Thursday, July 30, 2020

बिन पिये निसा चढे

आपके वास्ते छकड़ी हमरी 

बिन पिये निसा चढे 

तेंदू चार  आमा मउरे  दुल्हा कस  सम्हरय।
जाय बर बरतिया भंवरा मन मगन मंडराय।।
सोला-सिंगार साजे परसा दुल्हीं डेहरी झांकय ।
आवत हे लेनहार कुहकत कोयली हांका पारय ।।  
महुंआ मन रस घोरय अउ खेत-खार बगियाय ।
ये महिना मं सित्तो बिन पिये नंगत निसा चढ़ जाय ।।
 
बिंदास कहें - डा. अनिल भतपहरी
चित्र - मउर साजे दुल्हा चार राजा के संग बरतिया अनिल‌ , सिरपुर जंगल‌ ।

Wednesday, July 29, 2020

केरल की पीड़ा

मुन्नार केरल में  १२ वर्षो के अंतराल में खिलने वाली कुरंजी देखने जाने का मन ही नहीं संकल्प  था जब २०१५ में वहाँ स्थानीय लोगों से यह जानकारी मिली। यस क्लब‌ महिन्द्रा मेम्बर  बुकिन्ग हेतु प्रयास किए पर अब  वहां प्राकृतिक विपदा के चलते  कैंसल कर दिए ..... अब वहां अनुकूल मौसम में पुनश्च जाएन्गे ।
      ४ वर्ष पहले जिस हसीन और खुशमिजाज  केरल को देख हर्षित रहे जहां के केले चिप्स  चाकलेट और धार्मिक अनुष्ठान हेतु  स्वर्णिम किनारी युक्त श्वेत साड़ी धोती खरीद अडामाली के अन्नानाश और प्राकृतिक रुप से पके केले खाकर मुदित हुए।पुट्टु इडली दोसा सांभर तो नित्य खाते ।और जब अरवा  चावल की भात  नहीं मिले तो मुन्नार के बाजार से अरवा चावल ले रिसार्ट के ओवन में पकाकर बच्चो को खिलाए तब कही जाकर मन तृप्त हुआ।
 आज वहां  प्रकृति के विनाश लीला देख मन हृदय  हतप्रभ व आवाक हैं! 
       कोचीन के मरीन ड्राइव में बैठे उत्तरभारतीय लोगो के खोमचे नुमा चलित  पान ठेले से पान खाकर जब हिन्दी बतियाए तो उन लोगों का खुशी का ठिकाना नहीं । वे हमारे श्यामल रंग देख साउथ इंडियन समझते रहे पर छत्तीसगढ़िया जाने तो उनकी यादे  भिलाई के किसी रिश्तेदार के संस्मरण जोडकर हमारे लिए एक छण आत्मीय बन गये । 
       आज वह समृद्धशाली केरल जहां कपड़ों की लोच बस की  खिड़कियों में काच की जगह और बस कंडक्टर रस्सी खीचकर धंडी बजाते तो समृद्धि और परंपरा का अनोखा समन्वय देख हर्षित होते रहे ।वास्कोडिगामा पैलेस  मशाला बाजार और चेराई बीच कभी न भुलने वाली मनोरम स्थली है।  
 केरल  की  हालात देख मन द्रवित हैं। शीध्र विपदा से बाहर आने की मंगल कामना सत्पुरुष से करते हैं। कुरुंजी देखने की साध आने वाले बारह वर्ष में गर रहे तो वर्तमान  से सशक्त व सुदृढ़ केरल का दीदार होन्गे इस आस विस्वास से समस्त केरल वासी के प्रति गहरी संवेदना प्रकट करते हैं कि इस दारुण दशा से  उबरने आत्मबल मिले  दु: ख सहने की शक्ति सतनाम सतपुरुष से मिले। काश! सतनाम सेना वहां मानवता की  सेवा हेतु प्रस्थान कर सके तो बड़ी कृपा होगी ।

तेरी तरह

तेरी तरह 

तेरी तरह  कोई तो बसी हैं मन में 

पर क्यूं कुछ खाली सा हैं जीवन में

आग  लगी और  पानी भी बरसा 

कुछ असर नहीं  जलन-भींगन में 

ये मस्तानी शाम और रुहानी रातें

थकान मिटती नहीं कोई सीज़न में

माना कि फासलें हैं हमारी दरम्यान 

तस्लीम की चाह किसे नहीं जेहन में 

अब तो  तड़फ की  लत सी लगी हैं

बिन  इनके  मज़ा क्या  है जीवन में  

     - डाॅ. अनिल भतपहरी/9617777514

Tuesday, July 28, 2020

गुरुघासीदास बुद्ध व कबीर

गुरुघासीदास कबीर की तरह ईश्वर या बह्म  की निर्गुण स्वरुप के गायक नहीं हैं। 
      बल्कि बुद्ध की तरह सत्य के अन्वेषी तत्ववेत्ता हैं। 
   कबीर पंथ कबीर ने नहीं चलाया बल्कि उनके शिष्य श्रुति गोपाल और धर्मदास जो वैष्णव पंथी थे ने चलया हैं। जबकि गुरुघासीदास ने सतनाम पंथ का प्रवर्तन बुद्ध की तरह धर्म चक्र प्रवर्तन की तरह कठोर तपस्या से आत्म ज्ञान अर्जित कर के किया।

बुद्ध ने सारनाथ में 5 लोगों को‌ दीक्षा बौद्ध धम्म  या ज्ञान धम्म का प्रवर्तन किया। और आजीवन धर्मोपदेश देते अपने मत का प्रचार प्रसार करते रहे।
 इसी तरह गुरुघासीदास ने तेलासी में सतनाम पंथ में अनेक जातियों के सैकड़ों  लोगों एकमई करते तस्मई  (अइटका ) खिलाकर जातिविहिन समुदाय की स्थापना किया और निकल गये अपने महाभियान में  और जगह जगह रामत रावटी लगाकर सतनामी करण करते रहे।

             बावजूद सामाजिक संगठन व प्रबंधन में 
सतनामियों में कबीर पंथियों का भी समागम होने कारण बहुत सी समानताएँ है ।पर यह मूलतः नहीं अपितु बाद की है।
 कबीर  वाणी से मिलती जुलती भजने शब्द आदि है चौका तो ज्यों का त्यों है। कबीर पंथियों  सत्यनाम  व सतनामियों का  सत‌नाम और  कबीर पंथियों  सत्यपुरुष और सतनामियों का सतपुरुष में समानताएँ देखे जाते हैं।
   और तो और गुरु गुरुगद्दी वंश गोसाई  संत /महंत ,कडिहार/ चौकहार ,  कोठारी /भंडारी  छड़ीदार / साटीदार  जैसे धार्मिक पदाधिकारी भी समान्यत: एक जैसा है। चोवा चंदन तिलक कंठी जनेऊ नाम पान आदि सब में समानताएँ झलकते है।
   कबीर पंथियो का निशान  और सतनामियों के जैतखाम भी लगभग समान हैं। पर निशान केवल कबीर कुटी या आश्रम में होते हैं। जबकि जैतखाम चौक चौराहे या खुले मैदान कही पर भी  स्थापित कर दिए जाते हैं।
         ऐसे में लगता है कि कैसे कबीर पंथ के ईश्वर की निराकार या निर्गुण उपसना वाली पद्धति के प्रभाव से   सतनाम पंथ  को बचाया जाय।
    या मूल रुप में  उनकी  वास्तविक स्वरुप को स्‍थापित किया जाय यह बड़ी चुनौती है।
       हालांकि हमारे इस बात से बहुत लोग असहमत भी हो सकते हैं ।पर सच तो यह है कि सतनाम पंथ ईश्वर वादी नहीं है । जबकि कबीर पंथ ईश्वरवादी हिन्दू धर्म  भक्ति  का एक ज्ञान मार्ग शाखा हैं।  जो सनातन संस्कृति का हिस्सा है।
   सतनाम पंथ सनातन नहीं  श्रमण संस्कृति या प्राचीन भारत की तत्ववादी या अनीश्वरवादी दर्शन से अधिक निकट है।

