संत गुरु घासीदास जी का सामाजिक सुधार एवं सामाजिक समरसता
डॉ. जे.आर. सोनी, पूर्व अध्यक्ष, गुरु घासीदास शोध पीठ, रविशंकर विश्वविद्यालय, रायपुर (छ.ग.)
गुरु घासीदास जी के पूर्वज उत्तरी भारत में हरियाणा के नारनौल के निवासी थे। वे सतनाम संप्रदाय से संबंधित थे। सन् 1672 में मुगल बादशाह औरंगजेब से युद्ध के बाद नारनौल के सतनामी यहां से पलायन कर गए। इनमें से कुछ उत्तर प्रदेश में जा बसे और कुछ उड़ीसा के कालाहांडी जिले में जाकर नौकरी-चाकरी कर या अन्य व्यवसाय कर अपना पेट पालने लगे। कुछ परिवार महानदी के किनारे-किनारे होते हुए मध्य प्रदेश में चंद्रपुर जमींदारी के क्षेत्र में जा पहुंचे। यह वह समय था जबकि बादशाह औरंगजेब ने यह फरमान जारी कर दिया था कि जो भी राजा, नवाब, जमींदार या सूबेदार इन सतनामियों को शरण देगा, उसे कठोर दंड दिया जाएगा और यह मुगल सल्तनत के खिलाफ बगावत मानी जाएगी। कु छ राजाओं, नवाबों, जमींदारों और सूबेदारों ने मुगल बादशाह के खौफ से इन सतनामियों को अपने इलाके से भगा दिया, कुछ ने इन्हें पकड़कर बादशाह को सौंप दिया और कु छ राजाओं ने इन्हें शरण तो नहीं दी, लेकिन राज्य से होकर दूर किसी राज्य में चले जाने की छूट ज़रूर दे दी। चंद्रपुर पहुंचे ये सतनामी यहां से महराजी नवापारा होते हुए सोनाखान के इलाके के जंगलों में जा पहुंचे। सतनामी बहुत ही बहादुर, स्वाभिमानी और परिश्रमी थे। इनको दूसरों की दया पर जिंदा रहना और उनके दिए टुकड़ों पर पड़े रहना मंजूर नहीं था। इन्होंने यह सोचकर कि जिन्दा रहेंगे जो संगठित होकर फिर अपनी अस्मिता कि रक्षा के लिए संघर्ष करेंगे। यहां के जंगलों को काट कर रहने योग्य बनाया। यहां की उबड़-खाबड़ पथरीली जमीन को खेती योग्य बनाया और खेती कर अपना भरण-पोषण करने लगे। इन्हीं सतनामियों में मेदिनीदास गोसाई का परिवार भी था, जिसमें आगे चलकर पौत्र के रूप में गुरु घासीदास ने जन्म लिया, जिन्होंने मनुष्य को सर्व शक्तिमान के रूप में माना।
गुरु घासीदास जाति-व्यवस्था को घृणित मानव कर्म व समाज के लिए सबसे बड़ा कोढ़ मानते थे। उनका मानना था कि यह जाति व्यवस्था ही है जिसके कारण देशवासियों को सैकड़ों सालों तक गुलामी का जुआ अपने कंधों पर ढोना पड़ा। जब तक जाति व्यवस्था रूपी कोढ़ का खात्मा नहीं होगा, जाति भेद-भाव खत्म नहीं होगा, तब तक देश में राष्ट्रीय एकता का सूरज उदय नहीं होगा। यह तभी संभव हो सकता है, जब देश में जाति-विहीन समाज की स्थापना हो। वह कहते थे कि इसी जात-पांत ने देश में समाज को कभी एक नहीं होने दिया। इसके कारण ही अछूत समाज कभी सम्मान की जिंदगी नहीं जी सका। उन्होंने समकालीन सामाजिक परिस्थितियों के आंकलन से निष्कर्ष निकाला कि जब तक यह बहुसंख्यक जातियां बिखरी रहेंगी, उनका इसी तरह शोषण-उत्पीडऩ होता रहेगा और सम्मान की जिंदगी