Thursday, April 30, 2020

शिकारी और भिखारी

शिकारी और भिखारी 

तब पचासों चिड़ियों का झुंड 
फूर्र से उड़ गया 
मैंनें देखा उस अधनंगें
काले -कलुटे पारधी के बच्चे को
जा़ल समेटते , मन मसोसते 
कह रहा था 
बाबुजी चिड़िया फंसी तो शिकारी 
या नहीं भिखारी 
*             *           *
कुछ दिन हुए मैं इनके 
बस्ती में आया 
इसलिए कि यहाँ से 
शहर समीप हैं
और ग्रामीण सचिवालय भी 
बचपन से आदतन
मैं प्रकृति प्रेमी रहा हूँ
खीच लिया यह वन प्रांतर 
और नल सेप्टिक छोड़कर 
दिशा- मैदान जाता हूँ
लोटा लेकर 
तब स्मरण हो आतें हैं 
बचपन मेरा 
वन ग्राम में बीता 
पिताश्री के मास्टरी के संग
विरासत में मिला मुझे एकांत 
खूब दोहन किया 
चिंतन मनन अध्ययन किया 
*                *               *
कुंचालें भरती हिरणियों के झुंड 
सुमन -सौरभ  लुटाते भंवर वृंद 
कोंपल फूटते सल्फी 
बौराते चार आम्र मंजरी 
कुचियाएं महुए का गंघ 
रात रात भर बजते 
ढ़ोल- मंजीरे नाद कंठ 
उन्मुक्त विचरण 
अल्हड़ ग्राम बालाएं 
तीर धनुष से सजे-संवरे 
भुंजियां माड़ियां छोकरे 
थिरकते लया चेलिक के पांव 
आज भी आंखों में तैरते वह गांव 
आंचलिकता से सिक्त
शब्दों से मिला मुझे प्रसिद्धि 
किशोरावय से ही उपलब्धि 
मन दौड़ता हैं उन्ही के समीप 
शहरी मित्रों का उपहास 
कि आज तक मैं देहाती हूँ
तथाकथित प्रोगेसिंव 
नारी मुक्ति पर बीसियों पेज 
लिख मारने के बाद 
मांस मच्छी मंद 
बालाओं के संग
पंच मकार की अनुगामी 
रे अघोरी खल दुष्ट कामी 
साले कोरे बुद्धिजीवी 
बने हो इसलिये पड़ोसी 
*           *             *
 एक नर्स यहाँ रहने आई 
एकदम तन्हा 
पारधी के लड़के ने बताया 
बाबु जी बहुत अच्छी हैं
उनके तीतर-बटेर की तरह
लगने लगी स्वादिष्ट  
कभी-कभी तृप्ति की डकार सी 
आने लगी स्वप्नारिष्ट
उस दिन दौड़ते आया 
ये पत्तर दिए हैं आपको 
तब एक पल  लगा 
कि उस सुन्दर नर्स के आने से
मैं भी कही 
शिकारी से भिखारी न हो जाऊं
टूटी तन्द्रा देख पोष्ट लिफाफा 
पर थामते नर्स की थैला 
और पाकेट पर रखते पैसा 
लानी हैं गृहस्थी के सामान 
होते रहा खुश और हैरान 
इस तरह कैसे वो अपना बना ली 
अपने मरीज से मिलने 
नर्स रोज सपने में आने लगी  

    -डां. अनिल भतपहरी 

     रचनाकाल  सितबंर १९९४

Monday, April 27, 2020

अब का होही लघु कथा

लघु-कथा

"अब का होही"

     शहर तीर के गाँव के छोटे-बड़े  सब्बों किसान -बनिहार मन के  घर- दुवार, बारी -बखरी,बियारा- सियारा ( खेत- खलिहान) के चउक- चाकर रक्बा ल देख परप्रान्तिक मन जर भुंजा जथे! भले इंकर घर हर  खदर -खपरा के छानी आय, फेर लगथे कि यहू झन रहय। उनमन ल परपरी धर लेथे ।रकम- रकम के उदिम करत हे इनकर भुंइय्या नगाय के। इकर अनाप -सनाप संउक चढ़ा के,  ओमन ल बिलोर के बेमझा के  बिसा लेथंय । जुआ -मंद ,नाचा -पेखन, दान -दछिणा के ओड़हर करके या लाटरी रकम दुगुना करे के लालच ये बीमा -सीमा चिटफड कंपनी देखाथे। जबर  जाल फैलाय हवय , सित्तो गोठ आय   ठग -फुसारी करके छत्तीसगढ़िया मन लूटत हवे।ओ दिन के बात आय समारु बतात रहिस- 
    एक झन नवा  बड़े  बंगला बनाय  परप्रान्तिक ह जोन उकरे जगा ल बिसाके बसे रहिस, तेने हर कहे लगिस-  लाखों रुपये लगाकर यह जमीन खरीदे और उधर देखे गाँव -गाँव मे अतिक्रमण है? और तो और  ये लोग शहरों मे झोपड़ी बनाकर बेजा कब्जा कर रखे है! अतिक्रमण करना क्या इनके जन्मसिद्ध अधिकार है? शासन-प्रशासन नाम की चीज है भला? गाँवो मे इनके पास कितनी जमीने है ये लोग एकड़  मे नापते है । एक हमलोग है इनके पास से फीट मे जमीन लेते है,वह भी जी तोड़ मेहनत कर। बिना सांस टोरे कहिते गिस...
    हुंकारु देत समारु कहिस - "संगी‌ पुरखौती जमीन -जायदाद आय खेती- बारी करके जीयत खात हवन।"
भले ५- १० एकड़ हे फेर बपुरामन न मन के खा सके न पहिन ओढ़ सके।सरग भरोसा जीयत हे।कोनो -कोनो ह भागमानी हे जेकर नहर -नाली हवे। तभो ले  कर्जा म बुड़े पातर -पनियर ,अम्मट -बिच्छल समे नाहकत हे।कत्कोन अइसे हे जोन गाय -गरु बुढ़ात दाई -ददा अउ ये माटी के मोह छाड़ के  कहु कमाय- खाय तको नी जा सके।भूमिहीन बनिहार हाथ -गोड़ के भरोसा कतकोन ठउर- ठीहा किन्दर आथे! फेर ये किसान भाईमन त अपन तहसील जिला तक नइ देख सके। बैमारी -सैमारी म भले अस्पताल म भरती होय शहर -पहर देखे संउक पुरा होथय। अउ मर खप जथे।भागमानी मनखे ह सरकारी असपताल ल लहुट आथे ... नही त बपुरा मन बर उही सरग जाय  के पहली सराय हो जथे। 
     लघु /सीमान्त ,किसान मन के मरना हे न मरे न मुटाय।उन्खर अनदेखनई झन करो।उंकर पुरखौती जिनिस मं नजर -ढीठ त झन लगाव।
   दबकावत ओहर कहिस-  "अरे ऐसे कैसे चलेगा ? सब नपेन्गे सभी का अट्टे- पट्टे बनेन्गे !और तमाम अतिक्रमण हटेन्गे !जो है उनपर टैक्स लगेन्गे! आखिर नियम- कानून जैसे कोई चीज भी इस देश में ?" 
   बख खाय सुनत समारु  कहे लगिस-  "बात तो सोरा आना सच हवय  कि  नियम कानून ल त  सब ल समान मानना चाही? ओ सबो बर हे,फेर पुरखौती ..."
  बीच मं कैची असन फाकत बबके लगिस- "अरे  का पुरखौती ? क्या कोई बिना पुरखे के है? सबके अपने पूर्वज है और सबको उन पर नाज है। अब तो समान कानून- व्यवस्था पर नाज होना चाही। "
   समारु के बक्का नइ फुटिस का गोठियातिस ।ओकर बोली के का चिबोली देतीस ।कठुवाय परे हे ..भंजावत .हे मनेमन . ..अब का होही?
     डा. अनिल भतपहरी, ९६१७७७७५१४ 
      सी - ११ ऊंजियार -सदन  आदर्श नगर सेंट जोसेफ स्कूल के पास अमलीडीह रायपुर छ गॐ

मानव तेरा जय हो

"मानव तेरा जय हो "

जय हो सदा मानव का  विजय हो 
ज्ञान विज्ञान की हर तरफ उदय हो 
कोरोना का यह कैसा  कहर 
वीरान  होते गांव कस्बा शहर 
चहुंओर हो रहे हैं हाहाकार 
स्तब्ध संस्थाएँ  और सरकार 
कोई आयोजन नही न हैं समारोह 
दुबके  अपने घरों में भयभीत लोग 
खाली चलती  बस ,रेल और विमान 
स्कूल कालेज वीरान थिएटर और उद्यान
लगता हैं छिड़ चुका हैं विश्वयुद्ध 
संकट विकट चल गया भयावह आयुध
करोड़ों-अरबों संपदा की हो रही क्षति
बचने- बचाने की कोई नहीं हैं युक्ति 
ऊपर से प्रकृति का यह कैसा हैं तांडव 
बिन मौसम बरसात होते विचित्र विप्लव 
फैलते वायरस इससे गुणात्मक‌ रुप‌
सार्स ,वर्ड फ्लू पीलियादि का भी प्रकोप 
भी हो रहे है  संयुक्त 
हो रहे प्रकोप  हर तरफ भयंकर 
मचाएं है प्रलय महामारी का रुप धरकर 
भीषण भय फैलाते अफवाहे चहुं ओर हैं
देव धामी नबी संत गुरु हो रहे कमजोर हैं 
कोई न रहा अब देने मानव को आत्म संबल 
करे प्रार्थना किससे सभी हो रहे हैं निर्बल
मिट रही थी सदियों की अमानवीय प्रथाएँ
भेद भाव अस्पृश्यताएं जैसी कुप्रथाएँ 
पुनश्च सजीव कर गई डायन कोरोना वायरस 
गले-हाथ मिलाकर होंगे कैसे अब हम समरस  
जीत भी जाय पर भय रहेगी  कायम 
अभिशापित निगोड़ी कोरोना  बेरहम 
क्षय हो तुम्हारा मानवता हो विजयी 
सुन लो अज्ञेय शक्ति अनिल की विनती 
जय हो सदा मानव का विजय हो 
ज्ञान-विज्ञान की हर तरफ उदय हो 
मिले कोई उपाय औषधियाँ विकसित हो टिकाएं
धैर्य  रखे सभी रहन सहन में स्वच्छता अपनाएं 
परस्पर मानव समुदाय रहे आपस में सम्हलकर  
महामारी से निपटे तृतीय विश्व युद्ध समझकर 
हरदम हाथ धोवे और रहे  मुख टोप लगाकर 
फहराए जैतखाम में पालो इस युद्ध में जीतकर 

-डा.अनिल भतपहरी /9617777514

Sunday, April 26, 2020

मुड़ मिजनी माटी

" माटी मुड मिंजनी "

हमर गाव जुनवानी 

के माटी  मुडमिंजनी 

चिटिक सुन लव संगी

डहर चलती एकर  कहनी
 
आधातेच प्रसिद्ध पथरा- माटी हवे 
शोर अडताफ म भारी उडथे 

अचरुज हे पथरा मन के  कथा

गांव म जे मुह ते सुनले गजब गाथा 

अभी तो सुनव  माटी के महिमा

पांच  किसिम के हवे करिश्मा 

कन्हार -दोमट हवे  मटासी

लाल मुरम अउ  पिवरी छुही
 
ऊपजे धान कत्कोन  ओन्हारी

जाके देखव मंदिर अस खरही

चुंगडी-बोरा भरके गौतरिहा मन

अपन-अपन घर ले जाथे 

माटीच लेगे बर जेठ बैसाख म

 घरोघर सगा मन आथे 

दही म रातभर भिंजो के 

बिहने बदन अउ मुड  म लगा

गरमी उतर जाही संगी

 एक बार  तो अजमा

आठो अंग संग चुन्दी चमकही
 
साबुन शेम्पू ह  येकर संग का  सकही 

लीम तेल डार त जुआ लिख नसाही   
 
धाव फोरा फुंसी सदा दिन बर नंदाही  

हर्रा डार सरो के लिपथे
 सुध्धर अंगना परछी  भिथिया

पिडुरी, दुधही छुही संग
सजथे  सुध्धर घर -कुरिया 

मुड मिंजनी माटी के सेती

हमरे भर्री परे हे परती

दादी संतवन्तीन कहे चाहे बनाहु धनहा 

तभो ले राखे रहु एला  धरखनहा 

सिरतोन हवन हमन भागमानी

सुध्धर नानकन गाव पथरा  जुनवानी 

तेकर पाचन चंदन अस
हवे माटी मुड मिंजनी 

दार भात चुरगे अउ 
पुरगे एकर  कहनी 

 - डा अनिल भतपहरी
      जुनवानी (तेलासी - भंडारपुरी )

Friday, April 24, 2020

आगी गुंगवात हे ...

"आगी गुंगवात हे "

रीस तरपंउरी के माथा मं चढ जात हे
अंतस भीतरी मं आगी गुंगवात हे....

कइसन समे आगे सच बोले न सुहाए 
देख करतुत छलियन  के मन कठुवाए 
निंदा चारी अउ लबारी हर ममहात हे ...

किसान के फसल सस्ती  देख जी कौव्वाय 
बैपारी के फेसन मांहगी हाथो -हाथ बेचाय 
लहु पसीना गारे जिनिस सड़क मं  फेकात हे..

जेन जातिस जेल ओ मगन बइठे रचे खेल
चुलका के चुलकाहा मन घुरवा मं देहे ढकेल 
चाल बइरी के समझो लिख-लिख लिगरी लगात हे....

तोर ददा के मालपानी , मोर ददा के माटी ये 
तोर बियाज बनिज त हमर  धनखर पुरखौती ये 
तोरेच लुक मं रे बसुन्दरा हमर खरही  लेसात हे ....

पीरा लुस के  देखव सुख लुसइय्या लबरामन  
बड़का पागा पारे किदरे ओ दिन के नंगरामन 
बिन फूले डोहड़ी डार मं अइलात हे.... 

डा. अनिल भतपहरी‌ 
९६१७७७७५१४
ऊंजियार- सदन 
अमलीडीह ,रायपुर

Thursday, April 23, 2020

हमर अबड़ सुघर गांव

।।हमर गांव ।।

हमर अब्बड़ सुघ्घर गांव  
     तोला कइसे मंय बताव
         कभु घुमे-फिरे बर आव
               हमर बिक्कट सुघ्घर गांव...

होत बिंहचा कुकरा बासे 
    पनिहारिन के पइरी बाजे 
     ‌दया मया के एहर सागर 
‌‌‌        सगा मनई  बर एक मन आगर 
छानी के ऊपर कौंआ करय रोज कांव कांव ...
 
