Sunday, May 30, 2021

यौवन का धूप

।।यौवन का धूप ।।

ज्वर -भाटें की तरह
उतार और चढ़ाव 
आते हैं प्रेम सागर में
जहां संशय या तर्क हो 
वहाँ जो हो पर प्रेम नहीं
विचारों में भी प्रेम का होना 
संदिग्ध हैं
प्रायः प्रेम विचार विहिन कर 
कराते हैं समर्पित 
यह कहना भी   
अनावश्यक हैं 
कि प्रेम हो मर्यादित 
यह आचरण नहीं 
इनका कोई व्याकरण नहीं 
सच तो यह है कि 
संशय ,विचार और तर्क 
जहां खो जाय 
प्रेम वहाँ हैं 
चलों आग का दरिया हैं
और डूब कर जाना भी हैं
पर ऐसे ही डूबना प्रेम हैं?
बिना भीगे  भी 
कोई डूबना होता हैं भला ?
ये वय -नय चढ़ते हैं
तो होना ही हैं चहला 
कब किस वक्त किसका 
मन दहला 
ये यौवन का धूप 
वर्षों बाद खिला 
वाह ! रुपहला ...

       -डाॅ. अनिल भतपहरी/ 9617777514

Saturday, May 29, 2021

कोरोना के संग जीना

एक साल पहिली के रचना -


समसामयिक हास्य व्यंग्य - 

।कोरोना के संग जीना ।।

बात कुछ भी नहीं हैं पर यूं ही बात का बतड़ग तो होते ही रहते हैं।
हमारी विविधतापूर्ण संस्कृति में जहां चार बर्तन रहन्गे खड़खडाएन्गे ही ।अब यह आपके रेस्तराँ तो नहीं जहां फाइबर का बर्तन हो एक के ऊपर एक सटा हो पर कोई शोर- गुल नहीं निस्तब्धता रहें और चुपचाप निर्वाह चलता रहें।
    आजकल लोग कांसा, पीतल ,तांबे ,स्टैनलैस स्टील रहे ही कहां? प्लास्टिक व फाइबर के मानिंद होते जा रहे हैं।  युज एंड थ्रो  काम के बाद व्यर्थ । पहले तो जिंदा हाथी के बाद भी मृत हाथी जैसे  बेशकीमती हो जाया करते थे वैसे हमारे यहाँ आदमी मरकर देवता ही हो जाते हैं।  इसलिए साधारण व्यक्ति को भी ब्रम्हलीन ,स्वर्गवासी ,सतलोकी कहकर सम्मानीत करते हैं। यदि वह विशिष्ट हो तो उसे अमर ही कर देते हैं। धातु का यही फायदा हैं। उसे गला- पिधला कर जो स्वरुप ढाल दो।पर दोने- पत्तल टाइप प्लेटों को क्या करेन्गे?
    बहरहाल जब बातें  चली तो बता दूं कि  आज बेहद गर्मी हैं पीने का पानी तक  थर्मस नुमा बोतल में शाम तक पीने योग्य नहीं रहता। तो बाकी  अन्य का  क्या बिसात? हां  रोटिया और सब्जी रात की रहे तो दोपहर लंच तक लंच बाक्स में रखे ही सिंका जाता हैं ,गरमा- गरम ।
  तो इस तरह ताज़ी गरम  खाना और बायल पानी का लुफ्त भरी दोपहरी में पसीने से तर बतर ले रहे हैं। 
        जब से वह मायका गई अकेले सुबह से घुसे रहो किचन में जली -अधजली जो भी बना जल्दबाजी ठूस -ठास कर, जोर- जार कर भागते आफिस आओ  और ये डाय‌न कोरोना के चलते सेट्रल एसी और कूलर न चलाने का फरमान से गरम पंखे के थपेडे का सामना जैसलमेर की गर्म हवाओं जैसा अनुभव करते शासकीय दायित्व निर्वहन में मगन रहों। शाम घर जाते फिर गृहस्थी की घानी में जुत जाओ कोल्हू की तरह । मोबाइल में मगन बेटों से पानी मांगकर देख लो ! फौरन फिल्मी डायलाग सुनने मिलेगा -" इस घर का रामु काका मै हू क्या ?" 
तो भैय्ये हमीं बन जाते हैं । आखिर सेवा ही सत्कार और राष्ट्र प्रेम हैं।  

बहरहाल आजकल राष्ट्र प्रेम यही समझे जाने लगे हैं कि जो शासन- प्रशासन का आदेश है चुपचाप मान लो ।कही कुछ अवांछनीय लगा और टीप- टिप्पणियां हुई कि नही ,कहे तो सीधा देशद्रोही ठहरा दिए जाएन्गे ।संकट काल हैं कुछ भी संकट आ धिरेन्गे।  अनचाहे मेहमान की तरह । मुआ अब छींकने से भी पकड़े जाने का भय हैं कि हाथ में रुमाल क्यो नही है तो नाक तक क्यो नही ले गये माक्स ही काफी नहीं हैं। 

   आजकल ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य का बुरा हाल हैं। इसलिए बीमार लोग शहरों में ईलाज़ कराने आते हैं। और दूर -दराज से रिश्ते निकाल आ धमकते हैं।
गृहलक्ष्मी का मायके का हुआ तो शुक्र है वह जो भी रहेगा  काला कुत्ता नहीं कह सकता नहीं तो वाणी दोष लगेगा ।
  खैर !ग्रामीण परिवेश का आदमी ले- दे कर कर्ज से एक दो कमरे शहर में बेहतर भविष्य के लिए बनवा लिए तो समझो कि रिश्तेदारों के लिए सराय हो गये।ऊपर से ससम्मान व्यवहार अलग से ।यदि खाने- पीने और व्यवहार व सेवा सत्कार आदि  में कही कुछ  कमी या खोट मिले तो आपका खैर नहीं सारी बिरादरी में नाक कटना तय हैं ।   परिवार वालों को शहर बसने शौक नहीं पालना चाहिए । यदि बस भी गये तो वह कहावत सुबह -शाम आरती जैसा कान में गूंजते  रहते हैं-" गीदड़ का मौत आता हैं तो वह शहर की ओर भागते हैं।"
   हां स्मृत हुआ कि कोरोना से बचने लोग सुरक्षित गाँव तलाश रहे हैं। जो वर्षो गाँव छोड़ चूके थे ओ लोग अपने जीर्ण- शीर्ण घर को मरम्मत करवा रहे हैं। और तो और जहां अदद बाथ रुम नहीं था वहाँ अब   कमोड टायलेट तक लगवा रहे हैं। 
   क्योकि शहर खासकर राजधानी जहां एम्स है और सारी दुनिया देख रही हैं कि यहाँ डाक्टर नहीं साक्षात् ईश्वर हैं। एक भी का एंट्री यहाँ से नहीं हुआ।सो बड़ी संख्या में मृत्यु दूत कोरोनो के नाम पर भेजे जा रहे हैं। जहां २०  मार्च से  २० म ई तक ६० ही थे आज २९ तक ३६० लोगों की बुकिंग हो गये हैं।
      अब महज ९-१० दिन में यह हाल है तो अब तीन माह बाद रोजी रोजगार से वंचित लोगों के जान से अधिक जहान प्यारा हो गया है। फलस्वरुप सप्ताह में ६ दिन  सुबह 7 से ,शाम 7 तक हर तरह की दूकाने खुलेन्गे पहले जान है तो जहान हैं था अब जहान है तो जान है हो गये हैं।  
  तो इस तरह श्लोगन बदल दिए गये हैं। बल्कि हर कोई को कंठस्थ करा दिए गये हैं कि" कोरोना के संग जीना हैं। "
   आवश्यकता कैसे आविष्कार की जननि हो जाते हैं। यह इनके नायाब उदाहरण हैं ।  
       यार ये तो ठीक हैं पर तेरे संग जीना तेरे संग मरना की तर्ज पर क्यों इन्हे प्रचारित नहीं करते ?
क्योंकि हम जैसे मोटे बुद्धि वालों को जीना तब तक समझ नहीं आते जब तक कोई सामने मर नहीं जाते ।  सच में जब पुलिसिया ठुकाई नहीं होती तो कर्फ्यू यहाँ अकारण सक्सेस नहीं होता।इसलिए जब तक निराशा और खौप  का अंधेरा नहीं दिखाओं तब तक लोग "आशा की किरण" भरी टार्च खरीदते नहीं ।हमारे अग्रज परसाई जी ने इसे वर्षो हमें लिखित में बता दिए थे।
      तो जो है सो हैं अब भयानक संकट के कारण  जो दैनंदिनी में बदलाव आया और रेहड़ी फेरी वाले रोजगार विहिन हुए उन्हे बचाने न चाहकर लाकडाउन में ढील दिए जा रहे हैं। सच तो है लोग घरों में भूखे न मरे इसलिए कमा कूद कर  खाते पीते भले संक्रमित हो जाय। उनके ईलाज़ कर लिए जाएन्गे ।हमारे पास अब इन तीन महिनों में आग लगने के बाद कुछ कुएं खोद लिए गये हैं। टाइप वेंटी लेटर सेनेटाइजर व माक्स आदि आ गये।अन्यथा बैपारी भाऊ लोग तो शुरु से ही  करोड़ो कमा- दबा लिए ।
   अब देखो न उस दिन नमक नहीं है कहके १० रु की  नमक को १०० में बेच दिए ।यह है हमारी कारोबारी जगत का कमाल।
बिहारी ने बकारी देत इन ब्यापारी की गुण का चित्रण किस खूबसूरती से किया हैं-
खुली अलक छूटी परत है बढ गये अधिक उदोतू।
बंक बकारी देत ज्यों दाम रुपैया होतु।।
  तो सारे अर्थशास्त्रियों को इसका मरम समझना चाहिए। 

  बहरहाल हमारे लिक्विड गोल्ड धार्मिक स्थलों में चढावे में चढ़ा और नारी व  यदा- कदा देह देह में गुथा हुआ हार्ड गोल्ड से अधिक उपयोगी हुआ और बंद पड़ी इंजन पटरी में आ आए ।शराब अपने साथ बस रेल वायुयान तक चला दिए ...सोने तो चुपचाप कही सो ही रहे हैं। सुनने में आ रहा है कि  हमारे चरौटा भाजी की डिमांड अमेरिका में हो रहे हैं। सोमारु पुछ रहा  था -  " भईया हमर मौंहा, लांदा , बासी -चटनी ल तको ले जाय हमन  कोरोना ल मतौना देके मार गिराबोन।
     ये दे उड़ीसा के पुजारी हर शास्त्रीय पद्धति ले  नरबलि देके कोरोना ल कसरहा कर दिस । अब परंपरावादी मन हूंकरत -भुकरत  हे - "कोरोना हमर काय कर लिही।" ओकर मं का दम हे हमर योग, हमर आयुर्वेद ,हमर  जड़ी बुटी  हमर इम्युनिटी कहिके अटियाय ल धर लिस ।सिरतो कहत हव आचेच ले ४ था लाकडाउन ह  खतम हो गय। यानि शिथिल करके सामान्य धोषित कर दिए जा रहे हैं। जब एक केश था हम तीन महिने कैद थे घरों में अब ३६० केश है तो उनके ही तोड़ ३६० दिन छुट्टा घुमें फिरे खाए खेले कुदे नाचे ... कुछ दुरिया बनाकर मुखटोप लगाकर क्योकि अब कोरोना के संग जीना हैं। 
  हमें लगता है सवा अरब लोगों को महज ३ महिने में कोरोना के सञग जी‌ना सीखा दिए गये हैं। ऐसे महान सिखावनहारों को नमन ।
    जय जय ...