जीने की योग्यता हासिल नहीं कर सकेंगी। वे यह जानते थे कि किस तरह मानव समाज का एक टुकड़ा अपने स्वार्थ के लिए पूरे समाज को भेड़-बकरियों की तरह हाँक रहा है और उन्हें आपस में लड़ाता रहता है। इसी जातिवाद की वजह से देश को सैकड़ों सालों तक विदेशियों और गुलामों का भी गुलाम रहने को विवश होना पड़ा। विसंगतियों से छुटकारा दिलाने उनमें स्वाभिमान पैदा करने व एकता स्थापित करने हेतु ही जाति-विहीन समाज की संरचना करने के लिए सतनामी धर्म की स्थापना की। असलियत में गुरु घासीदास ने जातिवाद के विरुद्ध समतावादी जातिविहीन समाज की स्थापना हेतु सुधार आंदोलन की जो नींव डाली, आगे चलकर महामना ज्योतिबा फुले, पेरियार, ई.वी. रामास्वामी, नायकर और बाबा साहेब डॅा.बी.आर.अंबेडकर ने उस मार्ग पर चलकर उनके सपने को कार्यरूप में परिणत करने की महत्वपूर्ण और युगांतरकारी कार्य करने में सफलता पाई।
असलियत में गुरु घासीदास व्यापक स्तर पर धार्मिक और सामाजिक पुनर्जागरण आंदोलन के प्रणेता थे। उनका प्रथम लक्ष्य था कि वह उस विसंगति को सबसे पहले जड़ से खत्म कर दें, जिसने छत्तीसगढ़ के आध्यात्मिक वैभव को पूरी तरह डस लिया था या विलुप्त कर दिया था। वह अक्सर लोगों से कहते कि तुम लोगों का तब तक विकास नही हो सकता, जब तक कि तुम्हें सामाजिक और आध्यात्मिक पतन से मुक्ति नहीं मिल जाती। इस हेतु उन्होंने आध्यात्मिक प्रकाश के स्रोत का सहेज कर बहुजन में आध्यात्मिक जागरण की आग पैदा की। नतीजतन उन्हें लक्ष्य में अपार सफलता मिली। उनका अटूट विश्वास था कि व्यक्ति जब भी भूखा पेट रहता है, उस स्थिति में वह धर्म की समस्याओं और उसके निदान के विषय में कभी नहीं सोच-समझ पाएगा। इसलिए सबसे पहली आवश्यकता है कि जीवन की प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति की जाए। क्षेत्र के भूमिहीनों ने घासीदास के प्रयास से खोई जमीनों को प्राप्त किया। परिणामस्वरूप वह आर्थिक रूप से संपन्न होते चले गए। बेगार प्रथा के पुरजोर विरोध का नतीजा यह हुआ कि इलाके सामंत तक भूमिहीनों, शूद्रों से बेगार करवाने से घबराने लगे और जो सैकड़ों सालों से सामंतों, जमींदारों गौटियाओं के बंधक थे, गुलाम थे, जो उन्हें न तो पूरी मजदूरी ही देते थे और उस दशा में उन्हें रोटी के लिए दर-दर भटकना पड़ता था तथा वे सड़ा-गला खाने को विवश थे, गुलामी से मुक्त हो सके। उन्होंने कुएं-तालाब खुदवाए जिससे गरीब, असहाय, हीन तबके लोग गंदे कीटाणुयुक्त पानी की जगह साफ पी सकें। घासीदास के कार्यों, उनकी साधुता, उनकी करूणामयी वाणी का यह परिणाम हुआ कि वह जहां भी जाते, अपने समाज के अतिरिक्त सभी वर्गो में जनता हो या राजा दोनों की ओर से अपार सम्मान मिला और बहुजन ने उन्हें सिर आंखों पर बिठाया। गुरु घासीदास का छत्तीसगढ़ अंचल में उस काल में प्रादुर्भाव