शीध्र प्रकाश्य सतनाम धर्म-संस्कृति
ग्रंथ से साभार
सतनाम - दर्शन
सतनाम और आत्मा यह दो अलग चीज हैं। आत्मा को यदि प्राण या जीव तत्व माने तो यह समस्त जीव -जन्तु में मिलते हैं। पर उन सबमें सतनाम नहीं ।यह हमें भली-भाँति समझने होन्गे ! अन्यथा घट -घट मं बिराजे हे सतनाम का साधारण अर्थ हम आत्मा/ प्राण/ जीव आदि समझ लेने के भूल कर बैठतें हैं।
प्राण /आत्मा /जीव का किसी भी देह रुप में आने की चार परिस्थितियाँ है-
१ ऊष्मज
२ आद्रज
३ अंडज
४ पिंडज
पृथ्वी में जो भी जीव -जन्तु है वह इन परिस्थितियों के कारण हैं। यह एक प्राकृतिक क्रिया हैंऔर अनेक तरह के संयोग से उत्पन्न होते हैं। इन सबमें पुनर्जन्म हो ऐसा संभाव्य नहीं पर पुरातन मान्यताएँ दृढतम रुप में अब भी विद्यमान हैं।
जबकि सतनाम एक विशिष्ट जीवन -दर्शन है यह बीज स्वरुप मानव मन में अवस्थित रहते हैं। उसे सद्गुरु के ज्ञान उपदेश द्वारा जागृत कर व्यवहृत किए जा सकते हैं । सतनाम में सद्गुण समाहित है ।जिनके परस्पर अनुपालन से विषमताओं में, समानताएँ लाए जा सकते हैं। नकरात्मक भावों के जगह सकरात्मक भाव भरे जा सकते हैं। विष के जगह ,अमृत का संचय कर सकते हैं। इसलिए सामान्यतः जन साधारण इसे ईश्वरीय तत्व से जोडकर देखने लगते हैं। जबकि ईश्वर की परिकल्पना भी इन्ही तत्वों के प्रदाता के रुप में किए गये हैं।
अत: उक्त दृष्टान्त या कथ्य के आधार पर सतनाम आत्मा या परमात्मा है ऐसा तो बिल्कुल नहीं कह सकते ।ऐसा कहकर ईश्वरीय सत्ता का ही प्रत्यक्ष समर्थन हैं। जिनके द्वारा सुविधाभोगियों ने मयावी संसार रचा हैं। जिसमें जगत भ्रमित है और इसी भ्रम या आवरण के कारण जगत में ऊच- नीच, भेदभाव शोषण आदि का क्रिया व्यापार फल -फूल रहे हैं। फलस्वरुप प्रज्ञावान पथ प्रदर्शकों ने आत्मवाद के स्थान पर अनात्मवाद की प्रतिष्ठा कर वास्तविक तथ्यों का निदर्शन करते रहे हैं।
ताकि जो सत्य और वास्तविक है उनकी प्रतिष्ठा हो और समाज मे समानताए स्थापित हो सद्गुणों की महत्ता कायम हो।
ऐसे ही अट्ठारहवीं सदी में गुरुघासीदास ने सतनाम दर्शन देकर समाज में युगान्तरकारी कार्य किया। उन्होंने साफ -साफ कहे - "तोर भगवान हर बहेलिया आय अउ मोर तो सबके घट मं बिराजे सतनाम हर आय।"
जन साधारण घट का अर्थ शरीर लिया और शरीर में विराजमान सतनाम को आत्मा समझ लिया ।जबकि सतनाम आत्मा नहीं बल्कि सतनाम सद्गुणों का समुच्चय है जिसे मन वचन कर्म से मानव धारित व व्यवहृत करता हैं। तभी उन्हे जीवन में सदगति या परम पद या निर्वाण मिलता हैं। यह सब मोक्ष या आवागमन या जन्म चक्र से पृथक चीज हैं , जबकि पुरातन स्थापना के चलते मोक्ष निर्वाण परमपद को एक समान समझने की भूल करते हैं।
इस तरह देखा जाय तो सतनाम अनात्म दर्शन के समकक्ष है जो वास्तविक है। उनकी ही संस्थापना करता हैं। इस परिस्थिति में यह अस्तित्ववादी दर्शन हैं।जबकि मिथकीय स्थापना वाले छद्म अस्तित्ववादी दर्शन को आत्मसात कर लिया हैं। और लोग उसे ही सच मान लिए हैं। जैसे अंधेरे में रस्सी को सर्प समझ लेना या विभिन्न जड़ कलात्मक प्रतीक मंदिर मूर्ति आकृति को वैचारिक अंधेरे फैलाकर ईश्वरीय अंश अवतार आदि धोषित कर लिया गया है। इनसे बचाकर सतनाम दर्शन सत्य का साक्षात्कार कराता हैं।
साक्षात्कार प्राप्त व्यक्ति/ साधक संतत्व वृत्ति को अर्जित कर जनमानस में प्रतिष्ठित व आपार ख्याति पाते हैं।
सतनाम
-डाॅ. अनिल भतपहरी / 9617777514
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