           -डॉ. अनिल भतपहरी/ 9617777514

Friday, May 28, 2021

नरी कटा लेयन

।।नरी ल कटा लेयन ।।


 सित्तो घर में खुसरे 
असकटा गेयन 
कोरोना के सेती 
लाकडाउन मं  
मछरी कस फंसे 
छटपटा गेयन 

छर्री- दर्री होत  
बाचेन गिया 
भले डर कहि ले  
फेर एकेच  मं 
समटा गेयन

कौखन कत्कोन 
बदल डरिन अवसर 
आपदा ल 
एक- दूसर ल 
देखत हमन 
सोझ रद्दा मं 
हपटा गेयन 

कहिबे काकर तीर 
गोहराबे दु: ख काला 
जम्मों तो संसो में हे 
कहिके अपन पीरा ल 
असनेच सलटा लेयन 

चतुरा हे ओमन 
तेकरे सेती 
उंकर महल अटारी हे 
हमन उंकरेच 
धरहा आरी मं 
अपन नरी ल 
कटा लेयन 

     -डाॅ. अनिल भतपहरी

Thursday, May 27, 2021

राजभाषा छत्तीसगढ़ी के सरुप‌

अवइया २८  नवंबर 

            ।।छत्तीसगढ़ी राजभाषा दिवस के अगोरा मं ।।

       भाषा के ऊपर बिचार करब म ये तो डगडग ले चिनहउ हवे कि जुन्ना जनपदीय भाषा जेमा छत्तीसगढ़ी,गोंडी , कोसली, मागधी , मैथिली, अवधि  ,बघेलखंडी   अउ नवा सिरजे "हिन्दी "यानि की १८५७ प्रथम स्वतंत्रता संग्राम जेन ल स्थानीय राज राजवाड़ा मन के जेमा (छत्तीसगढ़ के वीर नारायण सिंग अउ राजा गुरु बालकदास तको रहिन वीर नरायण सिंग ल १८५७ मं  दोषी करार के तोप से उडा दिन  अउ जन नायक श्रद्धा के पात्र राजा गुरुबालकदास ल सडयंत्र पूर्वक भोजन करते १८६० में हत्या करवा दिए गये  ) कुछेक सभिमानी राजा अउ ओकर सामंत मन सिपचाय रहिन ओमा भारतीय जनपदीय भाषा अउ उर्दू के बड सुघ्घर समन्वय रहिन जे न "  हिन्दुस्तानी "  तको कहे जाय उकर भाषा अउ आन आन जगा के लोगन के संपर्क भाषा के  रुप म सिरजे  "हिन्दी " के मूल उद्गम भाषा पाली अउ प्राकृत आय । अउ उर्दू अरबी फारसी के तको शब्द मिंझरे हवय।
     छत्तीसगढ़ मं तो जतका जुन्ना शिलालेख हवे उनमन पाली भाषा के ब्राम्ही लिपि म हवय। फेर छत्तीसगढ़िया रचनाकार मन ओ लिपि अउ भाषा के कभु खियाल न इ करिस तेन पाय के सबकुछ छुटतेच गय । लेकिन धियान से उच्चरित ध्वनि ल देखहु त  छत्तीसगढ़ी गोड़ी कोसली ह  पाली अउ प्राकृत के कत्कोन शब्द निमगा ब उरत चले आत हवय।
पाली भाषा राजभाषा के संगे संग  जनभाषा रहिस। जोन राजा बोलय ओला परजा समझय अउ जोन ल परजा बोलय ओला राजा ते पाय के प्राचीन भारत के श्रमण संस्कृति हर विश्व विख्यात रहिन तक्षशिला नालंदा विक्रमशिला जैसे विश्वविख्यात प्रतिष्ठा न रहिन जिहां हजारों साहित्यिक दार्शनिक  नीतिपरक और राजकीय सामरिक धातु कार्मिक यांत्रिकी  वैद्यकीय  के अध्ययन अध्यापन होवय । नालंदा के ग्रंथागार के जलाय के आगी महिनो न इ बुझाय सके रहिन सोचोव कतेक साहित्यिक पांडुलिपियाँ नष्ट कर दिए ।
 अउ  त अउ लगभग ६-८ सदी के जतका खडहर ( पुरा अवशेष ) हवय जेमा सिरपुर  राजिम मल्हार तम्माण  डमरु तरीधाट गुंजी  में मिले शिलालेख के भाषा पाली अउ  लिपि  ब्राम्ही हवय । ओमा बहुत भारी ज्ञान विज्ञान के बात हवय ओला सामने लाने के जरुरत हवे।
    हमर साहित्यकार कलाकार मन ल चाही कि अपन जगा मिले जिनिस के मूल तत्व के स्थापना बर मिहनत करय। तब मौलिकता आही। 
     नहीं त अधिकतर छत्तीसगढ़ी साहित्य हर  आन प्रांत के पटन्तर लगथय।
   छत्तीसगढ़ी  हिन्दी अउ पाली के बीच जो संबंध हवे उन हर  खाल्हे लिखाय हवय-
पाली        छत्तीसगढ़ी   हिन्दी 
अग्गि            आगी         आग 
मनख्ख        मनखे          मानव 
दुक्ख             दुख            दु: ख
 सुरज.           सुरुज         सूरज
इस्सर              इसर          ईश्वर 
खन्ध.             खांध.         कंधा 
अमिय.          अमरित.      अमृत 
अक्खर.           आखर.     अक्षर
 
 इत्यादि 

धियान से देखव हमर छत्तीसगढ़ी पाली के संग कतेक सुघ्घर मिलथे  जब शब्द मिलथे त कला संस्कृति  क इसे न इ मिलही ? ओ भुले बिसरे गाथा  वृतांत. इतिहास ल खोजे ल परही।
    असल में विगत २-३ सौ साल से हमन जब से स्कूली  शिक्षा आय हे तब ले उप म प्र  बिहार के लेखक कवि के रचना ल ही पढ लिख समझ के उही मं रच खप गय हन । अउ हमन अपन तीर तखार के जतनाय जिनिस डहन न सुर ले सकत हन ल शोर संदेश ।
    रमैन महाभारत वेद पुरान के बाहिर कत्कोन अउ जिनिस हवय आपार पाली साहित्य ,सिद्ध साहित्य व संतो की निर्गुण बानी मन के पांडुलिपि‌ हवय अउ  प्रकाशित ग्रंथ पुस्तक तको  हवय। अलेख अवस्था में हजारो लोकमंत्र मन  बैगा गुनिया सिद्ध साधु संत मन कना  मुखाग्र कंठस्थ रहय अउ अभी तक ओ चलागन पाठ पीढा ले दे के रुप मं चले आत हे । उन सब ल न  पढे  के ,न खोजे  अउ समझे के न सख नइये न जोम हे ।ते पाय के हमर समृद्धशाली ऐतिहासिक गौरव के संगे -संग हमर अति प्राचीन छत्तीसगढ़ी भाषा के सही अउ ठोस स्थापना न इ कर सकत हवन।  जबकि छत्तीसगढ़ी  लोक गीत लोककथा अउ जनश्रुति मं हमर बड सुघ्घर संस्कृति कला इतिहास के जानकारी हवय ।फेर उन ल तियाग के औपनिवेशिक रुप से आजादी के बाद से, अब तक हिन्दी के कारण  या कहे छत्तीसगढ ह म प्र मे संधरे से  अध्ययन अध्यापन म हिन्दी अंग्रेजी संस्कृत  त्रिभाषा फार्मूला के सेती उत्तर भारतीय संस्कृत निष्ठ भाषा के शिकार होत चले आत हन। हिन्दी के उर्दू और देशज सरुप तको आजकल नंदावत चले जात हे। अमीर खुसरो से ले के  प्रेमचंद  तक जोन हिन्दी रहिस आज नपता होगे हवे। येला जानबूझकर करत या करवाय जात हवय ।
   खैर सच कहे त छत्तीसगढ मे आज ले भी संस्कृत निष्ठ हिन्दी जोन क्लिष्ट हे तेकर चलन बिल्कुल नइये। सरल सहज सरुप तीन चार अक्षर के मेल से बने लालित्य पूर्ण भावप्रवण शब्द छत्तीसगढ़ी म मिलथे जोन पाली प्राकृत के विशेषता रहीन ओ ज्यो के त्यो छत्तीसगढ़ी मं देखे जा सकत हे। एक हिसाब से देखे जाय त गांव- गंवई मं तो हिन्दी बोलइ ल "हमेरी" झाड़त हे कहे जाथे अउ अंग्रेजी तो कोनो भुल के तको नइ गोठियाय सकय। काबर कि जीभेच नइ लहुटय अंगरेज जमाना के कत्कोन मूल अंगरेजी शब्द रेडिया, सइकिल ,इसकुल‌ ,मोटर कंडिल‌, बकसा , छत्तीसगढ़ी पुट दे के ज्यों के त्यों बौरात चले आत हे।
    पांच  आखर के शब्द ठीक  बोले  नी जा सके । समरसता ल समर +सता कहे  जाथे । संयुक्ताक्षर के साफ उच्चारण न इये प्रहर ल पहर ही कहे जा सकथे अउ त अउ भगवान के नांव विष्णु ल तको बिसनू कहे जाथे।
    
      त हमर सुधि पाठक मन सो गिलौली हवे कि उनमन थोरिक उप बिहार अउ हिन्दी संस्कृत के प्रभाव से मुक्त होके अपन मूल छत्तीसगढ़ी के उपर धियान केन्द्रित करके सच्चाई के स्थापना कर में अपन बल बुद्धि लगावय त छत्तीसगढ़ी सहित छत्तीसगढ़ के तको भला होही अउ  फरिल जस तको तुहु मन ल मिलही । शासन- प्रशासन ल‌ तको जुन्नटहा अउ जतनाय जिनिस मन ल खोजवाय छपवाय के उदिम करना चाही।  एक अलग प्रभाग गठन करके छत्तीसगढ़ी मूल संस्कृति के संरक्षण बर ठोस उपाय करे के जरुरत हवय ।

     ।।जय छत्तीसगढ़ी जय जय छत्तीसगढ़ ।।

     -डाॅ. अनिल भतपहरी

मनखे मति‌ के भेदा

।।मनखे मति के भेदा ।। 

कचलोइहा काया 

अउ कोवर मन मं 

समाही कइसे 

पथरा ढेला कस 

निच्चट टांठ कठोर  

गहिर गुरु गियान 

अउ तो अउ 

पारद के समान 

धराही किसे

नान -नान कन 

होवय नहीं उज्जर 

कपसा कस मन 

कौखनेच हो जही 

समदरसी बावरा मन 

ते पाय के 

लरिकई अउ जुवानी मं

सुहावय नहीं 

नीत -धरम के गोठ 

धराय नहीं धियान 

मगन खेलई - कुदई 

मया मं अरझई 

बोधात रहिथे 

दंदोरत दुनियादारी मं 

फदके पेट बिकारी मं

पद प्रतिष्ठा पंचैती मं 

संगे संग लिगरी चारी मं

तन मन हो जथे चेम्मर 

झेलत सुख -दु:ख जबर

थक जाथे तन  

फाट जाथे मन 

तभेच भाव भक्ति डहन 

लगथे धियान

अउ सुहाथे 

गहिर गुरु गियान 

भटकत अंधियार मं

खोजत  अंजोर 

गाँव गली खोर 

जब के आमा तब के लबेदा 

समझव मनखे मति के भेदा 

अकरस नागर मं 

बियासी नइ होय 

सावन के झड़ी मं

बोवई नइ होय 

संसो मं हसई नइ होय 

तीज तिहार मं 

रोवई नइ होय 

धीर-थीर रहनी मं

सित्तो सब सजथे 

समे मं सब फबथे 

बुढ़त काल के मया 

 जवानी के जटा 

देख दुनियां हसथे  
                  - डाॅ. अनिल भतपहरी 
             सत श्री ऊंजियार सदन अमलीडीह रायपुर‌ छ ग

