगी है।
पहले पहल तो कोई खास आयोजन होते ही नहीं थे केवल जीवन वृत्त और जो पारंपरिक व्रत त्योहार है वही मना लिए जाते थे।
धीरे धीरे अब धार्मिक आयोजन होने लगे हैं जहां आध्यात्मिक परिचर्चा आदि यदा कदा हो रहे हैं।
रामत रावटी में सत्सञग प्रवचन की प्रथाएं थी वह केवल प्रबंधन और डाड बोड़ी तक सीमित रह गये।
गुरु शब्द डरावना हो गया कही वह नाराज न हो जाय रामत आने की खबर मात्र से लोग अपने रहन सहन खान पान के लिए भयभीत होने लगते समाज को संस्कारित करने यह भी एक हद तक जरुरी था। पर विगत ४०-५० वर्षो में गुरुओं की प्रतिष्ठा क्षरित होते जा रहे हैं। यहाँ बडे और सामूहिक आयोजन तो हो रहे हैं। पर नाच गाने शो बाजी और फिजुल खर्ची के सिवा जादा कुछ नहीं हैं। इसे धार्मिक आयोजन कहे जा सकते इनके द्वारा हम अपनी अस्मिता स्थापित करने मे लगे हुए है। अध्यात्मिक यात्रा अभी आरंभ नहीं हुआ हैं न कोई प्रतिभाशाली आध्यात्मिक व्यक्ति या गुरु हैं जो लोगों की तमाम प्रश्नों शंकाओं का समाधान कर उसे भीतर या अनर्यात्रा की ओर प्रवृत्त करा सके।
इसलिए कुछ इच्छुक लोग अन्यत्र आव्रजन करने लगे हैं। क्योंकि यहाँ इस संदर्भ में अधिक जानकारियाँ या आयोजन का अभाव हैं।
अभी हमारे धार्मिक व्यक्ति जो थोडी बहुत आध्यात्मिक बातें कर सकते हैं वे ग्रामीण पृष्ठभूमि और अनेक तरह के अभाव से ग्रस्त हैं। साथ ही उन्हे अपेक्षित सम्मान नहीं मिलते और तो और अनावश्यक वाद विवाद प्रलाप भी चल पडते हैं। क्योंकि अभी ग्रामीण व कृषक समाज भूख मिटाने और आवश्यक साधन एकत्र करने में लगे हैं। और चंद साधन सम्पन्न नौकरी पेशा शहरी तबका भौतिक सुख की मोह से ग्रसित हैं।
आध्यात्म इन दोनो परिस्थितियों से अलग है और इस मार्ग का राही एकेला होते हैं। वह समूह में नहीं चल सकता समूह केवल उत्सव हैं मौज मस्ती मन रंजन है ।
प्रगतिशील छत्तीसगढ़ सतनामी समाज के अभ्युदय से हम लोग सतनाम साहित्य प्रकोष्ठ के माध्यम से गुरुघासीदास चरित व सतनाम धर्म संस्कृति व्याख्यान माला आयोजित कर विगत ७ वर्षों से पढे लिखे रचनाकारों और पांपरिक साधु संतो को आध्यात्मिक / धार्मिक परिसंवाद करने गिरौदपुरी मेले में मंच उपलब्ध कराने की प्रयास करते रहे हैं। इनके द्वारा थोड़ी बहुत नवाचार जैसे सतनाम सहज योग और सतनाम सुमरन साधना की नींव डाली ग ई हैं। गुरुवंदना में भी सतनाद व आध्यात्मिक परिसंवाद सत्संग भजन कीर्तन प्रति सोमवार या रविवार कही कही होने लगे हैं। वहाँ तस्म ई पान प्रसाद आदि वितरण भी होने लगे हैं। इस तरह अब लोगों की जुडाव इस तरह हो रहे हैं। आगे और भी बेहतर होन्गे ऐसी उम्मीद हैं।
-डाॅ. अनिल भतपहरी
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