            बारी बियारा धनहा डोली 
                 बड़ निक लागय अर्र तता बोली 
                      करमा ददरिया सुआ पंथी 
                         जगा जगा मं कथा कहानी 
   पंच अउ पटइल करय लीम तरी नियाव ...

                    मेड़ों म ठाकुर बीच मं जैतखाम‌
  ‌‌‌‌‌‌‌‌‌                         तरिया पार म बिराजे महामाई‌
 ‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌                            उत्ती - बुड़ती म करिया धुरवा 
                                   रक्सेल म हवे  शीतला माई‌
     गांव के थोरिक दुरिहा म नाम्ही ठेंगा देवता नांव... 

     बिन फरिका अउ  तारा के घर 
        बिसवास  एक दूसर के ऊपर
          निगे नइ सकय चोर - चिहाट 
                चारो मुड़ा म हवे रखवार
 तरिया पार ले बाड़ी कुकुर करय हांव हांव ...

       देख ले संगी बरदी धरसगे
         होगें संझा  घरो-घर दीया बरगे
           चुरत हे भात अउ डबकत हे दार 
 ‌‌‌‌‌‌              रोजेच मनाथंय सुरहुत्ती तिहार 
‌‌परसे मयारुक दाई ताते-तात खांव ...

                डा. अनिल भतपहरी ‌
        जुनवानी अमलीडीह रायपुर 
                 ९६१७७७७५१४

खाली दिमाग ...

वक्त निकाल कर पढें- 


खाली दिमाग ....(शैतान घर )


       मोबाईल है तो भले आदमी जो हो जाय पर खाली न होने से  शैतान हो ही नहीं सकते !अत: अब यह पारंपरिक मुहावरे तेजी से  अप्रासंगिक होते जा रहे हैं। किसी से पुछ लो खाली हो क्या ? तो बोलेन्गे मरने तक का समय नहीं है। तो मित्रों  ऐसे  बखत इस महादेश में  आ गये हैं। पता नहीं बिना काम सब व्यस्त हैं। और ऐसा लगता है कि कुछ चीज पाना नहीं हैं। बस डेटा और बैट्री चाहिए।  
     सच कहे   गांवों में हरियाणा पंजाब के ट्रेक्टर- हार्वेस्टर नहीं आएन्गे तो बिना बनिहार धान खेत में  नष्ट हो झड़ -सड़ जाएन्गे ! मजदूर ही नहीं है मानो सभी मंडल गौटिया हो गये हैं। अधिकतर शहरों में चौड़ी मजदूर या बिल्डरों के यहां दहाड़ी कुली कबाड़ी हो गये हैं। कोई -कोई सीखकर मिस्त्री बन गये तो बाकी रेजा कुली करके शाम को पौव्वा अधपौव्वा पी  मजे कर रहे हैं।
    नई पीढ़ी मोबाईल कुपोषित अस्थिबाधाग्रसित और तंत्रिकातंत्र व्याधिक हो रहे हैं। मनोरोग व नेत्ररोग तो इनके सहचरी हैं बावजूद दो दो सिम और अनलिमीटेड रिचार्ज लोगो के लिए कम पड़ रहे हैं। पुरा युथ वर्ल्ड  राइट -रांग चलते -चलते बीच में ही ठिठका हुआ  पोर्नोग्राफी में अटके भटके हुए लगते हैं। या  यौवनिक मजे में डूबे हुए  ।  सबसे अधिक व्यापार शौक खासकर फैशन कास्मेटिक और मोबाईल का ही हैं। गोया यही जिन्दगी हैं। कपडे ऐसे फटे सटे पहने मिलेन्गे कि कोई बलात् संगत से भगते भगाते लूटते पिटते फटते सटते बचे खुचे आए हुए हैं।

  बहरहाल पुरे एक सप्ताह बाद आवश्यक कार्यवश आज ऑफिस आना हुआ पर सर्वर डाऊन होने से काम- काज हो नहीं पा रहे हैं। मेन्यूअल होना नहीं और आन लाइन काम ठप्प हैं। और चंद दो चार लोगों को छोड़कर पुरा परिसर में भूतिया सन्नाटा छाया हुआ हैं। हमी दो चार सरकटा भूत टाईप लिंक के प्रतीक्षा में बैठे हैं। 
 अत: युं ही  पेन दिल दिमसग रखकर भी पेपर लेस ठप्पा टाईप क्यु में एम. फिल. पीएच-डी. डिग्रियाँ के बाद भी आजकल अपना वही पुरातन अंगुठे काम आ रहे हैं। चाहे मोबाईल चलाओं लेपटाप या आफिस में सिस्टम चलाओ । 
 
  तो भैय्ये !बात यह कि अब कैसे वक्त जाया करे ? कोई ग्रुप स्रुप तो है कि समाज देश सुधार हेतु लफ्फाजियां करे या खाये -पीये लोगों जैसे जुगाली करे या माफ किजिए अधिकतर  महिलाओं और कमतर पुरुषों जैसे चुगली करे। कोई मित्ता- सित्ता भी नहीं  आटसाप -वाटसाप खेले या टिकटाक - लुडो पब्जी खेले । 
या फिर खोजी पत्रकारिता सरीख इधर -ऊधर की गंध सुंधते फिरे । इसलिये अपने ही वाट्साप में कुछ लिखने लगा क्योंकि लिखने से सोच और परिश्रम दोनो साथ- साथ चलते हैं और वक्त युं निकल जाते हैं। खाली समय में व्यर्थ चिंता भय से बोनस स्वरुप अलग मुक्त रहते हैं। और न ही बुरे ख्याल या व्यसन की तलब जगते हैं। हां भई अब इसे ही व्यसन बना लिए समझो पर   यह अलग बात है ।कुछ लिखकर यश -अपयश तक कमा लेते हैं,तो कुछ युं ही जमींदोंज हो जाते हैं।  मजा और सजा इन दोनो अवस्था में हैं। इसलिए कम से कम जो‌ जान रहे हैं  वही खाली समय में करना चाहिए। हमारे छत्तीसगढ़ में ज्ञानी गुनी पेड़  के नीचे या चौरा पर बैठ कथा कहनी ,गीत भजन में रम जाते थे तो वही कही ढ़ेरा लेकर रस्सी आटने लग जाते थे।यह बैठागुरों का हैं। और सच कहे तो इनके अनुभव बेहतर करने में अपूर्व सहयोग करते आ रहे हैं। भले वह महत्वपूर्ण कार्य हो न हो ।प्रत्यक्ष लाभ मिले न मिले। पूंजीवादी व्यवस्था में यह वेस्ट हैं। और केवल डस्टबीन के लायक हैं। अब इस तरह के बहुत तेजी से अपनी शाश्वत मूल्यों को खारिज करती हुई शीध्रता से   पांव पसारते सुरसा को कैसे नियंत्रित करें। यह भी यक्ष प्रश्न हैं लोकतंत्र को  प्रभावित कर सीधे  सत्ता में हस्तक्षेप के कारण सक्षम नेतृत्व भी किंमकर्तव्यविमूंढम होते जा रहे हैं। जबकि सच तो यह है कि 
कोरोना के देश लाकडाउन हैं । महत्वपूर्ण केन्द्रीय कार्यालय और राजकीय कार्यालय खुले हुए हैं। इस महामारी से पुरा तंत्र सहित आम‌ जन भी बराबर संधर्षरत हैं।ऐसे में अति आवश्यक सेवाओं सहित महत्वपूर्ण शासकीय दायित्वों का निर्वहन जारी हैं। हमारे सरकारी अधिकारी - कर्मचारी चिकित्सीय अमले नगरी प्रशासन ,सफाई कर्मचारी सहित पुलिस प्रशासन प्रभावी व्यवस्था बनाने में सक्रिय हैं। पुरे परिदृश्य से गैर सरकारी महकमे व नीजिकरण को बढावा देने वालें लोग गायब हैं। जबकि यही लोग सरकारी दफ्तर और कर्मचारियों को हिकारत या द्वेष भाव से देखते आ रहे थे। 
         हमारे देश में शासकीय तंत्र नार्थ साउथ ब्लाक न ई दिल्ली से लेकर महानदी इंद्रावती होते    सुदूर गांव तक फैली हुई हैं। फलस्वरुप  यहां की हालात मूलभूत सुविधाएं अपेक्षाकृत न्युनतम होने के बावजूद विकसित व पूंजीवादी देश में इस समय फिलहाल बेहतर हैं।
               आज हमे तेजी बढ़ते यांत्रिक  दैत्याकार पूंजीवाद नहीं चाहिए जो एक नट बोल्ट के घिस जाने या कमजोर हो जाने पर भभाकर  कर ताश के पत्ते सरीख ढ़ह जाय ।
    बल्कि हमें संतुलित विकास हेतु जैव विविधताओं को कायम रखते समृद्धशाली भारत गढने होन्गे जो कि हमारे वर्तमान संवैधानिक तंत्र से ही यहाँ के लिए संभव हैं। बल्कि अन्य के लिए भी यह मार्गदर्शक है।
    समय है अब नीजिकरण को रोक कर सरकारी व सहकारिता को बढावा देने होन्गे।ताकि तेजी से देश में बढ़ रहे अमीरी -गरीबी के खाई को पाटा जा सके। जिससे सबका विकास सब तरफ विकास का नव प्रभात आ सकें।
                कम को जादा समझना 

       -डा.अनिल भतपहरी

Monday, April 20, 2020

सर ई पाली बसना देख ताक के फंसना

‌"सरईपाली बसना देख ताक के फंसना "

      उड़ीसा सीमावर्ती फूलझर राज का यह लरिया छेत्र अपनी सांस्कृतिक उत्सवधर्मिता और सगा मनई  बर एक मन आगर बडे सरल- सहज जीवन शैली के लिए विख्यात है। जगन्नाथ के प्रति समर्पित जनमानस गुरुघासीदास के प्रति आस्थावान है।यह वह परिछेत्र हैं। जहां महानदी -जोगनदी धाटी और नरसिंग नाथ  सिरपुर तुरतुरिया बार गिरौदपुरी  जैसे पावन तीर्थ है ।प्रकृति ने इस अंचल को अपने हाथों सजाए .।इस परिछेत्र से  एन एच ६ ग्रेट इस्टर्न रोड मुम्बई से कोलकाता  गुजरते है जिसे आजकल एन एच ५६  कहे जाने लगे है‌‌ ।इनकी दोनो ओर विकास की अजस्त्र धाराएं भी जोक महानदी के साथ साथ प्रवाहमान है।विगत ३५ - ४० वर्षो का हम चश्मदीद गवाह है ।क्या थे और अब क्या है ....
           बाहरहाल वर्षो बाद उच्च शिक्षा विभाग रासेयो द्वारा  युनीसेफ के तत्वावधान में संभाग स्तरीय कार्यशाला........महासमुन्द जिला के सरायपाली बसना में सम्मलित होने जा रहे हैं। 
आरंग पार करते तुमगांव कौंआझर के पास वन प्रांतर को देख मन प्रफुल्लित हो उठा और बचपन की  स्मृतियाँ ताजी हो ग ई। यह वही तुमगांव है जहां के भव्य रावण प्रतिमा के समछ हमलोग बस की प्रतीछा करते खेलते रहते .... इस प्रतिमा की चर्चा सुन कभी सत्यजीत रे यहाँ आकर अपना बहुचर्चित फिल्म सद्गति बनाए जिसमें स्मिता पाटिल और ओमपुरी जैसे अमर कलाकारों ने उसमें प्राण प्रतिष्ठा कर  कला जगत में जीवंत कर दिए .. ऐसे ही अमत्व को प्राप्त लोक कलाकार दानी दरुवन अपनी नाचा गम्मत में जब हजारों दर्शकों की उपस्थिति में यह संवाद बोलते तो एक साथ हास्य और नैतिक सीख का संचरण जनमानस में  हो जाते -"सरईपाली बसना देख ताक के फंसना" 
    सफर के दर्म्यान दानी दरुवन याद आने लगे उनकी विशिष्ट नाच शैली पैर में ५-५ किलो धुंधरु बांधे जब थिरकते तो लोग सांस थामे देख इहलोक की संताप बिसरकर किसी अन्य लोक की सुखद गलियों में विचरण करने चले जाते ... छण भर में सारी दु:ख पीड़ा से निवृत आनंद में निमग्न हो जाते। 
     