हुआ जबकि समूचे क्षेत्र में सामाजिक-धार्मिक संरचना चरमरा गई थी, समाज में आंतरिक कलह पूरी तरह व्याप्त थी और अनाचार का सम्राज्य था। उस काल में घासीदास ने समाज में फैली कुप्रथाओं, रूढिय़ों, कुरीतियों को सबसे पहले समझा, उनका पुरजोर विरोध किया और जनता को इनसे निपटने का सशक्त मार्ग सुझाया। असलियत में वह इस अंचल में धार्मिक-सामाजिक आंदोलन के जनक थे। उन्होंने समर्पित लक्ष्य के जरिए क्षेत्र की जनता को सामाजिक-आध्यात्मिक पतन से मुक्ति दिलाई। समाज में किसी के बीमार होने, मृत्यु होने या फसल खराब होने को जादू-टोने का असर माना जाता था। टोने-टोटके और अंधविश्वास के जरिए बाबा और तांत्रिक आम जनता को लूट रहे थे। उन्होंने अपने उपदेशों के माध्यम से जनता को आगाह किया कि जादू-टोना, तांत्रिक क्रियाएं, देवी-देवता तुम्हारी किस्मत को बदल नहीं सकते। यदि ऐसा हो सकता तो तंत्र-मंत्र से किसी को भी मारा जा सकता, और न राजा सेनाएं रखते और हम सभी इस गरीबी के दुष्चक्र से निकलकर यश-वैभव की अपार संपदाओं से संपन्न होकर खुशहाल जीवन व्यतीत करते। अंधविश्वास की बेडिय़ों में जकड़े समाज को भय कर्मकाण्ड, मंत्रों और ताबीजों के जरिए शारीरिक बीमारियों को दूर करने की बैगाओं की साजिश से मुक्ति दिलाने के घासीदास के प्रयासों के परिणाम यह हुआ कि छत्तीसगढ़ अंचल को दलित-शोषित और अछूत लोगों ने आंतरिक शुद्धता के बल पर नैतिक नियमों का पालन करना सीखा और संपन्नता का जीवन जीने लगे। असलियत में घासीदास आत्मा, विचार और क्रिया से पूर्ण रूपेण विशुद्ध भारतीय थे और उनका समाज सुधार का आंदोलन उपदेश वहां की जनता के उद्धार का हथियार बन गए थे, यही वजह है कि वहां की जनता उन्हें अपना मसीहा, भगवान और उद्धारक मानती थी।
गुरु घासीदास ऐसे संत थे जिन्होंने तत्कालीन छत्तीसगढ़ी समाज में प्रचलित मान्यताओं, परंपराओं, धार्मिक क्रियाओं, आत्मा-परमात्मा के साक्ष्यों को अपने धर्मसूत्रों पर जांचा-परखा और यह निष्कर्ष निकाला कि ईश्वरवाद, आत्मा और पुनर्जन्म कोरी कल्पना है, बकवास है। वह कहते थे कि ब्रम्हा सृष्टि के जनक नहीं है, यदि ब्रम्हा थे तो उनके माता-पिता भी अवश्यक होंगे, उनको भी किसी मां ने जन्म दिया होगा और उसकी भी कभी ना कभी मृत्यु तो अवश्य ही हुई होगी। यह शाश्वत सत्य है कि जिसने जन्म लिया है, वह एक दिन अवश्य मृत्यु को प्राप्त होगा। मानव मृतक शरीर जीव पुनर्जन्म ही लेते है। इसलिए आत्मा की कल्पना करना ही बेमानी है, धोखा है। उन्होने नीम की निबौली का उदाहरण देते हुए कहा कि नीम का मूल बीज पांच तत्वों से निर्मित होता है। इसी से वृक्ष का जन्म और वृक्ष में फल यानी निबौली उपजती है। निबौली बोने पर वह फिर से पेड़ बन सकता है। किंतु प्रथम पेड़ के सूखने पर क्या वह फिर से पेड़ बन सकता है? वह क्या फिर फल देगा?