Monday, July 27, 2020

सतनाम धर्म संस्कृति

शीध्र प्रकाश्य सतनाम धर्म-संस्कृति 
ग्रंथ से साभार 

सतनाम‌ - दर्शन 

सतनाम और आत्मा यह दो अलग चीज हैं। आत्मा को यदि प्राण या जीव तत्व माने तो यह समस्त जीव -जन्तु में मिलते हैं। पर उन सबमें सतनाम नहीं ।यह हमें भली-भाँति समझने होन्गे ! अन्यथा घट -घट मं बिराजे हे सतनाम का साधारण अर्थ हम आत्मा/ प्राण/ जीव  आदि समझ लेने के  भूल कर बैठतें  हैं।
   प्राण /आत्मा /जीव का किसी भी देह  रुप में आने की चार परिस्थितियाँ है- 
१ ऊष्मज
 २ आद्रज 
३ अंडज
 ४ पिंडज 
      पृथ्वी में जो भी जीव -जन्तु है वह इन परिस्थितियों के कारण हैं। यह एक प्राकृतिक क्रिया हैंऔर अनेक तरह के संयोग से  उत्पन्न होते हैं। इन सबमें पुनर्जन्म हो‌ ऐसा संभाव्य नहीं पर पुरातन मान्यताएँ दृढतम‌ रुप में अब भी विद्यमान हैं।
     जबकि सतनाम एक विशिष्ट जीवन -दर्शन है यह बीज स्वरुप  मानव मन में अवस्थित रहते हैं। उसे सद्गुरु के ज्ञान उपदेश द्वारा जागृत कर व्यवहृत किए जा सकते हैं । सतनाम में सद्गुण समाहित है ।जिनके परस्पर अनुपालन से विषमताओं में, समानताएँ लाए जा सकते हैं। नकरात्मक भावों के जगह सकरात्मक  भाव भरे जा सकते हैं।  विष के जगह ,अमृत का संचय कर सकते हैं। इसलिए सामान्यतः जन साधारण इसे ईश्वरीय तत्व से जोडकर देखने लगते हैं। जबकि  ईश्वर की परिकल्पना भी इन्ही तत्वों के प्रदाता के रुप में किए गये हैं।
   अत: उक्त दृष्टान्त या कथ्य के आधार पर सतनाम आत्मा या परमात्मा है ऐसा तो बिल्कुल नहीं कह सकते ।ऐसा कहकर ईश्वरीय सत्ता का ही प्रत्यक्ष समर्थन हैं। जिनके द्वारा सुविधाभोगियों ने मयावी संसार रचा हैं। जिसमें जगत भ्रमित है और इसी भ्रम या आवरण के कारण जगत में ऊच- नीच, भेदभाव  शोषण आदि का क्रिया व्यापार फल -फूल रहे हैं। फलस्वरुप प्रज्ञावान पथ प्रदर्शकों ने आत्मवाद के स्थान पर अनात्मवाद की प्रतिष्ठा कर वास्तविक तथ्यों का निदर्शन करते रहे हैं। 
 ताकि जो सत्य और वास्तविक है उनकी प्रतिष्ठा हो और समाज मे समानताए स्थापित हो सद्गुणों की महत्ता कायम हो।
            ऐसे ही अट्ठारहवीं सदी में गुरुघासीदास ने सतनाम दर्शन देकर समाज में युगान्तरकारी कार्य किया। उन्होंने साफ -साफ कहे - "तोर भगवान हर बहेलिया आय अउ मोर तो सबके घट मं बिराजे सतनाम हर आय।" 
       जन साधारण घट का अर्थ शरीर लिया और शरीर में विराजमान सतनाम को  आत्मा समझ लिया ।जबकि सतनाम आत्मा नहीं बल्कि सतनाम सद्गुणों का समुच्चय है जिसे मन वचन कर्म से मानव धारित व व्यवहृत करता हैं। तभी उन्हे जीवन में सदगति या परम पद या निर्वाण मिलता हैं।   यह सब मोक्ष या आवागमन या जन्म चक्र से पृथक चीज हैं , जबकि  पुरातन स्थापना के चलते मोक्ष निर्वाण परमपद को एक समान समझने की भूल करते हैं।  

  इस तरह देखा जाय तो सतनाम अनात्म दर्शन के समकक्ष ‌है जो वास्तविक है। उनकी ही  संस्थापना करता हैं। इस परिस्थिति में यह  अस्तित्ववादी दर्शन हैं।जबकि मिथकीय  स्थापना वाले छद्म अस्तित्ववादी दर्शन को आत्मसात कर लिया हैं। और लोग उसे ही सच मान लिए हैं। जैसे अंधेरे में रस्सी को सर्प समझ लेना या विभिन्न  जड़ कलात्मक प्रतीक मंदिर मूर्ति आकृति को वैचारिक अंधेरे फैलाकर ईश्वरीय अंश अवतार आदि धोषित कर लिया गया है। इनसे बचाकर  सतनाम दर्शन सत्य का  साक्षात्कार कराता हैं।
          साक्षात्कार प्राप्त व्यक्ति/ साधक  संतत्व वृत्ति को अर्जित कर जनमानस में  प्रतिष्ठित व आपार ख्याति पाते हैं। 
         सतनाम 
 
-डाॅ. अनिल भतपहरी / 9617777514

Saturday, July 25, 2020

दुर्गा महा में टाप करने के बाद

१९९२ में दुर्गा महाविद्यालय से  हिन्दी में टाप करने के पश्चात , उत्साहित भाषा विज्ञान में एम. फिल करने  प. र. शु. वि. वि.में आवेदन किया। मेहरोत्रा सर विभागाध्यक्ष थे,पर नाम निकलने के बाद विलंब से गांव में बाई पोष्ट  सूचना  मिलने के चलते, महज २ दिन बाद अनुनय- विनय के उपरान्त  भी  प्रवेश नहीं मिला।
     अंततः मायुस सीढ़ी  उतरते परिचित छात्र व कर्मचारी मिला! वे लोग नये खुले पर्यटन में स्नातकोत्तर पत्रोपाधि करने सलाह दिए ।तत्क्षण फार्म भरा और वही एक ही परिसर में अध्ययन करने लगा।इस बीच भाषाविज्ञान के आचार्य द्वय डाॅ. व्यासनारायण दूबे व  डाॅ. चित्तरंजन कर से साहित्यिक संगोष्ठियों  में मेल- मुलाकातें होते रहे ।  गुरुघासीदास छात्रावास में रहते  १९८८-८९  से ही  समाचार पत्रों- पत्रिकाओं में छपते रहें व गोष्ठियों में आना -जाना शुरु कर दिए थे ।
     इस बीच इतिहास के आचार्यों के साथ -साथ भाषा विज्ञान के आचार्यों का स्नेहाशिष मिलते रहा। और फिर १९९३ में पी-एचडी  के हमारे निर्देशक डॉ. देव कुमार जैन की सौजन्य से कर सर के साथ व दूबे सर की छत्तीसगढ़ी प्रेम और उनकी सक्रियता ऐसा रहा कि इन दोनो गुरुदेव के साथ प्रागढ़ सम्बन्ध स्थापित हो गये, जो अब तक कायम हैं।
     १९९६ में  सहा. प्राध्यापक बनकर साहित्य व भाषा के ही सेवक बन कर रह गये। इतिहास व पर्यटन यदा- कदा  लेखन / सृजन में आते रहा।

नाग पंचमी लोक मंत्र सिद्धी ‌पर्व

नागपंचमी लोक मंत्र सिद्धी पर्व 

         आज नाग पंचमी है  ।आज के दिन श्रमण संस्कृति में शक्ति परीक्षण, युद्धकला अभ्यास और मारन- उच्चारण से लेकर साधारण सर दर्द ,पेट दर्द से लेकर सांप- बिच्छू ,कीट -पंतग के डंक/ जहर उतारने के मंत्र पाठ करने का पर्व है। मंत्र के साथ जड़ी -बुटी के इस्तेमाल, विधि सिद्ध  -बैगा व  वैद्य- बैगा अपने  साधक शिष्यों  को मंत्र सिखलाते मंत्र लहुटवाते है/अभ्यास करवाते हैं जड़ी - बुटी के मंत्र सिद्ध काढ़ा पिलाते है। कुश्ती आदि  लडाते  हैं।इस तरह स्वास्थ्य संरक्षण की परंपरा का निर्वाह किए जाते हैं।
    नाग पंचमी तिथि कम पांच नाग राजाओं की समवेत आराधना है पांच नाग राजाओं की संस्कृति भारत की सबसे प्राचीन संस्कृति है। इनके छत्र- छाया में हमारे महादेश भारतवर्ष / जम्बूद्वीप  ऐश्वर्य वान रहे हैं। ये पांच नाग राजा है-
   तक्षक कारकेटा वासुकि क्रंदु और शेष   
जिनके ऊपर विजय श्री का आर्यन मिथकीय साहित्य रचे गये और इनके अनुयायियों को दास  शुद्र धोषित कर दिए गये। द्रविड़ (राक्षस ) आर्य( देव )और नाग (श्रमण ) की उद्यम या संधर्ष ही समुद्र मंथन हैं। और इन सबके युति से भारतीय संस्कृति में  नव  पौराणिक अध्याय का शुभारंभ होते हैं ।
      परन्तु वर्तमान वैज्ञानिक युग में इनकी ‌महत्ता या उपयोगिता हो, न हो ,या व्यर्थ या अंधविश्वास हो ! पर जनमानस में इन सब के ऊपर गहरी आस्था रहा हैं। अब भी है, इस आधार पर मानव समाज सदियों से तमाम अभाव ‌के बीच  साधनहीन अवस्था में जीते आ रहे हैं। यह सब जानना- समझना  महत्वपूर्ण हैं। 
        इन्हे कोरी अंधविश्वास है कह कर इनके माध्यम से जो क्रमिक विकास के दो पग भरे है उनकी अनदेखी नहीं करना चाहिए। यह पर्व किसी जातिय या धार्मिक  पर्व नहीं अपितु बैगा - वैद्य  और साधक- शिष्य के द्वारा मनाए जाने वाले विरेचन पर्व है । जो कि कोई भी धर्म मत संप्रदाय के हो सकते हैं। 
      बचपन में हमें  अपने  गांव  जुनवानी  और बुंदेली में नाग पंचमी को बडे- बुजुर्गों व  दादा- बाबा से साधारण  मंत्र श्रवण करने  का अवसर मिला हैं। स्कूल में कुश्ती और कब्बडी खेलते थे । एक  सहपाठी तो सिद्ध साधक हो गये और वे बुंदेली परिक्षेत्र  में तंत्र साधना में प्रसिद्ध  हैं।