    गांव में वोट डालने लाइन में खड़े इंदरुत ( अनिरुद्ध दयाल ) भैय्या ने मुझे देख   कह उठे ... एके झन आय हस गो ?... पैलगी करते कहा -हां भैय्या जी !अभीच बलौदाबाजार जाना हे,चुनाव डिप्टी मं  । तेन पाय के आय हव बेर होत हे .... ओहर मोला आधु करिस त आधु म जतका कका  भाई भतीजा भांजा खडे रहिस सब मोला अगवा दिस ....बाएं हाथ की तर्जनी में लगे अमिट स्याही मिटी ही नहीं हैं ।उसे देख स्मृत हुआ यह अंगुली कभी इंदरुत भैय्या संग कैसे हारमोनियम व बेन्जो के संग खेलते मधुर धुन निकालते  पिता जी घर के आंगन में बांसुरी के संग उनमें अमृत घोलते ... तब लगता  चंदा हमर अंगना मं उतर तारी बजाते  और चंदौनी गण सुआ नाचने लगती।
      कभी गांव और सुदुर बुन्देली सेवाती में गुरुघासीदास जंयती परब में इन्दरु भैय्या संग नाचा धुन बजाते दानी -दरुवन को भी बिधुन नचाने का भाग मिला हैं। वे सब मंजर चलचित्र की भांति जेहन में उभरने लगे ...तब इन लोककलाकारों का मान कितना होता था देखकर आज भी अचरज होता हैं ....दानी दरुवन का घर घर में मांग होता चाय नास्ता का ... किसी के पताल चटनी के संग नवा दूबराज के चाउर के गमकत चीला त कोनो घर कराही म चुरे  चिरपुर चाय कांस के  माली या थारी सिप करतपियई .. झन फुछ उंकर सुवाद ! जोने पीही तौने जानही ।कत्कोन तो गरम उतारे मौहा के  मंद ल तको चाय सरीख पिये ... नचकारीन और बजकरी मन । दानी बबा उन ल बरजय । आजेच फलाना गांव जाना हवे ... मुड़ पेट देख के खांव .... त मज्जाक करत  पीअइय्या मन कहय.... सीजन भर तोर अउ जनता के  किरपा  ले छाहित हवे ग चिन्ता झनकर ..... 
सही कहत हन जीप मेटाडोर म बिदा करत गांव वाला मन रोनहुत हो जय ..... बड़ मया दुलार पावय । उनकी लोकप्रियता देख हमें भी तब कलाकार बनने का शौक चर्राने लगा।
    तब हम कालेज पढने रायपुर में आए थे और बचपन में संगीत के प्रति लगाव के चलते कमलादेवी संगीत महाविद्यालय में रात्रिकालीन  गायन में पढने जाते। 
    दीवाली के बाद मेला- मड़ई जंयती परब में लोककलाकारों के लिए  कला प्रदर्शन हेतु सीजन होते ।तब रायपुर बलौदाबाजार मार्ग पर स्थित  खरोरा नाचा की राजधानी होते । और यहां अनेक मंडली अभ्यास करते ... हम भी नवां किरण आर्केस्ट्रा में हारमोनियम बजाने और गीत ट्यनिंग करते रायपुर से शनिवार को आते और अल सुबह सोमवार कालेज चले जाते।तब हाई स्कूल कोसरंगी में पिताजी के सानिध्य में रहकर पढ़े और सीखे वहाँ हमारे सहपाठी  गण और पवन सूर्याम आदि मिलकर लोककला मंच बनाए .तब सुप्रसिद्ध छत्तीसगढ़ी लोक गायक गोरेलाल बर्मन जी तक हमारे संगत के साथी रहे .अभी वे राष्ट्रीय पार्टी से चुनाव लड़े हैं।..हमने उसी समय "मनमोहिनी "नामक लोकमंच का गठन किया और उनकी संयुक्त प्रस्तुतियां आसपास  वर्षों देते रहे .... पिताजी को पता चला तो उनकी पढाई में होते नागा के चलते  डांटे पड़ती और तब इस तरफ से झुकांव कम होने लगा ...यह अलग बात है कि जर्वे ग्राम में नवाकिरन की प्रस्तुति में वे और उनके अभिन्न मित्र मढ़रिया सर ( नाटको में साथ अभिनय करते वे  चरणदास चोर बनते तो वे पुलिस ।साथ बेंजो व बासुरी के संगत करते) दोनो हमारे शिछक थे ने आकर मंच में रात भर हमारे  हारमोनियम व गायन में संगत किए ...पंथी. करमा  ददरिया व  भुंइय्या के गीत उनलोगो के समछ लजाते शरमाते गाये भी । बाकी पवन भाई  सम्हाले .... कुछ भावपछ के कलाकार कहे .... आज बड़ कनौर लगत रहीस भाई  .... जब गुरुजी मन २ धन्टा बाद गिस तभे ‌नचई-गवई म मजा आइस ।
       बाहरहाल बचपन में  महानदी पार कर सिरपुर में बस पकड़ते और महासमुन्द या पिथौरा होकर बुन्देली जाते और यह  राष्ट्रीय मार्ग क्रम ६ पर कुहरी पड़ाव जहां कोडार बांध और खल्लारी माता के मंदिर हैं के पास वन परिछेत्र में इतराते बंदरों के झुंड को देख मजा करते तथा चिकनी डामर रोड देख किनारे किनारे पल्ला एकाद किलोमीटर तक छोटे  सुनील के संग दौड़ते। साथ गवतरिहा लोग कहते रोड बड़ चिक्कन  अउ सफा हे ग । बिन परती बिछाय  भात खवंऊ  हवे ।उनकी बातें आज भी जेहन में है वह सब स्मृत होने लगा .यहां एक प्याउ था और की एक मंजर व घटना सुन हमने उसी समय 
परछाइंय्या कविता लिखी जो हमारे साहित्यिक मित्रों द्वारा प्रसंशित है ...तुमगांव  झलप पटेवा कोडार बांध और मन प्रसन्न करता शानदार रोड और द्रुतगति से भागते वाहन ... वन का कर्रा हर्रा और सागौन  महुए की वृछ अपनी ओर बुलाते लगते .... पर रुक कैसे सकते हैं समय पर बसना पहुचना हैं..... ताकि वहां लेट पहुचकर मुसीबत में न फंस जाय।क्योकि सरकारी काम है और अधिकारी तो अधिकारी है। मातहतों को न डाटे डपकारे तो इन के पेट की पानी न पचे । तो भैय्ये मुझे दानी अउ दरवन  बबा के गोठ अउ बरजे ह आज बड़ निक लागत हे .... सरईपाली बसना देख ताक के फंसना ।
     अरे बस रुक गई .... बसना पहुंच गये ।लो देख लो अभी तक बस कंडक्टर पैसे वापस नहीं किए हैं। रायपुर से बसना की  १३० रुपये किराया हैं और हम  ५०० का नोट कंडक्टर को  दिए हैं  चिल्हर नहीं है कह वे टिकट के पीछे ३७०  लिख दिए है। उतरने के पूर्व पांकेट में  टिकट ढूंढ़ने लगा ...कि बसना में आके फंसना झन हो जाय !....जय हो दानी दरुवन  बबा ।

