इतवारिय...
ऋषियों की परिकल्पना - "द्युलोक"
द्युलोक परिकल्पना हैं या हकीकत यह आज तक अज्ञेय हैं। और ऐसा कोई सूत्र या साधन नहीं कि उनके वास्तविक अन्वेषण किया जा सके।
विज्ञान तो हमे मंगल तक पहुंचा दिए ,बशर्ते हमारी प्राचीन पंथिक ज्ञान तो ग्रहो नक्षत्रों के इतर सतलोक, अमरलोक ,स्वर्ग -नर्क गोलोक ,जन्नत, दोज़ख हैवन हीलादि की वर्णन कर दिग्दर्शन कराते पर यह सब भाव व कल्पना जगत में ही है।
कही ऐसा तो नहीं कि यह "द्युलोक" भी वही हो।आखिर श्रृष्टि के आरम्भ से लेकर अब तक अरबो लोगों में ऐसा कोई एक भी क्यो नहीं, जो वहाँ पहुचा व अमरत्व को प्राप्त किया हो?
बहरहाल भाव और भाषाई सौन्दर्य से मुग्धकारी लोक का सृजन तो होते रहे हैं। इनमें रसिक अवगहन कर तृप्ति पाते हैं। यह भाव -भावनाओं का कौतुक हैं ।यह कही भौतिक रुप में विद्यमान हो आज पर्यन्त किसी से अवलोकन हो नहीं पाया हैं। यह कब तक अलभ्य रहेन्गे ? या सहजता से पाए जा सकते हैं इनके भी उपाय प्रज्ञापुरुष अभिव्यक्त करते है पद निर्वाण या निब्बान यही है। जिन्हे जीते जी अर्जित कर सुखमय इस लोक को त्यागे जा सकते हैं।
वैदिक ऋचाएं रहस्यमय कविता सदृश हैं। इनके अध्ययन से सुषुप्त मन मस्तिष्क चैतन्य होते हैं फलस्वरुप लोक कल्याण भाव भी इनसे जागृत होते हैं। हालांकि इन मनोहर परिकल्पनाओं से सत्य कही-कही आवरण बद्ध भी होते हैं। परन्तु प्रचंड मार्तण्ड से बचने पर्ण कुटि, वृक्ष की सघन छांह और बादलों का आवरण भी आवश्यक हैं। वैसे ही किंचित् परिकल्पनाओं का आवरण भी अल्हादकारी हैं। हमारे प्राचीन साहित्य में जो कुछ अतिरंजनाएं हैं उन्हे इसी तरह की भावार्थ में ग्रहण करना चाहिए।
साहित्य सर्व हितकारी ही होते हैं ,पर साहित्य को विरासत समझ इनके संरक्षण की जिम्मेदारी निभाते कुछ मूढ़ मति इन्हे बहुतों के लिए अलभ्य करने की कुचेष्टाएं की वह मानवता और हमारी द्रष्टाओं के अपराधी रहे हैं। और उन्हें स्वत: प्रकृति व प्रवृत्ति दंडित कर रहे हैं।
बहरहाल मानवीय वृत्तियाँ प्रतिद्वंद्विता पालकर संतुष्ट होते रहे हैं। राग,द्वेष , मद लोभादि से जन साधारण बच सके यह भी संभाव्य नहीं परन्तु इन कुप्रवृत्तियों के ऊपर मानव का विजय श्लाघनीय हैं। वही महामानव होकर विमल कीर्ति और यश के प्रतिभागी भी होते रहे हैं।
यह सिलसिला युगों से निरन्तर गतिमान हैं और रहेन्गे ।
।। सर्व मंगल कामनाएं ।।
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