यदि वह पेड़ सूखने पर फिर फल नहीं देगा, उसी तरह पुनर्जन्म की कल्पना मिथ्या है। गुरु घासीदास जी ने कहा कि जो भी प्राणी आत्मा, ईश्वर, भाग्य-भगवान, पुनर्जन्म और ब्राम्हणों को दान-दक्षिणा देने से अपने पापों की मुक्ति और स्वर्ग में जाने की इच्छा रखता है, वह अपने लिए दुखों का ताना-बाना बुनता है। करागार रूपी संसार में उपरोक्त में अटूट विश्वास रखना अंधविश्वास के अलावा कुछ नहीं है। ऐसे व्यक्ति के लिए तो सारा संसार अंधकारयुक्त है, सारहीन है, व्यर्थ है। क्योंकि ऐसा व्यक्ति आंख होते हुए भी ज्ञान रूपी प्रकाश को देखने से वंचित रह जाता है। इसलिए पुनर्जन्म की अवधारणा ढोंगी, पांखडियों तथा धर्म के ठेकेदारों द्वारा जो जनता को धोखे में रखकर उल्लू सीधा करना चाहता है, एक सोची-समझी भयंकर साजिश का ही हिस्सा मात्र है। गुरु घासीदास जी मानवतावाद के प्रर्वतक थे। उनके समाजिक समरसता के भाव ने छत्तीसगढ़ में जनजागृति उत्पन्न की। वस्तुत: उन्होंने राजा राममोहन राय से पहले ही छत्तीसगढ़ में समाज सुधार का कार्य आरंभ किया था। उन्होंने गरीबों की सेवा को मानव धर्म का अंग बताया है। सत्य, आहिंसा और मानवता गुरु घासीदास जी का मूल मंत्र था जिसने समाज को प्रभावित किया। कालांतर में महात्मा गांधी ने इसे अपना एक प्रबल अहिंसात्मक प्रयोगास्त्र बनाया। स्वतंत्रता आंदोलन के महान राष्ट्रीय कार्य में सतनामियों के धर्म गुरु घासीदास जी का उल्लेखनीय योग रहा। उन्होंने छत्तीसगढ़ के दलित समाज में स्वाधीनता और स्वावलंबन की भावना जागृत की। जिस समय गुरु घासीदास जी अवतीर्ण हुए उस समय छत्तीसगढ़ समाज विकृत दशा मेें था तथा पतन के कगार पर खड़ा था।
गुरु घासीदास ने सदियों से शोषित, पीडि़त दबे-थके-कुचले बहुजन समाज और अपने अनुयायियों के लिए जीवन में शिक्षा पर अत्यधिक बल दिया। कहते थे की सदा मुझे और मेरे पिता महंगूदास जी को भी जीवन भर इस बात का अफसोस रहा कि मैं पढ़ नहीं सका और इसमें भी दो राय नहीं हैं कि हमारे पिछड़ेपन का प्रमुख कारण शिक्षा से हम लोगों का दूर रहना है। चूंकि हमारा समाज शिक्षित नहीं है, हमें सदियों से मनुवादियों की सोची-समझी साजिश के तहत शिक्षा से दूर रखा गया है, इसलिए हमें कहीं भी न्याय नहीं मिल पाता है, क्योंकि सभी उच्चपदों पर उच्चवर्णीय लोग कुंडली मारे बैठे हैं। चूंकि बहुजन समाज शिक्षित नहीं है, इसलिए अधिकार से वंचित है, उसके साथ न्याय के नाम पर अत्याचार उत्पीडऩ और भेदभाव किया जाता है। सभी जगह अशिक्षित होने का बहुजन समाज को खामियाजा भुगतना पड़ता है। विडंबना यह है कि इसे हमारा समाज अपनी नियति मानकर चुपचाप बैठ जाता है। न्याय पाना केवल और केवल उच्चवर्णीय लोगों की बपौती नहीं है। सदियों से जोर-जुल्म, उत्पीडऩ और शोषण को भाग्यवाद का परिणाम मान कर चुके बहुजन समाज का