Sunday, April 19, 2020

गुरुघासीदास

संत गुरु घासीदास जी का सामाजिक सुधार एवं सामाजिक समरसता
डॉ. जे.आर. सोनी, पूर्व अध्यक्ष, गुरु घासीदास शोध पीठ, रविशंकर विश्वविद्यालय, रायपुर (छ.ग.)
गुरु घासीदास जी के पूर्वज उत्तरी भारत में हरियाणा के नारनौल के निवासी थे। वे सतनाम संप्रदाय से संबंधित थे। सन् 1672 में मुगल बादशाह औरंगजेब से युद्ध के बाद नारनौल के सतनामी यहां से पलायन कर गए। इनमें से कुछ उत्तर प्रदेश में जा बसे और कुछ उड़ीसा के कालाहांडी जिले में जाकर नौकरी-चाकरी कर या अन्य व्यवसाय कर अपना पेट पालने लगे। कुछ परिवार महानदी के किनारे-किनारे होते हुए मध्य प्रदेश में चंद्रपुर जमींदारी के क्षेत्र में जा पहुंचे। यह वह समय था जबकि बादशाह औरंगजेब ने यह फरमान जारी कर दिया था कि जो भी राजा, नवाब, जमींदार या सूबेदार इन सतनामियों को शरण देगा, उसे कठोर दंड दिया जाएगा और यह मुगल सल्तनत के खिलाफ बगावत मानी जाएगी। कु छ राजाओं, नवाबों, जमींदारों और सूबेदारों ने मुगल बादशाह के खौफ से इन सतनामियों को अपने इलाके से भगा दिया, कुछ ने इन्हें पकड़कर बादशाह को सौंप दिया और कु छ राजाओं ने इन्हें शरण तो नहीं दी, लेकिन राज्य से होकर दूर किसी राज्य में चले जाने की छूट ज़रूर दे दी। चंद्रपुर पहुंचे ये सतनामी यहां से महराजी नवापारा होते हुए सोनाखान के इलाके के जंगलों में जा पहुंचे। सतनामी बहुत ही बहादुर, स्वाभिमानी और परिश्रमी थे। इनको दूसरों की दया पर जिंदा रहना और उनके दिए टुकड़ों पर पड़े रहना मंजूर नहीं था। इन्होंने यह सोचकर कि जिन्दा रहेंगे जो संगठित होकर फिर अपनी अस्मिता कि रक्षा के लिए संघर्ष करेंगे। यहां के जंगलों को काट कर रहने योग्य बनाया। यहां की उबड़-खाबड़ पथरीली जमीन को खेती योग्य बनाया और खेती कर अपना भरण-पोषण करने लगे। इन्हीं सतनामियों में मेदिनीदास गोसाई का परिवार भी था, जिसमें आगे चलकर पौत्र के रूप में गुरु घासीदास ने जन्म लिया, जिन्होंने मनुष्य को सर्व शक्तिमान के रूप में माना।
गुरु घासीदास जाति-व्यवस्था को घृणित मानव कर्म व समाज के लिए सबसे बड़ा कोढ़ मानते थे। उनका मानना था कि यह जाति व्यवस्था ही है जिसके कारण देशवासियों को सैकड़ों सालों तक गुलामी का जुआ अपने कंधों पर ढोना पड़ा। जब तक जाति व्यवस्था रूपी कोढ़ का खात्मा नहीं होगा, जाति भेद-भाव खत्म नहीं होगा, तब तक देश में राष्ट्रीय एकता का सूरज उदय नहीं होगा। यह तभी संभव हो सकता है, जब देश में जाति-विहीन समाज की स्थापना हो। वह कहते थे कि इसी जात-पांत ने देश में समाज को कभी एक नहीं होने दिया। इसके कारण ही अछूत समाज कभी सम्मान की जिंदगी नहीं जी सका। उन्होंने समकालीन सामाजिक परिस्थितियों के आंकलन से निष्कर्ष निकाला कि जब तक यह बहुसंख्यक जातियां बिखरी रहेंगी, उनका इसी तरह शोषण-उत्पीडऩ होता रहेगा और सम्मान की जिंदगी जीने की योग्यता हासिल नहीं कर सकेंगी। वे यह जानते थे कि किस तरह मानव समाज का एक टुकड़ा अपने स्वार्थ के लिए पूरे समाज को भेड़-बकरियों की तरह हाँक रहा है और उन्हें आपस में लड़ाता रहता है। इसी जातिवाद की वजह से देश को सैकड़ों सालों तक विदेशियों और गुलामों का भी गुलाम रहने को विवश होना पड़ा। विसंगतियों से छुटकारा दिलाने उनमें स्वाभिमान पैदा करने व एकता स्थापित करने हेतु ही जाति-विहीन समाज की संरचना करने के लिए सतनामी धर्म की स्थापना की। असलियत में गुरु घासीदास ने जातिवाद के विरुद्ध समतावादी जातिविहीन समाज की स्थापना हेतु सुधार आंदोलन की जो नींव डाली, आगे चलकर महामना ज्योतिबा फुले, पेरियार, ई.वी. रामास्वामी, नायकर और बाबा साहेब डॅा.बी.आर.अंबेडकर ने उस मार्ग पर चलकर उनके सपने को कार्यरूप में परिणत करने की महत्वपूर्ण और युगांतरकारी कार्य करने में सफलता पाई।
असलियत में गुरु घासीदास व्यापक स्तर पर धार्मिक और सामाजिक पुनर्जागरण आंदोलन के प्रणेता थे। उनका प्रथम लक्ष्य था कि वह उस विसंगति को सबसे पहले जड़ से खत्म कर दें, जिसने छत्तीसगढ़ के आध्यात्मिक वैभव को पूरी तरह डस लिया था या विलुप्त कर दिया था। वह अक्सर लोगों से कहते कि तुम लोगों का तब तक विकास नही हो सकता, जब तक कि तुम्हें सामाजिक और आध्यात्मिक पतन से मुक्ति नहीं मिल जाती। इस हेतु उन्होंने आध्यात्मिक प्रकाश के स्रोत का सहेज कर बहुजन में आध्यात्मिक जागरण की आग पैदा की। नतीजतन उन्हें लक्ष्य में अपार सफलता मिली। उनका अटूट विश्वास था कि व्यक्ति जब भी भूखा पेट रहता है, उस स्थिति में वह धर्म की समस्याओं और उसके निदान के विषय में कभी नहीं सोच-समझ पाएगा। इसलिए सबसे पहली आवश्यकता है कि जीवन की प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति की जाए। क्षेत्र के भूमिहीनों ने घासीदास के प्रयास से खोई जमीनों को प्राप्त किया। परिणामस्वरूप वह आर्थिक रूप से संपन्न होते चले गए। बेगार प्रथा के पुरजोर विरोध का नतीजा यह हुआ कि इलाके सामंत तक भूमिहीनों, शूद्रों से बेगार करवाने से घबराने लगे और जो सैकड़ों सालों से सामंतों, जमींदारों गौटियाओं के बंधक थे, गुलाम थे, जो उन्हें न तो पूरी मजदूरी ही देते थे और उस दशा में उन्हें रोटी के लिए दर-दर भटकना पड़ता था तथा वे सड़ा-गला खाने को विवश थे, गुलामी से मुक्त हो सके। उन्होंने कुएं-तालाब खुदवाए जिससे गरीब, असहाय, हीन तबके लोग गंदे कीटाणुयुक्त पानी की जगह साफ पी सकें। घासीदास के कार्यों, उनकी साधुता, उनकी करूणामयी वाणी का यह परिणाम हुआ कि वह जहां भी जाते, अपने समाज के अतिरिक्त सभी वर्गो में जनता हो या राजा दोनों की ओर से अपार सम्मान मिला और बहुजन ने उन्हें सिर आंखों पर बिठाया। गुरु घासीदास का छत्तीसगढ़ अंचल में उस काल में प्रादुर्भाव हुआ जबकि समूचे क्षेत्र में सामाजिक-धार्मिक संरचना चरमरा गई थी, समाज में आंतरिक कलह पूरी तरह व्याप्त थी और अनाचार का सम्राज्य था। उस काल में घासीदास ने समाज में फैली कुप्रथाओं, रूढिय़ों, कुरीतियों को सबसे पहले समझा, उनका पुरजोर विरोध किया और जनता को इनसे निपटने का सशक्त मार्ग सुझाया। असलियत में वह इस अंचल में धार्मिक-सामाजिक आंदोलन के जनक थे। उन्होंने समर्पित लक्ष्य के जरिए क्षेत्र की जनता को सामाजिक-आध्यात्मिक पतन से मुक्ति दिलाई। समाज में किसी के बीमार होने, मृत्यु होने या फसल खराब होने को जादू-टोने का असर माना जाता था। टोने-टोटके और अंधविश्वास के जरिए बाबा और तांत्रिक आम जनता को लूट रहे थे। उन्होंने अपने उपदेशों के माध्यम से जनता को आगाह किया कि जादू-टोना, तांत्रिक क्रियाएं, देवी-देवता तुम्हारी किस्मत को बदल नहीं सकते। यदि ऐसा हो सकता तो तंत्र-मंत्र से किसी को भी मारा जा सकता, और न राजा सेनाएं रखते और हम सभी इस गरीबी के दुष्चक्र से निकलकर यश-वैभव की अपार संपदाओं से संपन्न होकर खुशहाल जीवन व्यतीत करते। अंधविश्वास की बेडिय़ों में जकड़े समाज को भय कर्मकाण्ड, मंत्रों और ताबीजों के जरिए शारीरिक बीमारियों को दूर करने की बैगाओं की साजिश से मुक्ति दिलाने के घासीदास के प्रयासों के परिणाम यह हुआ कि छत्तीसगढ़ अंचल को दलित-शोषित और अछूत लोगों ने आंतरिक शुद्धता के बल पर नैतिक नियमों का पालन करना सीखा और संपन्नता का जीवन जीने लगे। असलियत में घासीदास आत्मा, विचार और क्रिया से पूर्ण रूपेण विशुद्ध भारतीय थे और उनका समाज सुधार का आंदोलन उपदेश वहां की जनता के उद्धार का हथियार बन गए थे, यही वजह है कि वहां की जनता उन्हें अपना मसीहा, भगवान और उद्धारक मानती थी।
गुरु घासीदास ऐसे संत थे जिन्होंने तत्कालीन छत्तीसगढ़ी समाज में प्रचलित मान्यताओं, परंपराओं, धार्मिक क्रियाओं, आत्मा-परमात्मा के साक्ष्यों को अपने धर्मसूत्रों पर जांचा-परखा और यह निष्कर्ष निकाला कि ईश्वरवाद, आत्मा और पुनर्जन्म कोरी कल्पना है, बकवास है। वह कहते थे कि ब्रम्हा सृष्टि के जनक नहीं है, यदि ब्रम्हा थे तो उनके माता-पिता भी अवश्यक होंगे, उनको भी किसी मां ने जन्म दिया होगा और उसकी भी कभी ना कभी मृत्यु तो अवश्य ही हुई होगी। यह शाश्वत सत्य है कि जिसने जन्म लिया है, वह एक दिन अवश्य मृत्यु को प्राप्त होगा। मानव मृतक शरीर जीव पुनर्जन्म ही लेते है। इसलिए आत्मा की कल्पना करना ही बेमानी है, धोखा है। उन्होने नीम की निबौली का उदाहरण देते हुए कहा कि  नीम का मूल बीज पांच तत्वों से निर्मित होता है। इसी से वृक्ष का जन्म और वृक्ष में फल यानी निबौली उपजती है। निबौली बोने पर वह फिर से पेड़ बन सकता है। किंतु प्रथम पेड़ के सूखने पर क्या वह फिर से पेड़ बन सकता है? वह क्या फिर फल देगा?
यदि वह पेड़ सूखने पर फिर फल नहीं देगा, उसी तरह पुनर्जन्म की कल्पना मिथ्या है। गुरु घासीदास जी ने कहा कि जो भी प्राणी आत्मा, ईश्वर, भाग्य-भगवान, पुनर्जन्म और ब्राम्हणों को दान-दक्षिणा देने से अपने पापों की मुक्ति और स्वर्ग में जाने की इच्छा रखता है, वह अपने लिए दुखों का ताना-बाना बुनता है। करागार रूपी संसार में उपरोक्त में अटूट विश्वास रखना अंधविश्वास के अलावा कुछ नहीं है। ऐसे व्यक्ति के लिए तो सारा संसार अंधकारयुक्त है, सारहीन है, व्यर्थ है। क्योंकि ऐसा व्यक्ति आंख होते हुए भी ज्ञान रूपी प्रकाश को देखने से वंचित रह जाता है। इसलिए पुनर्जन्म की अवधारणा ढोंगी, पांखडियों तथा धर्म के ठेकेदारों द्वारा जो जनता को धोखे में रखकर उल्लू सीधा करना चाहता है, एक सोची-समझी भयंकर साजिश का ही हिस्सा मात्र है। गुरु घासीदास जी मानवतावाद के प्रर्वतक थे। उनके समाजिक समरसता के भाव ने छत्तीसगढ़ में जनजागृति उत्पन्न की। वस्तुत: उन्होंने राजा राममोहन राय से पहले ही छत्तीसगढ़ में समाज सुधार का कार्य आरंभ किया था। उन्होंने गरीबों की सेवा को मानव धर्म का अंग बताया है। सत्य, आहिंसा और मानवता गुरु घासीदास जी का मूल मंत्र था जिसने समाज को प्रभावित किया। कालांतर में महात्मा गांधी ने इसे अपना एक प्रबल अहिंसात्मक प्रयोगास्त्र बनाया। स्वतंत्रता आंदोलन के महान राष्ट्रीय कार्य में सतनामियों के धर्म गुरु घासीदास जी का उल्लेखनीय योग रहा। उन्होंने छत्तीसगढ़ के दलित समाज में स्वाधीनता और स्वावलंबन की भावना जागृत की। जिस समय गुरु घासीदास जी अवतीर्ण हुए उस समय छत्तीसगढ़ समाज विकृत दशा मेें था तथा पतन के कगार पर खड़ा था।
गुरु घासीदास ने सदियों से शोषित, पीडि़त दबे-थके-कुचले बहुजन समाज और अपने अनुयायियों के लिए जीवन में शिक्षा पर अत्यधिक बल दिया। कहते थे की सदा मुझे और मेरे पिता महंगूदास जी को भी जीवन भर इस बात का अफसोस रहा कि मैं पढ़ नहीं सका और इसमें भी दो राय नहीं हैं कि हमारे पिछड़ेपन का प्रमुख कारण शिक्षा से हम लोगों का दूर रहना है। चूंकि हमारा समाज शिक्षित नहीं है, हमें सदियों से मनुवादियों की सोची-समझी साजिश के तहत शिक्षा से दूर रखा गया है, इसलिए हमें कहीं भी न्याय नहीं मिल पाता है, क्योंकि सभी उच्चपदों पर उच्चवर्णीय लोग कुंडली मारे बैठे हैं। चूंकि बहुजन समाज शिक्षित नहीं है, इसलिए अधिकार से वंचित है, उसके साथ न्याय के नाम पर अत्याचार उत्पीडऩ और भेदभाव किया जाता है। सभी जगह अशिक्षित होने का बहुजन समाज को खामियाजा भुगतना पड़ता है। विडंबना यह है कि इसे हमारा समाज अपनी नियति मानकर चुपचाप बैठ जाता है। न्याय पाना केवल और केवल उच्चवर्णीय लोगों की बपौती नहीं है। सदियों से जोर-जुल्म, उत्पीडऩ और शोषण को भाग्यवाद का परिणाम मान कर चुके बहुजन समाज का तब तक उद्धार नहीं  होगा, जब तक कि उसमें शिक्षा के प्रति जागृति नहीं जाएगी। शिक्षा पाना हमारा पहला कर्तव्य है, तभी अन्याय का प्रतिकार करने मेें और समाज में बराबरी का स्थान पाने में हम समर्थ हो सकेंगे। इसलिए गुरु घासीदास जी ने बार-बार कहा कि पढ़ो-लिखो, एकजुट होओ। जब तक तुम ऐसा नहीं करोगे, खुद को भाग्य के भरोसे नहीं छोड़कर, कर्म कर आर्थिक रूप से मजबूत नहीं बनोगे, तब तक भूख, गरीबी, तंगहाली बदहाली और शोषण की जिंदगी से उबर पाना तुम्हारे लिए संभव नही है। असलियत में गुरु घासीदास ने ध्येय से भटके और गुलामी के अंधकार में जी रहे बहुजन समाज को जागृत करने व उन्हें जीने की सही राह बताने का महत्वपूर्ण व ऐतिहासिक कार्य किया। इस सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता।
गुरु घासीदास मानवतावाद के सच्चे उपासक थे। उन्होंने मानव-मानव के बीच भेद को भलीभांति समझा और इसीलिए उन्होंने समतामूलक समाज की स्थापना पर बल दिया। उन्होंने सैकड़ों-हजारों जातियों में जकड़े दलितों, अस्पृश्यों के शोषण को, उनके जातीय समाज को बहुत करीब से देखा था। इससे उनका हृदय दहल जाता था, बार-बार कांप उठता था। यही प्रमुख कारण रहा कि उन्होंने जाति-व्यवस्था को तोडऩेे का और समतामूलक समाज के निर्माण का सपना देखा, जिसमें न कोई ऊंचा हो और न कोई नीचा, न कोई छोटा हो, न कोई बड़ा, न कोई गरीब हो न अमीर। उसमें कोई और किसी किस्म का भेद न हो। वह कहते थे मनुवादी व्यवस्था ने सदियों से छुआछूत, शोषण और दमन को बढ़ावा ही दिया है और यह सिलसिला आज भी थमा नहीं है, बराबर जारी है। उन्होंने बहुजन समाज को सचेत किया कि ब्राह्मणवादी धार्मिक मत-मतांतर, भाग्यवादी, भोगवादी विचार और सगुण साकार ईश्वर को मानने वाली मान्यताएं-धारणाएं व्यक्ति को नाकारा और कमजोर बनाती हैं। यही नहीं वह स्वयं को उच्च व दूसरे को निम्न बनाए रखने की साजिश रचती रहती है। उन्होंने समाज को उन सभी बुराइयों से दूर रहने को कहा, जो मनुष्य और बहुजन समाज को पशुता की श्रेणी में पहुंचा देते हैं। उन्होंने जिस तरह भगवान तथागत गौतम बुद्ध ने 'संघम् शरणम् गच्छामिÓ का उपदेश दिया था, उसी तरह एक सतनाम, एक जयस्तंभ तथा एक सफेद ध्वज के नीचे सभी लोगों को आने का आह्वान किया ताकि सभी समान रहें। इसलिए उन्होंने 'सतनाम उपासकों का संघÓ भी बनाया। यह घासीदास जी के मानवतावादी दृष्टिकोण, जिसके तहत मानवतावादी समतामूलक जातिविहीन समाज के निर्माण का सपना था, का परिचायक है। वह आजीवन समानता के लिए प्रयासरत रहे, जो उनके जीवन की विशेषता और विशिष्टता का जीवंत उदाहरण है। उनके लिए मानव समाज का भला सर्वोपरि था।
गुरु घासीदास अनेक ब्राह्मणों का सम्मान करते थे, किंतु ब्राह्मणवाद के वे कट्टर विरोधी थे। उनका सदियों से शोषित, पीडि़त, वंचित, प्रताडि़त, दबी-थकी-कुचली जनता से कहना था कि जब तक तुम देवी-देवताओं की पूजा करते रहोगे, तब तक इस देश में ब्राह्मण टिका रहेगा। ब्राह्मणवाद का सबसे दुखदायी व खतरनाक पहलू उसका वर्ण व जाति विभेदक स्वरूप है। ब्राह्मणवाद में मानव और मानवता का स्थान सबसे निचले दर्जे पर है। दलितों की आज जो सामाजिक स्थिति है, वह प्राचीन काल से चली आ रही मनुवादियों की षड्यंत्रकारी नीतियों का ही नतीजा है, जिसका दुष्परिणाम आज समूचा बहुजन समाज भोग रहा है। तथाकथित ब्राह्मणी साजिश के चलते उच्च वर्ग में छुआछूत, जाति-पाति और अहंकार विद्यमान है। वह कहते थे कि ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने प्राकृतिक न्याय व प्राकृतिक अधिकारों से बहुजन समाज को वंचित रखने का सुनियोजित प्रयास किया। इस उद्देश्य में ब्राह्मणवादी व्यवस्था काफी हद तक सफल रही और उसने समूचे बहुजन समाज को अपना दास बनाने में कामयाबी पाई। उन्होंने इस साजिश को बेनकाब करने का बहुत प्रयास किया और जनता का आह्वान किया कि जब तक इस साजिश का मिल कर मुकाबला नहीं किया जाता, तब तक तुम्हारा गुलामी से निजात पाना असंभव है। उन्होंने जाति-व्यवस्था को तोडऩे का आह्वान किया और मानव जाति को सर्वोपरि महत्व दिया। उन्होंने ब्राह्मणवादियों के पाखंड से बहुजन समाज को जागृत करने के लिए अपने जीवन में कई बार मीलों लंबी, दूर-दराज के नगरों-कस्बों की यात्राएं भी की और इनसे सचेत रह कर अपना भला-बुरा सोचने व इसके खिलाफ एकजुट होने का आह्वान किया। गुरु घासीदास के उपदेशों व उनकी इस वैचारिक क्रांति के कारण ब्राह्मणवादियों की सदियों से स्थापित, अपने स्वार्थों हेतु बनाई व्यवस्था की नींव हिलती नजर आई और वे इससे बौखला कर उनके प्रयासों को नेस्तनाबूद करने में जुट गए। 
1. सुधारवादी आंदोलन को कुचलने की साजिश 2. एक कुशल कृषक गुरु घासीदास
3. गुरु घासीदास के विवाह की चिंता 4. सत्य की खोज में जगन्नाथपुरी की यात्रा
5. गुरु घासीदास का संकल्प 6. एकांतवास के समय छत्तीसगढ़ी समाज की दशा
7. तपस्या की समाप्ति और गुरु घासीदास का अवतरण 8. सतनाम का दैवी संदेश
9. गुरु घासीदास पर बिंझवार जनजाति समाज का प्रभाव 10. गुरु घासीदास का प्रभाव और सतनामीकरण 
11. तेलासी में विशाल मतांतरण समारोह 12. जैतखाम की सीमा पर बल
13. धर्म प्रचार यात्राएं 14. भंडारपुरी में 'सतनाम धामÓ की स्थापना
15. भंडारपुरी की गुरु-परंपरा 16. बहुजन समाज के स्व-सम्मान के लिए संघर्ष
17. गुरु घासीदास की रतनपुर यात्रा 18. अहंकार दान करने की राजा से अपील
19. नारी जाति के महान उद्धारक 20. विधवा विवाह के पक्षधर
21. कोढिय़ों के मुक्तिदाता 22. मूर्ति पूजा व मंदिर प्रवेश के प्रबल विरोधी
23. सूर्योपासना व दान-पुण्य का संदेश 24. पशु प्रेमी गुरु घासीदास

सत्य ईश्वर नहीं

"सत्य ईश्वर नहीं हैं,भले ईश्वर में सत्य हो सकते हैं "

