जातिवाद का दंश से उत्पीड़ित छत्तीसगढ़
देश के इन हिन्दी राज्यों में भीषण जात- पात और सामाजिक वैनष्य भी पिछड़े पन का प्रमुख कारण हैं।
खासकर छत्तीसगढ़ के मामले में यह स्पष्टतः देखे जा सकते हैं-
छत्तीसगढ के पिछडे़पन का प्रमुख कारण जातिवाद हैं।
परन्तु दूर्भाग्यवश इनके उन्मूलन का कभी प्रयास नहीं किया गया। बल्कि पर प्रांतीय कथा वाचकों, कथित धार्मिक कर्मियों के द्वारा जातिवाद को पोषित किया गया।
यहां प्रचुर नैसर्गिक व मानव संशाधन हैं। परन्तु उन लोगो का उचित दोहन या उपयोग ही नहीं किए जाते।लाखों मेहनत कश मजदूर जीतोड मेहनत करने अन्यत्र पलायन कर जाते हैं। और बाहर से लोग आकर यहां छुटपुट व्यवसाय निजी व शासकीय नौकरी वसुली शराब भट्ठियों और रोज नगद बाट कर रोज वसुली का गेम हमारे ग्रामीण व शहरो के झुग्गी झोपड़ियों में ब्याज और महाजनी का अवैध करोबर चला रहे हैं।
सुखा अकाल या बेमौसम बारिश का मार कृषक पर ही सर्वाधिक पडता हुआ इन सबके होते हुए भी ग्रामीण अंचलों में जातिभेद चरम हैं। परस्पर मन मुटाव व ईष्या द्वेष के चलते अधिकतर लोग थाना कोर्ट कचहरी में रगडा रहे हैं। भले लोग छत्तीसगढिया सबले बढिया व सिधवा कहे जाते हैं। पर हकीकत में ऐसा नहीं हैं।
चुनाव बिना शराब मांस व प्रलोभन के संपन्न ही नहीं होते।और जो अकुत धनराशि खर्च कर जीत जाते हैं। अपना खर्च वसुलते हैं। इस तरह देखा जाय तो अनेक तरह की समस्याएं हैं।
बेरोजगारी शराब नशा खोरी से छत्तीसगढ आक्रान्त हैं।
राजस्थान हरियाणा पंजाब से बडी बडी ट्रेक्टर हार्वेस्टर एंव सडक निर्माण में जेसीबी हाइवा रोडरोलर आदि से यांत्रिकी करण बढने से मानवीय श्रम कृषि व लगभग बडी निर्माण में खत्म सा हो गये हैं।
सरकार का दावा जो हो पर जमीनी सच्चाई यही हैं। ग्रामों में केवल बुज़ुर्ग व्यसनी व प्रमादी व बीमार लोगो का जमवाडा हैं। जो सक्रीय हैं वे शहरों में बन रहे कालोनियों भवनो में राजमिस्त्री लेवर के रुप में खप रहे हैं।अक्सर कुछ लोग कहते हैं कि छिटपुट. पंचायतों में सरकारी काम मिल जाय पर भुगतन समय पर नहीं है इसलिए शहरों में पलायन जा्री है। भला हो नीजि बिल्डरो कालोनाइजरों का जिन्होने बडी संख्या में इन लोगो को रोजगार उपलब्ध कराए हैं। अन्यथा अन्यत्र पलायन ही एक मात्र विकल्प रहा हैं। जबकि यह तो होना ही नहीं चाहिए।
अधिकतर कालोनाइजर विगत १००-१५० वर्ष पूर्व आए पर प्रांतिक लोग हैं जो शहरों के इर्द गिर्द बसे ग्रामीणों की कृषि भूमि येन केन प्रकरेण बेचने मजबूर करते हैं। और उन जमीन को आवासीय प्लाट में विकसित कर मनमाने दामों पर बेच करोड़ों कमा रहे हैं। यह विडबंना हैं कि किसान जमीन बेचकर जो पैसे मिले उसे अनाश शनाप जुए शराब आदि में खर्च कर २-४ साल में फूंक देते हैं। या प्रायोजित चीट- फंड कंपनियां आकर भ्रामक व रंगीन सपने दिखाकर सबकूछ लूट रहे हैं। इस तरह दखते हैं कि कुछ वर्ष पूर्व रहे भू स्वामी आज मजदूर बन रह गये हैं। ऐसी स्थिति देश के किसी भी प्रांत में देखने को नहीं मिलता। यहाँ अपनी भाषा बोली खान पान रहन सहन तीज त्योहार के प्रति जो उदासीनता और अन्य प्रान्तिक शहरी वाशिंदों की संस्कृति के प्रति जो हमारे कथित पढे लिखे नौकरी पेशा वालों की मोह हैं। वह आश्चर्यजनक हैं।
अब हमारे लोगों को चाहिए कि अपनी अस्मिता कामय रखने और खुद मुख्यातिरी के लिए पराश्रित न हो। अपने घर की कलह दूर करने बाहर के पंच नहीं चाहिए। जो केवल आकर आपके फूट का मजे लेन्गे और जी भर हसेंगे। ऐसी स्थिति में कही सहनशीलता न खो जाए ? क्योकि यह एक सहज मनोवृत्ति है -"धीरे धीरे आक्रोश और पीड़ा धनीभूत होकर संधर्ष का रास्ता अख्तियार कर ही लेते हैं।
यह स्थिति विकसित न हो इसलिये शासन- प्रशासन को भी चाहिए कि यहाँ की मूल तत्व हैं जिनके द्वारा यह सदैव शांति व सौख्य की भूमि रही हैं जो संतो गुरुओं द्वारा स्थापित है ।उन की वाणियों ने कम में बेहतर जीने का सूत्र दिया और तमाम अभाव के बीच संतोष प्रद जीवन जीने का मार्ग सुझाया को विकसित करने का संकल्प लेकर कार्य करें।
तो वह दिन दूर नहीं जब शेष भारत में छत्तीसगढ़ एक दैदिप्तमान नक्षत्र की तरह जगमगाएंगें।
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