"वन और वन्यप्राणी के विनाश का कारक सगौन रोपण "
सगौन वृक्षों में सोना हैं और मानव सोना के लिए कुछ भी कर सकता हैं। हालांकि सोना की अधिकाई से ही लोग बौराते आ रहे हैं। पर सोना के लिए दिवानगी को विकास का पैमाना मान लिए गये हैं। जिनके पास यह अधिक वही सफल। स्वर्ण भंडारण से व्यक्ति समाज और देश समृद्ध व विकसित समझे जाते है।वर्तमान में वन और वन्यप्राणीयों की विलुप्ति का कारक यही सोना रुपी सगौन हैं। जिनके अंधाधुंध रोपण के कारण विभिन्न प्रजातियों के स्थानीय पेड़ -पौधों का बलिदान दिया गया।
सागवान या सगौन के रोपण कार्य अंग्रेज काल में हो गये थे ।प्राकृतिक रुप से ऊपजे स्थानीय पेड़- पौधो को इनके लिए शहादत देने पड़े तब जाकर यह यत्नपूर्वक उगाए गये।आज भी छोटे जंगल उजाडे जाते हैं। और उनके बाद इसे रोपे जाते हैं ।इनके नीचे घांस तक नहीं ऊगते फलस्वरूप घांस चरने वाले शाकाहारी जानवर को भोजन नहीं मिले और वे सघन वन की ओर या आबादी की ओर प्रस्थान किए फलस्वरूप हिंसक पशु और मानव के शिकार हो गये। सगौन लग जाने से तेंदू चार महुए का कोआ वानर के भोजन थे विलुप्त हो गये वानर वन छोड़ कर गांव कस्बा शहर में डेरे डाल लिए और बाडी खेत को उजाड़ने लगे।वनारों की आतंक से कृषक दलहन तिलहन व सब्जियां उगाना बंद कर दिए।
फलदार पौधे एंव वृक्ष के उजड़ने से वानर आदि और घांस भूमि पर सगौन रोपण से हिरन मृग खरगोश नील गाय सांभर आदि आबादी छेत्र में आने से अवैध शिकार हो गये। वन में शाकाहारी पशुओं की कमी से शेर -चीते बाध भालू आदि मांसाहारी जीव भुखे मरने लगे।कुल मिलाकर एक सगौन पुरा "वन्य जीवन चक्र "को बर्बाद कर दिया बावजूद यह आम जनता के खरीद व पहुँच से कोसों दूर हैं।
वन्य प्राणियों से मूक्त वन्य प्रांतर भूमाफियाओं के अधीन हो गये।आयातित पर प्रांतिक मालगुजारों मंडल गौटियायों जैसे भू माफिया के अधीन मानव प्रजाति व वन्य भूमि होते चले गये। जिनकी लाठी उनकी भैंस सदृश भू कब्जा होते गये ।फलस्वरुप कुछ चालक व ताकतवर लोग बड़े रक्बा धारी भूस्वामी बनते गये।सजह सरल लोग आज भी कम में गुजारा करते वनोपज पर आश्रित हैं। आज वही गरीब हैं और आवश्यक चीजों से वंचित भी।
वन के असल संरक्षक शेर बाघ भालू वनभैसों की विलुप्ति से वनों में मनुष्यों का भय मुक्त आम दरफ्त हो गये अंधाधुंध कटाई से सघन वन परिक्षेत्र सिमटते गये । उत्खनन और औद्योगीकरण के नाम पर भी जैव विविधता से युक्त जंगल उजाड़ दिए गये।शहर कस्बा बसाए और क्रांक्रिट जंगल उगने लगे। सर्प पक्षी व अनेक तरह जीव जन्तु धीरे धीरे विलुप्त हो रहे हैं। और मानव आबादी अनवरत बढ़ते जा रहे हैं।
सघन वन में स्वच्छंद विचरण करने वाले हाथी मैदानी गांव कस्बो में विचरण करने लगे हैं। इस तरह वर्तमान स्थिति भयावह होते जा रहे हैं ।वन घटने से वर्षा थमने लगी हमारी सदानीरा नदियां व जलस्त्रोत सुखने लगी ।जलस्तर नीचे चले गये। जीवन के आवश्यक घटक जल आज इस महादेश में बिकने लगे जहां प्यासे को पानी निशुल्क देना पुण्य का काम था ।आज श्रेष्ठ व्यवसाय बन चुके हैं।
इन्हें देख किशोर वय में लिखी हमारी यह कविता की प्रासंगिकता आज प्रबलतम रुप से जेहन में कौंधने लगे -
ऐसा लगता हैं कि २१ सदी में
हम फिर भिल्ल होन्गे !