           ईश्वर एक अलंकृत नाम हैं। और उनका होना संदिग्ध हैं। अब तक उन्हे किसी ने नही देखा न उनकी प्रत्यक्ष  कृपा आदि लोगों मिला है ।मन बहलाने या भक्ति की  स्वप्निल  दुनिया मे विचरण हेतु या पीडा सुनाने के लिए प्रार्थनाएँ करने के लिए मनौतिया मांगने के लिए  ही उनकी ईजाद मानव समुदाय ने कर लिया जान पड़ता है।
  इस तरह देखे तो ईश्वर मानव समुदाय का उन्नत परिकल्पना हैं। इनका अर्थ हैं जो ऐश्वर्यवान हो वह ईश्वर हैं। कलान्तर में  राजा व  राजकुमारों को उनके प्रतिनिधि या अवतार मान कर उनकी चरित लिख कर उनकी भक्ति या  अराधना की परिपाटी विकसित हुई ।उन्ही के आधार पर प्रतिमा चित्र आदि बनाकर उन्हे मंदिर मठ जैसे अलंकृत इमारतों में स्थापित कर दी गई । चारण भाट और यश कीर्ति गायक कवि मनोहर काव्य रचकर मिथकीय स्थाप‌ना को फ्रेमित या रुढ़ कर दिए गये।और तो और अनेक तरह कथा कहानी गढ़कर  "हरि अनंत हरि कथा अनंता" कह महिमामांडित किया गया। नेति-नेति कह सामूहिक वेद  गान लगे।  विश्व के अधिकांश देश में अलग -अलग धर्म एंव मान्यताओं  के अन्तर्गत कथित और कल्पित सर्वशक्तिमान को ईश्वर मानकर उन्हे साकार- निराकार  स्वरुप दिए गये । सगुण -निर्गुण कह उनकी महत्ता गाई जाने लगी।कलान्तर में उसी अज्ञेय ब्रम्ह, रब ,खुदा,व  गाड आदि जो है या नही है के भ्रम में लिपटा रहस्यमय  कर दिए गयेहैं। के अधीन लोग रहस्यमय साधना पद्धति विकसित कर लिए ।कुछ तो उन्हे अनुभूति जन्य कहकर महिमामांडित करते हैं।
      बाहरहाल सत सच सत्त और सत्य एक भाव व  गुणवाचक संज्ञा  हैं। वह कल्पित अलंकृत महिमामय  रहस्यमय सगुण-निर्गुण साकार- निराकार मानव  अवतार एक  पात्र जैसे कैसे होन्गे? 
सत्य गुण है और कथित ईश्वर एक जीवधारी प्राणी हैं।
    एक व्यक्ति सतधारी हो सकता हैं। वह सत्य को मान सकता हैं,उनका अपेक्षित प्रयोग कर सकता है। इसलिए दोनो का धालमेल अनावश्यक हैं।महत्वपूर्ण सत्य हैं ,प्राण धारी व्यक्ति पशु पछी या अन्य जीवधारी नहीं ।
 सत्य किसी पारलौकिक ग्रह या दुसरी दुनिया की भी नहीं वह इसी धरती और लगभग सभी व्यक्ति के मन हृदय में बसा हुआ हैं-" घट घट  म बसे हे सतनाम "
      जैसे ही  कण कण में बसे है भगवान या ईश्वर  कहे तो जाते हैं। पर एक अवतार शरीर धारी चीज कैसे ऐसे होगा संभव ही नहीं ।
   अनेक पात्र आए भगवान ईश्वर जैसे गरिमामय नाम को धारित किए ।बावजुद वह सत जैसा अशरीरी नही है।
  तब कैसे हम सत्य ही ईश्वर है कह सत को ईश्वर माने ।
      सत केवल सत हैं यह न मिथक है न इसे किसी ने  ईजाद की न जन्म दिया न बच्चे युवा हुए न शादी ब्याह कर लीला आदि  दिखाए न सिखाए ।इसलिए भी सत्य को ईश्वर के साथ तुलना करना चाहिए न उनके जैसे होने की अवधारणा विकसित करना चाहिए। इससे सत्य साम्प्रदायिक व ईश्वरवादी -अनीश्वरवादी, सगुण- निर्गुण, साकार -निराकार के चक्कर में फसकर अपनी विशिष्ट महत्ता खो देन्गे।
   एक चीज हैं सत्य सबमें निहित हैं। पर सभी सत्य मे निहित हो ऐसा संभाव्य नहीं ।
जैसे कल्पित  ईश्वर में सत्य मिल  सकता हैं। पर  सत्य मे कल्पित ईश्वर या उनके अवतार आदि मिले यह संभव नहीं ।
    अत: सत्य ही ईश्वर हैं यह नहीं हो सकता ।यह प्रछिप्त या भ्रामक पर अलंकृत  स्थापना है।भले ईश्वर सत्य हो सकता हैं।
      ईश्वरीवादियों का मनभावन खुबसूरत वाक्यांश है - "सत्य ही ईश्वर हैं " यह चमकदार तो हैं पर कृत्रिम है।प्राकृतिक  नहीं ।

कोई प्राणी या मानव  महान तब हैं वह सत्य को धारण कर आचरण व व्यवहार में लाते हैं। तभी  सतधारी होता है। न कि बिना इनके अपने चेहरे मोहरे रंग रुप वंश जाति कूल राजे रजवाडे के ऐश्वर्य के कारण।
      

 डा. अनिल भतपहरी‌  
जुनवानी ,रायपुर छग

Tuesday, April 14, 2020

भीम गीत

भीम गीत 

बनाये कानुन भारत के अनमोल रतन ..
डाक्टर भीमराव अम्बेडकर तोर  पइय्या परन..
 
जनम लिए महु गाव, भीमा बाई के कोख  मे 
रहिस पिता रामजी सकपाल  सुबेदार फोज मे 
तेकरे सेती स्कुल पढे बर बढगे चरण .. 

नान्हेपन म भोगे तय छुआछूत के पीरा।
बरनन करे म हो जाही हिदय के चीरा।
मुख ल निकले नही सिसकी न बोली बचन ...

हुशियार भीम ल मिलिस पढे बर वजिफा।
विदेश म  जाके पाईस बैरिस्टरी  शिछा।
कुलकत आइस भारत होके मगन...

पढलिख के बिदेश ल आये तय देश म 
 देख के रो डारे देश के भेस ल 
एक तो देश रहय अन्गरेज के गुलाम 
दलित के पुछइय्या नही गुलाम के गुलाम 
बदला म लात मिले करे त परनाम 
जीयत मनसे ल मुर्दा बनाये हाय रे हिन्दु धरम ...

नौकरी चाकरी छोड करे तय जनसेवा 
सबकुछ गवाये बाबा हीरा कस गंगाधर बेटा 
डिगे नही  बिपत म तय, करे अपन करम ..

संविधान रचके बाबा ,देहस मुल मंत्र 
शिछित बनो संगठित होओ  करो संधर्ष
 तोर सपना ल पुरा करबोन, लेवत हन परन ...
  "अम्बेडकर जयंती परब के बिक्कट  बधाई "
जय भीम जय भारत 
💐🙏💐🙏💐🙏💐🙏💐
- डा अनिल भतपहरी

                     जयंती पर कृतज्ञ राष्ट्र का सादर अभिवादन ... जय भीम

उक्त गीत को श्रवण करने निम्न लिंक को टच करे -

https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=1543259745829200&id=100004355672502

Saturday, April 11, 2020

क्रांति द्रष्टा - मंत्री नकूल देव ढ़ीढी



"क्रांति द्रष्टा : मंत्री नकूल देव ढीढी"
महान मानवतावादी विचारक और छत्तीसगढ़ मे गुरु घासीदास के सिद्धान्त "मनखे मनखे एक" को व्यवहारिक धरातल मे स्थापित करने मे मह्ती भूमिका निभाने वाले क्रान्तिद्रष्टा मंत्री नकूल ढीढी का जन्म १२ अप्रेल १९१४ मे भोरिन्ग महासमुन्द मे हुआ।आपके  कारण ही  सर्व समाज मे पौनी पसारी राउत  नाई धोबी  प्रथा का प्रभावी  प्रचलन  हुआ ।पारंपरिक शोषण वृत्ति के जगह सेलुन लाण्ड्री  जैसे नवीन व्यवसाय शहरो और बडे ग्रामो मे खुले और ये श्रमिक जातियां सांमती शोषण से बचे‌
परित्यक्ता विधवा विवाह हेतु  चूडी पहनाई  और बरंडी जैसे गुरु घासीदास प्रवर्तीत  नवीन प्रथाओ का प्रभावी रुप मे प्रचार प्रसार कर महिलाओ की दयनीय दशा को सुधारने मे अभूतपूर्व  कार्य किया।अपने पुश्तैनी अस्सी एकड जमीन और उसके आय को सामाज सेवा को समर्पित कर दिये।
   नकूल देव ढीढी एक ऐसे समाज सुधारक व सेवक रहे जो पद प्रतिष्ठा के लिए नही बल्कि समाज के  स्वाभिमान व आत्मसम्मान  के लिए  आजीवन संघर्ष किया।
हिन्दू और सतनामी‌ छग के गांवो मे समान रुप से बसे है इसके बावजूद दोनो के बीच एक सांस्कृतिक रुप से स्पष्ट विभाजन देखे जा सकते है।किसी भी गांव मे भले जातिय बसाहट हो पर अधिकतर सभी जातिया चाहे वह ब्राह्मण छ्त्री वैश्य या शुद्र मे अनगिनत पेशेवर जातिया यथा  तेली, तमोली, कुरमी कोयरी,  मरार, महार  ,लुहार रावत, नाई, धोबी, गाडा मेहतर चमार मे भोलिया रौतिया  मेहर  मोची  सभी एक साथ एक दुसरे से अभिन्न रुप. से आबद्ध है।और वे   अनेक भिन्नता के बावजूद हिन्दू है।क्योकि उन सबके कुल देवता अलग अलग है। पर सारे देवी- देवता त्रिदेव के अधीन बहु देवोपासना  है। इन सबसे अल्हदा
एकेश्वरवाद सतनाम सतपुरस के अवधारणा से सहज कर्मयोग पर आधारित सतनाम धर्म. और इसके अनुयायी सतनामी है।जो समानता और गुण के आधार पर संगठित है। मनखे मनखे एक जैसे उदात्य सिद्धान्त और जाति वर्ग विहिन समाज जो सबको अपने मे सागर सदृश्य समाहार करते है।   इसलिए जात पात भेदभाव उच् नीच वाले हिन्दू लोग  इन से द्वेष जनित व्यवहार करते है  और मेलजोल से इसलिए बचते है कि सतनामी न बना  ले।अपने मे समा न ले !
मंत्री जी   हिन्दुओ के  इन्ही वर्जनाओ और द्वेषभाव के विरुद्ध शंखनाद करने वाले कुशल क्रांतिकारी योद्धा थे।
   उनका संग्राम संवैधानिक रहे। वे दो टूक साफ साफ कहते - यदि हमे हिन्दू मानते है तो पौनी पसारी की सुविधा  मिले।यदि नही तो दोषी को कानुन सजा दे। या तो हिन्दू से हमे  पृथक करे। उनके भाषण तर्क सम्मत सरल व हृदयग्राही थे।वे तत्कालीन सभी राजनेताओ मे मुखर थे।समाज कल्याण हेतु अनगिनत मुकदमे लडे।
फलस्वरुप वे  जनमानस के हृदय में राज करते आ  रहे है। उनके जाने के बाद  समाज उन्हे मंत्री  और दादा जैसे आत्मीय शब्दो से संबोधित करते है।
  ईसाई और बौद्ध धर्म की सिद्धान्त और विशेषताओ ने उन्हे प्रभावित किया। आचरण गत शुद्धता और सादा जीवन उच्च विचार ,परोपकार विरासत से उन्हे सतनाम से मिला ।फलस्वरुप उनके व्यक्तित्व एक युग द्रष्टा संत सदृश्य रहे।सतनामी समाज मे वे कुशल प्रबंधक, जंयती मेले जैसे वृहत बडे  आयोजन 
कर्ता के रुप मे विख्यात. थे।
१९३० महज सोलह वर्ष के उम्र में आपने खेलुराम और महन्त बरनू कोसरिया के साथ तमोरा महासमुन्द  जंगल सत्याग्रह में भाग लेकर गिरफ़्तार हुए। अपने 
गांव  भोरिंग मे उत्साही नवयुवको के साथ मिलकर रामलीला का मंचन करते रावण का अभिनय करते और बेहतरीन पारंपरिक  मंगल भजन पंथी  संकीर्तन भी करते। पहले- पहल कांग्रेस व गांधी के प्रभाव में रहे गांधीवादी ईसाई पादरी एस डी एम सिन्ह जो गुरुकुल कांगडी के संचालक थे के प्रभाव से आपने रामलीला के जगह सामाजिक चेतना लाने हेतु १९३६ - १९३८ में  गुरु घासीदास जंयती व संकीर्तन आरंभ कर परिछेत्र मे प्रसिद्धी प्राप्त किए । १९४२ अग्रेज भारत छोडो आन्दोलन में वे अपने साथियों सहित भाग लिए। इसी दरम्यान वे कुछ सडयंत्रियो ने  धर्मगुरु मुक्तावन दास को  हत्या के  झुठी मुकदमा में फसा कर जेल भिजवा दिये उसके लिए संधर्ष किए और डा अम्बेडकर के प्रतिनिधि वकील बाबू हरिदास आवडे से संपर्क कर डा को पैरवी के लिए तैय्यार करवाए और बा इज्जत बरी करवाए। इस तरह संपूर्ण सतनामी जगत में वे विख्यात हुए।आगे चलकर आपने   डा अम्बेडकर के शेड्युल कास्ट फेडरेशन  से जुडकर आजीवन उनके मिशन को गतिमान रखे आप आर पी आई. के संस्थापक सदस्य रहे। म प्र. गठन के पूर्व से ही सीपी एण्ड बरार के समय १९५१ में पृथक छत्तीसगढ़ के परिकल्पना कर अपनी बाते रखते रहे।
   आर पी आई के बैंगलोर अधिवेशन मे पृथक छत्तीसगढ हेतु आवाज बुलंद किए इनके लिए  आन्दोलन चलाए व १७ अक्टबुर १९७२ से सत्याग्रह  मे बैठे १० दिन बाद २७ अक्टूबर  १९७२ को गिरफ्तार कर लिए गये इस तरह वे   प्रथम जेल यात्री रहे।अपने १९ सहयोगी सहित जेल यात्रा करके वे मिशाल कायम किए। उनके अनन्य सहयोगियो मे नन्दूनारायण भतपहरी, रामचरण, इन्द्रदेव टंडन, सुखरु प्रसाद बंजारे  र म ई फत्तेलाल ,रामलाल, किशुन सुकालदास भतपहरी धनिराम सखाराम चन्द्रबलि किशुन  गेन्डरे धनसिह भिछु रामेश्वरम ,कोन्दा प्रसाद बधेल,.मनोहरलाल. भीषम्देवढीढी, बाबु हरिदास आवडे  खेलुराम टंडन दौव्वा आवडे, महंत बरनु कोसरिया , जैसे सैकडो प्रतिबद्ध सहयोगी के साथ सामाजिक जागरण के कार्य मे संल्गन रहे डा अम्बेडकर के विश्वस्त लोगो में आपका नाम रहे।आपने  विदर्भ वादी नेता  बी डी खोब्रागढे दादासाहेब रुपवते  आर एस गव ई देवीदास वासनिक जीएस कट्टी समता सैनिक दल के अध्यक्ष ए आर बाली प्रख्यात बौद्ध भिछु भदन्त आनंद कौल्यायन इत्यादि के साथ मिलकर डा अम्बेडकर चेतना और मिशन को आजीवन समाज में विस्तारित करते रहे।   
वे कुशल प्रवक्ता संकीर्तन कार कानुन के जानकर थे।
डा अम्बेडकर के निकटस्थ सहयोगी वे रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया के छग प्रभारी रहे और आजीवन रायपुर महासमुन्द आरंग  लोक सभा / विधान सभा चुनाव लडते बहुमुखी प्रतिभा के  धनी मंत्री जी सामाजिक चेतना को गतिमान करते हुये १६ अगस्त १९७५ को सतलोक प्रयाण कर गये।
ऐसे क्रान्ति द्रष्टा और युग सचेतक महापुरुष मंत्री दादा  नकुलदेव ढीढी के पूण्यतिथि 
अवसर  पर सादर श्रद्धांजलि उन्हें शत शत नमन -----
    