Wednesday, May 26, 2021

तिरछट


"तिरछट"
           - डा अनिल भतपहरी 
बैसाख के नहाकती अउ लगती जेठ जहर- महुरा खा लव फेर पथरा जुनवानी झन जाव।मार पलपला म उसने कांदा सरीख उसना जाहू उहा जायेब म।
काबर कि तरी पथरा उपर पथरा हवे पेपडा छवाय छानी के लकलक ताप म मनसे क इसे गुजारा करथे ओला उही मन जानय।अउ तुमन ल बकबकी छाय कि उहचे सभा जुडत हे जाबोन कहत हव ।कतिच मुह म मोला नेवता देत हव। का अडताफ म अउ कोनो ठ उर न इ मिलिस‌?
फेर सभा- सुसाटी जुड म न इ करके यहा तीपत भोभंरा म करे के काकर संउक चर्राय हवे?
   गौटिया आलमदास रखमखात बरवट के पाटा म धय उठत धय ब इठत कहत हे।संदेसिया  धजादास कहिस गौटिया तोर कहना वाजिब हे फेर जोरइय्या मन जानही कि काबर ये कुबेरा म समाज ल जोरत हवे।अब खातुहा गाडी ल छाड सभा सुसाटी म का कानहुन बधारेच जाबोन?
   अरे नेवता आय हे जाबोच फेर ओमन उहेच काबर जोरत हे? हमर गाव म काबर नही? अरे पल्टू ,धजा के संग तुमन  दु चार झन ल धर के जाव अउ कहव कि नंदिया ये पार पचरी के  जुडहा अमइय्या  म सभा परही २ दिन के  पंगत- संगत  के खरचा अकेल्ला मय उचांहू ।बमकत गौटिया कहे लगिस -आती खानी सब्बो बजरहा गांव म कोतवाल मन सो हाका परवा देहु । अउ मेछा टेवत कहे लगिस ये दानी मंहु चुनई म खडा होहु। देखत हंव महंत के महंती ल बड कान्हुन बधारत रहिथे।जनामना हमन के मुह म दुधफरा अरझे हे!  जम्मा कोन्दा ब उला हवे ! अउ उहीच ल गोठबात आथै!
     महंत लीम चउरा म बैठे सकलाय मनसे ल कहत हे देखव  संत समाज सालपुट दुकाल परत हे कभु पनिया अकाल त कभु सुख्खा अकाल‌।बने बने कोनो साल नाहक गे त लुव ई म कटुआ कीरा सचर  जाथे  माहुल फाफा ल बचो डरे त बरहा बेंदरा मन सो ल कइसे बचाबोन ?
महानदी म धमतरी तीर बडका बांधा बनत हवे  सुने म आत हवय का सिरतोन आय ममा ? फत्ते पुछिस। हा जी भांजा सहीच आय ।बडे बडे नहर  निकलत हवे ओमा बडे बडे धनागर डोली मन ओकर  चपेटा म आत हवय ।ओखरो बर सरकार ल दरखास देय ल परही थोरिक दर्रा खार कोती बहकवाय  ल परही।ओदिन बुधवार के तहसीलदार पटवारी साहेब मन सो गुहार करे रहेन।ओमन कथे कलेक्टर सो मिले रायपुर जाय ल परही ।इही पाय के बैठका मढाय हन।
त गिधपुरी वाले मन झगरही करे ल धरलिस।ओ गाव के मनसे के मति मारे गे हवय।एक घर के बाभन के बहकावा म आके सब तिडीबिडी छरियागे। दु पार्टी होगे हे अउ उहा शांति बेवस्था बर पुलिस गाठ बैठारे हे।असनेच रही त चौकी खुल जाही।
असो बीजबौनी तिहार अक्ती के  पहिलिच सबो के सुन्ता मढा ल परही तेन पाय के अव इय्या सम्मार म  मउहारी भाठा म गस्ती रुख तरी ब इठका मढात हन। कइसे भंडारी बने रही कि नही? भंडारी हर अपन बाप के बात क कभु  फांक देथय फेर महंत ल कभु न नुकुर नई कहे हवय।न महंत कभु न नुकुर कहे के गोठ गुठियावय।
     ये दे सब झन ल का का करना हवे कतका झन सकलाही ? उकर भोजन भजन सुतन बसन के बेवस्था करे ल परही।‌
    रतिहा जैतखाम तीर तीन तरिया निरगुन  भजन बर  पं रामचरण ल नरियर  दे डरे हवय। तेलासी वाले मन के तको हरमुनिया वाले मंगल भजन होही।उकर तुरही हुडका  अउ हरमुनिया के बनेच सोर उडत हे।
कलकत्ता ल बिसा के लाने हवय। लोगन टुट परथे कसना बाजथे अउ क इसे चिकारा ल सफा एक एक बोल हुबहू उछरथे।भजनहा बड झुलपहा हे उझल उझल के ऐसे हरमुनिया बजाथे बिचारा हुडका वाले बोकबाय हो जाथे ताल तुल ल मिलात बेमझा जाथे तेन पाय के उनमन एक झन लोहार तबलची राखे हवे। ते पाय के कतकोन झन ओरखथे ।भजनहा हर त भागवत करथे लील्ला करथे अउ सुने म आय हे रहस बेडा तको उचोथे‌।ते पाय के ओहर फुरसुद नही रहे कहु न कहु खंधेच रथे।आजकल चौका पोते ल तकहवय।
ख गय हे नवगढिया मन के संगत म।
     उहीच पाय के नंदिया ये पार के मन  उन देवताहा कहे ल घरलिस । अउ उन ल पुछे पाछे बर छोडे लगिस।महंत ये पाय के उहु ल नेवते हबे कि सब ल सकेलव कोनो ल झन छोडव।
उनमन कहिथे - "सब पखरी आय सरग निसेनी चढना हवे त सबके जरुरत परथे।अब कोनो नाचे हसाये लीला भागवत रहस करे मनसे ल जोरत तो हवे? बस उन सब ल सावचेत करना हे कि कोनो तुहर बाना झन मारय ।अपन खरही तिजोरी ल सम्हारना हवे।जोन नकसान होही ओकर भरपाई पाना हे तभेच अपन लोग ल इका मुह म पेज पसिया डार सकबोन!
     हव मालिक एक लाधन दु फरिहार होथे। ओकर बाल बच्चा मन के मुह म बने जात के पेज पसिया न इ परत हे।बिचारा बोधना तनातना लुलवात हवे।जवानी म बड खरतरिहा रहीस अपन बाह म बल राखे पाच खाडी के जोतनदार रहीस ।उही मंत्री- महंतेच के समाजिक परवरतन के चक्कर आज ओकर लरिका लुलवात हे।अउ ओहर आजकल अलाली दलाली करके गुजारा करत हे‌।अच्छा बने बतायेच कुलकत आलमदास कहिस महंत के महंती ल यहीच झुकोही तय जा अउ बोधना ल परघा के लान ओला खंधोना जरुरी हे।
     अपन ढेकी कुरिया म आजकल बोधना नागर बाधे के कारज करथे।नंदिया पार जंगल ले लकडी लानथे ओकर सो औने पौने म ले के छोल चाच के बेच बाच गुजारा करथे। उमर के बीते म नजर कमजोर हो गय फेर गोठ तो अइ से खर बान मारे कस जियानथे ।नागर जुडा ल छोलत तिरछटहा कर डरथे।तेन पाय के उन ल गाव के मनसे मन तिरछट नाव धरे रहय।फेर ओला आजो ले गम नई हे।
हव ग कौव्वा कौव्वा ल बलाथे मंजुर त न इ बलाय पुलधाट म नहावत धजादास कहत रहीस तिरछटहा मन सकलात हे।पचरी के गौटिया कम तिरछट न इये बावन राजा के कान काटे बैठे हवय।
         ररुहा सपनाय दारभात  कस मार कोहनी के आत ले  दमोर के  दुधफरा मालपुआ बरा सोहारी  के संगेसग बफौरी कढी  दारभात खात मगन बोधना हर सब ल मंदहा कस उछर बकर दिस। कइसे महंत के लोगन ल बिल्होरे जाय? बुदुक बताये धरलिस ।भले उन खान पान म सादा हे फेर गरीबी अउ शोषण के कुचक्र म पापी पेट अउ मानगुन पुछ- परख  के सेती कहु  -कहु बेनियत हो जाथे‌।बचपनेच ल सभा सुसाटी वाले आय ।भले  जवानी के आत ले सामाजिक काम म सब चीज-बस ल फूक डरिस ।आज बुढत काल म लुलवात फिरत हे मान- गौन  खोजत हवे।कगरेस म मिलत मान ल मुरख सवर्ण:मन  के गोड के राख धुर्रा समझ के समता सैनिक दल के सीटी मास्टर बनगे। आज ओ पारटी के कोनो धरकन नइये ।ये जब -तब जय भीम जय भीम करत लुठुर-लुठुर किंदरत रहीथे।परन दिन ओखर धर बराडी बैला फंदाय धांधडा साजे सवारी गाडी आइस त लोग‌न म देखनी परगे कहां के आय काखर धर उतरे हे। बोधना ओ दिन धोवा के धोती पहिन कोसा के कुरता पहिन मार अदब म गाडी  ब इठिस  त लगथे जनामना मंत्री साहेब आय। शपथ ले बे उन भोपाल जात हवे ।दिल्ली भोपाल नागपुर ले कमती उन गुठियाय तक नही।ते पाय क ई झन उन ल लपरहा तको कहे धरलिस‌।

लपर लपर तो तही मारत हस महंत का हमन ल तय ओकवा भोकवा समझत हस ? हमन कलेक्टर साहेब करा रायपुर ल मिलके आ गे हन पुछ ले बोधना ल।हम गोठियान नही बुता करके देखाथन‌।आलमदास हर गोठ म बेलाटी भौरा कस आलम झोकत कहिस। सकलाय मनसे मन तारी पिटे धर लिस जय कारा होय लगिस हमर नेता क इसा हो आलमदास जइसा हो । पुरा अडताफ म आलमदास के जयकारा होय धरलिस असो के चुन ई म आलमदास ल वोट देके मंत्री विघायक  बनाबोन ।महंत बिचारा हर कछु कहे न इ पाइस कहे धरिस ते बीच म ओकर गोठ ल तिरछटहा फाक दिस। 
  असो सम्मत रही  बिदेस ल बिग्यानिक आय हवे अउर महानदी म बैराज बनाय जाही। सहकारी खेती करे जाही । जवाहिरलाल के हाथ ल मजबुत करव उनमन भिलाई म लोहा करखाना रसिया देस के सहयोग ले बनवात हवे‌।नवा तिरथ बनही।गंगरेल  बाधा समुद्र असन  बनही । अउ गाव -गाव म खेत खार म महानदी खलबलात अवतरही ।
  कलेचुप सुनत अउ मुडी हाथ धरे गुनत बुधेलाल कहिस सुनब म आत हे ४०-५० गाव उजरत हवे।ओमन कहा बसही दुसर जगा क इसे गुजारा करही खेती खार धर दुवार कोला बारी गाय गरु सब बिला जाही !मुवाजा रुपया झोकही त का ओतकेच म गुजारा नाहकही भला? अउ कभु जादा बरसगे मनसे के बनाय जिनिस ताय कहु फुट फाट गे त परलय आ जाही।छोटे छोटे बांध हर  १०-१२ गाव के मंझोत म नरवा मन ल बाध के  बनना चाही।एखर से सबके गुजारा होतिस। तही मंत्री बन जा बड आय हस ये होतिस ऐसे करतेन ।बोधना हर फाकत कहिस।सरकार जनता के भल ई चाहत हे ।देश सुतंतर होय हे अब धीरे धीरे सबके भाग लहराही। का लहराही? अरे जोन राजा मालगुजार गौटिया रहीस  उंकर त रवती उखडत हे अउ यहा तरा परदेशिया मन अंत्री मंत्री संत्री बनत हे।राज तो पढोइय्या मन के आय हवे । राज के बटवारा पाहु त स्कुल खुलाव लरिका मन ल  पढाव लिखाव ! हमर अम्बेडकर बबा के यही त बडका मंतर आय।
पुनु हर रटपटा के  खडे होके जयकारा लगाइस  अम्बेडकरबबा   के जै ।ओती गांधी बबा के जयकारा होय लगिस।  
  का के गोठ ल का कुती बेमझात हव जी ।हमला ये सोचना हे कि कइसे नहर म निकलत धनागर डोली मन बचाई।महंत चुप करात कहे लगिस।
  फसल बीमा के कौनो बात निये बेफिकर किसानी करव ।अउ अपन सुध्धर दिन पहावव। सरकार हर जनता पोषही हमर नेतामन बिदेस ल चाउर दार लानही।रुवाप झाडत आलमदास कहे लागिस ‌
अब बुढतकाल म महंत का गोठियाय? न वोला बोट से मतलब न नेतागिरी से।मतलब समाज के सुन्ता से हवे ।पद परतिष्ठा पाये स उक उन म कबहु न इ रहीस।भलुक कतकोन झन ल अपने परतापे पद देवाय रहीस।  सक्कर बैमारी जनता के दुख पीरा बर संसो कर कर के ये बैमारी उन ल संचरगे रहय‌।
  उ‌न कहिस भाई जोन अपन समझ अउ सख पुरतीन रहीस करेन अब नवा जमाना आत हे सोच समझ के सुन्ता  रहु ।हमन के का हे पाके डुमर तान कब टपक जाही कब साहेब के बलौव्वा आ जाही कहे नॊ जा सकय। सिछित बनव संगठित होय अउ अपन हक सभीमान बर संधर्ष करव।पद पाके फुलव झन न परलोखिया मन के बात म आव। काबर ये समाज बड धोखा खाय समाज आय बाबा साहेब कहेच हे -" बड मुस्किल म  ये कारवा ल इहा तक लाय हन कोनो ये ल पाछु झन करहव । आधु न इ लेगे सकव त येला इही मेर छोड दव।
  महंत गुनत  दु चार झन संगवारी सहित अपन घर लहुट गय ।ओती बोधना हर दुमन आगर पंगत म अरसा परोसत हबे।उकरे घर तेल ई  चढे रहिस। अब तो तिरहट मन के चलागन चलत हवय।
    -डा अनिल भतपहरी
सी -११ ऊंजियार- सदन सेंट जोसेफ टाउन अमलीडीह रायपुर छग 9617777514


