१९९२ में दुर्गा महाविद्यालय से हिन्दी में टाप करने के पश्चात , उत्साहित भाषा विज्ञान में एम. फिल करने प. र. शु. वि. वि.में आवेदन किया। मेहरोत्रा सर विभागाध्यक्ष थे,पर नाम निकलने के बाद विलंब से गांव में बाई पोष्ट सूचना मिलने के चलते, महज २ दिन बाद अनुनय- विनय के उपरान्त भी प्रवेश नहीं मिला।
अंततः मायुस सीढ़ी उतरते परिचित छात्र व कर्मचारी मिला! वे लोग नये खुले पर्यटन में स्नातकोत्तर पत्रोपाधि करने सलाह दिए ।तत्क्षण फार्म भरा और वही एक ही परिसर में अध्ययन करने लगा।इस बीच भाषाविज्ञान के आचार्य द्वय डाॅ. व्यासनारायण दूबे व डाॅ. चित्तरंजन कर से साहित्यिक संगोष्ठियों में मेल- मुलाकातें होते रहे । गुरुघासीदास छात्रावास में रहते १९८८-८९ से ही समाचार पत्रों- पत्रिकाओं में छपते रहें व गोष्ठियों में आना -जाना शुरु कर दिए थे ।
इस बीच इतिहास के आचार्यों के साथ -साथ भाषा विज्ञान के आचार्यों का स्नेहाशिष मिलते रहा। और फिर १९९३ में पी-एचडी के हमारे निर्देशक डॉ. देव कुमार जैन की सौजन्य से कर सर के साथ व दूबे सर की छत्तीसगढ़ी प्रेम और उनकी सक्रियता ऐसा रहा कि इन दोनो गुरुदेव के साथ प्रागढ़ सम्बन्ध स्थापित हो गये, जो अब तक कायम हैं।
१९९६ में सहा. प्राध्यापक बनकर साहित्य व भाषा के ही सेवक बन कर रह गये। इतिहास व पर्यटन यदा- कदा लेखन / सृजन में आते रहा।
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