"वहम "
दिखता हैं पीठ
हर किसी का
पर चेहरा क्यु
दिखता नहीं
हर किसी का
लगे है लोग
दर्पण दिखाने
पर दिखता नही
चेहरा किसी का
खोट दर्पण में है
या दिखाने वालों में
या कही देखने वालों में
क्योकि अब चेहरे
कहां है ?
पीठ में बदल चुके हैं
सारे जहां
असानी से इसलिये
हर कोई भोंक रहे है छूरे
लहुलुहान चेहरा नही
पीठ हो रहे हैं जमुरे
यह दौर स्कार्फों
और मुखौटे का हैं
कहीं जाने का नहीं
बस लौटने का हैं
जब ज़मीन पर नर्क हैं कायम
तब स्वर्ग पाने पाले क्युं वहम
-डा. अनिल भतपहरी
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