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Sunday, May 23, 2021

सतनाम संस्कृति में रहस भागवत पंडवानी

सतनाम संस्कृति में रहस  भागवत व पंडवानी 

        संदर्भ - प्रथम पंडवानी गायिका सतलोकी लक्ष्मी ‌ बाई बंजारे एंव साथी ।

  पंडवानी सत्य की जय गाथा हैं । पांच पांडव पंच कर्म इंद्रियाँ हैं। पंच ज्ञान इंद्रिय पांञ्चाजन्य हैं। जिसे मन को मोहित करने वाले सर्वगुण सम्पन्न साधक और नायक  मोहन अनुगूंजित कर जय घोष करते हैं।सौ कौरव सहित नव अक्षौणियों का कल्मष से धर्मयुद्ध करते विजय श्री होकर "जैतखाम"  गड़ाकर सत्य ध्वज "पालो "फहराते हैं। 
        सतनाम संस्कृति में रहस भागवत पंडवानी गायन आरंभ ‌से रहा हैं और इसे ये लोग नारनौल दिल्ली मथुरा से अपने साथ लाए हैं। छग के सतनामियों  में रहस भागवत और पंडवानी एक धार्मिक अनुष्ठान हैं। इसे मांगलिक कार्य एंव मनोवांछित फल प्राप्त करने  बदना के रुप में आयोजन करते आ रहे हैं। प्राचीन समय में पं सुखीदास , तुलम तुलाई ,  पं साखाराम बघेल , भिक्षु रामेश्वरम ( जो डा अम्बेडकर /मंत्री नकूल ढी ढी के प्रभाव से बौद्धिष्ट हो गये )  पं रामचरण भतपहरी , लक्ष्मी बाई ‌, तोरन बाई जुगा बाई , राम्हीनबाई इत्यादि ।
     वर्तमान में सतनाम  पंडवानी की साधकों में कन्हैया लाल , समेशास्त्री देवी, ऊषा बारले, शांति बाई चेलक सक्रिय व लोकप्रिय हैं।
    रहस पंडित में पं जगमोहन टंडन ,पं सिताबी , शास्त्री जी कोनारी वाले , पं लक्ष्मी प्रसाद , पं कदम जी    मा‌नदास टंडन , पं विश्राम प्रसाद , सहित अनेक कलावंत साधक हैं। सुश्री भारती जी अभी बेहद चर्चित भागवत कथा वाचिका  हैं। 
    रहस , भागवत ,पंडवानी में कृष्ण एंव कौरव पांडव -गाथा के साथ -साथ सतनाम मंगल भजन व गुरुघासीदास चरित गायन का विशिष्ट परंपरा हैं। इसमें कलावंत सादगी पूर्ण श्वेत वस्त्राभूषण एंव कंठी चंदन  तिलक से युक्त संत मंडली होते हैं जो बेहद प्रभावशाली प्रस्तुतियां देते ह हैं। इनके वाद्य भी विशिष्ट प्रकार के होते हैं। तंबुरा चिकारा हुड़का खंजेरी करताल  घंट घुम्मर   मृदंग शंख तुरही ।वर्तमान में हारमोनियम तबला बैंजो पेड सेंथेसाईजर जैसे आधुनिक वाद्य से प्रस्तुतियां होने लगी हैं।
    ऐसा लगता हैं कि अट्ठारहवीं सदी में गुरुघासीदास के अभ्युदय और उनके युगान्तरकारी पंथ प्रवर्तन के प्रभाव के चलते सतनामियों की रहस व पंडवानी परंपरा में गुरुगाथा व सतलोकी भजनों का समाहार हुआ। इस तरह  हम देखते है कि छत्तीसगढ़ी संस्कृति में एक नई समन्वयकारी लोक कला का विकास हुआ जो कि बहुत ही महत्वपूर्ण है। 
     अध्येताओं को इस विशिष्ट लोक कला मंच और उनसे  साधकों की प्रवृत्तियों और जनमानस में पड़ते प्रभाव का अनुशीलन करना चाहिए ।

निम्न‌ लिंक पर आप लक्ष्मी बाई बंजारे  जी की पंडवानी देख सकते हैं-

https://www.facebook.com/groups/1948616105381097/permalink/2989212977988066

                   धन्यवाद 
    -डाॅ. अनिल भतपहरी / 9617777514

Monday, May 17, 2021

जैतखाम/ जोतखाम/ सेतखाम

।।जैतखाम जोतखाम सेतखाम ।।

जैतखाम म‌ पालो फहरथे 
पालो धर्म ध्वज आय जोन चौकोन वर्गाकार सादा रंग के होथे ।एकर मतलब समानता से हवे। ये ‌पालो ल पुरखा मन  छग मे आव्रजन के समे  खुंखार बादशाही सेना से बचाय अउ ओकर पवित्रता ल राखे खातिर   चुल्हापाठ मं गाड़िन । काबर कि ये  शाही फरमान रहिस कि चुन- चुन कर सतनामियों का कत्लेआम कर नेस्तानाबुत कर दिया जाय।  अपन अस्तित्व रक्षा बर देश के आंतरिक और वनाच्छादित भाग में आव्रजन करके ओमन जीविकोपार्जन करे लगिस अउ अपन अस्तित्व के रक्षा करिन ।भाषा बोली पहनावा ओढावा सब तियाग के जैसा देश वैसा भेष में समाहित हो गय।
   तेकर  पाछु अंगना म निशाना सही तीन हाथ के खाम म सजा के रखिन । अइसे करत 1662-1795  तक करीब 150 साल तक एला सम्हारे रहिस अउ सतनाम सुमरत ओकर छत्र छाया अपन सुखमय  जिनगी जियत रहिन।
      बाद मं गुरुघासीदास द्वारा ओ पालों ल पहिली बार जमींदार  रामराय बिंझवार के गांव सोनाखा‌न के घर के आघु बीच गली मं 21 हाथ के स र ई के शानदार गोलाई वाले खाम गड़ा के फहराइस ।कहिथे कि एसन कर के राज म फैले धुका गर्रा हैजा बिमारी के रोकथाम करिन अउ बीमार नारायण सिंग के चिकित्सा करिन ।गुरु घासीदास हर  अड़ताफ म प्रसिद्ध  गिरौदपुरी के नाड़ी वैद्य गोसाई मेदनीदास के नाती हरय जोन अपन तपस्या  म बड़का गुन्निक  सिद्ध पुरुष हो गे रहि‌न ।
     माने जैतखाम पहली सोना खान म गडिस जेमा सतनाम पंथ के धर्म ध्वजा पहराय गे रहिन ।
    दुसर जैतखाम रतनपुर के दुलहरा तालाब म राजकुमारी  रत्नकुमारी के अनुग्रह से जैतखाम के स्थापना गुरुघासीदास जी हर करिन।
  तेकर पाछु सतनाम पंथ धर्म नगरी भंडारपुरी के चौखंडा  मोती महल के सामने चांद अउ सुरज नाव के दो जोड़ा जैत खाम सजिस ओमा पालों चढ़ा के गुरुद्वारा महल के उद्धाटन करे गिस ! अउ एला एक महोत्सव के रुप दे गिस धर्म ध्वजा फहरा के गुरु पुत्र राजा बालकदास अउ राजा आगरदास जी हाथी म सवार होके राजसी सरुप म शोभायात्रा निकाल के मैदान म एकत्रित लाखों जन समूह ल दर्शन दिस  । ये परब हर " गुरुदर्शन परब"  के रुप में स्थापित होगे जोन 1820 से सरलग चले आत हे एला भंडारपुरी दशहरा तको कहिथे।काबर कि येहा दशहरा के दूसरा दिन आयोजित होथे।जिहां लाखो नर नारी सकलाथे। ये मेला ह सतनाम पंथ प्रथम मेला अउ  सार्वजनिक महोत्सव आय।
         ये प्रमुख ४ जैतखाम आय जोन गुरुघासीदास के निर्देशन म गड़ाय अउ सजाय गे रहिस। 
    गुरुघासीदास जयंती के प्रणेता मंत्री नकूल ढी ढी व महंत नंदू नारायण भतपहरी ने 1936 में गाँव- गाँव  में जैतखाम स्थापित करवा के  सामाजिक नव जागरण  लानिस ।  तहा से  छत्तीसगढ़ के  प्रत्येक सतनामी गाँव के बीच गली में यह स्थापित होय लगिस । 
 जैतखाम  असल में जोतखाम आय  एला सेतखाम तको कहे जाथे। 
    साधना के समय जब कुंडलिनी जागरण होथे त ज्योत स्वरुप में ऊर्ध्व खाम सदृश सेत रंग में चमकीला पदार्थ खड़ा हो जाते हैं।  
तब साधक ल अतिशय आनंद सुखानुभूति होथे। ये व्यक्तिक आनंद ल उत्सव के रुप में परीणत करे गे हवय। एकर आध्यात्मिक महत्व हे। अनेक तरह व्याधि, कुदृष्टि ,नकारात्मक ,ईर्ष्या, द्वेष भाव आदि  जैतखाम अउ पालों हर संरक्षण देथे । ए मान्यता समाज में गहराई से परिव्याप्त हवे।
     सामाजिक विद्वान अउ जुन्ना सियान  जैतखाम के कांसेप्ट अशोक लाट अउ जगन्नाथ मंदिर के आघु गरुड़ स्तंभ से भी प्रेरित मानथे। 
 प्राचीन अशोक दशहरा का यथावत स्वरुप भंडारपुरी के दशहरा और शोभायात्रा में देखे मिलथे।
       सादा पताका  पालो के विशिष्ट भाव हे सत्य अहिंसा और आचरण में सदैव  सात्विकता व पवित्रता को आत्मसात करना । चुल्हापाट में स्थापित  / आंगन में स्थापित पालो में बिना आरती दीया किए सतनामी समाज  की महिलाए भोजन नहीं परोसती इनका नेम धेम से पालन प्रायः सभी परिवार चाहे ग्रामीण हो  शहरी करते आ रहे हैं। 
     जैतखाम पूजा केवल बाह्याचार आय  ।एकर से  केवल मन में पवित्रता व सात्विक भाव जागृत होथे अउ व्यक्ति में आत्मबल तको आथे ।  एक तरह से सकरात्मक ऊर्जा देने वाले प्रतिमान आय।
गिरौदपुरी में नव निर्मित विशाल जैतखाम के ऊपर भी सादगी पूर्ण. पारंपरिक जैतखाम  21 हाथ का ही  जैतखाम हैं।  बाकी निर्माण  केवल  अलंकृत चबुतरा हैं।
 जैतखाम केवल सरई अउ साजा के बनथे ।21 हाथ तीन चबुतरा तीन हुक पांच गठान बांस की डंडा और उनपर  नाडियल फल बाधा हुआ चौकोर पालो चढाय जाथे । इकरों मन के विशिष्ट अर्थ हवय सब ल लिखबे त अबड़ लंबा हो जही। मन इंद्रिय प्रवृत्ति वृत्ति चारिकाएं शील आदि इनमें समाहित हवय।
 जैतखाम ह असल में  जोतखाम आय जोन कुंडलिनी जागरण के समय साधक ल अनुभुत उर्ध्व ऊर्जा के स्वरुप आय जोन चमकदार जोत के समान नजर आथे। ए दृष्टिकोण से आध्यात्मिक अर्थ तको एमा हवे।
    ए दृष्टि से एकर अतिशय महत्व हवय। जोत स्वरुप होय के कारण गुरुघासीदास जी एकर नाम करण करिस सुरुज अउ चंदा । एखर से रात दिन कभु जीवन में अंधियारा न इ आ सकय। सतनाम पंथ प्रमुख स्थल  तेलासी बाडा अउ बोड़सरा बाड़ा में जैतखाम स्थापित कर पालो फहरा कर उद्धाटन करे गिस ।   
ये जोड़ा जैत सतनाम संस्कृति में महत्वपूर्ण हवे।

टीप -जैतखाम आस्था का केन्द्र हैं इनकी स्थापना पर पुरी तरह पवित्रता और उनके उचित रख रखाव करना चाहिए ।इनके अभाव में इन्हे यत्र तत्र कही भी स्थापित नहीं करना चाहिए ।
       यह हर जगह गड़ाने की वस्तु भी नहीं हैं। हमारे विचारकों लेखकों  बुद्धिजीवी और संत महंत गुरुओ को इनकी स्थापना और उचित रख रखाव व संरक्षण पर ध्यान देना चाहिए। संज्ञान ले‌ना चाहिए ।जैतखाम परिसर में औरा- धौरा तेंदू, बेल ,नीम, पीपल  आम अमरुद  साजा - सराई जैसे छायादार व फलदार पौधारोपण कर‌ना चाहिए। ताकि पारंपरिक सौन्दर्य और प्राकृतिक वातावरण मन को भी हर्षित करते  रहेगा । इन पर शानदार कविता कहानी लेख आदि लिखकर जन मानस में प्रचार प्रसार कर‌ना चाहिए।