जय जय हो मंत्री नकुल देव ढीढी 
तोर पूजा करही पीढी पीढी ।।

       सत श्री सतनाम
डा. अनिल भतपहरी सी ११ ऊंजियार सदन आदर्श नगर अमलीडीह रायपुर छग 
💐🙏💐🙏💐🙏💐🙏💐

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Friday, April 10, 2020

जुगुलदास सतनामी उर्फ चरनदास चोर

जुगुलदास सतनामी उर्फ चरनदास चोर 

रायपुरा डौडी निवासी जुगुलदास सतनामी के सच बोलकर चोरी कर जरुरत मंद को दान करने की सच्ची कहानी  से प्रेरित नाचा- गम्मत से हबीब तनवीर चरणदास चोर की कथानक बुनते हैं। पर उसे  गुजराती कहानीकार विजयदान देथा की कहानी से प्रेरित बताकर क्या छत्तीसगढ़ के इतिहास प्रसिद्ध   सांस्कृतिक अवदान की जाने- अनजाने में अवहेलना नहीं कर रहे हैं क्या ?
    इस संदर्भ में हमने विगत कुछ वर्षों से सोसल मीडिया में तथ्य रखे है। जुगुलदास के वंशज और उनके जानकर लोग भी  इस बात से नाराज हुए है।इनके संदर्भ में वरिष्ठ साहित्यकार दादूलाल जोशी के संस्मरण भी रेखांकित करने योग्य हैं कि बचपन में वयोवृद्ध जुगुलदास उनके दादा के निकट थे और वे उनके घर फरहद राजनांदगांव आते जाते रहे हैं।

पूर्व पोष्ट पढ़े -
"जुगुलदास सतनामी उर्फ चरणदास चोर "
    विश्वविख्यात  छत्तीसगढ़ी लोकनाट्य चरणदास चोर जिसे कई विद्वान  गुजराती लेखक विजयदान देथा कृत चोर-चोर कहानी से प्रेरित मानते हैं ।अभी -अभी‌ किशोर साहू सम्मान हेतु विख्यात फिल्मकार श्याम बेनेगल ने भी पद्मविभूषण हबीब तनवीर को उसी कहानी के बारे में बताने का जिक्र किया। इस तरह यह तेजी से विगत कुछ वर्षों से स्थापित होते जा रहे हैं कि चरणदासचोर गैर छत्तीसगढ़ी कथानक हैं।
      बाहरहाल यह देथा की काल्पनिक  कहानी से प्रेरित हो तो सकते हैं। पर छत्तीसगढ़ का जीवन्त पात्र जिनके सभी कारनामे यथावत इस नाटक में हैं। उस जुगुलदास सतनामी के संदर्भ में जानकारी देना इस आलेख का मुल प्रयोजन है।
        हमारे शिक्षक  पिताश्री सतलोकी सुकालदास भतपहरी बहुमुखी प्रतिभा के धनि थे और अपने स्कूल में अन्य सहयोगी शिक्षक और छात्रों को लेकर शौकिया अभिनय व  रंगमंच करते थे ।चरणदास चोर को वे तनवीर  साहब से अलग हर साल ८-१० बार १९७५-९५ तक रचते रहे। और  नये नये प्रयोग करते रहे । हमलोग बचपन से उनमें रमे रहे। उजागर रतन एंव गुरुबाबा जिसे साधु कहे गये का रोल हम निभाते रहे। पिताजी चरणदास  चोर बनकर  -पैलगी गुरुबबा कहते ....और हम  जीयत राह बेटा अम्मर राह कहते तो बाप बेटे की इस संवाद से दर्शकों में एक अलग समा बंधता ।  जब चरणदास को भाले से छेदकर मारने वाली करुण दृश्य आते तो लगभग सिहरते हुए कह ता - जीयत राह ....... बेटा ...... अम्म र .....राह तो दर्शक दहाड मार रोने लगते ..... महिलाओं की दशा दर्शनीय होते !  खैर करुणा और  संवेदना का वह मंजर हमने आजतक कही नहीं देखा न जिया । 
       एक बार धीवरा खरोरा में १९८२-८३ में टेडेसरा की नाच पार्टी चरणदास चोर गम्मत लेकर आए उसे देखने गये।स्वर्णकुमार वैद्य जो उसके संचालक थे ने चरणदास के संदर्भ में जानकारियाँ देने लगे कि यह जुगुलदास सतनामी के जीवनी से गढे गये लकनाट्य हैं। वे देशी राबिनहुड थे और धनिको से उनके धन  को लूटकर गरीबो मे  में बाटते थे। सतनामी धर्मगुरु से दीछा लेकर आजीवन सत्य को धारण कर ऐसा ही जनकल्याण करते रहे। 
    यह बचपन की सुनी बाते जेहन में रहा। आगे जब जब इस पर चर्चा होते हम सविनम्र स्वर्णकुमार वैद्य जी के धीवरा मे कही बाते दुहराते। पर कोई साछ्य नहीं जुटा पाए न जुटाने की जहमत उठाए। हमने हबीबतनवीर व उनके कलाकार मंडली गोविन्द निर्मलकर आदि से डोंगरगढ के कार्यशाला में  १९९४ मे सी डी डोन्गरे स्टेशन मास्टर   के मार्फत मिले  जो कभी हबीब साहब के अजीज थे।पर इस संदर्भ में कोई जिक्र नहीं किए क्योकि तब यह बात ही नहीं था। और हम चरणदास को जुगुलदास की ही कथा समझते रहे।
पर विगत कुछ वर्षो से यह बात तेजी से फैलती जा रही हैं कि चरणदासचोर की कथानक गैर छत्तीसगढ़ी हैं। और यहां के जनजीवन से कोई वास्ता नहीं । तब हमारे बालपन से बसे वह बात भीतर भीतर मथने लगा कि ऐसे कैसे जुगुलदास को दफ्न कर दे।
   तब हमारी अपनी और सबकी मीडिया सोशल‌ मीडिया में इसे पोष्ट किया।सौभाग्यवश राजनांदगांव फरहद निवासी वरिष्ठ  कलाकार सेवानिवृत्त  व्याख्याता व रचनाकार डा दादूलाल जोशी सप्रमाण  कहे कि उनके पिता श्री जो सनाड्य व सम्मानिय रहे से मिलने जुगुलदास आया करते थे ।वे निर्धनो में अत्यन्त लोकप्रिय रहे। वे भी स्वीकृति दिए की जुगुलदास ही चरणदास रचने के प्रेरणा पुरुष थे। इस तथ्य को यहां के लोगों को भलीभांति समझना चाहिए। हबीब साहब को‌ कोई मौखिक में जुगुलदास के संदर्भ में बाताए भी होन्गे।जैसे बहादुर कलारिन, हिडमा और अन्य ऐतिहासिक पात्रों के संदर्भ में बताए और वह मंच में सजीव हो उठे।
     बाहरहाल जुगुलदास रायपुरा डौडी के निवासी थे और अपने आसपास राबिनहुड छवि के कारण जनमानस में लोकप्रिय रहे।और जीते जी किवदन्ती हो गये। उन्हे जनमानस जाने समझे और अन्वेषक इस दिशा  में गहनता से काम करे ऐसी आपेछा हैं। 

      जय छत्तीसगढ़ 
डा. अनिल भतपहरी

अनीश्वरवादी स्वर -२

चिंतन २

             ।।अनीश्वरवादी स्वर ।।

      कल तुम्हे ईश्वर बनना है , प्रकृति तुम कितनी बेरहम हो‌  ,स्वाभिमान का सुगंध , कहे- माने  जैसी  हमारी कविताएँ हो या चाणक्य अप्रासंगिक ,आह्वान (अ)धर्मानुरुप राजनीति ,  अम्बेडकर  और  हिन्दू बनाम इस्लाम  जैसे अनेक  आलेख यह हमारी वर्षो पुरानी रचनाएँ  हैं। जो देश के विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं में प्रकाशित व चर्चित हैं। 
   इन सबमें अनीश्वरवाद का  स्वर अनुगूंजित है। तब न कोई  कोरोना थे न कोई अन्य महामारी का  डर -भय था।बल्कि देश भर में बाबरी मस्जिद ढहने के बाद धार्मिक उन्माद में  ईश्वरीय  भक्ति  खुदाई  इबादत  का लहर था। महाआरती महाअजान शोभायात्रा जुलूस का अभूतपूर्व मंजर था। देश में भजन कीर्तन सत्संग का बहार था और शीध्र सतयुग आने की उम्मीद में लोग घर घर शाम दीप प्रज्ज्वलित कर प्रतीक्षारत  व्यग्र हो रहे थे। इस  बीच जरुर लातुर के भीषण  भूंकप हो  था और एक बार फिर लोग अपने अराध्यों के अराधना करते ‌ उनके साथ जमींदोज  हो गये थे। ऐसे में   बुद्ध ,गुरुघासीदास नीत्से,और  मार्क्स के विचार जेहन में ‌जरुर रचे -बसे थे‌। तीस वर्ष पूर्व जब हम २० वर्ष के थे तो मेरी कविता नवभास्कर रायपुर १९८९  ( अब दैनिक भास्कर ) में  "कल तुम्हें ईश्वर बनना हैं"  प्रकाशित हुआ तब भी  ईश्वर वादियों की कटु आलोचनाएँ सहना पड़ा ।
   और अब भी सहने पड़ते हैं।
   तो इन सब आलोचनाओं के  आदत  विगत ३० वर्षों से हैं। नवभारत में हमारी विचारोत्तेजक आलेख चाणक्य अप्रसांगिक १९९२  साहित्यिक व बौद्धिक जगत उद्वेलित हो गये थे तब टीवी में चाणक्य सिरियल चल रहा था और शिक्षक समुदाय चाणक्य रथ चला रहे थे।
       इसी तरह एक लेख के चलते एक महिने गांव में संपादक के निर्देश पर  गुमनाम अंडर ग्राऊण्ड रहे। अनिल आशांत तब से शांत हो वह उपनाम हिन्द महासागर में डुबो दिए। फिर पीड़ित मानवता के लिए राहत के प्रार्थनाएँ करने वाले स्वर निःसृत कर सुकून पाने लगे।इस बीच अतिवाद और अराजकताएं व वर्जनाओं के विरुद्ध स्वर मुखर व प्रखर ही रहे। 
     क्योंकि  जो सच हैं उनके उद्धाटन में लगे रहते हैं। और यही हमारा ध्येय व प्रयोज‌न हैं- 
अर्थ नहीं धर्म नहीं मोक्ष नहीं
आत्म प्रशंसा,यशादि व्यर्थ सही 
जो है उसे साफ कहने आया हूँ 
सोये रहोगे कब तक जगाने आया हूँ ...
   यह तो १९८९ में ही तय हो चूका था।पर जब  २००७ में  कब होही बिहान  काव्य संग्रह सद्य: प्रकाशित हुई तो उसमें  संगृहीत हुए।
 हालांकि हमारी इन प्रयास में तथाकथित सच प्रेमी भी उद्वेलित  होकर यदा कदा  जिन्हे समझ नहीं आते या प्रायोजित ढंग से आलोचक हो जाते हैं। या फिर यु ही कीर्तिमान होते देख समव्यस्क सहज ईर्ष्या भाव के चलते प्रतिकार कर बैठते हैं ।  फिर लंबी क्षमा याचना या  नजर न मिलाने के कारण दूरियाँ बना लेते हैं। 
   बहरहाल इन सबसे बेफ्रिक हम बिना यश --कीर्ति के चाह लिए अपनी विवेक और स्वाध्याय लेखन पर रत रहते हैं। इस दरम्यान कही -कही प्रशंसित व सम्मानित भी हो जाते हैं। जो और  हमें‌ भी बेहतर करने प्रेरित करते हैं।
       कोरोना का कहर से मुक्ति हेतु हमारे चिकित्सकों की ईलाज व  सलाह  और शासन -प्रशासन द्वारा   बरते जा रहे सावधानियां व उपाय जिनमें लाकडाउन कर्फ्यू क्वारंटाइन को कडाई से  अपनाते माक्स, ग्लब्स का इस्तेमाल और बार बार सेनेटाइराईज़ करते रहना ही आवश्यक व प्रभावी बचाव हैं। न कि कल्पित मिथकीय अलौकिक शक्तियों के ऊपर अंध श्रद्धा व भक्ति ।
          श्रुतियों व मान्यताएँ नहीं अपितु ज्ञान -विज्ञान और सही संज्ञान चाहिए।  
      -डा. अनिल भतपहरी 9617777514

Sunday, April 5, 2020

महुरा घोर तय पियाए नहीं ओ

मोहिनी सुरतिया तोर नैना मारे के बान 
जीव होगे हलकान अउ छुटत हेपरान‌
 नंजर भर देखे नही ओ न  गुठियाए नहीं ओ ...

कोजनी का गलती होइस मोर से 
कइसे पिरित  रानी जागिस तोर से
कहना मोर चिटिक, पतियाये नहीं ओ ...

दुरिहावत हस त एक जिनिस बतादे 
झटकुन मर जांव अइसे लिगिरी लगा दे 
महुरा घोर के तय काबर पियाए नहीं हो ..