 ( दू - चार मंतर अउ पांजीनाम मंत्र  महु ल आथे 
फेर मय पाठ- पीढा नइ ले हव ।
  तेकर सेती प्रयोग न इ करव  पहली मरनी हरनी म पांजी नाम देत भी रहेव फेर मोला सियान मन बरज दिन कि बाबु बिन पाठ पीढा लेय झन देकर तोला दोख लगही अउ मृतक ल पुन न इ मिलय ते दिन ल बंद कर दें रहेव। मोला सिद्ध गुरु न इ मिलिस त पाछु साल सद्गुरु घासीदास साहेब अउ महात्मा बुद्ध  ल सेत गुरु मान के उकर फोटो प्रतीमा के समक्ष एकलव्य सरीख नाम पान दीक्षा ले लेयेव अउ नेवताय के बाद केवल पांजीनाम मंत्र देय ल घर लेंव । भले ये काही रहय फेर अंत्येष्टि के एक नेंग आय जोन ल श्रद्धा पूर्वक करथव )
मंत्र  लोक छंद कविता है  इससे जनजीवन को गहराई से समझे जा सकते है। समकालीन भाषाई ज्ञान की भी  जानकारी होते है। साहित्य की  अध्येता होने के कारण अपने  विद्यार्थियों को  " भाषा  की  उद्भव विकास " चेप्टर में इन सब बातों को समझाते भी हैं। इस तरह‌ लोक   भाषा को  संस्कृत आदि से प्राचीनतम सिद्ध करते भी हैं। और तथाकथित देव भाषा और देवलोक से आगत की मिथक से अवगत कराते हैं।  कई सभा संगोष्ठी में ‌ प्रसंगानुकूल बातें छिड़ती है तो लोग ध्यान से श्रवण करते हैं।
      ‌‌ हमारी ढ़तापूर्वक धारणा है कि निरंतर अभ्यास चिन्तन मनन से हर क्षेत्र में अनगढ़ता से ही सुगढ़ता आए हैं।जन भाषा ही परिष्कृत होकर संस्कृत बना है ।इसलिए वह जनभाषा से प्राचीन  नहीं हैं। संस्कृत आदि की पौराणिक व शास्त्रीय कथाएँ भी हमारी लोक कथाओं से प्राचीन नहीं है।
     जब राज- रजवाडा नहीं थे तब से लोक कथाएँ लोक गीत  लोक मंत्र हैं।धीरे- धीरे राज ,रजवाडे आए उन्होंने  ऋषियों, रचयिताओं को‌ आश्रय देकर अपनी शौर्य -पराक्रम व मान्यताओं के अनुरुप शास्त्र रचवाए ,इस तरह वेद , त्रिपिटक ,उपनिषद, पुराण, रामायण -महाभारत आदि ग्रंथों  का प्रणयन हुआ। 
इन सबसे प्राचीन लोक गीत, मंत्र व कथाएँ है बल्कि युं कहे आदिम मानव जब बोलना सीखे ,भाषा उद्गारित कर शब्द व उनके  अर्थ / आशय समझना शुरु किए तब से यह अस्फुस्ट ध्वनि  मंत्र सम लोक मे परिव्याप्त है जो अत्यंत प्राचीन है।
                 आज नाग पंचमी में लोक मंत्र के बहाने भाषाई और शास्त्रीय विकास उनसे   सृजन व प्रतिष्ठान  आदि को संक्षिप्त में आकलन करना चाहिए। कि कैसे अनगढताएं क्रमशः धीरे -धीरे  विकास क्रम में  सुगढ़ताएं की ओर प्रतिष्ठित होते हैं।  इन सूत्रों तथ्यों को समझना चाहिए। ताकि जो पहेलियां या  रहस्य है उन्हे भंलिभांति समझ सकें। 
                         सतनाम 
                     जय छत्तीसगढ़   

      -डाॅ. अनिल भतपहरी  / 9617777514

दबंग सतनामी ‌

छत्तीसगढ़ में सतनामी गौटिया मंडल भी अपने स्वजाति या अन्य का दलन करते हैं। यह प्रवृत्तियाँ अब भी यदा कदा देखने में मिलते हैं। 
      सतनामियों से लोग भयभीत भी रहा करते हैं। तब्बल फर्शी लाठी लेकर बाजार हाट चलते और बात बात में लड़ते व उलझ जाते थे। ताकत व दौलत उन्हें राजपूत जैसे निडर व वारियर याने कि योद्धा बनाते थे।
      सवर्णो व सतनामियों का झड़पे  अक्सर होते रहा है । क ई जगहों पर सवर्णो को बेदखल किए गये कही वह स्वयं बेदखल हुए हैं।
उनकी इस प्रवृत्ति के कारण उन्हे ब्रिटिश काल मे क्रीमनल कौम भी घोषित किए गये थे।
       सतनामियों की इस शूरवीर व क्रुरतम स्वभाव के ऊपर भी यदा -कदा विचार होनी चाहिए। यह ऐसा तत्व है जो उन्हे दलित से ऊपर दबंग होने का मार्ग प्रशस्त करते हैं।
      नीरीह दलित  पराश्रित सतनामी कभी नहीं ‌रहा ।बल्कि कठोर परिश्रमी जीवट व जुल्मादि का प्रखर  प्रतिरोधी रहा हैं।
  डॉ. अनिल भतपहरी 

Friday, July 24, 2020

सतनाम संस्कृति में गौ संरक्षण

।।सतनाम संस्कृति में गौ संरक्षण ।।

          सतनाम धर्म- संस्कृति में गुरुघासीदास के सतनाम सप्त सिद्धान्त में एक प्रमुख गौ संरक्षण रहा हैं। गिरौदपुरी के पावन घरा पर सुप्रसिद्ध नाड़ीवैद्य मेदनीराय गोसाई के पुत्र महंगू बाबा के घर अघ्घन पून्नी १७५६ जन्म के कुछ दिन बाद अमरौतिन माता के निधन के बाद गुरुवर गाय के दुध पीकर ही पले- बढ़े थे। साथ ही कृषि संस्कृति के रीढ़ गो धन ही हैं। संभवतः इसलिए प्रमुखतः गोसंवर्धन पर उनकी शिक्षा केन्द्रित रही हैं। वे अपने दादा के नक्शे कदम पर  चलकर  पीडित मानव और मूक  पशु की दु: ख- पीड़ा के शमन हेतु अभूतपूर्व कार्य किए । 

गुरुघासीदास के समय से ही भंडारपुरी धाम में गोवंश आबाद हैं। मोती महल गुरुद्वारा के पीछे विशालकाय गोशाला स्थापित हैं। तेलासी बाडा में पशुधन का विराट बरदी ही रहते जिनके पहट चराने पहाटिया लगते । कृषि वृत्ति वाले सतनामी घरों में गोवंश संरक्षित व संवर्धित हैं।
      गुरु घासीदास के अप्रतिम सिद्धान्त व अमृतवाणी  इस संदर्भ में दर्शनीय है-

१ मुरही गाय ल झन दुहव न ओकर गोरस पियव 

२ गाय अउ भैंसी ल नागर अउ गाड़ी  मं झन फांदव 

        हमारे नित्य सतनाम आरती में बड़ी श्रद्धा भक्ति से यह गान करते हैं-
      सुरहिन गइया के गोबर मंगाये 
      चारों खूंट अंगना चउक पुराये 
       रतन  पदारथ  हीरा - मोती 
       सरधा के आरती जगमग जोती 
       सोन कलश जेमा गंगा जल 
       हिरदे सफ्फा मन रहे निश्छल...

            इस तरह गुरु के सीख उपदेश कलान्तर में युगान्तरकारी प्रवर्तन के रुप में प्रतिष्ठित हुआ। उनके अनन्य  अनुयाई सतनामियों ने भारत में सर्वप्रथम गोरक्षा आन्दोलन  १९२०-२२ में राजमहंत नयनदास महिलांग के नेतृत्व में ब्रिटिश सरकार द्वारा स्थापित  करमन डीह ढाबा डीह का बुचड़खाना बंद करवा कर किया गया। ज्ञात हो कि निपनिया भाटापारा रेल्वे स्टेशन से इन बुचड़खाना से प्रतिदिन हजारों टन गो मांस बाम्बे कलकत्ता दिल्ली निर्यात होते थे। बलौदाबाजार और किरवई दो बडे मवेशी बाजार  से लाखो रुपये राजस्व ब्रिटिश सरकार के खाते में जमा होते थे।
    इस गोरक्षा आन्दोलन की  ख्याति पुरे देश भर  में फैली फलस्वरुप  गुरु गोसाई अगम दास सहित ७२ महंतों को तत्कालीन राष्ट्रीय कांग्रेस अधिवेशन  कानपुर में गांधी नेहरु डा मुंज व मालवीय जी ने आमंत्रित कर सम्मानीत किए। और उन्हे राष्ट्रीय कार्यकारिणी में जोडे ।
      बाद में  महात्मा गाँधी जी छत्तीसगढ़ प्रवास पर आए   और सतनाम संस्कृति से बेहद प्रभावित हुए। इसलिए ही  वे रायपुर से बलौदा बाजार तक सतनामी बाहुल्य व तीर्थ क्षेत्र की  यात्रा भी  किए । 
          वर्तमान में छत्तीसगढ़ राज्य जो कृषि प्रधान राज्य है में गो संवर्धन हेतु महत्वाकांक्षी " गोधन न्याय योजना"  लाए है तब उक्त ऐतिहासिक घटनाक्रम का महत्वपूर्ण स्थान हैं। गोभक्त  महंत नयनदास महिलांग को स्मृत करने उनके नाम पर इस योजना का नामकरण होना चाहिए और इस योजना में जो व्यक्ति या संस्था कार्य करे उसे गोसपूत महंत नयन दास सम्मान से सम्मानित करने की नीति निर्धारण होना चाहिए। 
            ।‌। जय  छत्तीसगढ़ ।‌।

                          डाॅ. अनिल भतपहरी / 9617777514

ये जीना भी कोई जीना है ...

