"सत्य ईश्वर नहीं हैं,भले ईश्वर में सत्य हो सकते हैं "
ईश्वर एक अलंकृत नाम हैं। और उनका होना संदिग्ध हैं। अब तक उन्हे किसी ने नही देखा न उनकी प्रत्यक्ष कृपा आदि लोगों मिला है ।मन बहलाने या भक्ति की स्वप्निल दुनिया मे विचरण हेतु या पीडा सुनाने के लिए प्रार्थनाएँ करने के लिए मनौतिया मांगने के लिए ही उनकी ईजाद मानव समुदाय ने कर लिया जान पड़ता है।
इस तरह देखे तो ईश्वर मानव समुदाय का उन्नत परिकल्पना हैं। इनका अर्थ हैं जो ऐश्वर्यवान हो वह ईश्वर हैं। कलान्तर में राजा व राजकुमारों को उनके प्रतिनिधि या अवतार मान कर उनकी चरित लिख कर उनकी भक्ति या अराधना की परिपाटी विकसित हुई ।उन्ही के आधार पर प्रतिमा चित्र आदि बनाकर उन्हे मंदिर मठ जैसे अलंकृत इमारतों में स्थापित कर दी गई । चारण भाट और यश कीर्ति गायक कवि मनोहर काव्य रचकर मिथकीय स्थापना को फ्रेमित या रुढ़ कर दिए गये।और तो और अनेक तरह कथा कहानी गढ़कर "हरि अनंत हरि कथा अनंता" कह महिमामांडित किया गया। नेति-नेति कह सामूहिक वेद गान लगे। विश्व के अधिकांश देश में अलग -अलग धर्म एंव मान्यताओं के अन्तर्गत कथित और कल्पित सर्वशक्तिमान को ईश्वर मानकर उन्हे साकार- निराकार स्वरुप दिए गये । सगुण -निर्गुण कह उनकी महत्ता गाई जाने लगी।कलान्तर में उसी अज्ञेय ब्रम्ह, रब ,खुदा,व गाड आदि जो है या नही है के भ्रम में लिपटा रहस्यमय कर दिए गयेहैं। के अधीन लोग रहस्यमय साधना पद्धति विकसित कर लिए ।कुछ तो उन्हे अनुभूति जन्य कहकर महिमामांडित करते हैं।
बाहरहाल सत सच सत्त और सत्य एक भाव व गुणवाचक संज्ञा हैं। वह कल्पित अलंकृत महिमामय रहस्यमय सगुण-निर्गुण साकार- निराकार मानव अवतार एक पात्र जैसे कैसे होन्गे?
सत्य गुण है और कथित ईश्वर एक जीवधारी प्राणी हैं।
एक व्यक्ति सतधारी हो सकता हैं। वह सत्य को मान सकता हैं,उनका अपेक्षित प्रयोग कर सकता है। इसलिए दोनो का धालमेल अनावश्यक हैं।महत्वपूर्ण सत्य हैं ,प्राण धारी व्यक्ति पशु पछी या अन्य जीवधारी नहीं ।
सत्य किसी पारलौकिक ग्रह या दुसरी दुनिया की भी नहीं वह इसी धरती और लगभग सभी व्यक्ति के मन हृदय में बसा हुआ हैं-" घट घट म बसे हे सतनाम "
जैसे ही कण कण में बसे है भगवान या ईश्वर कहे तो जाते हैं। पर एक अवतार शरीर धारी चीज कैसे ऐसे होगा संभव ही नहीं ।
अनेक पात्र आए भगवान ईश्वर जैसे गरिमामय नाम को धारित किए ।बावजुद वह सत जैसा अशरीरी नही है।
तब कैसे हम सत्य ही ईश्वर है कह सत को ईश्वर माने ।
सत केवल सत हैं यह न मिथक है न इसे किसी ने ईजाद की न जन्म दिया न बच्चे युवा हुए न शादी ब्याह कर लीला आदि दिखाए न सिखाए ।इसलिए भी सत्य को ईश्वर के साथ तुलना करना चाहिए न उनके जैसे होने की अवधारणा विकसित करना चाहिए। इससे सत्य साम्प्रदायिक व ईश्वरवादी -अनीश्वरवादी, सगुण- निर्गुण, साकार -निराकार के चक्कर में फसकर अपनी विशिष्ट महत्ता खो देन्गे।
एक चीज हैं सत्य सबमें निहित हैं। पर सभी सत्य मे निहित हो ऐसा संभाव्य नहीं ।
जैसे कल्पित ईश्वर में सत्य मिल सकता हैं। पर सत्य मे कल्पित ईश्वर या उनके अवतार आदि मिले यह संभव नहीं ।
अत: सत्य ही ईश्वर हैं यह नहीं हो सकता ।यह प्रछिप्त या भ्रामक पर अलंकृत स्थापना है।भले ईश्वर सत्य हो सकता हैं।
ईश्वरीवादियों का मनभावन खुबसूरत वाक्यांश है - "सत्य ही ईश्वर हैं " यह चमकदार तो हैं पर कृत्रिम है।प्राकृतिक नहीं ।
कोई प्राणी या मानव महान तब हैं वह सत्य को धारण कर आचरण व व्यवहार में लाते हैं। तभी सतधारी होता है। न कि बिना इनके अपने चेहरे मोहरे रंग रुप वंश जाति कूल राजे रजवाडे के ऐश्वर्य के कारण।
डा. अनिल भतपहरी
जुनवानी ,रायपुर छग
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