जातिवाद दंश से उत्पीड़ित - छत्तीसगढ़

जातिवाद का दंश से उत्पीड़ित छत्तीसगढ़ 

   देश के इन हिन्दी राज्यों में भीषण जात- पात और सामाजिक वैनष्य भी पिछड़े पन का प्रमुख कारण हैं। 
खासकर छत्तीसगढ़ के मामले में यह स्पष्टतः देखे जा सकते हैं- 
छत्तीसगढ के पिछडे़पन का प्रमुख कारण जातिवाद हैं।
परन्तु दूर्भाग्यवश इनके उन्मूलन का कभी प्रयास नहीं किया गया। बल्कि पर प्रांतीय कथा वाचकों, कथित  धार्मिक कर्मियों के द्वारा जातिवाद को पोषित किया गया।
  यहां प्रचुर नैसर्गिक व मानव  संशाधन हैं। परन्तु उन लोगो का उचित दोहन या उपयोग ही नहीं किए जाते।लाखों मेहनत कश मजदूर जीतोड मेहनत करने अन्यत्र पलायन कर जाते हैं। और बाहर से लोग आकर यहां छुटपुट व्यवसाय  निजी व शासकीय नौकरी वसुली शराब भट्ठियों और रोज नगद बाट कर रोज वसुली का गेम हमारे ग्रामीण व शहरो के झुग्गी झोपड़ियों में ब्याज और महाजनी का अवैध करोबर चला रहे हैं।
  सुखा अकाल या बेमौसम बारिश का मार कृषक पर ही सर्वाधिक पडता हुआ इन सबके होते हुए भी ग्रामीण अंचलों में जातिभेद चरम हैं। परस्पर मन मुटाव व ईष्या द्वेष के चलते  अधिकतर लोग थाना कोर्ट कचहरी में रगडा रहे हैं। भले लोग छत्तीसगढिया सबले बढिया व सिधवा कहे जाते हैं। पर हकीकत में ऐसा नहीं हैं। 
      चुनाव  बिना शराब मांस व प्रलोभन के संपन्न ही नहीं होते।और जो अकुत धनराशि खर्च कर जीत जाते हैं। अपना खर्च वसुलते हैं।  इस तरह देखा जाय तो अनेक तरह की समस्याएं हैं।
       बेरोजगारी शराब नशा खोरी से छत्तीसगढ आक्रान्त हैं।
 राजस्थान हरियाणा पंजाब से बडी बडी ट्रेक्टर हार्वेस्टर एंव सडक निर्माण में जेसीबी हाइवा रोडरोलर आदि से यांत्रिकी करण बढने से मानवीय श्रम कृषि व  लगभग बडी निर्माण में खत्म सा हो गये हैं।
           सरकार का दावा जो हो पर जमीनी सच्चाई यही हैं। ग्रामों में केवल बुज़ुर्ग व्यसनी व प्रमादी व बीमार लोगो का जमवाडा हैं। जो सक्रीय हैं वे शहरों में बन रहे कालोनियों भवनो में राजमिस्त्री लेवर के रुप में खप रहे हैं।अक्सर कुछ लोग कहते हैं कि छिटपुट. पंचायतों में सरकारी काम मिल जाय पर भुगतन समय पर नहीं है इसलिए शहरों में पलायन जा्री है। भला हो नीजि बिल्डरो कालोनाइजरों का जिन्होने बडी संख्या में  इन लोगो को रोजगार उपलब्ध कराए हैं। अन्यथा अन्यत्र  पलायन ही एक मात्र विकल्प रहा हैं। जबकि यह तो होना ही नहीं चाहिए।
      अधिकतर कालोनाइजर विगत १००-१५० वर्ष पूर्व आए पर प्रांतिक लोग हैं जो शहरों के इर्द गिर्द बसे ग्रामीणों की कृषि भूमि येन केन प्रकरेण बेचने मजबूर करते हैं। और उन जमीन को आवासीय प्लाट में विकसित कर मनमाने दामों पर बेच करोड़ों कमा रहे हैं। यह विडबंना हैं कि किसान जमीन बेचकर  जो पैसे मिले उसे अनाश शनाप जुए शराब आदि में खर्च कर २-४ साल में फूंक देते हैं। या प्रायोजित चीट- फंड  कंपनियां आकर भ्रामक व रंगीन  सपने दिखाकर सबकूछ लूट रहे हैं। इस तरह दखते  हैं कि कुछ वर्ष पूर्व रहे भू स्वामी आज मजदूर बन रह गये हैं। ऐसी स्थिति देश के किसी भी प्रांत में देखने को नहीं मिलता। यहाँ अपनी भाषा बोली खान पान रहन सहन तीज त्योहार के प्रति जो उदासीनता और अन्य  प्रान्तिक शहरी वाशिंदों की संस्कृति के प्रति जो‌ हमारे कथित पढे लिखे नौकरी पेशा वालों की  मोह हैं। वह आश्चर्यजनक  हैं।    
             अब हमारे लोगों को चाहिए कि अपनी अस्मिता कामय रखने और खुद मुख्यातिरी के लिए पराश्रित न हो। अपने घर की कलह दूर करने बाहर के पंच नहीं चाहिए। जो केवल आकर आपके फूट का मजे लेन्गे और जी भर हसेंगे। ऐसी  स्थिति में कही सहनशीलता न खो जाए ? क्योकि यह एक सहज  मनोवृत्ति है -"धीरे धीरे आक्रोश और पीड़ा धनीभूत होकर संधर्ष का रास्ता अख्तियार कर ही लेते हैं। 
        यह स्थिति विकसित न हो इसलिये  शासन- प्रशास‌न को भी चाहिए कि यहाँ की मूल तत्व हैं जिनके द्वारा यह  सदैव शांति व सौख्य की भूमि रही हैं जो  संतो गुरुओं द्वारा स्थापित है ।उन  की वाणियों ने कम में बेहतर जीने का सूत्र दिया और तमाम अभाव के बीच संतोष प्रद जीवन जीने का मार्ग सुझाया को विकसित करने का संकल्प लेकर कार्य करें।
     तो वह दिन दूर नहीं जब शेष भारत में छत्तीसगढ़ एक  दैदिप्तमान नक्षत्र की तरह जगमगाएंगें।

अंग्रेजों की शिक्षा नीति

अंग्रेज और उनकी शिछा नीति के चलते ही आधुनिक भारत का अभ्युदय हुआ।अनेक कुरीतियों  को कानून बनाकर रोके।और देश में नवनिर्माण किया।सडक पुल  रेल संचार व शहरों  का विकास इनके देन है केवल उपनिवेश और शोषण के यह उनके अस्त्र हैं। कहकर उन्हें नकारा नही जा सकता।शिछा का द्वार सबके लिए खोलकर एक युगान्तरकारी कार्य किया जो इन सवा, डेढ सौ साल में भारत आज वैश्विक पटल पर खडा नजर आता है। हालाँकि ईसाई करण हुआ पर आज वे आदिवासी व वंचित समुदाय ईसाई बनकर जो ख्याति मान सम्मान अर्जित किए है ,शायद वह हिन्दू होकर कर पाते? 
  जो धर्म मान सम्मान व अभिमान न दे उसे वैसे त्याग कर देना चाहिए जैसे  तुलसी के अनुसार  हरिविमुख  स्वजन लोगों का परित्याग विभिषण  और भरत करते हैं। एक बडे भ्राता को दूसरे माता को त्याग दिए तो‌‌‌ शर्मनाक  अशोभनीय व गलत  मान्यताओं का परित्याग क्यो नही? 
  अपमान तिरस्कार सहकर भी जो कथित धर्मध्वज थामे हुए है वह मृत शिशु को चिपकाए  मूढ बंदरिया के समान है।
     कथित सनातन धर्म के संरछण के चलते हालांकि कुछ सुधारवादी आन्दोलन चले पर आगे चलकर कबीर पंथ खालसा पंथ और सतनाम पंथ उसके समनान्तर खडे हुए।आनन फानन में आर्य समाज आर एस एस जैसे संगठन बने आज वह एन केन प्रकरेण  सत्ता द्वारा इसे कायम रखना चाहते है। मानव मानव में समानताए स्थापित होना चाहिए जात पात व  ऊंच नीच संवैधानिक प्रक्रिया के तहत खत्म होना चाहिए। परन्तु  उसे खारिज कर कथित रुप से समरसता बनाए रखना चाहते है ताकि साप चलता भी रहे और लाठी इधर उधर लहराते रहे  । 
      पर क्या यह संभव है?

आगी गुंगवात हे

"आगी गुंगवात हे "

रीस तरपंउरी के माथा म चढ जात हे
अंतस भीतरी म आगी गुंगवात हे....

कइसन समे आगे सच बोले न सुहाए 
देख करतुत छलियन  के मन कठुवाए 
निंदा चारी अउ लबारी ह ममहात हे ...

किसान के फसल सस्ती  देख जी कौव्वाय 
बैपारी के फेशन मांहगी हाथो -हाथ बेचाय 
लहु पसीना गारे जिनिस सडक म  फेकात हे..

जेन जातिस जेल ओ मगन बइठे रचे खेल
चुलका के चुलकाहा मन घुरवा म देहे ढकेल 
चाल बइरी के समझो लिख -लिख लिगरी लगात हे....

तोर ददा के मालपानी , मोर ददा के माटी ये 
तोर बियाज बनिज त हमर  धनखर पुरखौती ये 
तोरेच लुक म रे बसुन्दरा हमर खरही  लेसात हे ....

पीरा लुस के  देखे सुख लुसइय्या लबरामन  
बडका पागा पारे किदरे ओ दिन के नंगरामन 
बिन फूले डोहडी डार म अइलात हे.... 

डा. अनिल भतपहरी‌ 
९६१७७७७५१४
ऊंजियार- सदन 
अमलीडीह ,रायपुर

सतनाम‌ और सनातन‌

सतनामी व सनातनी 

सतनामी और सनातनी दोनो सर्वथा अलग है। और प्रवृत्ति गत तो बिल्कुल विपरितार्थ भावयुक्त है।हालांकि 
दोनो  समश्रुत शब्द हैं और प्राचीन भी।परन्तु सतनामी एक सत्यनिष्ठ समानता व मानवतावादी प्रकृतस्थ व सदैव गतिमान समाज  हैं। जबकि सनातनी भेदभाव युक्त वैदिक व शास्त्रीय मान्यताओं वाले रुढ-मूढ समाज हैं।
जो अपेक्षित बदलाव के लिए भी तैय्यार नही रहते और परंपरा व प्रथा के नाम पर यथावत जीते आ रहे हैं।
तथागत बुद्ध वचन -अत्तदीपोभव में सच्चनाम की अराधना करते  स्वत: प्रकाशवान होने की अप्रतिम संदेश हैं। यदि  महात्मा 
कबीर की तरह कहे तो -" तु कहता कागद के लेखि ,मंय कहता आखि‌न की देखि " में सतत उद्यम की बाते हैं
  और गुरुघासीदास की स्थापना कि - "तोर भगवान बहेलिया आय अउ मोर  धट म बिराजे हे सतनाम" कह अपन धट के देव मनाने सदकर्म करते अनंत यात्रा पर निकल जाने होते हैं।

              मनखे मनखे एक समान 

           अब सवाल यह हैं कि वर्ण जाति भेद युक्त "सनातन"  या  समानता पर आधारित "सतनाम" आप किसे अपनाते या स्वीकृत करते हैं।
                 ।।सच्चनाम सतनाम सत्यनाम ।।
               ‌        डा- अनिल भतपहरी

Saturday, April 4, 2020

द्युलोक -

इतवारिय... 

ऋषियों की परिकल्पना - "द्युलोक"

द्युलोक परिकल्पना हैं या हकीकत यह आज तक अज्ञेय हैं। और ऐसा कोई सूत्र या साधन नहीं कि उनके वास्तविक अन्वेषण किया जा सके।
    विज्ञान तो हमे मंगल तक पहुंचा दिए ,बशर्ते हमारी प्राचीन पंथिक ज्ञान तो ग्रहो नक्षत्रों के इतर सतलोक, अमरलोक  ,स्वर्ग -नर्क गोलोक ,जन्नत, दोज़ख हैवन हीलादि की वर्णन कर  दिग्दर्शन कराते पर यह सब भाव व कल्पना जगत में ही है। 
    कही ऐसा तो नहीं कि यह "द्युलोक" भी वही हो।आखिर श्रृष्टि के आरम्भ से लेकर अब तक अरबो लोगों में ऐसा कोई एक भी क्यो नहीं, जो वहाँ पहुचा व अमरत्व को प्राप्त किया हो? 
  बहरहाल भाव और  भाषाई सौन्दर्य से मुग्धकारी लोक का सृजन तो होते रहे हैं। इनमें रसिक अवगहन कर तृप्ति पाते हैं। यह भाव -भावनाओं का कौतुक  हैं ।यह कही भौतिक रुप में विद्यमान हो आज पर्यन्त किसी से अवलोकन हो नहीं पाया हैं। यह कब तक अलभ्य रहेन्गे ?  या सहजता से पाए जा सकते हैं इनके भी उपाय प्रज्ञापुरुष अभिव्यक्त  करते है पद निर्वाण या निब्बान यही है। जिन्हे जीते जी अर्जित कर सुखमय इस लोक को त्यागे जा सकते हैं।
        वैदिक ऋचाएं रहस्यमय कविता सदृश हैं। इनके अध्ययन से सुषुप्त मन मस्तिष्क चैतन्य होते हैं फलस्वरुप   लोक कल्याण भाव भी इनसे जागृत होते हैं। हालांकि इन मनोहर परिकल्पनाओं से सत्य कही-कही आवरण बद्ध भी होते  हैं।  परन्तु  प्रचंड मार्तण्ड से बचने पर्ण कुटि, वृक्ष की सघन छांह और  बादलों का आवरण भी आवश्यक हैं। वैसे ही किंचित्  परिकल्पनाओं का आवरण भी अल्हादकारी हैं। हमारे प्राचीन साहित्य में जो कुछ अतिरंजनाएं हैं उन्हे इसी तरह की भावार्थ में ग्रहण करना चाहिए।
    साहित्य सर्व हितकारी ही होते हैं ,पर साहित्य को विरासत समझ इनके संरक्षण की जिम्मेदारी निभाते कुछ मूढ़ मति इन्हे बहुतों के  लिए  अलभ्य करने की कुचेष्टाएं की वह मानवता और हमारी द्रष्टाओं के अपराधी रहे हैं। और उन्हें स्वत: प्रकृति व प्रवृत्ति दंडित कर रहे हैं।
     बहरहाल मानवीय वृत्तियाँ प्रतिद्वंद्विता पालकर संतुष्ट होते रहे हैं। राग,द्वेष , मद लोभादि से जन साधारण बच सके यह भी संभाव्य नहीं परन्तु इन कुप्रवृत्तियों के ऊपर मानव का विजय श्लाघनीय हैं। वही महामानव होकर  विमल कीर्ति और यश के प्रतिभागी भी होते रहे हैं। 
      यह सिलसिला युगों से निरन्तर गतिमान हैं और रहेन्गे ।
                 ।। सर्व मंगल कामनाएं ।।

Thursday, April 2, 2020

जैव विविधता के विनाशक‌ - सागौन

"वन और वन्यप्राणी के विनाश का कारक सगौन रोपण "