ये जीना भी कोई ....
   
शरद पूर्णिमा के कारण आज रतजगा हुआ।वैसे भी पूनम की चांद हमें बचपन से सोने नही देती।
 तस्मई सोंहारी चीला से महकते घर -आंगन , चंद्रमा की दूधियां रंग ऊपर से विविध भारती की छाया गीत अब तो मोबाईल से रात्रि ११ बजे के बाद एफ एम से मधुर फिल्मी गीत सुनते छत पर टहलते रहना एक अपूर्व आनंद व खुशियां मन में भरते रहा है। 
गांव में  पिता जी बांसुरी से स्वर लहरी बिखेरते तो  हम हारमोनियम से छूकर  चिटिक अंजोरी निरमल छंइहा गली गली बगराए वो पुन्नी चंदा ..या  तुके मारे रे नैना की धुन छिड़ते तो लगता समय ठहर सा गया है ... गांव के वृहत्त  आंगन  मे सरग उतर रहे है ।
       पर इन दिनों शहर  की बजबजाती नालियों का दूर्गंध मक्खी के आकार का  काले मच्छड़ों की तीखे डंक का आतंक ,आवारा कुत्तों की भौंकते रहने साथ ही घर- घर पल रहे श्वनों की समवेत स्वर से जीना हराम सा हो गये है।भले मनोरंजन सुख -सुविधाओं से लैश है पर हम जैसों प्रकृति प्रेमियों के लिए बड़ा ही क्लेश है।
       सारे सुकून प्रदान वाले कारक शैन: शैन: छरित होने लगे है ।ऐसा लगता है कि सुविधाएं ही सकंट उत्पन्न करा रहे है ।और प्रकृत्स्थ जीवन जो रहा अब दिवास्वप्न सा हो गये है....
क्या अब मोबाइल रखकर भी नो कनेक्टीविटी जोन में रहने  चले जाय   टी वी रेडियों समाचार पत्रों से दूरिया बना ले  .... गांव के लीम चौरा में बैठे फिर वही ददरिया झड़काए ... जब देखेंव पुन्नी के चंदा रतिहा मय उसनिंधा ....
      मन के बात मन म रहिगे प्रात: ६ बजे  मोबाइल में भरे अलार्म बज उठे ... यंत्रवत उठे ब्रश में शेनम पेष्ट लगाए और छत पर चढ़ गये ... गुनगुनाती धूप में धूमते तभी देखते है कि सामने ही  कालोनी के दो पडोसी महिलाएं पालतू  कुत्ते की बीट के कारण लड़ रही है ।और पीछे दो पुरुष कार पासिंग के लिए तू तू मैं मैं हो रहे है। बच्चे वजनी बस्ता थामें कुछ चबाते -खाते चौक में खड़ी स्कूल बस की ओर भाग रहे है। कीचन से जीरा प्याज के छौंक का गंध आने लगे ... तो तंद्रा टूटा । स्नान करने लपका ...बिना स्वाद जाने समझे हलक से तीन रोटियां सब्जी गरमागरम गोंजे और पानी पीते कपड़े  पहिन दांत में बढ़ते  सेंससीविटी के कारण बिन दो लौंग में मुंह मे व कंधे मे  बैकपैंक डाल  यंत्रवत रात्रि ८ बजे तक लौटने के लिए निकल लिए ....ये कहते कि ये जीना ..भी कोई जीना है लल्लू !
   - डा. अनिल भतपहरी

Thursday, July 23, 2020

जनता चुने सरकार

आपके वास्ते छकड़ी हमरी 

  "जनता चुने सरकार"

जनता चुने सरकार पर नेता देते हैं धोखा 
हर्रा लगे न  फिटकरी  और  रंग हैं  चोखा 
और रंग हैं चोखा कहते ये वोट के सौदागर 
लोकतंत्र के हत्यारे ये नर -पिशाच,निशाचर 
मौका परस्त दलबदलू का हो सदा अपकार 
ये जोड़-तोड़ करे तो पुनःजनता चुने सरकार 

-बिंदास कहें डां.अनिल भतपहरी

माता सहोदरा पचरा

१०-११ मार्च 2020 दो दिवसीय सहोदरा माता झांपी दर्शन मेला के अवसर पर -

।।माता सहोदरा पचरा ।।

तोर जस  गावन सुघ्घर माता  सहोदरा 
पिता गुरु घासीदास अउ माता हे सफरा ...

दाई- ददा के दुलौरिन तहु सतधारी 
दुनो कूल उबारे माता शक्ति हस नारी 
दुमन आगर गावन तोरेच जस पचरा ...

ससुराल सुकली गांव  बुघु देवान घर 
बसाए कुट- कुट कुटेला गांव जबर 
हांका परगे दसकोसी मनखे होगे अचरा ...

जुलुम रोके खातिर  नारी जागरण चलाए  
होरी जलाई बंद कराके मंगल भजन चलाए 
 अड़ताफ होवन लागे तोरेच चरचा ...

बोड़सरा बाड़ा सिरजे अठगवां सुख धाम 
जिहां चले तोर हुकुम शोर उडे  सतनाम 
सोहदरा माता तोर महिमा हे अपरा ...

भागमानी सहोदरा दाई तोरेच महिमा अपार 
राखे संजो के गुरुबबा के खड़ाऊ कंठी  हार 
काचा कलस माटी के दीया मं करे ऊंजियरा...

      -डा. अनिल भतपहरी/ 9617777514

बागड़

आपके वास्ते छकड़ी हमरी 

      ।। बागड़।।

बागड़ बड़ बरबाद हुए सांडों की लड़ाई में 
मजे ले त्योहार मनाएं जनता हर चुनाई में
जनता हर चुनाई मे आश्वासन से जाते छले 
नियति उनकी बन चुकी है बेचारे भोले भले 
बदलाव की सोच लिए देते वोट तोड़ ताबड़ 
इनके खेत उजड़ते गये पर बने नेता के बागड़ 

      बिंदास कहें -डा. अनिल भतपहरी

Tuesday, July 21, 2020

सतनाम संस्कृति में आध्यात्म

"सतनाम संस्कृति में आध्यात्म" 


आध्यात्म का शाब्दिक अर्थ है आत्मा से संबंधित अध्ययन चिन्तन मनन ।
पर इनका वास्तविक अर्थ है अपने भीतर विद्यमान चैतन्य शक्ति को जनाना  व मन- मतिष्क की क्रिया को समझना इसके साथ  कथित  आत्मा तत्व को  भी जानने -समझे की प्रक्रिया ।
आत्मवादी दर्शन में "आत्मा"  को समझना या इनके दर्शन करना या उनमें तादात्म्य भाव स्थापित करना प्रमुख ध्येय हैं। जबकि अनात्म दर्शन में आत्मा जैसी चीज के संदर्भ में कोई चिन्तन विचार नहीं है।  
बहरहाल आध्यात्म तो दोनो दर्शन में है और यह एक तरह से व्यक्ति का  अन्तर्यात्रा भी कहे जा सकते हैं।  जिससे आत्म साक्षात्कार या दर्शन की प्राप्ति होती हैं। और फिर बहिर्जगत के साथ उनका तादाम्य स्थापित करना होता है।
आध्यात्म लगभग सभी धर्मो, मतो‌ं ,पंथो में नीहित हैं।  अनुयाई लोग अपनी सुविधा और विवेक से इसे व्यवहृत व परिभाषित करते हैं। 
पर सच तो यह भी हैं। बहुत सी विचार धाराएँ आत्मा को ही नहीं मानते और वहाँ आध्यात्म का मतलब अनात्म दर्शन है ।इसमे मुख्यतः बौद्ध दर्शन और चार्वाक या लोकायत आते हैं।
     आत्मा या प्राण या जीवन एक   सहज प्रक्रिया हैं जो चैतन्य तत्व हैं। ऊर्जा है जिसके द्वारा प्राणियों और वनस्पतियाँ के  शरीर शाखाएँ पत्रादि संचालित होते हैं। 
असल चीज शरीर है न कि आत्म तत्व इसलिये शरीर उनके उचित  व्यवहार रखरखाव संरक्षण आदि के बारे में  विचार किए जाते हैं।
  जबकि आत्म दर्शन में शरीर व्यर्थ मिट्टी का पुतला कामी भोगी है इसलिए वहा  आत्मा को सर्वोच्च मानकर आत्मा और परमात्मा अर्थात ईश्वर की परिकल्पना की गई हैं। और बड़ी- बड़ी ग्रंथ व उनके स्थल निर्मित किए गये हैं उनके रख- रखाव व संरक्षण हेतु पुरोहित  वर्ग( धर्म कर्म. कांड करने के समुदाय)  खड़े  किए गये हैं। उनके द्वारा निरंतर  प्रचार- प्रसार हेतु  प्रतिबद्ध टीम है राजा सामंत पुरोहित सेवादार सबकुछ नियुक्त है। फलस्वरुप आत्मा यानि परमात्मा के वजूद वाले धर्म दुनिया में वैभव शाली व लोकप्रिय है। जनास्था भी बहुतायत द्रष्टव्य  है भले इनसे उनको अपेक्षित लाभ मिले न मिले पर इन क्रिया कर्मो व्रत उत्सव आदि से मनरंजन और जीवन की जटिलताएं विगलित होते हैं। अनेक तरह की ललित कलाओं का संरक्षण भी इनके द्वारा हुए हैं। ईश्वरीय आराधना मन रंजन भी है संभवतः इसलिए परमात्मा को  आनंद कारक मान लिए गये हैं। फलस्वरुप लोग परमानंद प्राप्त करने नाना किस्म के उद्यम करते रहते हैं। इसमे नाच- गान लीला छप्पन भोग शोभायात्रा से लेकर जुलुश प्रदर्शन सबकूछ सम्मलित हैं। इसलिए इनका व्यापक प्रभाव परिलक्षित होते हैं।
   पर  इन सबसे परे शैन: शैन: तत्ववेत्ताओं अन्वेषको द्वारा  अनात्म दर्शन व्यक्तिक होते हुए भी प्रज्ञावानों में लोकप्रिय हैं। और इनका प्रभाव भी जन साधारण में पड़ने लगा हैं।