तब तक उद्धार नहीं होगा, जब तक कि उसमें शिक्षा के प्रति जागृति नहीं जाएगी। शिक्षा पाना हमारा पहला कर्तव्य है, तभी अन्याय का प्रतिकार करने मेें और समाज में बराबरी का स्थान पाने में हम समर्थ हो सकेंगे। इसलिए गुरु घासीदास जी ने बार-बार कहा कि पढ़ो-लिखो, एकजुट होओ। जब तक तुम ऐसा नहीं करोगे, खुद को भाग्य के भरोसे नहीं छोड़कर, कर्म कर आर्थिक रूप से मजबूत नहीं बनोगे, तब तक भूख, गरीबी, तंगहाली बदहाली और शोषण की जिंदगी से उबर पाना तुम्हारे लिए संभव नही है। असलियत में गुरु घासीदास ने ध्येय से भटके और गुलामी के अंधकार में जी रहे बहुजन समाज को जागृत करने व उन्हें जीने की सही राह बताने का महत्वपूर्ण व ऐतिहासिक कार्य किया। इस सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता।
गुरु घासीदास मानवतावाद के सच्चे उपासक थे। उन्होंने मानव-मानव के बीच भेद को भलीभांति समझा और इसीलिए उन्होंने समतामूलक समाज की स्थापना पर बल दिया। उन्होंने सैकड़ों-हजारों जातियों में जकड़े दलितों, अस्पृश्यों के शोषण को, उनके जातीय समाज को बहुत करीब से देखा था। इससे उनका हृदय दहल जाता था, बार-बार कांप उठता था। यही प्रमुख कारण रहा कि उन्होंने जाति-व्यवस्था को तोडऩेे का और समतामूलक समाज के निर्माण का सपना देखा, जिसमें न कोई ऊंचा हो और न कोई नीचा, न कोई छोटा हो, न कोई बड़ा, न कोई गरीब हो न अमीर। उसमें कोई और किसी किस्म का भेद न हो। वह कहते थे मनुवादी व्यवस्था ने सदियों से छुआछूत, शोषण और दमन को बढ़ावा ही दिया है और यह सिलसिला आज भी थमा नहीं है, बराबर जारी है। उन्होंने बहुजन समाज को सचेत किया कि ब्राह्मणवादी धार्मिक मत-मतांतर, भाग्यवादी, भोगवादी विचार और सगुण साकार ईश्वर को मानने वाली मान्यताएं-धारणाएं व्यक्ति को नाकारा और कमजोर बनाती हैं। यही नहीं वह स्वयं को उच्च व दूसरे को निम्न बनाए रखने की साजिश रचती रहती है। उन्होंने समाज को उन सभी बुराइयों से दूर रहने को कहा, जो मनुष्य और बहुजन समाज को पशुता की श्रेणी में पहुंचा देते हैं। उन्होंने जिस तरह भगवान तथागत गौतम बुद्ध ने 'संघम् शरणम् गच्छामिÓ का उपदेश दिया था, उसी तरह एक सतनाम, एक जयस्तंभ तथा एक सफेद ध्वज के नीचे सभी लोगों को आने का आह्वान किया ताकि सभी समान रहें। इसलिए उन्होंने 'सतनाम उपासकों का संघÓ भी बनाया। यह घासीदास जी के मानवतावादी दृष्टिकोण, जिसके तहत मानवतावादी समतामूलक जातिविहीन समाज के निर्माण का सपना था, का परिचायक है। वह आजीवन समानता के लिए प्रयासरत रहे, जो उनके जीवन की विशेषता और विशिष्टता का जीवंत उदाहरण है। उनके लिए मानव समाज का भला सर्वोपरि था।