    -डाॅ अनिल भतपहरी / 9617777514

एक घड़ा रीता हैं

#anilbhatpahari 
पंचक 13 ( पाँच पंक्तियाँ )

।।एक घड़ा रीता हैं ।।

कौन संपूर्ण  यहाँ  कुछ  रीता रह ही जाता  है
तभी तो  समर्थवान  अंतत:‌ हार  भी जाता हैं 
चंद उपलब्धियों से मनुष्य ग़फलत में जीता हैं
हम जो गाए गीत और कृष्ण गाए ओ गीता हैं
सच यह कि हर  पनघट  पर एक घड़ा रीता हैं

   डाॅ अनिल भतपहरी / 9617777514

Saturday, May 15, 2021

छत्तीस तुकबंदी डाड़

।।छत्तीस तुकबंदी डाड़ ।।

जनम ले  हर मनखे होथे  एक समान ।

फेर करम ले होथे गुड़ -गोबर मितान ।।

सच  बात ल  कहिथंय  हमर  सियान ।

लबारी कहिस तेन हो जथे तुरते बईमान ।।

सुनव संगी  तुमन एला बने धरके  धियान ।

हितवा होथे जम्मों बदथे ओकर संग मितान ।।

जेकर  कोठी मं  भरे  रहिथे  सदा  धान ।

तेकर  मन हं अक्सर रहिथे सदा  आन ।।

रात चाँदी होथे ओकर अउ सोनहा बिहान ।

करमइता बिकट अउ  हच  बड़  सुजान ।।

परलोखिया  के  बुध  कभुच  झन मान  ।

करव  झन अपन   मन ल आन -तान ।।

झगरा के जर  होथे ईरखा जुआ  नशा -पान ।

बैठांगुर के करिया  मंतर मोहनी  जुबान ।।
 
सउक पुरोलव कहिके खवा देथे  बिरो पान ।

उल्टा - पुल्टा सिखोवय अउ हर लेथंय मान ।।

रुख्खा -सुख्खा झन तजो कहय  अपन  परान ।

किसिम किसिम के होथे ओकर  सुख सजान ।।

सुख भोगे जनम धरे हस लिगरी के मारे बान ।

मन मोकाय  भोरका मं  गिर के होथे  बदनाम ।।

सोन ऊपजइया  हच तय बेटा  खरतर  किसान ।

जोम जांगर ले तोर कहाये भुंइया के भगवान ।।

भरव मिहनत  कर  अपन  कोठी मं धान।

पढ़ाव लिखाव लइका अउ  बनाव विद्वान ।।

नौकरी-  बैपार मं  बनेच   धरव  धियान ।

नर -नीति बर तको लगाय करव जी जान ।।

सम्हाल के राखव सबो  अपन मान- सम्मान ।

जनम घरेव  मनखे  त बनव सुघ्घर  इंसान ।।

करव सतकरम धरव  सतधरम बनव गुनवान ।

बोली बतरस मीठ करु कसा ले रहव अंजान ।।

लंद- फंद ल दुर बाहिर  रहव सदा  संत समान ।

सुख-सम्मत मं जिनगी बीते मिलही मान सम्मान ।।
 
मोह मया के फांदा टुटही मिटही गरब गुमान ।

तभेज पाहुं जीते जी परम -पद -निरवान ।।
 
हमरो  कहना  ल संगी  चिटिक लेवव मान ।

जय- जोहार  राम- राम अउ  जय सतनाम ।।

      -डाॅ. अनिल भतपहरी / 9617777514

Friday, May 14, 2021

जैतखाम

[5/14, 19:58] anilbhatpahari: जैतखाम म‌ पालो पहरथे 
पालो धर्म ध्वज आय जोन चौकोन वर्गाकार सादा रंग के होथे ।एकर मतलब समानता से हवे। ये ‌पालो ल पुरखा मन  छग मे आव्रजन के समे  खुंखार बादशाही सेना से बचाय अउ ओकर पवित्रता ल राखे खातिर   चुल्हापाठ मं गाड़िन । काबर कि ये  शाही फरमान रहिस कि चुन- चुन कर सतनामियों का कत्लेआम कर नेस्तानाबुत कर दिया जाय।  अपन अस्तित्व रक्षा बर देश के आंतरिक और वनाच्छादित भाग में आव्रजन करके ओमन जीविकोपार्जन करे लगिस अउ अपन अस्तित्व के रक्षा करिन ।भाषा बोली पहनावा ओढावा सब तियाग के जैसा देश वैसा भेष में समाहित हो गय।
   तेकर  पाछु अंगना म निशाना सही तीन हाथ के खाम म सजा के रखिन । अइसे करत 1662-1795  तक करीब 150 साल तक एला सम्हारे रहिस अउ सतनाम सुमरत ओकर छत्र छाया अपन सुखमय  जिनगी जियत रहिन।
      बाद मं गुरुघासीदास द्वारा ओ पालों ल पहिली बार जमींदार  रामराय बिंझवार के गांव सोनाखा‌न के घर के आघु बीच गली मं 21 हाथ के स र ई के शानदार गोलाई वाले खाम गड़ा के फहराइस ।कहिथे कि एसन कर के राज म फैले धुका गर्रा हैजा बिमारी के रोकथाम करिन अउ बीमार नारायण सिंग के चिकित्सा करिन ।गुरु घासीदास हर  अड़ताफ म प्रसिद्ध  गिरौदपुरी के नाड़ी वैद्य गोसाई मेदनीदास के नाती हरय जोन अपन तपस्या  म बड़का गुन्निक  सिद्ध पुरुष हो गे रहि‌न ।
     माने जैतखाम पहली सोना खान म गडिस जेमा सतनाम पंथ के धर्म ध्वजा पहराय गे रहिन ।
    दुसर जैतखाम रतनपुर के दुलहरा तालाब म राजकुमारी  रत्नकुमारी के अनुग्रह से जैतखाम के स्थापना गुरुघासीदास जी हर करिन।
  तेकर पाछु सतनाम पंथ धर्म नगरी भंडारपुरी के चौखंडा  मोती महल के सामने चांद अउ सुरज नाव के दो जोड़ा जैत खाम सजिस ओमा पालों चढ़ा के गुरुद्वारा महल के उद्धाटन करे गिस ! अउ एला एक महोत्सव के रुप दे गिस धर्म ध्वजा फहरा के गुरु पुत्र राजा बालकदास अउ राजा आगरदास जी हाथी म सवार होके राजसी सरुप म शोभायात्रा निकाल के मैदान म एकत्रित लाखों जन समूह ल दर्शन दिस  । ये परब हर " गुरुदर्शन परब"  के रुप में स्थापित होगे जोन 1820 से सरलग चले आत हे एला भंडारपुरी दशहरा तको कहिथे।काबर कि येहा दशहरा के दूसरा दिन आयोजित होथे।जिहां लाखो नर नारी सकलाथे। ये मेला ह सतनाम पंथ प्रथम मेला अउ  सार्वजनिक महोत्सव आय।
         ये प्रमुख ४ जैतखाम आय जोन गुरुघासीदास के निर्देशन म गड़ाय अउ सजाय गे रहिस। 
    गुरुघासीदास जयंती के प्रणेता मंत्री नकूल ढी ढी व महंत नंदू नारायण भतपहरी ने 1936 में गाँव- गाँव  में जैतखाम स्थापित करवा के  सामाजिक नव जागरण  लानिस ।  तहा से  छत्तीसगढ़ के  प्रत्येक सतनामी गाँव के बीच गली में यह स्थापित होय लगिस । 
 जैतखाम  असल में जोतखाम आय  एला सेतखाम तको कहे जाथे। 
    साधना के समय जब कुंडलिनी जागरण होथे त ज्योत स्वरुप में ऊर्ध्व खाम सदृश सेत रंग में चमकीला पदार्थ खड़ा हो जाते हैं।  
तब साधक ल अतिशय आनंद सुखानुभूति होथे। ये व्यक्तिक आनंद ल उत्सव के रुप में परीणत करे गे हवय। एकर आध्यात्मिक महत्व हे। अनेक तरह व्याधि, कुदृष्टि ,नकारात्मक ,ईर्ष्या, द्वेष भाव आदि  जैतखाम अउ पालों हर संरक्षण देथे । ए मान्यता समाज में गहराई से परिव्याप्त हवे।
     सामाजिक विद्वान अउ जुन्ना सियान  जैतखाम के कांसेप्ट अशोक लाट अउ जगन्नाथ मंदिर के आघु गरुड़ स्तंभ से भी प्रेरित मानथे। 
 प्राचीन अशोक दशहरा का यथावत स्वरुप भंडारपुरी के दशहरा और शोभायात्रा में देखे मिलथे।
       सादा पताका  पालो के विशिष्ट भाव हे सत्य अहिंसा और आचरण में सदैव  सात्विकता व पवित्रता को आत्मसात करना । चुल्हापाट में स्थापित  / आंगन में स्थापित पालो में बिना आरती दीया किए सतनामी समाज  की महिलाए भोजन नहीं परोसती इनका नेम धेम से पालन प्रायः सभी परिवार चाहे ग्रामीण हो  शहरी करते आ रहे हैं। 
     जैतखाम पूजा केवल बाह्याचार आय  ।एकर से  केवल मन में पवित्रता व सात्विक भाव जागृत होथे अउ व्यक्ति में आत्मबल तको आथे ।  एक तरह से सकरात्मक ऊर्जा देने वाले प्रतिमान आय।
[5/14, 19:58] anilbhatpahari: गिरौदपुरी में नव निर्मित विशाल जैतखाम के ऊपर भी सादगी पूर्ण. पारंपरिक जैतखाम  21 हाथ का ही  जैतखाम हैं।  बाकी निर्माण  केवल  अलंकृत चबुतरा हैं।
[5/14, 19:58] anilbhatpahari: जैतखाम केवल सरई अउ साजा के बनथे ।
21 हाथ तीन चबुतरा तीन हुक पांच गठान बांस की डंडा और उनपर  नाडियल फल बाधा हुआ चौकोर पालो चढाय जाथे । इकरों मन के विशिष्ट अर्थ हवय सब ल लिखबे त अबड़ लंबा हो जही। मन इंद्रिय प्रवृत्ति वृत्ति चारिकाएं शील आदि इनमें समाहित हवय।
 जैतखाम ह असल में  जोतखाम आय जोन कुंडलिनी जागरण के समय साधक ल अनुभुत उर्ध्व ऊर्जा के स्वरुप आय जोन चमकदार जोत के समान नजर आथे। ए दृष्टिकोण से आध्यात्मिक अर्थ तको एमा हवे।
    ए दृष्टि से एकर अतिशय महत्व हवय। जोत स्वरुप होय के कारण गुरुघासीदास जी एकर नाम करण करिस सुरुज अउ चंदा । एखर से रात दिन कभु जीवन में अंधियारा न इ आ सकय।
  