   आजकल  उक्त दोनो मन: स्थिति से पृथक तेजी से 
आत्मा -परमात्मा के जगह सामूहिक  सेवा, परस्पर मेल-मिलाप ,प्रेम, परोपकार आदि  से युक्त आयोजन होने लगे हैं। यह संत मत हैं या कहे प्राचीन  श्रमण  परंपरा का नव वर्जन है इनकी प्रभाव आत्म दर्शन व अनात्म दर्शन दोनों देखे जा सकते हैं। 

      छत्तीसगढ़ के  सतनामियों में अभी कोई एक चीज रेखांकित या अंगीकृत नहीं है यहा सब "समेलहा " मतलब जो जहां से जितना सुन समझ सकता हैं। उतने कर सकने की बातें होने लगी है। यानि समन्वय वादी दृष्टिकोण विकसित हुआ हैं। क्योंकि सर्वाधिक लोगों की  मान्यताएँ तो पूर्ववर्ती रहा है जैसे छत्तीसगढ़ के मूल निवासियों की संस्कृति है वही यहाँ ज्यों की त्यों हैं। बस उपासना पद्धति में आंशिक फेरबदल गुरुघासीदास के कारण हुआ और लोग पुरोहिती मंदिर मूर्ति कर्मकांड बलि प्रथा अंध विश्वास  आदि के जगह  सतनाम पंथ की नव संस्कृति को आत्मसात करने लगे हैं।
पहले -पहल तो कोई खास आयोजन होते ही नहीं थे ,केवल जीवन वृत्त और जो पारंपरिक व्रत त्योहार है वही मना लिए जाते थे।
    धीरे -धीरे अब धार्मिक आयोजन होने लगे हैं जहां  आध्यात्मिक परिचर्चा आदि यदा- कदा हो रहे हैं। 
   रामत- रावटी में सत्संग -प्रवचन की प्रथाएं थी वह केवल प्रबंधन और डाड़- बोड़ी तक सीमित रह होने लगे ।
    फलस्वरुप गुरु शब्द डरावना हो गया कही वह नाराज न हो जाय। रामत में गुरु के आने की खबर मात्र से लोग अपने रहन- सहन ,खान -पान के लिए भयभीत होने लगते! समाज को संस्कारित करने यह भी एक हद तक जरुरी था। पर विगत ४०-५० वर्षो में गुरुओं की प्रतिष्ठा क्षरित होते जा रहे हैं। यहाँ बड़े  और सामूहिक आयोजन तो हो रहे हैं। पर नाच- गाने शो बाजी और फिजुल खर्ची के सिवा जादा कुछ नहीं हैं। इसे आत्मदर्शन वाले सगुण पंथी वालों की तरह  धार्मिक आयोजन कहे जा सकते इनके द्वारा हम अपनी अस्मिता स्थापित करने मे लगे हुए है। अध्यात्मिक  यात्रा अभी आरंभ नहीं हुआ हैं न कोई प्रतिभाशाली आध्यात्मिक व्यक्ति या गुरु हैं जो लोगों की तमाम प्रश्नों शंकाओं का समाधान कर उसे भीतर या अनर्यात्रा की ओर प्रवृत्त करा सके। जरुर समाज में समाधि साधक संत मिलते हैं। यह सहजयोग के इतर हठ साधना जैसा है और उनके भी अपने विशिष्ट प्रभाव देखने मिलते हैं।
इस तरह जो जितना समझ बुझ सकते हैं वह उतने में निमग्न नजर आते हैं। संभवतः इसलिए भ्रमित सशंकित भी कि इनमें सही क्या है? भू समाधि, जल समाधि, अग्नि समाधि  आदि करतब प्राचीन ब्रजयानी साधुओ या हठयोगियों की क्रिया का ही अनुकरण है पर इन क्रियाओं का जनता पर गहराई से प्रभाव पड़ते हैं। वे यह देख हैरत सा होकर साधक के प्रति श्रद्धा वनत हो जाते हैं। पर पढे लिखे अन्वेषक व विचार वान तबका इनसे अलग चाहते है इसलिए कुछ इच्छुक लोग अन्यत्र  आव्रजन करने लगे हैं। क्योंकि यहाँ इस संदर्भ में अधिक जानकारियाँ या आयोजन का अभाव हैं।
    अभी हमारे धार्मिक व्यक्ति जो थोडी बहुत आध्यात्मिक बातें कर सकते हैं वे  ग्रामीण पृष्ठभूमि और अनेक तरह के अभाव  से ग्रस्त हैं। साथ ही उन्हे अपेक्षित सम्मान नहीं मिलते और तो और अनावश्यक वाद -विवाद व प्रलाप भी  चल पडते हैं। क्योंकि अभी ग्रामीण व कृषक समाज भूख  मिटाने और आवश्यक साधन एकत्र करने में लगे हैं। और चंद साधन सम्पन्न नौकरी पेशा शहरी तबका  भौतिक सुख की मोह से ग्रसित हैं।  
    आध्यात्म इन दोनो परिस्थितियों से अलग है और इस मार्ग का राही एकेला होते हैं। वह समूह में नहीं चल सकता समूह केवल उत्सव हैं मौज मस्ती व  मन रंजन है। 
प्रगतिशील छत्तीसगढ़ सतनामी समाज के अभ्युदय से हम लोग सतनाम साहित्य प्रकोष्ठ के माध्यम से गुरुघासीदास चरित व  सतनाम धर्म संस्कृति व्याख्यान माला आयोजित कर विगत ७ वर्षों से  पढे लिखे रचनाकारों और पांपरिक साधु संतो को आध्यात्मिक / धार्मिक  परिसंवाद करने गिरौदपुरी मेले में मंच उपलब्ध कराने की प्रयास करते रहे हैं। इनके द्वारा थोड़ी बहुत नवाचार जैसे सतनाम सहज योग और सतनाम सुमरन साधना  की नींव डाली गई हैं। गुरुवंदना में भी सतनाद व आध्यात्मिक परिसंवाद सत्संग ,भजन -कीर्तन प्रति सोमवार या रविवार कही -कही होने लगे हैं। वहाँ तस्मई  ,पान -प्रसाद आदि वितरण भी होने लगे हैं।  ताकि बाल बच्चे युवा वृद्ध  लोगों की जुडाव हो सके। आगे और भी बेहतर होन्गे ऐसी उम्मीद हैं। 
गुरुघासीदास के  सतनाम दर्शन  लोकायत बुद्ध व चर्वाक के अनात्म दर्शन से अधिक सामीप्य हैं।
      वह कल्पित ईश्वर से अधिक अपने भीतर की आत्मबल और सद्गुणों  को धारित कर परस्पर व्यवहार  करते सात्विक संयम अनुशासित जीवन को जीते हुए जीते  जी पद निर्वाण या परमपद के कारक बताए हैं। न कि पूजा पाठ कर्मकांड व्रत उत्सव तीर्थाटन आदि करने कहे हैं। वे तो दान दक्षिणा के भी प्रखर विरोधी हैं! उनकी अमृतवाणी है -
" दान के देव इया पापी दान के लेव इया पापी " 
   समाज में न कोई दाता हो न याचक बल्कि समान आर्थिक व्यवस्था सहित समान भाव से रहने की उत्तम व्यवस्था सतनाम पंथ में प्रावधान किए हैं।
परन्तु यह  आदर्श परिकल्पना चरितार्थ नहीं दिखते यही सतनाम दर्शन को प्रतिष्ठित न हो सकने का प्रमुख कारण बना हुआ है।
हमारे लोग शीध्र ही गुरु उपदेश  के  विपरीत उनके उन्ही के पूजा पाठ करने में उन्मत्त हो गये ।
और उनके द्वारा विकसित प्रणाली सहजयोग ध्यान सात्विक आहार विहार और सद्गुणों के अनुपालन  से दुर होते जा रहे हैं। यह बहुत ही विडंबना पूर्ण परिस्थिति हैं।
जबकि वह  तथाकथित परम शक्ति जिसे यहां कुछ लोग कबीर पंथ के सत्यपुरुष के अनुसार भक्ति करने की बातें कही पर वे साफ साफ कहे - 
" तोला भक्ति करेच बर हवे त तय हर बारा महिना के खरचा जोर ले तब भक्ति कर नइते झन कर ।" 

