।।पुराने प्रतिमान और उनके प्रति मोह ।।
आधुनिक ज्ञान -विज्ञान और उनसे होते यंत्रिकीकरण विकास या युगानुरुप नव प्रवर्तन बहुत कुछ पुराने मानदंडों यहाँ तक उनसे जुड़ी सांस्कृतिक तत्वों की बलि ले लेता हैं। या शैन: शैन: उनके प्रचलन कमतर होते जाते हैं।जैसे ढेंकी - जाता आदि। उसी तरह जन्म विवाह मृत्यु आदि में भोज और तरह- तरह के कर्मकांड आदि में अपेक्षित बदलाव या आंशिक सुधार होना या फिर देखा -देखी या छद्म पद- प्रतिष्ठा आदि के निमित्त भौंडें प्रदर्शन का चलागन बढ़ना ।
मध्यम मार्ग संतुलित विकास का बेहतर माध्यम हैं मानव समुदाय को चाहिए कि सदैव बीच का रास्ता अख्तियार करे व सोच -समझकर प्राचीन व अर्वाचीन चीजों में युक्तियुक्त समन्वय करें।
देखा जाय तो अब गाँव अधिक आत्मनिर्भर व संसाधनो से युक्त हो रहे हैं। यह अच्छी बात हैं। लोग भौंडें शहरी आकर्षण व नकल में फंस रहे हैं ।भले चंद संस्कृति व कला प्रेमियों के लिए यह सब दु:खदाई हो सकते है पर सबके लिए नहीं ।
पहले- पहल तो आग तक मांगे जाते रहे हैं। यह एक सांस्कृतिक अनुष्ठान के मांनिद स्मरणीय भी है अनेक कथा- कहिनी कविता इन पर मिल जाएन्गे पर इससे क्या ? इससे जन जीवन में विकास का उजास हो पाना संभाव्य नहीं । क्योंकि आग को दूसरे दिन के लिए बचाने हेतु आपको एक गोरसी कंडे और भूसे कटकरा आदि चाहिए। यह सब माचिस की एक तीली से क ई गुणा महंगी और दुरुह संशाधन है जिसे बना पाना हर किसी की बात नहीं । गोरसी रखना सम्पन्नता का प्रतीक हैं। उनकी आग निःशुल्क प्रदेय है पर उनके लिए नब्बे अंश झुकना या साष्टांग प्रणाम और जीवन भर मुँह नहीं खोलना तक रहा है।
देखा जाय तो ज़रा -ज़रा सी चीजों जो जीवन निर्वाह के लिए बेहद आवश्यक थे का, लाले पड़ते थे। लोगों को भरपेट खाने के लिए अन्न -सब्जियां तक सहज उपलब्ध नही थे। बड़ी मुश्किल से बड़े बांध और हरित क्रांति के चलते आत्म निर्भरता आई । सच कहे तो छत्तीसगढ़ में गंगरेल -बांगो भिलाई कोरबा नही होते तो यहाँ का अभिशाप ग़रीबी कभी दूर नहीं होते । (बल्कि जीवन स्तर को बेहतर करने के लिए अब भी इस तरह की बड़ी परियोजना चाहिए पर विगत 40-50 साल से जनमानस राजनैतिक धर्म जाति संप्रदाय व उनके धार्मिक आयोजन व निर्माण आदि के मकड़जाल उलझा हुआ हैं। )बिना इनके अकाल अन्यथा सुखा या पनिया अकाल के ग्रास जन जीवन ही बनते रहे हैं। और व्यापारी मुड़कट्टी बाढ़ही देकर उनके खेत- खलिहान पशुधन आदि हड़पते रहे हैं। महज एक बोरा धान के बदले महाजनों के पास किसान खेत की पट्टा गिरवी रखते या बेचते देखे जा सकते हैं। अनगिनत उदाहरण भरा पड़ा हैं।
जमींदार के पास भी पाँच- सात जोड़ी कपड़े और दो- तीन जोड़ी जूते बमुश्किल हुआ करते थे। तब भी उनकी अकड़ व घमंड जग जाहिर रहा है। धनाड्य औरतें तो जेवर और कोसाही लुगरा के लिए महिनों आर्डर दे के रखी रहती, नई बन के आते तक तक जो पहनी रहती हैं वो मुए प्रतिष्ठा के चलते पहिनने लायक नही रहती । पर गरीब व मध्यमवर्गीय महिलाओं के लिए बस दीवाली और तीजा ही एकमात्र आस रहती कि लुगरा माला मुंदरी मिल जाय। कपड़े की बेहद कमियाँ थी आज भी सुदूरवर्ती वन क्षेत्र अर्धनग्नावस्था में जीवनयापन करने विवश हैं। सर पर छत नहीं खदर छानी व यदा कदा खपरैल था उस खपरैल और दुतल्ला मकान का खौफ भी गाँव भर में रहते शहरी आदमी व महकमें यही आकर मंद और कुकरा -बकरा भात खाते थे। और मजे की बात की उसी बाडे के परसार में नवधा और भागवत होते गाँव के लोग साल भर की कमाई को अगले जन्म सुधारने पंडे को दान चढा देते। पंछे में गांठ बांध पंडा तिल्दा भाटापारा निपनिया रेल स्टेशन से काशी ईलाहाबाद चले जाते । गाँव के दार भात खाते असकटा कर जगन्नाथ के भात को जगत पसारे हाथ सुनकर वहाँ भी किंदर कर आते और गाँव भर को अछूत पन के उतारा झारा झार दार -भात खवाते । सच कहे तो यह भी निर्धनता और नियति को भोगते रहने का एक खूबसूरत इंतजाम जैसा ही है।