       सगौन वृक्षों में सोना हैं और मानव सोना के लिए कुछ भी कर सकता हैं। हालांकि सोना की अधिकाई से  ही लोग बौराते आ रहे हैं। पर सोना के लिए दिवानगी को विकास का पैमाना मान लिए गये हैं। जिनके पास यह अधिक वही सफल। स्वर्ण भंडारण से व्यक्ति समाज और देश समृद्ध व विकसित समझे जाते है।वर्तमान में वन और वन्यप्राणीयों की विलुप्ति का कारक यही सोना रुपी सगौन हैं। जिनके अंधाधुंध रोपण के कारण विभिन्न प्रजातियों के स्थानीय  पेड़ -पौधों का बलिदान दिया गया। 
   सागवान या सगौन के रोपण कार्य अंग्रेज काल में हो गये थे ।प्राकृतिक रुप से ऊपजे स्थानीय पेड़- पौधो को‌ इनके लिए शहादत देने पड़े तब जाकर यह यत्नपूर्वक उगाए गये।आज भी छोटे जंगल उजाडे जाते हैं। और उनके बाद इसे रोपे जाते हैं ।इनके नीचे घांस तक नहीं ऊगते फलस्वरूप घांस चरने वाले शाकाहारी जानवर को भोजन नहीं मिले और वे सघन वन की ओर या आबादी की ओर प्रस्थान किए फलस्वरूप हिंसक पशु और मानव के शिकार हो गये। सगौन लग जाने से तेंदू चार महुए का कोआ वानर के भोजन थे विलुप्त हो गये वानर वन छोड़ कर गांव कस्बा शहर में डेरे डाल लिए और बाडी खेत को उजाड़ने लगे।वनारों की आतंक से कृषक दलहन तिलहन व सब्जियां उगाना बंद कर दिए।
     फलदार पौधे एंव वृक्ष के उजड़ने से वानर आदि  और  घांस भूमि पर सगौन रोपण से हिरन मृग खरगोश नील गाय सांभर आदि आबादी छेत्र में आने से अवैध शिकार हो गये। वन में शाकाहारी पशुओं की कमी से शेर -चीते बाध भालू  आदि मांसाहारी जीव भुखे मरने लगे।कुल मिलाकर ‌‌ एक सगौन  पुरा "वन्य जीवन चक्र "को बर्बाद कर दिया बावजूद यह आम जनता के खरीद व पहुँच से कोसों दूर हैं।
   वन्य प्राणियों से मूक्त वन्य प्रांतर भूमाफियाओं के अधीन हो गये।आयातित पर प्रांतिक मालगुजारों मंडल गौटियायों जैसे भू माफिया के अधीन मानव प्रजाति व   वन्य भूमि होते चले गये। जिनकी लाठी उनकी भैंस सदृश भू कब्जा होते गये ।फलस्वरुप कुछ चालक व  ताकतवर लोग बड़े रक्बा धारी भूस्वामी बनते गये।सजह सरल लोग आज भी कम में गुजारा करते वनोपज पर आश्रित हैं। आज वही गरीब हैं और आवश्यक चीजों से वंचित भी।  
      वन के असल संरक्षक  शेर बाघ भालू वनभैसों की विलुप्ति से वनों में मनुष्यों का भय मुक्त आम दरफ्त हो गये  अंधाधुंध कटाई से सघन वन परिक्षेत्र सिमटते गये । उत्खनन और औद्योगीकरण के नाम पर भी  जैव विविधता से युक्त जंगल उजाड़ दिए गये।शहर कस्बा बसाए और क्रांक्रिट जंगल उगने लगे। सर्प पक्षी व अनेक तरह जीव जन्तु धीरे धीरे विलुप्त हो रहे हैं। और मानव आबादी अनवरत बढ़ते जा रहे हैं। 
 सघन वन में स्वच्छंद विचरण करने वाले  हाथी मैदानी  गांव कस्बो में विचरण करने लगे हैं। इस तरह वर्तमान स्थिति भयावह होते जा रहे हैं ।वन घटने से वर्षा थमने लगी हमारी सदानीरा नदियां व जलस्त्रोत सुखने लगी ।जलस्तर नीचे चले गये। जीवन के आवश्यक घटक जल आज इस महादेश में बिकने लगे जहां प्यासे को पानी निशुल्क देना पुण्य का काम था ।आज श्रेष्ठ व्यवसाय बन चुके हैं।
 इन्हें देख किशोर वय में लिखी हमारी यह कविता की प्रासंगिकता आज प्रबलतम रुप से जेहन में कौंधने लगे - 
ऐसा लगता हैं कि २१ सदी में 
 हम फिर भिल्ल होन्गे !
आधुनिकता से चमक दमक रहे शहर 
ईंट क्रांक्रिट का कट कट जंगल होन्गे!

      तेजी से पतन की ओर बढते मानव समुदाय जिसे वह विकास कह रहे हैं। उनके समक्ष जीवन मूल्यों और सांस्कृतिक अवयवों की कमियां होगी। फलस्वरूप संसाधनों से लैश व्यक्ति आनंद व सुख से वंचित रहेन्गे को पुनश्च  अपनी जड़ो की ओर लौटने होन्गे। उपलब्धियों की आसमान में उड़ते थक हार कर जमीन में आने ही होन्गे ।इनके लिए बेहतर उपाय हमें करने पड़ेन्गे क्योकि - 

उड़त घुमत आगास ले भुंइय्या मं आयेच ल परथे।
दु:ख पीरा जनाथे त दाई ददा ल सोरियाच ल परथे।।

   जो ऐसा नहीं करेगा वह कटी पतंग की तरह हैं। जिनकी कोई ठौंर ठिकाना नहीं । जिनकी ठौर- ठिकाना नहीं उनकी कोई अस्मिताए व प्राथमिकताएं नहीं । गीत संगीत कला संस्कृति नहीं मन रंजित करती कोई कृति नहीं  बिन इनके सब शून्य हैं। कितनी धन वैभव संपदा व्यर्थ हैं।
     फिर ऐसी अजीबोगरीब  स्थिति भी आएगी - 
बेफिक्र राजा को भूख नहीं प्यास नहीं 
उनके कोई पुण्य नहीं तो कोई पाप नहीं
भूख न लगने चाह न जगने  और न जीने और न मरने की अजीब बिमारियों से धिरी मनुष्य अपने कुकृत्यों के कारण हैरान व व्याकूल खुशी व शांति तलाशने अश्वस्थामा की भांति  विकास रुपी मृग मरीचिका की अंधी दौड़ में भटकेन्गे । 
      इसलिए हमें अपनी कल्पित  दीवाली में कृत्रिम  ऊजाले लाने  लिखे लाखों दीप जलाने की आवश्यकता नहीं अपितु  मन की एक दीप को प्रज्ज्वलित करना चाहिए।  ताकि सर्वत्र उजालें हो - 
कटय नहीं अंधियार चाहे लाख दीया ल बार 
होही जग-जग ले अंजोर मन के एक दीया ल बार 
   इस तरह जब मानव अपने भीतर से  रौशन होन्गे तब कही जाकर सुखद परिस्थितियों का निर्माण अपने इर्द गिर्द कर पाएन्गे फिर
       "हम चेतन चेतावन जग ल काबर करन- सहन अत्याचार "  की उक्ति को आंचल में गठियाने ही नहीं अपने जीवन में उतारने होन्गे।और एकतरफा व त्वरित  विकास के जगह सर्वांगीण व  संतुलित विकास  को अपनाने होन्में 
       अन्यथा सिन्धु सभ्यता का अंत हमारे समक्ष हैं। इस पर  आधारित "मोहनजोदड़ो " फिल्म में  व्यापारी प्रधान की "सोन " की लालसा कैसी तांडव लाकर विनाश रचती हैं। नमुनार्थ और उदाहरणार्थ ऋतिक रौशन अभिनीत उक्त फिल्म देखी जा सकती हैं। उनसे प्रेरणा ली जा सकती हैं। 
     डा. अनिल भतपहरी

Wednesday, April 1, 2020

वहम‌

"वहम "

दिखता हैं पीठ 

हर किसी का 

पर चेहरा क्यु 

दिखता नहीं

हर किसी का 

लगे है लोग 

दर्पण दिखाने 

पर दिखता नही 

चेहरा किसी का 

खोट दर्पण में है 

या दिखाने वालों में 

या कही देखने वालों में 

क्योकि अब चेहरे  

कहां है ?

पीठ में बदल चुके हैं 

सारे जहां 

असानी से इसलिये 

हर कोई भोंक रहे है छूरे
 
लहुलुहान चेहरा नही 

पीठ हो रहे हैं जमुरे 

यह दौर स्कार्फों 

और मुखौटे का हैं

कहीं जाने का नहीं 

बस लौटने का हैं

जब ज़मीन पर नर्क हैं कायम
 
तब स्वर्ग पाने पाले क्युं वहम 

-डा. अनिल भतपहरी

औंरा- धौंरा तेंदू वृक्ष महात्मय

गुरुघासीदास जंयती के पावन अवसर पर गुरुघासीदास शोध पीठ  पं र शु वि वि एंव गुरुघासीदास साहित्य संस्कृति आकादमी द्वारा आयोजित शोध संगोष्ठी में सतनाम धर्म संस्कृति में औरा -धौरा और तेंदू पेड़ की महत्ता  एंव उनके तले  गुरुघासीदास की आध्यात्मिक साधना पर आधार व्यक्तव्य देते हुए ....

हमारे सुधि पाठकों हेतु शोध पत्र का सारांश -

"औरा-धौंरा वृछ तले ध्यानरत  गुरुघासीदास" 

छत्तीसगढ़ की पावन धरा पर सुदुर वनांचल में सतनम जागरण के अलख जगाते गुरुघासीदास ने  सतनाम पंथ का प्रवर्तन किए ।
     इनके पूर्व वे सोनाखान के बीहड़ वन एंव छाता पहाड़ में कठोर अग्नि तपस्या किए।
सतनाम ग्यानोदय और अभीष्ट सिद्धि के उपरान्त वे गिरौदपुरी वापस आए .. उनके आगमन की सूचना का बेहतरीन वर्णन मि चूशोल्म ने बड़ी ही अलंकारिक शैली मे किए है ... 
 हजारो लोग इस तपस्वी को देखने सुनने उमडने लगे और लाखो लोगो मैदान मे एकत्र हुए ।
फागुन शुक्ल सप्तमी को वे सतनाम की दिव्य सप्त संदेश देते छत्तीसगढ़ की धरा पर सतनाम पंथ जो स्वतंत्र धर्म सदृश्य था का प्रवर्तन किए ...
  तदुपरान्त वे इसी विशाल प्रांगण के समीप पहाड़ी में स्थित तीन पेड़ के झुरमुट के पास ध्यानस्थ होकर नित्य दर्शन को आकांछी जनमानस को उपदेशना देने लगे ...
  यह ३ सौभाग्यवती पेड़ थे औंरा धौरा और तेंदू ।
औंरा - हिन्दी मे इसे आंवला कहते है संस्कृत मे अमृता अमृत फल पंचरसा कहते हैं।
अंग्रेज़ी में एंब्लिक माइरीबालन कहते हैं। वैज्ञानिक नाम रिबीस युवा क्रिप्सा नाम है।
औषधीय गुण आयु वृद्धि काया कल्प मेधा यौवन  वीर्यवर्धक है। 
 ऋषि च्यवन ने कभी इसी के आधार पर च्यबन प्राश बनाकर मानव हितार्थ दिव्य औषधि का निर्माण किए ।आवला हरण और बहेरा यह त्रिफला आयुर्वेद की त्रिदोष कफ पित्त वात नाशक है ।इसके यह प्रमुख धटक है।

धौरा- यह बहुपयोगी व औषधि गुणो से युक्त पौधे हैं। इनका वैज्ञानिक नाम  एनोजेसीस लैटी फोलिया है ।जो १८-२० फीट की ऊचाइ वाले सधन पत्ते दार सफेद तने वाला पेड है। इस कारण यह धौरा नाम पडा । 
जिनके चपाचय हमारे अंदर आहार निद्रा और आंतरिक जैविक धड़ी को नियंत्रित करते हैं। तनाव और ब्लड प्रेशर को इनके छांव मे बैठने मात्र से राहत मिलते हैं। आत्।हीना खत्म हो आत्मसंबल बढता है। मन मे दृढता व संकल्प बोध आते है। इनके गोंद बनते हू और प्राकृतिक रुप से इनके पत्ते में रेशम कीट पलते हैं तथा उच्च स्तर के टसर यानि  कोसा सिल्क मिलते हैं। इनमें वस्त्र आदि बनाकर मानच सभ्यता के दो डग भरे ।

औषधीय गुण चपाचय गर्भ प्रसव सर्दी खासी  मे राहत ल्युकोरा टानिक कृषि उपकरण चारकोल निर्माण ...मे 
 तेंदू - अनेक औषधीय गुणो के खान और एंटीबायोटिक फल तथा डायबिटीज़ के राम बाण फलमीठा और कसैला का स्वाद अप्रतिम स्वाद लिए यह विलछण  पेड़ हैं। जो भीषण गरमी मे लहलहाते है। 
  जब सूर्य की  प्रचंड ताप से वनप्रातंर झुलसते है तब अ
यह गहन छाया व डारबी ग्रीन पत्ते से दूर से सुकुन पहुचाते है।
 यह मध्यम आकार १५-२० फीट की ऊंचाई वाले यह पेड आकर्षित करते हैं। 
  इनका वैज्ञानिक नाम डायोसपायरस मेलैनोआक्सीलन है। 
   इनकी पत्ते की बीडी बनाकर लोग पीते हैं बाबा जी ने इनके संरछण और व्यसन रोकने के लिए संदेश कहे कि "चोगी झन पिहा ।
 ताकि तेंदू पेड़ संरछित रहे । फलस्वरुप जो व्यसन न त्याग सके कलान्तर में चोगिया सतनामी के रुप में चिन्हित किए गये।और फिर वे घीरे घीरे व्यसन त्याग सात्विक सतनामी हुए ।
 यह फल  कुपषित जनता को पोषण दे यह चेतना भी इनके पीछे भी नजर आते है।यह मल्टीविटामिन से युक्त आहारी फल है।कच्चे तेदू के बीच को चावल की भात की तरह खाकर पेट भर सकते हैं। 
  फल को सुखाकर रखते है और जब चाहे तब इसे सूखे मेवे की तरह खाए जाते हैं।
    इस तरह देखे तो इन बहुगुणी पौधे जो प्रकृति ने एक जगह विशिष्ट प्रयोजन हेतु  उगाए थे को बाबा जी अपना आश्रय बनाया ।
  आज यह पेड़ और उनके परिसर विश्व में पवित्रतम स्थनो मे शुमार है।जहां प्रतिदिन हजारो लोग आस्था से सर झुकाते है। 
  फागुन शुक्ल सप्तमी  को विश्व का सबसे बड़ा ग्राम के रुप मे तीन दिन तक परिणत हो जाते हैं।
     जहां १२-१५ लाख लोग स्व नियंत्रित प्रकृतस्थ साधनात्मक जीवन यापन करने की प्रेरणा लेते हैं और अपने मार्गदर्शक गुरु के सानिध्य प्राप्त करते हैं। 
 औरा धौरा पेड के उडत हे शोर 
तेंदू के तीर ह छागे अंजोर 
 सतनाम जपइय्या हवय ग मोर बाबा ।...

     डा अनिल कुमार भतपहरी 
        सहा प्राध्यापक 
    शा. बृजलाल वर्मा महाविद्यालय पलारी 
    9098165229

नवा बहुरिया हर ..

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