इस विचार करे तो  सामीप्य के पूर्व साम्यता शब्द  मन में आया था।पर साम्यता में समानता की बातें हैं और सामीप्य में निकटता का भाव है।
गुरुघासीदास खाओ पीओ उडाओ ऐसा चर्वाक जैसा नहीं कहे और न ही बुद्ध की तरह सारे वैभव त्याग कर भिक्षु बन भिक्षावृत्ति करे कहे हैं।
   गुरुघासीदास के दर्शन बेहद व्यवहारिक है जिसे कोई भी सहज रुप से अंगीकृत कर सकते हैं। 
इसलिए  सतनाम दर्शन अनात्मवाद के  सामीप्य कहे जा सकते है  क्योकि इन दर्शन में ईश्वर आत्मा परमात्मा जैसा गडबड झाला नहीं है। बल्कि एक मनुष्य का दूसरे मनुष्य के साथ कैसा व्यवहार किए जाय यह विशिष्ट बातें हैं । उन्होंने बहुत ही सहजता से पुरी के सागर तट पर घोषित किए -
 "मनखे ए पार के होय कि ओ पार के करिया होय के गोरिया हो मनखे -मनखे  एक बरोबर आय ।"
उपर्युक्त  बातें गुरुघासीदास बाबा को  अठ्ठारहवीं सदी में  आधुनिकतम " सतनाम  दर्शन " का सबसे बड़ा प्रवर्तक  के रुप में वैश्विक स्तर पर प्रतिष्ठित कर सकता हैं। बशर्ते इस बात को विश्व पटल पर बड़ी शिद्दत के साथ रखने का मौका मिले और प्रतिभाशाली विचारक वहां जाकर   सतनाम पंथ की विशेषताओं  को रखे।या इस संदर्भ में उत्कृष्ट लेखन आदि करें भौतिक वाद का दस्तक हो चुका था अंग्रेजों की राज्य थी और अनेक तरह के मशीनी और औद्योगिकरण की चर्चाएँ भी होने लगी थी।
गुरुघासीदास सदैव गतिमान रहे रामत -रावटी द्वारा देशाटन करते रहे। वे  अट्ठारहवीं सदी के आधुनिकतम बदलाव के  आभाष से परिचित थे। वे महान द्रष्टा है  इसलिए उनकी वाणी में उपदेश में यह सब बातें समाहित है जो शैन: शैन: अब जाकर लोगों को उनकी हर एक बात प्रासंगिक ही नहीं परम सत्य प्रतीत हो रहे हैं।
     आइए हम सब उनकी शिक्षा और उपदेशनाओं के अनुरुप जीवन शैली अपनाए और भगत (इसमे स्वयं भी सम्मलित है )कल्याण सहित जगत कल्याण की दिशा में सतनाम पंथ पर प्रयाण करें।
 
              सतनाम

-डॉ. अनिल भतपहरी / 9617777514

सी- ११ ऊंजियार- सदन अमलीडीह ,रायपुर छत्तीसगढ़

Monday, July 20, 2020

सतनाम संस्कृति में आध्यात्म

सतनाम संस्कृति में आध्यात्म 


आध्यात्म का शाब्दिक अर्थ है आत्मा से संबंधित अध्ययन चिन्तन मनन ।
पर इनका वास्तविक अर्थ है अपने भीतर विद्यमान चैतन्य शक्ति को जनाना  मन मतिष्क की क्रिया को समझना और कथित  आत्मा तत्व को  भी जानने -समझे की प्रक्रिया । 
इसे अन्तर्यात्रा भी कहे जा सकते हैं  जिससे आत्म साक्षात्कार या दर्शन की प्राप्ति होती हैं। और फिर बहिर्जगत के साथ उनका तादाम्य स्थापित करना होता है।
आध्यात्म लगभग सभी धर्मो मतो‌ पंथो में नीहित हैं।  लोग अपने अपने सुविधा और विवेक से इसे व्यवहृत व परिभाषित करते हैं। 
पर सच तो यह भी हैं। बहुत सी विचार धाराएँ आत्मा को ही नहीं मानते और वहाँ आध्यात्म का मतलब अनात्म दर्शन है ।इसमे मुख्यतः बौद्ध दर्शन और चार्वाक या लोकायत आते हैं।
     आत्मा या प्राण या जीवन एक   सहज प्रक्रिया हैं जो चैतन्य तत्व हैं। ऊर्जा है जिसके द्वारा प्राणियों और वनस्पतियाँ के  शरीर शाखाएँ पत्रादि संचालित होते हैं। 
असल चीज शरीर है न कि आत्म तत्व इसलिये शरीर उनके उचित  व्यवहार रखरखाव संरक्षण आदि के बारे में  विचार किए जाते हैं।
  जबकि आत्म दर्शन में शरीर व्यर्थ और आत्मा को सर्वोच्च मानकर आत्मा और परमात्मा अर्थात ईश्वर की परिकल्पना की ग ई हैं। और बडी बडी ग्रंथ व उनके स्थल निर्मित किए गये हैं उनके रख रखाव व संरक्षण हेतु पुरोहित वर्ग खडे किए गये हैं। इनके  प्रायोजन  और अनवरत प्रचार प्रसार हेतु  प्रतिबद्ध टीम है राजा सामंत पुरोहित सेवादार सबकुछ नियुक्त है फलस्वरुप आत्मा यानि परमात्मा के वजूद वाले धर्म दुनिया में वैभव शाली व लोकप्रिय है। 
   पर शैन शैन अनात्म दर्शन व्यक्तिक होते हुए भी प्रज्ञावानों में लोकप्रिय हैं।

   आजकल  उक्त दोनो मन: स्थिति से पृथक तेजी से 
आत्मा -परमात्मा के जगह सामूहिक सेवा परस्पर मेल जोल‌ प्रेम परोपकार से युक्त आयोजन होने लगे हैं। यह संत मत हैं या कहे प्राचीन  श्रमण  परंपरा का नव वर्जन है इनकी प्रभाव आत्म दर्शन व अनात्म दर्शन दोनो देखे जा सकते हैं। 

      छत्तीसगढ़ के  सतनामियों में अभी कोई एक चीज रेखांकित या अंगीकृत नहीं है यहा सब समेलहा मतलब जो जहां से जितना सुन समझ सकता हैं। उतने कर सकने की बातें होने लगी है। 
पहले पहल तो कोई खास आयोजन होते ही नहीं थे केवल जीवन वृत्त और जो पारंपरिक व्रत त्योहार है वही मना लिए जाते थे।
    धीरे धीरे अब धार्मिक आयोजन होने लगे हैं जहां  आध्यात्मिक परिचर्चा आदि यदा कदा हो रहे हैं। 
   रामत रावटी में सत्सञग प्रवचन की प्रथाएं थी वह केवल प्रबंधन और डाड बोड़ी तक सीमित रह गये।
    गुरु शब्द डरावना हो गया कही वह नाराज न हो जाय रामत आने की खबर मात्र से लोग अपने रहन सहन खान पान के लिए भयभीत होने लगते समाज को संस्कारित करने यह भी एक हद तक जरुरी था। पर विगत ४०-५० वर्षो में गुरुओं की प्रतिष्ठा क्षरित होते जा रहे हैं। यहाँ बडे और सामूहिक आयोजन तो हो रहे हैं। पर नाच गाने शो बाजी और फिजुल खर्ची के सिवा जादा कुछ नहीं हैं। इसे धार्मिक आयोजन कहे जा सकते इनके द्वारा हम अपनी अस्मिता स्थापित करने मे लगे हुए है। अध्यात्मिक  यात्रा अभी आरंभ नहीं हुआ हैं न कोई प्रतिभाशाली आध्यात्मिक व्यक्ति या गुरु हैं जो लोगों की तमाम प्रश्नों शंकाओं का समाधान कर उसे भीतर या अनर्यात्रा की ओर प्रवृत्त करा सके।
    इसलिए कुछ इच्छुक लोग अन्यत्र  आव्रजन करने लगे हैं। क्योंकि यहाँ इस संदर्भ में अधिक जानकारियाँ या आयोजन का अभाव हैं।
    अभी हमारे धार्मिक व्यक्ति जो थोडी बहुत आध्यात्मिक बातें कर सकते हैं वे  ग्रामीण पृष्ठभूमि और अनेक तरह के अभाव  से ग्रस्त हैं। साथ ही उन्हे अपेक्षित सम्मान नहीं मिलते और तो और अनावश्यक वाद विवाद प्रलाप भी  चल पडते हैं। क्योंकि अभी ग्रामीण व कृषक समाज भूख  मिटाने और आवश्यक साधन एकत्र करने में लगे हैं। और चंद साधन सम्पन्न नौकरी पेशा शहरी तबका  भौतिक सुख की मोह से ग्रसित हैं।  
    आध्यात्म इन दोनो परिस्थितियों से अलग है और इस मार्ग का राही एकेला होते हैं। वह समूह में नहीं चल सकता समूह केवल उत्सव हैं मौज मस्ती मन रंजन है ।  

प्रगतिशील छत्तीसगढ़ सतनामी समाज के अभ्युदय से हम लोग सतनाम साहित्य प्रकोष्ठ के माध्यम से गुरुघासीदास चरित व  सतनाम धर्म संस्कृति व्याख्यान माला आयोजित कर विगत ७ वर्षों से  पढे लिखे रचनाकारों और पांपरिक साधु संतो को आध्यात्मिक / धार्मिक  परिसंवाद करने गिरौदपुरी मेले में मंच उपलब्ध कराने की प्रयास करते रहे हैं। इनके द्वारा थोड़ी बहुत नवाचार जैसे सतनाम सहज योग और सतनाम सुमरन साधना  की नींव डाली ग ई हैं। गुरुवंदना में भी सतनाद व आध्यात्मिक परिसंवाद सत्संग भजन कीर्तन प्रति सोमवार या रविवार कही कही होने लगे हैं। वहाँ तस्म ई पान प्रसाद आदि वितरण भी होने लगे हैं। इस तरह अब लोगों की जुडाव इस तरह हो रहे हैं। आगे और भी बेहतर होन्गे ऐसी उम्मीद हैं। 

   -डाॅ. अनिल भतपहरी

Sunday, July 19, 2020

हरेली

हरेली तिहार के गाड़ा गोना बधाई ...