आधुनिकता से चमक दमक रहे शहर
ईंट क्रांक्रिट का कट कट जंगल होन्गे!
तेजी से पतन की ओर बढते मानव समुदाय जिसे वह विकास कह रहे हैं। उनके समक्ष जीवन मूल्यों और सांस्कृतिक अवयवों की कमियां होगी। फलस्वरूप संसाधनों से लैश व्यक्ति आनंद व सुख से वंचित रहेन्गे को पुनश्च अपनी जड़ो की ओर लौटने होन्गे। उपलब्धियों की आसमान में उड़ते थक हार कर जमीन में आने ही होन्गे ।इनके लिए बेहतर उपाय हमें करने पड़ेन्गे क्योकि -
उड़त घुमत आगास ले भुंइय्या मं आयेच ल परथे।
दु:ख पीरा जनाथे त दाई ददा ल सोरियाच ल परथे।।
जो ऐसा नहीं करेगा वह कटी पतंग की तरह हैं। जिनकी कोई ठौंर ठिकाना नहीं । जिनकी ठौर- ठिकाना नहीं उनकी कोई अस्मिताए व प्राथमिकताएं नहीं । गीत संगीत कला संस्कृति नहीं मन रंजित करती कोई कृति नहीं बिन इनके सब शून्य हैं। कितनी धन वैभव संपदा व्यर्थ हैं।
फिर ऐसी अजीबोगरीब स्थिति भी आएगी -
बेफिक्र राजा को भूख नहीं प्यास नहीं
उनके कोई पुण्य नहीं तो कोई पाप नहीं
भूख न लगने चाह न जगने और न जीने और न मरने की अजीब बिमारियों से धिरी मनुष्य अपने कुकृत्यों के कारण हैरान व व्याकूल खुशी व शांति तलाशने अश्वस्थामा की भांति विकास रुपी मृग मरीचिका की अंधी दौड़ में भटकेन्गे ।
इसलिए हमें अपनी कल्पित दीवाली में कृत्रिम ऊजाले लाने लिखे लाखों दीप जलाने की आवश्यकता नहीं अपितु मन की एक दीप को प्रज्ज्वलित करना चाहिए। ताकि सर्वत्र उजालें हो -
कटय नहीं अंधियार चाहे लाख दीया ल बार
होही जग-जग ले अंजोर मन के एक दीया ल बार
इस तरह जब मानव अपने भीतर से रौशन होन्गे तब कही जाकर सुखद परिस्थितियों का निर्माण अपने इर्द गिर्द कर पाएन्गे फिर
"हम चेतन चेतावन जग ल काबर करन- सहन अत्याचार " की उक्ति को आंचल में गठियाने ही नहीं अपने जीवन में उतारने होन्गे।और एकतरफा व त्वरित विकास के जगह सर्वांगीण व संतुलित विकास को अपनाने होन्में
अन्यथा सिन्धु सभ्यता का अंत हमारे समक्ष हैं। इस पर आधारित "मोहनजोदड़ो " फिल्म में व्यापारी प्रधान की "सोन " की लालसा कैसी तांडव लाकर विनाश रचती हैं। नमुनार्थ और उदाहरणार्थ ऋतिक रौशन अभिनीत उक्त फिल्म देखी जा सकती हैं। उनसे प्रेरणा ली जा सकती हैं।
डा. अनिल भतपहरी
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