Saturday, July 25, 2020

नाग पंचमी लोक मंत्र सिद्धी ‌पर्व

नागपंचमी लोक मंत्र सिद्धी पर्व 

         आज नाग पंचमी है  ।आज के दिन श्रमण संस्कृति में शक्ति परीक्षण, युद्धकला अभ्यास और मारन- उच्चारण से लेकर साधारण सर दर्द ,पेट दर्द से लेकर सांप- बिच्छू ,कीट -पंतग के डंक/ जहर उतारने के मंत्र पाठ करने का पर्व है। मंत्र के साथ जड़ी -बुटी के इस्तेमाल, विधि सिद्ध  -बैगा व  वैद्य- बैगा अपने  साधक शिष्यों  को मंत्र सिखलाते मंत्र लहुटवाते है/अभ्यास करवाते हैं जड़ी - बुटी के मंत्र सिद्ध काढ़ा पिलाते है। कुश्ती आदि  लडाते  हैं।इस तरह स्वास्थ्य संरक्षण की परंपरा का निर्वाह किए जाते हैं।
    नाग पंचमी तिथि कम पांच नाग राजाओं की समवेत आराधना है पांच नाग राजाओं की संस्कृति भारत की सबसे प्राचीन संस्कृति है। इनके छत्र- छाया में हमारे महादेश भारतवर्ष / जम्बूद्वीप  ऐश्वर्य वान रहे हैं। ये पांच नाग राजा है-
   तक्षक कारकेटा वासुकि क्रंदु और शेष   
जिनके ऊपर विजय श्री का आर्यन मिथकीय साहित्य रचे गये और इनके अनुयायियों को दास  शुद्र धोषित कर दिए गये। द्रविड़ (राक्षस ) आर्य( देव )और नाग (श्रमण ) की उद्यम या संधर्ष ही समुद्र मंथन हैं। और इन सबके युति से भारतीय संस्कृति में  नव  पौराणिक अध्याय का शुभारंभ होते हैं ।
      परन्तु वर्तमान वैज्ञानिक युग में इनकी ‌महत्ता या उपयोगिता हो, न हो ,या व्यर्थ या अंधविश्वास हो ! पर जनमानस में इन सब के ऊपर गहरी आस्था रहा हैं। अब भी है, इस आधार पर मानव समाज सदियों से तमाम अभाव ‌के बीच  साधनहीन अवस्था में जीते आ रहे हैं। यह सब जानना- समझना  महत्वपूर्ण हैं। 
        इन्हे कोरी अंधविश्वास है कह कर इनके माध्यम से जो क्रमिक विकास के दो पग भरे है उनकी अनदेखी नहीं करना चाहिए। यह पर्व किसी जातिय या धार्मिक  पर्व नहीं अपितु बैगा - वैद्य  और साधक- शिष्य के द्वारा मनाए जाने वाले विरेचन पर्व है । जो कि कोई भी धर्म मत संप्रदाय के हो सकते हैं। 
      बचपन में हमें  अपने  गांव  जुनवानी  और बुंदेली में नाग पंचमी को बडे- बुजुर्गों व  दादा- बाबा से साधारण  मंत्र श्रवण करने  का अवसर मिला हैं। स्कूल में कुश्ती और कब्बडी खेलते थे । एक  सहपाठी तो सिद्ध साधक हो गये और वे बुंदेली परिक्षेत्र  में तंत्र साधना में प्रसिद्ध  हैं।

 ( दू - चार मंतर अउ पांजीनाम मंत्र  महु ल आथे 
फेर मय पाठ- पीढा नइ ले हव ।
  तेकर सेती प्रयोग न इ करव  पहली मरनी हरनी म पांजी नाम देत भी रहेव फेर मोला सियान मन बरज दिन कि बाबु बिन पाठ पीढा लेय झन देकर तोला दोख लगही अउ मृतक ल पुन न इ मिलय ते दिन ल बंद कर दें रहेव। मोला सिद्ध गुरु न इ मिलिस त पाछु साल सद्गुरु घासीदास साहेब अउ महात्मा बुद्ध  ल सेत गुरु मान के उकर फोटो प्रतीमा के समक्ष एकलव्य सरीख नाम पान दीक्षा ले लेयेव अउ नेवताय के बाद केवल पांजीनाम मंत्र देय ल घर लेंव । भले ये काही रहय फेर अंत्येष्टि के एक नेंग आय जोन ल श्रद्धा पूर्वक करथव )
मंत्र  लोक छंद कविता है  इससे जनजीवन को गहराई से समझे जा सकते है। समकालीन भाषाई ज्ञान की भी  जानकारी होते है। साहित्य की  अध्येता होने के कारण अपने  विद्यार्थियों को  " भाषा  की  उद्भव विकास " चेप्टर में इन सब बातों को समझाते भी हैं। इस तरह‌ लोक   भाषा को  संस्कृत आदि से प्राचीनतम सिद्ध करते भी हैं। और तथाकथित देव भाषा और देवलोक से आगत की मिथक से अवगत कराते हैं।  कई सभा संगोष्ठी में ‌ प्रसंगानुकूल बातें छिड़ती है तो लोग ध्यान से श्रवण करते हैं।
      ‌‌ हमारी ढ़तापूर्वक धारणा है कि निरंतर अभ्यास चिन्तन मनन से हर क्षेत्र में अनगढ़ता से ही सुगढ़ता आए हैं।जन भाषा ही परिष्कृत होकर संस्कृत बना है ।इसलिए वह जनभाषा से प्राचीन  नहीं हैं। संस्कृत आदि की पौराणिक व शास्त्रीय कथाएँ भी हमारी लोक कथाओं से प्राचीन नहीं है।
     जब राज- रजवाडा नहीं थे तब से लोक कथाएँ लोक गीत  लोक मंत्र हैं।धीरे- धीरे राज ,रजवाडे आए उन्होंने  ऋषियों, रचयिताओं को‌ आश्रय देकर अपनी शौर्य -पराक्रम व मान्यताओं के अनुरुप शास्त्र रचवाए ,इस तरह वेद , त्रिपिटक ,उपनिषद, पुराण, रामायण -महाभारत आदि ग्रंथों  का प्रणयन हुआ। 
इन सबसे प्राचीन लोक गीत, मंत्र व कथाएँ है बल्कि युं कहे आदिम मानव जब बोलना सीखे ,भाषा उद्गारित कर शब्द व उनके  अर्थ / आशय समझना शुरु किए तब से यह अस्फुस्ट ध्वनि  मंत्र सम लोक मे परिव्याप्त है जो अत्यंत प्राचीन है।
                 आज नाग पंचमी में लोक मंत्र के बहाने भाषाई और शास्त्रीय विकास उनसे   सृजन व प्रतिष्ठान  आदि को संक्षिप्त में आकलन करना चाहिए। कि कैसे अनगढताएं क्रमशः धीरे -धीरे  विकास क्रम में  सुगढ़ताएं की ओर प्रतिष्ठित होते हैं।  इन सूत्रों तथ्यों को समझना चाहिए। ताकि जो पहेलियां या  रहस्य है उन्हे भंलिभांति समझ सकें। 
                         सतनाम 
                     जय छत्तीसगढ़   

      -डाॅ. अनिल भतपहरी  / 9617777514

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