।। हरेली ।।

आइस  मनभावन  तिहार हरेली 

गेड़ी  खपा के गाड़त  हन रहचुली 

घरो-घर  चुरत हे चीला  चढे कराही 

जाके खरिखा लोंदी गरवा ल खवाही 

असीस देय पवनी मन घरो घर आही 
 
नागर अउ  औजार मन के पूजा होही

सम्मत रहय उन्ना दुन्ना होय घन दोगानी

जुरमिल हसी -खुशी रहय जम्मो परानी 

दु:ख- पीरा हरे के मंत्र सियान लहुटाही 

नवसिखहा मन ल पाठ-पीढ़ा  देय जाही 
  
कब्बडी बिल्लस भौंरा बाटी मं मजाआही 

करमा ददरियां पंथी बार रिलो तको होही 

आइस मन भावन  होथय  तिहार  हरेली 

बिधुन झुम्मर गावै-नाचै अनिल भतपहरी 

     जय जय छत्तीसगढ़ 

                       -डा. अनिल भतपहरी

पौधरोपण

"पौधारोपण गीत "

हमर गांव म जंगल रहितिस त

   तेन्दु चार मउहा गस्ती खातेन 

जातेन डोंगरी पहाड संगवारी 

    करमा ददरिया संग मस्ती उडातेन ....
                 १
रहिस होही तइहा म ओ 
     जंगल सिरागे 

      बड दुख के बात गांव म    रुख राई नइये 

सपना मसुने नइयन मंजुर बोली
 
      सुनके हिरदय म खुशी मनातेन ...
                       २
 कब आथे फागून कब आथे   हरेली 
 जाने बर देखे ल परथे पातरा बरपेली 
चिरई- चुरगुन मन गीत गातिस
 फूल ल देख भौरा मोहातिस 
त बारो महिना ल हम जान जातेन ....
                      ३
 बंजर भाठा भर्री ल चल आज
   सवारलिन 
किसिम किसिम के पौधा ल
  सुघ्घर लगालिन

पौधरोपन तिहार ल जुलमिल मनातेन

धरती के अंचरा ल सुघ्घर  हरियातेन ...

     डा. अनिल भतपहरी 
            अध्यक्ष  
छत्तीसगढी राजभासा साहित्य समिति

चित्र - शा बृजलाल वर्मा महाविद्यालय  पलारी के परिसर में विकसित हरितिमा ।  रासेयो स्वयं सेवक व महाविद्यालयीन प्रबंधन के सहयोग से ।
(कार्यक्रम अधिकारी के रुप में हमारी छोटी सी भूमिका ‌रही हैं। )

Saturday, July 18, 2020

मिक्स फ्रूट

आपके वास्ते छकड़ी हमरी 

सुबह-सुबह मिक्स फ्रुट
खाकर रहें चुस्त-दुरुस्त 
बढ़ाकर अपनी इम्युनुट 
लड़ें कोरोना से युद्ध 
बच्चे युवा या हो वृद्ध
सेहत को करें समृद्ध 

बिंदास कहें - डॉ. अनिल भतपहरी

Monday, July 13, 2020

मनखे मनखे एक

।।मनखे मनखे एक ।।

सुनार की सौ टक टक लुहार की होते एक 
ऐसे ही संतो की बानी जे पड़त  कलेजे छेक...


काले हो या गोरे देश के हो या परदेश 
कहे गुरु घासीदास मनखे -मनखे एक...

एक चाम एक मल मुतर कौन भला कौन मंदे 
उनके सब बंदे कहे नानक  नूर-ए-उपजे एक...

माला फेरत जुग गया न गया मन का फेर 
कबीर कहे मनका डारिके फेर मनके एक...

ऐसा राज चाहु मै मिले सबको सम अन्न भाव 
कहियो रैदास रहियो सदा मन चंगे एक... 

जो तु तु मै मै करता फिरता मानुष मुरुख मन
कहत साई परसन होवै मालिक सबके एक...


                             -डाॅ. अनिल भतपहरी 

Monday, July 6, 2020

करमसेनी / करमा

देवी करमसेनी या कर्मा माता 
     
कर्मा माता को नरवर नरेश की प्रतिद्वंदी व झांसी के तैलिक परिवार रामशाह  की  पुत्री और कृष्ण भक्त कहे जा रहे  है ।
    नरेश के उत्पीड़न से वे नरवर त्याग कर पिता के पास पति सहित रही और पति की मृत्यु उपरान्त जगन्नाथ यात्रा हेतु पुरी प्रयाण की और अपनी भक्ति से  प्रसिद्धी  प्राप्त की। जबकि करमसेनी के नाम से छत्तीसगढ मे यह श्रमिक जातियों की  आराध्य देवी है।उनकी अराधना सदियों से है और उनसे एक विशिष्ट संस्कृति विकसित हुई  है । भादो मे भोजली जगा कर ,करम डार लगा कर लोक उत्सव मनाये जाते है ।
  करमा माता  कृष्ण उपासिका थी और  पुरी यात्रा करती है और वहां पंडे- पुजारी से अपमानित भी होती है ।पर उनकी अनन्य भक्ति से सकरात्मक प्रभाव पड़ते है  अत: समुदाय मे वे पूज्य हो जाती है। इसे  तैलिक समुदाय से संबंधित होने के दावा भी है ।  (ज्ञात हो कि  राजिम माता  को  यह समुदाय  अधिष्टात्री मानते रहे हैै ) 
        फलस्वरुप विगत कुछ वर्षो छग मे उनकी बहुलता होने के कारण उनके नाम पर सार्वजनिक रुप से अवकाश धोषित हुई और अब इस तरह कर्मा माता चर्चा में है।
    सच तो  यह है कि कर्मा माता को छत्तीसगढ़ में  करमसेनी के नाम से अनादि काल से पूजते आ रहे है।करम देवता के नाम से यह पुरुष रुप में भी वंदित है।
    श्रमिक व शिल्पी  जातियां जिन्हे अस्पृश्य माने जाते रहे है के लिए भी करमसेनी अराध्य है। तेली कुरमी अघरिया  कलार गाडा घसिया देवार कोष्टा कुम्हार लुहार   मेहर मोची कहार आदि समुदाय के अराध्य  करमसेनी परिश्रम की देवी है।यही समुदाय मे  उनके सेवा मे पारंपरिक रुप से  करमा गीत गाए जाते है जो एक तरह से भक्ति मय जस गीत जैसा है। 
    कहे जाते है कि झारखंड व छत्तीसगढ सीमावर्ती छेत्र मे स्थित सीया पहाड़ मे करमसेनी देवी का उपजन  जन्मन बाढ़न है ।
   बाद मे करमा मे श्रृगांर आदि सम्मलित होकर युवा और प्रेमी वर्ग मे लोकप्रिय हो गये।दादर परिछेत्र मे युवाओ के प्रेमल गान के साथ करमा की युति हो ग ई और करमा ददरिया छत्तीसगढ की सांस्कृतिक पहचान भी हैं। 
     बहरहाल करमा जंयती की अवकाश होने पर उनके नाम पर अब इन सभी श्रमिक जातियों का अपना उत्सव प्रदेश में एक अलग सांस्कृतिक अनुष्ठान स्थापित होन्गे और समस्त श्रमिक समुदाय इस बहाने संगठित होकर अपने विकास के आयाम तलाशेन्गे  ऐसी उम्मीद है।
      ।।जय करमसेनी जय करमा ।।