ये जोड़ा जैत सतनाम संस्कृति में महत्वपूर्ण हवे।

गुरुघासीदास

गुरु घासीदास के ऊपर ओकर  अज्ञातवास 1850 जेन ल जनश्रुति अउ सतनाम संस्कृति मं  अछप ( अन्तर्धयान) कहे  जाथे ओकर ठीक 19  -20 बछर बाद संउहात ओकर संग किदरे बुले ओकर कारज ल देखे परखे मनसे मन सो पुछ पाछ के साक्षात्कार ले  के अंग्रेज विद्वान मन से लेखन होय हवे।   अउ तो अउ गुरु पुत्र बालकदास के षडयंत्र पूर्वक  हत्या 28 मार्च  1860 के ठीक 9 साल बाद लगभग डेढ़ दर्जन से अधिक    अंग्रेज लेखक अफसर मन लिखना शुरु करिन जेन म हैविट 1869 ,चीश्लोम  1870, शैरिंग 1872, इब्तेसन 1881 ,नेसफिल्ड 1885 , बोस 1890 नेल्सन 1909 रोज 1911 , रिजले 1915 रसेल 1916 ब्रिग्स 1920 एल्विन 1946 तक लिखते रहिन ।
भारतीय अउ छत्तीसगढ़ी लेखक कवि मं 1907 से गुरुघासीदास पुराण सन्दरलाल शर्मा , पं सुखीदास कलकत्ता गुरुघासीदास चरित 1922 सतनामदास कृत सतनाम सागर 1925 वेलडियर प्रेस कलकत्ता से छप गे रहिस। गुरुघासीदास के प्रमुख शिष्य कवि रतिदास कृत सतनाम अथर्बल  ग्रंथ भी महत्वपूर्ण हवे।
   महाकवि मनोहर दास कृत विराट  महाकाव्य गुरुघासीदास नामायण 1968 में आइस तेकर पाछु  दस से अधिक महाकाव्य आइस जेन‌ म सत्यायण  ,  समायण. सतनाम पोथी , सतसागर , बटकी चाकर , सहित अनेक समीक्षात्मक अकादमिक  ग्रंथ आना शुरु होगे । वर्तमान में सैकड़ों ग्रंथ किताब उपलब्ध हवय। 
      गुरुघासीदास व सतनाम पंथ लेखन के पहिली  दु- चार ग्रंथ किताब मन ल  का पढ लेना चाही  या फिर सतनाम धर्म संस्कृति के अनेक जनश्रुति कार कडिहार  चौका पंडित संत महंत भंडारी व गुरु जन हमारे आसपास विद्यमान हवय  उकरो से  पुछ परख कर लेना चाही ।  
   खैर , खोजबे त पाबे कहि जाथे अटान टप्पु सुने सुनाय या अपन छुद्र मनो मस्तिष्क के भरोसा कोन्हो भी धर्म मत पंथ के बारे म टीका टिप्पणी अनुचित हे।
    खास तौर से गुरुघासीदास अउ सतनाम पंथ के ऊपर अक्सर एक  पृष्ठ के लेख तक मं विवादस्पद स्थिति निर्मित हो जथे।
 या कोनो मन से जाने अनजाने तको हो जथे एकर पीछू अनभिज्ञता ह प्रमुख कारण आय।
      गया प्रसाद साहू जी लेख ल पढेव त ओकर मुल प्रयोजन हे कि गुरुघासीदास हर अपन समुदाय बर काम करिन तभो ले उन म ल भगवान मत मानव । अउ ओकर अनुआई मन ल चाही कि ओमन ओला भगवान झन समझय।
   आजकल के नवा  नवा तथाकथित बाबा व स्वयं भू दूरदर्शनी कथावाचक संत बापु मन संग तको संघेर के उनमन अपन गहिर गंभीर अध्ययन ल तको गड़बड़ झाला कर डरिस।
    खैर एमा ओकर दोष न इये भलुक ओकर ए संदर्भ में अज्ञानता हवय । 
   गुरुघासीदास ह बुद्ध के परंपरा तत्वदर्शी पंथ प्रवर्तक  आय । ओहर मध्यकालीन संत परंपरा के  कथित अलौकिक ईश्वर (भगवान ) के  सगुण निर्गुण के गायक भक्त कवि नोहय। ओहर कोनो देव धामी के पुजा पष्ठ कर्मकांड  करोइया नोहय भलुक एमा चिभके फदके अउ अञध विश्वास म बुडे लोगन के तारनहार आय।
     गुरुघासीदास सफा सफा कहे हे कि तोर भगवान बहेलिया आय अउ मोर भगवान घट म बिराजे सतनाम हर आय।
   सतनाम का अर्थ किसी कल्पित सशीर धारी ईश्वर नहीं है न वह जन्मा है न रप रंग आकृति में हैं। ए पाय के उन ल निगर्ण वादी संत कह के ओकर विचार धारा  ल भ्रमित तको करे जाथे। 
   गुरुघासीदास ल अनुयाई मन कभु भगवान या ईश्वर न इ मानय ।भलुक सच्चा सतनामी मन तो मिथकीय भगवान यहाँ तक देबी देवता मन ल तको नी मानय । ते पाय के तको ए विराट समुदाय ल अलग चिन्ह उ होके एक स्वतंत्र पंथ के रुप में अस्तित्व मान हवय। हर धर्म मत पंथ में कट्टरपंथी अउ उदारवादी होथे ।
सतनाम पंथ म भी जहरिया अउ बहरिया हवय।
 जहरिया मतलब कट्टरपंथी जेन गुरु उपदेश अउ वाणी सिद्धान्त के अक्षरश पालन करथे । सादा सात्विक रहिथे मंद मास नशा पानी यहा तक लहसुन प्याज लाल भाजी मसुर तक के परहेज कर इया मिल जथे। अउ बहरिया तो सर्वत्र हवे।
      
     बहरहाल बुद्ध के मानिंद गुरुघासीदास ह अनीश्वरवादी महान  प्रवर्तक गुरु है वो अपने अनुआई को संत कहय ओहर संत समाज के संरचना करे हवय फेर ओहि ल संत कहिके ओकर विराट गुरु स्वरुप के अनदेख ई तको ईश्वर वादी मन करथे ।अउ मिथकीय देव धामी तीरथ धाम पंडा पुजारी दान दक्षिणा ठग  फुसारी के प्रखर विरोध करे के सेती ओला  अउ ओकर अनुयाई मन ल एमा जेकर गुजारा चलत रहिस ओमन उकर जाय के बाद अउ सक्षम प्रबंधन के अभाव के कारण मुख्यधारा से हाशिये डार दिन अउ अलिगाय दे गिन। तरा तरा के भ्रम फैलाए दे गिन । आज उही भ्रमित जिनिस ल मनखे मन उपरछावा जादा जानथे समझथे।  जोन ठोस अउ सच्चाई  हे ओकर से दुरिहा गय हे।
  डाॅ. अनिल भतपहरी

Sunday, May 9, 2021

पुरुष कही का

#anilbhatpahari

" पुरुष कही का "

      वेदना  सभी के  होते हैं, चाहे स्त्री हो या पुरुष ।परन्तु  पुरुष की पीड़ा को कोई व्यक्त  नहीं करते या करना नहीं चाहते क्योंकि इससे पौरुष का व्यर्थ क्षरण होने लगते  हैं। ऐसे में फिर पुरुषार्थ का क्या होगा?
    सच तो यह है कि पौरुष को ढो़ते रहना भी बड़ी बहादुरी हैं । सभी की दुहाई है कि जीवन का ध्येय पुरुषार्थ है ,और यही एक मात्र श्रेष्ठतम  उपलब्धि हैं ।इसलिए भी तमाम संत्रास व वर्जनाओं को भोगते हुए पुरुष पुरुषार्थ साधने में रत रहता हैं। उसे जन्मजात यह बड़ी जिम्मेदारी ‌विरासत से मिले हुए हैं।
     स्त्रियाँ तो प्रायः निंदा -चुगली कर के भी खुश हो जाती हैं ।(पुरुष करे यह अशोभनीय है बल्कि ऐसा करना स्त्रैण प्रवृत्ति मान लिए गये हैं।)  और तो और ऐसा करके अपनी वेदना को तिरोहित कर लेती हैं या परस्पर बांट लेती  हैं। नहीं तो पुरुष है ही उन्हें फारिग कराने । ऐसा कह आधी आबादी को छेड़ नहीं रहे हैं बल्कि जो प्रवृत्ति और प्रकृति के कारण वो है उनकी ‌बातें कर रहे हैं। बहरहाल अब वे भी धीरे- धीरे स्त्री विमर्श और  इधर नारीवादियों के बहकावे में आकर महिलाएं बराबरी कम  पुरुष बनने की होड़ में लगे हुए हैं। बल्कि" महापुरुष" हो जाय या उन्हें मान्यता मिल जाय तो सोने पर सोहागा ! पर सवाल यह है कि क्या उन्हें कोई "महामहिला" भी होने दे रहे हैं। ‌लोग तो सीधे सीधे देवी बनाने पर तुले हुए हैं। जबकि  आधुनिक नारी प्राचीन देवी बनना ही नहीं चाहती ।देवी का मुल्लमा बहुत ही धिस -पिट चुके हैं , उनका छूट जाना ही अत्युत्तम ‌हैं। 
     सुनने में आया है कि १३-१४ वर्ष की कन्या को देवी बनाकर पूजने का रिवाज हैं। और ज्यों ही वह कन्या से बेदखल होती है,आधुनिक  नर श्रेष्ठ की वरण्या हो जाया करती हैं। देवी बेचारी !
    पुरुष को अपनी पत्नी के सिवा कोई मित्र तक नहीं मिलते। भले स्त्री, मित्र समझे न समझे! वैसे विवाहित पुरुष न घर के होते न समाज के, बस वह किराना और सब्जी बाज़ार के हो कर रह जाते हैं। 
बहरहाल  खुदा न खास्ता कोई लगोटियां टाईप  बाल मित्रादि मिल भी जाय तो लोक लज्जा हैं ।अब वे दोनो  बड़े हो चूके हैं , ऐसे में कोई पुनश्च बचपन में जाकर  अपना ही भद्द  थोड़े ही कराना  हैं। फिर  बाकी तो  हाय -हलो वाले हैं जो कि यहाँ सभी प्रतिद्वंद्वी है। कोई किसी के आगे कोई झुक कर  कमान होना नहीं चाहते कम्बख्त ये पौरुष अनावश्यक कठोर आवरण  तक ओढ़ लेते हैं। तीक्ष्ण तीर ही बना रहना चाहते हैं ।फलस्वरुप वे किसी के सक्षम निस्सहाय होना पसंद नहीं करते  और न ही रुदन आदि कर अपने पौरुष को  पिघला सकते हैं।
         पुरुष माँ -पत्नी जैसी दो पाटन के बीच में चुपचाप पीसाते रहने  विवश हैं। घर- गृहस्थी की बोझ के साथ संतानों की बोझ से झुका थका -हारा पुरुष  की वेदना इस तरह असीम व अवर्णनीय हैं। 
       सच्चा पुरुष तो अक्सर  अकेले में यह सोचकर या गुनगुना कर जी लेता हैं ।भले नशे में ही सही - 
दुनिया में कितना ग़म है, अपना ग़म कितना कम हैं...
    यह कैसा अजूबा हैं नशे में डूबे पुरुष को नशा न मिलने की जुगत में स्त्रियाँ सरकार से उलझने तैयार हैं कि पूत और भरतार शराब में घर फूंक रहे हैं। वो यह उपाय क्यों नहीं करती कि मुएं मयखाना ही न जा पाय‌! बल्कि घर में विराजमान देवी लोक में निर्भय निशंक विचरण करें। पर  पता नही उन्हे यह क्यो भान नही कि‌ घर की चार दीवारी में कैद नारी ही घर को जहन्नुम बनाए हुई हैं। 
      सच्चे की बात चली तो  अब  किसी को क्या कहे और क्या समझाए इसे? " पुरुष कही का"  भला पुरुष या स्त्री भी सच्चा -झुठा होते हैं ।यदि हो  भी जाय तो फिर उसे क्या कहेंगे ?  बोलो -बोलो ।
      कोई ऐसा भी न समझे कि हम "पुरुष विमर्श के प्रणेता" होना चाह रहे हैं। 
  - डाॅ. अनिल भतपहरी/ 9617777514

पुरुष कहीं का

" पुरुष कहीं का "

