।।यौवन का धूप ।।
ज्वर -भाटें की तरह
उतार और चढ़ाव
आते हैं प्रेम सागर में
जहां संशय या तर्क हो
वहाँ जो हो पर प्रेम नहीं
विचारों में भी प्रेम का होना
संदिग्ध हैं
प्रायः प्रेम विचार विहिन कर
कराते हैं समर्पित
यह कहना भी
अनावश्यक हैं
कि प्रेम हो मर्यादित
यह आचरण नहीं
इनका कोई व्याकरण नहीं
सच तो यह है कि
संशय ,विचार और तर्क
जहां खो जाय
प्रेम वहाँ हैं
चलों आग का दरिया हैं
और डूब कर जाना भी हैं
पर ऐसे ही डूबना प्रेम हैं?
बिना भीगे भी
कोई डूबना होता हैं भला ?
ये वय -नय चढ़ते हैं
तो होना ही हैं चहला
कब किस वक्त किसका
मन दहला
ये यौवन का धूप
वर्षों बाद खिला
वाह ! रुपहला ...
-डाॅ. अनिल भतपहरी/ 9617777514
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