गुरु घासीदास अनेक ब्राह्मणों का सम्मान करते थे, किंतु ब्राह्मणवाद के वे कट्टर विरोधी थे। उनका सदियों से शोषित, पीडि़त, वंचित, प्रताडि़त, दबी-थकी-कुचली जनता से कहना था कि जब तक तुम देवी-देवताओं की पूजा करते रहोगे, तब तक इस देश में ब्राह्मण टिका रहेगा। ब्राह्मणवाद का सबसे दुखदायी व खतरनाक पहलू उसका वर्ण व जाति विभेदक स्वरूप है। ब्राह्मणवाद में मानव और मानवता का स्थान सबसे निचले दर्जे पर है। दलितों की आज जो सामाजिक स्थिति है, वह प्राचीन काल से चली आ रही मनुवादियों की षड्यंत्रकारी नीतियों का ही नतीजा है, जिसका दुष्परिणाम आज समूचा बहुजन समाज भोग रहा है। तथाकथित ब्राह्मणी साजिश के चलते उच्च वर्ग में छुआछूत, जाति-पाति और अहंकार विद्यमान है। वह कहते थे कि ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने प्राकृतिक न्याय व प्राकृतिक अधिकारों से बहुजन समाज को वंचित रखने का सुनियोजित प्रयास किया। इस उद्देश्य में ब्राह्मणवादी व्यवस्था काफी हद तक सफल रही और उसने समूचे बहुजन समाज को अपना दास बनाने में कामयाबी पाई। उन्होंने इस साजिश को बेनकाब करने का बहुत प्रयास किया और जनता का आह्वान किया कि जब तक इस साजिश का मिल कर मुकाबला नहीं किया जाता, तब तक तुम्हारा गुलामी से निजात पाना असंभव है। उन्होंने जाति-व्यवस्था को तोडऩे का आह्वान किया और मानव जाति को सर्वोपरि महत्व दिया। उन्होंने ब्राह्मणवादियों के पाखंड से बहुजन समाज को जागृत करने के लिए अपने जीवन में कई बार मीलों लंबी, दूर-दराज के नगरों-कस्बों की यात्राएं भी की और इनसे सचेत रह कर अपना भला-बुरा सोचने व इसके खिलाफ एकजुट होने का आह्वान किया। गुरु घासीदास के उपदेशों व उनकी इस वैचारिक क्रांति के कारण ब्राह्मणवादियों की सदियों से स्थापित, अपने स्वार्थों हेतु बनाई व्यवस्था की नींव हिलती नजर आई और वे इससे बौखला कर उनके प्रयासों को नेस्तनाबूद करने में जुट गए।
1. सुधारवादी आंदोलन को कुचलने की साजिश 2. एक कुशल कृषक गुरु घासीदास
3. गुरु घासीदास के विवाह की चिंता 4. सत्य की खोज में जगन्नाथपुरी की यात्रा
5. गुरु घासीदास का संकल्प 6. एकांतवास के समय छत्तीसगढ़ी समाज की दशा
7. तपस्या की समाप्ति और गुरु घासीदास का अवतरण 8. सतनाम का दैवी संदेश
9. गुरु घासीदास पर बिंझवार जनजाति समाज का प्रभाव 10. गुरु घासीदास का प्रभाव और सतनामीकरण
11. तेलासी में विशाल मतांतरण समारोह 12. जैतखाम की सीमा पर बल
13. धर्म प्रचार यात्राएं 14. भंडारपुरी में 'सतनाम धामÓ की स्थापना
15. भंडारपुरी की गुरु-परंपरा 16. बहुजन समाज के स्व-सम्मान के लिए संघर्ष
17. गुरु घासीदास की रतनपुर यात्रा 18. अहंकार दान करने की राजा से अपील
19. नारी जाति के महान उद्धारक 20. विधवा विवाह के पक्षधर
21. कोढिय़ों के मुक्तिदाता 22. मूर्ति पूजा व मंदिर प्रवेश के प्रबल विरोधी
23. सूर्योपासना व दान-पुण्य का संदेश 24. पशु प्रेमी गुरु घासीदास
No comments:
Post a Comment