अ इटका परब / मेला

अइटका मेला / परब 

सतनाम- धर्म संस्कृति में असाढ़ पूर्णिमा को अ इटका मेला परब के रुप में तेलासी भंडारपुरी परिक्षेत्र में बड़ी श्रद्धा व धूमधाम से मनाते आ रहे हैं।
       सतनाम पंथ का यह प्रथम सार्वजनिक महोत्सव है। इसकी नींव गुरुघासीदास ने तेलासी में रखा। 
 गुरुघासीदास के संतत्व प्रवृत्ति और उनके सहज सरल नव जीवन पद्धति को लोग बड़ी तेजी से अंगीकृत करने लगे। पंथ प्रचार करते गुरुघासीदास माता सफूरा पुत्री सहोद्रा बालकदास आगरदास सहित तेलासी में आकर रामत करने लगे ।इसी समय उनके  बिछुडे ज्येष्ठ पुत्र गुरु अम्मरदास अपने माता - पिता को तलाशते  तेलासी ग्राम में आए! और देखते ही भावविभोर हुए !
     माता पिता के  पुत्र का अभूतपूर्व  मिलन देख ग्रामीण जन अभिभूत हुए और इस परिवार को वही रहने‌ निवेदन किए । गुरुघासीदास आसपास के ग्रामों  खासकर जुनवानी देवगांव अमसेना कोडापार  भंडारपुरी भैसमुंडी गैतरा डूम्हा आदि  ग्रामों में  परिभ्रमण करते धर्मोपदेश करते और अपनी चिकित्सीय गुण के कारण असाध्य बीमारियां जैसे कुष्ठ ,त्रिजरा आदि के निदान करते लोग श्रद्धा पूर्वक दान दक्षिणा करते। इन ग्रामों में आज भी सतनामियों का बसाहट सर्वाधिक है इन्ही ग्रामों के सहयोग से आगे चलकर भव्यतम  गढी भंडार मे बनाए गये और मोती महल गुरुद्वारा जुनवानी के पत्थर कारीगरों से बनाए गये जो दर्शनीय हैं।
      तेलासी मे नित्य गुरु घासीदास का  जी सत्संग चला करता था उनके पूर्व गुरु अम्मरदास उनके  उपदेश व सिद्धांत के आधार पर मंगल भजन गाते व भाव विभोर होकर लोग पंथी नृत्य करते  वर्तमान सतनाम  मंदिर के आगे विशाल मैदान के पास ईमली वृक्ष के नीचे यह आयोजन चलते रहते थे आज भी वह पेड़ विद्यमान हैं।  र इसी बीच दो लोगों में किसी बात से विवाद होने लगे उन्हें अपनी सूझबूझ और आत्मिक संबोधन से गुरु पुत्र ने सुलझाया।
   यह देख कर गुरुघासीदास ने उनकी प्रशंसा किए और लोगों को आशीष प्रदान किए उनकी प्रिय वाणी व गुरु परिवार की सदाशयता व नित्य योग  साधना जीवन से प्रेरित होकर वहां के लोग सतनाम पंथ में समागम करने लगे। 
    गुरुघासीदास ने वहाँ के  निवासियों जिनमें तेली रावत लोहार मरार ढीमर केवट नाई धोबी  लोधी मेहर आदि जातियों को सतनाम पंथ की दीक्षा देकर सतनामी बनाए और अपने पुत्र अम्मरदास के जन्म दिन उन सबको एक ही पात्र से बने तस्मई खिलाकर " अइटका परब " की शुभारंभ किए।
    अ इटका शब्द एकता के परिचायक है और यह बौद्ध विहार  जगन्नाथ में सबको बिना भेदभाव से प्रदान करने वाले  चावल दाल के खिचड़ी महाप्रसाद थे  जिन्हे लोक भाषा में खाने से गले में अटकने का आभाष  होते तो  "अइटका" कहे गये । जगन्नाथ के भात को सबै पसारे हाथ जैसे लोकोक्ति भी प्रचलन में हैं।
    ( जगन्नाथ बुद्ध का नाम है बुद्ध को प्रज्ञा भी कहते है ।
इस तरह प्रज्ञा के साथ करुणा और शील‌ मिलकर पुरी के बौद्ध में प्रतीकात्मक मूर्तियाँ यक्ष स्वरुप में रखे गये।
    उसी को रथयात्रा के रुप में त्रिदेव स्वरुप प्रज्ञा करुणा शील रथ पर सवार होकर जगतपति होते हैं।  ) 

   बहरहाल गुरुघासीदास ने चावल दूध गुड़ मिलाकर एक विशिष्ट मीठा पकवान तस्मई बनवाए और समस्त जनमानस को एक ही पात्र से परोसवाकर  एक साथ खान पान रहन सहन को बढावा दिए। क्योंकि गुरुघासीदास जगन्नाथपुरी यात्रा में उक्त विशिष्ट प्रथा देखे थे और उन्हें सार्वजनिक भोग भंडारा समानता स्थापित करने के एक बडा सूत्र उन्हें लगा उसे वह नव कलेवर देकर विषमताओ से भरा समाज में प्रचलित किया।
तेलासी पुरी धाम के अ इटका खाने गुरु उपदेश सुनने पंथी नृत्य लीला भजन सुनने दूर दूर लोग एकत्र होने लगे।   दान दक्षिणा देने लगे तेलासी में बाडा बनवाए गये और सतनाम पंथ के बेहतर संचालन किए जाने लगे। कलांतर में  भंडारपुरी में बस जाने के बाद 
बाद में वहाँ अनुयाई  भव्य सतनाम मञदिर बनाए गये जो दर्शनीय है। यह सतनामी समाज का प्रमुख तीर्थ हैं।
      अ इटका मेला में भी गुरु गोसाई दर्शन देते हैं और लोगो को धर्मोपदेश करते हैं।

     बारिश की महिना होने और सहजता से आने जाने में परेशानियाँ होने के कारण आसपास के ग्रामों में जैतखाम व  सतनाम भवन में तस्म ई बनाकर अ इटका परब मनाने लगे ।
     इस तरह एक विशिष्ट परब का प्रचलन सतनाम पंथ में हुआ । अब समाज प्रमुखों ‌गुरुओ महंतो संस्थाओं व प्रबुद्ध जनो का उत्तरदायित्व है इस महान अ इटका पर्व को आयोजित कर समता पर आधारित मानव समाज का निर्माण करने में विशिष्ट योगदान दे।

कोरोना काल में लाकडाउन और सार्वजनिक उत्सव प्रतिबंधित हैं। अत: इस वर्ष अपने -अपने घरों ‌में‌ तस्मई बनकार आरती मंगल भजन ध्यान आदि कर सादगी पूर्ण मनावें 
             ।।सतनाम ।।

       -डा. अनिल भतपहरी

चित्र - गुरुघासीदास के पुत्र गुरु अम्मरदास,तेलासी बाडा , जुनवानी के पत्थर व कारीगरों के सहयोग से  निर्मित भव्यतम इमारत व गुरुघासीदास मंदिर तेलासी ।

Thursday, July 2, 2020

कल तुम्हें ईश्वर बनना हैं

नवभास्कर ( अब दैनिक भास्कर ) १९९१ में प्रकाशित हमारी कविता - तुममें विद्यमान ‌हैं इंसान 
असल में इस कविता का शीर्षक हैं- " कल तुम्हें ईश्वर बनना हैं" इस शीर्षक से स्वदेश आदि में  यह प्रकाशित हुई और समकालीन समय में चर्चित भी ।तब हम दुर्गा महाविद्यालय में अध्ययनरत थे।

" कल तुम्हें ईश्वर बनना हैं"

विनाश की विभीषिका से 
सशंकित 
रे मन 
अधीर न हो 
तुम्हें ज्ञात नहीं 
महाप्लावन में 
हज़रत नूंह
शेष था सत्यव्रत मनु 
लंका में विभीषण 
कुरुक्षेत्र में परीक्षित 
कितना सुन्दर मोहक‌
नई सृष्टि रचें
आदमी के प्रवृत्ति से 
डरकर
इंसान बनने की 
ललक त्यागकर 
भूल रहें हो 
कि तुम में  
विद्यमान ‌हैं इंसान 
ईश्वरत्व हैं भीतर हैं
कल तुम्हें ईश्वर बनना हैं

       करोनो की कहर से संसार के सभी पंथ मजहब रिलिजन  के अराधना इबादत प्रार्थना  स्थल‌ आदि के पट बंद हो गये हैं। और ईश्वर खुदा गाड सदगुरु संतादि की  मूर्तियाँ आसन प्रतीक निसान आदि  के प्रति तेजी से जनमानस की आस्था क्षरित हो रहे हैं। 
   जीवित मानव जिसमें डां, इंजी ,ज्ञानी- गुणी,  संवेदन शील नेता- अफसर  व्यक्ति के ऊपर  जन विश्वास और श्रद्धा होने लगे हैं। यह बदलाव  महज एक सप्ताह से जारी हैं। आशा है कि अब सदा रहेन्गे ! और जो मिथकीय स्थापनाएं और मान्यताएँ हैं वह नये ढंग सत्याश्रित होकर मानव  सेवा सदन जैसे प्रतिष्ठानों में परिवर्तित  होन्गे। कलांतर में यदि ज्ञान या विज्ञानं और सक्षम संवेदन शील गुणी जनों  को ही जन जीवन   भगवान मान ले तो? ये कल्पित  भगवान प्रेमी और  विरोधी क्या करेंगे?जैसे सत्य करुणा प्रेम को भी ईश्वर मान लिए गये हैं और उनकी यश गान करते अनेक काव्य  महाकाव्य दर्शन आदि ग्रन्थ लिखे गये हैं। भगवान ईश्वर रब अल्लाह सत्पुरुष god गुरु सदगुरु  आदि शब्दों के विरोध से कुछ होने वाला नही। यदि विरोध करना ही हैं तो एक मनुष्य का दूसरे मनुष्य के साथ जुल्म, अन्याय ,ढोंग ,पाखंड ,उच्च -नीच, भेदभाव आदि कुरीतियों का कीजिये सदगुणों को आत्मसात कीजिये फिर देखे कैसे जमीं पे तारे उतर आयेंगे। जन्नत स्वर्ग हेवन  सतलोक यही  नजर आयेंगे।हमारी उक्त कविता ("तुम्हे ईश्वर बनना हैं"। जो तुममे विद्यमान हैं इन्सान शीर्षक से नव भास्कर 1991में छपी  हैं अंत की शीर्षक पंक्ति" कल तुम्हे ईश्वर बनना हैं" को विलोपित  कर दिए ।जबकि अन्य जगह यह इसी शीर्षक से   पूरी प्रकाशित हुई) मेंयही भावार्थ निहित हैं।इस पोस्ट को पढ़ कोई यह मत समझ लेना कि हम ईश्वर को थोप रहे हैं या उन्हें खारिज कर रहे हैं। या  पुनर्स्थापित करने में संलग्न हैं।
जो हो सकता हैं या जो होने की  संभावनाएँ हैं, उसे ही  अभिव्यक्त कर रहे हैं। सच कह कहने जहमत उठाते पुरी शिद्दत से कह रहे हैं- "कल तुम्हें ईश्वर बनना हैं।"

   -डा. अनिल भतपहरी/ 9617777514
सी- 11 ऊंजियार-सदन सेंट जोसेफ टाउन अमलीडीह ,रायपुर छग