पताल पाउडर से सब्जी और सेमी मखना खोइला चना तीवरा भाजी की सुक्सा से काम चलाने होते थे। गरीब तो कुरमा से ही कढी खा लेते थे। जीवन भले सरल रहे परन्तु आधार भूत चीजों की कमी से बेहद जटील जीवन पीढ़ी जीया है। ऊपर से वर्ग संघर्ष, जातिय भेदभाव का दंश अलग। नीरिह गाँव वाले शहरी लोगों से ठगाते -लुटाते रहे हैं। आज भी ग्रामीणों की नजर शहर चोर उचक्कों के अड्डे हैं और गाँव गंवार और दरुहा- मंदहा हैं।इस तरह देखा जाय तो बहुत सी चीजों का नंदा जाना ही बेहतर जीवन के लिए श्रेयस्कर हैं।
बहरहाल बहुत कुछ जो हमारी संस्कृति व अस्मिता के प्रतिमान हैं। सुखमय व निरोग या लंबी आयु के कारक है ,वह नंदाये न बल्कि उनका संरक्षण हो
आज गांव के बच्चे चिमनी के जगह बल्व से पढ़ रहें हैं वह बहुत ही अच्छा हैं। इसी तरह यदि स्लेट के जगह यदि कम्पुटर स्क्रीन मिल जाय और मास्टर जी को तखत पट्टी व चाक के जगह डिजिटल बोर्ड व ई पेन मिल जाय तो कोई बुराई नहीं ।
एकबार हमारे पारंपरिक प्रतिमानों के जस गायक कवि मित्र नंदा जही का, नंदा जही का - कहने लगे उन्हें विनम्रता पूर्वक मजा़किए मुड में कहां - "येमन नंदाइ गे हवे अउ नदां भी जाना चाही ।" जइसे नागर के जगा टेक्टर अउ दौरी -बेलन के जगा हार्वेस्टर हे त कोन्हो बुराई नइ हे।"
हालाँकि इनके चलागन से कृषि मजदूरों और हरियाणा पंजाब के लोगों को यहाँ से लाखों -करोड़ों कमाते हमने भी मंचों में अलाप भरे-
नागर नंदागे अउ टेक्टर आगे
हसियां हिरागे अउ हरवेस्टर छागे
चिटको मं नाहकत हे दाउ के काम
जिनगीं क इसे चलही राम ....
सिरावत हे गाँव ले जम्मों बुता काम ..
हा गाँव में शहर जैसे अनबोलना ,ईर्ष्या ,बैर -भाव और पार्टीगत मतभेद- मनभेद न हो ।ढे़की -जांता के संग २१ सदी के बालक या युवा जी नहीं सकते ।
बहरहाल स्मृतियाँ सदैव मनभावन ही लगते चाहे आदमी मौत के मुँह से बच कर ही क्यो न आया हो। जीवन बचाने सांवा बदौरी और करगा के रोटी -भात खाए हो । अकाल में ठेलका- बुंदेला खाए हो या तालाब सुख जाय तो ढेस व केसरवा कांदा उबाल कर खाने विवश रहे हों। मोह के प्रतिमानों पर विजय पाना सहज नहीं और न ही मोह छोड़ देना सहज हैं। वैसे भी साठ के बाद आदमी चलता - फिरता संग्रालय (म्युजियम ) हैं।
गाँव , शहरों व कथित पढे -लिखे शातिर लोगों के शोषण से बचे और उनकी परिश्रम का पुरा कीमत व उन्हें अपेक्षित मान- सम्मान मिले यही चाह हैं।
कोरोनाकाल में सभी संयमित विटामिन युक्त अल्पाहारी व सामाजिक दुरी सहित मुखटोप लगाकर अपना और अपने आसपास को जागरुक कर बचायें और शासन की सभी योजना व उपायों पर त्वरित अमल में लांए । यह टिप्पणी केवल सकरात्मक नव प्रवर्तन के स्वागतार्थ हैं। क्योंकि स्वास्थ्य व जीवन हैं तो सब कुछ हैं।
धन्यवाद।
डॉ अनिल भतपहरी / 9617777514
बहुत बढिया लिखा गया है सरजी।
ReplyDeleteपरिवर्तन ही संसार का नियम है। जब परिवर्तन होता है तो बहुत से चीजे विलुप्त हो जाती है।