      वेदना  सभी के  होते हैं, चाहे स्त्री हो या पुरुष ।परन्तु  पुरुष की पीड़ा को कोई व्यक्त  नहीं करते या करना नहीं चाहते क्योंकि इससे पौरुष का व्यर्थ क्षरण होने लगते  हैं। ऐसे में फिर पुरुषार्थ का क्या होगा?
    सच तो यह है कि पौरुष को ढो़ते रहना भी बड़ी बहादुरी हैं । सभी की दुहाई है कि जीवन का ध्येय पुरुषार्थ है ,और यही एक मात्र श्रेष्ठतम  उपलब्धि हैं ।इसलिए भी तमाम संत्रास व वर्जनाओं को भोगते हुए पुरुष पुरुषार्थ साधने में रत रहता हैं। उसे जन्मजात यह बड़ी जिम्मेदारी ‌विरासत से मिले हुए हैं।
     स्त्रियाँ तो प्रायः निंदा -चुगली कर के भी खुश हो जाती हैं ।(पुरुष करे यह अशोभनीय है बल्कि ऐसा करना स्त्रैण प्रवृत्ति मान लिए गये हैं।)  और तो और ऐसा करके अपनी वेदना को तिरोहित कर लेती हैं या परस्पर बांट लेती  हैं। नहीं तो पुरुष है ही उन्हें फारिग कराने । ऐसा कह आधी आबादी को छेड़ नहीं रहे हैं बल्कि जो प्रवृत्ति और प्रकृति के कारण वो है उनकी ‌बातें कर रहे हैं। बहरहाल अब वे भी धीरे- धीरे स्त्री विमर्श और  इधर नारीवादियों के बहकावे आकर पुरुष बनने की होड़ में लगे हुए हैं। बल्कि महापुरुष हो जाय या उन्हें मान्यता मिल जाय तो सोने पर सोहागा ! पर सवाल यह है कि क्या उन्हें कोई महा महिला भी होने दे रहे हैं। ‌लोग तो सीधे सीधे देवी बनाने पर तुले हुए हैं। जबकि  आधुनिक नारी प्राचीन देवी बनना ही नहीं चाहती ।देवी का मुल्लमा बहुत ही धिस -पिट चुके हैं , उनका छूट जाना ही अत्युत्तम ‌हैं। 
     सुनने में आया है कि १३-१४ वर्ष की कन्या को देवी बनाकर पूजने का रिवाज हैं। और ज्यों ही वह कन्या से बेदखल होती है। आधुनिक  नर श्रेष्ठ की वरण्या हो जाया करती हैं। देवी बेचारी !
    पुरुष को अपनी पत्नी के सिवा कोई मित्र तक नहीं मिलते। भले स्त्री, मित्र समझे न समझे! वैसे विवाहित पुरुष न घर के होते न समाज के, बस वह किराना और सब्जी बाज़ार के हो कर रह जाते हैं। 
बहरहाल  खुदा न खास्ता कोई लगोटियां टाईप  बाल मित्रादि मिल भी जाय तो लोक लज्जा हैं ।अब वे दोनो  बड़े हो चूके हैं , ऐसे में कोई पुनश्च बचपन में जाकर  अपना ही भद्द  थोड़े ही कराना  हैं। फिर  बाकी तो  हाय -हलो वाले हैं जो कि यहाँ सभी प्रतिद्वंद्वी है। कोई किसी के आगे कोई झुक कर कोर होना नहीं चाहते कम्बख्त ये पौरुष अनावश्यक कठोर आवरण  तक ओढ़ लेते हैं।फलस्वरुप वे किसी के सक्षम निस्सहाय होना पसंद नहीं करते  और न ही रुदन आदि कर अपने पौरुष को  पिघला सकते हैं।
         पुरुष माँ -पत्नी जैसी दो पाटन के बीच में चुपचाप पीसाते रहने  विवश हैं। घर- गृहस्थी की बोझ के साथ संतानों की बोझ से झुका थका -हारा पुरुष  की वेदना इस तरह असीम व अवर्णनीय हैं। 
       सच्चा पुरुष तो अक्सर  अकेले में यह सोचकर या गुनगुना कर जी लेता हैं -
दुनिया में कितना ग़म है, अपना ग़म कितना कम हैं...
      पर जो सच्चा न हो उसे अब क्या कहे और क्या समझाए इसे? " पुरुष कही का"  भला पुरुष या स्त्री भी सच्चा -झुठा होते हैं ।यदि हो जाय तो फिर उसे क्या कहेंगे ?  बोलो -बोलो ।
      कोई ऐसा भी न समझे कि हम "पुरुष विमर्श के प्रणेता" होना चाह रहे हैं। 
  -डाॅ. अनिल भतपहरी/ 9617777514

Saturday, May 8, 2021

किस्सा तोता मैना

#anilbhatpahari 

।।लघु कथा ।।

किस्सा-ए -तोता-मैना 

भरी महफ़िल में झल्लाती हुई चीख उठी -" ये औरत है साहब! बस चले तो नाली में पड़े शराबी से इनकी निभ जाय ! नहीं तो बिल गेट्स क्या चीज हैं!"
    कुछ लोग तालियां बजाने ही वाले थे... कि बेहद धीर-गंभीर स्वर गूँज उठा- 
         "ये मर्द़ हैं मेहरबान !दिल लगे गधी से, तो परी क्या ची़ज है जनाब -ए -आली  !"
      लघु फिल्म  "किस्सा  तोता- मैना " का शांट ओके हुआ। डायरेक्टर मुस्कुराते हुए एक हाथ से टोपी सम्हालतें दूसरे  हाथ के  अंगुठें को ओके कहते,  ऊपर उठाया।

   -डाॅ. अनिल भतपहरी / 9617777514

Thursday, May 6, 2021

आदमी का बच्चा

।।आदमी का बच्चा ।‌।

       "मनुष्य दिनो-दिन संवेदनाओं से रहित होते जा रहे हैं! रोज-रोज की करुणिक समाचार, कइयों को भीतर से कठोर करते पत्थर दिल बना रहें हैं।" 
             प्रो. साहब सेमीनार में सहभागियों ,शोधार्थियों और  छात्रों  के मध्य उत्तर आधुनिकता की बातें करते- करते कातर हो  हांफने लगे और तो और  रुंधे गले से घिघियाने  लगे-  
"ऐसी विकास हमें नहीं चाहिए ,जहाँ मनुष्य को केवल सामाग्री या संसाधन समझा जाए ! "
            इस तरह वे श्रोताओं में  मानवतावादी दृष्टिकोण वाले किसी परम संत सदृश्य लगने लगे ।उन्हें भी  इनकी भाव बोध हुआ और पल भर में वे आत्ममुग्धता से ग्रसित हो गयें।
      खूब आव भगत व मान- सम्मान से लदे -फदे कार की पीछे सोफेवाली सीट पर धम्म से पसर गयें। उन्हें अब भी प्रशंसक हाथ जोड़कर / हिला कर अभिवादन कर रहें हैं...
        थोड़ी देर बाद  रेड सिग्नल के समीप  सड़क किनारे रुके  ड्राईवर को आदेशित करते कहे - 
     "मिरर चढाओं ! देखों उधर , दो- तीन ,मैले -कुचैले  बच्चें भिक्षाटन हेतु इधर ही लपक रहे हैं। "
         अपनेआप बुदबुदाने लगा -'ये सामाज की विद्रुपताएं हैं ।इनकें  तो बाप तक का  पता नहीं !हरामी !नाली के कीड़े  ! यह भी उत्तर आधुनिकता के प्रोडक्ट हैं।'  प्रकट्य - "इनसें  संक्रामक रोगों का इंफ्केशन बढ़ते  हैं। ये बीमारी फैलाने वाले वायरस हैं। इनसे बच के रहो।"
  तभी ड्राईवर ,डोर की  मिरर चढ़ाते हुए पोली जगह से  एक रुपये का सिक्का गिराते कहे - 
          "जी सा' ब ! आख़िर  आदमी का बच्चा हैं।"

             -डाॅ.अनिल भतपहरी / 9617777514 
सत श्री ऊंजियार सदन अमलीडीह रायपुर छ ग

Tuesday, May 4, 2021

काकर घन तेरा

कोरोना काल में भी धनतेरस आबाद रहा उन पर एक छत्तीसगढी कविता  जो आज ५ म ई को पत्रिका में ‌प्रकाशित हुई।

काकर धन तेरा ( स )

बरसे बेरा कुबेरा 
काकर धन तेरा 
अजब हवे लुटेरा 
सांझ का सबेरा 
परे बिपत घनेरा
कुलुप बस्ती डेरा 
शहर अंजोर तेरा 
सुख ले लुटिन लुटेरा 
हमर जिनगी अंधेरा
काकर हवे धनतेरा 
ये जिनगी के फेरा 
लीले सुख्खा कौंरा 
भइगे सरग निटोरा 
सरकार कोंदा -भैरा 
बाचे हवय देवारी  
कछु करय संगवारी  
किसान रोवे हांसे बैपारी 
ऐसन बात नइये संगवारी 
गलत-सलत नियाव-नीति
देखे बर दु:ख ओकरे सेती 
झेलत हवय  देश मंदी 
ओखी के खोखी नोट बंदी 
ऊपर से कोरोना महामारी 
माते सब डहन हाहाकारी 
इंहा तो हवे सबके करलाई 
बाढ़त हे सुरसा कस महंगाई 
लगे दु:ख पीरा के ओरी 
कइसन देवारी अउ काखर देवारी 
सिरतोन अब तही बता संगवारी 
गुनत गोठ भंजावत मन मेरा 
बिपत मं अब काकर धन तेरा (स)

    डाॅ. अनिल भतपहरी/ 9617777514
     सत श्री ऊंजियार सदन अमलीडीह रायपुर

पुराने प्रतिमानों का मोह

।।पुराने प्रतिमान और उनके प्रति मोह ।।

       आधुनिक ज्ञान -विज्ञान और उनसे होते यंत्रिकीकरण विकास  या युगानुरुप  नव प्रवर्तन बहुत कुछ पुराने मानदंडों यहाँ तक उनसे जुड़ी सांस्कृतिक तत्वों की  बलि ले लेता हैं।  या शैन: शैन: उनके प्रचलन कमतर होते जाते हैं।जैसे ढेंकी - जाता आदि। उसी तरह जन्म  विवाह मृत्यु  आदि में भोज और तरह- तरह के कर्मकांड आदि में अपेक्षित बदलाव या आंशिक सुधार होना या फिर  देखा -देखी या  छद्म पद- प्रतिष्ठा आदि के निमित्त भौंडें  प्रदर्शन का चलागन बढ़ना । 
     मध्यम मार्ग संतुलित विकास का बेहतर माध्यम हैं मानव समुदाय को चाहिए कि सदैव बीच का रास्ता अख्तियार करे व सोच -समझकर प्राचीन व अर्वाचीन चीजों में युक्तियुक्त समन्वय करें।
देखा जाय तो अब गाँव अधिक आत्मनिर्भर व संसाधनो से युक्त हो रहे हैं। यह अच्छी बात हैं।  लोग भौंडें शहरी आकर्षण व नकल में फंस रहे हैं ।भले  चंद संस्कृति व कला प्रेमियों के लिए यह सब  दु:खदाई  हो सकते  है पर सबके लिए नहीं ।
        पहले- पहल  तो  आग तक मांगे जाते रहे हैं। यह एक सांस्कृतिक अनुष्ठान के मांनिद स्मरणीय भी है अनेक कथा- कहिनी कविता इन पर मिल जाएन्गे पर इससे क्या ? इससे जन जीवन में विकास का उजास हो पाना संभाव्य नहीं । क्योंकि आग को दूसरे दिन के लिए  बचाने हेतु आपको एक गोरसी कंडे और भूसे कटकरा आदि चाहिए। यह सब माचिस की एक तीली से क ई गुणा महंगी और दुरुह संशाधन है जिसे बना पाना हर किसी की बात नहीं । गोरसी रखना सम्पन्नता का प्रतीक हैं। उनकी आग  निःशुल्क प्रदेय है पर उनके लिए नब्बे अंश झुकना या साष्टांग प्रणाम और जीवन भर मुँह नहीं खोलना तक रहा है।   
           देखा जाय तो  ज़रा -ज़रा सी चीजों जो जीवन निर्वाह के  लिए बेहद आवश्यक थे का, लाले पड़ते थे।  लोगों को भरपेट खाने के लिए अन्न -सब्जियां तक सहज उपलब्ध ‌नही थे। बड़ी मुश्किल  से बड़े बांध और  हरित क्रांति के चलते आत्म निर्भरता आई ।‌ सच कहे तो छत्तीसगढ़ में गंगरेल -बांगो  भिलाई कोरबा नही होते तो यहाँ  का अभिशाप ग़रीबी  कभी दूर नहीं होते ।  (बल्कि जीवन स्तर को बेहतर करने के लिए अब भी इस तरह की बड़ी परियोजना चाहिए पर विगत 40-50 साल से  जनमानस राजनैतिक  धर्म जाति संप्रदाय  व उनके धार्मिक आयोजन व निर्माण आदि के  मकड़जाल उलझा हुआ हैं। )बिना इनके   अकाल अन्यथा सुखा  या पनिया अकाल के ग्रास जन जीवन ही बनते रहे हैं। और व्यापारी मुड़कट्टी बाढ़ही देकर उनके खेत- खलिहान पशुधन आदि हड़पते रहे हैं। महज‌ एक बोरा धान के बदले महाजनों के पास किसान  खेत की पट्टा गिरवी रखते या बेचते देखे जा सकते हैं। अनगिनत उदाहरण भरा पड़ा हैं।
          जमींदार के पास भी पाँच- सात  जोड़ी कपड़े और दो- तीन  जोड़ी जूते बमुश्किल हुआ करते थे। तब भी उनकी अकड़ व घमंड  जग जाहिर रहा है। धनाड्य औरतें तो जेवर और कोसाही लुगरा के लिए महिनों आर्डर दे के रखी रहती, नई  बन के आते तक  तक  जो पहनी रहती हैं वो मुए प्रतिष्ठा के चलते पहिनने लायक नही रहती ।   पर गरीब व  मध्यमवर्गीय महिलाओं के लिए बस दीवाली और तीजा ही एकमात्र आस रहती कि लुगरा माला मुंदरी मिल जाय। कपड़े की बेहद कमियाँ थी आज भी सुदूरवर्ती वन क्षेत्र अर्धनग्नावस्था में जीवनयापन करने विवश हैं। सर पर छत नहीं खदर छानी व यदा कदा खपरैल था उस खपरैल और दुतल्ला मकान का खौफ भी गाँव भर में ‌रहते शहरी आदमी व महकमें यही आकर मंद और कुकरा -बकरा  भात खाते थे।  और मजे की बात की उसी बाडे के परसार  में नवधा और भागवत होते गाँव के लोग साल भर की‌ कमाई को अगले जन्म सुधारने पंडे को‌ दान चढा देते। पंछे में गांठ बांध पंडा तिल्दा  भाटापारा निपनिया रेल स्टेशन से काशी ईलाहाबाद  चले जाते । गाँव के दार भात खाते असकटा कर जगन्नाथ के भात को जगत पसारे हाथ सुनकर वहाँ भी किंदर कर आते और गाँव भर को अछूत पन के उतारा झारा झार दार -भात खवाते । सच कहे तो यह भी निर्धनता और नियति को भोगते रहने का एक खूबसूरत इंतजाम जैसा ही  है। 
      पताल पाउडर  से सब्जी और सेमी मखना खोइला चना तीवरा भाजी की सुक्सा से काम चलाने होते थे। गरीब तो कुरमा से ही कढी खा लेते थे। जीवन भले सरल रहे परन्तु आधार भूत चीजों की कमी से बेहद जटील जीवन पीढ़ी जीया है। ऊपर से वर्ग संघर्ष, जातिय भेदभाव का दंश  अलग।  नीरिह गाँव वाले शहरी लोगों से ठगाते -लुटाते रहे हैं।  आज भी ग्रामीणों की नजर शहर चोर उचक्कों के अड्डे हैं और गाँव गंवार और दरुहा- मंदहा हैं।इस तरह देखा जाय तो बहुत सी चीजों का नंदा जाना ही बेहतर जीवन के लिए श्रेयस्कर हैं।
   बहरहाल बहुत कुछ  जो हमारी संस्कृति व अस्मिता के प्रतिमान हैं। सुखमय व निरोग या लंबी आयु के कारक है ,वह  नंदाये न बल्कि उनका संरक्षण हो  
        आज गांव के बच्चे चिमनी के जगह बल्व से पढ़ रहें हैं वह बहुत ही अच्छा  हैं। इसी तरह यदि स्लेट के जगह यदि कम्पुटर स्क्रीन मिल जाय और ‌मास्टर जी को तखत पट्टी व  चाक  के जगह डिजिटल बोर्ड व  ई पेन मिल जाय तो कोई बुराई नहीं ।
    एकबार हमारे पारंपरिक प्रतिमानों के जस गायक कवि मित्र  नंदा जही का, नंदा जही का - कहने लगे उन्हें विनम्रता पूर्वक मजा़किए मुड में कहां  - "येमन नंदाइ गे हवे अउ नदां भी जाना चाही ।" जइसे  नागर के जगा टेक्टर अउ  दौरी -बेलन के जगा  हार्वेस्टर हे त कोन्हो बुराई नइ हे।" 
  हालाँकि इनके चलागन से कृषि मजदूरों और हरियाणा पंजाब के लोगों को यहाँ से लाखों -करोड़ों कमाते हमने भी मंचों में अलाप भरे- 
 नागर नंदागे अउ टेक्टर आगे 
हसियां हिरागे अउ हरवेस्टर छागे 
चिटको मं नाहकत हे दाउ के काम 
जिनगीं क इसे चलही राम ....
सिरावत हे गाँव ले जम्मों बुता काम ..

