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" पुरुष कही का "
वेदना सभी के होते हैं, चाहे स्त्री हो या पुरुष ।परन्तु पुरुष की पीड़ा को कोई व्यक्त नहीं करते या करना नहीं चाहते क्योंकि इससे पौरुष का व्यर्थ क्षरण होने लगते हैं। ऐसे में फिर पुरुषार्थ का क्या होगा?
सच तो यह है कि पौरुष को ढो़ते रहना भी बड़ी बहादुरी हैं । सभी की दुहाई है कि जीवन का ध्येय पुरुषार्थ है ,और यही एक मात्र श्रेष्ठतम उपलब्धि हैं ।इसलिए भी तमाम संत्रास व वर्जनाओं को भोगते हुए पुरुष पुरुषार्थ साधने में रत रहता हैं। उसे जन्मजात यह बड़ी जिम्मेदारी विरासत से मिले हुए हैं।
स्त्रियाँ तो प्रायः निंदा -चुगली कर के भी खुश हो जाती हैं ।(पुरुष करे यह अशोभनीय है बल्कि ऐसा करना स्त्रैण प्रवृत्ति मान लिए गये हैं।) और तो और ऐसा करके अपनी वेदना को तिरोहित कर लेती हैं या परस्पर बांट लेती हैं। नहीं तो पुरुष है ही उन्हें फारिग कराने । ऐसा कह आधी आबादी को छेड़ नहीं रहे हैं बल्कि जो प्रवृत्ति और प्रकृति के कारण वो है उनकी बातें कर रहे हैं। बहरहाल अब वे भी धीरे- धीरे स्त्री विमर्श और इधर नारीवादियों के बहकावे में आकर महिलाएं बराबरी कम पुरुष बनने की होड़ में लगे हुए हैं। बल्कि" महापुरुष" हो जाय या उन्हें मान्यता मिल जाय तो सोने पर सोहागा ! पर सवाल यह है कि क्या उन्हें कोई "महामहिला" भी होने दे रहे हैं। लोग तो सीधे सीधे देवी बनाने पर तुले हुए हैं। जबकि आधुनिक नारी प्राचीन देवी बनना ही नहीं चाहती ।देवी का मुल्लमा बहुत ही धिस -पिट चुके हैं , उनका छूट जाना ही अत्युत्तम हैं।
सुनने में आया है कि १३-१४ वर्ष की कन्या को देवी बनाकर पूजने का रिवाज हैं। और ज्यों ही वह कन्या से बेदखल होती है,आधुनिक नर श्रेष्ठ की वरण्या हो जाया करती हैं। देवी बेचारी !
पुरुष को अपनी पत्नी के सिवा कोई मित्र तक नहीं मिलते। भले स्त्री, मित्र समझे न समझे! वैसे विवाहित पुरुष न घर के होते न समाज के, बस वह किराना और सब्जी बाज़ार के हो कर रह जाते हैं।
बहरहाल खुदा न खास्ता कोई लगोटियां टाईप बाल मित्रादि मिल भी जाय तो लोक लज्जा हैं ।अब वे दोनो बड़े हो चूके हैं , ऐसे में कोई पुनश्च बचपन में जाकर अपना ही भद्द थोड़े ही कराना हैं। फिर बाकी तो हाय -हलो वाले हैं जो कि यहाँ सभी प्रतिद्वंद्वी है। कोई किसी के आगे कोई झुक कर कमान होना नहीं चाहते कम्बख्त ये पौरुष अनावश्यक कठोर आवरण तक ओढ़ लेते हैं। तीक्ष्ण तीर ही बना रहना चाहते हैं ।फलस्वरुप वे किसी के सक्षम निस्सहाय होना पसंद नहीं करते और न ही रुदन आदि कर अपने पौरुष को पिघला सकते हैं।
पुरुष माँ -पत्नी जैसी दो पाटन के बीच में चुपचाप पीसाते रहने विवश हैं। घर- गृहस्थी की बोझ के साथ संतानों की बोझ से झुका थका -हारा पुरुष की वेदना इस तरह असीम व अवर्णनीय हैं।
सच्चा पुरुष तो अक्सर अकेले में यह सोचकर या गुनगुना कर जी लेता हैं ।भले नशे में ही सही -
दुनिया में कितना ग़म है, अपना ग़म कितना कम हैं...
यह कैसा अजूबा हैं नशे में डूबे पुरुष को नशा न मिलने की जुगत में स्त्रियाँ सरकार से उलझने तैयार हैं कि पूत और भरतार शराब में घर फूंक रहे हैं। वो यह उपाय क्यों नहीं करती कि मुएं मयखाना ही न जा पाय! बल्कि घर में विराजमान देवी लोक में निर्भय निशंक विचरण करें। पर पता नही उन्हे यह क्यो भान नही कि घर की चार दीवारी में कैद नारी ही घर को जहन्नुम बनाए हुई हैं।
सच्चे की बात चली तो अब किसी को क्या कहे और क्या समझाए इसे? " पुरुष कही का" भला पुरुष या स्त्री भी सच्चा -झुठा होते हैं ।यदि हो भी जाय तो फिर उसे क्या कहेंगे ? बोलो -बोलो ।
कोई ऐसा भी न समझे कि हम "पुरुष विमर्श के प्रणेता" होना चाह रहे हैं।
- डाॅ. अनिल भतपहरी/ 9617777514
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