  हा गाँव में शहर जैसे अनबोलना ,ईर्ष्या ,बैर -भाव और पार्टीगत मतभेद- मनभेद न हो ।ढे़की -जांता के संग २१ सदी के बालक या युवा जी नहीं सकते ।
  बहरहाल स्मृतियाँ सदैव मनभावन ही लगते चाहे आदमी मौत के मुँह से बच कर ही क्यो न आया हो। जीवन बचाने सांवा बदौरी और करगा के  रोटी -भात खाए हो । अकाल में  ठेलका- बुंदेला खाए  हो  या  तालाब सुख जाय तो ढेस व केसरवा कांदा उबाल कर खाने विवश रहे हों। मोह के प्रतिमानों पर विजय पाना सहज नहीं और न ही मोह छोड़ देना सहज‌ हैं। वैसे भी साठ के बाद आदमी चलता - फिरता संग्रालय (म्युजियम ) हैं।
         गाँव , शहरों व  कथित पढे -लिखे शातिर  लोगों के शोषण से बचे और उनकी परिश्रम का पुरा कीमत व उन्हें अपेक्षित मान- सम्मान मिले यही चाह हैं। 
    कोरोनाकाल में सभी संयमित विटामिन युक्त अल्पाहारी व सामाजिक दुरी सहित मुखटोप लगाकर अपना और अपने आसपास को जागरुक कर बचायें और शासन की सभी योजना व उपायों पर त्वरित अमल में लांए । यह टिप्पणी केवल  सकरात्मक नव प्रवर्तन के स्वागतार्थ हैं। क्योंकि स्वास्थ्य व  जीवन हैं तो सब कुछ हैं।  

      धन्यवाद।
 
डॉ अनिल भतपहरी / 9617777514

Monday, May 3, 2021

सखा को पता

हो कितनें  कष्ट  

या हो जाए ख़ता 

तो सखा को ही

होते हैं बिन कहे पता 
      -डॉ॰ अनिल भतपहरी

सुरता केयूर भूषण

सुरता केयूर भूषण 

सम्मति कब होही बिहान 

सतनाम धर्म एंव संस्कृति पर अगाध श्रद्धा रखने वाले श्रद्धेय केयूर भूषण जी से १९८७-८८ में महाविद्यालयीन शिक्षा ग्रहण करने रायपुर आते ही  मिलन - भेटन हो गये। कारक रहे हमारे पूज्य पिता सुकालदास भतपहरी  के  साहित्यिक मित्र  पं. सरयू कांत झा जी जो कि मूर्धन्य साहित्यकार विचारक और  प्राचार्य छत्तीसगढ महाविद्यालय रायपुर थे । झा साहब  कोसरंगी स्कूल में‌  प्राथमिक शिक्षा लिए  थे और जब  वहाँ हाई स्कूल ़
  तब वहाँ  के प्र प्राचार्य हमारे पिता जी रहे।जब- जब वे रायपुर से अपने गृहग्राम परसदा आते तो अक्सर मुझे उन्हे अपनी राजदूत मोटर साइकिल से पहुचाने का सौभाग्य मिलता।  इस बहाने हमें  उनकी आशीष व प्रेम मिला।वे  बाल्यकाल से ही हमारी काव्य व गीत लेखन पठन को प्रोत्साहित ही नहीं दो -तीन बार सम्मानित भी किए थे। वे कोसरंगी स्कूल के विभिन्न समारोह में मुख्य या विशिष्ट अतिथि के रुप से आमंत्रित होते ही रहते थे। और अक्सर जब वे गांव में होते तो हमे ही लाने या ले जाने होते थे।
                 गुरु घासीदास छात्रावास आमापारा रायपुर में रहकर दुर्गा महाविद्यालय में अध्ययन रत रहे। हमारे संरक्षक व पिता श्री के दूर के पर सगे  मामा  स्वतंत्रता संग्राम सेनानी व मंत्री कन्हैयालाल कोसरिया  जी रहे।वे और वार्डन रामाधार बंजारे जो कि अमीन पारा छात्रावास संचालित करते अक्सर केयूर भूषण जी गुरुघासीदास जयंती या अन्य समारोह मे आते । मंत्री कोसरिया जी के  शिक्षक  व कवि पुत्र रामप्रसाद कोसरिया व उनके मित्र सुशील यदु जी वही सब मिलकर ही हमे काव्य गोष्ठी में ले गये जहां स्वनाम धन्य रचनाकारों जिनमें हरिठाकुर बंसत दीवान  सरयुकांत झा मन्नुलाल यदु रामेश्वर शर्मा त्यागी जी जागेश्वर प्रसाद जी एस दिल्लीवार   जैसे  अनेक छत्तीसगढी प्रेमी साहित्यकारों /चिन्तको से हमारा परिचय हुआ और लेखन- प्रकाशन का दौर चल पडा। हमें समिति में कार्यकारिणी ‌सदस्य बनाएं गये ।
     इस बीच केयूर भूषण का बुढा- नाती वाला दुलार मिलते रहा। हमारी कृति" जय छत्तीसगढ" को   वंदना  सदृश्य  छत्तीसगढी सेवक द्वारा दी जा रही अखंड धरना गुरु घासीदास चौक के समीप कलेक्टर परिसर में २-३ बार गान करने का अवसर आया। जागेश्वर दीनदयाल वर्मा  चन्द्रशेखर वर्मा सुखदास बंजारे श्यामराव वंडलकर  डाॅ  सीताराम साहू आदि   हम लोग वहां बैठते और काव्यपाठ आदि करते । इस दरम्यान पृथक छत्तीसगढ हेतु लेख कविता लिखे छपे और फिर १९९५ -९६ में प्रध्यापकी की नौकरी करने पेन्ड्रारोड जाना हो गया और रायपुर की साहित्यिक मित्र मंडली से दूर भी ।
  ११-१२ वर्ष बाद   २००७ में हमारी काव्य संग्रह " कब होही बिहान " प्रकाशित करवाने सुधीर शर्मा भैय्या के वैभव प्रकाशन में बलौदाबाजर से आकर बैठे परिचर्चा कर ही रहे थे कि आदरणीय केयूर भूषण जी का दर्शनलाभ हुआ। प्रणाम करके अपना परिचय दिया ।थोड़ा सा स्मृत करने के उपरान्त  प्रफूल्लित हो कहने लगे बड दिन बाद मिलत हस अनिल.. कहां हस. अउ का करत हस ? एक साथ प्रश्नों  के घेरे में संक्षेप में सबकुछ बताया और कहा कि यह काव्य संग्रह प्रकाशित करवाने आया हूं ।तब सुधीर भैय्या से उतना परिचय नही था जितना केयूर भूषण जी से रहा .... वे कहे दिखाव  ..वे टाइप की हुई पांडुलिपि  देखे ... और कहे एखर भूमिका या सम्मति कोन्हो कना लिखवाय हस? मे कहेंव नहीं ... फेर का गुनत कहीस मय लिख दंव ? ... सच कहे तो मुझे ऐसा कुछ लिखवाने की ईच्छा ही नही था ।सो .... तभी सुधीर भैय्या कहे लिखवा लो ,अच्छा ही होगा ।.फिर वे उस पांडुलिपि को ले गये । हरेली त्योहार छुट्टी के दिन सम्मति और पांडुलिपी को घर  आकर ले जाने की बाते  तय हुआ  और वापस बलौदाबाजर आ गया।
        उनके घर गया बडा ही आत्मीय भाव व प्रेम मिला  और सतनाम संस्कृति मिनीमाता के अनुभव और हमारी काव्य संग्रह में वर्णित भावो पर गहन व सार्थक विचार धन्टो चला।
   सम्मति में उनके एक  शब्द  बाल्मिकी वाली वाक्य   को हटाने का निवेदन किया कि यह शायद कोई स्वीकृत करे न करे आपत्तिजन्य व कही आगे हमारे लिए अन्यान्न अर्थ न ले कोई   वे कहे- " नहीं ! मोला ज इसे लगिस ओसने लिखे हंव झन हटा ।हटाबे त मोर सम्मति ल मत रखवा।"
     प्रकाशन के बाद उन्हे भेट करने गया वह बहुत ही खुश हुआ।और अपने अनुभव सागर से हमे अनेक मोतियां निकाल देते रहें .... ऐसे सहज पर अनुभव के सागर ,सरल हृदय ,पीयर पीपर के पाके पाना ...हम जैसों को  अपनी वृहत्त धरोहर  से चंद मोतिया सौप कर जाना ....माटी के चोला माटी मे मिलना ही नहीं .बल्कि उसके बाद भी सदैव चमक बिखेरते रहना ही हैं ..... विनम्र श्रद्धांजलि सत सत  नमन
-डॉ॰ अनिल भतपहरी/ 9617777514

पंचक 12

पंचक -12 पाँच पंक्ति के

 ।।चौरासी ।‌।

आवय नहीं धर-धर  रोवासी 
अउ न तो खल- खल  हांसी 
दु:ख न संसो फेर ये का फांसी 
लगय मोला अजब  कौव्वासी
 अइसे कटय बेरा जइसे चौरासी 

       -डॉ. अनिल भतपहरी

Saturday, May 1, 2021

मजदूर दिवस

मजदूर दिवस 

अब तो एक मई मं 
मजदूर- मालिक ल 
एकमई  होना चाही 
देशहित बर सब झन 
जुरमिल के ससन भर
रात-दिन कमाना चाही 
तभेज तो गाँव शहर मं 
सुख -सुम्मत के अंजोर 
सिरतोन मं बगरत जाही 
     -डॉ॰ अनिल भतपहरी